राजेन्‍द्र प्रसाद जी की आत्‍मकथा : मध्यप्रदेश के मंत्रिमण्डल का दु:खद झगड़ा

पिछले दिनों हमने सीपी एण्‍ड बरार के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री डॉ. नारायण भास्‍कर खरे का विद्रोह शीर्षक से एक पोस्‍ट लिखा था तब डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद जी द्वारा लिखा गया यह अंश हमें मिल नहीं पाया था। उस पोस्‍ट को पूरी तरह से समझने के लिए डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद जी के आत्‍मकथा का यह अंश पढ़ना आवश्‍यक है-

बम्बई मे ही मालूम हुआ था कि मध्यप्रदेश के मत्रिमण्डल में आपस का बहुत मतभेद हो गया है। एक दूरारे की शिकायतें करते हैं। उसी समय पारलेमेण्टरी कमिटी ने निश्चय किया कि वह इस बात की जाँच करेगी। उन दिनों पचमढ़ी में गवर्नमेण्ट रहा करती थी। इसलिए सरदार बल्लभभाई और मौलाना साहब वहाँ गये। मैं नहीं जा सका; क्योंकि मैं बीमार था। झगड़ा प्रधान मत्री डाक्टर खरे और पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र मे था। हिन्दुस्थानी मध्यप्रदेश में मत्रिमण्डल बनने के पहले दो दल थे-एक मे पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र समझे जाते थे और दूसरे में पंडित रवि शंकर शुक्ल। जिस समय १९३७ में असम्बली का चुनाव हुआ था उसी समय एक मुकदमा पंडित द्वारका प्रसाद के खिलाफ चलने की खबर निकली। उन्होंने वर्किंग कमिटी को खबर दे दी कि चूँकि उनके विरुद्ध मुकदमे की बात चल रही है, इसलिए जब तक वह उससे निकलकर अपने चरित्र की सफाई न दे दे तब तक वह काँग्रेस के सभी पदों से अलग रहने को तैयार हैं। वहाँ कोई भी कॉग्रेस-पार्टी का नेता नही हो सकता था जब तक उसे हिन्दुस्थानी विभाग के मेम्बरों की पूरी सहायता न मिले।




पंडित द्वारका प्रसाद ने डाक्टर खरे की मदद की। उनकी मदद से ही वह नेता चुने गये । जब मंत्रिमण्डल बनने का समय आया तो उनकी ही गवर्नर ने मंत्रिमण्डल बनाने का आदेश किया। जो मुकदमा पंडित द्वारका प्रसाद पर चलनेवाला था उसे बेबुनियाद समझकर वहाँ के हाकिमों ने उठा लिया। उसके बाद पंडित द्वारका प्रसादजी भी मत्रिमण्डल में आये । इस तरह यह समझा जाता था कि उनकी और डाक्टर खरे की बड़ी मित्रता थी। बात भी ऐसी ही थी। पंडित रविशकर शुक्ल भी मंत्री बने थे ।

काँग्रेस के काम मे वह पंडित द्वारका प्रसाद के प्रतिद्वन्द्धी समझे जाते थे। मत्रिमण्डल के, काम मे शुक्लजी और मिश्रजी की राय बहुत-सी बातों मे एक हुई। दोनों का डाक्टर खरे से मतभेद हुआ। यदि इतना ही रहता तो कोई हर्ज नही; क्योंकि मित्रता एक अलग चीज है और देश-सेवा-सम्बन्धी मतभेद दूसरी चीज। डाक्टर खरे ने मिश्रजी की शिकायत की और मिश्रजी ने भी डाक्टर साहब की ।

