छत्तीसगढ़ी काव्य में अमर कवि कोदूराम ‘दलित’


28 सितम्बर : 46 वीं पुण्य तिथि पर विशेष
-विनोद साव (अमर किरण में 28 सितम्बर 1989 को प्रकाशित)

साहित्यकार का सबसे अच्छा परिचय उसकी रचना से हो जाता है | साहित्यकार की कृतियाँ उसकी परछाई है | रचनाकार का व्यक्तित्व, चरित्र, स्वभाव और दृष्टिकोण उसकी रचनाओं में प्रतिबिम्बित होता है | छत्तीसगढ़ी संस्कृति और साहित्य के धनी दुर्ग नगर में एक स्मय में ऐसे ही रचनाकार छत्तीसगढ़ी काव्य में अमर कवि कोदूराम ‘दलित’ उदित हुये जिनका परिचय उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत है :

“लइका पढ़ई के सुघर, करत हववँ मयँ काम
कोदूराम ‘दलित’ हवय , मोर गँवइहा नाम
शँउक मु हूँ –ला घलो, हवय कविता गढ़ई के
करथवँ काम दुरुग –माँ मयँ लइका पढ़ई के “

दलित जी छरहरे, गोरे रंग के बड़े सुदर्शन व्यक्तित्व के थे | कुर्ता, पायजामा, गाँधी टोपी और हाथ में छतरी उनकी पहचान बन गई थी | हँसमुख और मिलनसार होने के कारण सभी उम्र और वर्ग के लोगों में हिलमिल जाया करते थे | कविता करना उनका प्राकृतिक गुण था | उन्हीं के शब्दों में –

“कवि पैदा होकर आता है,
होती कवियों की खान नहीं
कविता करना आसान नहीं |“

रचना क्षमता प्रकृति प्रदत्त इस गुण के कारण ही दलित जी का रचना संसार इतना व्यापक है कि उन्होंने न केवल छत्तीसगढ़ी बल्कि हिन्दी साहित्य की सभी विधओं में भी लिखा | कवि की आत्मा रखने के बाद भी उन्होंने अनेकों कहानियाँ, निबंध, एकांकी, प्रहसन, पहेलियाँ,बाल गीत और मंचस्थ करने के लिये क्रिया-गीत (एक्शन सांग) लिखे | दलित जी की अधिकांश कवितायें छंद शैली में लिखी गई हैं | वे हास्य-व्यंग्य के कुशल चितेरे थे | व्यंग्य और विनोद से भरी उनकी कविता चुनाव के टिक्कस की पंक्तियाँ देखिये | चुनाव के पास आने पर नेताओं में टिकट की लालसा कितनी तीव्र हो जाती है –

बड़का चुनाव अब लकठाइस,
टिक्कस के धूम गजब छाइस |
टिक्कस बर सब मुँह फारत हें
टिक्कस बर हाथ पसारत हें
टिक्कस बिन कुछु सुहाय नहीं
भोजन कोती मन जाय नहीं
टिक्कस बिन निदरा आय नहीं
डौकी-लइका तक भाय नहीं
टिक्कस हर बिकट जुलुम ढाइस
बड़का चुनाव अब लकठाइस “|

स्वाधीनता के पहले जिन नेताओं ने देश के लिये त्याग और बलिदान दिया उनकी तुलना में वे आज के सुविधाभोगी नेताओं के विषय में कहते हैं | ध्यान दें छत्तीसगढ़ी की यह रचना हिन्दी के कितने करीब है –

“ तब के नेता जन हितकारी |
अब के नेता पदवीधारी ||
तब के नेता किये कमाल |
अब के नित पहिने जयमाल ||
तब के नेता काटे जेल |
अब के नेता चौथी फेल ||
तब के नेता गिट्टी फोड़े |
अब के नेता कुर्सी तोड़े ||
तब के नेता डण्डे खाये |
अब के नेता अण्डे खाये||
तब के नेता लिये सुराज |
अब के पूरा भोगैं राज ||

अंतिम पंक्ति में कवि जनता को जागृत करते हैं –

तब के नेता को हम माने |
अब के नेता को पहिचाने ||
बापू का मारग अपनावें |
गिरे जनों को ऊपर लावें ||

दलित जी ने अपना काव्य-कौशल केवल लिखकर ही नहीं वरन् मंचों पर प्रस्तुत करके भी दिखलाया | वे अपने समय में कवि-सम्मेलनों के बड़े ‘हिट’ कवि थे | तत्कालीन मंचीय कवि पतिराम साव, शिशुपाल, बल्देव यादव, निरंजन लाल गुप्त, दानेश्वर शर्मा आदि सब एक साथ हुआ करते थे | दलित जी को आकाशवाणी नागपुर, इंदौर और भोपाल केंद्रों में भी आमंत्रित किया जाता था जहाँ उनकी कवितायें और लोक-कथायें प्रसारित होती थीं | कवि सम्मेलनों में अनेक छोटे-बड़े स्थानों में वे गये | विशेषकर रायपुर, बिलासपुर, भिलाई और धमतरी के मंचों पर उन्होंने अपने काव्य-कौशल का डंका बजाया | शासकीय सूचना और प्रसारण विभाग द्वारा उज्जैन के कुम्भ मेले में भी काव्य-पाठ के लिये आमंत्रित किये गये थे | मद्य-निषेध पर उनकी कविता म.प्र.शासन द्वारा पुरस्कृत हुई |

मंचों में उनकी लोकप्रियता इस कदर बढ़ गई थी कि जब स्व. इंदिरा गांधी का 1963 में दुर्ग के तुलाराम पाठशाला में आगमन हुआ था तब स्वागत के लिये दलित जी को ही चुना गया | स्वागत गान की कुछ पंक्तियाँ देखिये –

