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दुर्ग जिले में पहली चुनाव याचिका

दुर्ग ग्रामीण के रूप में उस समय दुर्ग से लगे ग्राम कुथरैल विधानसभा सीट था। दूसरे चुनाव में यह सीट भिलाई के रूप में परिसीमित हुआ था। उस समय के इस दुर्ग ग्रामीण सीट में कांग्रेस के मोहनलाल बाकलीवाल, समाजवादी पार्टी के दाउ त्रिलोचन सिंह, राम राज्य परिषद के लाल दशरथ सिंह, शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के रंदुल, कम्युनिस्ट पार्टी के चंदूलाल और निर्दलीय उमेश सिंह उम्मीदवार थे। चुनाव में त्रिलोचन सिंह की जीत हुई थी और निकटतम प्रतिद्वंदी मोहनलाल बाकलीवाल सहित अन्य सभी हार गए थे। इस चुनाव के बाद मोहनलाल बाकलीवाल ने त्रिलोचन सिंह के विरुद्ध चुनाव में अनियमितता का आरोप लगाते हुए चुनाव याचिका दायर किया था। बाकलीवाल ने आरोप लगाया था कि त्रिलोचन सिंह ने मतदाताओं को मतदान बूथ तक लाने ले जाने के लिए गांव-गांव में वाहन की व्यवस्था की थी। इस तरह से उसने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए चुनाव आचार संहिता के नियमों का उल्लंघन किया था। उन्होंने अपनी याचिका में त्रिलोचन सिंह के निर्वाचन को अवैध घोषित करने एवं स्वयं को निर्वाचित घोषित करने की मांग की थी। इस याचिका की सुनवाई लंबे समय तक चली। बाकलीवाल यह सिद्ध नहीं कर पाए कि चुनाव में आचार संहिता का उल्लंघन किया था। फलत: याचिका खारिज हो गई। संभवत: दुर्ग जिले के लिए यह पहली चुनाव याचिका थी।




विधान सभा 1952 के पंचवर्षीय में ही मोहनलाल बाकलीवाल की किस्मत चमकी। हुआ यह कि दुर्ग विधानसभा के विधायक घनश्याम सिंह गुप्त जब निर्वाचित होकर मध्य प्रदेश विधानसभा पहुंचे तब वे चाहते थे कि वे पुन: स्पीकर बनें किन्‍तु उन्‍हें स्‍पीकर नहीं बनाया गया। इससे नाराज होकर उन्‍होंनें इस्तीफा दे दिया। तब दुर्ग के में मध्यावधि चुनाव हुआ। जिसमें मोहनलाल बाकलीवाल कांग्रेस की टिकट से जीते। उसके बाद तो मोहन लाल बाकलीवाल लोकसभा चुनाव 1997 में दुर्ग के सांसद निर्वाचित हुए।
-संजीव तिवारी

इस आलेख के आधार पर दुर्ग पत्रिका नें विधान सभा चुनाव के समय समाचार प्रकाशित किया था। क्रियेटिव कामन्‍न्‍स के तहत इसे यहां प्रकाशित कर रहा हूं क्‍योंकि इस सामाग्री को एकत्रित करने के लिए मैने मानसिक श्रम किया है।



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वेदमती पंडवानी पहले कभी होती रही होगी

छत्तीसगढ़ की प्रदर्शनकारी लोककला "पंडवानी" के इतिहास पर इतना कहा जाता है कि यह "भजनहा" से आरंभ होकर नारायणलाल वर्मा, झाड़ूराम देवांगन, पद्मश्री पूनाराम निषाद और पद्मविभूषण तीजनबाई तक सफर करते हुए वर्तमान "पंडवानी" के रूप में स्थापित हुई।




सभी वरिष्ठ पंडवानी कलाकार सबल सिंह चौहान और वाचिक लोकाख्यान को अपने गायन का आधार बताते हैं। इस अवधि में कलाकारों की, प्रस्तुति की अपनी-अपनी शैली को निरंजन महावर ने नया शब्द गढ़ते हुए, वेदमती और कापालिक नाम दिया। इसे अर्थांवित करते हुए उन्होंने कहा कि जो वेद सम्मत गायन है, वह वेदमती है एवं जो लोक सम्मत गायन है वह कापालिक है। इसे उन्‍होंनें विस्‍तार से समझाया है। उनकी किताब और मध्‍यप्रदेश जनजातीय परिषद की पत्रिका 'चौमासा' में प्रकाशित आलेखों को संदर्भित करते हुए लोग धीरे-धीरे पंडवानी विशेषज्ञ बनते गए। छत्‍तीसगढ़ की धरती में इसकी खुशबू कैसे फूटी इसे गिने-चुने स्‍थानीय लोगों के अतिरिक्‍त किसी और ने नहीं किया।




किसी ने गपालिक के सूत्र को और आगे बढ़ाया कि जो अपने कपाल से कथा तैयार कर कथा गाता है वह कापालिक है यानी कल्पना प्रधान। किसी ने कहा कि जो खड़े होकर-नाट्य प्रदर्शन कर कथा गाता है वह कापालिक है, यह भी कहा गया कि, बैठकर जिसे गाया जाता है वह वेदमती। वैसे अधिकतम गायक/गायिका अपने आप को कापालिक गायक/गायिका कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं। पद्मविभूषण तीजनबाई स्वयं अपने आप को कापालिक गायिका कहती है। 




आप सभी जानते हैं कि पिछले सत्तर के दसक से प्रत्येक गायक/गायिका अपने साक्षात्‍कार में कहते हैं कि वे, सबल सिंह चौहान और लोक आख्यान के परस्पर मेल से पंडवानी प्रस्तुत करते हैं। इस तथ्य के साथ तथाकथित शैली की परिभाषा मुझे दिग्भ्रमित करती है। मेरे अनुसार से अब पंडवानी मात्र कापालिक है, वेदमती पंडवानी पहले कभी होती रही होगी।
इस पर अभी लिखना जारी है ... साथ बने रहें।
- संजीव तिवारी

दुर्ग में 1952 का पहला आम चुनाव और चुनावी चूरन

1952 के पहले आम चुनाव में दुर्ग विधानसभा में रोमांचक मुकाबला था। तब सीपी एंड बरार के स्पीकर घनश्याम सिंह गुप्त कांग्रेसी उम्मीदवार थे। जन संघ ने डॉक्टर डब्लू. डब्लू. पाटणकर को खड़ा किया था। अन्य प्रमुख उम्मीदवार डॉक्टर जमुना प्रसाद दीक्षित जो निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़े थे। तीनों का चुनाव चिन्ह क्रमश: जुड़ा फंदा बैल, दिया और तराजू था। नगर और आसपास के क्षेत्रों में दोनों डॉक्टरों का अच्छा प्रभाव था। दोनों मृदुल स्वभाव के एवं हंसमुख व्यक्तित्व के थे। गरीबों और दीन दुखियों के इलाज करने के कारण लोग उन्हें भगवान जैसा पूजते थे।

घनश्याम सिंह गुप्त दुर्ग के सूबेदार के वंशज थे एवं सन 1937 से नागपुर के धारा सभा के लिए दुर्ग असेंबली का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उनका प्रभाव कांग्रेस के बड़े नेता के रूप में स्थापित था। स्वतंत्रता के बाद जनता को पहली बार नेता चुनने एवं अपना मत देने का अवसर मिला था। जनता में भी चुनाव का उत्साह था। उस समय दुर्ग नगर के गांधी चौक में चुनावी सभा आयोजित होते थे। दाऊ घनश्याम सिंह गुप्ता छत्तीसगढ़ी भाषा में रोचक ढंग से लुभावने भाषण से जनता को प्रभावित करते थे। भाषण में कथा कहानी के साथ ही रोचक मुहावरों एवं लोकोक्तियों के माध्यम से एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप होते थे। उपस्थित भीड़ हंसी ठिठोली कर मजा लेती थी। इस चुनाव में घनश्याम सिंह गुप्‍त के विरोधी वक्ताओं में दाउ निरंजन लाल गुप्ता, भंगूलाल श्रीवास्तव, कृष्णानंद सोक्‍ता और चुन्नी लाल वर्मा को सुनने भीड़ जमती थी।

उस समय घनश्याम सिंह गुप्त ने छत्तीसगढ़ी में चुनाव पंपलेट छपवा कर बटवाया था। तो डॉक्टर जमुना प्रसाद दीक्षित के पक्ष में दाऊ निरंजन लाल गुप्ता ने घनश्याम सिंह गुप्त के विरोध में रोचक दोहों में 'गुप्त मोदक' लिखकर बटवाया था। उसकी कुछ बानगी देखिए-


बसा नगर शंकर तथा, बसा द्वारिका धाम।
स्वर्ण धाम है गुप्त फिर, कैसे हो बदनाम।
पुरखौती हक मानकर, तजत न पद को मोह।
शुकुल मिसिर गोविंद अरू, गुप्त सुभक्त गिरोह।

कवि ने इस पदमें जिस गिरोह की बात की है वे तत्कालीन मध्य प्रदेश के पं. रविशंकर शुक्ल, पं. डी.पी. मिश्र, सेठ गोविंद दास एवं घनश्याम सिंह गुप्त हैं, जो लंबे समय तक सीपी एंड बरार, मध्य प्रांत और मध्य प्रदेश में मलाईदार पदों पर आसीन रहे।

इस चुनाव में घनश्याम सिंह गुप्त को दोनों डॉक्टरों ने तगड़ी टक्कर दी थी। गुप्तजी 1035 मतों से जीते थे। दूसरे क्रम में निर्दलीय डॉ. जमुना प्रसाद दीक्षित एवं किसान मजदूर प्रजा पार्टी के मोतीलाल तीसरे क्रम में रहे। सोशलिस्ट पार्टी के हरिप्रसाद चौथे एवं भारतीय जनसंघ के डॉ. डब्लू. डब्लू. पाटणकर पांचवें क्रम में आए थे।
-संजीव तिवारी
इस आलेख के आधार पर दुर्ग पत्रिका नें विधान सभा चुनाव के समय समाचार प्रकाशित किया था। क्रियेटिव कामन्‍न्‍स के तहत इसे यहां प्रकाशित कर रहा हूं क्‍योंकि इस सामाग्री को एकत्रित करने के लिए मैने मानसिक श्रम किया है।

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दुर्ग के सांसद किरोलीकर, बाकलीवाल और तामस्कर

दुर्ग के पहले सांसद वासुदेव श्रीधर किरोलीकर
सतारा महाराष्ट्र के पास मसूर गांव में जन्मे किरोलीकर के पिताजी राजकुमार कॉलेज रायपुर में शिक्षक थे। इन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा रायपुर और कॉलेज की शिक्षा नागपुर फिर इलाहाबाद से प्राप्त की। कानून की डिग्री प्राप्त कर इन्होंने दुर्ग न्यायालय में सन 1920 से एक अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस करना आरंभ किया था। दुर्ग में निवास करते हुए वे स्वतंत्रता आंदोलनों में सक्रिय रहे। स्वतंत्रता के बाद सन 1951-52 के पहले आम चुनाव में वे दुर्ग लोकसभा सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े और कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार गंगाप्रसाद चौबे को नब्बे हजार से भी अधिक मतों के अंतर से हराया और दुर्ग के पहले सांसद के रूप में अपना नाम दर्ज किया। हम आपको यह याद दिलाना चाहते हैं कि दुर्ग लोकसभा में उस समय तीन सांसद के पद थे जिसमें दुर्ग से किरोलीकर एवं संयुक्त क्षेत्र दुर्ग बिलासपुर से गुरु अगम दास एवं दुर्ग बस्तर संयुक्त क्षेत्र से पंडित भगवती चरण शुक्ला विजित हुए थे। दिलचस्प बात यह है कि इस चुनाव में सांसद बनने के लिए किरोलीकर ने मात्र 3000 रुपये खर्च किए थे। 1952 में भी बूथ में गड़बड़ी की शिकायत आई थी और साजा क्षेत्र के कुछ बूथों पर दुबारा मतदान हुआ था।




दूसरे सांसद मोहनलाल बाकलीवाल
मोहनलाल बाकलीवाल दुर्ग की राजनीति में पहले से ही सक्रिय थे। वे दुर्ग नगर विधानसभा सीट के मध्यवधि चुनाव में जीत कर विधायक थे। दूसरे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें दुर्ग से टिकट दिया और वे जीते। बाकलीवाल जी तीसरे लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की टिकिट से खड़े हुए और जीते। 1962 के इस चुनाव में दुर्ग के कद्दावर नेता और वकील विश्वनाथ यादव तामस्कर प्रजा समाजवादी पार्टी की ओर से खड़े थे वहीं राम राज्य परिषद की टिकिट पर नंदलाल शर्मा लड़ रहे थे।