इन्ही शिकायतों को दूर करने के लिए सरदार पचमढ़ी गये। वहाँ पर कुछ बाते तय हुईं। आशा की गयी कि मामला तय हो जायगा और दोनों काम चलाने लगेंगे। पर बात ऐसी नही हुई। डाक्टर खरे अपना विचार नही बदल सके। उन्होंने सोच लिया कि मिश्रजी के साथ उनकी नहीं निभेगी। उधर मिश्रजी के साथ काम करते-करते शुक्लजी उनके साथ अधिक मिल-जुल गये। ऐसा मालूम हुआ कि डाक्टर खरे उन दोनों को किसी न किसी तरह मत्रिमण्डल से हटावेंगे। पर जो प्रयत्न इस झगडे़ को हटाने का हुआ वह विफल हुआ। आपस का वेमनस्य बढ़ता ही गया। मैं अच्छा होकर वर्धा मे ही आराम कर रहा था कि एक दिन अचानक खबर मिली, झगडे़ ने उग्र रूप धारण कर लिया है। पारलेमेण्टरी कमिटी और वर्किंग कमिटी की बैठक उसके दो ही दिनों के बाद होनेवाली थी। डाक्टर खरे उसके पहले ही मत्रिमण्डल तोडकर अपनी पसन्द का नया मत्रिमण्डल बना लेना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए गवर्नर की मदद ली। जब मुझे खबर मिली तो मैंने उनको एक पत्र लिखा कि वह ऐसी कोई कारवाई न करें। दो ही दिनों में होनेवाली पारलेमेण्टरी कमिटी और वर्किंग कमिटी का इन्तजार कर लेवें। वह पत्र उनके पास रात को गया। उस रात को उन्होंने मंत्रिमण्डल का इस्तीफा देकर गवरनर से मंजूर करा लिया और नया मंत्रिमण्डल बना भी लिया। मेरा पत्र उनके पास किसी तरीके से रात मे पहुँचने न पाया। दूसरे दिन सवेरे नया मंत्रिमण्डल बन गया। उसमे पहले से ये दोनों मंत्री नही थे। कुछ नये लोग लिये गये थे। सब बाते इतनी जल्दबाजी मे रातों-रात हुईं कि नागपुर के नजदीक रहते हुए भी हमको पूरी खबर मंत्रिमण्डल के पुन:संगठित हो जाने के बाद मिली। जब दूसरे दिन पारलेमेण्टरी कमिटी की बैठक हुई तो इसे सब लोगों ने बहुत बुरा माना। दोनों पक्षों के लोग बुलाये गये । जो नये मंत्री बने थे वे भी बुलाये गये। श्री सुभाषचन्द्र बोस भी पहुँच गये थे। यद्यपि वह पारलेमेण्टरी कमिटी के मेम्बर नही थे तथापि वह कॉग्रेस के अध्यक्ष थे, इसलिए सबके ऊपर थे। उनकी हाजिरी में दोनों पक्ष की बातें सुनी गयीं । कमिटी का विचार हुआ कि इस तरह से नया मत्रिमण्डल बना लेना बेजा हुआ है, विशेषकर जब तुरत ही पारलेमेण्टरी कमिटी और वर्किंग कमिटी की बैठक होनेवाली थी। नये मंत्रिमण्डल के मंत्रियों से कहा गया कि वे इस्तीफा दे दें। ये बाते होते-हवाते रात बहुत बीत गयी थी। पर उसी समय टेलीफोन द्वारा डाक्टर खरे ने गवर्नर को खबर दे दी कि वह और उनके साथ नये मंत्री इस्तीफा दे रहे है। दूसरे दिन उन्होंने इस्तीफा लिखकर भेज भी दिया। वैसा ही दूसरों ने किया। अब नया मंत्रिमण्डल बनाने का निश्चय हुआ। उसमे पंडित रविशंकर शुक्ल प्रधान मत्री बने और पंडित द्वारका प्रसाद भी एक मंत्री हुए। डाक्टर खरे उसमें नही आये। वहाँ की असम्बली की की बैठक वर्धा में हुई जिसमे सुभाष बाबू और हम लोग भी हाजिर थे। उसने शुक्लजी को ही अपना नेता चुना। इसलिए वही प्रधान मंत्री बने ।




इस सारी कार्रवाई से वहाँ बड़ी हलचल मच गयी। डाक्टर खरे बहुत गुस्से में आ गये। उन्होंने बहुत जोरों से पारलेमेण्टरी कमिटी और महात्माजी की शिकायत की। सारी कारवाई की कडे़ शब्दों मे निन्दा भी की। वह महाराषट्रीय ब्राह्मण हैं । शुक्लजी और मिश्रजी उत्तर-भारत के हिन्दी-भाषी कान्यकुब्ज ब्राह्मण है। वहाँ और दूसरे स्थानों मे भी महाराष्ट्री और अ-महाराष्ट्री का झगड़ा उठ खडा हुआ ! कुछ दिनों तक ऐसा मालूम होता था कि काँग्रेस के अन्दर बड़ी भारी फूट फैल जायगी। डाक्टर खरे की कार्रवाइयाँ ऐसी हुई कि कुछ दिनों बाद उन पर अनुशासन की कारवाई करनी पड़ी। उनको कॉग्रेस से बहिष्कृत करना पड़ा। यह झगड़ा चल ही रहा था कि एक पुस्तिका निकली। उसमे डाक्टर खरे की बातों का समर्थन किया गया था। जो कार्रवाई वर्किंग कमिटी ने की थी उसकी निन्दा भी थी। सारी बाते अखिल भारतीय कमिटी के सामने आनेवाली थी। सुभाष बाबू कई दिनों तक वर्धा मे और उसके बाद नागपुर में ठहरे रहे। उन्होंने एक बहुत बड़ा बयान तैयार किया जिसमें सारी बाते लिखी हुई थीं। वह बयान एक पुस्तक के रूप में छाप दिया गया। अखिल भारतीय कमिटी की बैठक के समय वह बाँटा भी गया। इस सारे मामले पर विचार हुआ । तब डाक्टर खरे को काँग्रेस से निकालने का हुआ। मैं डाक्टर खरे को १९३४ से ही अच्छी तरह जानने लगा था, जब उन्होंने केन्द्रीय असम्बली के चुनाव मे डाक्टर मुंजे का मुकाबला किया था। उस समय उन्होंने बहुत जोश के साथ काँग्रेस के पक्ष का समर्थन किया था। जब श्री अभ्यंकर का स्वर्गवास हो गया तो मराठी-भाषी मध्यप्रदेश के वही नेता माने जाने लगे। हम सबके साथ उनका बहुत अच्छा व्यवहार था। प्रान्तीय असम्बली के चुनाव के समय उनकी ही राय से सब बातें पारलेमेण्टरी कमिटी ने की। मंत्रिमण्डल के संगठन में भी वही बराबर मुख्य समझे जाते रहे। इस प्रकार पारलेमेण्टरी कमिटी के लोगों का उन पर भरोसा था और उनके साथ व्यवहार भी अच्छा था।




