आरंभ Aarambha सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

जुलाई, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सुकुवा - पहाती के

शनिवार 01 जुलाई 2017 को नेहरू सांस्कृतिक केन्द्र, भिलाई, सेक्टर-1 में भिलाई के कलाप्रेमी दर्शकों के अलावा छत्तीसगढ़ प्रदेशभर के लोककलाकारों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और जनप्रतिनिधियों की विपुल उपस्थिति में ’कला परंपरा’ संस्था द्वारा दुर्गा प्रसाद पारकर लिखित गीतनाट्य ’सुकुवा - पहाती के’ का मंचन किया गया। ’महिला सशक्तिकरण’ और ’नारी अस्मिता’ जैसे मुद्दों को नाटक के मूल उद्देश्य के रूप में प्रचारित किया गया था लेकिन कथानक में शासन की विभिन्न योजनाओं के प्रचार-प्रसार की सघन उपस्थिति ने इस उद्देश्य को धक्का मार-मारकर मंचच्युत् कर दिया। लोक परंपरा में शासन की चापलूसी और स्तुतिगान कभी भी, कहीं भी नहीं है। लोक परंपरा में लोक-प्रतिरोध के स्वर मिलते हैं, जिसे इस गीतनाट्य में नकारा गया है। पूर्व प्रतिष्ठित लोककलामंचों की ही शैली में प्रस्तुत इस गीतनाट्य में नवीन कुछ भी नहीं है अपितु एकाधिक बार छत्तीसगढ़ की लोक परंपरा और लोक संस्कृति की गलत छवियाँ अवश्य प्रस्तुत की गई हैं, यथा - यहाँ लाख प्रताड़ित होकर भी पत्नियाँ पति को ’’रोगहा, किरहा, तोर रोना परे,’ की गालियाँ नहीं देतीं। अपवादें जरूर हों

संकल्पित लोगों को विकल्प आसानी से मिल जाते हैं

अगसदिया का नवीनतम अंक मेरे हाथ मे है, छत्तीसगढ़ के असल कलम के सिपाही डॉ. परदेशीराम वर्मा लेखन के मोर्चे में डटे रहने वाले ऐसे अजूबे सिपाही हैं जो निरंतर लेखन कर रहे हैं। विभिन्न विधाओं और आयामो में लिखते हुए वे, उनका संग्रह आदि के माध्‍यम से लगातार प्रकाशन भी प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमे से एक कड़ी अगसदिया भी है। हमेशा की तरह इस अंक में चुनिंदा रचनायें शामिल हैं जो छत्‍तीसगढ़ को सहीं ढ़ग से समझने और पूर्वाग्रहों से बाहर निकले को विवश करती हैं। अन्‍य पठनीय और उल्‍लेखनीय आलेखों के साथ ही इसमें संग्रहित स्‍व. श्री हरि ठाकुर के आलेख में, ठाकुर जी ने छत्तीसगढ़ के महान सपूत डॉ. खूबचंद बघेल के द्वारा लिखे नाटक 'ऊंच नीच' का उल्लेख किया है। 1935 में लिखे गए इस नाटक की प्रस्तुति 1936 में अनंतराम बरछिहा जी के गांव चंदखुरी गाँव में होने का उल्लेख उन्होंने किया है। जिसमें वे लिखते हैं कि 'इस प्रस्तुति के साथ ही अनंतराम बरछिहा जी का पूर्व सम्मान ब्याज सहित वापस हो गया।' यह प्रतिकात्मम उल्लेख एक बड़े स्‍वागतेय सामाजिक बदलाव को दर्शाने के लिए हुआ है जिसकी 'लूकी' डॉ.बघेल जी नें