भू.पू.राष्‍ट्रपति श्री डॉ.ए.पी.जे.अब्‍दुल कलाम नें जारी किया कार्टून चित्र

कार्टून आज संचार के लिए बेहद लोकप्रिय माध्‍यम बन गया है । कार्टून के माध्‍यम से बहुत सारी चीजों को बताया और समझाया जा सकता है । आज इसका इस्‍तेमाल शिक्षा, बच्‍चों को जागरूक करने और नये संदेश देने के लिए एक रोचक ढंग से किया जा रहा है ।


इसी परिपेक्ष्‍य में जनसंपर्क एवं कारपोरेट कम्‍यूनिकेशन पर केन्द्रित देश की एकमात्र ई-पत्रिका ई-ज्‍वाईन के संपादक एवं प्राईम टाईम पाइंट पब्लिक रिलेशन प्राईवेट लिमिटेड एवं प्राईम टाईम फाउंडेशन के अध्‍यक्ष व मुख्‍य प्रशासनिक अधिकारी श्री के.श्रीनिवासन की पहल और मार्गदर्शन पर छत्‍तीसगढ, रायपुर के कार्टूनिस्‍ट एवं कार्टून वॉच पत्रिका के संपादक श्री त्र्यंबक शर्मा नें जनसंपर्क कार्टून चरित्र (पी आर कार्टून करेक्‍टर) प्रिंस तैयार किया है । इसे भारत के पूर्व राष्‍ट्रपति श्री डॉ.ए.पी.जे.अब्‍दुल कलाम नें विगत दिनों चेन्‍नई में जारी किया । इस अवसर पर डॉ. कलाम पी आर करैक्‍ब्‍र तैयार करने के लिए श्री के.श्रीनिवासन एवं श्री त्र्यंबक शर्मा को बधाई एवं शुभकामनायें दीं और उन्‍होंनें कार्टून करैक्‍टर पर अपने हस्‍ताक्षर भी किए ।


उल्‍लेखनीय है कि जनसंपर्क के क्षेत्र में किये जाने वाले नए नए प्रयोग और नई सोंच को केन्द्रित कर यह कार्टून तैयार किया गया है, इसके माध्‍यम से जनसंपर्क और कारपोरेट कम्‍यूनिकेशन के क्षेत्र में सरल हास्‍य के माध्‍यम से सूचनाएं एवं संदेश दिये जा सकेंगें । इस कार्टून कैरेक्‍टर का नामकरण के लिए देशभर के जनसंपर्क एवं कारपोरेट कम्‍यूनिकेशन प्रोफेशनल्‍स से सुझाव मांगे गये थे, लगभग 100 नामों के बीच प्रिंस नाम पर सहमति बन पाई ।


यह कार्टून करैक्‍टर अगस्‍त 2008 की ई-जाईन पत्रिका में पहली बार दिखाई देगा जिसमें प्रिंस पूर्व राष्‍ट्रपति से आर्शिवाद ले रहे हैं ।

भाई त्र्यंबक शर्मा को हमारी भी शुभकामनायें ।

छत्तीसगढ़ी संस्कृति, साहित्य एवं लोककला की आरूग पत्रिका अगासदिया - 30 : ब्‍लाग संस्‍करण

छत्तीसगढ़ी संस्कृति, साहित्य एवं लोककला की आरूग पत्रिका

वर्ष - 1, अंक -2, अप्रैल - जून - 2008

अगासदिया- अव्यवसायिक, त्रैमासिक

अंधकार से लड़कर में जो भी जहां जिया,

उसके लिए सदैव प्रकाशित रहा अगासदिया

छत्तीसगढ़ राजनीति के चाणक्य श्रद्धेय दाऊ वासुदेव चन्द्राकर के व्यक्तित्व पर केन्द्रित

मुद्रक : यूनिक, पंचमुखी हनुमान मंदिर के पीछे, मठपारा, दुर्ग (छ.ग.) ०७८८-२३२८६०५


वेब प्रकाशन : संजीव तिवारी


अनुक्रमणिका


1. सात संस्मरण

2. भूपेश की जीत का रहस्य : डॉ. परदेशीराम वर्मा
3. जीवन वृत्त - वासुदेव चंद्राकर
4. नेलशन कलागृह और सियान संरक्षक दाऊ वासुदेव चंद्राकर
5. मूर्तिकार जे.एम. नेल्सन के गांधी और मेरी मुसीबत
6. प्रथम डॉ. खूबचन्द बघेल अगासदिया सम्मान से विभूषित
7. दाऊ वासुदेव चन्द्राकर, अमृत सम्मान परिशिष्ट

8. कल के लिये : रवि श्रीवास्तव
9. काँग्रेस के नैष्ठिक सिपाही श्री वासुदेव चन्द्राकर : राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल
10. दाऊजी जैसे छत्तीसगढ़ महतारी के सपूत सदा अभिनंदित होंगे : पवन दीवान
11. वासुदेव चंद्राकर - भूपेश बघेल : साक्षात्कारकर्त्ता- महेश वर्मा
12. सतत् सक्रियता ने दाऊ जी को महत्वपूर्ण बनाया - ताराचंद साहू
13. भाषा की जीत सुनिश्चित है छत्तीसगढ़ी से बना छत्तीसगढ़ राज्य : पवन दीवान
14. दुर्लभ छत्तीसगढ़िया किसान नेता हमारे दौर के चाणक्य : वासुदेव चन्द्राकर
15. सागर रुप वासुदेव चन्द्राकर : जमुना प्रसाद कसार
16. धरती पुत्रों के पक्षधर - वासुदेव चन्द्राकर : हेमचन्द यादव
17. छत्तीसगढ़ राजनीति के चाणक्य श्रद्धेय दाऊ वासुदेव चन्द्राकर के व्यक्तित्व पर
18. अंचल के चर्चित हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. एम.पी. चन्द्राकर से बातचीत

19. साक्षी समय के : वासुदेव चन्द्राकर - भास्कर में प्रकाशित पूर्व साक्षात्कार
20. वासुदेव जी की प्रशासनिक क्षमता : हरिशंकर उजाला
21. होई हैं सोई जो राम रचि राखा दाऊ वासुदेव चन्द्राकर जी की जीवनी : रामप्यारा पारकर
22. अगासदिया के हरि ठाकुर अंक हेतु दाऊ वासुदेव चंद्राकर का साक्षात्कार
23. दाऊ वासुदेव चंद्राकर के यशस्वी शिष्य श्री भूपेश बघेल
24. छत्तीसगढ़ का बदलता तेवर और नारायण चंद्राकर की यह कृति
25. सूरता - करमयोगी संत चन्दूलाल चंद्राकर जी : नारायण चंद्राकर
26. परदेशीराम वर्मा द्वारा लिखा गया चंदूलाल चंद्राकर का अंतिम साक्षात्कार
27. भुइंया की महिमा के मुग्ध गायक - नारायण प्रसाद चंद्राकर