विश्वनाथ यादव तामस्कर का कांग्रेस प्रवेश और बने तीसरे सांसद
हमने पहले बताया है कि स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस के झंडे के तले काम करने वाले तामस्कर ने 1962 में प्रजा समाजवादी पार्टी की ओर से दुर्ग लोकसभा चुनाव लड़ा और हार गए थे। इसके बाद के घटनाक्रम में मध्यप्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। सन 1963 में अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन औंरी भुवनेश्वर में हुआ था। कांग्रेस ने इस अधिवेशन में समाज वादियों को मुख्य धारा में लाने और कांग्रेस के समाजवादी सिद्धांत पर संकल्प पारित किया था। 1962 के चुनाव के बाद की स्थिति में समाजवादी पार्टी का अस्तित्व लगभग लगभग समाप्त की कगार पर था और समाजवादी नेता कांग्रेस ज्वाइन कर रहे थे। इधर मध्यप्रदेश के तत्कालीन तेजतर्रार मुख्यमंत्री पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र, तामस्कर जी के बहुत अच्छे मित्र थे। लोग बताते हैं कि एक बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पं. डीपी मिश्र किसी उद्घाटन कार्यक्रम के सिलसिले में दुर्ग आये। कार्यक्रम निपटाने के बाद रात वे सर्किट हाउस में ठहरे। शाम को मुख्यमंत्री ने दुर्ग कलेक्टर के माध्यम से तामस्कर जी को संदेश भेजकर उन्हें सर्किट हाउस बुलाया।
तामस्कर जी तक यह संदेश दुर्ग के तत्कालीन कलेक्टर ने स्वयं आकर दिया। कलेक्टर, उन्हें साथ लेकर जाना चाहते थे पर तामस्कर जी ने जाने से इंकार कर दिया। उन्होंने कलेक्टर से कहा कि आप अपने मुख्यमंत्री से कहिए यदि वे मुझसे मिलना चाहते हैं तो मेरे घर में आएं। कलेक्टर ठगा सा वापस पं.डीपी मिश्र जी के पास सर्किट हाउस आया और वह सब बता दिया।

सुबह मुख्यमंत्री तामस्कर जी के बंगले के द्वार पर पहुंच गए। तामस्कर जी दरवाजे पर उनका स्वागत करने के लिए पहुंचे और कहा अंदर चलिए। डीपी मिश्र ने कहा कि मैं आपके घर ऐसे ही नहीं जाऊंगा। ब्राह्मण हूं, याचक हूँ, दक्षिणा लूंगा फिर जाऊंगा। तामस्कर जी ने कहा कि महाराज ब्राम्हण तो मैं भी हूं। एक ब्राम्हण दूसरे ब्राह्मण को दक्षिणा कैसे दे सकता है। डीपी मिश्र ने कहा कि अभी मैं आपका मेहमान हूं आपके द्वार पर खड़ा हूं, इंकार न कीजियेगा।
तामस्कर जी ने कहा मांगिये जो मांगना है। डीपी मिश्र ने कहा कांग्रेस ज्वाइन कर लो। तामस्कर जी ने कांग्रेस ज्वाइन कर लिया। और इस प्रकार से बड़े तामस्कर छत्तीसगढ़ कांग्रेस के भी बड़े नेता स्वीकार लिए गए। दुर्ग की स्थानीय राजनीति में बाकलीवाल जी सांसद थे और दुर्ग नगर निगम कमेटी के अध्यक्ष थे। कांग्रेस में दो गुट हो गए एक बाकलीवाल गुट और एक तामस्कर गुट। उनके बीच राजनैतिक टकराव लगातार बढ़ती रही और जब 1963 में लोकसभा के लिए कांग्रेस से टिकट देने की बारी आई तब डी पी मिश्र ने दोस्ती का मान रखते हुए तामस्कर को कांग्रेस का टिकट दे दिया।




बाकलीवाल को पटकनी
बाकलीवाल जी टिकट के प्रबल दावेदार थे एवं विगत 10 वर्षों दुर्ग के सांसद थे। उन्होंने तामस्कर के विरुद्ध निर्दलीय फार्म भर दिया। स्थिति विकट हो गई, भितरघात की संभावनाएं बढ़ गई। ऐसी स्थिति में डीपी मिश्र और तामस्कर के मित्रों ने बाकलीवाल के प्रभाव को कम करने के लिए राजनैतिक जुगत लगाई। दुर्ग में जब बाकलीवाल नगर निगम कमेटी के अध्यक्ष थे तब कमेटी के सदस्य धनराज देशलहरा के साथ उनका मतभेद रहा। उस समय धनराज देशलहरा ने तामस्कर जी को जिताने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया। लोगों का कहना है कि दुर्ग लोकसभा में भिलाई स्टील प्लांट क्षेत्र के मतदाताओं की संख्या प्रभावी थी और बाकलीवाल की उन पर पकड़ थी। चुनाव परिणाम में उन वोटों का बहुत प्रभाव पड़ने वाला था। ऐसी स्थिति में धनराज देशलहरा ने भिलाई स्टील प्लांट के कामरेड एम देशपांडे को निर्दलीय फार्म भरवा दिया। बाकलीवाल जी को पड़ने वाले वोट बंट गए। इस चुनाव में तामस्कर को 1,08,498 वोट मिले, बाकलीवाल को 74,180 वोट मिले वहीं एम देशपांडे को 43,090 वोट मिले। यदि देशपांडे जी का वोट बाकलीवाल जी को मिल जाता तो वे जीत जाते। देशपांडे जी अभी पद्मनाभपुर में रहते हैं।

हम आपको बता दें कि इस चुनाव के रणनीतिकारों में से प्रमुख धनराज देशलहरा, नगर के प्रभावशाली व्यक्ति थे। वे दुर्ग जिले में लोक परिवहन के आदि पुरुष माने जाते हैं। इन्होंने रायपुर के आनंद रोडवेज के साथ मिलकर पहले ग्रामीण क्षेत्रों में बसे चलवाई। फिर मोतीलाल वोरा, तुलजाराम फतनानी, मोहन लाल व्यास आदि के साथ जनता ट्रांसपोर्ट दुर्ग की स्थापना की। फिर बाद में दुर्ग रोडवेज के रूप में उसे स्थापित किया। कहते हैं कि दुर्ग में देशलहरा की छवि अत्यंत प्रभावशाली थी। वे नगर सेठ थे और राजनीति एवं प्रशासनिक अधिकारियों से उनके मधुर संबंध थे, दुर्ग में उनकी बात कटती नहीं थी।
- संजीव तिवारी

इस आलेख के आधार पर दुर्ग पत्रिका नें समाचार प्रकाशित किया है।
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जइसन ला तइसन मिलै, सुन गा राजा भील. लोहा ला घुन खा गै, लइका ला लेगे चील.

इस छत्तीसगढ़ी लोकोक्ति का भावार्थ है दूसरों से बुरा व्यवहार करने वाले को अच्छे व्यवहार की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए अर्थात जैसे को तैसा व्यवहार मिलना चाहिए.

पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही वाचिक परम्परा की इस लोकोक्ति का उल्लेख सन् 1978 में डॉ.मन्नू लाल यदु नें अपने शोध प्रबंध 'छत्तीसगढ़ी-लोकोक्तियों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन' में किया है. उन्होंनें इसे 'जैसन ला तैसन मिलै, सुन राजा भील. लोहा ला घुना लग गै, लइका ल लेगे चील. लिखा है, व्यवहार में एवं प्रचलन के अनुसार मैंनें इसके कुछ शब्दों में सुधार किया है.

इस लोकोक्ति के भावार्थ के संबंध में गांव के बड़े बुर्जुगों को पूछने पर वे एक दंतकथा बताते हैं. डॉ.मन्नू लाल यदु नें भी अपने शोध प्रबंध में उसका उल्लेख किया है. आइये हम आपको इस लोकोक्ति से जुड़ी दंतकथा को बताते हैं.




एक गांव में दो मित्र आस पास में रहते थे, दोनों में प्रगाढ़ मित्रता थी. एक बार एक मित्र को किसी काम से दूर गांव जाना था. उसके पास वरदान में मिली लोहे की एक भारी तलवार थी, उसने सोंचा कि वह भारी तलवार को बाहर गांव ले जाने के बजाए अपने मित्र के पास सुरक्षित रख दे और वापस आकर प्राप्त कर ले. उसने वैसा ही किया और तलवार दूसरे मित्र के घर रखकर दूर गांव चला गया. कुछ दिन बाद वह वापस अपने गांव आया और अपने मित्र से अपनी तलवार मांगा, किन्तु मित्र लालच में पड़ गया और तलवार हड़पने के लिए बहाना बना दिया कि मित्र उस तलवार को तो घुन खा गया. (घुन वह कीड़ा है जो लकड़ी में लगता है और धीरे धीरे पूरी लकड़ी को खा जाता है) तलवार का स्वामी मित्र के इस व्यवहार से बहुत व्यथित हुआ किन्तु कुछ कर ना सका.




समय बीत गया, बात आई गई हो गई. कुछ समय व्यतीत होने के उपरांत दूसरे मित्र को भी किसी काम से बाहर गांव जाना पड़ा. उसे जल्दी जाना था और परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि उसे अपने छोटे बच्चे को मित्र के पास छोड़ना पड़ा. काम निबटा कर जब वह वापस गांव आया और अपने बच्चे को मित्र से मांगा तो मित्र ने कहा कि उसे तो चील उठा कर ले गया.

दोनों के बीच लड़ाई बढ़ी और बात भील राजा के दरबार में पहुची. राजा ने मामला सुना और समझा, उसने न्याय करते हुए तलवार को दबा लेने वाले से मित्र को तलवार वापस दिलाई, मित्र नें उसे उसका बच्चा वापस दे दिया.




भारतीय संविधान के निर्माण में छत्‍तीसगढि़या सिपाही : धनश्‍याम सिंह गुप्‍त

पराधीन देश मे स्वतंत्रता और अपने स्वयं के संविधान के लिए आकुल जनता की आवाज को बुलंद करते हुए जनवरी 1938 में पं.नेहरू नें कहा था कि राष्‍ट्रीय कांग्रेस का लक्ष्‍य स्‍वतंत्रता और लोकतांत्रिक राज्‍य की स्‍थापना है। उसकी मांग है कि स्‍वतंत्र भारत का संविधान वयस्‍क मताधिकार के आधार पर निर्मित हो। नेहरू और राष्‍ट्रीय कांग्रेस के इच्‍छा के अनुरूप भारतीय लोकतंत्र के संविधान के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ हुई। देश की आजादी के पूर्व अंग्रेजी सरकार के प्रयासों से प्रांतीय विधान सभा द्वारा चुने गए एवं रियासतों और प्रांतों के कुल 389 सदस्यों से संविधान सभा का गठन किया जा चुका था। संविधान सभा ने जवाहरलाल नेहरू के साथ 13 दिसंबर, 1946 को भारत के संविधान निर्माण के लिए औपचारिक रूप से पहल आरंभ किया। इसका उदेश्‍य भारत को एक संप्रभु गणराज्य के रूप में स्‍वतंत्र घोषित करना और उसके लिए संविधान का निर्माण करना था।
इस बीच देश का विभाजन हो गया और 15 अगस्‍त को भारत को जब स्‍वतंत्रता मिली, संविधान सभा में सीटों की कुल संख्या 299 हो गई। डॉ. राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष चुने गये। सभा की अगली कार्यवाहियों में 29 अगस्त 1947 को, संविधान सभा में एक प्रस्ताव के माध्यम से मसौदा समिति की नियुक्ती की गई। जिसमें ए. कृष्णस्वामी अय्यर, एन. गोपालस्वामी, बी.आर. अम्बेडकर, के.एम. मुंशी, मो. सादुल्ला, बी.एल. मित्तर और डी.पी. खेतान थे। अगले दिन मसौदा समिति ने अपनी पहली बैठक में बी.आर. अंबेडकर को समिति का अध्यक्ष चुन लिया। सनद रहे कि इस बीच संवैधानिक सलाहकार बी.एन.राऊ द्वारा ड्राफ्ट संविधान तैयार कर लिया गया था।




