छत्तीसगढ़ी नाचा के दधीचि दुलारसिंह साव मदराजी

देवासुर संग्राम में देवों के विजय के लिए दधीचि ने हड्डीयों का दान दिया था । वैसे ही छत्तीसगढ़ी लोकमंच की अंत्यन्त लोकप्रिय विधा नाचा के लिए दुलारसिंह साव मदराजी ने भी इसी परंपरा में अपना सर्वस्व होम कर दिया था । लोकमंच के संवर्धनकर्त्ता दाऊओं में दुलारसिंह साव मदराजी ही अकेले उदाहरण हैं जो सौ एकड़ जमीन के मालिक के रूप में मंच पर आये और चालीस वर्ष मंच पर रोशनी बिखरने के बाद जब इस लोक से विदा हुए तो - सिंकदर जब गया दुनियां से दोनों हाथ खाली थे ।

मदराजी दाऊ सर्वस्व अर्पित करने वाले महान भक्तों की परंपरा के छत्तीसगढ़ी कलाकार थे । वे ही सबसे पहले हारमोनियम लेकर छत्तीसगढ़ी लोकमंच पर अवतरित हुए । वे स्वयं विलक्षण हारमोनियम वादक थे । जीवन की संध्या में जब बारी बारी सब साथ छोड़ गये तब भी उनके पास हारमोनियम रह गया । जमीन-जायदाद सब लुट गए रह गया हारमोनियम । उस्ताद वादक कलाकार मदराजी दाऊ अंतिम दिनों में छोटे छोटे नाचा दलों में हारमोनियम बजाते थे । वह भी अनुरोध के साथ । बुलवाराम, ठाकुरराम, बोड़रा जैसे महान नाचा कलाकारों को एक जगह रिंगनी रवेली साज के मंच पर एकत्र कर मदराजी दाऊ ने नाचा का वो रिंगनी रवेली साज खड़ा किया कि छत्तीसगढ़ दीवाना हो गया । ‘तोला जोगी जानेंव रे भाई तोला साधू जानेंवगा ..... राजा लंकापति रावन ला मंय साधू जानेंव ‘ यह अमर गीत उन्हीं के मंच पर गूंजा । बुलवा राम यादव परी बनकर जब यह गीत गाते थे तब सीता पर आई विपत्ती का चित्र शब्द और ध्वनि से कुछ इस तरह मंच पर खिंच जाता था कि स्त्रियां विलाप कर उठतीं ।

बुलवाराम ने यही गीत बाद में विश्व के कई देशों में जाकर गाया और भरपूर मान प्राप्त किया । बुलवाराम को राज्य शासन ने २००४ में मंदराजी सम्मान दिया ।

मदराजी दाऊ वचन के पक्के थे । एक अवसर पर वे नाचा प्रस्तुति के लिए नारियल झोंक कर वचन दे बैठे । बच्चा बीमार था । ठीक प्रस्तुति के लिए निर्धारित दिन बच्चा चल बसा । बच्चे की लाश को घर में छोड़कर वे उस गांव तक गए जहाँ प्रस्तुति देनी थी । रात भर हारमोनियम बजाने के बाद वे सुबह रोते हुए घर आये । तब लोगों ने जाना की विरागी राजा जनक ही नहीं थे हमारे लोकमंच के पुरोधा भी वीत रागी हैं ।

इस विलक्षण कलाकार की स्मृति में छत्तीसगढ़ शासन ने दो लाख का पुरस्कार घोषित कर सही निर्णय लिया । जो कला के लिए सब कुछ लुटाकर फकीर हो गए उनके नाम पर ईनाम से मालामाल होकर प्रतिवर्ष एक कलाकार दो लाख धारी बनता है । जीवन भर वे मंच पर थिरकते कलाकारों के हित के लिए छायादार वृक्ष की तरह तने रहे जाने के बाद भी उनका परोपकारी स्वरूप विस्तारित होता जा रहा है ।

हम साया पेड़ जमाने के काम आये,
जब सूख गए तो जलाने के काम आये ।

मदराजी दाऊ का रिंगनी रवेलीसाज १९२८ में खड़ा हुआ । १९५३ तक वह चला । हारमोनियम के साथ मदराजी दाऊ चिकारा, तबला वादक एवं गायन में भी सिद्ध थे । मशाल नाच में वे चिकारा बजाते रहे । चिकारा बजाने वाले हाथों ने ही हारमोनियम को साधा और नाचा का नई ऊँचाई मिली ।

