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छत्तीसगढ़ में लोक संगीत के नागरी प्रस्तुति का बीजारोपण

प्रतिवर्ष की भांति 1948 में राजनांदगांव में गुजराती समाज के द्वारा दुर्गोत्सव मनाया जा रहा था। उस समय बीड़ी के व्यापारी मीरानी सेठ के घर के सामने दुर्गा रखा हुआ था। दुर्गा पंडाल में इस वर्ष भी शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम रखा गया था जिसमें रायपुर के प्रसिद्द संगीतकार अरुण सेन आमंत्रित थे। कार्यक्रम के बीच में सुगम और फ़िल्मी संगीत भी रखा गया था ताकि दर्शक शास्त्रीय संगीत से बोर न हों। इसमें खुमानसाव को फिल्मी संगीत की प्रस्तुति के लिए बुलाया गया था। इस कार्यक्रम में खुमान साव ने कुछ फिल्मी गीत प्रस्तुत किए जिसमें 'घर आया मेरा परदेसी' जैसे गाने प्रस्तुत किए गए। कार्यक्रम सुनने वालों ने खुमान संगीत को बहुत पसंद किया। उसी दिन खुमान साव ने यह निश्चय किया कि महानगरों की भांति राजनांदगांव में भी एक आर्केस्ट्रा पार्टी का निर्माण किया जाए। इस कार्यक्रम से ही छत्तीसगढ़ में आर्केस्ट्रा पार्टी की परिकल्पना ने पहली बार पंख पसारा।

इसी वर्ष दुर्गा पक्ष के बाद ही खुमान साव ने खुमान एण्ड पार्टी के नाम से आर्केस्ट्रा पार्टी का गठन किया। उस समय महिलाएं आर्केस्ट्रा में नहीं गाती थीं। जो पुरुष गायक पार्टी में थे उनमे सुंदर सिंह ठाकुर जो बाद में ट्राइबल के सीओ हुए वे सहगल के गीत गाते थे। जयराम शुक्ल जो किशोरीलाल शुक्ला के भतीजे थे और बाद में तहसीलदार हुए वे और संतोष शुक्ला अन्य फिल्मी गीत गाते थे।

खुमान साव के आर्केस्ट्रा पार्टी ने तब धूम मचा दिया था। पूरे छत्तीसगढ़ में 'खुमान एण्ड पार्टी' की मांग आने लगी थी। उनकी पार्टी में धीरे-धीरे लोग जुड़ते गए और 1948 से 50 तक खुमान आर्केस्टा का पूरे छत्तीसगढ़ में काफी धूम रहा। जब संगीत कलाकार बढ़ते गए तब उन्होंने 1952 में 'शारदा संगीत समिति' की स्थापना की जिसमें भी वो संगीत देने लगे। कलाकारों के बढ़ने के बाद 1959 में उन्होंने 'सरस्वती संगीत समिति' का गठन किया और आर्केस्ट्रा पार्टी अनवरत चलती रही। 1954 में जब वे जनपद स्कूल राजनांदगांव में शिक्षक नियुक्त हो गए उसके बाद उन्होंने अंतिम आर्केस्ट्रा पार्टी का जो संचालन किया उसका नाम 'राज भारती संगीत समिति' था, जिसे बाद में उनके शिष्य नरेंद्र चौहान जी चलाने लगे। 1962 में प्रसिद्द लोकसंगीतकार गिरजा सिन्हा और भैयालाल हेडाऊ के साथ मिल कर भी उन्होंने एक संगीत समिति का गठन किया जिसमे फ़िल्मी गीतों के साथ ही छत्तीसगढ़ी गीत भी प्रस्तुत किये जाने लगे। इस प्रकार से छत्तीसगढ़ में लोक संगीत के नागरी प्रस्तुति का बीजारोपण हुआ।
(खुमान साव पर संजीव तिवारी द्वारा लिखे जा रहे कलम घसीटी के अंश)
फेसबुक पर यह प्रस्‍तुति-

छत्तीसगढ़ के जनकवि :कोदूराम “दलित” भुलाहू झन गा भइया

५ मार्च को एक सौ पाँचवीं जयन्ती पर विशेष
{छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कहानीकार और वरिष्ठ साहित्यकार श्री परदेशीराम वर्मा जी की किताब – “अपने लोग” के प्रथम संस्करण २००१ से साभार संकलित}
छत्तीसगढ़ के जनकवि :कोदूराम “दलित”
भुलाहू झन गा भइया

पिछड़े और दलित जन अक्सर अन्चीन्हे रह जाते हैं | क्षेत्र, अंचल, जाति और संस्कृति तक पर यह सूत्र लागू है | पिछड़े क्षेत्र के लोग अपना वाजिब हक नहीं माँग पाते | हक पाने में अक्षम थे इसीलिये पिछड़ गये और जब पिछड़ गये तो भला हक पाने की पात्रता ही कहाँ रही |
हमारा छत्तीसगढ़ भी एक ऐसा क्षेत्र है जिसे हक्कोहुकूक की समझ ही नहीं थी | परम श्रद्धालु, परोपकारी, मेहमान-नवाज, सेवाभावी यह छत्तीसगढ़ इसी सब सत्कर्मों के निर्वाह में मगन रह कर सब कुछ भूल जाता है | “मैंने उन्हें प्रणाम किया” यह भाव ही उसे संतोष देता है | जबकि प्रणाम करवाने में माहिर लोग उसकी स्थिति पर तरस ही खाते हैं | छत्तीसगढ़ी तो अपनी उपेक्षा पर जी भर रोने का अवकाश भी नहीं पाता | जागृत लोग ही अपनी उपेक्षा से बच्चन की तरह व्यथित होते हैं ....
‘मेरे पूजन आराधन को
मेरे सम्पूर्ण समर्पण को,
जब मेरी कमजोरी कहकर
मेरा पूजित पाषाण हँसा,
तब रोक न पाया मैं आँसू’

हमारे ऐसे परबुधिया अंचल के अत्यंत भावप्रवण कवि हैं स्वर्गीय कोदूराम “दलित” | ५ मार्च १९१० को दुर्ग जिले के टिकरी गाँव में जन्मे स्व.कोदूराम “दलित” का निधन २८ सितम्बर १९६७ को हुआ | ये गाँव की विशेषता लेकर शहर आये | यहाँ उन्होंने शिक्षक का कार्य किया | अपने परिचय में वे कहते हैं....
‘लइका पढ़ई के सुघर, करत हववं मैं काम,
कोदूराम दलित हवय, मोर गवंइहा नाम |
मोर गवंइहा नाम, भुलाहू झन गा भइया
जन हित खातिर गढ़े हववं मैं ये कुण्डलिया,
शउक मुहू ला घलो हवय कविता गढ़ई के
करथवं काम दुरूग मा मैं लइका पढ़ई के’ |
कोदूराम “दलित” का यह उपनाम भी महत्वपूर्ण है | वे महसूस करते थे कि वे ही नहीं अंचल भी दलित है | छत्तीसगढ़ी का यह कवि हिन्दी और कवियों से जगमग लोकप्रिय काव्य मंचों पर अपनी विशेष ठसक और रचनात्मक धमक के कारण मंचों का सिरमौर रहा | अपने जीवन काल में ही दलित जी ने स्पृहणीय मुकाम पा लिया था मगर अतिशय विनम्र और संस्कारशील होने के कारण यथोचित महत्त्व न मिलने पर भी वे कभी नहीं तड़फड़ाये |
शोषण की चक्की में पिस रहे दलितों के पक्ष में कलम चलने वाले कवि ने आर्थिक सहयोग देने वाले राजनेता दाऊ घनश्याम सिंह गुप्त जी के सम्बन्ध में “सियानी गोठ” काव्य संग्रह में जो लिखा वह उनके चातुर्य और साहस को ही प्रदर्शित करता हऐ | “सियानी गोठ” के प्रकाशन के लिये दुर्ग के धान कुबेर दाऊ घनश्याम सिंह गुप्त ने उन्हें मात्र पचास रुपया दिया | सविनय राशि स्वीकारते हुये संग्रह में दाऊ जी के चित्र को ही उन्होंने नहीं छापा, बाकायदा यह वाक्य भी लिख दिया ....
“जानत हौ ये कोन ये
मनखे नोहय सोन ये”
यही दलित जी की विशेषता है |
“राजा मारय फूल म, त तरतर रोवासी आवय
ठुठवा मारय ठुस्स म, त गदगद हाँसी आवय”
यह कहावत है छत्तीसगढ़ में | कवि लेखक ठुठवा अर्थात कटे हाथों वाले लोग हैं |सत्ता, शक्ति से संचालित नहीं हैं लेखक के हाथ | इसीलिए वह ठुठवा है | और कमाल देखिये कि शक्ति संपन्न राजा जब फूल से भी मारता है तो मार भारी पड़ती है | मार खाने वाला बिलबिला कर रोने लगता है | लेकिन ठुठवा मारता है आहिस्ता और मार खाने वाला हँस पड़ता है क्योंकि चोट नहीं पड़ती | विरोध भी हो जाता है और सांघातिक चोट भी नहीं पड़ती | यह है कला की मार के सम्बन्ध में छत्तीसगढ़ का नजरिया | यह छत्तीसगढ़ी विशेषता है | दूसरे हमें फूल से छूते हैं तो हमें रोना आता है लेकिन हम दूसरों को मार भी दें तो वे आल्हादित होते हैं | यह प्रेम की जीत है | प्रेम का साधक किसी को मार ही नहीं सकता | छत्तीसगढ़ तो दूसरों को बचाता है स्वयं मिट कर | इसीलिए इसकी मार ऐसी होती है कि मार खाने वाले भी आनंद का अनुभव करते हैं |
छत्तीसगढ़ के लिए जो आंदोलन चला विगत पचीस बरस से, उसे आंदोलन के आदि पुरुष डॉ.खूब चंद बघेल ने अपने दम पर चलाया | छत्तीसगढ़ भातृ संघ के झंडे टेल संकल्प लेने वाले लाखों लोगों ने अपने खून से हस्ताक्षर कर उनके साथ जीने-मरने का संकल्प लिया | लेकिन छत्तीसगढ़ ने कभी तोड़-फोड़, मार -काट को नहीं अपनाया | जबकि दूसरे इलाकों में बात-बात में खून बह जाता है और लोग गर्वित भी होते हैं कि हमारे क्षेत्र में तो बात-बात में चल जाती है बन्दूक | हमें इस पर गर्व नहीं होता | हम तो गर्वित होते हैं कि हम सहिष्णु हैं | प्रेमी हैं | शांतिप्रिय और हितैषी हैं | इसीलिए कोदूराम दलित जैसा कवि हमारे बीच जन्म लेता है | और दान दाता धन कुबेर का सम्मान रखते हुए अपनी प्रतिपक्षी भूमिका भी पूरे गरिमा के साथ निभा ले जाता है …..
“जानत हौ ये कोन ये,
मनखे नोहे सोन ये”
यह मनुष्य नहीं सोना है | मनुष्य होता तो अरबों की संपत्ति का स्वामी साहित्य सेवक को मात्र पचास रुपया ही क्यों देता | व्यंग्य यह है | मगर पूरी मर्यादा के साथ |
दलित जी ने छत्तीसगढ़ी कविता को एक आयाम ही नहीं दिया , उसे वे जनता तक ले जाने में सफल हुए | वे छत्तीसगढ़ी कुंडलियों के रचनाकार के रूप में विख्यात हुए | बेहद प्रभावी और बहु आयामी कुंडलियों को लेकर वे मंच पर अवतरित हुए | आजादी मिली | जनतंत्र में कागज़ के पुर्जे से राजा बनाने की प्रक्रिया चुनाव के माध्यम से शुरू हुई | इसे दलित जी ने कुछ इस तरह वर्णित किया......

'अब जनता राजा बनिस करिस देश मा राज,
अउ तमाम राजा मनन बनगे जनता आज |
बनगे जनता आज, भूप मंत्री पद मांगे,
ये पद ला पाए बर, घर-घर जाय सवांगे
बनय सदस्य कहूँ जनता मन दया करिन तब
डारयँ कागद पेटी ले निकरय राजा अब ||

दलित जी आधुनिक चेतना संपन्न एक ऐसे कवि थे जिन्होंने विज्ञान के लाभकारी प्रभाव को अपनी कविता का विषय बनाया | उनके समकालीन कवियों में यह दृष्टि बहुत कम दीख पड़ती है …

तार मनन मा ताम के, बिजली रेंगत जाय
बुगुर बुगुर सुग्घर बरय,सब लट्टू मा आय
सब लट्टू मा आय ,चलावय इनजन मन ला
रंग-रंग के दे अँजोर ये हर सब झन ला
लेवय प्रान लगय झटका,जब एकर तन मा
बिजली रेंगत जाय, ताम के तार मनन मा ||
चाय, सिनेमा, घड़ी, नल, परिवार नियोजन, नशा, जुआ, पंचशील, अणु, विज्ञान, बम, पञ्चवर्षीय योजना, अल्प बचत योजना, चरखा, पंचायती राज आदि विषयों पर दलित जी ने कुंडलियों का सृजन किया है | अपनी धरती का मुग्ध भाव से उन्होंने यश गान किया ….


