अन्तरिक्ष में मानव के पचास साल

विक्रम साराभाई, चित्र गूगल खोज से 
बचपन में आकाश के तारे शायद सभी को बेहद रहस्यमय और आकर्षक लगते हैं तारों का शायद यही आकर्षण और रहस्य मानव को अन्तरिक्ष के रोमांचक सफर के लिए प्रेरित किया होगा। 

अन्तरिक्ष की ओर मानव के बढ़ने का पहला ऐतिहासिक विवरण चीन से प्राप्त होता है जहां सेना के काम आने वाले रॉकेटों को एक कुर्सी पर बांधकर एक व्यक्ति उड़ा पर वापस नहीं आया। यह घटना मिंग वंश के काल की है। यह घटना मजाक, जैसी लगती है पर वर्तमान अन्तरिक्ष अभियानों से इसकी बड़ी समानता यह है कि वर्तमान में भी उन्हीं रॉकेटों बुस्टरों का उपयोग किया जाता है। जिनका विकास मूलतः सेना की मिसाइलों के लिए किया गया है। हम भारतीय भी मिसाइलों का उपयोग टीपू सुल्तान के समय से कर रहे हैं पर वर्तमान में अन्तरिक्षयानों में जिन रॉकेटों बुस्टरों का उपयोग किया जा रहा है उनका मूल डिजाईन जर्मन वैज्ञानिक गेलार्ड के वी.टू. मिसाईल से लिया गया है। जिससे द्वितीय विश्वयुद्ध में बिना इंग्लिश चैनल को पार किये जर्मनों ने लंदन को मटियामेट कर दिया था। हिटलर की पराजय के पश्चात् उच्च स्तर के अधिकांश जर्मन वैज्ञानिक अमेरिका के हाथ लगे जबकि जर्मन अनुसंधान शालाओं के अधिकांश तकनीशियन व कामगार सोवियत संघ चले गये। और इन्हीं लोगों ने कालांतर में इन देशों में अन्तरिक्ष कार्यक्रमों की नींव रखी। जिससे 14अप्रैल 1961 को सोवियत संघ ने यूरी गागरिन को अन्तरिक्ष में पहुंचा दिया जबकि अमेरिका का अपोलों 11 नील आर्म स्टांग को चांद तक ले गया। 

समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 

भारत में अन्तरिक्ष कार्यक्रमों की शुरूआत 1956 में विक्रम साराभाई ने तत्कालीन सोवियत संघ की सहायता से की थी। उनके कार्यकाल में भारत का अन्तरिक्ष कार्यक्रम एकदम प्रारंभिक स्तर का था। पर भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान का मूल ढ़ांचा उन्होंने ही तैयार किया। विक्रम साराभाई के संबंध में एक रोचक तथ्य यह भी है कि अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में से उन्होंने आम आदमी व किसानों के उपयोग में आने वाली दर्जनों चीजे जैसे ट्रैक्टर, हाईड्रोलिक, ट्राली, पानी के पम्प, साबुन, वाशींग पाउडर कीटनाशक इत्यादि भारत में उस समय बनाई जब ये चीजे आयातित होने के कारण महंगी होती थी, विक्रम साराभाई ने सहकारी क्षेत्र के माध्यम से इनका उत्पादन व वितरण काफी सस्ते दामों किया। गुजरात में सहकारी आन्दोलन की नींव भी शायद विक्रम साराभाई ने ही रखी जो बाद में निरमा व अमूल के रूप में पुष्पपित व पल्लवित हुआ। शायद हम विषय से भटक गये है चलिये मूल विषय पर आते है। 

सन् 1983 में सोवियत यान में बैठकर हमारे राकेश शर्मा जी भी अंतरिक्ष से हो आये इसी कालखण्ड में भारत में अन्तरिक्ष अनुसंधान ने गति पकड़ी और आज भारत ने क्रायोजनिक इंजनों का खुद से विकास कर तथा चन्र्चयान को चन्‍द्रमा तक पहुंचाकर अपनी तकनीकी महारत साबित कर दी। आज हमारा इसरो दुनिया में सबसे कम खर्च पर उपग्रहों को कक्षा तक पहुचाने वाली संस्था है पर शायद सबसे विश्वसनीय नहीं। 