जब मैं सभापति की हैसियत से उनके सूबे में गया था तो उन्हीं के यहाँ ठहरा था। उन्होंने ही दौरे में मेरा साथ दिया था। इस तरह वह सबके मान्य थे । पर इस मामले मे, न मालूम क्यों, उन्होंने ऐसा विचार बना लिया। जो झगड़ा उनका मिश्रजी के साथ हुआ उसमें पारलेमेण्टरी कमिटी को भी घसीटकर उन्होंने नाथ दिया। महात्मा गांधी को भी उन्होंने अछूता न छोड़ा। यह सारी घटना बडी दु.खद हुई, क्योंकि उनके जैसा एक योग्य आदमी काँग्रेस का विरोधी बन गया। उसके बाद उन्होंने काँग्रेस को हर मौके पर नीचा दिखाने का प्रयत्न किया है। उनके ऐसे-ऐसे बयान हुए हे और ऐसी-ऐसी बाते उन्होंने काँग्रेस के सम्बन्ध में कही हे जैसी शायद कांग्रेस के कट्टर विरोधी भी नहीं कहते होंगे । हम लोगों की नजरों के सामने काँग्रेस की प्रतिष्ठा और उसके अनुशासन की रक्षा के सिवा कोई दूसरी बात नही थी । सच पूछिए तो मैं जितना डाक्टर खरे को जानता था और उनके प्रति जितनी श्रद्धा रखता था उतनी मिश्रजी के प्रति नही ; क्योंकि मिश्रजी के साथ काम करने का उतना मौका नही आया था। डाक्टर खरे भी मिश्रजी के बडे श्रद्धालु थे और उन पर बहुत भरोसा किया करते थे। पर कुछ विषयों में मतभेद हो जाने के कारण वह उनसे इतने बिगड़ गये कि दोनों का एक मंत्रिमण्डल मे रहना असम्भव हो गया। उनकों वहाँ से निकलवा देने पर वह तुल गये और वह निकलवाना भी गवर्नर की मदद से। जो हो, इस दु:खद घटना का परिणाम अच्छा नहीं हुआ । जो झगड़ा उस समय खड़ा हुआ वह अभी तक खत्म नही हुआ है यद्यपि अब वह मराठी और अ-मराठी झगडे़ का रूप नही रह गया है । हाँ, दूसरे तरीके से, समय बीतते-बीतते, बातें ठंढी पड़ गयी। पर डाक्टर खरे काँग्रेस से अलग हो ही गये हैं और शायद रहेगे ही ।

बाॅलीवुड के गुरूदत्त और बस्तर के प्रवीरचंद्र भंजदेव दोनों सर्वश्रेष्ठ नायक : 9 जुलाई पर विशेष लेख

संयोगवश बाॅलीवुड के गुरूदत्त और संजीव कुमार का जन्मदिन की एक ही तारीख है 9 जुलाई। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में उत्कृृष्ट कलाकार थे। संजीव कुमार का संवाद शैली, अभिनय, मुस्कुराहट दर्शकों के दिल में हमेशा रहेंगे और ये भी सच है कि गुरूदत्त के जाने के बाद कई फिल्मों के नायक के लिए संजीव कुमार ही उपयुक्त थे।