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स्वाधीनता संग्राम सेनानी स्‍व.श्री मोतीलाल त्रिपाठी

छत्तीसगढ के अग्रणी स्वतंत्रता सग्राम सेनानियों में स्व . श्री मोतीलाल त्रिपाठी जी का नाम सम्मान से लिया जाता है, इन्होंनें जहां स्वतंत्रता आन्दोलन के समय में गांधीवादी विचारधारा को जन जन तक पहुचाया वहीं स्व्तंत्रता प्राप्ति के बाद सामाजिक क्रांति लाने बेहतर समाज के निर्माण में उल्लेखनीय योगदान दिया आज कृतज्ञ छत्तीसगढ श्री त्रिपाठी जी के 85वीं जयंती पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता है


स्व. श्री मोतीलाल त्रिपाठी जी का जन्म 24 जुलाई 1923 को छत्ती‍सगढ के एक छोटे से ग्राम धमनी में हुआ । इनके पिता स्व . श्री प्यारेलाल त्रिपाठी सन् 1930 के स्वतंत्रता आंन्दोलन में पं.सुन्दरलाल शर्मा व नंदकुमार दानी जी के साथ अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे थे । बालक मोतीलाल उस अवधि में अपनी प्राथमिक शिक्षा ग्राम पलारी में ले रहे थे तभी गांधी जी के स्वागत का अवसर इन्हें प्राप्त हो गया था । प्राथमिक शिक्षा के बाद माता श्रीमति जामाबाई त्रिपाठी एवं स्वतंत्रता संग्राम के कर्मठ सिपाही पिता प्यारेलाल का संस्कार लिये बालक मोतीलाल हाईस्कूल की शिक्षा लेने सेंटपाल हाईस्कूल रायपुर आ गए । इस अवधि में इनके पिता छत्तीसगढ के स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे जिसके कारण किशोर मोतीलाल के मन में भी देश के लिए कुछ कर गुजरने का जजबा धीरे धीरे जागृत होने लगा था


पिता के राहों में चलते हुए मोतीलाल जी के हृदय में गांधी जी के दर्शन के बाद से सुसुप्त देश प्रेम की चिंगारी 1936 में फूट कर बाहर आ निकली जब 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का आहवान पं.नेहरू और सरदार पटेल नें किया और युवा छात्रों के दल का नेतृत्व् करते हुए युवा मातीलाल नें रायपुर के गलियों में शानदार जुलूस लिकाला । अपनी कुशल नेतृत्व क्षमता से श्री त्रिपाठी जी युवाओं के दिलों पर छा गए । इसके बाद से गांधी जी के सत्याग्रह का झंडा इन्होंनें थाम लिया । सन् 1939 के प्रथम विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों द्वारा युद्ध में सहयोग करने के आहवान को गांधी जी नें ठुकरा दिया और मोतीलाल जी नें गांधी जी के इस विरोध को पूरे छत्तीगसगढ में फैलाने के लिए पैदल यात्रायें की और उनका संदेश जन जन में पहुचाया इस पदयात्रा के कारण छत्तीसगढ में आंदोलन को संगठनात्मक स्वरूप प्राप्त हुआ ।


देश में 11 फरवरी 1941 को गांधी जी द्वारा सत्याग्रह आंदोलन आरंभ कर दिया गया, इस आंदोलन के छत्तीसगढ में नेतृत्व के लिए एकमात्र कर्मठ सत्यायग्रही युवा मोतीलाल को चुना गया । सत्याग्रह आंदोलन का नेतृत्व सम्हालने के बाद मोतीलाल जी नें अपने नेटवर्क को फैलाते हुए छत्तीसगढ में इस आंदोलन का अलख गांव गांव में जगा दिया । हजारों की संख्या में सत्याग्रहियों का हुजूम अंग्रेजी हूकूमत के खिलाफ मौन प्रदर्शन करने लगे, फलत: इनके साथियों के साथ इन्हें अंग्रेजी सरकार के द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया और 2 अप्रैल 1941 को नागपुर जेल भेज दिया गया । 5 दिसम्बर 1941 को गांधी जी एवं अंग्रेजों के मध्य हुए एक समझौते के तहत् राजनैतिक बंदियों को आजाद कर दिया गया तब मोतीलाल जी भी नागपुर से रायपुर वापस आकर सत्याग्रह एवं स्वदेशी आंदोलन व खादी के प्रचार प्रसार में जुट गए । कुछ दिन रायपुर में रह कर वे खादी वस्त्र भंडार नरसिंहपुर चले गए और खादी की सेवा देश सेवा की भांति करने लगे

9 अगस्त 1942 को भारत छोडो आंदोलन की रण भेरी बजने लगी, स्वातंत्रता संग्राम सेनानी अंग्रेजों को भारत से उखाड फेंकने के लिए जगह जगह रैली व सत्याग्रह करने लगे । स्वाभाविक तौर पर त्रिपाठी जी का देश प्रेम नरसिंहपुर में भी अंग्रेजों के आंखों में खटकने लगा और उन्हें गिरफ्तार करने का फरमान जारी कर दिया गया । इस गिरफ्तारी से बचने एवं भारत छोडो आंदोलन को हवा देने के उद्देश्य से वे फरारी में रायपुर आ गए । रायपुर में रह कर वे देश प्रेम, खादी प्रसार व भारत छोडो आंदोलन संबंधी अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति को परचा लिख लिख कर परचे के माध्याम से जनता तक पहुचाने लगे । 26 जनवरी सन् 1943 को वे रायपुर में परचा बांटते हुए पकड लिये गये और इन्हें छ: माह की सजा हुई, इन्हें बिलासपुर जेल भेज दिया गया जहां से वे 14 जुलाई 1943 को छूटे


खादी एवं गांधी को अपना सर्वस्वा मान चुके श्री त्रिपाठी जी स्वतंत्रता प्राप्ति तक एवं उसके बाद भी रायपुर के विचारकों के अग्र पंक्ति में रहकर गांधी जी की विचारधारा को पुष्पित व पल्ल्वित करते रहे । स्वतंत्रता प्राप्त के बाद इनकी नेतृत्व क्षमता व सहृदयता के कारण ये स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का नेतृत्व छत्तीसगढ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी संगठन के महामंत्री के रूप में करते रहे और उनके सुख दुख में सदैव साथ रहे । साहित्तिक प्रतिभा इनमें आरंभ से ही थी जिसके कारण वे प्रदेश के साहित्तिक आयोजनों में जीवन पर्यन्तत सहभागी बनते रहे । इनकी लेखन क्षमता नें तत्कालीन प्रदेश के एकमात्र समाचार पत्र ‘महाकोशल’ के सह संपादक के पद को गरिमामय रूप में सुशोभित भी किया और इन्होंनें पत्रकारिता के माध्यम से जनता के प्रति अपने कर्तव्यों को बखूबी निभाया । गांधी जी की सत्य, अहिंसा, कुष्ठ सेवा व खादी के ध्वज वाहक व सच्चे् अर्थों में मानवतावादी स्व. श्री मोतीलाल त्रिपाठी जी को हमारा प्रणाम ।