छत्तीसगढ़ पैदा करय, अड़बड़ चाँउर डार,
हवयँ लोग मन इहाँ के, सिधवा अऊ उदार
सिधवा अऊ उदार हवयँ दिनरात कमावयँ
दे दूसर ला मान, अपन मन बासी खावयँ
ठगथयँ ये बपुरा मन ला बंचक मन अड़बड़
पिछड़े हवय अतेक, इही कारण छत्तीसगढ़ |
पिछड़े छत्तीसगढ़ में भिलाई इस्पात संयंत्र के प्रादुर्भाव एवं उसके महत्त्व को कवि ने खूब रेखांकित किया है | वे एक चैतन्य कवि थे | उनकी चौकन्न आँखों ने अँधेरे उजले पक्षों को बखूबी देखा | भिलाई पर कवि की प्रतिक्रिया देखें …..
बनिस भिलाई हिन्द के, नवा तिरिथ अब एक
चरयँ गाय-गरुवा तिहाँ, बसगे लोग अनेक
बसगे लोग अनेक ,रोज आगी संग खेलें
लोहा ढलई के दुःख ला हँस-हँस के झेलें
रइथयँ मिल के रूसी- हिन्दी भाई-भाई
हमर देश के नवा तिरिथ अब बनिस भिलाई |

दलित जी अपने समकालीन कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय हुए | उनके सुयोग्य शिष्य के रूप में श्री दानेश्वर शर्मा आज उनकी परम्परा को और पुख्ता कर रहे हैं | श्री दानेश्वर शर्मा चौथी हिन्दी की कक्षा में उनके शिष्य थे | तब से ही लेखन और मंच के प्रति उनमें दलित जी ने संस्कार डालने का सफल यत्न किया | दलित जी छत्तीसगढ़ की परम्पराओं पर मुग्ध थे तो आधुनिक दुनिया के साथ कदम मिला कर चलने की कोशिश कर रहे छत्तीसगढ़ के प्रशंसक भी थे | उन्होंने राउत नाच इत्यादि के लिए भी अवसर आने पर दोहों का लेखन किया | यहाँ भी उनकी प्रतिबद्धता एवं दृष्टि का परिचय हमें मिलता है |

गांधी जी के छेरी भ इया दिन भर में नारियाय रे
ओखर दूध ला पी के भ इया, बुधुवा जवान हो जाय रे |
दलित जी परतंत्र भारत में जन्मे | उन्हें भारत की आजादी का जश्न देखने का अवसर लगा | भला उस यादगार दृश्य को वे क्योंकर न शब्दों में बाँधते ? उनका चित्रांकन जहाँ रंगारंग है वहीं अनोखेपन के कारण अविस्मरणीय भी ….............

आइस हमर लोक तंत्र के, बड़े तिहार देवारी
ओरी-ओरी दिया बार दे, नोनी के महतारी

विनोदी स्वभाव के दलित जी हास्य-व्यंग्य के अप्रतिम कवि सिद्ध हुए | भाषा और व्याकरण के जानकार दलित जी काव्यानुशासन को लेकर सतर्क रहते थे | जहाँ कहीं उन्हें रचना में अनुशासनहीनता दिखती वे सविनय रोकने से बाज नहीं आते | टोका-टोकी का उनका अंदाज अलबत्ता बहुत सुरुचिपूर्ण होता | टोके जाने पर भी व्यक्ति मुस्कुरा कर अपनी गलती स्वीकारता ही नहीं, सदा के लिए उनका मुरीद हो जाता | समाज में आर्थिक विषमता के कारण उत्पन्न कठिनाइयों का वर्णन उनकी रचनाओं में है | महत्वपूर्ण यह है कि वे अपनी रचनाओं के प्रतीक भी जीवनण और उससे जुड़ी अनिवार्य संगति से संदर्भित करते हुए उठाते हैं | इसीलिए दलित जी का व्यंग्य अपने अनोखेपन में उनके समकालीनों से एकदम अलग लगता है | यहाँ हम देख सकते हैं, उनकी विलक्षणता को.....

'मूषक वाहन बड़हर मन, हम ला
चपके हें मुसुवा साहीं
चूसीं रसा हमार अउर अब
हाड़ा -गोड़ा ला खाहीं |
हे गजानन ! दू गज भुइयाँ
नइ हे हमर करा
भुइयाँ देबो-देबो कहिथे हमला
कतको झन मिठलबरा

शोषण के कारण बेजार जन का ऐसा चित्रण वे ही कर सकते थे | अमीरों ने खून तो चूस लिया लेकिन अब वे हमारी हड्डियाँ भी चबाएँगे, यह भविष्य वाणी आजादी के पचास वर्षों में कितनी ठीक उतर गई इसे हम बेहतर समझ पा रहे हैं | वे हिन्दी में भी रचना करते रहे | एक लंबे समय से छत्तीसगढ़ में तरह-तरह के रचनाकारों की साधना चलाती आ रही है | एक वे जो यहाँ का हवा, पानी अन्न-जल ग्रहण करते हुए छत्तीसगढ़ी नहीं जानने के कारण हिन्दी में लिखने को मजबूर थे | दूसरी तरह के कलमकार वे हैं जिनके लिए छत्तीसगढ़ी दुदूदाई की बोली तो थी मगर वे उसमें रचना नहीं कर सके | उनका हिन्दीमय यशस्वी जीवन छत्तीसगढ़ी का कुछ भी भला नहीं कर सका | इसके अतिरिक्त ऐसे रचनाकार भी हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ में लेखन कर अपना स्थान बनाया और छत्तीसगढ़ी का गौरव भी बढ़ाया लेकिन सर्वाधिक कठिन साधना उनकी है जो हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों में ही सामान रूप से लिखने का जिम्मा सम्हाल रहे हैं | कोदूराम जी भी इसी परम्परा के कवि थे | यद्यपि सामान रूप से दोनों ही भाषाओं में या सभी विधाओं में महत्त्व प्राय: नहीं मिलता | दलित जी भी छत्तीसगढ़ी के कवि माने जाते हैं | चूंकि उनका काव्य वैभव छत्तीसगढ़ी में भी पूरे प्रभाव के साथ उपस्थित रहा | कल भी और आज भी उसका प्रभाव हमें दिखता है | इसीलिए उन्हें छत्तीसगढ़ी का संसार अपना प्रमुख कवि स्वीकारता है | लेकिन उनकी हिन्दी की रचनाएँ भी बहुत महत्वपूर्ण हैं |
काम और उससे उत्पन्न नाम ही महत्वपूर्ण है शेष काल के गाल में समा जाता है, इस भाव पर बहुत सारी रचनाएँ हम पढाते हैं | यहाँ देखें कुंडाली कुशल दलित जी का काव्य वैभव उनकी हिन्दी कविता के माध्यम से....
'रह जाना है नाम ही, इस दुनियाँ में यार
अत: सभी का कार भला, है इसमें ही सार
है इसमें ही सार, यार तू तज दे स्वार्थ
अमर रहेगा नाम, किया कर तू परमारथ
काया रूपी महल एक दिन ढह जाना है
किन्तु सुनाम सदा दुनियाँ में रह जाना है |

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रपट: जमुना प्रसाद कसार स्मृति व्याख्यान एवं पुस्तक विमोचन


दुर्ग के वरिष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं यशश्वी साहित्यकार जमुना प्रसाद कसार एक चिंतक और मानस मर्मज्ञ विचारक थे। उन्होंनें अपने साहित्य में अपने आस पास के परिवेश को लिखा। राम काव्य के उन पहलुओं और पात्रों के संबंध में लिखा, जिसके संबंध में हमें पता तो था, किन्तु जिस तरह से उन्होंनें उनकी नई व्याख्या की उससे उन चरित्रों की गहराईयों से हमारा साक्षात्कार हुआ। किसी रचनाकार के संपूर्ण रचना प्रक्रिया का मूल्यांयकन करना है तो यह देखा जाना चाहिए कि उसने क्याा कहा है। किन्तु एक चिंतक और विचारक की रचनाओं का मूल्यांकन करना है तो यह देखा जाना चाहिए कि, उसने उसे कैसे कहा है। कैसे कहा है इसे जानने के लिए आपको उसे गहराई से पढ़ना होता है। कसार जी की रचनाओं को आप जितनी बार पढ़ते हैं उसमें से नित नये अर्थ का सृजन होता है। कसार जी की पुण्य तिथि 30 अक्टूाबर को दुर्ग में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। प्रस्तुत है उसकी रिपोर्टिंग - 

दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति के द्वारा आयोजित वरिष्ठ साहित्यकार एवम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जमुना प्रसाद कसार जी की पुण्य तिथि पर स्मृति व्याख्यान एवं पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम 30 अक्टूजबर को दुर्ग मे संपन्न हुआ। कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रुप मे वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर, अध्यक्ष के रूप में पूर्व चुनाव आयुक्त एवं साहित्यकार डॉ सुशील त्रिवेदी एवं मुख्य वक्ता के रुप मे वरिष्ठ कथाकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी उपस्थित थे। कार्यक्रम को संबोधित करते हुए मुख्य वक्ता परदेशीराम वर्मा ने जमुना प्रसाद कसार जी के अंतरंग जीवन यात्रा और रचना यात्रा का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया। उन्होंनें स्वतंत्रता संग्राम के समय से अपने जीवन के अंतिम काल तक निरंतर सृजनशील जमुना प्रसाद कसार जी की लेखन जिजीविषा एवं सामाजिक संघर्षों पर प्रमुख रुप से प्रकाश डाला। उन्होंनें कसार जी के स्वनतंत्रता आन्दोलन के काल में किए गए विरोध प्रदर्शनों और सजा का रोचक ढ़ग से उल्लेख किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत तत्कालीन कलेक्टर से अंग्रेजी साहित्य पढ़ने के लिए साग्रह सहायता मागने एवं उसे लौटाने के वाकये का भी उन्‍होंनें कथात्‍मक झंग से उल्लेख किया। 

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि रमेश नैयर नें शेरों के माध्यम से कसार जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को रेखांकित किया। अध्यक्षता कर रहे डॉ.सुशील त्रिवेदी ने जमुना प्रसाद कसार जी के जीवन संघर्षों एवं उनके भावी पीढ़ी को दिए गए संस्कारों की प्रसंशा की। जमुना प्रसाद कसार जी की धर्म पत्नी श्रीमती शकुन्‍तला कसार एवं पुत्र अरूण कसार नें जमुना प्रसाद जी के अंतिम दिनों को याद करते हुए रूंधे गले से हिन्‍दी साहित्‍य समिति एवं झॉंपी पत्रिका के साहित्य यात्रा को निरंतर रखने का आहवान किया। 

कार्यक्रम में कसार जी की दो किताबें 'आजादी के सिपाही' का द्वितीय संस्‍करण एवं झाँपी के पद्मश्री अंक का विमोचन हुआ। आजादी के सिपाही में दुर्ग जिले के 65 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की कहानियां है एवं झाँपी का अंक छत्तीसगढ़ के 17 पद्मश्री पर केन्द्रित है।

कार्यक्रम का संचालन रवि श्रीवास्तव एवं स्वागत भाषण दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति के अध्यक्ष डॉ संजय दानी ने दिया, आभार प्रदर्शन अरूण कसार नें किया। कार्यक्रम मे महावीर अग्रवाल, अशोक सिंघइ, मुकुंद कौशल, गुलबीर सिंह भाटिया, आचार्य महेश चंद्र शर्मा, रघुवीर अग्रवाल पथिक, डा.निर्वाण तिवारी, डी.एन.शर्मा, शरद कोकाश, प्रभा गुप्ता, नीता काम्बोज, प्रदीप वर्मा, डा.नौशाद सिद्धकी, संध्या श्रीवास्तव, तुंगभद्र राठौर, अजहर कुरैशी आदि दुर्ग भिलाई के वरिष्ठ साहित्यकार, चिंतक एवम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उपस्थित थे। 

छत्तीसगढ़ी काव्य में अमर कवि कोदूराम ‘दलित’


28 सितम्बर : 46 वीं पुण्य तिथि पर विशेष
-विनोद साव (अमर किरण में 28 सितम्बर 1989 को प्रकाशित)

साहित्यकार का सबसे अच्छा परिचय उसकी रचना से हो जाता है | साहित्यकार की कृतियाँ उसकी परछाई है | रचनाकार का व्यक्तित्व, चरित्र, स्वभाव और दृष्टिकोण उसकी रचनाओं में प्रतिबिम्बित होता है | छत्तीसगढ़ी संस्कृति और साहित्य के धनी दुर्ग नगर में एक स्मय में ऐसे ही रचनाकार छत्तीसगढ़ी काव्य में अमर कवि कोदूराम ‘दलित’ उदित हुये जिनका परिचय उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत है :

“लइका पढ़ई के सुघर, करत हववँ मयँ काम
कोदूराम ‘दलित’ हवय , मोर गँवइहा नाम
शँउक मु हूँ –ला घलो, हवय कविता गढ़ई के
करथवँ काम दुरुग –माँ मयँ लइका पढ़ई के “

दलित जी छरहरे, गोरे रंग के बड़े सुदर्शन व्यक्तित्व के थे | कुर्ता, पायजामा, गाँधी टोपी और हाथ में छतरी उनकी पहचान बन गई थी | हँसमुख और मिलनसार होने के कारण सभी उम्र और वर्ग के लोगों में हिलमिल जाया करते थे | कविता करना उनका प्राकृतिक गुण था | उन्हीं के शब्दों में –

“कवि पैदा होकर आता है,
होती कवियों की खान नहीं
कविता करना आसान नहीं |“

रचना क्षमता प्रकृति प्रदत्त इस गुण के कारण ही दलित जी का रचना संसार इतना व्यापक है कि उन्होंने न केवल छत्तीसगढ़ी बल्कि हिन्दी साहित्य की सभी विधओं में भी लिखा | कवि की आत्मा रखने के बाद भी उन्होंने अनेकों कहानियाँ, निबंध, एकांकी, प्रहसन, पहेलियाँ,बाल गीत और मंचस्थ करने के लिये क्रिया-गीत (एक्शन सांग) लिखे | दलित जी की अधिकांश कवितायें छंद शैली में लिखी गई हैं | वे हास्य-व्यंग्य के कुशल चितेरे थे | व्यंग्य और विनोद से भरी उनकी कविता चुनाव के टिक्कस की पंक्तियाँ देखिये | चुनाव के पास आने पर नेताओं में टिकट की लालसा कितनी तीव्र हो जाती है –