१९११ में ग्राम रवेली जिला राजनांदगांव में जन्में दाऊ मदराजी का निधन २४ दिसंबर १९८४ में हुआ । उनकी परंपरा को चंदैनी गोंदा के माध्यम से आज तक श्री खुमान साव सींच रहे हैं ।

डॉ. परदेशीराम वर्म

द्विअर्थी साखियां व अन्‍य साखियां

द्विअर्थी साखियां - नाचा में यदा-कदा द्विअर्थी साखी का प्रयोग किया जाता है। सुनने में अश्लील लगते हैं किंतु भवार्थ स्पष्ट  करने पर अश्लीलता की परिधि से बाहर जाते हैं। नाचा में इस तरह की साखियां पहले कही जाती थी किंतु अब इसका प्रयोग नहीं किया जाता, अश्लीलता अशिष्टता से बचने के लिए। एक तो वैसे भी अभिजात्‍य वर्ग नाचा नाचा कलाकारों को अशिष्ट  कहता और हेय दृष्टि  से देखता है। आज पाश्चात्‍य प्रभावों से ग्रसित अभिजात्‍य शिष्ट  समाज की अशिष्टता अश्लीलता ही उसकी शिष्टता है। ब्‍लू फिल्म देखने के आदि शिष्ट  समाज को नाचा में अश्लीलता नजर आती है पर ब्‍लू फिल्मों में नहीं। कुछ द्विअर्थी साखियां-

छाती से छाती मिले, मिले पेट से पेट।
दूनों में रगड़सड़ होय, निकले सफेद-सफेद।।

उपरोक्त साखी में स्थूलत: एकाकार स्‍त्री- पुरुष की संभोग क्रिया का अर्थ आशातीत होता है। जबकि सूक्ष्मत: इसका भावार्थ चक्‍की से हैं। चक्‍की के दो पाट होते हैं दोनों में रगड़ होने पर आटा निकलता है।

मोर लम्भा तोर चेपटी, दूनों के एके रंग।
एक ऊपर एक खाल्हे, नई छूटे दूनों के संग।।

इस साखी में भी साधार: स्‍त्री-पुरूष के गुप्तांगों का अर्थ ध्‍वनित होता है, पर असाधार बात यह है कि इसमें कवेलू का र्व है। कवेलू दो तरह के होते हैं- एक लंबा (अर्द्धगोलाकार) दूसरा चपटा दोनों का रंग लाल होता है। चपटा कवेलू नीचे लंबा कवेलू ऊपर होता है। इस तरह ये दोनों साथ होते हैं।

तरी पेंदा ऊपर सीसा, मारे बीता-बीता।
मार मुरा के तैं संगी, पढ़ले रमायन गीता।।

प्रस्तुत साखी सुनने में अटपटा और अश्लील लगती है। किंतु यह पेट्रोमेक्‍स (गैस बत्‍ती) का भावार्थ लिए हुए हैं।
न्‍य साखियां - नाचा में और भी कई प्रकार की साखियां कही जाती है। जो वर्तमान संदर्भों में मानवीय क्रियाओं, मानवीय आवश्यकताओं से संबंधित है। लोक जो देखता है, सुनता है और अनुभव करता है वह ही उसकी साखी के विषय बनते हैं, इसलिए नाचा की साखी परंपरा में विविधता है-

देह तोर तिपे हे, तोला जर धरे हे का जी?
बोकोर-बोकोर देखथस मोला, खा देबे तैं का जी?

उपरोक्त साखी में बिल्ली गर्म रोटी को देखकर कहती है- तुम्हें बुखार है क्‍या? तब रोटी प्रतिप्रश्न करती है- तुम मुझे खा डालेगी क्‍या?

दूर देस तोर मईके, गांव-गांव ससुरार।
अलिन-गलिन गोसइंया, तोररोर लगवार।।

यह साखी बिजली से संबंधित है। बिजली जहां पैदा होती है वह उसका मायका (मैहर) है। गांव-गांव उनकी ससुराल है। गलियों- सड़कों के बिजली खंभे उसके स्वामी (पति) हैं। और प्रत्‍ये में उसके चाहरे वाले प्रेमी है।

मट मट करथस मटमटही, तोर माथ हीरा ठोकाय।
आखा-बाखा छोडके तैं, पूछी संख बजाय।

इस साखी में हवाई जहाज का चित्रण है। रात में जलने वाली त्‍ती उसके माथे का हीरा है। हवाई जहाज की आवाज पीछे सुनाई देती है। वहीं शंख ध्‍वनि।