बाॅलीवुड और बस्तर दो अलग-अलग क्षेत्र है। एक कला जगत, तो दूसरा भारत का एक बड़ा भूभाग। दोनों ने अपने-अपने महाराजा को कालचक्र में खो दिया। गुरूदत्त के जीवन की शुरूआत से अंत तक एक और सर्वश्रेष्ठ नायक उनके साथ आए (जन्म-वर्ष 1925-29) और उनके साथ ही चले गए (मृत्यु 1964-66) वो हैं ‘बस्तर के महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव’। शायद उनका कहीं मुलाकात भी न हुआ हो, लेकिन आज जब एक नायक को देखते हैं तो दूसरा नायक खुद ब खुद परछाई की तरह दिख जाते हैं। दो अद्भुत सुंदर, आकर्षक व्यक्तित्व वाले, मनमोहक, दयालु, सज्जन, प्रतिभा के धनी व्यक्ति, कार्य के प्रति अथक लगन, श्रम और अंग्रेजी सहित अन्य भाषा के जानकार दोनों महाराजा-एक बड़े भूभाग बस्तर का महाराजा और दूसरा कला का महाराजा। दोनों का एक समान व्यक्तित्व, संघर्ष और कम उम्र में अन्त ये समानता असंख्य लोगों के दिल में आज भी राज करती है।

वर्ष 1947 आजादी का साल और ज्यों-ज्यों साल बढ़ते गए दो युवाओं का अपने-अपने क्षेत्र में संघर्ष की शुरूआत हुई। गुरूदत्त ने ‘प्यासा’ फिल्म की कहानी लिखी, वहीं प्रवीरचंद्र ने भारत गणराज्य में बस्तर के विलय के लिए विलय पत्र में हस्ताक्षर किए। इस विलय पत्र में हस्ताक्षर करके लौटने के बाद प्रवीरचंद्र को महसूस हुआ कि उन्होंने अच्छा नहीं किया, बस्तर को खो दिया और इस बात का जिक्र अपने एक अग्रेंज अधिकारी को किया (लेख, किताबों में जिक्र अनुसार)।

गुरूदत्त ने बाॅलीवुड में बाज, बाजी, सीआईडी, आर-पार, साहेब बीबी और गुलाम, कागज के फूल और प्यासा फिल्म के निर्माता, निर्देशक और अभिनेता की सफलता-विफलता की जिंदगी जी और सर्वश्रेष्ठ गीत, संगीत, भाषा-शैली, चित्रांकन से विश्व में भारतीय सिनेमा का का नाम रौशन किया।

वहीं प्रवीरचंद्र ने 1949 में जगदलपुर विधानसभा सीट जीता। सरकार के रवैये से खफा होकर उन्होंने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया और अगले चुनाव में बस्तर से नौ सीट जीताया। आदिवासी, जल, जंगल और जमीन के प्रति उनके हक के लिए संघर्ष, अथाह प्रेम, रक्षात्मक कवच लिए उनका व्यक्तित्व। प्रवीरचंद्र पूर्व महाराजा थे, आदिवासियों का उनके प्रति अनन्य प्रेम था। आदिवासी समूह का महल में मुलाकात, रस्म आदि चल रहा था। भीड़ द्वारा एक पुलिस की हत्या होने पर प्रवीरचंद्र जी का अंत की शुरूआत हुई। पुलिस ने महल को चारो ओर से घेर लिया और महिला-बच्चों को समर्पण के लिए कहा। महिलाओं और बच्चों पर गोलियां चलने से प्रवीरचंद्र दौड़ते हुए बचाने आए लेकिन पुलिस फायरिंग में 25 गोलियां उनके शरीर में धंस गई और वो उठ नहीं पाए। कैसी विडंबना है कि अद्भुत प्रतिभा के धनी व्यक्तियों का अंत एकाकी और अथाह प्रेम के कत्र्तव्य के भंवर में हो जाता है।

गुरूदत्त ने फिल्मों की माध्यम से अपनी योगदान को फिल्म के माध्यम से जीवित रखा है वहीं प्रवीरचंद्र ने आदिवासी, जल, जंगल और जमीन के हक के लिए जो योगदान दिए वह इतिहास में दर्ज है। प्रवीरचंद्र ने अपनी एक पुस्तक लिखी- आई प्रवीर, द आदिवासी गाॅड। यह संस्करण इंटरनेट और आनलाइन के के माध्यम से जन-जन को प्राप्त हो तो उनके दिल की बात और भी लोगों तक पहुंचेगी। आज भी बस्तर के लोगों में प्रवीरचंद्र का गहरा प्रभाव है, वे अमिट प्रेम को बनाए हुए मां दंतेश्वरी के चित्र के साथ प्रवीरचंद्र की तस्वीर रखते हैं।
पता नहीं क्यों आज हिन्दी सिनेमा का सम्राट गुरूदत्त और बस्तर के महाराजा प्रवीरचंद्र ने जो लोगों के दिलों में जगह बनाई है। उनके मिटने के बाद भी उसकी भरपाई आज 50 वर्ष बाद भी किसी ने नहीं कर पाई।
- देवराम यादव