बड़का चुनाव अब लकठाइस,
टिक्कस के धूम गजब छाइस |
टिक्कस बर सब मुँह फारत हें
टिक्कस बर हाथ पसारत हें
टिक्कस बिन कुछु सुहाय नहीं
भोजन कोती मन जाय नहीं
टिक्कस बिन निदरा आय नहीं
डौकी-लइका तक भाय नहीं
टिक्कस हर बिकट जुलुम ढाइस
बड़का चुनाव अब लकठाइस “|

स्वाधीनता के पहले जिन नेताओं ने देश के लिये त्याग और बलिदान दिया उनकी तुलना में वे आज के सुविधाभोगी नेताओं के विषय में कहते हैं | ध्यान दें छत्तीसगढ़ी की यह रचना हिन्दी के कितने करीब है –

“ तब के नेता जन हितकारी |
अब के नेता पदवीधारी ||
तब के नेता किये कमाल |
अब के नित पहिने जयमाल ||
तब के नेता काटे जेल |
अब के नेता चौथी फेल ||
तब के नेता गिट्टी फोड़े |
अब के नेता कुर्सी तोड़े ||
तब के नेता डण्डे खाये |
अब के नेता अण्डे खाये||
तब के नेता लिये सुराज |
अब के पूरा भोगैं राज ||

अंतिम पंक्ति में कवि जनता को जागृत करते हैं –

तब के नेता को हम माने |
अब के नेता को पहिचाने ||
बापू का मारग अपनावें |
गिरे जनों को ऊपर लावें ||

दलित जी ने अपना काव्य-कौशल केवल लिखकर ही नहीं वरन् मंचों पर प्रस्तुत करके भी दिखलाया | वे अपने समय में कवि-सम्मेलनों के बड़े ‘हिट’ कवि थे | तत्कालीन मंचीय कवि पतिराम साव, शिशुपाल, बल्देव यादव, निरंजन लाल गुप्त, दानेश्वर शर्मा आदि सब एक साथ हुआ करते थे | दलित जी को आकाशवाणी नागपुर, इंदौर और भोपाल केंद्रों में भी आमंत्रित किया जाता था जहाँ उनकी कवितायें और लोक-कथायें प्रसारित होती थीं | कवि सम्मेलनों में अनेक छोटे-बड़े स्थानों में वे गये | विशेषकर रायपुर, बिलासपुर, भिलाई और धमतरी के मंचों पर उन्होंने अपने काव्य-कौशल का डंका बजाया | शासकीय सूचना और प्रसारण विभाग द्वारा उज्जैन के कुम्भ मेले में भी काव्य-पाठ के लिये आमंत्रित किये गये थे | मद्य-निषेध पर उनकी कविता म.प्र.शासन द्वारा पुरस्कृत हुई |

मंचों में उनकी लोकप्रियता इस कदर बढ़ गई थी कि जब स्व. इंदिरा गांधी का 1963 में दुर्ग के तुलाराम पाठशाला में आगमन हुआ था तब स्वागत के लिये दलित जी को ही चुना गया | स्वागत गान की कुछ पंक्तियाँ देखिये –

धन्य आज की घड़ी सुहानी, धन्य आज की शाम
धन्य-धन्य हम दुर्ग निवासी,धन्य आज यह धाम ||

दलित जी एक साहित्यकार ही नहीं बल्कि एक योग्य अध्यापक, समाज सुधारक और संस्कृत निष्ठ व्यक्ति थे | वे भारत सेवक समाज और आर्य समाज के सक्रियसदस्य थे | जिला सहकारी बैंक के संचालक और म्युनिस्पल कर्मचारी सभा के दो बार मंत्री हुये तथा सरपंच भी रहे | वे जुझारू आदमी थे | 1947 में स्वराज के बाद शिक्षक संघ के प्रांतीय आंदोलन में कूद पड़े तो उन्हें और पतिराम साव जी को अन्य आंदोलनकारियों के साथ गिरफ्तार कर 15 दिनों के लिये नागपुर जेल में बंद रखा गया | जेल से छूटने के बाद इन दोनों को प्रधानाध्यापक पद से ‘रिवर्ट’ कर दिया गया | राष्ट्र के लिये शहीद सैनिकों को समर्पित उनकी पंक्तियाँ देखिये –

आइस सुग्घर परव सुरहुती अऊ देवारी
चल नोनी हम ओरी-ओरी दिया बारबो
जउन सिपाही जी-परान होमिस स्वदेश बर
पहिली ऊँकर आज आरती हम उतारबो ||

वे बच्चों में भी राष्ट्र-प्रेम की भावना भरते हुये कहते हैं –

उठ जाग हिन्द के बाल वीर, तेरा भविष्य उज्जवल है
मत हो अधीर, बन कर्मवीर, उठ जाग हिन्द के बाल वीर ||


उनके अनेकों बाल गीतों में एक गीत इस प्रकार है –

अम्मा ! मेरी कर दे शादी
ऐसी जोरू ला दे जल्दी
जैसी बतलाती थी दादी
न पाँच फीट से छोटी हो
न अधिक खरी न खोटी हो
हो चंट चुस्त चालाक किंतु
दिखलाई दे सीधी-सादी ||

दलित जी की रचनाओं का प्रकाशन देश की अनेक पत्रिकाओं में हुआ | उन दिनों नागपुर से-नागपुर टाइम्स, नया खून, लोक मित्र,नव प्रभात ,जबलपुर से –प्रहरी, ग्वालियर से ग्राम-सुधार, नव राष्ट्र, बिलासपुर से पराक्रम, चिंगारी के फूल, छत्तीसगढ़ सहकारी संदेश , दुर्ग से- साहू संदेश, जिंदगी, ज्वालामुखी , चेतावनी, छत्तीसगढ़ सहयोगी, राजनांदगाँव से जनतंत्र आदि पत्रिकाओं में इनकी कवितायें छपती रहती थीं |

दलित जी का जीवन अत्यंत संघर्षमय और अभावग्रस्त रहा | यही कारण है कि हजारों की संख्या में लिखी हुई अपनी रचनाओं का प्रकाशन वे नहीं करा पाये. सन् 1965 में पतिराम साव ,मंत्री हिंदी साहित्य समिति , दुर्ग के सहयोग से एक मात्र काव्य-संकलन “सियानी-गोठ” का प्रकाशन हो पाया. यह संकलन स्व.घनश्याम सिंह गुप्ता को समर्पित है. जिसमें तत्कालीन विधायक स्व.उदय राम वर्मा का संदेश है | “सियानीगोठ” काव्य संकलन कुण्डली शैली में लिखी गई है जिनमें 27 कुण्डलियों का समावेश है | उल्लेखनीय है कि कुण्डलियों के सभी कवि बीच में अपना नाम जरूर डाला करते थे लेकिन दलित जी ने कहीं भी अपना नाम नहीं डाला है | इसका लाभ समय-समय पर कुछ लोगों ने उठाया और दलित जी की रचना पर अपना अधिकार जताया है | यह संकलन विविध विषयों पर आधारित है | इसमें आध्यात्मपरक रचनायें हैं जैसे “पथरा”शीर्षक से –

“ भाई एक खदान के, सब्बो पथरा आयँ
कोन्हों खूँदे जायँ नित, कोन्हों पूजे जायँ ”

इस संकलन में हास्य रस, मानवीय सम्वेदना, जानवरों के नाम पर, राष्ट्र-प्रेम, दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं पर, विज्ञान की स्वीकारोक्ति है –

आइस युग विज्ञान के, सीखो सब विज्ञान
सुग्घर आविष्कार कर, करो जगत कल्यान

सरकारी योजनाओं पर जैसे पंचायती राज शीर्षक से –

हमर देश मा भइस हे, अब पंचयात राज
सहराये लाइक रथय, येकर सब्बो काज

विविध शीर्षकों पर लिखित ये कवितायें दलित जी के आधुनिक, वैज्ञानिक, समाजवादी और प्रगतिशील दृष्टिकोण होने के परिचायक हैं | उनकी अन्य रचनायें जिन्हें प्रकाशन की प्रतीक्षा है, वे हैं –

पद्य – हमर देस, कनवा समधी, दू मितान, प्रकृति वर्णन, बाल कविता और कृष्णजन्म | गद्य – अलहन, कथा-कहानी | प्रहसन, लोकोक्तियाँ, बाल-निबंध और शब्द-भण्डार आदि हैं |

दलित जी की स्मृति में 5 मार्च 1989 को उनकी 67 वीं जयंती रायपुर में मनाई गई | चंदैनी-गोंदा और कारी के निर्माता राम चंद्र देशमुख ने दलित जी का स्मरण करते हुये कहा – वे छत्तीसगढ़ के इतने ख्यात नाम व्यक्ति थे जिनके निधन का समाचार मुझे बम्बई के वहाँ के अखबारों में मिला| चंदैनी गोंदा के प्रथम प्रदर्शन में प्रथम गीत दलित जी का था | नाम के भूखे न रहने वाले दलित जी की “नाम” शीर्षक से प्रकाशित अंतिम कविता देखिये -

रह जाना है नाम ही, इस दुनियाँ में यार
अत: सभी का कर भला, है इसमें ही सार
है इसमें ही सार, यार तू तज के स्वारथ
अमर रहेगा नाम,किया कर नित परमारथ
कायारूपी महल, एक दिन ढह जाना है
किंतु सुनाम सदा दुनियाँ में रह जानाहै ||

(दैनिक अमर किरण और विनोद साव से साभार)
इस ब्लॉग में दलित जी पर अन्य पोस्ट इस कड़ी में देखें.

काली थी लैला, काला था कमलीवाला -ज्ञानसिंहठाकुर

5 मार्च जनकवि कोदूराम दलित जयंती पर विशेष .....

(नई दुनिया 4 मार्च1968 में प्रकाशित लेख, नई दुनिया से साभार)

जिसका कमलीवाला था वह स्वयं भी अपने कमलीवाले की तरह ही काला था तन से, मन से नहीं.....| काव्य-साधना के श्याम रंग थे छत्तीसगढ़ी के वयोवृद्धकवि कोदूराम जी “दलित” | उनके ‘काले की महिमा’ ने तो छत्तीसगढ़ के कोने-कोने में धूम मचा दी थी | ...गोरे गालों पर काला तिल खूब दमकता....उनका यह कटाक्ष जाने कितनी लावण्यमयियों के मुखड़े पर लाज की लाली बिखेर देता था..... नव-जवान झूम उठते थे.....एक समां बँध जाता था उनकी इस कविता से | आज बरबस ही उनकी स्मृति आती है तो स्मृत हो आते हैं उनके पीड़ा भरे वे शब्द, एक स्वप्न की तरह उनका वह झुर्रीदार चेहरा उभर उठता है स्मृति के आकाश पर.....| वे हाथ में थैली लिए बुझे-बुझे से चले आ रहे थे | मेहता निवास (दुर्ग) के निकट ही वे मुझे मिल गये | मैंने कुशल-क्षेम पूछी तो बरबस ही उनकी आँखें द्रवित हो आई....कहने लगे ज्ञान सिंह बहुत कमजोर हो गया हूँ | चंद्रजी व वोरा जी ने मिलकर सिविल सर्जन को दिखाया है...अब अच्छा हो जाऊंगा....| अस्पताल में दवा नहीं है | डॉक्टर लिख देते हैं , प्रायवेट मेडिकल स्टोर्स से दवा खरीदना पड़ता है.... इंजेक्शन लग रहे हैं , ताकत बिल्कुल नहीं है शरीर में और यह कहते-कहते उनका कंठ अवरुद्ध हो आया | मौत की काली परछाई वे देख रहे थे | एकदम निराश , एकदम शिथिल शून्य | मैंने कहा दलित जी आप आराम अधिक करें |ईश्वर सब ठीक कर देगा | आप शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएंगे | इंजेक्शन लग रहे हैं न.....तो, ताकत भी आ जायेगी....| उनकी निराश आँखें क्षण भर मुझे देखती रहीं | फिर उन्होंने कहा जिसमें एक साहित्यकार की मर्मांतक पीड़ा कराह रही थी | कहने लगे ज्ञानसिंह आधा तो कवि सम्मेलन करा - करा कर लोगों ने मार डाला मुझको | रात भर चाय पिला-पिलाकर कविता सुनते हैं.....| खाने को दिया तो ठीक है नहीं तो सुनाओ कविता जाग-जाग कर आधी रात तक और 21) लो और घर जाओ | कहने लगे ये पी. आर. ओ. संतोष शुकुल कराते हैं न सरकारी कवि सम्मेलन उसमें तो कोई चाय तक को नहीं पूछता....|