(स्व. श्री मोतीलाल त्रिपाठी जी हमारे हिन्दी ब्लागर साथी संजीत त्रिपाठी, आवारा बंजारा के पिता थे । संजीत जी नें स्‍वयं अपने एक पोस्ट में उनको श्रद्धासुमन अर्पित किया है देखें - यहां)


संजीव तिवारी

पिता का वचन : कहानी

छत्‍तीसगढ में बस्‍तर की वर्तमान परिस्थितियों पर मैंनें कलम चलाने का प्रयास किया है जो कहानी के रूप में यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं । आप सभी से इस कहानी के पहलुओं पर आर्शिवाद चाहता हूं :-


पिता का वचन
कहानी : संजीव तिवारी

चूडियों की खनक से सुखरू की नींद खुल गई । उसने गहन अंधकार में रेचका खाट में पडे पडे ही कथरी से मुह बाहर निकाला, दूर दूर तक अंधेरा पसरा हुआ था । खदर छांधी के उसके घर में सिर्फ एक कमरा था जिसमें उसके बेटा-बहू सोये थे । बायें कोने में अरहर के पतले लकडियों और गोबर-मिट्टी से बने छोटे से कमरानुमा रसोई में ठंड से बचने के लिए कुत्ता घुस आया था और चूल्हे के राख के अंदर घुस कर सर्द रात से बचने का प्रयत्न कर रहा था । जंगल से होकर आती ठंडी पुरवाई के झोंकों में कुत्ते की सिसकी फूट पडती थी कूं कूं ।


सुखरू कमरे के दरवाजे को बरसाती पानी की मार को रोकने के लिए बनाये गये छोटे से फूस के छप्पकर के नीचे गुदडी में लिपटे अपनी बूढी आंखों से सामने फैले उंघते अनमने जंगल को निहारने लगा । अंदर कमरे से रूक रूक कर चूडियां खनकती रही और सिसकियों में नये जीवन के सृजन का गान, शांत निशा में मुखरित होती रही । सुखरू का एक ही बेटा है सुल्टू । कल ही उसने पास के गांव से गवनां करा के बेदिया को लाया है । इसके पहले उस कमरे में सुखरू और सुल्‍टू का, दो खाट लगता था और लकडी के आडे तिरछे खपच्चियों से बना किवाड हवा को रोकने के लिए भेड दिया जाता था । आज दिन में ही सुखरू नें लोहार से कडी-सांकल बनवा कर अपने कांपते हाथों से इसमें लगाया है । ‘बुजा कूकूर मन ह सरलगहा फरिका ल पेल के घुसर जथे बाबू ‘ सुल्टू के कडी को देखकर आश्चर्य करने पर सुखरू नें कहा था ।


रात गहराती जा रही थी पर सुखरू के आंख में नींद का नाम नहीं था, कमरे के अंदर से आवाजें आनी बंद हो गई । मंडल बाडा डहर से उल्लू की डरावनी आवाज नें सुखरू का ध्यान आकर्षित किया । ‘घुघवा फेर आ गे रे, अब काखर पारी हे ‘ उसने बुदबुदाते हुए सिरहाने में रखे बीडी और माचिस का बंडल उठाया और खाट में बैठकर पीने लगा, आंखों में स्वप्न तैरने लगे ।


बदरा को उसने गांव के घोटुल में पहली बार देखा था । टिमटिमाते चिमनी की रोशनी में बदरा का श्यामल वर्ण दमक रहा था । वस्त्र विहीन युवा छाती पर अटखेलियां करते उरोज नें सुखरू के तन मन में आग लगा दिया था । सामाजिक मर्यादाओं एवं मान्यता के अनुरूप सुखरू नें बदरा से विवाह किया था । रोजी रोटी महुआ बीनने, तेंदूपत्ता तोडने व चार चिरौजी से जैसे तैसे चल जाता था । हंसी खुशी से चलती जिंन्दगी में बदरा के सात बच्चे हुए, पर गरीबी-कुपोषण व बीमारी के कारण छ: बच्चे नांद नहीं पाये । सुल्टू में जीवन की जीवटता थी, घिलर-घिलर कर, कांखत पादत वह बडा हो गया । सल्फी‍ पीकर गांव मताने के अतिरिक्त सभी ग्राम्य गुण सुल्‍टू नें पाये । सुखरू नें पडोस के गांव के आश्रम स्कूल में सुल्टू को पढाने भी भेजा पर वह ले दे कर आठवीं तक पढा और फेल हो कर मंडल के घर में कमिया लग गया । तीन खंडी कोदो-कुटकी और बीस आगर दू कोरी रूपया नगदी में । सुखरू और बदरा अपना अपना काम करते रहे ।


जमाना बदल रहा था, गांव में लाल स्याही से लिखे छोटे बडे पाम्पलेट चिपकने लगे, खाखी डरेस पहने बंदूक पकडे दादा लोगों का आना जाना, बैठका चालू हो गया । सुखरू अपने काम से काम रखता हुआ, दादा लोगों को जय-जोहार करता रहा । पुलिस की गाडियां भी अब गांव में धूल उडाती आने लगी । रात को गांव में जब उल्लू बोलता, सुबह गांव के किसी व्यक्ति की लाश कभी चौपाल में तो कभी जंगल खार में पडी होती । परिजन अपने रूदन को जब्ब‍ कर किरिया-करम करते, सब कुछ भूल कर अपने अपने काम पर लग जाते । कभी कभी जंगल में गोलियों की आवाजें घंटो तक आते रहती और रात भर भारी भरकम बूटों से गांव की गलियां आक्रांत रहती ।


शबरी के जल में भोर की रश्मि अटखेलियां कर रही थी । सूरज अपनी लालिमा के साथ माचाडेवा डोंगरी में अपने आप को आधा ढांपे हुए उग रहा था । सुखरू तीर कमान को अपने कंधे में लटकाये, जंगल में दूर तक आ गया था, बदरा भी पीछे पीछे महुआ के पेडों के नीचे टपके रसदार महुए को टपटपउहन बीनते हुए चल रही थी । ‘तड-तड धांय ‘ आवाज नें सुखरू के निसाने पर सधे पंडकी को उडा दिया । सुखरू पीछे मुडकर आवाज की दिशा में देखा । दादाओं और पुलिस के बीच जंगल के झुरमुट में लुकाछिपी और धाड-धाड का खेल चालू हो गया था । भागमभाग, जूतों के सूखे पत्तों को रौंदती आवाजें, झाडियों की सरसराहट, कोलाहल, शांत जंगल में छा गई । चीख पुकार और छर्रों के शरीर में बेधने का आर्तनाद गोलियों की आवाज में घुल-मिल गया । सुखरू नें कमर झुका कर बदरा को आवाज दिया ‘भागो ‘ , खुद तीर कमान को वहीं पटक गांव की ओर भागा ।


