श्री गिरीश पंकज
सद्भावना दर्पण (भारतीय एवं विश्व साहित्य की अनुवाद-पत्रिका) के संपादक श्री गिरीश पंकज कलम के दम पर जीवन यापन करने वाले चंद लोगों में से एक विशिष्ट साहित्यकार हैं । चर्चित व्यंग्यकार गिरीश पंकज नवसाक्षर साहित्य लेखन में सिद्ध है । वे साहित्य अकादमी नई दिल्ली के सम्मानित सदस्य हैं, छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के प्रांतीय अध्यक्ष है। इनके ब्लाग हैं गिरीश पंकज का नया चिंतन और गिरीश पंकजमाँ को याद करना उस पावन नदी को याद करना है, जो अचानक सूख गई और मैं अभागा प्यासा का प्यासा रह गया । अब तक । याद आता है, वह महान गीत, जिसे मैं बार-बार दुहराता हूँ मंत्र की तरह, कि ऐ माँ, तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी । उसको नहीं देखा, हमने कभी, पर उसकी जरूरत क्या होगी । दो दशक पहले माँ मुझे छोड़ कर चली गई । हम चार भाई-बहनों को अपने स्नेहिल स्पर्श से वंचित कर गई । हमेशा-हमेशा के लिए । पहले उसने हम बच्चों का लालन-पालन किया । हम लोगों की देखभाल के कारण स्वास्थ्य गिरता गया और एक दिन उसने बिस्तर पकड़ लिया । फिर बहुत दूर चली गई । कभी न लौटने के लिए । माँ को कैंसर के भीषण दर्द से मुक्ति मिल गई लेकिन हमको जीवन भर का दर्द दे गई ।
आज जब कड़ी धूप में कहीं कोई छाँव नजर नहीं आती तो याद आती है : मां ।
जब कभी मुझे ठोकर लगती है तो मुँह से निकलता है : माँ ।
जब कोई भयावह मंजर देखता हूँ तो विचलित हो कर जेहन में कौंध जाती है : माँ ।
भय से, दुख से, शोक से, उबरने का मंत्र हो गई : माँ ।
ऐसी प्यारी माँ को आज फिर याद कर रहा हूँ । भाई परदेशीरामजी ने याद दिला दिया । उनके कारण एक बार फिर माँ का चेहरा जीवंत हो कर सामने आ गया है । लग रहा है । कि वह मेरे सामने बैठी है और मेरे सिर पर अपने हाथ फेर रही है । इस भीषण गरमी में भी शीतलता का अहसास हो रहा है । माँ शब्द में एक जादू है । मेरी आँखे नम हैं, लेकिन ये नमी माँ को वापस लाने की ताकत नहीं रखती । फिर भी इतना तो है, कि माँ अमूर्त हो कर ही सही, मेरे ईद-गिर्द बनी रहती है । माँ, तुम्हारे जाने के बाद पिताजी अकेले पड़ गए हैं । बेबस । मैं उनकी पीड़ा को समझ सकता हूँ, लेकिन इस सत्य से हम सब वाकिफ हैं, कि जो लिखा है, वह घटित हो कर रहेगा । लेकिन तुझे न भूल पाने की एक व्यवस्था हमने कर ली है । ड्राइंग रूम की दीवार पर टँगी माँ की मुस्कारती हुई तस्वीर रोज मेरे सामने रहती है । इसी बहाने माँ की नजर भी मुझ पर पड़ती रहती है । माँ तुम्हारे संस्कारों की ऊँगलियाँ पकड़ कर मैं जीवन की ये कठिन राहें पार करने की कोशिश कर रहा हूँ । वे हर पल मुझे हिदायत देती-सी लगती है, कि बेटे कोई गलत काम मत करना, वरना तेरे कान खींच लूँगी । बस, मैं सावधान हो जाता हूँ ।
आज भी माँ मुझे गलत कामों से रोकती रहती हैं । माँ को याद करता हूँ, तो बहुत-सी घटनाएँ कौंध जाती हैं । क्या भूलूँ, क्या याद करूँ ? फिर भी एक-दो घटनाएँ जो अभी तत्काल कौंध रही हैं, उन्हें सामने देख रहा हूँ ।
तुझे याद है न माँ, बचपन में एक बार मैं चोरी-छिपे सिनेमा देखने गया था, तो तूने मेरी जोरदार पिटाई की थी ? उस पिटाई ने दवाई का काम किया और उसके बाद मैंने चोरी-छिपे सिनेमा देखने की आदत को छोड़ दिया । जब कभी कोई नई फिल्म लगती और माँ को लगता था, कि यह फिल्म उनका बेटा देख सकता है, तो मुझे पचास पैसे दे कर कहती थी, जा बेटा, सिनेमा देख आ । मैं खुश हो जाता था, लेकिन फिर डरते-डरते पूछता ता, माँ, पिताजी कुछ बोलेंगे तो नहीं ? तब तुम मुस्कारते हुए कहती थी - चिंता मत कर बेटा । मैं हूँ न । वे कुछ नहीं बोलेंगे । और जो कुछ बोलेंगे, तो मुझे बोलेंगे । तू तो जा, लेकिन देख: संभल कर जाना । सड़क के किनारे-किनारे चलना । कोई अनजान आदमी कुछ खिलाए तो मत खाना । किसी के बहकावे में आकर कहीं मत जाना । सीधे घर आना । इधर-उधर मत घूमते रहना ।