सोचता हूँ तो ये सब चेहरे एक-एक कर स्मृत हो आते हैं.....महाकवि निराला....मैथली शरण गुप्त....माखनलाल चतुर्वेदी....मुक्तिबोध इन्होंने हमें क्या नहीं दिया और क्या दिया हमने उन्हें बदले उसके....| वह इलाहाबाद की माटी हो या दिल्ली की या छत्तीसगढ़ की ...माटी सबकी प्यारी है.... है तो भारत की ही माटी... और इस संदर्भ में याद हो आयी हैं वे पंक्तियाँ जाने क्यों....तन का दिया,प्राण की बाती ...दीपक जलता रहा रात भर | हाँ हमारे दलित जी भी जलते रहे दीपक की तरह....और भूखी और जलती सदी का छत्तीसगढ़ी का कवि दलित भी खो गया पीड़ा के बियाबानों में....| दलित जी सचमुच दलित ही थे शायद जिनका शोषण किया गया | तब वे काफी अस्वस्थ थे | एक कवि गोष्ठी में उनकी अस्वस्थता का समाचार मुझे मिला तब मैंने कहा भाई सब मिलकर कुछ करो.....कुछ और नहीं तो उनका सार्वजनिक अभिनंदन ही कर दो....मेरी आवाज को शून्य आकाश निगल गया...और बात आई गई हो गई | नियति को कुछ और ही मंजूर था....| उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनका एक संग्रह छप जाता परन्तु उनकी यह इच्छा उस समय बड़ी ही कठिनाई से पूरी हो पाई जब व्यक्ति की कोई इच्छा शेष नहीं रह जाती है | एक ओर मौत के लम्बे और ठंडे हाथ आगे बढ़ रहे थे उनकी ओर और दूसरी ओर छप रहा था उनका काव्य-संग्रह | कैसी विडम्बना थी वह | अपना जीवन जिसने माँ भारती के चरणों में समर्पित कर दिया उसे अंतिम समय में क्या मिला.....गहन नैराश्य....पीड़ा और मुद्रा राक्षस का आर्तनाद... | सोचता हूँ मेरे छत्तीसगढ़ की धरती सरस्वती पुत्रों को जन्म देती आई है ....क्या उसे उसके पुत्रों की कराह भी सुनाई नहीं देती | जिस धरती की खुशी उसकी खुशी थी ... जिस धरती का दु:ख उसका दु:ख था ....उस धरती के लोगों ने क्या दिया उसे.... और एक पश्चाताप की अग्नि में मैं जलने लगता हूँ.... चाहता हूँ इस प्रसंग से हट जाऊँ.....चाहता मोड़ दूँ एक पुष्ट कविता की तरह ......लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाता हूँ .... और एक कवि का... नहीं-नहीं .....एक व्यक्ति का एक सर्वहारे का झुर्रीदार चेहरा आँखों में झूल उठता है |…नहीं-नहीं , कवि तो युग-दृष्टा होता है....वह सर्वहारा कैसे हो सकता है | वह अजर-अमर है .....छत्तीसगढ़ की माटी में जब तक सोंधी-सोंधी महक उठेगी ,जब तक चाँद और चकोर है, अमराइयों में जब तक काली कोयल गायेगी....चातक जब तक स्वाती की एक बूँद को तरसेगा , तब तक वह अजर-अमर है ....उसके झुर्रीदार चेहरे पर जाने कितने प्रश्न-चिन्ह अंकित थे....और वे छत्तीसगढ़ की माटी में आज भी प्रश्न-चिन्ह बन कर अंकित हैं ....शायद सदा अंकित रहेंगे |

आज भी जब दुर्ग के उन गली –कूचों से गुजरता हूँ तो आते-जाते यह ख्याल आता है कि शायद दलित जी इस ओर से आते होंगे | पाँच-कंडील चौराहे पर पहुँचकर ठिठक जाता हूँ....तस्वीरों की यही दुकान है जहाँ उनकी खास बैठक होती थी ....यही वह स्थान है जहाँ वे घंटों बैठे खोये-खोये से जाने क्या सोचा करते थे | मेरे कानों पर फिर उनके शब्द गूँज उठे हैं....आप बहुत अच्छा लिख रहे हो......शिक्षक वाली कविता बहुत सुंदर है.....बिना कफन मत निकले लाशें सरस्वती के बेटों की...हँसी खुशी मत लुटे किसी भी लक्ष्मी के अब ओठों की....आपका आशीर्वाद है दलित जी ....मैं कहता हूँ | ...आज फिर बरबस ही हृदय भर आया है | जीवन संघर्षों से जूझते हुये भी एक शिक्षक ने छत्तीसगढ़ी बोली में जो कवितायें लिखी हैं उनमें न केवल लोकपरक अनुभूतियों का जीता-जागता चित्रण है बल्कि उनमें छत्तीसगढ़ की धरती का प्यार है.... सोंधी-सोंधी महक है |यहाँ की लोक-संस्कृति व अलबेले लोक चित्र हैं जिनके माध्यम से वे सदा अजर-अमर रहेंगे | आज उनकी प्रथम जयंती की पावन बेला में सरस्वती के इस वरद् पुत्र को अपने श्रद्धा के सुमन अर्पित करते हैं |

-ज्ञानसिंहठाकुर 
(नई दुनिया 4 मार्च1968 में प्रकाशित लेख, नई दुनिया से साभार)

साठवें जन्म दिन पर हार्दिक शुभकामनाऍं :

हमारे पारिवारिक हीरो - बड़े भैया प्रमोद साव

- विनोद साव

बड़े भैया साठ बरस के हो गए, उनकी षष्ठपूर्ति मनायी जा रही है। तब पता चला कि मैं भी संतावन बरस का हो गया हूँ। अपनी उम्र का एहसास तब होता है जब अपने आसपास के लोग साठ बरस के हो जाते हैं। बड़े भैया के बाद मैं था और मैंने ही सबसे पहले उन्हें भैया कहना शुरु किया था, बाद में मुझसे छोटे भाई-बहनों ने मुझे भैया कहना शुरु किया तब भैया बड़े भैया हो गए, तब से यही संबोधन उनके लिए ज्यादा प्रयुक्त होता है। भैया जिनका नाम प्रमोद साव है, वर्तमान में गुरुनानक उच्चतर माध्यमिक शाला, दल्ली-राजहरा के लोकप्रिय प्राचार्य हैं। हमारे पिता अर्जुनसिंह साव भी छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्कूलों के यशस्वी प्राचार्य थे। कोई भैया से पूछता है कि ‘आजकल आप क्या कर रहे हैं?’ तो वे कह उठते हैं कि ‘बस... अपने पिता के नक्शे कदम पर चल रहा हूँ।’

युवावस्था में प्रमोद साव
बाबूजी की तरह श्याम सलोने भैया भी आकर्शक व्यक्तित्व के धनी रहे हैं। उनकी ऑंखों में कुछ ऐसा सम्मोहन रहा है कि इस सम्मोहन का शिकार होने वालों की उन्हें कमी नहीं रही है। हमारे भरे पूरे परिवार में उनके व्यक्तित्व और विनम्र व्यवहार से लोग इतने सम्मोहित रहे हैं कि किसी ने उनसे कोई अपेक्षा भी नहीं की। अम्मॉं-बाबूजी और घर के बड़े बुजुर्गों ने उनसे कभी कोई खरे वचन नहीं कहे। भैया अपने भाई बहनों के बीच हमेशा रमे रहना चाहते हैं, इतने कि उन्हें कभी मित्रों की जरुरत नहीं पड़ी। भाइयों को ही उन्होंने अपना मित्र जाना और उन्हीं के बीच रहकर साठ बरसों का उन्मुक्त जीवन उन्होंने जी लिया। वे हम सात भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं पर अपने तीखे नाक-नक्श और सलोने पन के कारण देखने वालों को वे पॉंचों भाइयों में सबसे छोटे लगते हैं। बच्चे भी उनके साथ अपने को बड़ा सहज अनुभव करते हैं। शैली कहती है ‘बड़े पापा कितने स्वीट लगते हैं। उनका ड्रेस कोड अभी भी यंग एंड यूथ जैसा है।’ तब मिनी कहती है ‘नई तो क्या! बड़े पापा मुंबई में होते तो हीरो होते।’ भैया के बच्चे विनी और डम्पी इतने कायल हैं कि अपने पापा के साठवें जन्म-दिन की पार्टी वे चुपचाप एरेंज कर रहे हैं, अपने पापा को सरप्राइज देते हुए। इस बार उनकी बहू रीतु और पोती मिहिका भी शामिल हैं। भाभी का तो ये हाल है कि घर की देवरानियॉं कह उठती हैं कि ‘ये दीदी ना भैया (जेठजी) को एक सेकण्ड के लिए भी छोड़ती नहीं है। भैया बैठते हैं तो बैठती है, भैया खड़े होते हैं तो खड़ी होती हैं।’

परिवार के साथ आत्मीय क्षण
भाई-बहनों के बीच बैठकर भैया का चेहरा खिल उठता है। उनका सेलीब्रिटी मूड देखते ही बनता है। वे जीवन के सारे निर्णयों को भाई-बहनों के बीच रहकर तय करते हैं। उन्हें सब तीज-त्योहारों को मनाना, शादी ब्याह करना, पिकनिक मनाना या अस्पतालों के चक्कर लगाना सम्बंधी जितने भी कार्य हों वे परिवार में भाई बहनों के बीच रहकर ही करते हैं। उन्हें भोजन में स्वाद तभी आता है जब वे परिजनों से घिरे होते हैं। सहन-शीलता उनमें विकट है और यही उनका एक ऐसा गुण है कि कोई उनके व्यवहार से आहत नहीं होता। दुखों में उन्हें रोते हुए कभी नहीं देखा गया यह एक विलक्षण गुण भी उनके पास है। वे परिवार के हर सुख दुख में दल्ली-राजहरा से ट्रेन में बैठकर इतनी आसानी से दुर्ग आ जाते हैं जैसे वे कहीं दूर नहीं बसते बल्कि दुर्ग में ही रहते हों कहीं हमारे आसपास। यात्रा या कार्यक्रमों की कोई थकान या शिकन उनके चेहरे पर दिखलाई नहीं देती। हमेशा वैसे ही सम्मोहक नजर आते हैं जैसा उनकी ऑंखें कहती हैं।


22 जुलाई 2012 को साठ बरस पूरे कर लेने वाले इस युवा अग्रज को पूरे परिजनों की ओर से ढेरों बधाइयॉं।
विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग, छत्तीसगढ
मो. 9407984014


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

छत्तीसगढ़ी जन-कवि – स्व.कोदूराम”दलित” (आज 28 सितम्बर को 44 वीं पुण्य-तिथि पर विशेष)

मध्य प्रदेश का पूर्वीय अंचल छत्तीसगढ़ कहलाता है. इस क्षेत्र में हिंदी की एक उप भाषा छत्तीसगढ़ी बोली जाती है.छत्तीसगढ़ी का पद्य-साहित्य यथेष्ट सम्पन्न है.गत पचास वर्षों में छत्तीसगढ़ी काव्य के पितामह पं.सुंदर लाल शर्मा से लेकर वर्तमान पीढ़ी के छत्तीसगढ़ी काव्यकारों के बीच अनेक प्रतिभाशाली कवियों की एक सशक्त श्रृंखला रही है.इस श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में दुर्ग के स्व.कोदूराम “दलित” का नाम ससम्मान लिया जाता रहा है. जिन्हें काल के कठोर हाथों ने पिछले दिनों हमसे छीन लिया.
कुर्ता, पैजामा, सिर पर गाँधी टोपी, पैरों में चप्पल, एक हाथ में छाता, दूसरे में एक थैली – तथा मुख पर एक निश्छल - खिली हुई हँसी से युक्त इस सरल व्यक्तित्व को देख कर कोई भी अनुमान भी नहीं कर पाता था कि वह छत्तीसगढ़ी के एक प्रमुख कवि को देख रहा है. जब से हमने होश सम्हाला था हमने दलित जी के स्वास्थ्य में कभी कोई परिवर्तन नहीं पाया था. अत: मित्रों के बीच हम लोग उनकी चर्चा एक सदाबहार कवि के रूप में किया करते थे.