गांव भर के लोग जंगल की सीमा में सकला गए थे । गोलियों की आवाज की दिशा में दूर जंगल में कुछ निहारने का प्रयत्न करते हुए । दो घंटे हो गए बदरा बापस नहीं आई, गोलियों की आवाजें बंद हो गई । सुखरू का मन शंकाओं में डूबता उतराता रहा ।


शाम तक पुलिस की गाडियों से गांव अंट गया, जत्था के जत्था वर्दीवाले हाथ में बंदूक थामे उतरने लगे, जंगल को रौदने लगे । कोटवार के साथ कुछ गांव वाले हिम्मत कर के जंगल की ओर आगे बढे । जंगल के बीच में जगह जगह खून के निशान पेडों-पत्तों पर बिखरे पडे थे । दादा व पुलिस वालों की कुछ लाशें यहां वहां पडी थी । सुखरू महुए के पेड के नीचे झाडियों पर छितरे खून को देखकर ठिठक गया । झाडियों के बीच बदरा का निर्जीव शरीर पडा था । जल, जंगल-जमीन की लडाई और संविधान को मानने नहीं मानने के रस्‍साकसी के बीच चली किसी गोली नें बदरा के शरीर में घुसकर बस्तर के जंगल को लाल कर दिया था ।


सुखरू सिर पकड कर वहीं बैठ गया । लाशों की गिनती होने लगी, पहचान कागजों में दर्ज होने लगे। लाशों को अलग अलग रखा जाने लगा, साधु-शैतान ? ‘और ये ?’ रौबदार मूछों वाले पुलिस अफसर नें कोतवाल मनसुखदास से पूछा । ‘बदरा साहेब’ ‘मउहा बीनत रहिस’ कोटवार नें कहा । ‘दलम के साथ’ साहब नें व्यंग से कहा । कोतवाल कुछ और कहना चाहता था पर साहब के रौब नें उसके मुह के शव्द को मुह में ही रोक दिया । ‘कितने हैं ?’ साहब नें लाश को रखने वालों से पूछा । सर हमारे चार और नक्सोलियों के तीन ।‘ ‘... ये महिला अलग ।‘


सुखरू के आंसू बहते रहे, बदरा  की लाश पुलिस गाडी में भरा के शहर की ओर धूल उडाती चली गई । अंगूठा दस्‍तखत, लूट खसोट के बाद आखिर चवन्नी मुआवजा मिला, बोकरा कटा, सल्फी व मंद का दौर महीनों चलता रहा । धूल का गुबार उठा और बस्तर के रम्य जंगल में समा गया । बदरा की याद समय के साथ धीरे-धीरे सुखरू के मानस से छट गई । सुल्टू साहब लोगों के एसपीओ बनने के प्रस्ताव को ठुकराकर मंडल के खेतों में लगन के साथ मेहनत करने लगा । सुखरू मदरस झार के शहर में जा जा कर बेंचने लगा, जीवन की गाडी धीरे से लाईन पर आ गई ।


सुखरू नें पडोस के गांव से मंगतू की बेटी को अपने बेटे सुल्टू के लिए मांग आया, अपनी सामर्थ और मंडल के दिये कर्ज के अनुसार धूम धाम से बिहाव-पठौनी किया, मुआवजा का पैसा तो उसने मंद में उडा दिया था । सुखरू के स्मृति पटल पर चलचित्र जैसे चलते इन यादों के बीच उसकी नींद फिर पड गई ।
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जंगल की ओर से आती बूटों की आवाजों को सुखरू परखने की कोशिस करने लगा । आवाजें उसके खाट के पास ही आकर बंद हो गई । वह गुदडी से अपना सिर बाहर निकाला, सामने स्याह अंधेरे में दो-चार-दस, लगभग सौ बंदूकधारी सिर खडे थे । सुखरू कांपते पैरों को जमीन में रखते हुए हडबडा कर खाट से उठा । दोनों हाथ जोडते हुए कहा ‘जोहार दादा’ । बंदूक वाले नें सुखरू की बात को अनसुना करते हुए अपने लोगों से बोला ‘बाहर निकालो उसे ‘ सुखरू की रूह कांप गई, वह गिडगिडाने लगा । ‘का गलती होगे ददा’ । साथ में आये दो लोगों नें जर्जर दरवाजे को कंधे से धक्का, मारा । दरवाजा फडाक से खुल गया, सुल्टू और बहु हडबडा कर उठ गये । वो कुछ समझ पाते इसके पहले ही सुल्टू की गर्दन और बहू के बाल को पकडकर लगभग खींचते हुए घर से बाहर लाया गया । तीनों की कातर पुकार जंगल में प्रतिध्वनित होने लगी । ‘धाय ‘ भरमार बंदूक नें आग का गोला उगला । सुल्टू की चीख बाहर निकलते हुए हलक में ही जब्ब हो गई ।


खून जमा देने वाली ठंड में सुखरू के अंग के रोमछिद्रों नें जमकर पसीना उडेल दिया, उसने आंखें खोलकर आजू बाजू देखा । कोई भी नहीं था, सियाह काली रात, छाती धौंकनी की तरह चल रही थी । उसने खाट से उतर कर सुल्टू के कमरे के दरवाजे को टमड कर देखा, दरवाजा साबूत भिडा हुआ था । ‘सुल्टू , बेटा रे ‘ उसने बेहद डरे जुबान से आवाज दिया, शव्द मुह से बमुश्कल बाहर आये । रसोई में सोया कुत्ता उठकर सुखरू के पांव पर कूं कूं कर लोटने लगा । सुखरू की आंखें अब अंधेरे में कुछ देख सकने योग्य हो गई थी, हिम्मत कर के फिर बेटे को आवाज लगाई । सुल्‍टू नें अंदर से हुंकारू भरी, सुखरू के जान में जान आई । ‘ का होगे गा आधा रात कन काबर हूंत कराथस’ सुल्टू नें कहा । ‘कुछु नहीं बेटा सुते रह, सपना देख के डेरा गे रेहेंव बुजा ल’ ‘.... रद्दी सपनाच तो आथे बेटा, बने सपना त अब नंदा गे । दंतेसरी माई के सराप ह डोंगरी, टोला जम्मो म छा गे हे, बुढवा देव रिसा गे हे बेटा ....’ सुखरू बुदबुदाने लगा फिर आश्वस्थ हो खाट में बैठ कर बीडी पीने लगा । गोरसी में आग जलाई और आग तापने लगा । कमरे में चूडियां फिर खनकने लगी, कुत्ता कूं कूं कर गोरसी के पास आकर बैठ गया । आग तापते हुए बूढी आंखों में अभी अभी देखे स्वप्न के दृश्य छाये रहे । दिमाग ताना बाना बुनता रहा । मुर्गे नें बाग दिया डोंगरी तरफ से रोशनी छाने लगी ।