पता नहीं कितनी हिदायतें एक साथ दे दिया करती थीं तुम । उस वक्त तो लगता था, कि माँ तो मुझे बस एकदम बच्चा ही समझती है । हर घड़ी निर्देश ही देती रहती है । लेकिन आज जब मैं एक बच्चे का पिता हूँ और अपने बच्चे साहित्य की तरह-तरह को निर्देश देता रहता हूँ, और उसकी माँ भी कदम-कदम पर न जाने कितनी हिदायतें उसे देती रहती है, तब समझ में आता है, कि मां की करूणा, उसकी भावना क्या होती है । पिता तो फिर भी थोड़ा अलग किस्म के जीवन होते हैं, अपनी कामकाजी दुनिया में मस्त लेकिन माँ अपने बेटे के भविष्य को लेकर एकाग्र रहती है । माँ क्या है ? निर्मल-शीतल जल । आँसू की गगरी । जब-तब झलकती रहती । मैं अपनी माँ को इस रूप में देखता रहता था । खेलते-खेलते कहीं मुझे चोट भर लग जाए तो माँ की आँखों में आँसू भर जाते थे । छोटी-सी चोट भी माँ को बहुत बड़ी नजर आने लगती थी । पूरे घर को सिर पर उठा लेती थी कि हाय-हाय, देखो तो कितनी चोट लग गई है । मेरा कभी पढ़ने का मन नहीं होता था, तो कभी स्कूल से गोल मार दिया करता था । हर लड़का शायद ऐसा ही करता है, जब वह बच्चा होता है । उसे प्रेम से समझाने का काम माँ ही करती है । मेरी माँ मुझे स्नेहिल-स्पर्श के साथ समझाया करती थी, कि बेटे, मन लगा कर पढ़ाई कर । तुझे दुनिया में हम सब का नाम रौशन करना है । पिताजी के सपनों को पूरा करना है । मुझे याद है, कि माँ की समझाइश को एक कान से सुनता था और दूसरे कान से निकाल देता था । मुझ पर माँ की समझाइश का कितना असर हुआ, यह तो याद नहीं, लेकिन माँ की हिदायतें मुझे अब तक याद हैं ।
एक रोचक घटना याद आ रही है । मैं तब दस साल का था । पिताजी किसी काम से बाहर गए हुए थे । राशन लाना जरूरी था । एक दिन माँ ने कहा, बेटा, जा राशन ले आ । माँ ने राशन कार्ड दे दिया । कुछ पैसे भी जेब में रख दिए । समझा दिया कि सीधे दूकान जाना । राशनकार्ड दिखाना और राशन ले कर लौट आना । मैं चला गया । जिंदगी में पहली बार घर का कुछ सामान लेने निकला था । मन में विकट उत्साह था । राशन दुकान के सामने पहुंच गया । वहां भीड़ थी । मैं किनारे खड़ा हो कर सोचने लगा, कि राशन लूँ तो कैसे लूँ । तभी एक व्यक्ति मेरे पास आया । उसने कहा, क्यों राशन लेना है ? मैंने सिर हिला दिया । वह आदमी बोला-चिंता मत करो । मैं हूँ । अभी दिलाता हूँ राशन । थोड़ी देर बाद वहीं आदमी आया । उसके हाथ में बूँदी से भरा एक दोना था । उसने दोना मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, तुम वहाँ आराम से बैठ जाओ । मैं तुम्हारा राशन ले कर आता हूँ ।
मुझे लगा, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है । मैंने खुशी-खुशी अपना झोला, राशन कार्ड और पैसे उस आदमी के हवाले कर दिए और एक किनारे बैठ कर बूँदी के मजे लेने लगा । लेकिन थोडी देर बाद वह आदमी मेरी आँखों से ओझल हो गया तो मैं हड़बड़ाया । अरे, वो कहाँ गया ? मैंने इधर-उधर देखा मगर वह कहीं नहीं दिखाई पड़ा । अब मैं घबराया । समझ गया कि उस आदमी ने पाँच पैसे की बूंदी खिला कर मुझे ठग लिया । उस आदमी को इधर-उधर न पाकर मैं रोने लगा । मैं रोता जाता और साथ में बूँदी भी खाते जाता । रोते-रोते घर पहुँचा, खाली हाथ । मां ने पूछा - राशन कहां है, तो मैंने सारी राम कहानी बता दी । मुझे लगा कि अब बुरी तरह पिटाई होगी । लेकिन माँ ने ऐसा कुछ नहीं किया । उल्टे मुझे गले से लगा कर डबडबाई आँखों के साथ वह बोली - रो मत बेटे । कभी-कभी ऐसा हो जाता है । तू घर वापस आ गया न । यह बड़ी बात है । वो बदमाश हमारा राशन ले कर भाग गया तो कोई बात नहीं । कहीं तुझे उठा कर ले जाता तो मैं कहीं की न रहती ।
माँ, पिताजी मारेंगे तो नहीं ? मैंने डरते-डरते पूछा
तू चिंता मत कर । मैं कह दूँगी कि राशन कार्ड मुझसे कहीं खो गया है । माँ ने मुझे हिम्मत दी ।
मां की बात सुन कर मैं उनके आँचल से लिपट गया और बहुत देर तक रोता रहा । माँ मुझे बहलाती रही । फिर भी मैं चुप नहीं हुआ तो वह अचानक बोली - गुलगुला खाएगा ?