रॉकेट, चित्र गूगल खोज 
भारत के अन्तरिक्ष कार्यक्रमों पर सवाल पहले भी उठते रहे है और चन्‍द्रयान के समय तो ये राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया था कि भारत जैसे गरीब राष्ट्र को महंगे अंतरिक्ष अभियानों में आखिर क्यों धन खर्च करना चाहिए। मेरे ख्याल से यह लगभग वैसी ही बात है जैसी कि 1986-87 में जब राजीव गांधी ने पहले पहल जब कम्युचाटर क्रान्ति की बात की तब बहुत से लोगों ने कहा कि जिस देश में आधी से अधिक जनता निरक्षर है और 70प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी रेखा से नीचे है वहां कम्यु ैटर क्रान्ति की बात करना पागलपन नहीं तो घोर मुर्खता अवश्य है। पर बाद के समय में इसी कम्युचेटर क्रान्ति से उपजे साफ्टवेयर डेवलपरों के माध्यम से जो विदेशी मुद्रा देश में आयी उसने देश की गरीबी, अशिक्षा व बेकारी को हटाने में कितना योगदान दिया यह अब सर्वविदित है। अंतरिक्ष के क्षेत्र भी संचार उपग्रहों के निर्माण व उनके पट्टे पर देने तथा उपग्रहों को उनकी कक्षा तक पहुंचाने का विश्व बाजार खरबो डॉलर का है। जिसमें इसरों की काफी अच्छी संभावनाएं है। इसके अतिरिक्त यह रक्षा अनुसंधान से भी जुड़ा हुआ है। डी.आर.डी.ओ. के द्वारा विकसित अधिकांश मिसाईलें उन्हीं तकनीकों पर आधारित है जिनका विकास ईसरो ने अपने रॉकेटों बुस्टरों के निर्माण के लिए किया था।

भविष्य में विश्व के अन्तरिक्ष अभियान शायद इस बात पर केन्द्रित होंगे कि मानव को पृथ्वी के अतिरिक्त और कहां बसाया जा सकता है। क्योंकि वर्तमान के हिरण्यआक्षों (जिनकी आंखे सोने के सिक्कों पर लगी हो, यह उपमा शायद धन लोलुप उद्योगपतियों पर अधिक जचती है) ने अपने लोभ में आकर पृथ्वी के पर्यावरण को इतना बिगाड़ दिया है कि शायद आने वाले समय में वराह (भगवान विष्णु के अवतार) भी पृथ्वी का उद्धार नहीं कर पायेंगे। तब मानव संततियां इन्ही अन्तरिक्ष यानों में बैठकर अन्य आकाश गंगाओं में अपने लिए आशियाने ढूंढ़ेगी लेकिन इसमें काफी समस्याएं है बहुत सी चुनौतियां है जिनका सामना अभी किया जाना है। पर इन 50 सालों में अंतरिक्ष में मानव का सफर शानदार व रोमांचक रहा ये हम निश्चय पूर्वक अवश्य कह सकते है।

- विवेकराज सिंह
अकलतरा, छत्‍तीसगढ़.
मेल -  vivekrajbais @ gmail.com
मो- 9827414145

छ: दिन और एक सीएमएस वेब साईट

विगत दिनों ब्‍लॉगर के द्वारा कुछ सुविधाओं को बंद करने एवं फीड संबंधी समस्‍याओं को देखते हुए, हमने ब्‍लॉगर में होस्‍ट निजी डोमेन की छत्‍तीसगढ़ी भाषा की पत्रिका गुरतुर गोठ को निजी होस्टिंग में ले जाने का फैसला लिया। सीएमएस आधारित अनेकों पोर्टलों को देखते और वेब/पोर्टल होस्टिंग दरों की तुलना करने के बाद हमनें फैसला किया कि ज्ञान दर्पण वाले रतन सिंह शेखावत जी द्वारा उपलब्‍ध वेब होस्टिंग सेवाओं का लाभ लिया जाए। वे4होस्‍ट की होस्टिंग सुपविधा के चयन के पीछे हमारा मुख्‍य उद्देश्‍य यह था कि रतन सिंह जी से मोबाईल और मेल से सतत संपर्क हो सकेगा। 



ललित शर्मा जी से भी उनके वेब साईटों के संबंध में चर्चा हुई तो पता चला कि रतन सिंह जी की सुविधायें वे भी ले रहे हैं। वे अपने ललित कला एवं न्‍यूज पोर्टल के तकनीक का सारा दायित्‍व रतन सिंह जी को देकर आनंदपूर्वक पोस्‍टों व टिप्‍पणियों में व्‍यस्‍त हैं। हम भी वे4होस्‍ट के एक्‍सरसाईज में जुट गए। शुरूवाती दौर में डोमेन फारवर्डिंग, एलियाज व सीनेम आदि के लिए रतनसिंह जी से सहायता लेना पड़ा क्‍योंकि हमारा डोमेन रेडिफ से पंजीकृत था और फारवर्डिंग के लिए हम जोनएडिट की मुफ्त सेवा का उपभोग कर रहे थे। रतनसिंह जी नें डोमेन सेटकर थीम भी अपलोड कर दिया पर मेरे प्रयास के बावजूद वह थीम ढंग से सेट नहीं हो पाया। फिर तीन-चार अलग-अलग थीमों पर काम करते हुए हमने अपने पसंद का थीम सेट कर लिया।