धन्य आज की घड़ी सुहानी, धन्य आज की शाम
धन्य-धन्य हम दुर्ग निवासी,धन्य आज यह धाम ||

दलित जी एक साहित्यकार ही नहीं बल्कि एक योग्य अध्यापक, समाज सुधारक और संस्कृत निष्ठ व्यक्ति थे | वे भारत सेवक समाज और आर्य समाज के सक्रियसदस्य थे | जिला सहकारी बैंक के संचालक और म्युनिस्पल कर्मचारी सभा के दो बार मंत्री हुये तथा सरपंच भी रहे | वे जुझारू आदमी थे | 1947 में स्वराज के बाद शिक्षक संघ के प्रांतीय आंदोलन में कूद पड़े तो उन्हें और पतिराम साव जी को अन्य आंदोलनकारियों के साथ गिरफ्तार कर 15 दिनों के लिये नागपुर जेल में बंद रखा गया | जेल से छूटने के बाद इन दोनों को प्रधानाध्यापक पद से ‘रिवर्ट’ कर दिया गया | राष्ट्र के लिये शहीद सैनिकों को समर्पित उनकी पंक्तियाँ देखिये –

आइस सुग्घर परव सुरहुती अऊ देवारी
चल नोनी हम ओरी-ओरी दिया बारबो
जउन सिपाही जी-परान होमिस स्वदेश बर
पहिली ऊँकर आज आरती हम उतारबो ||

वे बच्चों में भी राष्ट्र-प्रेम की भावना भरते हुये कहते हैं –

उठ जाग हिन्द के बाल वीर, तेरा भविष्य उज्जवल है
मत हो अधीर, बन कर्मवीर, उठ जाग हिन्द के बाल वीर ||


उनके अनेकों बाल गीतों में एक गीत इस प्रकार है –

अम्मा ! मेरी कर दे शादी
ऐसी जोरू ला दे जल्दी
जैसी बतलाती थी दादी
न पाँच फीट से छोटी हो
न अधिक खरी न खोटी हो
हो चंट चुस्त चालाक किंतु
दिखलाई दे सीधी-सादी ||

दलित जी की रचनाओं का प्रकाशन देश की अनेक पत्रिकाओं में हुआ | उन दिनों नागपुर से-नागपुर टाइम्स, नया खून, लोक मित्र,नव प्रभात ,जबलपुर से –प्रहरी, ग्वालियर से ग्राम-सुधार, नव राष्ट्र, बिलासपुर से पराक्रम, चिंगारी के फूल, छत्तीसगढ़ सहकारी संदेश , दुर्ग से- साहू संदेश, जिंदगी, ज्वालामुखी , चेतावनी, छत्तीसगढ़ सहयोगी, राजनांदगाँव से जनतंत्र आदि पत्रिकाओं में इनकी कवितायें छपती रहती थीं |

दलित जी का जीवन अत्यंत संघर्षमय और अभावग्रस्त रहा | यही कारण है कि हजारों की संख्या में लिखी हुई अपनी रचनाओं का प्रकाशन वे नहीं करा पाये. सन् 1965 में पतिराम साव ,मंत्री हिंदी साहित्य समिति , दुर्ग के सहयोग से एक मात्र काव्य-संकलन “सियानी-गोठ” का प्रकाशन हो पाया. यह संकलन स्व.घनश्याम सिंह गुप्ता को समर्पित है. जिसमें तत्कालीन विधायक स्व.उदय राम वर्मा का संदेश है | “सियानीगोठ” काव्य संकलन कुण्डली शैली में लिखी गई है जिनमें 27 कुण्डलियों का समावेश है | उल्लेखनीय है कि कुण्डलियों के सभी कवि बीच में अपना नाम जरूर डाला करते थे लेकिन दलित जी ने कहीं भी अपना नाम नहीं डाला है | इसका लाभ समय-समय पर कुछ लोगों ने उठाया और दलित जी की रचना पर अपना अधिकार जताया है | यह संकलन विविध विषयों पर आधारित है | इसमें आध्यात्मपरक रचनायें हैं जैसे “पथरा”शीर्षक से –

“ भाई एक खदान के, सब्बो पथरा आयँ
कोन्हों खूँदे जायँ नित, कोन्हों पूजे जायँ ”

इस संकलन में हास्य रस, मानवीय सम्वेदना, जानवरों के नाम पर, राष्ट्र-प्रेम, दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं पर, विज्ञान की स्वीकारोक्ति है –

आइस युग विज्ञान के, सीखो सब विज्ञान
सुग्घर आविष्कार कर, करो जगत कल्यान

सरकारी योजनाओं पर जैसे पंचायती राज शीर्षक से –

हमर देश मा भइस हे, अब पंचयात राज
सहराये लाइक रथय, येकर सब्बो काज

विविध शीर्षकों पर लिखित ये कवितायें दलित जी के आधुनिक, वैज्ञानिक, समाजवादी और प्रगतिशील दृष्टिकोण होने के परिचायक हैं | उनकी अन्य रचनायें जिन्हें प्रकाशन की प्रतीक्षा है, वे हैं –

पद्य – हमर देस, कनवा समधी, दू मितान, प्रकृति वर्णन, बाल कविता और कृष्णजन्म | गद्य – अलहन, कथा-कहानी | प्रहसन, लोकोक्तियाँ, बाल-निबंध और शब्द-भण्डार आदि हैं |