डोकरा भागे लड़भड़ लईया,मोटियारी दमदमाय।
लईका भागे तुरतुर तुरतुर, पेटभरी तनियाय।।

लोक कलाकारों ने इस साखी में खाली ट्रक, मोटर, बस, जीपकार व भरी हुई ट्रक की गति की क्रमश: बूढे,जवान, लड़की, च्‍चों गर्भवती स्‍त्री के चलने की गति से तुलना की है। नाचा में साखी के माध्‍य से जोक्कड़ हास-परिहास त्‍पन्न कर दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। मनोरंजन का यह माध्‍य लोक की आभा को द्विगुणित करता है। शिष्ट  वर्ग भले ही अश्लील बातों को मनोरंजन का जरिया बनाये लेकिन लोक के पास तो मनोरंजन के अनेकों माध्‍य है। उसकी व्यापक पैनी दृष्टि  लोक के क्रिया व्यापारों में ही उसके लिए मनोरंजन और ज्ञानार्जन की सामग्री चुन लेती है। गम्मत प्रारंभ होने के पूर्व नाचा में साखी की परंपरा नाचा को उद्देश्य परक और लोकरंजक बनाती है। साखी परंपरा नाचा की अपनी नीजता है। उसका अपना वैशिष्‍ट्य है। इसके मूल में लोक का र्दीर्धकालीन अनुभव और अभिव्यक्ति का सुंदर समन्‍वय है।

डॉ. पीसीलाल यादव
संपर्क: 'साहित्‍य कुटीर`
गंडई पंडरिया जिला- राजनांदगांव (..)

कृषि संबंधी साखियां व पशु-पक्षी, प्रकृति संबंधी साखियां


कृषि संबंधी साखियां - गांव के लोगों का प्रमुख कार्य कृषि ही है, नाचा के कलाकार भी स्वत: कृषक और मजदूर होते हैं। तब भला अपने कृषि कर्म में काम आने वाली वस्तुओं को वे कैसे भूल सकते हैं? कृषक जीवन की दिनचर्या और कृषि कर्म भी साखी और पहेली की विषय सामग्री बनते हैं-

आगू डाहर सुल्लु, पाछू डाहर चकराय।
आंही-बांही गोल गोल, बीच म ठड़ियाय।।

इस साखी में बैलगाड़ी का चित्रण है, जिसका सामने भाग नुकीला और पिछला भाग चौडा होता है। आजू-बाजू गोल-गोल दो चक्‍के होते हैं। बीच में लोहे की पोटिया लगी होती है।

टरर-टरर करथस टरटरहा, तोर घेंच म बांधव घांटी।
बीच पेट ल बेध के तोर, पाछू म छाबंव माटी।।

गांवों में सिंचाई का समुचित साधन नहीं होने के कारण ग्रामीण जन कुएं में टे़डा लगाकर पानी टे़डते हैं और सिंचाई करते हैं। उपरोक्त साखी में टे़डा को पहेली के रूप में पूछा गया है।

शु-पक्षी, प्रकृति संबंधी साखियां - लोक मानस प्रकृति का पुजारी है, प्रकृति ही उसका सर्वस्व है। इसलिए वह प्रकृति से तादात्य्यां बनाकर चलता है। प्रकृति से कटना जैसे जीवन से कटना है। प्रकृति ही लोक के लिए ऊर्जा का स्रोत है और उसका जीवन भी। जंगल, जल और जमीन, लोक के प्राण तीन। प्रकृति पुत्र नाचा का कलाकार भला प्रकृति का अनादर कैसे कर सकता है? उसके रोम-रोम और सांस-सांस में प्रकृति के प्रति अनन्यन प्रेम है इसलिए लोक कलाकार प्रकृति का प्रेमी होता है। प्रकृति भी उसकी कला की अभिव्यक्ति में मुखरित होती है। नाचा की साखियां प्रकृति के विविध रंगों से रंगी हुई है-

एक सींग के बोकरा, मेरेर-मेरेर नरियाय जी।
मुंह डाहर ले चारा चरे, बाखा डाहर ले पगुराय जी।।

विचित्र बात यह कि बकरे का एक ही सींग है। वह में-में बोलता है। मुंह से चारा चरता है किंतु जुगाली बाजू से करता है। लोक में ऐसी सादृश्यता चय्की में मिलती है।

तीन गोड धरनी धरे, एक गोड अगास।
बिन बादर के बरसा, पंडित करो विचार।।

लोक कलाकार अपने आसपास परिवेश की हर घटनाओं को देखता परखता है। तब भला कुत्ता जो एक टांग उठाकर पेशाब करता है। वह कैसे बच सकता है? उसकी नजरों से। उपरोक्त साखी में कहा गया है कि तीन पैर धरती पर। एक पैर ऊपर आकाश की ओर और बिना बादल के बरसात हो रही है, इस पर ज्ञानीजन विचार करें।