अक्टूबर 1947 के अंत में मसौदा समिति ने बी.एन.राऊ द्वारा तैयार किए गए ड्राफ्ट संविधान की जांच शुरू की। समिति ने इसमें विभिन्न परिवर्तन किए और सुधार के उपरांत 21 फरवरी 1948 को इसे संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया। संविधान सभा में इस पर सदस्‍यों के बीच व्‍यापक विचार-विमर्श हुआ, भारतीय संविधान को स्‍वरूप देनें में इन प्रभावशाली बहसों का अहम योगदान था। संविधान सभा के सदस्यों ने संशोधनों का प्रस्ताव रखा और इन पर बहसें की। संविधान सभा के ज्‍यादातर वाद-विवाद मसौदा समिति द्वारा तैयार किए गए ड्राफ्ट संविधान के चारों ओर घूमती रही। संविधान सभा के 165 सदस्यों में से 114 सदस्‍यों नें ड्राफ्ट संविधान पर 11 सत्रों में दिनों की संख्‍या के हिसाब से कुल 165 दिन बहस करते हुए बिताए। मसौदा संविधान के अनुच्छेदों पर बहस के उपरांत संविधान सभा ने संशोधनों को या तो अपनाया या बहुसंख्यक मत के आधार पर अस्वीकार कर दिया। 6 दिसंबर 1946 को, संविधान सभा की पहली बैठक हुई। संविधान निर्माण की प्रक्रिया में 2 साल और 11 महीने, 18 दिन लगे। मूल संविधान में 395 अनुच्छेद, जो 22 भागों में विभाजित थे इसमें केवल 12 अनुसूचियां थीं। 26 नवंबर को संविधान सभा ने भारत के संविधान को अपनाया और 26 जनवरी 1950 को यह लागू हुआ।
भारत के इस पवित्र संविधान के निर्माण में मसौदा समिति के अध्‍यक्ष डॉ.बी.आर.अम्‍बेडकर का मुख्‍य योगदान रहा। बाबासाहब ने बी.एन.राऊ द्वारा बनाये गए ड्राफ्ट संविधान में आमूलचूल परिर्वतन किए और संविधान सभा में अनुच्‍छेदों के संशोधनों पर हो रहे वाद-विवादों में अपने तथ्‍यात्‍मक तर्क दिये। संविधान सभा में सदस्यों के बीच, संविधान के अनुच्छेदों, उसमे प्रयुक्त शब्दो पर उसके पक्ष और विपक्ष में तर्कों के साथ बहस होती थी। संविधान सभा में देश के विभिन्‍न प्रातों के उल्‍लेखनीय सदस्‍य भी थे जिन्‍होंनें संविधान के निर्माण में अहम योगदान दिया उनमें पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, आचार्य जे बी कृपलानी, बी पट्टाभि सीतारमैया, के.एम.मुशी, एन.गोपालस्‍वामी अयंगार, सैयद मोहम्मद सादुल्लाह, राजकुमारी अमृत कौर, रफी अहमद किदवई एवं पं. कुंजरू आदि का नाम उल्‍लेखनीय है।
हमारे प्रदेश के लिए भी यह गर्व की बात है कि संविधान निर्माण के इस महायज्ञ में छत्‍तीसगढ़ का योगदान रहा। इस प्रदेश के गुरू अगमदास, ठाकुर छेदीलाल, पं.रविशंकर शुक्‍ल, किशोरी मोहन त्रिपाठी, रामप्रसाद पोटई एवं धनश्‍याम सिंह गुप्‍त संविधान सभा के सदस्‍य थे। संविधान के अनुच्‍छेदों पर हो रहे वाद-विवादों में पं.रविशंकर शुक्‍ल एवं धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नें हिस्‍सा लिया जिसमें गुप्‍त सबसे लम्‍बे समय तक संविधान निर्माण के कार्य में दिल्‍ली में डटे रहे। पं.रविशंकर शुक्‍ल 12, 13 और 14 सितम्‍बर 1949 को संविधान सभा में उपस्थित रहे जिसमें 13 सितम्‍बर को शुक्‍ल जी नें राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी के पक्ष में लम्‍बा और एतिहससिक अभिभाषण दिया था। संविधान सभा के बहसों में गुप्‍त जी ने लगातार भाग लिया और महीनों काम करते हुए संविधान का हिन्‍दी अनुवाद किया। संविधान सभा में वे संशोधनों के लिए नियत अलग-अलग तिथियों में लगभग 30 दिन तक पूरी कार्यवाही तक उपस्थित रहे। उन्‍होंनें संविधान के अनुच्‍छेदों और शब्‍दों के संशोधनों में अपना दमदार हस्‍तक्षेप प्रस्‍तुत किया।




विधान सभा के द्वारा गुप्‍त जी को संविधान के हिन्‍दी ड्राफ्ट कमेंटी का अध्‍यक्ष नियुक्‍त किया गया था। वे दिन-प्रतिदिन के बहसों में भाग लेते रहे और अपने 41 विशेषज्ञों की टीम को लीड करते हुए संविधान के अनुवाद कार्य में तल्‍लीन रहे। अनुवाद विशेषज्ञ समिति में सर्वश्री राहुल सांकृत्यायन, डा. सुनीति कुमार चटर्जी, जयचंद विद्यालंकार, मोटुरि सत्यनारायण और यशवंत आर दाते का विशेष सहयोग गुप्‍त जी को मिलता रहा। 24 जनवरी, 1950 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नें सदन में अध्यक्ष की आसंदी से कहा कि माननीय घनश्याम सिंह गुप्त जी संविधान के हिन्दी अनुवाद की प्रति प्रस्तुत करें तब घनश्याम गुप्त नें हिन्दी अनुवाद की प्रति सदन में प्रस्तुत किया। डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद की इच्‍छा के अनुरूप 2 वर्ष 6 माह की अवधि में घनश्‍याम सिंह गुप्‍त के नेतृत्‍व में संविधान का हिन्‍दी ड्राफ्ट सदन में प्रस्‍तुत कर दिया गया। संविधान के हिन्‍दी अनुवाद के लिए उन्‍होंनें अपनी संपूर्ण उर्जा लगा दी थी। अनुवाद समिति के विद्वान सदस्‍यों के बीच तालमेल बैठाते हुए दुरूह और कठिन संवैधानिक शब्‍दों का अनुवाद आसान नहीं था। एक-एक शब्‍दों के सटीक अनुवाद में विद्वानों नें कई-कई दिन बिताये तब जाकर संविधान का वह स्‍वरूप सामने आया जिसे भारत की बहुसंख्‍यक जनता पढ़ और समझ पाने में सक्षम हुई। हिन्‍दी जनमानस के हृदय में आज भी संविधान के इसी हिन्‍दी पाठ का आदर विराजमान है। 'वी द पीपल आफ इंडिया के स्‍थान पर हमारी जिव्‍हा 'हम भारत के लोग...' कहने के लिए ज्‍यादा सहज होती है। संविधान जैसे तकनीकी ग्रन्थ को इतना सहज और ग्राह्य बनाने के लिए जिन मनीषियों नें कार्य किया उनमें घनश्‍याम सिंह गुप्‍त का नाम हमेशा भुला दिया जाता है जबकि वे इस समिति के अध्‍यक्ष और विद्वान विधि वेत्‍ता थे। पद-प्रतिष्‍ठा और नाम की ज्‍याद फिक्र ना करने के कारण ही उन्‍होने अपने इस कार्य को प्रचारित भी नहीं किया। सरकार नें उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए उन्‍हें आगे इंडिया कोड के अनुवाद की जिम्‍मेदारी दी एवं अंग्रेजीमय सरकारी काम-काज के हिन्‍दीकरण के कई अहम दायित्‍व उन्‍हें प्रदान किया गया। वे गांव के जोगी जोगड़ा बने रहे उनके खुद के गृह नगर दुर्ग में लोगों को पता नहीं था कि घनश्‍याम दाउ राष्‍ट्र के लिए क्‍या कर रहे हैं। न उन्‍होंनें प्रचारित किया ना ही बताया, बाद की पीढ़ी नें आर्य समाज की परम्‍परा के मुताबिक स्‍वर्गवासी व्‍यक्ति के अवदानों पर चर्चा को औचित्‍यहीन समझा। उन्‍हें ना गांव नें समझा और ना ही उनके स्‍वयं के प्रदेश छत्‍तीसगढ़ नें जिसकी भाषा को सबसे पहले उन्‍होंनें ही सी.पी.एण्‍ड बरार विधान सभा में प्रयोग की अनुमति दी थी। देश के संविधान के निर्माण में सक्रिय योगदान देने वाले घनश्‍याम सिंह गुप्‍त के संवैधानिक अवदानों की चर्चा छत्‍तीसगढ़ में हुई ही नहीं, हुई भी तो बहुत कम हुई।
दुर्ग में मोती सूबेदार के वंश में 22 दिसंबर 1885 को जन्‍में घनश्याम सिंह गुप्त की प्राथमिक शिक्षा दुर्ग एवं हाईस्‍कूल की शिक्षा रायपुर में हुई थी। सन 1906 में जबलपुर के राबर्टसन कॉलेज से उन्‍होंनें बीएससी की डिग्री गोल्ड मेडल के साथ प्राप्त की। छात्र जीवन से ही उनमें नेतृत्‍व क्षमता का विकास होने लगा था, राबर्टसन कॉलेज में लम्‍बे समय तक चलने वाले हड़ताल का उन्‍होंनें नेतृत्‍व किया था। वे हाकी के अच्‍छे खिलाड़ी भी थे और कालेज हाकी टीम के कैप्टन थे। आगे उन्‍होंनें सन 1908 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एलएल बी की उपाधि प्राप्त की फिर गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में फिजिक्स के प्राध्यापक के रूप में सेवा देनें लगे।
वहां से सन् 1910 में वापस आकर दुर्ग में वकालत आरंभ कर दिया। यहां उन्‍होंनें छत्‍तीसगढ़ में चल रहे स्‍वतंत्रता आन्‍दोंलन में सक्रिय भागीदारी देना आरंभ किया। 1915 में मध्य प्रांत एवं बरार के प्रांतीय परिषद के सदस्य चुने गए और आन्‍दोंलन में छत्‍तीसगढ़ के शीर्ष स्‍वतंत्रता संगा्रम सेनानियों के साथ अपनी सक्रिय भूमिका निभाते रहे। महात्मा गांधी के आह्वान पर 1921 में उन्‍होंनें वकालत का परित्याग कर दिया। 1923 से 1926 सेंट्रल प्रोविंस एंड बरार विधानसभा के निर्विरोध सदस्य निर्वाचित हुए, 1927-1930 के कार्यकाल में भी आप निर्वाचित हुए और प्रदेश विधान सभा के कांग्रेस दल के नेता चुने गए। इस बीच आप सन् 1926 में दुर्ग नगर निगम के भी अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। सन् 1933 में गांधी जी जब दुर्ग आए तब इनके घर में ठहरे थे। स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन के समय में वे कई बार गिरफ्तार किये गए और देश के स्‍वतंत्र होते तक कई बार लम्‍बे समय तक जेल की सजा भी काटे।