दलित जी की स्मृति में 5 मार्च 1989 को उनकी 67 वीं जयंती रायपुर में मनाई गई | चंदैनी-गोंदा और कारी के निर्माता राम चंद्र देशमुख ने दलित जी का स्मरण करते हुये कहा – वे छत्तीसगढ़ के इतने ख्यात नाम व्यक्ति थे जिनके निधन का समाचार मुझे बम्बई के वहाँ के अखबारों में मिला| चंदैनी गोंदा के प्रथम प्रदर्शन में प्रथम गीत दलित जी का था | नाम के भूखे न रहने वाले दलित जी की “नाम” शीर्षक से प्रकाशित अंतिम कविता देखिये -

रह जाना है नाम ही, इस दुनियाँ में यार
अत: सभी का कर भला, है इसमें ही सार
है इसमें ही सार, यार तू तज के स्वारथ
अमर रहेगा नाम,किया कर नित परमारथ
कायारूपी महल, एक दिन ढह जाना है
किंतु सुनाम सदा दुनियाँ में रह जानाहै ||

(दैनिक अमर किरण और विनोद साव से साभार)
इस ब्लॉग में दलित जी पर अन्य पोस्ट इस कड़ी में देखें.

सोशल मीडिया और हिंदी ब्लॉगिंग : वर्धा में सत्य के प्रयोग

उंघियाते ब्लॉगिंग के बीच इस माह के आरंभ में रमाकांत सिंह जी का फोन आया और उन्होंनें पूछा कि वर्धा चल रहे हैं क्या. मैंनें अनिश्चितता की बात की तब भी उन्होंनें टिकट बनवा लिया, कहा संभव नहीं होगा तो बाद में रद्द करावा लेगें. हमने इसे गंभीरता से नहीं लिया और अपने काम में रमे रहे. इस माह में ब्लॉग व वेब से जुड़े तीन तीन कार्यक्रमों की घोषणा हो चुकी थी और हम अपनी व्यस्तता के कारण किसी भी कार्यक्रम के लिए मन नहीं बना पाए थे. काठमाण्डु में परिकल्पना लोक भूषण सम्मान झोंकना था, भोपाल में अनिल सौमित्र जी के आमत्रण पर बेव मीडिया के वैचारिक दंगल में शामिल होना था और वर्धा के सेमीनार का लाभ उठाना था. इन तीनों में से किसी एक कार्यक्रम में पहुचने की जुगत लगाते रहे किन्तु ऐन वक्त पर न्यायालयीन आवश्यकताओं के कारण काठमाण्डु और भोपाल के कार्यक्रमों को छोड़ना पड़ा. चंडीगढ़ उच्च न्यायालय के लिए निकल जाना पड़ा वापसी का कोई तय नहीं था, मन अधीर होने लगा कि वर्धा भी नहीं जा पायेंगें किन्तु चंडीगढ़ का काम जल्दी ही निपट गया और हम 19 को दुर्ग आ गए. हमने तय किया कि 20 को श्राद्ध पक्ष के आरंभ दिन तर्पण करके वर्धा के लिए निकल सकते हैं और उस दिन के दूसरे सत्र तक पहुच सकते हैं सो हमनें आते ही सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी (सत्यार्थमित्र) को फोन किया कि हम 20 को दोपहर आ सकते हैं क्या? हमने पूर्व में ही सिद्धार्थ जी को मेल कर विषय से संबंधित संक्षिप्त आलेख प्रेषित कर दिया था और उन्होंनें हमें जवाबी मेल में विश्वविद्यालय से स्वीकृति लेने व आलेख को विस्तार देने एवं वर्धा का टिकट करा लेने को कहा था. सिद्धार्थ जी नें हमें आने को तो कहा, किन्तु लगा कि हम 'लगभग अनामंत्रित' हैं. इस बहुप्रतीक्षित कार्यक्रम की व्यवस्था में ऐन वक्त पर आने से उन्हें परेशानी हो रही होगी यह बात सोंचे बिना, मैंनें उन्हें मेल ठेल दिया कि जब विश्वविद्यालय से स्वीकृति नहीं मिल पाई है तो हम नहीं आ रहे हैं आपसे फिर कभी भेंटेंगें.
सुबह ललित शर्मा जी का फोन आया, बोले कि वे वर्धा के लिए निकल गए है दुर्ग स्टेशन में मिलो साथ चलते हैं. अब सिद्धार्थ जी को मेल तो ठेल दिया था, अब किस मुह से वर्धा गवनें समझ में नहीं आ रहा था, बड़े भाई अली सैयद (उम्‍मतें) को फोन लगाया. उन्होंनें दुविधा और मेरी उत्सुकता को समझा और मुझे कहा कि मेरे अगले काल का इंतजार करो. उनका फोन आया, मुझे समझाया, बोले तुरत निकलो. मैं स्टेशन पहुच गया तब तक ललित भाई भी रायपुर से दुर्ग स्टेशन पहुंच चुके थे. ललित भाई दगा देते हुए नागपुर उतर गए और हम पहुच गए वर्धा.