'श्रद्धांजलि खुमान साव' के चुनिंदा आलेख : खुमान साव होने का अर्थ - विजय वर्तमान बीरू

खुमान साव किसी व्यक्ति का नही वस्तुतः छत्तीसगढ़ी संगीत का नाम है। खुमान साव छत्तीसगढ़ी संगीत की आत्मा भी है और देह भी। खुमान साव के संगीत के पहले हम इस अंचल के खेत-खलिहानों, तीज-त्यौहारों, उत्सव और अन्यान्घ्य अवसरों पर जो सुनते थे, वे सर्वथा पारंपरिक थे और रचनात्मक संगीत से विहीन थे। उन पारंपरिक गीतों को आकाशवाणी रायपुर से भी उसी रूप गंध के साथ प्रसारित किया जाता था। सुरताल और माधुर्य के प्रति विशेष आग्रह दिखाई नहीं देता था। उस समय के छत्तीसगढ़ी संगीत को हमारा अभिजात्य वर्ग कतई महत्व नहीं देता था।




चंदैनी गोंदा के उदय के साथ छत्तीसगढ़ नें एक सर्वथा नया, ताजगी से लबालब, बेहद मीठा, कर्णप्रिय गुरुतुर और आत्मीय साल लगने वाला संगीत सुना। यह वह संगीत था, जिसकी छत्तीसगढ़ ने कल्पना भी नहीं की थी। चंदैनी-गोंदा के मंच पर छत्तीसगढ़ के शाश्वत पारंपरिक गीतों को जिस संगीत का श्रृंगार मिला, उससे वह यकायक जीवंत हो उठा। तब समझ में आया कि छत्तीसगढ़ी लोक गीतों में कितना जीवन है। सोने में सुहागा यह कि उस समय के स्घ्वनामधन्घ्य कवियों में चंदैनी-गोंदा को पूरे विश्वास और अपनेपन के साथ, अपनी रचनाएं सौंपी। रविशंकर शुक्ल, नारायण लाल परमार, हनुमंत नायडू, पतिराम साव, कोदूराम दलित, ठाकुर प्यारेलाल, भगवती सेन, हरि ठाकुर, दानेश्वर शर्मा, कैलाश तिवारी, मुकुंद कौशल आदि-आदि महत्वपूर्ण रचनाकारों के साथ-साथ उस समय के युवा कवि और हर दिल अजीज गायक लक्ष्मण मस्तूरिया आदि के गीतों ने जब खुमान साव का संगीत पाया तो छत्तीसगढ़ की आत्मा को जैसे संजीवनी मिल गई। छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान को अंगड़ाई लेते मैंने स्वयं देखा है।


मैंने देखा कि चमेली-गोंदा के गीत गांव-गांव, गली-गली, शहर-शहर, डहर-डहर, पांव-पांव, डगर-डगर ऐसे गूंजने लगे, जैसे अंचल की हवाओं का हिस्सा हों। आकाशवाणी रायपुर को तो जैसे खजाना मिल गया। संझा-बहनिया, रतिहा-दुपहरिया, बेरा लागे ना कुबेरा, भइगे चंदैनी-गोंदा के गाना। ना कोनों असकटाय, न उकताय। एला कहिथें खुमान साव के संगीत।

मैंने इन गानों को छत्तीसगढ़ के अभिजात के गले लगते देखा। सन् 1970-71 में खुमान साव के संगीत के शहद में लिपटे बिहावगीत, सुवा, गौरा, ददरिया, कर्मा, माता-सेवा, जंवारा, भजन और तत्कालीन साहित्यकारों के रचे किसानगीत, आस्थागीत, क्रांतिगीत, विद्रोहगीत, प्रेमगीत, प्रेरणागीत, बालगीत आदि-आदि तिलस्घ्म के वश में सामान्य से लेकर अभिजात्य तक समान रूप से मदहोश थे। खुमान साव ने हमारे संगीत को नवीन माधुर्य के साथ-साथ अनुशासन भी दिया। लोकवाद्यों का सटीक, रचनात्मक प्रयोग संगीत जगत को खुमान साव ने ही सिखाया।

चंदैनी-गोंदा के कथानक को दाऊ रामचंद्र देशमुख के सपनों के अनुरूप मंच पर साकार करने में खुमान साहू के हैरतअंगेज, प्रभावी संगीत में महती भूमिका निभाई। अनुकूल, आत्मीय संगीत ने चंदैनी-गोंदा के नयनाभिराम नृत्घ्यों, प्रहसनों और भावुक दृश्यों में प्राण फूंक दिए। खुमान साव को संगीत में जादू पैदा करना आता था।