सुल्टू अपने कमरे से उठकर कमजोर पडते गोरसी पर लकडी डालते हुए बाप के पास आकर बैठ गया । ‘बेटा अब तुमन अपन ममा घर रईपुर चल देतेव रे, उन्हें कमातेव खातेव । इंहा रहई ठीक नई ये बुजा ह ।‘ सुखरू नें गोरसी के आग को खोधियाते हुए कहा । ‘ सरी दुनिया दाई ददा तीर रहि के सेवा करे के पाठ पढाथे, फेर तें ह कईसे बाप अस जउन हमला अपन ले दुरिहाय ले कहिथस’ सुल्टू अनमने से बात को सामान्य रूप से लेते हुए कहा । ‘बेटा दिन बहुर गे हे, तें ह एसपीओ नई बनेस जुडूम वाले मन खार खाये हें, दादा मन तोर दाई के जी लेवईया संग लडे ल बलावत हें, उहू मन गुसियावत हें । गांव के गांव खलक उजरत हे, सिबिर में गरू-बछरू कस हंकावत हें । कोनो दिन बदरा जईसे हमू मन मर खप जबो, काखर बरछा, काखर गोली के निरवार करबो । तुमन जीयत रहिहू त मोर सांस चलत रहिही बेटा ।‘ सुखरू का गला रूंध आया, आगे वह कुछ ना बोल सका ।


सुल्‍टू अपना गांव, घर, संगी-साथी को छोडने को तैयार नहीं पर बाप की जिद है । उसने चार दिन से कुछ भी नहीं खाया है, खाट पर टकटकी लगाए जंगल की ओर देख रहा है । ‘... मान ले बेटा ।‘ सुखरू सुल्टू के हाथ को पकड कर पुन: निवेदन करता है । बाप की हालत को देखकर सुल्टू बात टालने के लिए कहता है ‘तहूं जाबे त जाबोन’ । सुखरू के आंखों में बुझते दिये की चमक कौंधती है और हमेशा हमेशा के लिए बुझ जाती है ।


शबरी में तर्पण कर सुल्टू डुबकी लगाता है, नदी को अंतिम प्रणाम करता है । लोहाटी संदूक में ओढना कुरथा को धर कर अपनी नवेली दुल्हन के साथ शहर की ओर निकल पडता है । माचाडेवा डोंगरी से खिलता हुआ सूरज गांव को जगमगाने लगा है । इंद्रावती में मिलने को बेताब शबरी कुलांचे भरती हुई आगे बढ रही है ।


सुल्टू पीछे-पीछे आते कुत्ते को बार बार भगाता है, पर कुत्ता दुतकारने – मारने के बाद भी थोडी देर बाद फिर सूल्टू के पीछे हो लेता है । सुल्टू के श्रम से लहराते खेत पीछे छूटते जाते हैं, सुल्टू के मन में भाव उमड घुमड रहे हैं । पिता के वचन के बाद लिये अपने फैसले से वह आहत है, क्या उसे शहर रास आयेगा ? यदि नहीं आया तो .... वह अपने गांव में फिर से वापस आ तो सकता है । बस में जाते हुए रास्‍तें में वह कई उजडे गांवों का नाम बुदबुदा रहा है । क्‍या सुखरू का स्वप्न आकार लेकर उसके गांव में भी चीत्कार के रूप में छा जायेगा और सारा गांव भुतहा खंडहरों और जली हुई झोपडियों में तब्‍दील हो जायेगा ? तब क्‍या वह गांव वापस लौट पायेगा ।

संजीव तिवारी

'अंकल' की घुसपैठ गांवों तक


पिछले दिनों मैं अपने परिवार के साथ बाजार गया, वहां से खरीददारी करके पत्नी के साथ छत्तीसगढी में बतियाते हुए बाहर निकला । बाजार के बाजू में जहां मेरी गाडी खडी थी वहां कुछ मजदूर काम कर रहे थे । उनमें से एक जवान, टीशर्ट छाप मजदूर नें मुझसे पूछा 'टाईम क्या हो गया है अंकल ?'

मेरी पत्नी मुस्‍कुराने लगी । गाडी निकालते हुए एक पल के लिए मेरे दिमाग में क्रोध का, पता नहीं कहां से तीव्र ज्वार छा गया । मैंनें गाडी वैसे ही छोडी और तेजी से कुछ कदम दूर खडे मजदूर की ओर लपका । मेरी श्रीमति मेरे इस अचानक लपकने के कारण चकरा गई और वो भी मेरे पीछे आ गई, मुझे यूं देखने लगी मानो कह रही हो ' क्या हुआ ?'


उस मजदूर के पास पहुचते ही मेरा गुस्सा कुछ शांत हो गया था । मैनें उससे छत्तीसगढी में पूछा ' छत्तीसगढी जानथस ?' वह अचानक मेरे को अपने सामने पाकर तनिक घबरा गया, बोला 'हॉं, हमन तो छत्तीसगढिया आन '

मेरा मन तो हुआ कि एक झन्नाटेदार झापड उसके गाल में रसीद करूं पर अपने आप को संयत करते हुए मैनें दूसरा प्रश्न दागा ' अंकल के स्पेलिंग जानथस ?'

अब वह घुनमुनाने लगा, उसके साथ के सब मजदूर हसने लगे । मेरी पत्नी मेरे हांथ को खींचने लगी 'छोडो इनके मुह मत लगिये' मैनें पत्नी के हाथ को झटकते हुए उस मजदूर से पुन: मुखातिब हुआ मेरे मुह से बरबस बोल फूट रहे थे ' घुसेर लेबे अंकल ला अपन घर में तहां तोरे खटिया तोरे बेटिया करवा लेबे, बाद म हमन ला लडवाबे कि परदेशिया मन छत्तीसगढ ला बिगाड दिस ................' बडबडाते हुए मैं वहां से चला गया ।

रास्ते भर सोंचता रहा कि किस प्रकार से अंग्रेजी, हिन्दी से होते हुए हमारी बोलियों तक में अमरबेल की तरह पसर गई है । ज्ञानदत्त जी जैसे अग्रज तो इसलिये अंग्रेजी शव्दों का प्रयोग करते हैं क्योंकि वे दोनों भाषाओं में प्रवीण हैं और भाव के तारतम्यता में बोधगम्य शव्दों का तात्कालिक संप्रेषण के लिए ही अंग्रेजी शव्दों का प्रयोग करते हैं किन्तु हमारा यह छत्तीसगढी मजदूर अंग्रेजी का एबीसीडी नहीं जानता और हमें छत्तीसगढी बोलते सुनकर भी 'अंकल' कह कर अपने आप को श्रेष्ठ प्रदर्शित कर रहा है । प्रदर्शन प्रियता हमारे वस्त्रों से होते हुए अब बोलियों को भी लील रही है, और हम छत्तीसगढी अस्मिता के शंखनाद का ढकोसला कर रहे हैं ।