बिन पांव के अहिरा भईया, बिना सींग के गाय।
अइसन अचरज देखेन हम, खारन खार कुदाय।।

इस साखी में मेंढक को बिना सींग की गाय और सर्प को बिना पैर का ग्वाबला चित्रित किया गया है। मेंढक को खाने के लिए सर्प दौडाता है। तब गाय के पीछे दौडते ग्वा ले की ही स्थिति निर्मित होती है।

चार गोड के चप्पोल, ओखर ऊपर निप्पोऔ।
आइस भाई गप्पो , तहां धर के लेगे निप्पोप।।

चार गोड के चप्पेप अर्थात डबरे में बैठी भैंस। निप्पो अर्थात भैंस पर बैठा मेंढक व गप्पो यानी चील, चील मेंढक को चोंच में दबाकर भाग जाता है।

दस चरन दस नेत्र है, पांच मु़ड जीव चार।
पनिहारिन के दोहरा, पंडित करो विचार।।

दस पैर हैं, दस आंखें हैं व पांच सिर है, किंतु जीव अर्थात जीवित चार ही हैं। पनिहारिन की तरह ऊपर दोहरा है। अजी यह क्याआ है? विद्वान जन इस पर विचार कर बतायें। इस साखी का अर्थ तो अर्थी है। जिसमें शव को चार लोग कंधा देकर ले जाते हैं।

लाल गोला गोल चेपटी, सिंह धर बाघ खाय।
हाथी संग करे लड़ाई, अऊ कउंवा ल डर्राय।।

आकार गोल चपटा, रंग लाल है। सिंह, बाघ से डरता नहीं, हाथी से भी लड़ लेता है किंतु कौए से डरता है। वह जीव तो किलनी (जानवरों का खून चूसने वाला) है।

क्रमश: ....


डॉ. पीसीलाल यादव
संपर्क: 'साहित्य कुटीर`
गंडई पंडरिया जिला- राजनांदगांव (छ.ग.)

मानवीय संबंध संबंधी साखियां

संबंधों की प्रगाढ़ता मानव जीवन का माधुर्य है। जहां मानवीय संबंधों में मिठास होगा, वही परिवार समुन्नत और संपन्‍न होगा। नागर जीवन में लोग संयुक्त परिवार से कट रहे हैं, और एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पर गांवों में हमें आज भी संयुक्त परिवार देखने को मिलते हैं। परस्पर प्रेम, अनुशासन, साहचर्य, सहयोग और समरसता संयुक्त परिवार मानवीय संबंधों के रक्षा कवच हैं। लोक जीवन की यह विशेषता नाचा की साखी परंपरा से पृथक नहीं है। एक बानगी-

एक बाप के बारा बेटा, छै झन बहू बिहाय।
एक लुगरा पहिरा के ओला, खारन खार कुदाय।

इसका त्‍त है बैलगाड़ी का चक्‍का जिसमें बारह आरे, :पुठा और एक बांठ होता है स्थूल रूप में इसमें संयुक्त परिवार का दृष्य प्रतिबिंबित होता है।

आगू-आगू तैं रेंगस, पाछू तोर भाई।
मुंडा तोर ददा, दांत निपोरे तोर दाई।।

प्रस्तुत साखी कपास पर केंद्रित है जिसका फल गोल और चिकना होता है और पककर फटने पर उसमें कपास मुस्कुराते हुए व्यक्ति के दांत की तरह झांकता है।

एक माई के दू पीला, दूनो के एके रंग जी।
एक दउंडे एक बईठे, तभो नई छूटे संग जी।।

एक मां के दो च्‍चे हैं दोनों का रंग एक जैसा ही है,एक दौडता रहता है, दूसरा बैठा रहता है। फिर भी दोनों का साथ नहीं छूटता। दोनों का अनन्‍य प्रेम है। एकबारगी इस साखी का अर्थ नहीं लगाया जा सकता, लेकिन मानसिक व्यायाम से इसका सरलार्थ सामने जाता है वह है- चक्‍की- लोककलाकार अपने आसपास की वस्तुओं को भी कितनी सहजता सरलता से मानवीय संबंधों का जामा पहनकर साहित्‍य रच लेता है। नाचा के कलाकार तो होते ही है, व्युत्‍पन्‍न मति और हास्य के जनक।

क्रमश: ....

डॉ. पीसीलाल यादव
संपर्क: 'साहित्य कुटीर`
गंडई पंडरिया जिला- राजनांदगांव (छ.ग.)

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