छत्तीसगढ़ और उसके बाहर भी चंदैनी-गोंदा के प्रदर्शनों की भीषण बाढ़ के बीच, मुझे याद आता है सन् 1976 में हमारा दिल्ली प्रवास। उस समय देश में एक अकेला दिल्ली-दूरदर्शन ही राष्ट्रीय चौनल था। हमें वहां से बुलावा आया था, छत्तीसगढ़ की किसी संस्था के लिए दूरदर्शन से यह प्रथम आमंत्रण था। लगभग दर्जनभर नृत्यों की रिकॉर्डिंग दिल्ली दूरदर्शन ने की थी। वहां का रिकॉर्डिंग स्टाफ हमारे नृत्य संगीत से मंत्रमुग्ध था। उन्हें कल्पना भी नहीं थी कि देश के सुदूर छत्तीसगढ़ अंचल की मिट्टी में इतना मनभावन संगीत और नृत्य की फसल भी लहलहाती है।




फिर हमें अशोका होटल के प्रसिद्ध कन्वेंशन हॉल में प्रस्तुति देने का ऐतिहासिक आमंत्रण मिला। ऐतिहासिक इस अर्थों में कि उस समय तक उस हाल में, सिर्फ लता मंगेशकर का ही कार्यक्रम संभव हो पाया था। लोक-सांस्कृतिक दलों में सिर्फ छत्तीसगढ़ के चंदैनी-गोंदा को ही यह दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ था। वहां कुछ नामवर राजनीतिक एवं सांस्कृतिक प्रतिनिधियों के अलावा शेष सभी दर्शक विदेशी अतिथि थे। उस समय हमारे लिए अकल्पनीय सर्वसुविधायुक्त मंच में हमने विदेशियों के समक्ष कार्यक्रम दिया। प्रारंभ से अंत तक वीडियो रिकॉर्डिंग होती रही। यह भी हमारे लिए उस समय रोमांच पैदा करने वाली बात थी। खुमान साव के संगीत नें 1976 में ही विदेशों की यात्रा कर ली थी।

उसी साल मऊरानीपुर, झांसी में आयोजित अखिल भारतीय लोक सांस्कृतिक सम्मेलन में चंदैनी-गोंदा की प्रस्तुतियों ने दर्शकों को पागल कर दिया था। उस क्षेत्र में उससे पहले न ऐसा संगीत सुना गया था, न ही चेतना को विभोर कर देने वाले ऐसे नृत्य देखे गए थे। दूसरे दिन अखबारों में हमारी प्रस्तुतियों और दाऊजी के साक्षात्कार को प्रमुखता से स्थान मिला था। बताइए श्रेय किसको जाता है खुमान के संगीत को ही न।

अंतहीन यादें खुमान साव होने के अर्थ को सीमित शब्दों में समेटना कितना दुष्कर है यह आप सभी जानते हैं। मैं और प्रमोद यादव खुमान साव के स्नेह के विशेष भाजक रहे हैं। हमारी विनम्र आत्मीय श्रद्धांजलि।
ओम शांति शांति शांति

-विजय वर्तमान बीरू





Ravishankar Shukl, Narayan Lal Parmar, Hanumant Naydu, Patiram Sao, Koduram Dalit, Thakur Pyarelal, Bhagvati Sen, Hari Thakur, Daneshwar Sharma, Kailash Tiwari, Mukund Kaushal, Bihav Geet, Suva, Gaura, Dadariya, Karma, Mata Seva, Janvara, Bhajan, Kisan Geet, Astha Geet, Kranti Geet, Vidroh Geet, Prem Geet, Preena Geet, Bal Geet.

'श्रद्धांजलि खुमान साव' के चुनिंदा आलेख : यादें खुमान -प्रमोद यादव

पिछले दिनों फेसबुक पर स्व. खुमान साव जी की यादों को एक चित्र के माध्यम से संजोकर पोस्ट किया था जिसे लोक-संगीत के प्रेमियों ने काफी सराहा. उसी पोस्ट को और विस्तृत करने का प्रयास है यह लेख. पहले राजघाट वाली उसी पोस्ट को यहाँ उदधृत कर रहा हूँ.




राजघाट {बापू की समाधि) दिल्ली की यह तस्वीर मैंने 1977 में खींची थी. तब तत्कालीन सांसद (?) स्व. चंदूलाल जी चंद्राकर और तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री स्व.बृजलाल वर्मा जी तथा स्व. पुरुषोत्तम कौशिक जी के प्रयासों से अंचल के प्रथम और सुप्रसिद्ध लोक-कला मंच “चंदैनी गोंदा” के नृत्य और गीतों की रिकार्डिंग का कार्यक्रम दिल्ली दूरदर्शन में होना तय हुआ था.सारे शूटिंग विज्ञानं भवन दिल्ली में संपन्न हुए. तब दिल्ली दूरदर्शन के डायरेक्टर कोई कौल साहब थे. जब पहली बार हम वहाँ पहुंचे तो हमें निराशा हाथ लगी. हमसे अच्छा व्यवहार नहीं किया गया. कलाकारों ने इसकी शिकायत खुमान साव से किये क्योंकि वही प्रमुख थे कलाकारों में. दाउजी से सीधे बात करने की कोई कलाकार हिम्मत नहीं जुटा पाते . तब सावजी ने ये बातें कही दाउजी से फिर शायद ये बातें दाउजी ने कौशिक जी के पी.ए.से कही होगी तभी दूसरे दिन जब शूटिंग के लिए वहाँ पहुंचे तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा. खुद कौल साहब हमें रिसीव करने आये और बहुत ही आत्मीयता से मिले और सारे शूटिंग के दौरान ये आत्मीयता बनी रही.