दलित जी का जन्म 5 मार्च 1910 को दुर्ग जिले के टिकरी नामक गाँव में  एक निर्धन कृषक परिवार में हुआ था. बाल्यकाल सरल एवं सहृदय ग्रामीणों के बीच बीता. हरी-भरी अमराइयों, लहलहाते खेतों, महमहाते बागों एवम लहराते सरोवरों ने उनके हृदय में प्रकृति के प्रति अपार आकर्षण का बीज बो दिया था जो आगे चल कर काव्य के रूप में अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुआ. मिडिल तक उनकी शिक्षा अर्जुंदा नामक स्थान में हुई.  एक होनहार छात्र के रूप में दलित जी नार्मल स्कूल की प्रवेश एवं अंतिम परीक्षाओं में सर्वप्रथम रहे. एक प्राथमिक शाला के शिक्षक के रूप में उन्होंने जीवन में प्रवेश किया और अंत में अनेक वर्षों तक वे दुर्ग में प्रधान अध्यापक के पद पर रहे.
दलितजी सन 1926 में एक कवि के रूप में साहित्य जगत में आये. काव्य की प्रेरणा उन्हें आशु कवि श्री पीला लाल चिनोरिया से प्राप्त हुई. दलित जी ने हिंदी तथा छत्तीसगढ़ी दोनों में काव्य रचना की परंतु छत्तीसगढ़ी के कवि के रूप में उन्हें अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई.कविता के क्षेत्र में ही नहीं , जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी उन्होंने उसी लगन और उत्साह से कार्य किया था.त्रिपुरी –कांग्रेस अधिवेशन में वे एक स्वयं-सेवक के रूप में सम्मिलित हुये थे.यह सेवा का भाव उनमें जीवन पर्यंत रहा परंतु साथ ही वे स्वाभिमानी भी बड़े थे.एक प्राथमिक शाला के शिक्षक के रूप में कठिन से कठिन आर्थिक परिस्थितियों में भी उन्होंने स्वाभिमान को बिकने नहीं दिया. दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति ,दुर्ग नगर शिक्षक संघ, हरिजन सेवक संघ तथा सहकारी साख समिति आदि संस्थाओं के मंत्री के रूप में उन्होंने दुर्ग नगर की उल्लेखनीय सेवा की थी.दुर्ग के शिक्षकनगर के निर्माण की पृष्ठ भूमि में भी दलित जी के अथक प्रयत्नों की मौन गाथा है.
वे सच्चे अर्थों में एक जनकवि थे.उन्होंने वयस्कों के लिये ही नहीं ,बच्चों के लिये भी यथेष्ठ साहित्य का सृजन किया था. पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो तथा कवि सम्मेलनों के द्वारा उनकी  छत्तीसगढ़ी जन-जीवन में घुलमिल सी गयी थीं. मध्यप्रदेश शासन द्वारा अनेक अवसरों पर आपकी रचनायें पुरस्कृत भी हुई थीं. दलित जी के काव्य की मुख्य तीन धाराएं हैं – नीति काव्य, राष्ट्रीय-रचनायें एवं हास्य-व्यंग्य से पूर्ण कवितायें. जहाँ तक उनके नीति काव्य का सम्बंध है, दलित जी छत्तीसगढ़ के ’गिरधर कविराय’ हैं .उनकी कतरनी (कैंची) –सूजी (सुई) शीर्षक रचना देखिये –
काटय – छाँटय कतरनी,सूजी सीयत जाय.
सहय अनादर कतरनी,सूजी आदर पाय.
सूजी आदर पाय ,रखय दरजी पगड़ी मां
अउर कतरनी ला चपकय, वो गोड़ तरी मां.
फल पाथयँ उन वइसन, जइसन करथयं करनी
सूजी सीयत , काटत –छाँटत जाय कतरनी.
( कैंची काटती-छाँटती है तथा सुई सीती जाती है फलस्वरूप कैंची को अनादर तथा सुई को आदर प्राप्त होता है. सुई को दर्जी अपनी पगड़ी में रखता है जबकि कैंची पैरों के नीचे दबाई जाती है. अपने कर्मों के अनुसार  ही व्यक्ति को फल मिलता है.)
दलित जी में राष्ट्रीय भावनायें कूट-कूट कर भरी थी , अत: उनकी अधिकांश रचनाओं में यह देश-प्रेम किसी न किसी रूप में फूट निकला है –
झन लेबे बाबू रे , तैं फुलझड़ी – फटाका
विपदा के बेरा में दस- पंधरा रुपया के.
येकर से तैं ऊनी कम्बल लेबे तेहर
देही काम जाड़ मां , एक सैनिक भइया के.
{ बेटे इस (राष्ट्रीय) विपत्ति के समय दस – पंद्रह रुपये के फटाके मत खरीदना. इससे तू एक ऊनी कम्बल खरीदना जो ठंड में एक सैनिक भाई के काम आयेगा.}
हास्य और व्यंग्य दलित जी के काव्य का मूल स्वर है. उनका व्यंग्य शिष्ट एवं प्रभावशाली है.छतीसगढ़ी व्यंग्य काव्य में उनकी ‘कनवा – समधी’ नामक रचना का एक महत्वपूर्ण स्थान है. इस रचना में नगर की गंदगी पर किया गया व्यंग्य दर्शनीय है –
ये लाल – बम्म अंधेर अबीर – गुलाल असन
कइसन के धुर्रा उड़त हवय चारों कोती
खाली आधा घंटा के किंजरे मां समधी
सुंदर बिना पैसा के रंग गे कुरता धोती.
भन-भन , भन , भन ,भन , भिनक – भिनक के माँछी मन
काकर गुन ला निच्चट  , जुरमिल के गावत हे
अउ खोर – खोर , रसदा – रसदा मां टाँका के
पावन जल अड़बड़ काबर आज बोहावत हे.
(अबीर – गुलाल सी धूल क्यों चारों ओर उड़ रही है , केवल आधे घंटे तक घूमने से ही बिन पैसे के  कुरता – धोती  सुंदर रंग गये हैं. भन-भन के स्वर में  ये मक्खियाँ मिलकर किसका गुणगान कर रही हैं  तथा  आज  गली- गली एवं रास्ते- रास्ते पर (गंदे) टाँके का पवित्र जल , इतना अधिक क्यों बह रहा है ?)
दलितजी ने ‘धान – लुवाई’ ( धान – कटाई) जैसी रचनाओं से ---
दुलहिन धान लजाय मने मन मुड़ी नवा के
आही हँसिया राजा मोला लेगिही आज बिहा के.
( लाज भरी धान की फसल मन ही मन सिर झुका कर सोचती है कि हँसिया राजा आयेगा और मुझे विवाह करके ले जायेगा) ------
छत्तीसगढ़ी को न केवल काव्य – गरिमा प्रदान की है बल्कि साथ ही ‘ चरर – चरर गरुवा मन खातिर  बल्दू लूवय कांदी ( बल्दू गायों के लिये चरर-चरर घास काटता है) जैसे अनेक ध्वनि चित्र एवं ‘सुटुर- सुटुर सटकिस समधिन हर , देखे खातिर नाचा ( समधिन शीघ्रता में चुपचाप नाच देखने निकली)  जैसे दृश्य-चित्र भी उन्होंने रखे हैं. छत्तीसगढ़ी के शब्दों पर उनका असाधारण अधिकार था.
‘सियानी-गोठ’ (नीतिपरक काव्य संग्रह) दलित जी का एक मात्र प्रकाशितग्रंथहै.’ दू मितान ‘ ,’कनवा-समधी’, ’हमर देश’, ’ छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियाँ और मुहावरे’ तथा छत्तीसगढ़ी शब्द भंडार’ आदि आपके अनेक अप्रकाशित ग्रंथ हैं.
28 सितम्बर 1967 को दुर्ग में छत्तीसगढ़ी के  इस कर्मठ कवि का स्वर्गवास हो गया. इस मृत्यु से दुर्ग ने अपना एक कीमती लाल खो दिया, छत्तीसगढ़ ने अपना एक अमूल्य रत्न खो दिया.


-हनुमंत नायडू
{ नवभारत टाइम्स , बम्बई (अब मुम्बई)  दिनांक 03 मार्च 1968  से साभार }


जनकवि स्‍व.कोदूराम 'दलित' जी की रचनांए आप सियानी गोठ में पढ़ सकते हैं, उनकी रचनाओं को सर्वसुलभ बनाने के लिये उनके पुत्र श्री अरूण कुमार निगम जी अपनी व्‍यस्‍तता के बावजूद सियानी गोठ में जनकवि स्‍व.कोदूराम 'दलित' जी की रचनाओं का नियमित प्रकाशन कर रहे हैं।  

सघन हूँ मैं : गॉंव से कस्‍बे का सफर

बहुत कठिन है अपने संबंध में कुछ लिखना। बहुत बार डायरी लिखने की सोंचता रहा किन्‍तु नहीं लिख पाया। अपने संबंध में कुछ लिखना हिम्‍मत का काम है, क्‍योंकि जब हम अपने संबंध में लिख रहे होते हैं तो सुविधा का संतुलन हमारे अच्‍छे व्‍यक्तित्‍व को उभारने की ओर ही होता है। मैं-मैं की आवृत्ति में हम अपने उजले पक्षों को सामने रखते हुए अंधेरे पक्षों पर परदा डालते चलते हैं। कथा-कहानियों व आत्‍मकथाओं की आलोचनात्‍मक व्‍याख्‍या करने वाले स्‍वयं कहते हैं कि जब कथाकार कहानी लिख रहा होता है तो वह अपनी आत्‍मकथा लिख रहा होता है और जब आत्‍मकथा लिख रहा होता है तो कहानी लिखता है। तो यूं समझें कि कहानी और आत्‍मकथा के बीच से तीन-चार मनकें तिथियों के अंतराल में इस ब्‍लॉग में आपके सामने रखने का प्रयास करूंगा।

मेरा जन्‍म सन् 1968 के जनवरी माह में एक गांव में हुआ। मॉं व पिताजी शिक्षित थे और रांका राज के कुलीन जमीदार (राजस्‍व अभिलेख 'वाजिबुल अर्ज 1930' में मालगुजारी-जमीदारी के स्‍थान पर 'लम्‍बरदार' का उल्‍लेख है) परिवार के बड़े बेटे-बहू थे। मै अपने भाई बहनों में सबसे छोटा और चौंथे नम्‍बर का था। मुझसे ठीक बड़ी बहन और मेरे उम्र के बीच लगभग 10 वर्ष का अंतराल था इस बीच मेरे एक भाई और एक बहन बड़ी माता के शिकार होकर परलोक सिधार गए थे। मेरे जन्‍म के पूर्व ही जमीदारी उन्‍मूलन लागू हो चुका था किन्‍तु गांवों में उसका असर कम था इस कारण हमारे अधिकार की भूमि विशाल थी। मेरे किशोर होते तक घर में बीसियों घोड़े और बीसियों जोड़ी बैल के साथ ही पूरा गायों का एक ‘टेन बरदी’ उपलब्‍ध था। घड़ों में दही और घी का भंड़ारन होता था और मेरी एक चाची सिर्फ दूध-दही-घी का काम देखती थी। आज जैसे प्रत्‍येक बच्‍चे के पास छोटी सायकल होती है वैसे ही मेरे व मेरे चचेरे भाईयों के पास घोड़े होते थे।  


मेरे दो चाचा सरकारी सेवा में बाहर नौकरी करते थे। मेरे पिता बड़े होने के कारण गांव में रहते हुए कृषि कार्य देखते थे। एक चाचा गृहस्‍थ होते हुए भी आध्‍यात्‍म में इतने रमें थे कि उनका सारा समय हरिद्वार और इलाहाबाद के मठ-मंदिरों में कटता था। मेरे पिता के चार भाईयों में जब आपस में बटवारा हुआ तब राजस्‍व अभिलेख नहीं देखे गए बल्कि कब्‍जे के अनुसार से सभी भाईयों को हिस्‍सा दे दिया गया। मेरे पिताजी नें अलग होनें के बाद अतिवृष्टि व अनावृष्टि एवं लगातार पड़ते अकालों के बाद जब अपनी भूमि सम्‍पत्ति का सरकारी दस्‍तावेज खंगाला तो उसमें से अधिकतम भूमि कब्‍जे में होते हुए भी घांस दर्ज थे। सो दूसरे भाईयों से कम भूमि में ही संतुष्‍ट इसलिए हो गए क्‍योंकि उनके पिताजी (बुढ़ुवा दाउ) नें उन्‍हें जो दिया वो पाये। मेरी मॉं इससे संतुष्‍ट नहीं थी किन्‍तु जमीदार दादा के रूतबे नें उसे कुछ नहीं कहने दिया और हमने संतुष्टि को स्‍वीकार लिया।

जमीदारी के समय के हमारे दादाजी के अत्‍याचारों नें समयानुसार पाप का रूप लिया और इसके आंच में जमींदारी परिवार धीरे-धीरे हासिये पर जाने लगी। चाचा लोगों के पास खेती से इतर आय के साधन थे सो वे जमे रहे किन्‍तु हमारे पास खेती ही एक साधन था। एक किसान अपनी जिन्‍दगी की आवश्‍यकताओं में खेती को ही दांव पर लगाता है, हमारे खेत भी धीरे-धीरे बिकते गये और हम सिर्फ एक सामान्‍य किसान बनकर रह गए। भिलाई स्‍पात संयंत्र के खुलने के दिनों में मेरे पिताजी की भिलाई स्‍टील प्‍लांट में नौकरी लग गई थी किन्‍तु मेरे जमीदार दादाजी नें मेरे पिताजी को वहां इसलिए नहीं भेजा कि खेती कौन सम्‍हालेगा। मॉं बार-बार दादाजी के इस फैसले को कोसती रही। 

दादाजी और मेरी मॉं की पटरी संभवत: दादाजी के पूरे जीवनकाल में नहीं बैठी। दादाजी महिला स्‍वतंत्रता के घोर विरोधी थे, ‘अच्‍छा ठठा ना डौकी ला, बड़ चढ़-बढ़ के गोठियाथे’ कहते हुए बहुओं को मार खाते, रेरियाते देखना उन्‍हें अच्‍छा लगता था। मेरी मॉं ऐसे परिवेश से मेरे पिताजी के घर में आई थी जो महिलाओं को उचित शिक्षा व समाज में बराबरी का मान देता था किन्‍तु यहॉं उसे अपनी भावनाओं को विवशतापूर्ण दबाना पड़ा। पता नहीं मेरी मॉं की शैक्षणिक योग्‍यता क्‍या थी, किन्‍तु वह कहती थी कि मैं सातवी हिन्‍दी पास हूं। हिन्‍दी के अतिरिक्‍त अंग्रेजी शब्‍दों को पढ़-लिख पाने, कुछ हद तक बोल पाने के कारण हमें ‘सातवी हिन्‍दी’ अटपटा लगता पर हमने कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि यह वर्तमान शिक्षण व्‍यवस्‍था के अनुसार कौन सी डिग्री थी। पिता जी भी सातवी हिन्‍दी ही पास थे किन्‍तु मॉं की मानस प्रतिभा से कम विलक्षण थे। 

जब मैं प्राथमिक से माध्‍यमिक स्‍कूल की दौड़ में मेरे पैत्रिक गांव खम्‍हरिया से सात किलो मीटर दूर कस्‍बा सिमगा में खेतों के मेढों में बने पगडंडियों से पैदल पढ़ने जाने लगा तब मॉं के हाथ में गुरूदत्‍त व गुलशननंदा के साथ ही देवकीनंदन खत्री, भीष्‍म साहनी, नरेन्‍द्र कोहली, रामकुमार 'भ्रमर', हंशराज रहबर, श्रीलाल शुक्‍ल, शानी के उपन्‍यासों व पिताजी के हाथ में कल्‍याण सहित धर्मिक ग्रंथों को पाया। बाद में सारिका, हंस व कादंबिनी जैसी पत्रिकायें नियमित रूप से मेरी बड़ी बहन की सौजन्‍यता से घर की शोभा बढ़ाने लगी। शोभा इसलिये कि मुझे इन पत्रिकाओं की अहमियत तब तक ज्ञात ही नहीं था। जब मैं उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍कूल में आया तब मुझे हिन्‍दी विशिष्‍ठ पढ़ने को मिला और मैं हंस को समझ पाया। उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍कूल में छात्रों को पुस्‍तकालय की सुविधा भी प्रदान की गई और नौंवी से ग्‍यारहवीं तक के तीन साल में मानसरोवर के सभी भाग, गुलीवर-सिंदबाद यात्रा व पुस्‍तकालय के सभी हिन्‍दी साहित्‍य के पुस्‍तकों को क्रमश: जारी कराया जिसे मैं तो कम पर मेरी मॉं नें पूरी लगन से पढ़ा। हिन्‍दी माथे की बिन्‍दी और चिन्‍दी-चिन्‍दी होती हिन्‍दी जैसे वादविवाद के लिए नोट्स रटवाए, श्रीकृष्‍ण 'सरल' की पंक्तियॉं 'होंगें वे कोई और जो मनाए जन्‍म दिवस, मेरा नाता तो रहा मरण त्‍यौहारों से' मन में बसाया। 