सन् 1930 में दिल्ली के सेंट्रल असेंबली सदस्‍य के लिए हुए चुनाव में डॉ. हरिसिंह गौर को हराकर आप सदस्‍य निर्वाचित हुए जहां सन् वे 1937 तक आपने छत्‍तीसगढ़ की दमदार उपस्थिति दर्ज की। आपने विधिवेत्ता और आईसीएस वी.एन. राव के साथ सांविधिक कोड के पुनरीक्षण कार्य मे सहयोग किया। बाद में यही बीएन राउ बंगाल हाईकोर्ट के जस्टिस भी बने। केन्‍द्रीय संसद में इस अवधि में गुप्त जी ने गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्‍ट सहित कई महत्‍वपूर्ण कानूनों का प्रणवन किया जिसमें माल बिक्री अधिनियम, भागीदारी अधिनियम, बाल श्रम निषेध अधिनियम, भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, गन्ना अधिनियम, विमान अधिनियम, पेट्रोलियम अधिनियम, मजदूरी भुगतान अधिनियम, आर्य विवाह मान्यता अधिनियम, बीमा अधिनियम आदि प्रमुख है। देश-विदेश के कानूनों का अध्‍ययन कर भारत के अनुरूप इन सभी कानूनों का ड्राफ्ट स्‍वयं घनश्‍याम सिंह गुप्‍त नें ही तैयार किया है। ये कानून संसद में वाद-विवाद के उपरांत लागू किया गया जो आज भी देश में लागू है। इतिहास के पन्‍नों पर भी उनके इन अवदानों का उल्‍लेख है किन्‍तु हम अनजान बने हुए हैं।
सन् 1937 के अंत में संजारी बालोद से सी पी एंड बरार एसेंबली के चुनाव में जीत कर मेंबर चुने गए जहां आप मध्‍य प्रांत और बरार विधान सभा के अध्‍यक्ष मनोनीत किये गए। इस प्रकार से अविभाजित छत्‍तीसगढ़ के पहले विधान सभा अध्‍यक्ष आप माने जावेंगें क्‍योंकि तत्‍कालीन राज्‍य में छत्‍तीसगढ़ का संपूर्ण हिस्‍सा सम्मिलित था। आप लगातार विभाजित मध्‍य प्रदेश के गठन एवं प्रथम विधान सभा के अध्‍यक्ष को चार्ज देते समय तक (सन् 1952) विधान सभा अध्‍यक्ष बने रहे।
संविधान निर्माण के लिए गठित संविधान सभा के लिए उनका मनोनयन 1939 में किया गया था। जहां वे सन् 1949-1950 तक संविधान सभा के हिंदी समिति के अध्यक्ष और संविधान के हिन्दी अनुवाद विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष रहे। धनश्याम सिंह गुप्त के अवदानों में भारतीय संविधान के हिन्दी अनुवाद संबंधी किए गए कार्य एवं संविधान के अनुच्‍छेदों पर संशोधनों के लिए संविधान सभा में किए गए बहस महत्वपूर्ण है। उन्हें विश्व के अन्यान्य प्रजातांतित्रक देशों में लागू संविधानों को विषद ज्ञान था। वे जानते थे कि संविधान सभा में संविधान निर्माण के महायज्ञ लिए अपने-अपने हिस्से की आहुति देनें वाले सदस्यों के इस योगदान का प्रभाव कितना दीर्घजीवी होगा। उनके द्वारा संविधान सभा में किए गए बहसों में उनके संवैधानिक ज्ञान एवं देश की जनता के प्रति दायित्व का बोध होता है।
संविधान सभा में वे कितने स्‍पष्‍टवादी एवं मुखर थे इसका उदाहरण दिनांक 25.05.1949 को हुए बहस में दृष्टिगत होता है। उस दिन सदन के अध्‍यक्ष डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद सदन की कार्यवाही प्रारंभ होने के 10 मिनट देर से पहुंचे। उनके सदन में आते ही गुप्‍त जी नें कहा कि हम सब अपना घर-द्वार, परिवार, रोजी-रोजगार छोड़कर इस पुनीत कार्य के लिए अपना पल-पल दे रहे हैं, हमें समय का पाबंद होना चाहिए। इस पर डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद नें अपनी गलती स्‍वीकारते हुए कहा कि मैं यहां आ गया था किन्‍तु सदन से आने में देरी हुई, इसके लिए मैं सदन से माफी मांगता हूं।
संविधान सभा में गुप्‍त जी के द्वारा किये गए लम्‍बे एवं उल्‍लेखनीय बहसों में दिनांक 04.11.1948 को हुए राष्‍ट्रभाषा के संबंध में उनका वक्‍तव्‍य मैं सरल हिंदुस्तानी भाषा को खोज रहा हूं एवं दिनांक 15.11.1948 को संघ और राज्य शब्‍द के प्रयोग के संबंध में अर्थान्‍वयन, दिनांक 18.11.1948 को संशोधन के प्रस्तावक के पास संशोधन का अधिकार होता है कि नहीं विषय पर, दिनांक 30.11.1948 को राज्य की परिभाषा के संबंध में एवं दिनांक को 03.12.1948 धर्म के संबंध में, दिनांक 19.05.1949 को अनुच्‍छेद के शब्‍द 'और-या' का अंतर, दिनांक को 20.05.1949 'केवल' शब्द के प्रयोग, दिनांक 10.09.1949 को इसके बावजूद-बशर्ते कि में अंतर आदि पर गंभीर बहसें एवं संशोधन प्रस्‍तुत किए गए हैं। इसके अतिरिक्‍त दिनांक 06.12.1948 को उपराष्ट्रपति से वार्ता एवं दिनांक 17.09.1949 को अनुवाद समिति के गठन पर उनका उद्बोधन देश के लिए धरोहर है। अभी पिछले साल सर्वोच्‍च न्‍यायालय में जयराम नरेश नें आधार कार्ड के संबंध में एक याचिका प्रस्‍तुत किया था जिसमें संविधान सभा मे घनश्याम सिंह गुप्ता के अंग्रेजी के ओनली शब्द पर किये गए बहस का उल्लेख किया गया था। उस समय देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में घनश्याम सिंह गुप्ता का संदर्भ लगातार आते रहा। उनके सभी अभिभाषण भारत सरकार के द्वारा प्रकाशित संविधान सभा के वाद विवाद खंडों में संग्रहित हैं। गुप्‍त जी के द्वारा दिनांक 24.01.1950 को संविधान का हिन्दी अनुवाद सदन में राष्ट्रपति को समर्पित किया गया और उसमें सभी सदस्‍यों नें हस्‍ताक्षर किये। यह हमारे छत्‍तीसगढ़ के लिए बहुत गर्व का क्षण था जब इस भू-भाग का एक महापुरूष देश को संविधान का पुष्‍प अर्पित कर रहा था।
उनके संवैधानिक अवदानों के अतिरिक्‍त उन्‍होंनें सन् 1938-40 में हैदराबाद आर्य समाज आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्‍होंनें सन् 1944-47 में सिंध प्रदेश में सत्यार्थ प्रकाश के बैन के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व किया। सन् 1953-55 में भारत सरकार द्वारा जस्टिस एम बी नियोगी कमेटी के सदस्‍य बनाये गए, जो ईसाई मिशनरीज के द्वारा छलपूर्वक किये जा रहे धर्मानंतरण क्रियाकलापों की जांच के लिए बनाई गई थी। आपने सन 1957 में हुए पंजाब सूबा हिन्दी आंदोलन का भी नेतृत्व किया। आप राजभाषा आयोग, भारत सरकार, के दिनांक 15.11.1961 से 13.06.1964 तक सदस्य भी रहे। आपने सन् 1963 में राजभाषा अधिनियम का ड्राफ्ट तैयार किया। इसके अतिरिक्‍त वे ऑल इंडिया बैकवर्ड कम्युनिटी पूर्णकालिक सदस्य और अध्यक्ष रहे। आप सन् 1961-1965 तक ऑफिशियल लैंग्वेज लेजिस्लेटिव कमीशन, भारत सरकार के सदस्‍य रहे, जिसमें आधिकारिक रूप से से मूल केंद्रीय कानूनों को हिंदी में अनुवाद किया गया। आप एक्सपर्ट ट्रांसलेशन कमेटी, भारत सरकार के भी सदस्‍य रहे, जो तकनीकी शब्दों के हिंदीकरण के लिए कार्य करती थी। उस समय मीडिया जगत में सिरमौर हिंदुस्तान समाचार राष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसी के आप प्रथम अध्यक्ष रहे। रिहैबिलिटेशन फाइनेंसियल एडमिनिस्ट्रेशन कमीशन, भारत सरकार, के 10 साल तक आप स्थाई चेयरमैन रहे, जो पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों के आर्थिक पुनर्वास से संबंधित था। इसके साथ ही आप सार्वदेशिक भाषा स्वतंत्र समिति के अध्यक्ष रहे, इस समिति ने हिंदी के लिए ऐतिहासिक आंदोलन किया। आप विलेज बोर्ड ऑफ रायपुर डिवीजन के भी 1955 से 1957 तक चेयरमैन रहे। आप आर्य प्रतिनिधि सभा के सेंट्रल प्रोविंस एंड बरार प्रदेश के लगभग 30 वर्ष तक अध्यक्ष रहे। आपने छत्तीसगढ़ में नारी शिक्षा का अलख जगाया जिसके लिए आपने दुर्ग में तुला राम आर्य कन्या शाला का संचालन आरंभ किया। आप सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा जो आर्य समाजियों का वैश्विक प्रतिनिधित्व करता है के 1938 से कई वर्षो तक अध्यक्ष रहे। आपकी मृत्यु 13 जून 1976 को हुई।
वे संसदीय परम्‍परा और विधि-विधाई कार्यवाहियों के मानक सर्वश्रेष्‍ठ ज्ञाता थे। यह बड़ी विडंबना है कि विधान-सभा के रूप में अब सी.पी.एण्‍ड बरार का अस्तित्‍व नहीं है परन्‍तु भौतिक रूप से छत्‍तीसगढ़ का यह संपूर्ण भू-भाग उसी सी.पी.एण्‍ड बरार विधान-सभा का अंग रहा जिसके वे पहले स्‍पीकर थे। सी.पी.एण्‍ड बरार विधान-सभा पहले दो प्रदेश क्रमश: महाराष्‍ट्र और मध्‍यप्रदेश में विभाजित हुआ। सी.पी.एण्‍ड बरार से विधि-विधाई मंत्रों से अभिमंत्रित कुर्सियां मध्‍य प्रदेश होते हुए छत्‍तीसगढ़ विधान सभा में जमा दी गई किन्‍तु इस विधाई व्यवस्था के लिए मंगलाचरण पढ़ने वाले धनश्‍याम सिंह गुप्‍त छत्‍तीसगढ़ विधान सभा में आज भी अनचिन्हार हैं। 
- संजीव तिवारी
'विधान पुरूष : घनश्‍याम सिंह गुप्‍त' नामक प्रकाशनाधीन किताब के लेखक



लोक में महाभारत : दुर्योधन पुत्र लक्ष्‍मण कुमार - 1

सरला दास को उडि़या साहित्य के आदिकवि के रूप में जाना जाता है। उन्‍होंनें पंद्रहवीं शताब्दी में उडि़या सरला महाभारत की रचना की थी। सरला महाभारत लोक में व्‍याप्‍त महाभारत कथा है यह वेद व्यास के संस्कृत महाभारत से काफी अलग हैं। पिछले दिनों केन्‍द्रीय सरकार की एक संस्‍था के आमंत्रण में मैं उड़ीसा गया था। वहां सरला दास के महाभारत में और उडि़या के लोक में व्‍याप्‍त अन्‍य महाभारत के कुछ रोचक किस्‍सों की जानकारी हुई। 




एक कथा के अनुसार लक्ष्मण कुमार नें कुरुक्षेत्र के महान युद्ध में अपने पिता के साथ कंधे में कंधा मिलाते हुए युद्ध किया था। उसनें तब तक युद्ध किया था जब तक दुर्योधन के सभी भाई, महान महाराजा, कौरव की सेना के महान योद्धा सभी मारे गए। उस समय तक सिर्फ दुर्योधन जीवित था, कुरूक्षेत्र में अट्ठारहवें (शायद सत्रहवें) दिन भयानक युद्ध हो रहा था, रात होने वाली थी, अंधेरा घिर आया था। दुर्योधन चाहता था कि लक्ष्‍मण युद्ध क्षेत्र से भाग जाय और अपना जीवन बचाए। उस समय उसके लिए उसके बेटे का जीवन महत्वपूर्ण था। दुर्योधन का सोचना था कि युद्ध, उसके बेटे के क्षात्र धर्म (कर्तव्य) नहीं है, इस समय वह स्वयं अपने क्षात्र धर्म का प्रदर्शन करेगा। उस रात वह अपने बेटे को युद्ध के मैदान में मरते नहीं, जीवित देखना चाहता था। लक्ष्मण कुमार हरगिज जाना नहीं चाहता था किन्‍तु दुर्योधन ने बेटे को अंधेरे में युद्ध के मैदान से भागने का आदेश दिया। लक्ष्मण कुमार ने अपने पिता के आदेश का पालन किया। वह भागा, किन्तु, भयानक युद्ध में फंस गया वहां गहन अंधकार में यह पता ही नहीं चल रहा था कि था कि कौन मित्र है और कौन शत्रु, कौन किसको मार रहा है। लक्ष्मण कुमार मारा गया।




दुर्योधन को पता नहीं था कि लक्ष्‍मण की मृत्यु हो गई है। दुर्योधन लड़ता रहा जब अट्ठारह अक्षोहिणी सेना की लाशें रण में खेत हो गई तब युद्ध के मैदान के बीचो बीच रूधिर की ऐसी नदिया बह निकली जो कई-कई महानद से भी विकराल थी। रात्रि में दोनों दलों से युद्ध का नियंत्रण समाप्‍त हो गया था। दुर्योधन स्‍वयं को छिपाते हुए अपने कौरव शिविर में जाना चाहा, तो उसे उस रक्‍त की नदी को पार करने के सिवा कोई विकल्‍प नहीं दिखा। अंधेरे युद्धक्षेत्र में मृत्‍यु पर मृत्‍यु का शासन था, दुर्योधन जानता था कि उसे यहां से भागने के लिए इसे पार करना पड़ेगा। उस रूधिर की नदी में कई लाश, हाथी, घोड़, रथ सब तीव्र गति से बह रहे थे, उस पार जाने के लिए उस पार जाने के लिए किसी ऐसे वस्‍तु की आवश्‍यकता थी जो दुर्योधन का भार सह ले। वह हाथी, घोड़ों, रथों और तो और वीरों के लाशों को अपने गदा में खींचकर, अपने भार सहने लायक जांच चुका था। किन्‍तु उसका भार सह कर उसे इस रक्‍त नदी के उस पार ले जाने वाला कोई नहीं मिल रहा था। अंत में एक वीर के लाश को उसने अपने गदा से खींचा, गदा को उसके उपर रखकर उसके सहनशक्ति का परीक्षण किया। फिर पास खींचकर पहले अपना पांव रखकर देखा कि वह रक्‍त नद में डूबता तो नहीं है। लाश नहीं डूबा, दुर्योधन उस पर सवार हो गया। गदा को पतवार बना कर नदी पार करने लगा, उसके इष्‍ट-मित्र, सगे-संबंधी सब बह रहे हैं, इस काली रात में दुर्योधन लाश के छाती में बैठकर उस रक्‍त की नदी को पार कर रहा है। युद्ध के झंझावातों के साथ ही वह सोंच रहा है कि यह कौन ऐसा वीर है जो मेरे भार को सह लिया, मुझे इस भयानक युद्ध और रक्‍त नद से पार पहुचा दिया। 




रक्‍त नद को पार करने के बाद दुर्योधन उस लाश के मुख को देखता है, वह लक्ष्मण कुमार का मृत शरीर है। अपने पिता के जीवन और मृत्यु का प्रमेय युवा योद्धा ने मरकर हल कर दिया है। बताते हैं कि उस समय के हाहाकारी दृश्‍य का सरला महाभारत में बहुत करूण चित्रण हुआ है।
आगे कुछ और ...
-संजीव तिवारी

किसानों की चिंता कौन करेगा?

