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जुलाई, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

राजेन्‍द्र प्रसाद जी की आत्‍मकथा : मध्यप्रदेश के मंत्रिमण्डल का दु:खद झगड़ा

पिछले दिनों हमने सीपी एण्‍ड बरार के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री डॉ. नारायण भास्‍कर खरे का विद्रोह शीर्षक से एक पोस्‍ट लिखा था तब डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद जी द्वारा लिखा गया यह अंश हमें मिल नहीं पाया था। उस पोस्‍ट को पूरी तरह से समझने के लिए डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद जी के आत्‍मकथा का यह अंश पढ़ना आवश्‍यक है- बम्बई मे ही मालूम हुआ था कि मध्यप्रदेश के मत्रिमण्डल में आपस का बहुत मतभेद हो गया है। एक दूरारे की शिकायतें करते हैं। उसी समय पारलेमेण्टरी कमिटी ने निश्चय किया कि वह इस बात की जाँच करेगी। उन दिनों पचमढ़ी में गवर्नमेण्ट रहा करती थी। इसलिए सरदार बल्लभभाई और मौलाना साहब वहाँ गये। मैं नहीं जा सका; क्योंकि मैं बीमार था। झगड़ा प्रधान मत्री डाक्टर खरे और पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र मे था। हिन्दुस्थानी मध्यप्रदेश में मत्रिमण्डल बनने के पहले दो दल थे-एक मे पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र समझे जाते थे और दूसरे में पंडित रवि शंकर शुक्ल। जिस समय १९३७ में असम्बली का चुनाव हुआ था उसी समय एक मुकदमा पंडित द्वारका प्रसाद के खिलाफ चलने की खबर निकली। उन्होंने वर्किंग कमिटी को खबर दे दी कि चूँकि उनके विरुद्ध मुकदमे की

बाॅलीवुड के गुरूदत्त और बस्तर के प्रवीरचंद्र भंजदेव दोनों सर्वश्रेष्ठ नायक : 9 जुलाई पर विशेष लेख

संयोगवश बाॅलीवुड के गुरूदत्त और संजीव कुमार का जन्मदिन की एक ही तारीख है 9 जुलाई। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में उत्कृृष्ट कलाकार थे। संजीव कुमार का संवाद शैली, अभिनय, मुस्कुराहट दर्शकों के दिल में हमेशा रहेंगे और ये भी सच है कि गुरूदत्त के जाने के बाद कई फिल्मों के नायक के लिए संजीव कुमार ही उपयुक्त थे। बाॅलीवुड और बस्तर दो अलग-अलग क्षेत्र है। एक कला जगत, तो दूसरा भारत का एक बड़ा भूभाग। दोनों ने अपने-अपने महाराजा को कालचक्र में खो दिया। गुरूदत्त के जीवन की शुरूआत से अंत तक एक और सर्वश्रेष्ठ नायक उनके साथ आए (जन्म-वर्ष 1925-29) और उनके साथ ही चले गए (मृत्यु 1964-66) वो हैं ‘बस्तर के महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव’। शायद उनका कहीं मुलाकात भी न हुआ हो, लेकिन आज जब एक नायक को देखते हैं तो दूसरा नायक खुद ब खुद परछाई की तरह दिख जाते हैं। दो अद्भुत सुंदर, आकर्षक व्यक्तित्व वाले, मनमोहक, दयालु, सज्जन, प्रतिभा के धनी व्यक्ति, कार्य के प्रति अथक लगन, श्रम और अंग्रेजी सहित अन्य भाषा के जानकार दोनों महाराजा-एक बड़े भूभाग बस्तर का महाराजा और दूसरा कला का महाराजा। दोनों का एक समान व्यक्तित्व, संघर्ष और

'श्रद्धांजलि खुमान साव' के चुनिंदा आलेख : खुमान साव होने का अर्थ - विजय वर्तमान बीरू

खुमान साव किसी व्यक्ति का नही वस्तुतः छत्तीसगढ़ी संगीत का नाम है। खुमान साव छत्तीसगढ़ी संगीत की आत्मा भी है और देह भी। खुमान साव के संगीत के पहले हम इस अंचल के खेत-खलिहानों, तीज-त्यौहारों, उत्सव और अन्यान्घ्य अवसरों पर जो सुनते थे, वे सर्वथा पारंपरिक थे और रचनात्मक संगीत से विहीन थे। उन पारंपरिक गीतों को आकाशवाणी रायपुर से भी उसी रूप गंध के साथ प्रसारित किया जाता था। सुरताल और माधुर्य के प्रति विशेष आग्रह दिखाई नहीं देता था। उस समय के छत्तीसगढ़ी संगीत को हमारा अभिजात्य वर्ग कतई महत्व नहीं देता था। चंदैनी गोंदा के उदय के साथ छत्तीसगढ़ नें एक सर्वथा नया, ताजगी से लबालब, बेहद मीठा, कर्णप्रिय गुरुतुर और आत्मीय साल लगने वाला संगीत सुना। यह वह संगीत था, जिसकी छत्तीसगढ़ ने कल्पना भी नहीं की थी। चंदैनी-गोंदा के मंच पर छत्तीसगढ़ के शाश्वत पारंपरिक गीतों को जिस संगीत का श्रृंगार मिला, उससे वह यकायक जीवंत हो उठा। तब समझ में आया कि छत्तीसगढ़ी लोक गीतों में कितना जीवन है। सोने में सुहागा यह कि उस समय के स्घ्वनामधन्घ्य कवियों में चंदैनी-गोंदा को पूरे विश्वास और अपनेपन के साथ, अपनी रचनाएं सौंपी। रविशंक

'श्रद्धांजलि खुमान साव' के चुनिंदा आलेख : यादें खुमान -प्रमोद यादव

पिछले दिनों फेसबुक पर स्व. खुमान साव जी की यादों को एक चित्र के माध्यम से संजोकर पोस्ट किया था जिसे लोक-संगीत के प्रेमियों ने काफी सराहा. उसी पोस्ट को और विस्तृत करने का प्रयास है यह लेख. पहले राजघाट वाली उसी पोस्ट को यहाँ उदधृत कर रहा हूँ. राजघाट {बापू की समाधि) दिल्ली की यह तस्वीर मैंने 1977 में खींची थी. तब तत्कालीन सांसद (?) स्व. चंदूलाल जी चंद्राकर और तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री स्व.बृजलाल वर्मा जी तथा स्व. पुरुषोत्तम कौशिक जी के प्रयासों से अंचल के प्रथम और सुप्रसिद्ध लोक-कला मंच “चंदैनी गोंदा” के नृत्य और गीतों की रिकार्डिंग का कार्यक्रम दिल्ली दूरदर्शन में होना तय हुआ था.सारे शूटिंग विज्ञानं भवन दिल्ली में संपन्न हुए. तब दिल्ली दूरदर्शन के डायरेक्टर कोई कौल साहब थे. जब पहली बार हम वहाँ पहुंचे तो हमें निराशा हाथ लगी. हमसे अच्छा व्यवहार नहीं किया गया. कलाकारों ने इसकी शिकायत खुमान साव से किये क्योंकि वही प्रमुख थे कलाकारों में. दाउजी से सीधे बात करने की कोई कलाकार हिम्मत नहीं जुटा पाते . तब सावजी ने ये बातें कही दाउजी से फिर शायद ये बातें दाउजी ने कौशिक जी के पी.ए.से कही होगी