विज्ञान भवन में कुछ नृत्य-गाने की शूटिंग वहाँ के एक बड़े लान में आउट डोर हुई जहां गांव के सेट बनाए गए थे . चबूतरे और खलिहान के दृश्य के बीच नृत्य फिल्माए गए..दूरदर्शन के बड़े-बड़े कैमरे दो-तीन एंगल से कवर कर रहे थे.. कुछ नृत्य-गानों की शूटिंग इनडोर की गई. कुल शायद २२ गानों की रिकार्डिंग हुई थी. तब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी और अंचल से स्व.बृजलाल वर्मा व स्व. पुरुषोत्तम कौशिक जी केन्द्रीय मंत्री थे. वर्माजी शायद उद्योग मंत्री और कौशिक जी नागरिक उड्डयन मंत्री थे. मुझे याद नहीं आ रहा कि तब चंदूलाल जी सांसद थे या नहीं लेकिन दिल्ली के बिरला ग्रुप के प्रसिद्द हिंदी अखबार “हिन्दुस्तान” के प्रधान संपादक जरुर थे. तत्कालीन केन्द्रीय मंत्रियो के सहयोग और चंदूलाल जी के मार्गदर्शन में “ चंदैनी गोंदा” का एक कार्यक्रम दिल्ली के अशोक होटल के कन्वेंशन हाल में हुआ. दाउजी चंदूलाल जी के अच्छे मित्र थे . उनकी बड़ी तमन्ना थी कि छत्तीसगढ़ लोक-संगीत कभी राजधानी में भी गूँजे. अरसे से वे प्रयासरत थे. दोनों केन्द्रीय मंत्रियों से भी दाउजी के अच्छे ताल्लुकात थे. तीनों की तिगड़ी के संयुक्त प्रयास से ये सब संभव हुआ.

हम आधे कलाकार दिल्ली में चंदूलाल जी के निवास में रुके थे तो आधे स्व.कौशिक जी के सरकारी बंगले में. दो-चार शायद स्व. वर्माजी के बंगले में ठहरे थे. जब वहाँ रिहर्सल करते तो बड़ा मजा आता. कौशिक जी के बंगले में मुख्य द्वार पर कुछ हडताली बैठे थे इसलिए हमें पीछे के द्वार से आने-जाने कहा जाता. चंद्राकर जी के निवास में रिहर्सल के बाद हम उनकी ढेरो आप-बीती कहानियां सुनते उन्होंने वो किस्सा भी सुनाया जब वे कोई अफ्रीकन देश में जहां गृह- युद्ध छिड़ा था, पत्रकारिता करने चोरी-छिपे घुस गए और वहाँ एक जगह आदमखोरों के जाल में फंस गए. एक गोरा पत्रकार भी साथ था,उसकी बदौलत वे बचे. वहाँ से उनके मारे जाने की खबर भी आई पर वे एकाध महीने बाद सही-सलामत वापस दिल्ली आये. हमारे दिल्ली से लौटने के एकाध हफ्ते बाद ही साप्ताहिक “ धर्मयुग” में ये कहानी चार किश्तों में पढ़ने को मिली.




अशोका होटल के कन्वेंशन हाल में “चंदैनी गोंदा” का जो तीन घंटे का अविस्मरणीय कार्यक्रम हुआ, वैसा कसा-बंधा कार्यक्रम फिर कभी नहीं देखा.उस कार्यक्रम में अंचल के कई गणमान्य विधायक,सांसद और मंत्री तो उपस्थित थे ही पर सामने की पंक्ति में कुछ और भी जाने- पहचाने मंत्री अथवा भूतपूर्व मंत्री बैठे थे जिसमें साल्वे जी और साठे जी को ही मैं जानता था.कार्यक्रम संपन्न होने के बाद चंदूलाल जी मुझे अपने साथ अपने हिन्दुस्तान कार्यालय ले गए और कैमरे से रोल निकलवाकर डेवलपिंग- प्रिंटिंग के लिए दिए. कुछ ही समय में 8-10 बड़े साइज के प्रिंट मेरे हाथ में थे.मुझे ही प्रेस के लिए फोटो सेलेक्ट करने कहा, मैंने जिसे चुना वह दूसरे दिन “हिन्दुस्तान” में छपा.