सीपी एण्ड बरार से सन् 1930 में घनश्याम सिंह गुप्ता एवं सेठ गोविन्द दास को केन्द्रीय धारा सभा के लिए मनोनीत किया गया। इस अवधि में घनश्याम सिंह गुप्ता, केन्द्रीय धारा सभा में विभिन्न कानूनों एवं केन्द्रीय बिलों के विधायन के बहसों में महत्वपूर्ण दखल देते रहे। उन्होंनें इसी अवधि में केन्द्र में आर्य समाज बिल की संपूर्ण रूपरेखा बनाई और इसे पास कराया। सन् 1930 से 1937 के बीच पारित कई कानून आज भी भारत में लागू है जिसके निर्माण में धनश्याम सिंह गुप्ता का अहम योगदान है। उन्होंनें सेन्ट्रल कांस्‍टूयेंट एसेम्बसली में लम्बी-लम्बी बहसें की है जिसे आज तक छत्‍तीसगढ़ के किसी इतिहासकार या शोधार्थी नें जनता के समक्ष सहजता से उपलब्‍ध नहीं कराया हैं। वर्तमान संचार क्रांति से यह फायदा हुआ है कि देश के नेशनल आरकाईव्‍स से हमारे ये धरोहर अब अंग्रेजी में सहज रूप से उपलब्‍ध्‍ा हैं। उनके बहसों का कुछ हिस्‍सा हम हिन्‍दी भावानुवाद के साथ यहां प्रस्‍तुत कर कर रहे हैं।
19 मार्च 1936 को केन्द्रीय धारा सभा में द इंडियन फायनेंस बिल पेश हुआ। संसद में अध्यक्ष अब्दुल रहीम, संसद के सदस्यों में उड़ीसा डिवीजन के पं.नीलकंठ दास मुम्बई मिल मालिक संघ के एस.पी.मोदी, गुंटूर ग्रामीण के एन.जी.रंगें, यूनाईटेड सिटीज के मौलाना शौकत अली, इंड्रस्ट्रियल एण्ड लेबर के अंग्रेज मंत्री सर फ्रैंक नोएस आदि नें सेन्ट्रल प्रोविंस के घनश्याम सिंह गुप्ता के बीच फायनेंस बिल संबंधी गरमा-गरम बहसें की। घनश्याम सिंह गुप्ता नें तत्कालीन भारतीय अर्थव्ययवस्था में लार्ड कर्जन के लैण्ड रेवेन्यू पालिसी के प्रभाव पर बोलते हुए छत्तीसगढ़ का उदाहरण दिया। उन्होंनें कहा कि छत्‍तीसगढ़ डिवीजन में पिछले साठ साल में लैण्ड रेवेन्यू में 800 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। मेरे जिले में सन् 1870 में लैण्ड रेवेन्यू रू. 8,00,840 था जो सन् 1880 में 8,06,526 हो गया। ऐसी स्थिति में सरकार की यह पालिसी कपोलकल्पित है बल्कि उक्त तथ्य के आधार पर यह विकास को अवरूद्ध करने वाली एवं विकास विरोधी है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि भारत की जनता बेहद गरीब है। कृषि के उपज की कीमतें नीचे जा रही है और लैण्ड रेवेन्यू उपर जा रही है। सरकार एक साल में भूमि के कीमत का लगभग 33.33 प्रतिशत लैण्ड रेवेन्यू ले रही है। ऐसी स्थिति में क्या आप इसे बेहतर पालिसी मान सकते हैं, तब जब किसान गरीब से गरीब होते जा रहे हैं।
उन्‍होंनें सदन में उपस्थित सदस्‍यों को ललकारते हुए कहा कि, मेरे माननीय मित्र मुझे सहीं करें यदि मैं गलत हूं तो। उन्होंनें एक सदस्य श्री राव जो उन्हें बीच में टोका-टाकी कर रहे थे, उन्हें कहा कि श्री राव आप अपना पैसा बैंक में सुरक्षित रखने दीजिये किन्तु क्या खेती करने वालों की भी चिंता नहीं कीजिगा? क्या आप नहीं चाहेंगें कि गांव वाले भी सुखमय जीवन गुजारें? यह लैण्ड रेवेन्यू पालिसी ही इस देश में गरीबी एवं दरिद्रता के लिए जिम्मेदार है। हमें कुछ उद्योग के लिए ही नहीं, उनके संबंध में भी सोंचना चाहिए जिनकी जनसंख्या भारत में अस्सी प्रतिशत है, जो शहरों में नहीं, गांवों में रहते हैं।
उन्होनें आगे अपने बहस में चांवल के उत्पादन के प्रति उदासीनता के संबंध में कहा कि, मैं चाहता हूं कि सरकार इन तथ्यो को जाने, मुझे पता है कि वह अवश्य जानती है कि धान इस धरती की मुख्य फसल है। स्थिति ऐसी है कि, 20 करोड़ एकड़ अन्न उत्पादक क्षेत्र में से घटते हुए मात्र 8 करोड़ एकड़ भूमि में अभी धान का उत्पादन हो रहा है। मैंनें महसूस किया है कि धान के उत्पादन को बढ़ानें की स्थिति पर किसी नें ध्यान नहीं दिया है। क्या धान के उत्पादन को बढ़ाने के लिए कोई विकल्प या विचार आप लोगों के पास नहीं है? मैनें देखा है कि कपास के उत्पादन पर लाखों रूपये खर्च किए जा रहे हैं। क्यों? इसलिये कि कपास, गांव वालों के लिए नहीं है, कपास इंग्लैंड के मैनचेस्टर के लिए है या मुम्बई या अहमदाबाद के लिए है? जहां कपड़ों के मिलें हैं। किन्‍तु सरकार धान के उत्‍पादन बढ़ाने के संबंध में क्‍यूं नहीं सोंच रही है? जबकि यह इस देश का मुख्‍य फसल है, इस पर इसकदर उदासीनता क्‍यों?
- संजीव तिवारी ('विधान पुरूष : घनश्‍याम' के अंश)

मोहक रंग संसार में है लोक जीवन की चेतना

जनजातीय चित्रकला में रुचि रखने वालों के बीच लतिका वैष्णव का नाम जाना पहचाना है। लतिका अपने चित्रों में बस्तर के आदिम राग को अपनी विशिष्ट शैली में अभिव्यक्त करती है। लोक तत्वों से परिपूर्ण उसके चित्रों, भित्ति चित्रों में लोक संगीत प्रतिध्वनित होती है। बस्तर की माटी की गंध से सराबोर लतिका के परिवार में बस्तर के विभिन्न लोक परंपरा से जुड़े कलाकार हैं। कला का यह संस्कार उसे इसी पारिवारिक परंपरा से प्राप्त हुआ है। उसकी यह पारंपरिक अभिव्यक्ति शैलीगत रूढ़ि के भीतर भी मौलिक है। हमने लतिका वैष्णव से इस संबंध में एक बातचीत किया, प्रस्तुत है लोकचित्रकार लतिका वैष्णव से बातचीत के कुछ अंश- 

