विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
पिछले दिनों हमने सीपी एण्ड बरार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. नारायण भास्कर खरे का विद्रोह शीर्षक से एक पोस्ट लिखा था तब डॉ.राजेन्द्र प्रसाद जी द्वारा लिखा गया यह अंश हमें मिल नहीं पाया था। उस पोस्ट को पूरी तरह से समझने के लिए डॉ.राजेन्द्र प्रसाद जी के आत्मकथा का यह अंश पढ़ना आवश्यक है- बम्बई मे ही मालूम हुआ था कि मध्यप्रदेश के मत्रिमण्डल में आपस का बहुत मतभेद हो गया है। एक दूरारे की शिकायतें करते हैं। उसी समय पारलेमेण्टरी कमिटी ने निश्चय किया कि वह इस बात की जाँच करेगी। उन दिनों पचमढ़ी में गवर्नमेण्ट रहा करती थी। इसलिए सरदार बल्लभभाई और मौलाना साहब वहाँ गये। मैं नहीं जा सका; क्योंकि मैं बीमार था। झगड़ा प्रधान मत्री डाक्टर खरे और पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र मे था। हिन्दुस्थानी मध्यप्रदेश में मत्रिमण्डल बनने के पहले दो दल थे-एक मे पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र समझे जाते थे और दूसरे में पंडित रवि शंकर शुक्ल। जिस समय १९३७ में असम्बली का चुनाव हुआ था उसी समय एक मुकदमा पंडित द्वारका प्रसाद के खिलाफ चलने की खबर निकली। उन्होंने वर्किंग कमिटी को खबर दे दी कि चूँकि उनके विरुद्ध मुकदमे की