मोबाईल की बैटरी की सांस टूट रही थी और हमनें टैक्सी लेकर महात्मा गॉंधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के पिछले दरवाजे से प्रवेश किया. दरवाजे पर तैनात दरबानों नें नाम पता पूछा और आयोजन स्थल का पता बता दिया. टैक्सी से उतरते ही ब्लॉगरों की बस भी वहॉं पहुंची, हर्षवर्धन त्रिपाठी और सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने पहचान लिया. राम राम कहते तक दूसरे सत्र का आगाज हो गया, हमें भी स्टेज पर बुला लिया गया हम भकुवाए से स्टेज की कुर्सी पर बैठ गए. सत्र का संचालन हर्षवर्धन त्रिपाठी (बतंगड़) नें आरंभ किया, विषय सुनकर हमारे ब्लॉगिया तोते उड़ गए. हम देर से पहुचे थे इस कारण हमारे द्वारा तैयार विषय पर सुबह ही चर्चा हो चुकी थी, आलेख खीसे में फड़फड़ाने लगा और 'क्या सोशल मीडिया राजनीति को प्रभावित कर सकती है' विषय पर अनूप शुक्ल (फुरसतिया), कार्तिकेय मिश्र (मैनें आहुति बनकर देखा..), पंकज झा और संजीव सिन्हा आदि नें सारगर्भित वक्तव्य दिए. अनिल रघुराज जी नें अनुरोध करते हुए अपने मूल विषय पर वक्तव्य पढ़ा तो लगा चलो हमारे खीसे की खुजली भी अब मिट जायेगी किन्तु जब डायस में खड़ा हुआ तो लगा इस सत्र में ज्ञानी वक्ताओं व श्रोताओं के बीच मैं ही एक कमजोर कड़ी रहा. हर्षवर्धन त्रिपाठी जी की बात गूंजती रही कि ऐसे कार्यक्रमों में पूरी तैयारी से आना चाहिए.
सत्र की समाप्ति के बाद साथी ब्लॉगरों से मिलना सुखद रहा, नागार्जुन सराय आते आते सांझ ढल चुकी थी. डॉ.अशोक कुमार मिश्र 'प्रियरंजन' जी के साथ कमरा साझा करते हुए फ्रेश होकर नीचे उतरे तब तक बाबा के सानिध्य में कुर्सियॉं जम गई थी. संतोष त्रिवेदी जी (बैसवारी) अपने तथाकथित गुरूदेव डॉ.अरविन्‍द मिश्र (क्वचिदन्यतोSपि...) से साग्रह गेय कविता सुन रहे थे. कविता पूरी भी नहीं हुई थी कि विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय जी सपत्नीक सराय पहुंच गए. हम सब उपर भोजन शाला पहुंचे और भोजन पूर्व डॉ.अरविन्द मिश्र जी नें मधुर गीत सुनाया. ब्लॉगरों के मोबाईलों से फोटो धड़ा धड़ खींचे जा रहे थे और फेसबुकिया अपडेट जारी हो रहे थे. भोजन के मेज पर सजे घिया और मुर्ग मस्सल्लम का झोर जैसे ही संतोष त्रिवेदी नें चुहका कि अविनाश वाचस्पति नें अपने फेसबुक वाल में देवदत्त शंख का नाद कर दिया, धर्म खतरे में पड़ गया. फेसबुकिया टिप्पणियों, संतोष जी के प्रायश्चितों के बोलबचन के साथ ही पुन: कविता सत्र आरंभ हो गया.
इसी समय कुलपति जी के बाजू की सीट पर बैठने का सुअवसर प्राप्त हुआ. हमने अपने परिचय में अपने ब्लॉगिया सफर के संबंध में उन्हें बताया कि हम छत्तीसगढ़ी भाषा के साहित्य को लगातार आनलाईन उपलब्ध करा रहे हैं एवं छत्तीसगढ़ के कला, साहित्य और संस्कृति से संबंधित विषयों पर ब्लॉगिंग करते हैं. कुलपति महोदय नें लोक भाषा व क्षेत्रीय अस्मिता पर काम करते हुए भी पेशेगत विषय में न्यायालयीन फैसलों पर ब्लॉग लिखने का सुझाव दिया, हमने बताया कि हमारा कानूनी विषयक ब्लॉग भी है किन्तु हम उसमें नियमित नहीं है तो उन्होंनें कहा कि उसे भी नियमित रखने का प्रयास करो. संक्षिप्त वार्ता को विराम देते हुए हमने  प्रवीण पाण्डेय जी, अनूप शुक्ल, शकुन्तला शर्मा व सिद्धर्थ शंकर त्रिपाठी जी की कविताओं का रसास्वादन किया फिर नीचे पुन: बाबा नागार्जन के पास कुर्सियॉं डाल के बैठ गए. रात लगभग बारह बजे इष्ट देव सांकृत्यायन  (इयत्ता) आए उनसे मिल कर हम सब अपने अपने कमरों में चले गए. भोजन शाला में कविता सुनते हुए कुलपति महोदय के साथ बैठने का एहसास निद्रा पूर्व मानस में छाया रहा. सहज व्यक्तित्व के धनी विभूति नारायण राय, भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी, हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित साहित्यकार, अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति, अपनी एक टिप्पणी से संपूर्ण विश्व साहित्य और वौद्धिक जगत में तूफान उठा देने की क्षमता वाले व्यक्तित्व के आस पास जमे रहने का लोभ इस कार्यक्रम के अंत तक मेरे मन में बना रहा. कुछ ऐसे कि उनकी आभा को पास रह कर महसूस कर रहा हूं.