संजीव तिवारी

एक माटी प्रेमी का स्‍क्रैप

आरकुट में मेरे एक मित्र का जन्‍म भूमि के माटी प्रेम से सराबोर एक स्‍क्रैप आया । भाई नें उस स्‍क्रैप में 1975 में एक प्रसिद्ध छत्‍तीसगढी साहित्‍यकार की कविता को आरकुट के सहारे हमें लिख भेजा । रचना बहुत ही प्रेरणास्‍पद व संग्रहणीय है इस कारण हमने उसे अपने छत्‍तीसगढी ब्‍लाग में पब्लिश किया है ।

आपसे अनुरोध है कि इसे देखें एवं कमेंट उसी ब्‍लाग में देकर उनका उत्‍साह बढावें । लिंक - गुरतुर गोठ

लैपटाप : एक ब्लागर की आत्मकथा (कहानी)

किचन से पत्‍नी की बर्तनों पर उतरते खीज की आवाज तेज हो गई थी । मैं अपने लेपटाप में हिन्‍दी ब्‍लागों को पढने में मस्‍त था । ‘डिंग ! जी टाक से आये संदेश नें ध्‍यान आकर्षित किया । ’10.45 को मिलो, आवश्‍यक है ।‘ यह प्रिया का संदेश था । मैंनें ब्‍लाग को मिनिमाईज कर जी टाक के उस मैसेज बाक्‍स को खोला, जवाबी संदेश लिखने वाला ही था कि प्रिया जी टाक से आफलाईन हो गई ।

मैंनें टेबल में पडा हुआ अपना मोबाईल उठाया जो मेरे पेशे के कारण सामान्‍यतया वाईब्रेट मोड में ही रहता है । प्रिया के चार मिस्‍ड काल थे । पत्‍नी का मूड मुझे देर रात एवं सुबह से लेपटाप में घुसे देखकर खराब था । मैनें उसे किचन में झांका और उससे बिना कुछ कहे फ्रैश होने टाईलेट में घुस गया । आनन फानन में मुझे तैयार होते देखकर पत्‍नी के घंटों से बंद मुह से शव्‍द फूटे ‘ कहॉं जा रहे हो ? आज तो सन्‍डे है ना ?

‘हॉं यार एक जरूरी मीटिंग है, एकाध घंटे में वापस आ जाउंगा फिर आज फिल्‍म देखने जायेंगें । और हां खाना भी आज बाहर ही खायेंगें ।‘ बोलते हुए मैं गैरेज में रखी बाईक को निकालने लगा । ’मीटिंग है तो इसे क्‍यों छोड जा रहे हो, मेरी सौत को ।‘ पत्‍नी नें वाणी में भरपूर संयम रखते हुए मजाकिया लहजे में लैपटाप बैग को मुझे देते हुए कहा । यद्धपि उसके मन की ज्‍वाला को मैं महसूस कर रहा था । मैनें लेपटाप का बैग कंधे पर लटकाया और प्रेम उडेलता मुस्‍कान बिखराकर बाईक में गेयर लगा, आगे बढ गया ।

प्रिया अपने घर के पास वाली सडक के मोड पर खडी थी, उसकी आंखें बार बार सडक और घडी की ओर आ जा रही थी । ‘सारी पांच मिनट लेट हो गया !’ मैनें मुस्‍कुराते हुए कहा । ‘बडे दिनों बाद मिले हो, आज तो नहीं छोडूंगी ।‘ कहते हुए वह मेरे कंधे पर हांथ रखकर बाईक के पीछे बैठ गई । मैनें बाईक बढाते हुए पूछा ‘कहां चलना है ?’ ‘जहां तुम ले चलो !’ उसने कुछ इस अंदाज से कहा कि मेरे माथे पर पसीने की बूंदे उभर आई । अपनी झेंप को छिपाते हुए मैनें कहा ‘मधुलिका चलते हैं ?’ ‘ नहीं, मैं देर तक तुम्‍हारे साथ रहना चाहती हूं, बेबीलोन चलते हैं ।‘

मैनें गाडी हाईवे की ओर मोड दी । अब वह पूरे इत्‍मिनान से मेरे बाईक में बैठ गई ठीक उसी तरह जिस तरह से मेरी पत्‍नी मेरे साथ बैठती है । ‘तुम्‍हारी कविता मैंने कल नई दुनिया में पढी !’ उसने अपनी ठोढी को मेरे कंधे में टिकाते हुए कहा । ‘दिल को छू गई !’ उसने अपना शरीर मेरे पीठ से चिपका लिया । मेरी नजर सडकों पर थी ।

‘आजकल हाईवे में एक्‍सीडेंट कुछ ज्‍यादा होने लगा है ।‘ मैंने विषय को बदलते हुए कहा । ’सच बताओ विनय, तुमने वो कविता मेरे लिये ही लिखी थी ना ?’ उसने मेरी बातों को ध्‍यान दिये बिना मुझे दोनों हाथों में जकडते हुए कहा । इससे बाईक का संतुलन कुछ बिगडा, मैं बाईक को सम्‍हालते हुए कंधे से नीचे गिर आये लेपटाप के पट्टे को पुन: कंधे पर टिकाया ।

‘ये तुम्‍हारा लेपटाप ! सच में दुश्‍मन है दुश्‍मन ! घर में मैडम का और यहां मेरा, दिल को मिलने ही नहीं देता !’ उसने खीझते हुए कहा । मैनें ठहाका लगाया, एक हाथ से बाईक चलाते हुए दूसरे हाथ से लेपटाप बैग को पीछे से लेकर सामने पैट्रोल टंकी में रख अपने सीने के पास टिका लिया । वह मेरे पीठ पर चिपक गई, उसकी सांसों की धडकनों को भी मैं महसूस करने लगा । बाईक तेज गति से मन के विचारों की तरह दौड रही थी । लैपटाप का बैग मेरे छाती में बार बार टकराकर अपने अस्तित्‍व की गवाही दे रहा था ।

मेरा मन दुविधा की भंवर में फंसता जा रहा था, जेब में रखे मोबाईल में हरकत हुई वाईब्रेटर धडक उठा । मैं बाईक रोक कर मोबाईल उठाया ‘पापा दादाजी आये हैं, आप जल्‍दी आ जाओ !’ उधर से मेरे दस वर्षीय बेटे नें कहा । मैं जानता था कि, जब मेरी पत्‍नी मुझसे नाराज होती है और कोई आवश्‍यकता होती है तो घर से फोन मेरा बेटा ही करता है । ‘ठीक है बेटा, मैं मीटिंग निबटा कर जल्‍दी आ रहा हूं !’ मैंने कहा और मोबाईल काट कर जेब में रखा । ‘अब झूठ भी बोलना सीख रहे हो !’ प्रिया ने हसते हुए कहा । ‘मुझे जल्‍दी जाना होगा प्रिया ! घर में बॉस आये हैं !’ मैंने बॉस का नाम लेकर सहानुभूति बटोरने का प्रयास किया । तब तक हम रेस्‍टारेंट पहुच चुके थे ।

