
हर समाज, देश और प्रांत में अपना नाट्य रंग है। बस्तर के उड़ीसा सीमाई क्षेत्र में "नाट" का अपना अलग जलवा है। यही वजह है कि ऋतु परिवर्तन के साथ ग्रामीण नाट करने टोली के साथ निकल पड़ते हैं और दर्शक सारी रात खुले आसमान के नीचे बैठकर इसका आनंद लेते हैं। बस्तर के ग्रामीणों को नाट देखने या दिखाने के लिए किसी दिवस विशेष की जरूरत नहीं होती। नाट को ये जन्म से लेकर मृत्यु तक के हर संस्कार और समारोह का हिस्सा मानते और आमंत्रित करते हैं। जन्मोत्सव पर जहाँ श्रीकृष्ण और श्रीराम जन्म का पाठ करते हैं,वहीं मृत्यु भोज के दौरान राजा हरिश्चंद व मुंदरा माँझी को कलाकार जीते है। विवाह के दौरान शिव-पार्वती, राम-सीता विवाह का प्रसंग होता है। इसके अलावा अब शासकीय योजनाओं के संदेशों का भी नाट में कमर्शियल ब्रेक की तरह उपयोग होने लगा है। यहाँ कलाकार और दर्शक के बीच दूरी नहीं होती। क्योंकि नाट में नृत्य, गीत, संगीत, संवाद, साज-सज्जा, सहजता और सरल बोली होती है। जिसे दर्शक अपने आसपास के कलाकारों से पाता है और सारी रात खुले मैदान में गुजार देता है। रंगकर्मी और बस्तर नाट पर कार्य कर रहे रुद्रनारायण पाणिग्राही का कहना है कि उड़िया-भतरी नाट को राज्य सरकार संरक्षण और उचित मंच दे तो यह भी राज्य व विश्व में अपनी अलग छवि बना पाएगा अन्य आधुनिकता की होड़ में फिल्मी संगीत में खो जाएगा।
नाट कलाकार भी जमीन से जुड़े होते हैं और उनके गाँव की पहचान भी नाट पार्टी और कलाकारों से की जाती है। वे व्यावसायिक कलाकार न होकर शौकिया और अपनी व गाँव की पहचान बनाए रखने नाट खेलते हैं। अलबत्ता स्पर्धाओं में भाग लेकर अपनी विशेषता दर्शाते हैं। नाट में एक गुरु होता है, जो कथा पाठ के साथ सभी पात्रों के संवाद भी बोलता है। जबकि कलाकार केवल भाव भंगिमा प्रस्तुत कर लोगों को बाँधे रखते हैं। इनकी वेशभूषा भी तड़क-भड़क और रंगबिरंगी होती है। इसमें लहँगा, चोली, झापा, माला, साड़ी, टोपी और लकड़ी से तैयार हाथी-घोड़े और हथियार होते है। जबकि वाद्य यंत्रों में हारमोनियम के साथ मृदंग, मंजीरा, करताल, झाप, तुड़बुड़ी, मोहरी जैसे पारंपरिक यंत्र होते है।
बस्तरिया नाट में महिला पात्र को जीने के लिए महिला कलाकार नहीं होती। इसे पुरुष ही बड़ी सहजता के साथ निभाता है और दुर्गा के रौद्र रूप के साथ सीता क सहज रूप का श्रृंगार पुरुष ही धरता है. बस्तर के लोक नाट्य की सबसे बड़ी परंपरा यह होती है कि उसका कोई रंगमंच नहीं होता। यदि होता भी है तो वह है रंगभूमि, जो बस्तरिया नाट में मिलता है। यह मंच खुले आसमान और खुले मैदान में होता है जहाँ दर्शक तीन तरफ से बैठकर नाट का आनंद लेते हैं।
योगेंद्र ठाकुर