बस्तर की लोक चित्रकला पर काम करने का विचार आपके मन में कैसे प्रकट हुआ ?
मेरा जन्म अविभाजित बस्तर जिले के लगभग मध्य में स्थित छोटे-से नगर कोंडागांव में हुआ जो आज सात जिलों में विभाजन के उपरान्त कोंडागांव जिले के रूप में बस्तर संभाग का हिस्सा है। यह स्थान वर्षों से सांस्कृतिक नगरी के रूप में जाना जाता रहा है। कोंडागांव नगर एवं इस जिले में ही सभी प्रकार की लोक कलाओं का समागम है, जो अन्य जिलों में बहुत कम देखने में आता है। मैं लोकचित्र-विधा से इसलिए जुड़ पाई क्योंकि मेरे पिता श्री खेम वैष्णव एक प्रख्यात लोकचित्रकार, लोक संगीतकार एवं छायाचित्रकार भी हैं। मैंने जब से होश संभाला तब से मैंने हर पल अपने -आपको तूलिका, रंगों एवं लोकचित्रों के बीच पाया। इस तरह स्वाभाविक है कि मैं मेरी रुचि खिलौनों में कम और रंगों से खेलने में अधिक रही। फिर धीरे-धीरे कुछ ऐसा हुआ कि मेरी दैनिक गतिविधियों में पढ़ाई के साथ-साथ लोकचित्रकारी एक अनिवार्यताः की तरह जुड़ गई। उम्र बढ़ने के साथ-ही-साथ लोकचित्रकला की बारीकियों की ओर अपने पिता के मार्गदर्शन में मेरा ध्यान केंद्रित होता गया।
जैसा कि आप बता रही हैं कि आपका जन्म कोंडागांव में हुआ, जो एक आदिवासी बाहुल्य जिला है। तो आपने अपने अध्ययन के साथ-साथ लोकचित्र की परम्परा को किस तरह से आत्मसात् किया ?
यह मेरा परम सौभाग्य है कि मैं कोंडागांव जैसी सांस्कृतिक नगरी में जन्मी हूं तथा मुझे जन्म से ही विरासत के रूप में विभिन्न कलाओं को अपने पापा के माध्यम से जानने का अवसर मिला। कारण, आसपास के गांवों में होने वाले लगभग हर महीने के मुख्य-मुख्य लोक एवं आदिवासी तीज-त्यौहारों में, विवाह एवं अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में मेरा अपने पापा के साथ जाना होता रहा है। इन तीज-त्यौहारों एवं अन्य प्रसंगों को मैं अपने बाल्यकाल से पापा के साथ देखती रही हूं। इन्हें देखकर एवं अनुभव कर इनके  चित्रांकन के दृष्टिकोण से विभिन्न प्रतीकों को, जो मुझे बहुत ही आकर्षक लगते थे, उन्हें अपने ढंग से बनाकर या खींचकर उन चित्रों को  पापा को दिखाकर मार्गदर्शन लेती थी। समय-समय पर मम्मी के साथ भी विवाह, जन्म संस्कार एवं अन्य संस्कारों में भी जाना होता रहा है, जिसे मैं अपनी रुचि अनुसार ऑब्जर्व कर स्कैच कर लिया करती थी। इन्हें पापा के द्वारा दिए गए मार्गदर्शन के अनुसार संशोधित व परिमार्जित कर उसे प्रस्तुत करती थी। पापा मुझे प्रस्तुतिकरण की तकनीक भी मुझे बताया करते रहे हैं। सभी संस्कारों, कार्यक्रमों आदि को साक्षात् रूप से देखने और उसे समझने का अवसर ही मेरे लिए एक ऐसा आधार बना जिसे मैं आत्मसात् किए बिना नहीं रह सकी। 
चित्रकला के विभिन्न आयाम हैं किंतु आपने लोकचित्र को ही क्यों चुना ?
मेरे अध्ययन-कालअमें स्कूल में मुझे कई कार्यक्रमों में चित्रकला प्रतियोगिताओं में भाग लेना होता था। उन विषयों के अनुसार चित्र बनाना पड़ता था। किंतु बचपन से लोकचित्र बनाते हुए उन चित्रों में भी लोक जीवन का कुछ-न-कुछ अंश आ ही जाता था, जिसके कारण मुझे पुरस्कार के साथ-साथ प्रशंसा भी मिलती रही है। मुझे एक ऐसी पृष्ठभूमि जन्म से ही मिली, जिससे मेरा रुझान इस ओर ज्यादा हुआ। चित्रकला के विभिन्न आयामों में से अपने क्षेत्र की लोक कलाओं को विकसित करने का जो मेरे पापा का संकल्प था उसे मैंने भी चुनौती के रूप में स्वीकार कर आगे बढ़ाने का एक छोटा-सा प्रयास कर रही हूं। वैसे तो फाईन आर्ट, कॉमर्शियल आर्ट, मॉडर्न आर्ट एवं अन्य विधाएं चित्रकला में हैं, किंतु अपनी मिट्टी की पहचान बनाए रखने का जो संकल्प किया है, उसमें मैं अपना योगदान दे रही हूं। इस विधा को जीवित रखना अत्यंत अनिवार्य है। कारण, यह विधा आज विलुप्त होने की कगार पर है।
जैसा कि बस्तर क्षेत्र में बेलमेटल, लौह शिल्प, काष्ठ शिल्प एवं अन्य शिल्प का विशेष महत्त्व वहां के समाज में प्रचलित है, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक समस्त संस्कारों में परिलक्षित होता है। क्या लोक चित्र भी कहीं सभी संस्कारों में दिखाई पड़ता है ?     
यह आपने बहुत ही मार्मिक प्रश्न किया है जिसके उत्तर में मैं अपने अध्ययन से केवल इतना कहना चाहूंगी, कि जिस तरह बस्तर क्षेत्र में प्रचलित अन्य विधाओं को समाज के सभी संस्कारों में अंगीकृत किया हुआ है, जो मूर्त रूप में और स्थाई होने के कारण दिखाई पड़ता है। चूंकि लोक चित्र प्रायः मांगलिक अवसरों पर भित्ति एवं आंगन आदि पर चित्रित होते हैं और संबंधित प्रसंग सम्पन्न होने के साथ ये चित्र मिटा दिए जाते हैं। इस तरह इसमें स्थायीपन नहीं होने के कारण इसका विकास शेष कलाओं के अनुरूप नहीं हो पाया है। किंतु जैसा कि हमारा संकल्प है, हम इसे अक्षुण्ण बनाने हेतु संकल्पित होने के साथ-साथ स्थायित्व प्रदान करने के लिए अभी भी जूझ रहे हैं। कारण,  इस विधा पर काम करने वाले कलाकार बहुत ही सीमित हैं तथापि इसे आगे बढ़ाने में काफी प्रयास करना पड़ रहा है। अब जहां इसके स्थायीकरण की बात आई है तो मैं आपको यह बताना चाहूंगी कि बस्तर क्षेत्र में प्रचलित अलिखित लोक महाकाव्य लक्ष्मी जगार, तीजा जगार, आठे जगार एवं बाली जगार में किए जाने वाले चित्रांकन के साथ-साथ अन्य संस्कारों में भी इसे अन्य रूप में जाना जाता है। बस्तर क्षेत्र के प्रख्यात लोक साहित्यकार श्री हरिहर वैष्णव जो मेरे सौभाग्य से मेरे बड़े पिताजी (ताऊजी) हैं, ने उक्त चारों लोक महाकाव्यों का ध्वन्यांकन कर उसे लिपिबद्ध किया तथा देश के प्रख्यात प्रकाशन संस्थानों द्वारा इसका प्रकाशन भी किया गया है। इन जगारों की लोक गायिकाएं (गुरूमाएं)  अधिकांशतः पढ़ी लिखी नहीं हैं, जिन्हें लाखों पंक्तियां कंठस्थ रहती हैं। यह तथ्य अपने-आप में अकल्पनीय एवं अविश्वसनीय लगता है किन्तु सत्य यही है कि इन लोकगायिकाओं को ऊपर बताई गयी पक्तियां याद रहती हैं। इन्हीं लोक गायिकाओं (गुरूमांओं) द्वारा गाए जाने वाले लोक महाकाव्य में लोक चित्र बनाने की परम्परा का प्रादुर्भाव देखने को मिलता है। जगार-आयोजन-स्थल पर बनाए जाने वाले चित्र जगार शैली के चित्रों के रूप में प्रचलित हुंए हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक होने वाले सभी संस्कारों में क्षेत्र की विभिन्न जनजातियों के द्वारा बनाए जाने वाले चित्रों को हम पृथक्-पृथक् श्रेणी में रखते हैं। जिसे स्थानीय भाषा में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। उदाहरण के तौर पर जमीन पर चावल और हल्दी के आटे से अंकित किए जाने वाले चित्रों को बाना/बाधा लिखना या फिर चउंक पूरना कहते हैं। कुछ अवसरों पर इसी आटे के घोल में हथेलियों को डुबाकर भित्ति अथवा मनुष्य या गोधन की पीठ पर बनाने वाले चिन्ह को हाता देना कहा जाता है। चावल के आटे के घोल में गिलास या कटोरी के ऊध्र्व भाग को डुबोकर इनका चिन्ह गोधन के शरीर पर दियारी नामक त्यौहार पर दिए जाने की परम्परा है। विवाह के समय  चावल एवं हल्दी के आटे से किए जाने वाले चित्रांकन को चउंक पूरना कहा जाता है जबकि मृत्यु-संस्कार के समय किया जाने वाला चित्रांकन मरनी बाधा कहलाता है। इन सभी को हम थल चित्रों के नाम से जानते हैं। इसी तरह देह पर बनाए जाने वाले गोदना को देह चित्र कह सकते हैं। पुरातन काल में पत्थरों पर उकेर कर बनाए जाने वाले चित्र को शैलचित्र की श्रेणी में रखा गया है। बस्तर अंचल की गोण्ड जनजाति की माड़िया उपजाति के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति की मृत्यु होने पर उनकी स्मृति में बनाया जाने वाला चित्र मृतक-स्मृति-स्तंभ (माड़िया खम्भा) कहलाता है। भित्ति (दीवार) पर  बनाया जाने वाला चित्र भित्ति चित्र कहलाता है। जगार शैली के चित्रांकन के लिए किसी विशेष जनजाति अथवा जाति का होना आवश्यक नहीं है’ किसी भी वर्ग की महिला अथवा पुरुष जगार गायकों, गुरुमांओं के निर्देशानुसार चित्रांकन किया जाता है। अब चूंकि स्थायीकरण की बात आती है तो जगार आयोजन.स्थल में प्रायः आयोजन के बाद घरों की लिपाई-पोताई के समय उन चित्रों की भी पुताई कर दी जाती है’ इसी तरह अन्य तीज-त्यौहरों या कार्यक्रमों में बनाए जाने वाले थल-चित्र भी अस्थाई होते हैं, जिसे कार्यक्रम के बाद मिटा दिया जाता है। गोंड जनजाति द्वारा बनाये जाने वाले मृतक-स्मृति-स्तंभ ही एक ऐसा स्थाई चित्रांकन है, जिसे उनकी (मृतक की) स्मृति में संरक्षित रखा जाता है। ठीक इसी तरह जगार शैली के लोक चित्रों को संरक्षित रखने के दृष्टिकोण से हमने इसे लुप्त होने से बचाने का प्रयास आरम्भ किया है। जिस तरह लोक साहित्यकार श्री हरिहर वैष्णव द्वारा अलिखित लोक महाकाव्यों को लिखित रूप में प्रकाशन दिलाने का एक प्रयास किया गया है, ठीक इसी तरह हम चंद लोकचित्रकार भी इस लोक चित्रकला को अन्य विधाओं के समकक्ष रखने का प्रयास कर रहे हैं।
इस विधा के बारे में आपने अब तक जो बताया वह वास्तव में आपके गहरे अध्ययन को दर्शाता है इसे राज्य स्तर या राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने का भी प्रयास आपने किया है। इस परंपरा को कैसे संरक्षित और सवंर्धित किया जा सकता है ? इस बारे में बताएं।
मेरे पापा श्री खेम वैष्णव, मैं और मेरी छोटी बहन रागिनी वैष्णव तथा मेरी फुफेरी बहन सरला यादव के अतिरिक्त श्री राजेंद्र राव एवं श्री सुरेंद्र कुलदीप ऐसे लोक चित्रकार हैं जो इस विधा को जीवित रखने की दिशा में प्रयासरत हैं। आज के इस आधुनिकता, अंधानुकरण और प्रतिद्वंद्विता के चलते संस्कारों को बचाना कठिन तो लगता है किंतु संकल्प से सिद्धि की प्राप्ति होती है। यह सत्य है। इसलिये इस वाक्य को ही दृढ़ता से हमें अमल में लाना अनिवार्य होगा तब जाकर इस विधा को संरक्षित किया जा सकता है। रही बात संवर्धन की, तो शासन के सहयोग के बिना इस दिशा में कुछ भी किया जाना असम्भव तो नहीं किन्तु कठिन अवश्य ही लगता है। 
आपके द्वारा बनाए गए लोकचित्रों का प्रदर्शन, प्रकाशन के साथ अब तक आपने कहां कहां चित्रांकन किया है ? अपनी उपलब्धियों के विषय में बताएं।
मेरे द्वारा बस्तर अंचल के ‘‘तीजा जगार ‘‘ व ‘‘लछमी-जगार‘‘ की कथाओं के चित्रांकन किये गये हैं। इसी तरह विभिन्न तीज-त्यौहारों, जनजीवन, मेला-मड़ई, देवी-देवताओं, जतरा आदि विषयों पर केन्द्रित लोकचित्रों की प्रदर्शनी संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन के कला वीथिका में हुई है। इसका शुभारंभ ललित कला अकादमीए नई दिल्ली के चेयरमेन डॉ. के. के. चक्रवर्ती द्वारा किया गया। मेरे लोकचित्र भिलाई इस्पात संयंत्र के नेहरू आर्ट गैलरी, भिलाई में भी प्रदर्शित हुए है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति विभाग पारम्परिक व्यजंन आस्वादन केन्द्र ‘‘गढ़कलेवा‘‘, स्वच्छ भारत मिशन अन्तर्गत ‘‘हमर-छत्तीसगढ़‘‘, एवं केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री श्री जे. पी. नड्डा के दिल्ली निवास में चित्रांकन किया गया। जवाहर नवोदय विद्यालय, कुरूद में ‘‘बस्तर आदिवासी पेटिंग कार्यशाला‘‘ में करीब 200 छात्र-छात्राओं को एक माह तक तक प्रशिक्षण दिया। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित बस्तर की भतरी बोली पर आधारित बाल लोककथा ‘‘बालमतिर भईंस‘‘ के लिए आवरण चित्र निर्माण, लोक महाकाव्य लछमी-जगार के लिए आवरण पृष्ठ तैयार किया गया, जिसका प्रकाशन साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा किया गया। पाठ्य पुस्तक निगम द्वारा प्रकाशित 5 अंको के लिए लोकचित्र पर आधारित आवरण पृष्ठ।  सांस्कृतिक स्त्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र नई दिल्ली के गुरू शिष्य परम्परा अन्तर्गत 3 वर्षों तक फेलोशिप प्राप्त। दक्षिण-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, नागपुर द्वारा गुरू-शिष्य-परम्परा अन्तर्गत गुरू/प्रशिक्षक के रूप 6 माह तक 4 चार शिष्यों को प्रशिक्षित किया। राज्य स्वास्थ्य संसाधन केन्द्र, रायपुर द्वारा प्रकाशित, 12 एवं राज्य संसाधन केन्द्र, रायपुर द्वारा प्रकाशित 8 पुस्तकों के आवरण-चित्र एवं भीतरी रेखांकन/चित्रांकन का कार्य किया।युनिसेफ के लिए 5 फिलिप चार्ट (चित्रांकन एवं रेखांकन) का निर्माण। स्वास्थ्य सेवायें,
छत्तीसगढ़ शासन के लिए संदर्शिका, पोस्टर निर्माण। 
आपके पारिवारिक माहौल के बारे में बताएं। आप एक घरेलू महिला होते हुए भी अपनी कला-साधना के लिए कैसे समय निकाल पाती हैं?
मेरा पारिवारिक माहौल आरम्भ से यानि मेरे दादा जी के समय से ही सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं पारंपरिक रहा है। इसकी वजह से महिला एवं पुरुष में कोई अंतर अथवा भेदभाव न करते हुए सभी को समान रूप से उनके कत्र्तव्यों एवं अधिकारों को निभाने में भरपूर सहयोग मिला है। यही कारण है कि मुझे भी इस क्षेत्र में पूरी स्वतंत्रता मिली सकी। यह कला मुझे पारंपरिक रूप से विरासत में प्राप्त हुई है। मैं चाहती हूं कि हर परिवार में, विशेषकर महिलाओं को, ऐसा माहौल मिले जिसके द्वारा कला, साहित्य एवं संस्कृति को, और विशेष रूप से लुप्तप्राय विधाओं को संरक्षित करने हेतु महिलाओं को भी इसकी पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। ऐसा होने पर ही समाज में हम अपनी परंपरा को रचनात्मक ढंग से भावी पीढ़ी तक हस्तांतरित कर सकते हैं। आज के अत्याधुनिक और यान्त्रिक युग में प्रत्येक व्यक्ति पैसे के पीछे भाग रहा है और अपनी विलासिता की वस्तुओं को संग्रहित करने में जुटा हुआ है। ऐसे कठिन समय में न केवल पुरुषों अपितु महिलाओं की भी सक्रिय भागीदारी अपने घरेलू दायित्वों को निभाते हुए कला एवं संस्कृति के विस्तार, संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में सुनिश्चित करनी चाहिए।
 लतिका वैष्‍णव से आप यहां उनके फेसबुक प्रोफाईल में मिल सकते हैं।