रेस्‍टारेंट में उसने आईसक्रीम और कोल्‍डड्रिंक्‍स का आर्डर दिया और सधे प्रेमिकाओं की भांति बहुत कुछ बोलते रही, मैं हॉं, हूं के अतिरिक्‍त और कुछ बोल नहीं पाया ।

वापस उसे उसके घर के सडक के मोड पर छोडा और हाथ मिला फिर मिलने का अंग्रेजी में वादा कर बाईक आगे बढाया तो मेरे परम्‍परागत सांचे में ढले मन को कुछ यूं लगा कि मेरे बाईक से टनों भार को अभी उतार आया हूं ।

प्रिया मुझे कुछ माह पूर्व ही चैट रूम में मिली थी । वह 30 वर्ष की है, बेहद आर्कषक व्‍यक्तित्‍व । उसने शादी नहीं की है, कारण पूछने पर दार्शनिक अंदाज में उसने जो बतलाया है उसका सार यह है कि वह अपने पिता की असमय मृत्‍यु के बाद, मॉं और दो छोटे भाईयों का सम्‍मानपूर्वक पोषण करते हुए, अपने अविवाहित रहने की भीष्‍म प्रतिज्ञा के अंतरद्वंद से लडते हुए, मर्यादाओं के छोटे किन्‍तु सुरक्षित आकाश में उन्‍मुक्‍त पंछी सा उडना चाहती है । उसे कविताओं से लगाव है और मैं कवितायें लिखता हूं । कुछ दिनों चैट रूम में ही हा के बाद आरकुट में स्‍क्रैपों के आदान प्रदान चला फिर मिलना जुलना भी आरंभ हो गया । कितनी तेजी से यह सब हुआ मुझे याद नहीं, हॉं, उसे सब याद है यहां तक कि मैं विवाहित हूं और मेरे दो पुत्र भी है इसके साथ ही मैं मार्डन नहीं हूं, सब कुछ ।

घर में पंहुचते ही मैंनें पत्‍नी से पूछा ‘कहां हैं बाबूजी ?’ ‘ बाथरूम में हैं, नहा रहे हैं ! कैसी रही आपकी मीटिंग ?’ पत्‍नी नें रूक रूक कर जवाब दिया । ‘बहुत बढिया !, मैंने तो अपना प्रेजेंटेशन दे दिया है, रात भर भिडकर जो बनाया था, आगे भगवान जाने !’ मैं आत्‍मविश्‍वास को आंखों में साधते हुए कहा । यद्धपि मैं पिछले रात के दो बजे तक सिर्फ फिरंगियों से चैट करते रहा हूं।

‘पर ये ......... !’ पत्‍नी नें आंखों के इशारे से सोफे की ओर दिखाया, शव्‍द उसके आंखों नें कहे । वहां मेरा लैपटाप पडा था, कुछ फाईलों के साथ लैपटाप का बैग मेरे कंधे पर लटका था ।

चेतनाशून्‍य मैं लैपटाप की ओर देखने लगा, पता नहीं कितने पल बीत गये । विश्‍वास अविश्‍वास और भावनाओं के बवंडर नें सहज मानस को अपने आगोश में ले लिया । विद्युत तरंगों में बनते बिगडते शव्‍द और चित्र किसी नेट कनेक्‍शन की भांति मेरे मन में उमडते रहे । कंधे में लटके लैपटाप के बैग के भार से मैं जमीन में धंसा जा रहा था ।

नोट : यह कहानी पूर्णत: काल्‍पनिक है, इसके नाम, पात्र एवं घटनायें भी काल्‍पनिक है । यदि किसी नाम, पात्र एवं घटनाओं से यह मेल खाता है तो महज एक संयोग है ।

संजीव तिवारी

संकल्पशक्ति का अभाव : छत्तीसगढ में नक्सलवाद

पिछले दिनों से छत्‍तीसगढ में नक्‍सलवाद बनाम सलवा जुडूम या मानवाधिकर का हो हल्‍ला अंतरजाल संसार में छाया हुआ है । लगातार किसी न किसी ब्‍लाग में सनसनीखेज आलेख प्रकाशित हो रहे हैं । इस कलम घिसाई में पत्रकारों, ब्‍लागरों, समाज सेवकों, चिंतकों के साथ ही हमारे पुलिस प्रमुख भी पहले से ही रंग चुके कैनवास में अपनी कलम की स्‍याही उडेल रहे हैं । पहले दैनिक छत्‍तीसगढ में फिर हरिभूमि में और अब ब्‍लाग पर । लेखन चालू आहे । पर परिणाम सिफर है, मानवाधिकारवादी, गांधीवादी, छत्‍तीसगढ के तथाकथित हितचिंतक सभी कलम घिस रहे हैं इसलिये कि, छत्‍तीसगढ में लेखन के द्वारा जनजागरण होगा और नक्‍सली अपना हथियार नमक के दरोगा के पास डालकर आत्‍मसर्मपण करेंगें और पुलिस मानवाधिकार की रक्षा में प्रतिबद्ध होकर अपराधियों के चूमा चांटी लेगी । ‘लिखते रहो, लिखते रहो’ कई ब्‍लागर्स मित्र ब्‍लाग में बडी मेहनत से तैयार की गई व पब्लिश की गई पोस्‍टों पर ऐसी ही टिप्‍पणी देते हैं ।


पिछले दिनों दिल्‍ली के एक पत्रकार नें तो गजब ढा दिया वो इसलिये क्‍योंकि छत्‍तीसगढ के लोग कहते हैं कि अन्‍य प्रान्‍त से छत्‍तीसगढ की दशा देखने व लिखने की मंशा लेकर जब कोई यहां आता है तो उसे हवाई अड्डे या रेलवे स्‍टेशन में या बाहर में ही एक चश्‍मा पहना दिया जाता है जिसमें सिर्फ मानवाधिकार हनन की तस्‍वीरें ही दिखती हैं ऐसे में बेचारा लेखक सिर्फ एक पहलू को ही लिख पाता है दूसरी पहलू को चूंकि वह देख नहीं पाता इस कारण लिख भी नहीं पाता । कमोबेश सभी शांति के चिंतक का तो यही मानना है । तो दिल्‍ली से आये उस पत्रकार नें वह चश्‍मा अपने जेब में ही रखा उसे पहना नहीं और चल पडे बस्‍तर की ओर, लिखा और कर दिया विष्‍फोट । यही तो गजब था बहुत दिनों बाद कुछ अटपटा सा लिखा गया । इस लेख में बडे बडे चिंतकों नें टिप्‍पणियां ठेली । मानवाधिकार विचारधारा के संवाहकों पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगाये गये और विचारधारा के वाहकों को माल वाहक कह कर फुलझडी भी दागी गई ।