रूम पार्टनर डॉ.अशोक कुमार मिश्र 'प्रियरंजन' जी से मेरी पहली मुलाकात थी, रात में उनसे ज्ञात हुआ कि उन्होंनें हिन्दी ब्लॉगिंग के संबंध में कई शोधात्मक आलेख लिखे हैं. उन्हें हिन्दी ब्लॉग जगत का खासा अनुभव है, इसका परिचय उनके अगले दिन के सत्र में उनके वक्तव्य में स्पष्ट नजर आया. सुबह सात बजे गांधी आश्रम, सेवाग्राम जाने के लिए बस सराय में लग गई और हम निकल पड़े सेवाग्राम के लिए बाबा का आश्रम देखने. अब लगभग शहर में बदल चुके सेवाग्राम के बीच में गांधी आश्रम अपने आप को समेटता हुआ नजर आया. लग रहा था कि आश्रम खुलकर लम्बी सांसे लेना चाहता हो और शहर की बिल्डिंगें उसे सांस भी नहीं लेने दे रही हो. खैर .. 1936 में जब गांधी जी नें इस आश्रम की स्थापना की थी तब यह वर्धा से दूर जंगल व बीहड़ में रहा होगा और मैंनें उसी आभासी समय में इस आश्रम में प्रवेश किया. दुवारे से फोटू सोटू सेशन चलता रहा और हम गॉंधी जी के रहन सहन को समझने का प्रयत्न करते रहे. वहॉं लगी पट्टिकाओं से अनुमान लगाते रहे, कल्पना करते रहे. गॉंधी जी की किताबों के हर्फों का इस धरातल और खपरैल के घरों से संबंध जोड़ते रहे. वर्षों के इतिहास का गुना भाग करते रहे, सत्य के प्रयोग की अवधि को तौलते रहे. गॉंधी वादी चिंतकों की पूर्व में सुनी, पढ़ी बातों को स्मृति में लाते रहे. खपरैल के घरों के बीच प्रार्थना स्थल और बाजू में बड़े से मैदान में बालक स्वामी आत्मानंद डंडे को आगे से पकड़े और गॉंधी जी डंडे को पीछे से पकड़े दौड़ते नजर आ रहे थे. जीवंत आभासी स्मृतियों को विराम देते हुए हम नियत समय में बस में आकर बैठ गए. मेरे स्वर्गीय श्वसुर भूतपूर्व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे उनका इस आश्रम में लगातार आना जाना था, जब दुर्ग से चला था श्रीमती नें कहा था कि गॉंधी आश्रम जरूर जाना. आश्रम से बस हमें बाबा नागार्जुन सराय ले आई. यहॉं से हबीब तनवीर हाल गए जहॉं दो सत्रों में सेमीनार चलते रहा. यहीं ब्लॉ.ललित शर्मा (ललितडॉटकॉम) संध्या शर्मा जी (मैं और मेरी कविताएं) पहुचे, वन्दना अवस्थी दुबे जी (अपनी बात...) से मुलाकात हुई और मनीषा पाण्डेय से दुआ सलाम हुआ. आलोक कुमार (आदि चिट्ठाकार)डॉ विपुल जैन जी से मुलाकात हुई, बम शंकर वाले राकेश कुमार सिंह, डॉ.धापसे व अन्य ब्लॉगरों से मिलना अच्छा लगा. 
इस दो दिवसीय प्रवास में जनपदीय कवि बाबा नागार्जुन के सराय में रूकना और छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य को वैश्विक पहचान देने वाले अद्भुत रंग शिल्पी हबीब तनवीर हाल में बैठना मेरे लिए अपूर्व आनंद की अनुभूति रही. हालॉंकि कार्यक्रम नाट्य का नहीं था फिर भी हबीब के नाम से थिरकती हुई फिदा बाई, मटकते हुए मदन निषाद... सब जीवंत होकर इस नाट्यशाला में छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य की महान परम्पराओं की यशोगाथा कहते नजर आते रहे. विशाल विश्वविद्यालय और उसकी सुन्दरता नें मन को मोह लिया, व्यवस्थित रूप से बनाये गए भवन, संपूर्ण परिसर में फैली हरियाली, कतारबद्ध पेंड़ सब ज्ञान की अगुवानी में खड़े प्रतीत होते रहे. इस सुन्दर परिसर एवं शैक्षणिक उत्कृष्टता के बल पर विश्व के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की टक्कर में इस विश्वविद्यालय को लाने वाले इस विशाल विश्वविद्यालय के प्रमुख के रूप में कुलपति विभूति नारायण राय का योगदान सराहनीय है.. उनके द्वारा हिन्दी ब्लॉगों को जीवन देने के लिए किये जा रहे प्रयासों के लिए हम उन्हें बहुत बहुत धन्यवाद देते हैं. 
शैक्षणिक संस्थाओं में ऐसे आयोजन छात्रों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से आयोजित किये जाते हैं जहॉं शोध छात्रों से कार्यशाला के लिए पंजीयन शुल्क भी रखा जाता है. यहॉं भी छात्रों नें पंजीयन शुल्क दिया था और बड़ी आशा के साथ हमें सुनने बैठे थे किन्तु मुझे वापसी तक यह सालता रहा कि विश्वविद्यालय से यात्रा व्यय लेने व नार्गाजुन सराय में तीन सितारा आतिथ्य का उपभोग करने के एवज में मैं छात्रों को कुछ भी नहीं दे पाया.