गुलगुले की बात सुन कर मैं चुप हो गया । माँ ने बड़े प्रेम से गुलगुला खिलाया, फिर बोली - जा, बाहर खेल कर आ जा । संभल कर खेलना । चोट न लग जाए ।
आज यह घटना मुझे याद आती है, तो मुस्करा पड़ता हूँ । लेकिन इस घटना के पीछे एक माँ की ममता की महागाथा को पढ़ता हूँ, तो उस महान माँ के प्रति सिर श्रद्धा से झुक जाता है ।
ऐसी अनेक घटनाएँ है, जब माँ ने मुझे पिताजी के हाथों पिटने से बचाया । पिताजी अक्सर नाराज होकर माँ पर गुस्सा उतारा करते थे, कि तुम लड़के को बिगाड़ रही हो । माँ कुछ नहीं बोलती थी । बस, चुप रहती थी । चुप रहना भी प्रतिकार करने की एक बड़ी ताकत है । माँ मुझे अपने आँचल में छिपा कर प्यार करती थी । मेरा बचपन शैतानियों से भरा था । पिता मुझे शैतानियों से बचाने के लिए प्रताड़ित करते थे, तो माँ पिताजी की प्रताड़ना पर स्नेह का मरहम लगा कर मुझे तरोताजा कर देती थी । आज मैं जो कुछ भी हूँ उसके पीछे पिताजी और माँ का बहुत बड़ा हाथ है । माँ का योगदान कुछ ज्यादा है । इस बात को पिताजी भी मानते हैं । माँ का वह कोमल स्पर्श मुझे अब तक याद है । उनका ममत्वभरा चेहरा मेरे सामने हैं । आज किसी भी नेक माँ को देखता हूँ, तो अपनी माँ याद आ जाती है । माँ को लेकर दुनिया के तमाम लोगों ने बहुत-सी कविताएँ लिखी हैं । मैंने भी कोशिश की है । पेश है एक गजल -
अम्मा
दया की एक मूरत और सच्चा प्यार है अम्मा
है इसकी गोद में जन्नत लगे अवतार है अम्मा
खिलाकर वह जमाने की हमेशा तृप्त होती है
रहे भूखी न बोले कुछ बड़ी खुददार है अम्मा
वो है ऊँची बड़ी उसको न कोई छू सका अब तक
धरा पर ईश का इंसान को उपहार है अम्मा
नहीं चाहत मुझे कुछ भी अगर हो सामने सूरत
मेरी है ईद-दीवाली हर इक त्योहार है अम्मा
मैं दुनिया घूम कर आया अधूरा-सा लगा सब कुछ
जो देखा गौरे से पाया सकल संसार है अम्मा
पिता हैं नाव सुंदर-सी मगर यह मानता हूँ मैं
लगाए पार जो इसको वहीं पतवार है अम्मा
माँ, तुम जहाँ भी हो, मुझे आशीष देती रहना । तुम्हारी तस्वीर मेरे सामने हैं । रोज तेरा चेहरा देखता हूँ और तरोताजा हो जाता हूँ । लोग कहते हैं कि तुम मंदिर नहीं जाते, पूजा पाठ नहीं करते, तब मैं कहता हूँ, मैं जब माँ की तस्वीर को देखता हूँ, तो मेरी पूजा पूरी हो जाती है । मुझे कहीं जाने की जरूरत नहीं । फिर मैं वही मशहूर गीत दुहरा देता हूँ, कि ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी ? इंसान तो क्या देवता भी आँचल में पले तेरे । है स्वर्ग इसी दुनिया में कदमों के तले तेरे । तू है तो अँधेरे पथ में हमें सूरज की जरूरत क्या होगी ? ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी ?
गिरीश पंकज