इतने बडे संवेदनशील मसले को आप इतने हल्‍के फुल्‍के ढंग से ले रहे हैं यह ठीक नहीं है । अंधेरे कोने में धडकता हुआ मेरा दिल कहता है पर दिमाग प्रश्‍न करता है कि लेखनजगत व ब्‍लागजगत में हो रहे इस हो-हल्‍ले से क्‍या छत्‍तीसगढ में कुछ चमत्‍कार होने वाला है ? मानवाधिकारवादी रिहा होने वाले हैं, सलवा जुडूम बंद होने वाला है या नक्‍सलवाद पर नकेल कसा जाने वाला है ? यह सब अभी तो सिर्फ दिवा स्‍पप्‍न है, नक्‍सलवाद पर नकेल ना तो कसी जायेगी ना ही राजनैतिक ताकतें इसे कसने देंगी । इस समस्‍या का मूल आरंभ में शोषण के खिलाफ यद्धपि रहा है किन्‍तु अब यह सत्‍ता और वर्चस्‍व की लडाई है । इसमें सबसे ज्‍यादा पिस रही है पुलिस और आम जनता । जिन्‍हें इसके लिये चिंतित होना चाहिए वे इन दिनों चुनावी तैयारियों एवं राजनैतिक समीकरण बैठाने में मशगूल हैं । बयानबाजी और लेखों के द्वारा जिन्‍हें जनता से रूबरू होना चाहिये वे तो एसी चलाकर कंबल ओढे सो रहे हैं ।


अपने दायित्‍व को समझते हुए वैचारिक क्रांति एवं विमर्श का सूत्र लिए हमारे पुलिस प्रमुख इस प्रमेय का हल ढूढ रहे हैं जो स्‍वयं भारत के गुप्‍तचर विभाग के उप प्रमुख रहे हैं । जिन्‍हें भारत के उग्रवादी आंदोलनों का सब गुणा भाग ज्ञात है फिर भी सत्‍य के वैचारिक सूत्र का प्रयोग कर रहे हैं । हम बरसों से देख रहे हैं सुरक्षा बलों के भूतपूर्व कर्णधारों की आत्‍मकथाओं में हम पढते ही रहे हैं कि सुरक्षा बलों के इन दमदार व जांबाज कर्णणारों का सार्मथ्‍य, छिनाल राजनीति सुन्‍दरी के कारण ही पस्‍त हो जाते हैं । यदि सत्‍ताधीशों में संकल्‍पशक्ति का अभाव हो तो यह दुर्दशा तो होना ही है क्‍योंकि आंतरिक अशांति पर नियंत्रण के सभी प्रयास थोथे और दिखावटी हैं । एक से एक नजर आ रहे रहत्‍योद्घाटन व बिगडती स्थितियां कहती है कि छत्‍तीसगढ अभी प्रसव पीडा में है जो बरसों तक खिचने वाली है । पर राजनीति किसी दाई या डाक्‍टर का सलाह नहीं लेगी ।

अहिमन कैना : छत्तीसगढी लोक गाथा

रानी अहिमन राजा बीरसिंग की पत्‍नी है । एक दिन उसे तालाब में स्‍नान करने की इच्‍छा होती है इसके लिये वह अपनी सास से अनुमति मांगती है । उसकी सास कहती है कि घर में कुंआ बावली दोनो है तुम उसमें नहा लो तालाब मत जाओ तुम्‍हारा पति जानेगा तो तुम्‍हारी खाल निकलवा लेगा । अहिमन बात नहीं मानती और अपनी चौदह सेविकाओं के साथ तालाब स्‍नान के लिये मिट्टी के घडे लेकर निकल पडती है । तालाब में नहाने के बाद वह अपनी मटकी को खोजती है । उसकी मटकी को तालाब में आये एक व्‍यापारी अपने कब्‍जे में ले लेता है अहिमन के मटकी मांगने पर व्‍यापारी उसे पासा खेलने पर देने की बात कहता है ।


अहिमन कैना पासा के खेल में अपने सभी गहने हार जाती है और दुखी मन से कहती है कि अब जा रही हूं गहने नही देखने पर मेरे सास ससुर मुझे गाली देंगें । तब व्‍यापारी उसे उसका मायका व ससुराल के संबंध में पूछता है । अहिमन बताती है कि दुर्ग के राजा उसके भाई है और दुर्ग उसका ससुराल है । व्‍यापारी का दुर्ग राजा (महापरसाद) मित्र रहता है अत: वह उसे बहन मान सभी हारे गहनो के स्‍थान पर नये गहने, सोने का मटका व नई साडी देता है । अहिमन अपने सेविकाओं के साथ अपने घर पहुचती है । राजा बीरसिंग नई साडी को देखकर शंका में अति क्रोधित हो जाता है और तत्‍काल अहिमन को लेकर उसके मायके छोडने जाता है । गांव से बाहर होते ही राजा बीरसिंह क्रोध में उसका बाल पकड कर घोडे के पूंछ में बांध देता है और घोडा दौडा देता है । अहिमन कैना का शरीर निर्जीव सा हो जाता है पर क्रोधित राजा बीरसिंह उस निढाल शरीर को तलवार से दो तुकडे कर देता है और अपने घर आ जाता है ।


इधर व्‍यापारी के बैलों का खेप इस स्‍थान पर आकर रूक जाता है आगे नहीं बढता तब ब्‍यापारी को इस बात की जानकारी होती है तो वह अहिमन कैना के लाश के पास जाता है और भगवान से अपनी बहन की प्राणों की भीख मांगता है उसकी आर्तनाद एवं अहिमन कैना की पतिव्रत के जोर से भगवान शंकर का आसन डोलने लगता है । भगवान शंकर व पार्वती आते हैं और अहिमन कैना को जीवित कर देते हैं ।


अहिमन कैना अपने व्‍यापारी भाई के साथ अपने ससुराल में आती है और तम्‍बू लगाती है । व्‍यापारी के पास व्‍यापार हेतु धन धान्‍य का भंडार है, अहिमन कैना गेहूं पिसने के लिये गांव में हाथ चक्‍की खोजते अपने पति के घर में ही आती है उसके पति उसे नहीं पहचानते और उस पर आशक्‍त हो जाते हैं । राजा बीरसिंह व्‍यापारी से उसकी बहन का हाथ मागता है । व्‍यापारी राजा को अहिमन को सौंप कर आर्शिवाद देता है कि तुम अपनी ही पत्‍नी को नहीं पहचान पाये अब खावो पीओ और सुख से रहो ।


मूल छत्‍तीसगढी में वाचिक परम्‍परा में गाई जाने वाली इस गाथा में नारी के निष्‍छल पति प्रेम के साथ ही परदेशी के द्वारा सगे भाई जैसे व्‍यवहार का चित्रण मिलता है जो यह दर्शाता है कि छत्‍तीसगढ की परम्‍परागत नारियों में पति के प्रति प्रेम, निष्‍ठा व श्रद्धा का भाव पति द्धारा मृत्‍यु तुल्‍य कष्‍ट देने के बावजूद बरकरार रहता है ।

मूल छत्‍तीसगढी में इस गाथा को मेरे छत्‍तीसगढी ब्‍लाग 'गुरतुर गोठ' में आप पढ सकते हैं ।


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संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...