टीप: समय मिलेगा तो वर्धा संस्मरण पर एक ठो अउर पोस्ट ठेलेंगें.

सामयिकीः

मुद्दा तेलंगाना का
                                                                                                    - विनोद साव

आंध्र प्रदेश के क्षेत्र तेलंगाना को एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिए जाने का प्रस्ताव केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने रख दिया है। आने वाले चार महीनों के भीतर इसे पारित करवाने का समय दिया गया है। वर्तमान आंध्र प्रदेश देश के राज्यों के बीच क्षेत्रफल की दृष्टि से चौथे और जनसंख्या की दृष्टि से पांचवें स्थान पर है। जाहिर है कि यह एक बड़ा राज्य है। इसके पहले वर्ष 2000 में तीन बड़े राज्यों से निकालकर छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का गठन किया गया है। उल्लेखनीय कि इन नये राज्यों के गठन के समय कोई विशेष विरोध नहीं हुआ है। इनमें भी छत्तीसगढ़ ने तो बिना एक भी गोली खाये नये राज्य का दर्जा पा लिया था। अब आंध्र प्रदेश में नये राज्य के गठन की बारी है लेकिन आंध्र में तेलंगाना को अलग राज्य बनाने के विरोध में कई प्रदर्शन हो रहे हैं, गोलियां चल रही हैं और सांसदों नेताओं के इस्तीफे दिये जाने का क्रम जारी है। आंध्र जहॉ कांग्रेस की सरकार है वहां केन्द्र की कांग्रेस सरकार की इस नीति का तीव्र विरोध हो रहा है। यानी कांग्रेस का विरोध कांग्रेस कर रही है।

अभी देश में आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र दो बड़े राज्य हैं। आंध्र के बाद महाराष्ट्र में भी विदर्भ को अलग किये जाने की पुरानी मांग है और देर सबेरे पूरा होकर रहेगी। इनके अतिरिक्त देश में और भी कई पृथकतावादी मांगें हैं पर उन राज्यों का आकार बहुत बड़ा नहीं है और न ही उन मांगों का कोई बहुत औचित्य है। इसलिए शेष मांगों को लटका दिये जाने की संभावना बनी रहेगी।

बहरहाल तेलंगाना क्षेत्र को जो अलग किया जा रहा है वह वर्ष 2000 में अलग किए गए तीनों राज्यों से कई मामलों में बड़ा है, चाहे आबादी और क्षेत्रफल की दृष्टि से हो या फिर लोकसभा विधानसभा क्षेत्र की सीटों की संख्या की दृष्टि से हो। इनके अतिरिक्त देश के पृथकतावादी मांगों में तेलंगाना की मांग सबसे पुरानी मांग है। बल्कि कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र ने देश में पृथकतावादी मांगों की शुरुवात की थी। यह साठ बरस पुरानी मांग है। इस आंदोलन में समय समय पर काफी मारकाट मची है, हिंसक और विस्फोटक प्रदर्शन हुए हैं। इसके लिए अलगाववादी जुनून भरे गीत लिखे और गाये गये हैं। तेलंगाना आर्थिक राजनीतिक दृष्टि से पिछड़ा रहा लेकिन कला साहित्य में आगे रहा है। कला वहीं परवान चढ़ती है जहॉ गरीबी और अराजकता होती है पर समाज को आगे बढ़ाने के लिए सबसे बडी़ निर्णायक शक्ति उसकी आर्थिक योजनाएं होती है, अपनी स्वयं की स्वायत्तता और सत्ता होती है। तेलंगाना ने इसे बहुत पहले जान तो लिया था पर इस सत्ता और शक्ति को अब तक हासिल नहीं कर सका था। इस बार कांग्रेस ने उनकी दशकों पुरानी लम्बित मांग पर अपनी मुहर लगाकर उसके विकास के द्वार खोल दिए हैं।

आंध्र प्रदेश में इसका विरोध तो दिख रहा है पर यह विरोध क्या सचमुच आंध्र के जनमानस का विरोध है यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। जो स्पष्ट हो पा रहा है वह बड़े उद्योगपतियों का विरोध-सा लग रहा है। हैदराबाद के तेलंगाना में चले जाने से जिन बड़े उद्योगपतियों का करोड़ों अरबों का निवेश यानी इनवेस्टमेंट है उसके प्रति उद्योग घरानों में असुरक्षा की भावना है कि कहीं तेलंगाना में उनका यह निवेश डूब न जाय।

दूसरी बात हैदराबाद शहर की अपनी विशेषताएं हैं। यह देश के चार मेट्रो टाउन के बाद आने वाला पॉचवां शहर तो बहुत पहले से था ही, साथ ही चंद्रबाबू नायडू के मुख्य मंत्रित्व काल में यह देश का सबसे बड़ा साइबर सीटी बन गया था। इसकी महा नगर पालिका को देश की सर्वश्रेष्ठ नगर पालिका हो जाने का श्रेय मिल गया था। रामोजी राव फिल्म-सीटी के खुल जाने के बाद यह दक्षिण भारत का सबसे बड़ा फिल्म सीटी भी हो चुका है। यह ऐतिहासिक महत्व का एक खूबसूरत नगर है। आंघ्र इस पर जितना गौरव करता था उससे ज्यादा यह उस राज्य को रोजगार देने वाला शहर हो गया था। उल्लेखनीय है कि यह शहर दक्षिण में होते हुए भी उत्तर के समान प्रभाव छोड़ता है और मुख्य धारा में शामिल होता हुआ भारत के उत्तर दक्षिण के बीच सेतु का काम करने वाला महानगर है। आंध्र वासियों को इस महानगर के अपने हाथ से निकल जाने का मलाल हो सकता है।

केंद्र सरकार ने यद्यपि यह व्यवस्था दी है कि हैदराबाद आंध्र और तेलंगाना दोनों के लिए दस वर्षों तक संयुक्त राजधानी रहेगी। तेलंगाना के नेताओं ने भी इस निर्णय का उतना विरोध नहीं किया है और राजधानी के मामले में आंध्र के साथ चलने की बात की है।