यशश्वी गीतकार संत की कृति मउँहा झरे

"26 जनवरी 2014 को राजपथ नई दिल्ली में आयोजित गणतंत्र दिवस के मुख्य समारोह में जब मउँहा झरे रे.. मउँहा झरे रे.. गीत की पंक्तियां गूंजी और इस छत्तीसगढ़ी लोकगीत पर जब असम के कलाकारों ने भाव नृत्य कर वहां उपस्थित हजारों दर्शकों की तालियां बटोरी तो नि:संदेह हर छत्तीसगढ़िया का सीना चौड़ा हो गया। लोगों के मन में जिज्ञासा थी कि इस गीत के रचनाकार कौन हैं?.. और जब लोगों को पता चला कि इस गीत के रचयिता संस्कारधानी राजनांदगांव के श्री हर्ष कुमार बिंदु है तो लोग चौंक उठे।" किताब के शुरुआती पन्नो में 'लोकगीतों का अविराम यात्री..' में इस किताब के सर्जक से हम सब का परिचय कराते हुए मउँहा झरे किताब के प्रेरक भाई वीरेंद्र बहादुर सिंह की कलम से ऐसा लिखा हुआ पढ़ा तो यकबक मुझे भी विश्वास नहीं हुआ। मैं अब तक इस गीत को पारंपरिक लोकगीत समझ रहा था और संग्रह मेरे हाथ मे होने के बावजूद शीर्षक को लोक प्रतीक के रूप में कवि के द्वारा उपयोग किया हुआ मान रहा था। हर्ष हुआ कि, हर्ष कुमार बिंदु जी की किताब मउँहा झरे मेरे हाथ में है। 
इस किताब में अपने परिवेश से पाठकों को परिचित कराते हुए अपने लेखकीय में स्वयं हर्ष कुमार बिंदु ने लिखा कि छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी राजनांदगांव कला, साहित्य और संगीत की त्रिवेणी है। वे उसी संस्कारधानी के निवासी हैं और उसी संस्कारधानी से यह किताब प्रकाशित हुई है। वे आगे लिखते हैं कि पारंपरिक देवी जस गीत का संस्कार इन्हें अपने पिता बंशीलाल गढ़वाल से प्राप्त हुआ। छत्तीसगढ़ी जस गीतों के वर्तमान स्वरूप और इसके विकास को भी इसमें इन्होंने चित्रित किया है। साथ ही अपनी रचना एवं संगीत यात्रा को भी इस में रेखांकित किया है। इन्होंने छत्तीसगढ़ी देवी जस गीत के प्रथम रचनाकार खैरागढ़ रियासत के राजा कमल नारायण सिंह को बताया है। 
बिंदु जी ने चंदैनी गोंदा, अनुराग धारा, स्वर धारा जैसे सुप्रसिद्ध कलामंचों के साथ भी काम किया है। इनके द्वारा लिखी गई माता पाताल भैरवी की आरती नित्यप्रति राजनांदगांव के पताल भैरवी मंदिर में गायी जाती है। इनके लिखे गीतों के कई कैसेट भी जारी हो चुके हैं। जिनमें मां पाताल भैरवी महिमा एवं नई माने काली कैसेट प्रमुख हैं। जिसे कविता वासनिक एवं लाली ठाकुर आदि ने स्वर दिया है। जस गीत के साथ ही इन्होंने छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोक गीतों का भी सृजन किया है जिसे ख्यात गायकों ने स्वर दिया स्वर दिया है। 
प्रस्तुत पुस्तक मउँहा झरे बिंदु जी की ऐसे ही रचनाओं का संकलन है। जो यत्र-तत्र बिखरी हुई थी किंतु प्रकाशित नहीं हुई थी। इन्हें संकलित कर प्रकाशित कराने के संबंध में उन्होंने सोचा भी नहीं था। बेहद संकोची एवं अल्पभाषी बिंदु जी ने इसके लिए सही मायनों में कोई प्रयास ही नहीं किया था। व्‍याख्‍याता एवं कलानाट्य धर्मी मुन्‍ना बाबू एवं सवेरा संकेत के वरिष्ठ सह-संपादक और लोक समीक्षक ठाकुर वीरेंद्र बहादुर सिंह की प्रेरणा से यह संकलन तैयार हो पाया। वीरेंद्र भाई और मुन्‍ना बाबू के उदीम से ही बिंदु जी के इन उत्कृष्ट गीतों से हमारा साक्षात्कार हो पाया। वीरेंद्र भाई ने इसी किताब में राजनांदगांव की सांस्कृतिक विरासत का उल्लेख करते हुए लिखा भी कि 'संस्कारधानी के रचना कर्म करने वाली साहित्य एवं संगीत की नई पीढ़ी हमेशा अपना बेहतर ही देने का प्रयास करती है।' ..और उन्होंने इस बेहतर रचना को बेहतरीन ढंग से हमे दिया।
डॉ पीसी लाल यादव ने इस किताब की भूमिका में अनेक उदाहरणों के साथ, इस कृति का समीक्षात्मक विवेचन किया है। डॉ यादव इस कृति की उपयोगिता को बहुत सरल शब्दों में स्पष्ट करते हुए लिखते है कि "मउँहा झरे लोक जीवन के ऐना ये, लोक परंपरा के गुरतुर बैना ये। ये मा जिंदगी के मरम, दया-धरम, करमइता के पोठ करम सबो के सुघरई  समाये हे।" और यह भी "मोला भरपूर विश्वास हे जेन गीत जन-जन के कंठ म बसे हे ओ गीत मन ल पाठक किताब के रूप म पढ़ के अउ आनंदित होही।"
इस संग्रह में 110 गीत संग्रहित हैं, जो लोक छंद में छत्तीसगढ़ी के सांस्कृतिक पहलुओं को उद्घाटित करते हैं। इसमें छत्तीसगढ़ी फिल्म बीए फस्ट ईयर ईयर के गीत- आ जाना तै मोला झन तरसा ना रे, सब झन कहिथें तोला कतको हे तोरे सही,  नइ माने रे मन गोरिया, मोरे मन के सजनी तै, सन सनासन सनन सनन पवन चले, खनके रे कंगना, बेरा पहाति अंगना मा मोरे, छम छम पैजन बाजे, आदि के साथ ही अन्य गीत संग्रहित हैं। जिनमें जस गीतों की संख्‍या ज्‍यादा है। छत्‍तीसगढ़ में जस गीत गायन की परम्‍परा बहुत पुरानी है। जस गीत गीतों में लोक में प्रचलित आराध्य के आख्यानों का संदर्भ होता है जो हमें रोमांचित करता है। इसी रोमांच को पकड़ते हुए बिन्‍दु जी लोक भाषा में लोक के मन की बात कहते हुए प्रेम गीत, करमा, व्यंग गीत, खेल गीत, काया खंडी भजन, सुवा गीत, पंथी गीत,  होली गीत और जस गीत तक अपनी लेखनी को विस्तार देते हैं। जो अभिजात्य के बंधनों को तोड़कर नाचने को विवश करते हैं। शायद इसीलिए इन लोक गीतों के साहित्यिक स्‍थापना पर अपनी टिप्पणी देते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ जीवन यदु ने लिखा कि "मेरा मानना है कि बिंदु जी का उद्देश्य साहित्य सृजन ना होकर लोग रंजन का सृजन करना है। लोकरंजन भी बहुमूल्य है इसे हमें बिसराना नहीं चाहिए।" हर्ष कुमार बिंदु ऐसे ही लोकरंजनी रचनाओं के लोकप्रिय रचनाकार हैं। जिनके अनेक गीत ऑडियो कैसेट के माध्यम से लोककंठ में तरंगित हैं। आप सब जानते हैं कि इस किताब के शीर्षक गीत 'मउँहा झरे' को तो व्यापक लोकप्रियता प्राप्त हुई है और यह गीत छत्तीसगढ़ के आंगन से देश विदेश में लोकप्रिय हो गया है। कवि को इससे बड़ा रिवार्ड और क्या चाहिए।

मउँहा झरे का विमोचन डॉ.रमन सिंह के द्वारा पिछले वर्ष किया गया था। इस किताब को बैगा ग्रुप राजनांदगांव नें प्रकाशित करवाया है। किताब का मूल्‍य 150 रू. है। इसकी प्रति के लिए आप श्री हर्ष कुमार बिन्‍दु मो. 9589039768, राजनांदगांव से संपर्क कर सकते हैं।
- संजीव तिवारी
#Mahuaa Jhare Re Mahuaa Jhare, #महुआ झरे रे महुआ झरे

कला तपस्‍वी की यात्रा का समग्र

छत्तीसगढ़ के ख्‍यातिलब्ध रंग निर्देशक राम ह्रदय तिवारी जी की रंग यात्रा का समग्र अभी हाल ही में, लोक रंगकर्मी दीपक चंद्राकर के द्वारा, राजेंद्र सोनबोईर के संपादन में प्रकाशित हुआ है। सात सर्गों में विभक्त इस ग्रंथ में राम ह्रदय तिवारी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व, साक्षात्कार, उनके आलेख, उनके नाटकों की समीक्षा, उनका आत्मथ्‍य व अन्य संग्रहणीय सामग्री संकलित है। इस ग्रंथ में राम ह्रदय तिवारी जी की सुदीर्ध कला यात्रा को विभिन्न विद्वानों ने अपनी-अपनी दृष्टि से प्रस्तुत किया है। जिनमें जयप्रकाश, डॉ. परदेशी राम वर्मा, महावीर अग्रवाल, राजकुमार सोनी, विनोद साव, सरला शर्मा, संतोष झांझी आदि प्रमुख हैं। इस सर्ग में 'एक दर्द भरा संगीत है घना जी का जीवन' शीर्षक से राजन शर्मा जी द्वारा लिखा गया आलेख महत्वपूर्ण है। राजन शर्मा जी न केवल राम ह्रदय तिवारी जी के संबंधी हैं बल्कि उनके सच्चे मित्र एवं मार्गदर्शक हैं। इसके साथ ही वे धर्म के वैश्विक क्षितिज में एक वरिष्ठ चिंतक और विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने अपने परिवार के साथ बालक राम ह्रदय तिवारी की इलाहाबाद तीर्थ यात्रा से अब तक के सफर का रोचक वर्णन किया है। सहज और सरल भाषा में गंभीर बात करते हुए वे राम ह्रदय तिवारी जी की भौतिक अस्तित्व के साथ ही उनके हृदय की गहराइयों तक यात्रा करते हैं, और उसे ज्यों का त्यों बिना लाग-लपेट प्रस्तुत करते हैं। इस पूरे सर्ग में यह एक अकेला आलेख रामह्रदय जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को जानने के लिए काफी है। इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि अन्य संग्रहित आलेखों की उपादेयता नहीं है। प्रत्येक आलेख उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं एवं उनके द्वारा निर्देशित व लिखित नाटक आलेखों का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है जैसे विनोद साव नें उनके बेरा नई हे को बहुत सुन्‍दर विश्‍लेषित किया है। कुछ आलेख रामह्रदय तिवारी जी के संबंध में पूर्व प्रकाशित जानकारियों का दोहराव नजर आता है। किंतु यह संपादक के विवेकाधिकार का मसला होने के कारण हम इस पर चर्चा नहीं करना चाहते।
राम ह्रदय तिवारी जी से लिए गए साक्षात्कार सर्ग में उनकी कला यात्रा का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है साक्षात्कारों में प्रकाशित विचार एवं तथ्‍य स्वयं उनके द्वारा बताए गए हैं इस कारण क्षेत्रीय नाट्य एवं नागरी लोकनाट्य के इतिहास का यह महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेज बन गया है। इस सर्ग में भी महावीर अग्रवाल, आसिफ इकबाल, चंद्रशेखर चकोर एवं आशीष ठाकुर आदि के द्वारा लिया गया साक्षात्कार उल्लेखनीय है। डॉ. श्रद्धा चंद्राकर के द्वारा रामह्रदय तिवारी जी के कला यात्रा के पथिकों से लिए गए साक्षात्कारों का पूरा एक सर्ग इस ग्रंथ में संग्रहित है। जिसमें उनके आपसी समझ और व्यक्तित्व का बहुत सुंदर विवरण प्राप्त होता है। तिवारी जी द्वारा लिखित आलेख व नाटकों का सर्ग, साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण खण्‍ड है। उनकी भाषा की शास्त्रीयता के पतवार के साथ गहरे ज्ञान के समुंदर में विचरण कराती उनकी लेखनी अद्भुत है। छत्तीसगढ़ी लोक के वे आधिकारिक विश्लेषक हैं, उन्होंने इस सर्ग में छत्तीसगढ़ के विभिन्न प्रदर्शनकारी लोक कलाओं एवं कलाकारों का प्रामाणिक व सुंदर विश्लेषण किया है। पांचवें सर्ग में रामहृदय तिवारी जी द्वारा निर्देशित विभिन्न नाटकों, लोकनाट्यों एवं फिल्मों की समीक्षा संग्रहित है। क्षितिज रंग शिविर दुर्ग से आरंभ उनकी कला यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर चर्चा करते हुए समीक्षकों ने उनकी कालजई प्रदर्शनों को रेखांकित किया है। जिसमें अंधेरे के उस पार, भूख के सौदागर, भविष्य, अश्वस्थामा, झड़ी राम सर्वहारा, मुर्गी वाला, घर कहां है, हम क्यों नहीं गाते, अरण्य गाथा से लेकर टेली फिल्म कसक, संवरी, फीचर फिल्म गम्मतिहा, लोकनाट्य लोरिक चंदा, कारी, मैं छत्तीसगढ़ महतारी हूं से शहंशाह सन्यासी विवेकानंद तक समाहित हैं। इस ग्रंथ में इन प्रदर्शनों के कई दुर्लभ चित्र भी संग्रहित हैं।
व्यक्तिगत रूप से मैं, इस ग्रंथ के अधिकांश आलेखों को पूर्व में ही कई-कई बार पढ़ चुका हूं। तो मेरे पास उपलब्ध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, किताबों में संग्रहित हैं, किंतु इन सब को एक ही जगह संकलित कर प्रकाशित करने का यह पुनीत कार्य संपादक एवं प्रकाशक ने किया है वह सराहनीय है। मेरी समझ में, इतनी विस्तृत जानकारियों से परिपूर्ण यह ग्रंथ राम ह्रदय तिवारी जी के संपूर्ण कला यात्रा को जानने समझने का आरंभिक ट्रेलर है। इससे छत्तीसगढ़ के नाट्य को समझने, छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य को बूझने और छत्तीसगढ़ पर गर्व करने के सभी तत्व मौजूद हैं। रामह्रदय तिवारी जी छत्तीसगढ़ के ऐसे बहुआयामी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति हैं जिन पर अभी हजारों अध्याय लिखा जाना शेष है। उनके कलागत ज्ञान एवं छत्तीसगढ़ी प्रदर्शनकारी लोक कलाओं की दृष्टि पर कई शोध होना शेष है। यह ग्रंथ रंगकर्मियों, लोक कलाकारों, अध्येताओं, शोधार्थियों एवं छत्तीसगढ़ी अस्मिता बोध के प्रति सजग पाठकों के लिए पठनीय एवं संग्रहणीय है। इस किताब में लगभग साढ़े सात सौ पृष्ठ हैं जो चिकने रंगीन पेपर से सुसज्ज है। हार्ड बउंड इस किताब की कीमत 500 रूपया है, जिसे आप श्री दीपक चंद्राकर जी मो. नं. 8839500485 या श्री रामह्रदय तिवारी जी 9685366570 से बात कर प्राप्त कर सकते हैं। मैंनें इस किताब की दो प्रतियां रू. 1000 में ली थी जिसमें से एक श्रद्धेय खुमान लाल साव जी को दिया हूं और एक मेरे संग्रह में है। इसे मुझसे पढ़ने के लिए मांगने के बजाय आप क्रय कर लें यह मेरे लिए उपयुक्‍त होगा।
 -संजीव तिवारी