मॉं के संबंध में और भी बहुत कुछ स्‍मृतियों में है किन्‍तु यहॉं उन्‍हें विस्‍तार नहीं दूंगा, आगे संक्षिप्‍त में मेरे गांव खम्‍हरिया से भिलाई व्‍हाया रायपुर आने के संबंध में बतलाउंगा।

संजीव तिवारी 

गाँधीवादी विचारधारा के छत्तीसगढ़ी साहित्यकार -कोदूराम "दलित"

छत्तीसगढ़ के जन कवि स्व.कोदूराम"दलित" के १०१ वें जन्म दिवस पर विशेष स्मृति

(५ मार्च १९१० को जन्मे कवि कोदूराम "दलित" की स्मृति में हरि ठाकुर द्वारा पूर्व में लिखा गया लेख)
छत्तीसगढ़ की उर्वरा माटी ने सैकड़ो कवियों,कलाकारों और महापुरुषों को जन्म दिया है. हमारा दुर्भाग्य है कि हमने उन्हें या तो भुला दिया अथवा उनके विषय में कुछ जानने की हमारी उत्सुकता ही मर गई. जिस क्षेत्र के लोग अपने इतिहास, संस्कृति और साहित्य के निर्माताओं और सेवकों को भुला देते हैं, वह क्षेत्र हमेशा पिछड़ा ही रहता है. उसके पास गर्व करने के लिए कुछ नहीं रहता.छत्तीसगढ़ भी इसी दुर्भाग्य का शिकार है.
छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य को विकसित तथा परिष्कृत करने का कार्य द्विवेदी युग से आरंभ हुआ. सन १९०४ में स्व.लोचन प्रसाद पाण्डेय ने छत्तीसगढ़ी में नाटक और कवितायेँ लिखी जो हिंदी मास्टर में प्रकाशित हुईं. उनके पश्चात् पंडित सुन्दर लाल शर्मा ने १९१० में "छत्तीसगढ़-दान लीला" लिखकर छत्तीसगढ़ भाषा को साहित्यिक संस्कार प्रदान किया. "छत्तीसगढ़ी दान लीला" छत्तीसगढ़ी का प्रथम प्रबंध काव्य है. उत्कृष्ट काव्य-तत्व के कारण यह ग्रन्थ आज भी अद्वितीय है.
पंडित सुन्दर लाल शर्मा के साहित्य के पश्चात् छत्तीसगढ़ी को अपनी सुगढ़ लेखनी से समृद्ध करनेवाले दो कवि प्रमुख हैं- पंडित द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' तथा कोदूराम 'दलित'. विप्र जी को भाग्यवश प्रचार और प्रसार दोनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हुए. दुर्भाग्यवश उन्हीं के समकालीन और सशक्त लेखनी के धनी कोदूराम जी को न तो प्रतिभा के अनुकूल ख्याति मिली और न ही प्रकाशन की सुविधा.
कोदूराम जी का जन्म ग्राम टिकरी, जिला दुर्ग में ५ मार्च १९१० में एक निर्धन परिवार में हुआ. विद्याध्ययन के प्रति उनमें बाल्यकाल से ही गहरी रूचि थी. गरीबी के बावजूद उन्होंन विशारद तक की शिक्षा प्राप्त की और शिक्षा समाप्त करके प्राथमिक शाला, दुर्ग में शिक्षक हो गए. योग्यता और निष्ठा के कारण उन्हें शीघ्र ही प्रधान पाठक के पद पर उन्नत कर दिया गया. वे जीवन के लिए शिक्षकीय कार्य करते थे, किन्तु मूलतः वे साहित्यिक साधना में लगे रहते थे. साहित्यिक साधना में वे इतने तल्लीन हो जाते थे की खाना, पीना और सोना तक भूल जाते थे. इसके बावजूद वे वर्षों दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति, प्राथमिक शाला शिक्षक संघ, हरिजन सेवक तथा सहकारी साख समिति क मंत्री पद पर अत्यंत योग्यता के साथ कर्तव्यरत रहे.
दलित जी विचारधारा के पक्के गाँधीवादी तथा राष्ट्र भक्त थे. राष्ट्र भाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए वे सदैव चिंतित रहते थे. हिंदी और हिंदी की सेवा को उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था. वे आदतन खादी धारण करते थे और गाँधी टोपी लगाते थे. उनका रहन-सहन अत्यंत सदा और सरल था. सादगी में उनका व्यक्तित्व और भी निखर उठता था.  दलित जी अत्यंत और सरल ह्रदय के व्यक्ति थे. पुरानी पीढ़ी के होकर भी नयी पीढ़ी के साथ सहज ही घुल-मिल जाते थे.  मुझ जैसे एकदम नए साहित्यकारों के लिए उनके ह्रदय में अपर स्नेह था.
दलित जी मूलतः हास्य-व्यंग्य के कवि  थे किन्तु उनके व्यक्तित्व में बड़ी गंभीरता और गरिमा थी. कवि-सम्मेलनों में वे मंच लूट लेते थे. उस समय छत्तीसगढ़ी में क्या, हिंदी में भी शिष्ट हास्य -व्यंग्य लिखने वाले उँगलियों में गिने जा सकते थे. वे सीधी-सादे ढंग से काव्य पाठ करते थे फिर भी श्रोता हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते थे और दलित जी गंभीर बने बैठे रहते थे. उनकी यह अदा भी देखने लायक ही रहती थी. देखने में वे ठेठ देहाती लगते और काव्य पाठ भी ठेठ देहाती लहजे में करते थे.
छत्तीसगढ़ी भाषा और उच्चारण पर उनका अद्भुत अधिकार था. हिंदी के छंदों पर भी उनका अच्छा अधिकार था. वे छत्तीसगढ़ी कवितायेँ हिंदी के छंद में लिखते थे जो सरल कार्य नहीं है. दलित जी मूलतः छत्तीसगढ़ी के कवि थे.
वह तो आजादी के घोर संघर्ष का दिन था. अतः विचारों को गरीब जनता तक पहुँचाने के लिए छत्तीसगढ़ी से अच्छा माध्यम और क्या हो सकता था. दलित जी ने गद्य और पद्य दोनों में सामान गति और समान अधिकार से लिखा.
उन्होंने कुल १३ पुस्तकें लिखी हैं. (१) सियानी गोठ (२) हमर देश (३) कनवा समधी (४) दू-मितान (५) प्रकृति वर्णन (६)बाल-कविता - ये सभी पद्य में हैं. गद्य में उन्होंने जो पुस्तकें लिखी हैं वे हैं (७) अलहन (८) कथा-कहानी (९) प्रहसन (१०) छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियाँ (११) बाल-निबंध (१२) छत्तीसगढ़ी शब्द-भंडार. उनकी तेरहवीं पुस्तक कृष्ण-जन्म हिंदी पद्य में है.
इतनी पुस्तकें लिख कर भी उनकी एक ही पुस्तक  "सियानी-गोठ" प्रकाशित हो सकी. यह कितने दुर्भाग्य की बात है, दलित जी की अन्य पुस्तकें आज भी अप्रकाशित पड़ी हैं और हम उनके महत्वपूर्ण साहित्य से वंचित हैं. "सियानी-गोठ" में दलित जी की ७६ हास्य-व्यंग्य की कुण्डलियाँ संकलित हैं. हास्य-व्यंग्य के साथ दलित जी ने गंभीर रचनाएँ भी की हैं जो गिरधर कविराय की टक्कर की हैं.
दलित जी ने सन १९२६ से लिखना आरंभ किया. उन्होंने लगभग 800 कवितायेँ लिखीं. जिनमे कुछ कवितायेँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और कुछ कविताओं का प्रसारण आकाशवाणी से हुआ. आज छत्तीसगढ़ी में लिखनेवाले निष्ठावान साहित्यकारों की पूरी पीढ़ी सामने आ चुकी है, किन्तु इस वट-वृक्ष को अपने लहू-पसीने से सींचनेवाले, खाद बनकर उनकी जड़ों में समा जानेवाले साहित्यकारों को हम न भूलें.
-हरि ठाकुर


जनकवि कोदूराम 'दलित' के पुत्र श्री अरूण कुमार निगम जी के द्वारा दलित जी की रचनाओं के लिए संचालित ब्‍लॉग  - www.gharhare.blogspot.com 