20 जुलाई से 26 जुलाई सुबह तक हमारे पास जो भी अतिरिक्‍त समय था उसे सीपेनल-वर्डप्रेस-सीएसएस-पीएचपी-कोडेक्‍स-प्‍लगिंग-विजेटों-सीएमएस-जावा को समझने में लगाया। इस बीच बार-बार वही-वही कार्य को दुहराना पड़ा, किन्‍तु इंटरनेट सर्च के प्रयोगों नें मुझे पल-पल में सहयोग किया। इंटरनेट में यदि आप सर्च सुविधाओं का सही उपयोग करते हैं तो आपके हर सवालों का जवाब यहॉं मिल जाता है। हमारे पास भाषा की समस्‍या है किन्‍तु तकनीकि आलेख/सहायता में भाषा कोई बड़ी बाधा नहीं होती। हमने देखा कि वेब तकनीक के ढ़ेरों वीडियो ट्यूटोरियल भरे पड़े हैं नेट पर जिनके सहारे सामान्‍य तकनीक जानकार भी अपना ब्‍लॉग, पोर्टल व वेब साईट बना कर होस्‍ट कर सकता है और उसे अपनी कल्‍पनाओं का रूप दे सकता है।

इन छ: दिनों में किए गए प्रयोगों के बाद मैं इस निष्‍कर्ष पर पहुचा कि यदि आपको सीएमएस आधारित निरंतर अपडेट होने वाले किसी पोर्टल की आवश्‍यकता है तो आप स्‍वयं प्रयास करने के बजाए किसी प्रोफेशनल को कार्य करने देवें। क्‍योंकि आप तकनीक को सीखने, उसे प्रयोग करने के कार्यों में इतने व्‍यस्‍त हो जायेंगें कि आप कोई लेखकीय सृजन नहीं कर पायेंगें। 

रतन सिंह शेखावत जी और वे4होस्‍ट को धन्‍यवाद, आप मेरा यह प्रयास देखें एवं सुझाव देवें -


इस चित्र को क्लिक कर गुरतुर गोठ में विजिट करें

विश्‍व रंजन ... विश्‍वरंजन

(चित्र रविवार डाट काम से साभार)
कल मेल से प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के एक आयोजन की जानकारी, प्रेस विज्ञप्ति के माध्‍यम से प्राप्‍त हुई। इस पर कुछ विचार आ ही रहे थे कि मित्रों से पता चला कि प्रदेश कांग्रेस के अध्‍यक्ष के काफिले पर नक्‍सल हमला हुआ है और एक गाड़ी विष्‍फोट से उड़ा दी गई है। दो तीन फोन खटखटाए, कांग्रेस से जुड़े मित्र और रिश्‍तेदारों को सही सलामत पाकर पुन: काम में लग गए। किन्‍तु विचार और कार्य के साथ तालमेल नहीं बैठ रहा था, .... अपने रिश्‍तेदार या मित्र तो नहीं मरे यही सोंचकर हम प्रदेश की इस बड़ी समस्‍या से सदैव मुह मोड़ लेते हैं।

हमारे या आपके मुह मोड़ने या गाल बजाने से यह समस्‍या हल नहीं हो सकती। बारूद से दहलते बस्‍तर से ही एक तरफ समाचार आते हैं कि फलां अधिकारी के यहां एन्‍टीकरप्‍शन ब्‍यूरो का छापा पड़ा - अकूत सम्‍पत्ति बरामद। तो दूसरी तरफ समाचार आते हैं कि आदिवासी अपनी लंगोट के लिए भी तरस रहे हैं। यह आर्थिक असमानता सिद्ध करती है कि आदिवासियों के हक के पैसे साहबों के घर में जमा हो रहे हैं और आदिवासी छीने जा चुके लंगोट के कारण अपना गुप्‍तांग हाथों में छुपाकर घने जंगल में अंदर की ओर भाग रहे हैं। वे स्‍वयं भाग रहे हैं या उन्‍हें षड़यंत्रपूर्वक भगाया जा रहा है इसकी पड़ताल भी होनी चाहिए। जंगल में भागे कुछ लंगोट धारी, नक्‍सली वर्दी में बंदूक के साथ वापस लौट रहे हैं। किन्‍तु वे बस्‍तर के आदिवासियों का हक छीनकर अरब-खरबपती बनते सरकारी नुमाइंदों, शोषक साहबों पर बंदूक तानने के बजाए पुलिस और निरीह जनता की प्‍यासी हलक पर उपनी गोलियां उतार रहे हैं।