“चंदैनी गोंदा” का एक कार्यक्रम आनन्-फानन में चंदूलाल जी के निवास 58 -अशोका रोड में रखा गया जिसमें दिल्ली के प्रबुद्ध साहित्यकारों व पत्रकारों को आमंत्रित किया गया.मैं उनमें केवल “कादम्बिनी” संपादक श्री राजेंद्र अवस्थी जी व “साप्ताहिक हिंदुस्तान” के संपादक श्री मनोहर श्याम जोशी जी को ही पहचान पाया.

चंदूलाल जी खुमान साव से अच्छे-खासे परिचित थे. कभी-कभी वे एकाएक बघेरा पहुँच जाते और दो-तीन दिन बिना किसी को बताये वहीं मुनगा,जिमीकंद खाते गुजार देते. ऐसे कई मौकों पर वे साव जी के लोक-संगीत का भी आनंद लेते. मेरा परिचय साव जी से 1974-75 में हुआ जब पहली बार मस्तुरिया जी मुझे अपने साथ बघेरा ले गए कुछ फोटो शूट करने. तब से मैं बघेरा का ही हो गया. दाउजी जैसा फोटोग्राफर चाहते थे.उन्हें मिला और मुझे एक बढ़िया दोस्त मिला- लक्छमन मस्तुरिया. हमारी खूब छनी कई सालो तक. वहीं खुमान जी से परिचित हुआ. हारमोनियम पर चलते उनकी उँगलियों को देख मै दंग रह जाता . जैसे सांस हम बड़ी ही सहजता से लेते हैं,वैसे ही सहजता से वे हारमोनियम बजाते थे. धुन के पक्के थे.किसी गीत को संगीत में पिरोना है यानी पिरोना है. जब तक वे खुद तसल्ली न कर लेते .विराम न लेते. गिरिजा सिन्हा,संतोष ,केदार आदि के साथ घंटों मेहनत करते तब एक सुन्दर लोक-गीत का सर्जन होता,वे ऐसा कुछ चाहते कि गीत लोक-व्यापी हो..सदाबहार हो.. समय-काल का उस पर कोई असर न पड़े.उन्होंने जितने भी गीतों को संगीत में पिरोया, उसमें आधे से ज्यादा का तो मैं गवाह हूँ..वे अपना काम बड़ी ईमानदारी और शिद्दत से करते. सभी कलाकारों से उनका व्यवहार मर्यादित होता. उनका कहा सभी मानते पर कोई कलाकार अगर कोई संगीत के बारे कोई सलाह देता तो वे ना नहीं कहते बल्कि सही लगने पर बेहिचक मान लेते. मस्तुरिया जी को गाने का कोई ज्ञान नहीं था.. अक्सर साव जी उन्हें “बेताला” कहते लेकिन अभ्यास के चलते वे गायक बन ही गए. संगीता चौबे,अनुराग, भैयालाल हेडाऊ, कविता, साधना,केदार के साथ उनके अच्छे ताल्लुकात रहे. कभी किसी ने उनके संगीतकारी पर कोई शंका जाहिर नहीं की.




उनसे परिचय होने के कुछ ही दिन बाद मैंने उन्हें अपने पड़ोस के घर से निकलते देखा तो पूछा कि यहाँ कैसे? तब बताया कि उनकी बहन यहाँ रहती है..वे पड़ोस के स्व. सदाराम साव के घर बहु बनकर आई थी उनके तीसरे सुपुत्र छन्नूलाल साव के लिए. उनके बच्चों से मेरे आत्मीय सम्बन्ध थे..छन्नूलाल जी सी.एम.ओ. थे. कवर्धा, दुर्ग आदि में रहे. इस परिचय के बाद खुमान जी और आत्मीय हो गए.

चंदैनी गोंदा को दाउजी ने जब बघेरा में एक कार्यक्रम के दौरान इन्हें सौंपा तो एकबारगी सभी गमगीन हो गए कि अब क्या होगा? पर वक्त गवाह है – अच्छा ही हुआ. शुरू-शुरू में उन्हें कुछ दिक्कते जरुर आई लेकिन फिर सब कुछ ठीक हो गया. उसी दौरान उन्होंने मुझे ठेकवा बुलाया कि मैं उनके इस दौर में शामिल हो उद्घोषक का रोल अदा करूँ लेकिन मुझसे नहीं हो सका क्योंकि दाउजी के बाद मैंने किसी के साथ काम नहीं किया. खैर..वक्त गया,,बातें गई..और अब तो वे भी चले गए. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे.

प्रमोद यादव
गयानगर , दुर्ग




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