गुरतुर गोठ : छत्‍तीसगढ़ी में आज दलित जी के दोहे 

अरपा पैरी के धार ..... छत्‍तीसगढ़ के पत्रकार इसे अवश्‍य पढें

छत्‍तीसगढ़ राज्‍य के भव्‍य स्‍थापना समारोह की तैयारियों के बीच समाचार पत्रों के द्वारा राज्‍य के थीम सांग के संबंध में समाचार जब प्रकाशित हुए तो छत्‍तीसगढ़ के संस्‍कृतिधर्मी मनीषियों को खुशी के साथ ही बेहद आश्‍चर्य हुआ। कतिपय समाचार पत्रों के स्‍थानीय पत्रकारों ने प्रदेश के प्रसिद्ध गीत 'अरपा पैरी के धार ...' के गीतकार के रूप में लक्ष्‍मण मस्‍तूरिहा का नाम छापा। यह भूल कैसे समाचार पत्रों में छपा यह पता ही नहीं चला, एक समाचार पत्र को देखकर दूसरे समाचार पत्र भी यही छापते रहे और अपने प्रादेशिक ज्ञान (अ) का झंडा फहराते रहे, किसी ने भी प्रदेश के संस्‍कृति विभाग या किसी साहित्‍य-संस्‍कृति से जुडे व्‍यक्ति से पूछने की भी जहमत नहीं उठाई।
हम इन दिनों कुछ व्‍यस्‍त रहे इस कारण अखबारों को भी पलटकर नहीं देख पाये, हमें इसकी संक्षिप्‍त जानकारी भाई श्‍याम उदय 'कोरी' से दो लाईना चेटियाते हुए हुई और उसके दूसरे दिन व्‍यंग्‍यकार व कवि राजाराम रसिक जी से ज्ञात हुआ कि डॉ.परदेशीराम वर्मा जी नें इस पर अपना विरोध जताते हुए सभी समाचार पत्रों के संपादकों से संपर्क भी किया। कुरमी समाज नें भी इसका जोरदार विरोध किया किन्‍तु इसके बावजूद लगातार इस गीत के गीतकार के रूप में लक्ष्‍मण मस्‍तुरिहा का नाम छापा गया, बाद में जब प्रदेश के बुद्धिजिवियों नें सामूहिक रूप से इसका विरोध किया तो करेले में नीम चढा टाईप हेडिंग से समाचार छपने लगे कि 'नहीं छंटा कुहासा अरपा पैरी के धार के गीतकार का' या 'अरपा पैरी के धार के गीतकार के संबंध में विवाद'। अभी कल ही एक समाचार पत्र में इस तरह के हेडिंग लगे थे।
दुख है कि छत्‍तीसगढ़ में पत्रकारिता करने के बावजूद इस लोकप्रिय गीत के गीतकार के नाम को कतिपय पत्रकारों नें न केवल गलत लिखा बल्कि अब भी स्‍वीकार करने को तैयार नहीं हैं। प्रदेश की कला-संस्‍कृति व साहित्‍य का सामान्‍य ज्ञान तो प्रदेश में पत्रकारिता करने वाले हर पत्रकार को होना चाहिए यदि नहीं है तो अपना ज्ञान बढ़ाना चाहिए। उन सभी समाचार पत्रों नें व उसके पत्रकारों नें ऐसा लिखकर संपूर्ण प्रदेश की जनता का दिल दुखाया है। यदि वे पत्रकार अपनी इस भूल को सुधारना चाहते हैं तो इस गीत के गीतकार आचार्य डॉ.नरेन्‍द्र देव वर्मा जी को 8 सितम्‍बर को उनकी पुण्‍यतिथि पर हृदय से श्रद्धांजली अर्पित करें।
यदि आप भी 'अरपा पैरी के धार ...' के गीतकार आचार्य डॉ.नरेन्‍द्र देव वर्मा के संबंध जानना चाहते हैं तो पढ़ें :-
"४ नवंबर १९३९ से ८ सितंबर १९७९ को बीच केवल चालीस वर्ष में, अपनी सृजनधर्मिता दिखाने वाले आचार्य डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा, वस्तुत: छत्तीसगढ़ी भाषा-अस्मिता की पहचान बनाने वाले गंभीर कवि थे । हिन्दी साहित्य के गहन अध्येता होने के साथ ही, कुशल वक्ता, गंभीर प्राध्यापक, भाषाविद् तथा संगीत मर्मज्ञ गायक भी थे । .......... डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा को स्मरण करना, छत्तीसगढ़ी भाषा की पुख्ता नींव को स्मरण करना है । वे छत्तीसगढ़ी लोककला के प्रेमी, लोक संस्कृति के गायक और छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य की परंपरा को समृद्ध करने वाले महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे ।"
- डॉ. सत्यभामा आड़िल
"मुंशी प्रेमचंद और रेणु के कथा संसार से जुड़कर हर संवेदनशील छत्तीसगढ़ी पाठक को यह महसूस होता था कि छत्तीसगढ़ में बैठकर कलम चलाने वालों के साहित्य में हमारा अंचल क्यों नहीं झांकता । छत्तीसगढ़ी में लिखित साहित्य में तो छत्तीसगढ़ अंचल पूरे प्रभाव के साथ उपस्थित होता है लेकिन हिन्दी में नहीं । इस बड़ी कमी को कोई छत्तीसगढ़ महतारी का सपूत ही पूरा कर सकता था । साप्ताहिक हिन्दुस्तान में तीस वर्ष पूर्व जब सुबह की तलाश उपन्यास जब धारावाहिक रूप से छपा तब हिन्दी के पाठकों को लगा कि छत्तीसगढ़ में भी रेणु की परंपरा का पोषण अब शुरू हो चुका है । ....... ‘सुबह की तलाश’ एक विशिष्ट उपन्यास है जिस पर पर्याप्त चर्चा नहीं हुई । छत्तीसगढ़ी लेखकों पर यूं भी देश के प्रतिष्ठित समीक्षक केवल चलते-चलते कुछ टिप्पणी भर करने की कृपा करते हैं । जिन्हें छत्तीसगढ़ की विशेषताओं की जानकारी है वे राष्ट्रीय स्तर के समीक्षक नहीं हैं । और जो राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी समीक्षा दृष्टि के लिए जाने जाते रहे हैं उन्हें छत्तीसगढ़ की आंतरिक विलक्षणता कभी उल्लेखनीय नहीं लगी । संभवत: वे इसे सही ढ़ंग से जान भी नहीं पाये । फिर भी डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने अपनी ताकत का अहसास करवाया । वे हार कर चुप बैठ जाने वाले छत्तीसगढ़ी नहीं थे । राह बनाने के लिए प्रतिबद्ध माटीपुत्र थे । उन्होंने महसूस किया कि सुबह की तलाश को कुछ लोगों ने ही पढ़ा । लेकिन उसकी अंतर्वस्तु ऐसी है कि कम से कम समग्र छत्तीसगढ़ उसे जाने समझे ।"
- डॉ. परदेशीराम वर्मा
स्वामी आत्मानंद ने अपने अनुज डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के बारे में मरणोपरांत लेख लिखा है । वे लिखते हैं कि सोनहा बिहान की चतुर्दिक ख्याति की खबरें सुनकर वे भी इसकी प्रस्तुति देखने के लिए लालायित हो उठे १९७८ के अंत में महासमुंद में एक प्रदर्शन तय हुआ । स्वामी जी को डाक्टर साहब ने बताया कि आप चाहें तो उस दिन प्रदर्शन देख सकतें हैं । महासमुंद में विराट दर्शक वृंद को देखकर स्वामी जी रोमांचित हो उठे । उनके भक्तों ने उन्हें विशिष्ट स्थान में बिठाने का प्रयत्न किया लेकिन डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने स्वामी जी को दर्शकों के बीच जमीन पर बैठकर देखने का आग्रह किया । स्वामी जी उनकी इस व्यवस्था से अभिभूत हो उठे । उन्होंने उस घटना को याद करते हुए लिखा है – ‘नरेन्द्र तुम सचमुच मेरे अनुज थे ।‘
प्रकाशित रचनांए :- प्रयोगवाद, हिन्दी स्वच्छन्दतावाद पुनमूल्यांकन, आधुनिक पाश्चात्य काव्य और समीक्षा के उपादान,  नयी कविता सिध्दांत और सृजन, हिन्दी नव स्वच्छन्दतावाद, अज्ञेय और समकालीन , मुक्तिबोध का काव्य,  प्रगीतकार अंचल और बच्चन, छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास।
प्रकाशित उपन्यास :- सुबह की तलाश ' साप्ताहिक हिन्दुस्तान में धारावाहिक रुप से प्रकाशित तदपश्‍चात राजपाल एण्‍ड संस प्रकाशन दिल्ली द्वारा पुस्तकाकार प्रकाशित व कई विश्‍वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित.  इसका दूसरा संस्करण रचना प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित हुआ।
प्रकाशित काव्य संग्रह :-  अपूर्वा
अनुदित ग्रन्थ :- मोंगरा, श्री माँ की वाणी, श्री कृष्ण की वाणी, श्री राम की वाणी, बुध्द की वाणी, ईसा मसीह की वाणी, मुहम्मद पैगम्बर की वाणी, आधुनिक काव्य संकलन, छायावादोत्तर काव्य संकलन
अप्रकाशित ग्रन्थ :-  हिन्दी वर्तनी के मानकीकरण की समस्याएँ और समाधान (डी. लिट की उपाधि के लिए प्रस्तावित शोध प्रबंध लगभग पूर्ण है।)
प्रकाशित साहित्यिक शोधपत्र :- प्रयोगवादी समीक्षा, नयी कविता और नये स्वर, नन्ददुलारे बाजपेयी और रामचन्द्र शुक्ल के समीक्षा सिध्दांत, आचार्य बाजपेयी, प्रयोगवाद : नये निबंध में प्रकाशित, मुक्तिबोध का आलोचना दर्शन, अतर्विरोधों के कवि मुक्तिबोध : ज्ञानोदय, मानव वैशिष्टय और आत्मविश्वास, अर्थ की लय, मुक्बिोध का आत्मान्वेषण, आधुनिक भावबोध और अंचल का काव्य, आधुनिकता बात तत्वबोध की, हीनता का बोध : एडलर, मानसिक उर्जा, फायर्ड की कलाचिंतन, कला का माक्र्सवादी विवेचन, कला कुछ आरंभिक जिज्ञासाएं, मुक्तिबोध के काव्य की सृजन प्रकिया, आधुनिक राष्ट्रीय चेतना और साहित्य, व्यक्ति, समाज और जगत, छत्तीसगढ़ी साहित्य अतीत से वर्तमान, मनोवैज्ञानिक कथाकार जैनेन्द्र और अज्ञेय, छत्तीसगढ़ी हाना, छत्तीसगढ़ी का गद्य साहित्य, आधूनिकता कुरो तत्वबोध को, छैगो सांगलो, नेपाली भाषा में मुद्रित।
प्रकाशित भाषा वैज्ञानिक शोधपत्र :- हिन्दी और बघेली का भाषा कालक्रम वैज्ञानिक अध्ययन, हिन्दी और अवधी का शब्दसाख्यिकीय अध्ययन आदि. 

आचार्य डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा जी के संबंध में जानकारी यहां भी है। 

स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी लक्ष्मण प्रसाद दुबे

शिक्षकीय कर्तव्य को अपनी साधना मानने वाले लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी का संपूर्ण जीवन एक शिक्षक के रूप में बीता, जिसके कारण उन्हें गुरूजी के रूप में जाना जाता रहा है। इन्होंनें अपने जीवन में कईयों को पढा कर उनके मन में देशभक्ति का जजबा को जागृत किया वहीं कई लोगों को शिक्षक बनने हेतु प्रेरित भी किया। नारी स्वतंत्रता एवं नारी शिक्षा के पक्षधर इस कर्मयोगी का जन्म छत्‍तीसगढ़ स्थित दुर्ग जिले के दाढी गांव में 9 जून 1909 को हुआ। वे गांव में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद बेमेतरा से उच्‍चतर माध्यमिक व शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर शिक्षकीय कार्य में जुट गये । इनकी पहली नियमित पदस्थापना सन् 1929 में भिलाई के माध्यमिक स्कूल में हुई उस समय दुर्ग में स्वतंत्रता आंदोलन का ओज फैला हुआ था।
भिलाई में शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए इनका संपर्क जिले के वरिष्ठ सत्याग्रही नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी से हुआ। उस समय किशोर व युवजन के अग्रवाल जी आदर्श थे। उनके मार्गदर्शन व आदेश से लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी भिलाई में अपने साथियों एवं छात्रों के साथ मिलकर मद्य निषेध आंदोलन व विदेशी वस्त्र आंदोलन को हवा देने लगे। उसी समय उन्होंनें भिलाई में विदेशी वस्तुओं के साथ जार्ज पंचम का चित्र भी जलाया। बढते आंदोलन की भनक से अक्टूबर 1929 में भिलाई का मिडिल स्कूल बंद कर दिया गया और इनका स्थानांतरण बालोद मिडिल स्कूंल में कर दिया गया । इन्हें अपने नेता के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हो गया क्‍योंकि अग्रवाल जी बालोद के मूल निवासी थे। बालोद के ग्राम पोडी में हुए जंगल सत्यांग्रह की पूरी रूपरेखा एवं दस्तावेजी कार्य नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी नें इन्हें सौंप दिया था। इन दस्ता‍वेजों को दुर्ग पुलिस एवं गुप्तचरों से बचाते हुए जंगल सत्याग्रही व अन्य क्रियाकलापों का विवरण वे एक रजिस्टर में दर्ज करते रहे। अग्रवाल जी के जेल जाने के बाद भी इनके द्वारा जंगल सत्याग्रह को नेतृत्व प्रदान करते हुए कायम रखा गया, वे बतलाते थे कि उस समय सत्याग्रह रैली व सभाओं में 8-10 महिलायें भी आती थी जो चरखा लेकर आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती थीं।
उन्हीं दिनों सन् 1930 में बालोद के सर्किल आफीसर नायडू से से इनकी बहस हो गई तब अग्रवाल परिवार की मध्यंस्थता से इनका स्थानांतरण धमधा कर दिया गया। अब इनकी दौड बालोद-दुर्ग, धमधा दाढी तक होती रही। वे विश्व्नाथ तामस्कर, रघुनंदन प्रसाद सिंगरौल, लक्ष्मण प्रसाद बैद के साथ सत्याग्रह आंदोलन के क्रियाकलापों से जुडे रहे। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल के इस क्षेत्र में दौरे का प्रभार लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के पास ही होता था। सन् 1932 में अग्रवाल जी के दाढी के दौरे में वे रास्ते भर सक्रिय रहे। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल युवा सत्याग्रहियों को हमेशा समझाया करते थे कि जोश के साथ होश मत खोना। क्योंकि जोश के कारण सभी बडे नेता सरकार के हिट लिस्ट में आ गये थे जिसके कारण उनकी गिरफ्तारी होती रहती थी। स्वतंत्रता आंदोलन को जीवंत रखने के लिए द्वितीय पंक्ति के सत्याग्रहियों को अपना दायित्व निभाना था अत: वे अपने गांधीवादी नरम रवैये से शिक्षकीय कार्य करते रहे ।
सन् 1942 में इनका स्थानांतरण डौंडी लोहारा कर दिया गया। जंगल सत्याग्रह की रणनीति में माहिर लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के लिए यह स्थान बालोद जैसा ही रहा क्योंकि यह स्थान जंगलों के बीच है अत: वे वहां अपने मूल कार्य के साथ पैदल गांव-गांव का दौरा कर सत्याग्रह का पाठ पढाते रहे। इस बीच उनको मार्गदर्शन नरसिंह प्रसाद अग्रवाल से मिलता रहा। 1942 में ही जमुना प्रसाद अग्रवाल अपने बडे भाई नरसिंह प्रसाद का संदेश लेकर लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के पास आये और उन्हें सचेत किया कि आपकी भी गिरफ्तारी हो सकती है। यहां से वापस लौटते ही जमुना प्रसाद अग्रवाल को बालोद में गिरफ्तार कर लिया गया और उसी रात लक्ष्मण प्रसाद दुबे को भी गिरफ्तार करने का आदेश डौंडी में जारी कर दिया गया जिसे लाल खान सिपाही नें तामील करने के पहले ही लीक कर दिया और लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी स्कूल का त्यागपत्र मित्रों के हांथ सौंपकर फरार हो गये एवं बालोद आ गये जहां से वे भूमिगत हो गए। रायपुर के प्रमुख सक्रिय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व.श्री मोतीलाल जी त्रिपाठी से पारिवारिक संबंधों का लाभ इन्हें मिलता रहा और लक्ष्मंण प्रसाद दुबे जी घुर जंगल क्षेत्र में स्वतंत्रता आन्दोलन की लौ जलाते रहे।
1942 से 1947 तक ये खानाबदोश जीवन व्यतीत करते रहे। दुर्ग जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में पैदल घूम घूम कर सत्या‍ग्रह-शिक्षा का अलख जगाने के कारण ये गिरफ्तारी से बचे रहे। ज्योतिष के विद्वान लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी नें यूनानी चिकित्सा व वैद विशारद की परिक्षा भी पास की एवं शिक्षा के साथ चिकित्सा कार्य भी किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे जनपद पंचायत स्कूल में प्रधान पाठक रहे। अवकाश प्राप्त के बाद सक्रिय राजनीति में जनपद पंचायत बेमेतरा के सदस्य भी रहे। इन्होंने दुर्ग जिला कांग्रेस की सदस्यता 1930 में ग्रहण की थी, 1942 से 1947 तक जिला कांग्रेस के कार्यकारिणी सदस्य के रूप में इन्होंनें कार्य किया अपने मृत्यु 23 जुलाई 1993 तक ये जिला कांग्रेस के सक्रिय सदस्य रहे ।
संजीव तिवारी 

 साथियों मेरा सौभाग्‍य है कि  स्व.श्री लक्ष्‍मण प्रसाद दुबे जी मेरे श्‍वसुर हैं ! 

