विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
कल दिनांक 26 मई 2018 को छत्तीसगढ़ की सबसे प्राचीन साहित्यिक संस्था "दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति" के बैनर तले रायपुर के वृन्दावन सभा कक्ष में श्री बलदाऊ राम साहू की बाल साहित्य पर चार कृतियों का विमोचन सानन्द सम्पन्न हुआ। मुख्य अतिथि श्री केशरी लाल वर्मा (कुलपति, रविवि रायपुर) विशिष्ट अतिथि डॉ. सुशील त्रिवेदी, श्री चितरंजन कर, श्री गिरीश पंकज थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार श्री रमेश नैयर ने की। अतिथि विद्वानों ने सार संक्षेप में इस बात को रेखांकित किया कि बाल साहित्य को दोयम दर्जे का साहित्य माना जाता है जबकि देश के नौनिहालों को एक अच्छा नागरिक बनाने के लिए बाल साहित्य ही कारगर साबित होता है। महानगरीय संस्कृति ने बच्चों के उस बचपन को छीन लिया जो बूढ़ों को भी बच्चा बना देने के लिए सक्षम है। बच्चे बचपन में ही जवान हो जा रहे हैं। उनकी कल्पनाशीलता खो गई है। एकल परिवारों के चलन में बच्चे दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियों से वंचित हो रहे हैं। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों ने राजभाषा से बच्चों को दूर कर दिया है। बाल साहित्य ही इन सारी समस्याओं का समाधान है। साहि