तेलंगाना वासी अपनी साठ बरस पुरानी लम्बित मांग को पूरा न होते देखकर दुख और अवसाद से भर गए थे और उनकी रचनात्मकता दिषाहीन हो चली थी जो नासूर बनकर उभरी तो नक्सलवाद के रुप में उभर का सामने आयी। पिछले तीन दशकों से आंध्र-तेलंगाना का यह नक्सलवादी रुप एक देश व्यापी समस्या के रुप में भयानक और विस्फोटक हो चुका है। जिसका घनघोर बुरा प्रभाव उनके पड़ोसी राज्यों छत्तीसगढ, महाराष्ट्र और उड़ीसा में पडा है, बल्कि कहा जा सकता है इसके अप्रत्यक्ष प्रभाव को सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़ को भुगतना पड़ा है जहॉ नक्सल हिंसा का तांडव जब कभी भी देखा जा सकता है। अगर तेलंगाना पहले ही राज्य बन गया होता तो छत्तीसगढ़ और अन्य राज्य नक्सलवादी हिंसा से होने वाली विकराल दुर्दशा भी बच गए होते। केंद्र सरकार ने भले ही आने वाले चुनावों के हिसाब से अपने हानि लाभ का गणित बिठाया है पर हम उम्मीद करें कि तेलंगाना के स्वतंत्र राज्य का दर्जा पा लेने के बाद वह विकास और समृद्धि की ओर वैसे ही बढेगा जैसे उसका पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ बढ़ रहा है। तुलनात्मक रुप से छोटे हो रहे आंध्र प्रदेश में रायल सीमा और सीमान्त आंध्रा को मिलाकर तब एक नई राजधानी का और निर्माण कर अपने विकास का रास्ता खोल सकेंगे। आखिरकार राज्यों को छोटा वहॉं प्रशासनिक पहुंच को आसान बनाकर उनके सुगठित विकास के लिए ही तो किया जाता है।

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20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

हमारी अर्थ व्यवस्था में चीनी घुसपैठ

आज हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 278.6 अरब डालर है, जो छह से सात माह के आयात के लिये पर्याप्त है। जबकि 1991 में यह 60 करोड डालर तक गिर गया था, ठीक है किन्तु कुछ नकरात्मक सोचों पर भी एक नजर डालनी होगी। पहला मुद्रा के मोर्चे पर तूफान आने के संकेत, दूसरा सिकुड़ता औद्योगिक उत्पादन, कम होता निवेश, तीसरा मुद्रा स्फीति की लगातार ऊंचीं दर। इन सबका असर मध्यम वर्ग पर विशेष रूप से पड़ रहा है।

इस विषम परिस्थिति में सिकुड़ते औद्योगिक उत्पादन का एक प्रमुख कारण भारतीय बाजार में चीनी वस्तुओं की बहुतायात भी है, वह माल जो सस्ते में मिलता है, यही है हमारे बाजारों के द्वारा हमारी अर्थव्यवस्था पर चीनी घुसपैठ। मुझे एक पंक्ति याद आ रही है - ’’ बात निकली है तो दूर तलक जायेगी ....................’’ जी हॉं कुछ पुरानी बातें याद आयेंगी कुछ नये संदर्भो में...।

साफ्टवेयर, हार्डवेयर और इलेक्ट्रानिक्स के क्षेत्र में चीन शुरूआती दौरे से ही भारत का प्रतिस्पर्धी रहा है। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा प्रगति के लिये आवश्यक भी है किन्तु चिन्ता तब शुरू हुई जब चीन ने हमारे बाजारों में अपने उत्पाद खपाना शुरू किया। आपकों याद दिला दूं आजकल त्यौंहारों का समय है, बाजार जाइये वहॉ आपको राखी, गणेश, लक्ष्मी की मूर्ति, बल्बों की झालर भी चीन की मिल जायेगी, वह भी किफायती दरों पर।

मोबाईल, पेन, कैंची, खिलौने, जूते, कपड़े आदि से लेकर मिल्क प्रोडक्ट यानि दूध पावडर, चाकलेट आदि भी आसानी से मिलेगा। वह भी सिर्फ शहरी बाजारों में ही नहीं सूदूर गांवों के साप्ताहिक बाजारों में भी। रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाली चीजें बहुतायात से मिल जाती है। जाहिर सी बात है कि अन्य उत्पादों की तुलना में ये काफी सस्ती होती है तो आम जनता इन्हे खरीदती है, वो बात दूसरी है कि चीनी उत्पाद एक बार खराब हुए तो उसे सुधारने की कोई गुंजाईश नहीं रहती, क्योंकि आवश्यक कलपुर्जे हमारे यहॉ उपलब्ध नहीं होते, परिणाम यह कि हम उसे फेंकने पर विवश हो जाते है पर सस्ते का आकर्षण फिर हमें वहीं खींच ले जाता है। यही है चीन की दूर दृष्टि Use and throw  ताकि उपभोक्ता उनकी चीजें बार बार खरीदे। मुद्रा लाभ तो चीन को ही होगा।

आज स्थिति यहॉ तक पहुंच गई है कि बाजार में 30 % से 40 % वस्तुए चीन की पाई जाती है और हमारे देश से पूंजी का पलायन बदस्तूर जारी है तो दूसरी क्षति यह है कि भारत में राजस्व की भारी कमी देखी जा रही है। भारतीय घरेलू उत्पादों, लघु उद्योग धंधों पर इसका असर दिखाई पड़ने लगा है। भिवंडी और थाणे के आसपास 60% उद्योग बंद हो चुके है। वे चीनी वस्तुये आयात करने में लग पड़े है। स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाये इसके पहले कोई ठोस कदम उठाना जरूरी हो गया है।