छत्तीसगढ़ी साहित्य व जातीय सहिष्णुता के पित्र पुरूष : पं. सुन्दर लाल शर्मा

महानदी के तट पर विशाल भीड़ दम साधे खड़ी थी, उन्नत माथे पर त्रिपुण्ड लगाए एक दर्जन पंडितो नें वेद व उपनिषदों के मंत्र व श्लोक की गांठ बांधे उस प्रखर युवा से प्रश्न पर प्रश्न कर रहे थे और वह अविकल भाव से संस्कृत धर्मग्रंथों से ही उनके प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे। बौखलाए धर्मध्वजा धारी त्रिपुण्डी पंडितो नें ऋग्वेद के पुरूष सूक्त के चित परिचित मंत्र का सामूहिक स्वर में उल्ले‍ख किया - ब्राह्मणोsस्य् मुखमासीद्वाहू राजन्य: कृत: । उरू तदस्य यद्वैश्य: पद्मच्य : शूद्रो अजायत:।। धवल वस्त्र धारी युवा नें कहा महात्मन इसका हिन्दी अनुवाद भी कह दें ताकि भीड़ इसे समझ सके। उनमें से एक नें अर्थ बतलाया - विराट पुरूष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। युवक तनिक मुस्कुराया और कहा हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, इस मंत्र का अर्थ आपने अपनी सुविधानुसार ऐसा कर लिया है, इसका अर्थ है उस विराट पुरूष अर्थात समाज के ब्राह्मण मुख सदृश हैं, क्षत्रिय उसकी भुजाए हैं, वैश्य जंघा है और शूद्र पैर, जिस प्रकार मनुष्य इन सभी अंगों में ही पूर्ण मनुष्य है उसी प्रकार समाज में इन वर्णों की भी आवश्यकता है। वर्ण और जाति जन्मंगत नहीं कर्मगत हैं इसीलिए तो यजुर्वेद कहता है – नमस्तवक्षभ्यो रथकारभ्यनश्चम वो नमो: कुलालेभ्य: कर्मरेभ्यश्च वो नमो । नमो निषादेभ्य: पुजिष्ठेभ्यश्च वो नमो नम: श्वनिभ्यों मृत्युभ्यश्च‍ वो नम: ।। बढ़ई को मेरा नमस्कार, रथ निर्माण करने वालों को मेरा नमस्कार, कुम्हारों को को मेरा नमस्कार, लोहारों को मेरा नमस्कार, मछुवारों को मेरा नमस्कार, व्याघ्रों को मेरा नमस्कार। आखिर हमारा वेद स्वयं इनको नमस्कार करता है तो हम आप कौन होते हैं इन्हें सामाजिक वर्ण व्यवस्था के आधार पर मंदिर में प्रवेश करने से रोकने वाले। पंडितों ने एक दूसरे के मुख को देखा, युवा पूर्ण आत्मविश्वास के साथ वैदिक उद्हरणों की अगली कड़ी खोलने को उद्धत खड़ा था। पंडितों नें देर तक चल रहे इस शास्त्रार्थ को यहीं विराम देना उचित समझा उन्हें भान हो गया था कि इस युवा के दलीलों का तोड़ उनके पास नहीं है। भीड़ हर्षोल्लास के साथ राजीव लोचन जी का जयघोष करते हुए उस युवा के साथ मंदिर में प्रवेश कर गई। 
23 नवम्बर 1925 को घटित इस घटना में जिस युवा के अकाट्य तर्कों से कट्टरपंथी पंडितों नें भीड़ को मंदिर प्रवेश की अनुमति दी वो युवा थे छत्तीसगढ़ के दैदीप्यमान नक्षत्र पं.सुन्द रलाल शर्मा। पं.सुन्दलरलाल शर्मा अपने बाल्याकाल से ही उंच-नीच, जाति-पाति, सामाजिक वर्ण व्यवस्था के आडंबरों के घोर विरोधी थे। तत्कालीन समाज में कतिपय उच्च वर्ग में जाति प्रथा कुछ इस प्रकार से घर कर गई थी कि दलितों को वे हेय दृष्टि से देखते थे, सुन्दर लाल जी को यह अटपटा लगता, वे कहते कि हमारे शरीर में टंगा यह यज्ञोपवीत ही हमें इनसे अलग करता है। सोलह संस्कारों में से यज्ञोपवीत के कारण ही यदि व्यक्ति श्रेष्ठ माना जाता है तो क्यो न इन दलितों को भी यज्ञोपवीत धारण करवाया जाए और उन्हें संस्कारित किया जाए। मानवता के आदर्श सिद्धांतों के वाहक गुरू घासीदास जी के अनुयायियों को उन्‍होंनें सन् 1917 में एक वृहद आयोजन के साथ यज्ञोपवीत धारण करवाया। एक योनी प्रसूतश्चन एक सावेन जायते के मंत्र को मानने वाले पं.सुन्दरलाल शर्मा अक्सर महाभारत के शांति पर्व के एक श्लोक का उल्लेख किया करते जिसका अर्थ कुछ इस प्रकार है – मनुष्य जन्म से शूद्र (अबोध बालक) उत्पन्न होता है, जब वह बढ़ता है और उसे मानवता के संस्कार मिलते हैं तब वह द्विज होता है, इस प्रकार सभी मानव जिनमें मानवीय गुण है वे द्विज हैं। अपने इस विचार को पुष्ट करते हुए वे हरिजनों के हृदय में बसे हीन भावना को दूर कर नवीन चेतना का संचार करते रहे। पं.सुन्दरलाल शर्मा जी के इस प्रोत्साहन से जहां एक तरफ दलितों व हरिजनों का उत्साह बढ़ा वहीं दूसरी तरफ कट्टरपंथी ब्राह्मणों नें पं.सुन्दसरलाल शर्मा की कटु आलोचना करनी शुरू कर दी, उन्हें सामाजिक बहिष्कार का दंश भी झेलना पड़ा। ‘सतनामी बाम्हन’ के ब्यंगोक्ति का सदैव सामना करना पड़ा किन्तु स्व़भाव से दृढ़निष्चयी पं.सुन्दरलाल शर्मा नें सामाजिक समरसता का डोर नहीं छोड़ा। कट्टरपंथियों के विरोध नें उनके विश्वास को और दृढ़ किया। गुरू घासीदास जी के मनखे मनखे ला जान भाई के समान को मानने वाले गुरूओं से उनका प्रगाढ संबंध हरिजनों से उन्हे और निकट लाता गया। वे मानते रहे कि समाज में द्विजेतर जातियों का सदैव शोषण होते आया है इसलिए उन्हें मुख्य धारा में लाने हेतु प्रभावी कार्य होने चाहिए, वे भी हमारे भाई हैं।
21 दिसम्बर, 1881 को राजिम के निकट महानदी के तट पर बसे ग्राम चंद्रसूर में कांकेर रियासत के सलाहकार और 18 गांव के मालगुजार पं.जयलाल तिवारी के घर में जन्में पं.सुन्दरलाल शर्मा को मानवीय संवेदना विरासत में मिली थी। पिता पं.जयलाल तिवारी अच्छें कवि एवं संगीतज्ञ थे, माता देवमति भी अध्ययनशील महिला थी। प्रगतिशील विचारों वाले इस परिवार में पले बढे पं.सुन्दरलाल शर्मा ने मिडिल तक की शिक्षा गांव के स्कूल में प्राप्त की, फिर उनके पिता नें उनकी उच्च शिक्षा की व्यवस्था करते हुए कांकेर रियासत के शिक्षकों को घर में बुला कर पं.सुन्दरलाल शर्मा को पढ़ाया। उन्होंनें संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला, उडिया, मराठी भाषा सहित धर्म, दर्शन, संगीत, ज्योतिष, इतिहास व साहित्य का गहन अध्ययन किया। लेखन में उनकी रूचि रही और पहली बार उनकी कविता 1898 में रसिक मित्र में प्रकाशित हुई। साहित्य के क्षेत्र में पं.सुन्दरलाल शर्मा जी  छत्तीगढ़ी पद्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। ‘दान लीला’ के प्रकाशन से यह सिद्ध हुआ कि छत्तीसगढ़ी जैसी ग्रामीण बोली पर भी साहित्य रचना हो सकती है और उस पर देशव्यापी साहित्तिक विमर्श भी हो सकता है। कहा जाता है कि "छत्तीसगढ़ी दानलीला" छत्तीसगढ़ी का प्रथम प्रबंध काव्य है।
साहित्य के क्षेत्र में उनका योगदान लगभग 22 ग्रंथ के रुप में है जिनमें 4 नाटक, 2 उपन्यास और काव्य रचनाएँ हैं। काव्य में श्री राजीव क्षेत्र महात्म्य, करुणा पचीसी, प्रलाप पदावली, स्फूट पद्य संग्रह, ध्रुव चरित्र आख्यान, स्वीकृति भजन संग्रह, ब्रह्मण गीतावली, सतनामी भजनमाला, काव्य दिवाकर, सदगुरु वाणी। खण्ड काव्य में श्री राजीव क्षेत्र महात्म्य, करुणा पचीसी, प्रलाप पदावली, स्फूट पद्य संग्रह, ध्रुव चरित्र आख्यान, स्वीकृति भजन संग्रह, ब्रह्मण गीतावली, सतनामी भजनमाला, काव्य दिवाकर, सदगुरु वाणी। महाकाव्य में श्री राजीव क्षेत्र महात्म, करुणा पचीसी, प्रलाप पदावली, स्फूट पद्य संग्रह, ध्रुव चरित्र आख्यान, स्वीकृति भजन संग्रह, ब्रह्मण गीतावली, सतनामी भजनमाला, काव्य दिवाकर, सदगुरु वाणी। इसके अतिरिक्ती नाटक प्रहलाद नाटक, पार्वती परिणय, सीता परिणय, विक्रम शशिकला। जीवनी विश्वनाथ पाठक की काव्यमय जीवनी, रघुराज सिंह गुण कीर्तन, विक्टोरिया वियोग, दुलरुवा, श्री राजीम प्रेम पीयुष व उपन्यास उल्लू उदार, सच्चा सरदार है।
पं. सुन्दपर लाल शर्मा जी अपने देश को पराधीन देखकर दुखी होते थे और चाहते थे कि स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी सहभागिता दूं। इसी उद्देश्य से वे सन् 1906 में सूरत कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने गए वहां से लौटकर स्वदेशी वस्तुओं को बढ़ावा देने के उद्देश्य से स्वदेशी वस्त्रों की दुकानें राजिम, धमतरी और रायपुर में खोली किन्तु आर्थिक हानि के चलते उन्हें यह दुकान 1911 में बंद करनी पड़ी। राष्ट्र प्रेम का जजबा पं.सुन्द्रलाल शर्मा एवं उनके मित्रों में हिलोरे मारती रही और वे छत्तीसगढ़ में स्‍वतंत्रता आन्दोलन को हवा देते रहे। छत्तीसगढ़ में इस आन्दोलन को तीव्र करने के उदृश्य‍ से कण्डेल सत्याग्रह को समर्थन देने के लिए पं.सुन्दंरलाल शर्मा नें सन् 1920 में पहली बार महात्मा‍ गांधी को छत्तीसगढ़ की धरती पर लाया।
बीच के वर्षों में उन्हें स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने के लिए जेल भी जाना पड़ा किन्तु‍ वे अपने हरिजन उद्धार व स्वतंत्रता आन्दोंलन के कार्यो को निरंतर बढ़ाते रहे। 1933 में गांधी जी जब हरिजन उद्धार यात्रा पर निकले उसके पहले से ही पं.सुन्दरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में व्याप्त रुढ़िवादिता, अंधविश्वास, अस्पृश्यता तथा कुरीतियों को दूर करने के लिए प्रयास में जुटे रहे । छत्तीसगढ़ में आपने सामाजिक चेतना का स्वर घर-घर पहुंचाने में अविस्मरणीय कार्य किया ।
जातिवाद के खिलाफ पं.सुन्दारलाल शर्मा जी का अभिमत गलत नहीं था, वे भारतीय समाज में जातिवाद को भयंकर खतरे के रूप में देखा करते थे, इसीलिए वे आजीवन जातिप्रथा के खिलाफ संघर्षरत रहे। वे जातिविहीन व शोषणविहीन समाज के हिमायती थे। भारत में दलित उत्थान एवं अछूतोद्धार के लिए महात्मा गांधी को याद किया जाता है किन्तु स्वयं महात्मा गांधी नें पं.सुन्दार लाल शर्मा को इसके लिये उन्हें अपना गुरू कहा और सार्वजनिक मंचों में स्वी‍कारा भी। स्वतंत्रता आन्दोलन एवं हरिजन उत्थान में पं. सुन्दरलाल शर्मा के योगदान के लिए उन्हें छत्तीसगढ़ का गांधी कहा गया।
जातिविहीन समरस समाज की कल्पना का शंखनाद करते हुए उंच-नीच के जातिगत आधारों में बंटते प्रदेश के सभी जातियों को उन्‍होंनें अपना पुत्र तुल्य स्नेह दिया। विभिन्नो जाति वर्ग को एक पिता का संतान मानते हुए सभी भाईयों को समानता का दर्जा दिया उनके इस योगदान नें ही उन्हें संपूर्ण छत्तींसगढ़ का पिता बना दिया. एक पिता को अपने सभी बेटों से प्रेम होता है उसी प्रकार से पं.सुन्दरलाल शर्मा जी छत्तीसगढ़ के प्रत्येक जन से बेटों सा प्रेम करते थे। अपने पुत्र के असमय मौत नें उन्हें व्यथित किया किन्तु वे शीध्र ही सम्हल गए और छत्तीसगढ़ के अपने अनगिनत बेटों के उत्थान में लग गए। कहते हैं आरंभ से आदर्श मानव समाज की सतत परिकल्पना में मनुष्य नें अपने रक्त आधारित संबंधों के आदर्श रूप में माता और पिता को सर्वोच्च स्थान दिया है। किन्तु रक्त आधारित संबंधों से परे मनुष्यता में समाजिक संबंधों का मान रखना छत्तीसगढि़यों का आदर्श है, पं. सुन्दर लाल शर्मा इन्हीं अर्थों में हम सबके पिता हैं। उनका स्मरण छत्तीसगढ़ की आत्मा‍ का स्मरण है, प्रत्येक छत्तीसगढी शरीर में पंडित जी की आत्मा का वास है।
संजीव तिवारी

(यह आलेख डॉ.परदेशीराम वर्मा जी की पत्रिका 'अगासदिया' के आगामी वृहद पितृ अंक के प्रकाशन के लिए मेरे द्वारा जल्‍दबाजी में लिखी गई है पं.सुन्‍दर लाल जी की वर्तमान पीढ़ी पर कुछ प्रकाश डालना शेष है जिसे आगामी पोस्‍ट के लिए रिजर्व रख रहा हूं)

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

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