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गौरा : घुमडते मादर के बीच गीतों की रिमझिम

अपने ही कल्‍याण का बाट जोहता सन् 1938 का बाल कल्याण केंद्र

लिखित इतिहास को मिटाने उसे दबाने-छुपाने के कई उदाहरण आप लोगों ने देखा होगा, किन्‍तु यहां छत्‍तीसगढ़ के जिला मुख्‍यालय दुर्ग में एक बड़े भवन को, छुपा लिया गया था। अवैध कब्जाधारियों की स्वार्थपरक लोलुपता ने इसे ढांप लिया था, लोगों का कहना है कि कई बार कब्जा हटाया गया, व्यवस्थापन में कब्जेदार दूसरे स्थानों में दुकान पे दुकान आबंटित कराते गए पर कुछ दिन बाद ये भी मेरा वो भी मेरा कहते हुए फिर उसी स्थान पर कब्जा जमा लिए। तथाकथित रूप से भूमंडलीकरण का सुन्‍दर उदाहरण प्रस्‍तुत करते हुए इनकी पीढ़ियां एक-एक करोड़ शादी में लुटाती रहीं फिर भी ये गरीब लाचार बने राजनैतिक सहानुभूति पाते रहे। अबकी बार भोज राम ने इनके इरादों पर पानी फेर दिया। पहले हाथ जोड़ा, नहीं माने तो तोड़ दिया।
नई पीढ़ी इस एतिहासिक भवन से अनजान थी। इंदिरा मार्केट के सूर्या जूस पार्लर के आस-पास कब्जा हटने के बाद से अनावृत हुए इस भवन में लगे पट्टिका से ज्ञात हुआ कि 11 जून, सन 1938 को छत्तीसगढ़ डिवीजन के कमिश्नर की पत्नी श्रीमती जी.सी.एफ. रेम्सडॅन के द्वारा बाल कल्याण केंद्र के रूप में इस भवन को जनता को समर्पित किया था। सियान लोग बताते हैं कि यह क्षेत्र दुर्ग के रेलवे स्टेशन जाने वाले काफी चौड़े मुख्य नगर मार्ग के किनारे स्थित था। उस समय यहां अंग्रेजी सरकार के कर्मचारियों के कुछ आवास भी थे। इसके पीछे काफी बड़ा खुला स्थान था, उसके बाद दुर्ग की बसाहट थी। दिल्ली दरवाजा या एडवर्ड मेमोरियल हाल या हिंदी भवन से यह भवन एक पहुंच मार्ग से सीधे संपर्क में था, जो दुर्ग की बसाहट की ओर जाता था। 
बहुत-बहुत धन्यवाद दुर्ग जिला प्रशासन और नव पदस्थ सीएसपी (ट्रेनी आई पी एस) भोज राज पटेल का, जिनके प्रयासों से, दुर्ग के हृदयस्थल में, बरसों से कब्जा जमाए अतिक्रमणकारियों को हटाया गया और दुर्ग के इस एतिहासिक भवन को हम-आप देख सके। 


घनश्याम सिंह गुप्त के बहाने

घनश्याम सिंह गुप्त के अवदानों का अध्ययन करते हुए हम तत्कालीन परिस्थितियों में वर्चस्ववादी राजनेताओं की राजनैतिक चालों से भी परिचित होते रहे। जिसमें पंडित रविशंकर शुक्ल और पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र जैसे सिद्धस्त राजनीतिज्ञों के बीच सामंजस्य बिठाते हुए वे अपनी विद्वता व प्रतिभा के बल पर दायित्वों का निर्वहन कैसे करते रहे होंगे? घनश्याम सिंह गुप्त के लिए तदकालीन परिस्थितियां कितनी कठिन रही होगी ? यह हम उस समय के खाँटी राजनीतिज्ञों के द्वारा लोगों को हाशिये में ले जाने के जुबत के उदाहरणों से समझ सकते हैं। इसी तुष्‍टीकरण के चलते घनश्याम सिंह गुप्ता और ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर के नाम का प्रस्ताव मुख्यमंत्री के लिए बार-बार प्रस्तावित हुआ किंतु उन्हें हमेशा द्वितीयक पद प्रदान किया गया।

उस समय के बड़े नेताओं में पं. रविशंकर शुक्ल की राजनैतिक कुशलता के बहुत से सुनी-सुनाई किस्से हैं। तथाकथित रूप से वे या उनके सिपहसालार रायपुर में अपने सामने परवाज भरने वालों का पर कतरने का यथासंभव प्रयत्न करते रहते थे। यह राजनीति का तकाजा था या सिद्धांत, यह हमें नहीं पता किंतु, ठाकुर प्यारेलाल सिंह सहित कांग्रेस के प्रतिद्वंदी प्रजा सोसलिस्ट पार्टी के अनेक व्यक्ति उनके दांव से पीड़ित रहे, जिसे आप भली-भांति जानते ही हैं।



ऐसा ही एक वाकया रायपुर के कमल नारायण शर्मा का है। कमल नारायण वही व्यक्ति थे जिन्होंने सन 1963 के उपचुनाव में कसडोल से मध्य प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री डी. पी. मिश्र को पटखनी दिया था। पटखनी ऐसा कि सन 1963 के उप चुनाव में कमल नारायण शर्मा हार गए थे, किंतु उनकी शिकायत पर इलेक्शन ट्रिब्यूनल ने डी. पी. मिश्र को, चुनाव में गलत ढंग से मतदाताओं को प्रभावित करने का दोषी पाया और उन्हें 6 साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दिया था। यह फैसला ऐसे समय मे सन 1968 में आया जब कांग्रेस के 36 विधायकों को फोड़कर विजयराजे सिंधिया द्वारा बनाये संविद सरकार 19 माह बाद असफल हो गई थी।  अब डी. पी. मिश्र फिर मुख्यमंत्री बनने वाले थे, इस फैसले के बाद वे हाशिये में चले गए।  कांग्रेस के गाल पर पड़ा यह तमाचा सालों तक सालता रहा।

सन 1956 दिनांक 13 मई को राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद भिलाई आने वाले थे। इसी तिथि में कमल नारायण शर्मा ने ब्राह्मण पारा चौक में गांधी जी की प्रतिमा स्थापित कर उस का अनावरण डॉ. राजेंद्र प्रसाद से करवाने की स्वीकृति राष्ट्रपति भवन से प्राप्त कर ली थी। कमल नारायण को शुक्ल जी के प्रतिद्वंदियों में गिना जाता था, पं. रविशंकर शुक्ला मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। वे नहीं चाहते थे कि कमल नारायण शर्मा इसका श्रेय ले। इस कारण स्थानीय शासन ने राष्ट्रपति के प्रोटोकॉल में इस कार्यक्रम को शामिल नहीं किया। राष्ट्रपति रायपुर से सीधे भिलाई चले गए। दिन में भिलाई इस्पात संयंत्र के धमन भट्टी का उद्घाटन करने के बाद रात वे अपने दामाद, जो तत्कालीन BSP के महाप्रबंधक थे उनके घर 32 बंगला में रुके। (भिलाई में डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद) यहां रायपुर में राष्ट्रपति जी के नहीं रुकने पर  कमल नारायण शर्मा ने गांधी जी की प्रतिमा का अनावरण नियत तिथि को एक हरिजन कन्या से बड़े धूमधाम से करवा दिया। दूसरे दिन राष्ट्रपति के वापसी के समय उनके स्वागत के लिए भीड़ ब्राह्मण पारा में जमा हो गई। पं. रविशंकर सोच रहे थे कि बला टल गई है, अब मात्र स्वागत के लिए यह भीड़ है। राष्ट्रपति का काफिला वहां रुका, कमल नारायण शर्मा और अन्य लोगों ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद को याद दिलाया कि आपने गांधी जी की प्रतिमा के अनावरण की स्वीकृति दी थी, कल आप नहीं रुके। हमने हरिजन कन्या से अनावरण करवाया। डॉ. प्रसाद के निजी सचिव ने भी इसे सही बताया। डॉ. प्रसाद, पं. रविशंकर की राजनीति को समझ गए। उन्होंने वही पं. रविशंकर से इसके लिए नाराजगी व्यक्त की और उस मूर्ति तक गए और फूल माला चढ़ाई।



हम यह छेपक कथा यही छोड़कर मूल कथा की ओर चलते हैं। हमने पहले ही बताया कि कांग्रेस ने घनश्याम सिंह गुप्ता को सदैव द्वितीयक पद से संतुष्ट रहने के लिए बाध्य किया। बाद में कांग्रेस के मुख्यमंत्री डी. पी. मिश्र द्वारा घनश्याम सिंह गुप्ता के अनुरोध के बावजूद उनके पुत्र धर्मपाल गुप्ता के साथ भी यही किया गया। जब वे मंत्री पद के दावेदार थे तो उन्हें सचेतक के पद से ही संतुष्ट होना पड़ा। इसके पीछे की राजनीति में कांग्रेस के चाणक्य कहे जाने वाले दाऊ वासुदेव चंद्राकर का नाम लिया जाता है। लोगों का कहना है कि यह एक किस्म से वर्चस्ववादी बदला था। कथा है कि सन 1930 में जब घनश्याम सिंह गुप्ता अन्य नेताओं के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में जेल गए फिर छूटे। तब दुर्ग में रैली निकाल कर उनका भव्य स्वागत किया गया। रैली के लिए आमदी के मालगुजार और अंग्रेजी शासन के आनरेरी मजिस्ट्रेट दाऊ माधो चंद्राकर का हाथी मांगा गया। जिसमें चढ़कर अंग्रेजो को चिढ़ाया गया।
'मोर हाथी मां चढ़ के शान बघारत हे!' दुर्ग रेल्वे स्टेशन के सामने अपने द्वारा बनवाये जा रहे आमदी धर्मशाला की छत पर चढ़कर ऐसा ही कुछ मुस्‍कुराते हुए बुदबुदाया था, दाऊ माधो चंद्राकर नें। आनरेरी मजिस्ट्रेट दाऊ माधो चंद्राकर के यशस्वी पीढ़ी के राजनीति के महारथी, किंगमेकर दाऊ वासुदेव चंद्राकर ने समय आने पर सत्‍ता की उंचाई वाले गुप्‍ता परिवार के वर्चस्‍व वाले हाथी से उतार दिया, धर्मपाल के लिए भोपाल में गोटी खेल दिया। डी. पी. मिश्र ने घनश्याम सिंह गुप्ता की लंबी मित्रता और निजी संबंधों को धता बताते हुए उनके पुत्र को तवज्जो नहीं दिया।

संयमी, सिद्धांतवादी और मितभाषी दाऊ घनश्याम सिंह गुप्ता का संयम यहीं से टूटा। पुत्रमोह में उन्होंने कांग्रेस के इस तुष्टिकरण की राजनीति के विरोध में पहली बार हल्ला बोला। भाजपा (जनसंघ) में शामिल होने की सार्वजनिक घोषणा की किंतु यह बूढ़े शेर की दहाड़ थी, जिसके पास सत्ता की सांसें सीमित थी। क्रमशः
-संजीव तिवारी
(विधान पुरुष : घनश्याम सिंह गुप्ता की कड़ी)

भाजपा (जनसंघ) में शामिल होने की घोषणा के संबंध में अधिक्‍ता श्री अशोक अग्रवाल का कहना है कि उन्‍होंनें ऐसी कोई सार्वजनिक घोषणा नहीं की थी। हालांकि जीवन के अंतिम दिनों में वे वृद्धावस्‍था के चलते मानसिक विभ्रम में थे किन्‍तु वे अपने जीवन के अंत तक कट्टर कांग्रेसी बने रहे। 

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