इतिहास साक्षी है अंग्रेज व्यापारी बनकर ही भारत आये थे। पहले उन्होने हमारे बाजार पर कब्जा किया। अपने उत्पादों की खपत के लिये हमारे बाजारों का उपयोग किया फिर ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई, दुष्परिणाम आप सब भूले नहीं है, कोई भी देश किसी दूसरे देश पर आधिपत्य जमानें के पहले उसके बाजार पर कब्जा करता है, उसकी अर्थ व्यवस्था पर कुठाराघात करता है। हम पहले भी ठगे जा चुके है, अतीत की परछाई हम वर्तमान पर पड़ने नहीं देंगे, जगमगाते भविष्य को धूमिल नहीं होने देंगे।

चीन की बाजारवादी नीति आज की उपभोक्ता संस्कृति की सहायक है। इसका असर हमारी अर्थ व्यवस्था पर ही नहीं जन स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगा है। चीन से आयातित खिलौनों एवं अन्य उपकरणों में रंग रोगन के लिये सीसे का प्रयोग घातक स्तर की सीमा पार कर गया है। खाद्य वस्तुओं में ’मेलामाइन’ नामक रसायन पाया गया है, जो कोयले में रासायनिक रूप में मौजूद होता है। प्रोटिन की मात्रा बढ़ाने के नाम पर इसका उपयोग किया जा रहा है, इसका असर उपभोक्ता के पाचन तंत्र पर और श्वसन क्रिया पर पड़ता है। सिंगापुर में स्थानीय परीक्षण करने के बाद चीन से आयातित मिल्क प्रोडक्शन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, विश्व के कई अन्य देशों ने भी यही रास्ता अपनाया है।

आज जब भारत परमाणु परडुब्बी बनाने में विश्व के छठवें स्थान पर है। 142 लाख किलोमीटर का रोड नेटवर्क भारत में है, जो विश्व का दूसरा बडा रोड नेटवर्क है तो स्पष्ट है कि हमारे देश में ना तो तकनीकी तरक्की कम हुई है ना ही कारखानों की कमीं है। प्रतिवर्ष लाखों विद्यार्थी तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर रोजी रोगजार में लग रहे है। उद्योग धंधों की भी कमी नहीं है, उत्पादन भी यथेष्ठ हो रहा है, यातायात की असुविधा सड़कों के जाल से दूर कर दी है फिर क्यों चीनी वस्तुओं से बाजार भर गया है? क्या करे?

सर्वप्रथम तो सरकार को कड़ा रूख अपनाना होगा कि चीनी वस्तुओं का भारत में प्रवेश बंद हो सके। दूसरे जो वस्तुयें आती है उन पर इतना राजस्व लगाया जाय कि हमारे देश के उत्पाद से उनकी कीमत कम ना हो।
चीनी वस्तुओं के बहिष्कार के लिये हमें अतीत के पन्ने पलटनें होगे, याद करना होगा जब विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिये राजनेताओं के आह्वान पर आम जनता ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। वही जनचेतना जागृत करना है, समस्या हमारी है, तो समाधान भी हमें ही खोजना पड़ेगा।

जन सामान्य के मन से चीनी वस्तुओं के प्रति मोहभंग जरूरी है। इसके लिये स्वदेशी प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना को बल देना होगा। बहिष्कार के लिये संसद तक जाने अथवा सड़कों पर प्रदर्शन करने के पहले हम खुद से शुरूआत करें, निर्णय ले कि हम चीनी वस्तु ना खरीदेंगे, ना उपयोग करेंगे, ना ही किसी को उपहार में देंगे, ना ही किसी से चीनी वस्तुओं का उपहार लेंगे। महत्त् उद्वेश्य के लिये स्व नियंत्रण आवश्यक है।

प्रायः युवा वर्ग सस्ते मोबाईल, फैशनेबल जूते, कपड़े आदि के प्रति ज्यादा आकर्षित होता है इसलिये स्कूलों, कालेजों में चीनी वस्तुओं के बहिष्कार सबंधी व्याख्यान आयोजित किये जावें। बाजारों, चौराहों में भी लोगों को जुटाकर समझाइश दी जावे।

बैनर, पोस्टर लगाये जावें। समाज सेवी संस्थायें आगे आये ताकि जन आन्दोलन किया जा सके। समय की धारा को बदलने का काम जन आन्दोलन से ही संभव होता आया है। जनगण की उर्जा समन्वित होगी तभी आसन्न संकट को टाला जा सकेगा।

कलाकारों, रंगकर्मियों, साहित्यकारों से अनुरोध है वे इस मुहिम में एकजुट हों। समाज को दिशानिर्देश देने की प्रकृति प्रदत्त क्षमता का प्रयोग करें।

जरा सोंचें - चीनी उत्पाद भारतीय बाजार में इसी तरह अपना आधिपत्य बढ़ाते गये तो हमारे घरेलू उत्पादों की खपत कहॉ और कैसे होगी? उद्योग धंधे बंद होने लगें तो लाखों लोग बेरोजगार हो जायेंगे। अर्थव्यवस्था चरमरा जायेगी विचारणीय यह भी है कि हमारी ही पूंजी अपने देश ले जाकर, वे हथियार बनाते है और हमारे ही सीमाप्रान्तों पर आक्रमण कर उन्हीं हथियारों से हमारे देशभक्त, जांबांज सैनिकों पर आक्रमण करते है। हमारी पूंजी का निवेश हमारे देश की विकास योजनाओं में हो, हमारे विरूद्व हथियार बनाने में नहीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ऐसे संदर्भो के लिये ही लिखा है -

’’ का बरसा जब कृषि सुखाने
समय बीति पुनि का पछताने ’’

लेखिका
सरला शर्मा
पद्मनाभपुर, दुर्ग (छ.ग.)

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