बस्‍तर में हुए कल के हमले और प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की विज्ञप्ति के बीच छत्‍तीसगढ़ के डीजीपी विश्‍वरंजन भी याद आ रहे थे। क्‍योंकि कल दोपहर को मोबाईल गूगल रीडर से जनपक्ष में प्रकाशित कविता पढ़ा था, जिसमें लिखा था कि ''यह कविता छत्तीसगढ़ के जाने-माने पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन को राज्य सरकार द्वारा पद से हटाये जाने के बाद लेखकीय प्रतिबद्धता से जुड़े साहित्यकारों के बीच एक गंभीर बहस पर आधारित है ‘एक तानाशाह का पंचनामा’ जिसे विश्वरंजन के तमाम लेखों सहित पंकज चतुर्वेदी का खत और जयप्रकाश मानस की बौद्धिक जद्दोजहद को पढने के बाद पूरी बहस को एक सार्थक निष्कर्ष तक ले जाने की कोशिश की गयी है.'' कविता पोस्‍ट पर अभी तक कोई कमेंट नहीं हैं, निष्‍कर्ष हैं एक तानाशाह का पंचनामा
      
इस कविता में जिसे तथाकथित तानाशाह के ओहदों से नवाजा गया है उसकी गलबंइहा लेनें इस माह के 23-24 जुलाई को साहित्‍य जगत के ही कुछ विशेष नामधारी जिनमें प्रो. कृष्ण दत्त पालीवाल, श्री प्रफूल्ल कोलख्यान, श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव, मधुरेश, श्रीभगवान सिंह, श्री दीपक पाचपोर, जयप्रकाश मानस, शंभुलाल शर्मा वसंत, जया केतकी राज्य के 200 से अधिक साहित्यकार, कवि, शिक्षाविद, डॉ. सुशील त्रिवेदी, सर्वश्री गोपाल राय, रमेश कुंतल मेघ, नंदकिशोर आचार्य, प्रो. अजय तिवारी, जानकी प्रसाद शर्मा, कुमार पंकज, रेवती रमण, सुरेन्द्र स्निग्ध, शंभु गुप्त, विजय शर्मा, अजय वर्मा, डॉ. रोहिताश्व, श्रीप्रकाश मिश्र, ज्योतिष जोशी, डॉ. शशिकला राय, प्रो. चन्द्रलेखा डिसूजा, श्रीभगवान सिंह, भारत भारद्वाज, प्रभात त्रिपाठी, अश्वघोष, पंकज पराशर, गंगा प्रसाद बरसैंया, कालू लाल कुलमी एवं राज्य के आलोचकगण प्रमोद वर्मा स्‍मृति संस्‍थान के कार्यक्रम में रायपुर पधार रहे हैं।

विश्‍वरंजन अपने समूचे कार्यकाल में अन्‍य राज्‍य पुलिस प्रमुखों से ज्‍यादा चर्चा के केन्‍द्र में रहे। विश्‍वरंजन के छत्‍तीसगढ़ में पदभार ग्रहण करने  के बाद उनके साहित्यिक क्रियाकलापों में लगातार जुड़े रहने पर देश व प्रदेश से विरोध 
के स्‍वर लगातार उठते रहे, किन्‍तु तमाम विरोधों के बावजूद मुख्‍यमंत्री जी को विश्‍वरंजन प्रिय रहे। डॉ.रमन को यह भरोसा हो चला था कि नक्‍सल मोर्चे पर दोतरफा वार विश्‍वरंजन ही कर सकते हैं। इसीलिये वे पुलिस प्रमुख के पद पर लगातार तब तक बने रहे जब तक भाजपा की अंर्तशक्ति संघ नें नहीं कहा। डॉ.रमन सरकार के विश्‍वरंजन के साहित्यिक क्रियाकलापों पर विरोध के बावजूद रोक लगाने के बजाए बढ़ावा देना इस बात की साक्षी थी कि सरकार स्‍वयं यह चाहती है कि नक्‍सलवाद से बंदूक के साथ ही वैचारिक ढ़ग से भी निबटा जाए। क्‍योंकि धुर जंगल में मारकाट कर रहे नक्‍सलियों के पीछे शहर में बैठे तथाकथित वैचारिक लोगों का अज्ञात समूह मानसिक रूप से उन्‍हें बल देता है। जिन्‍हें गोली से नहीं विचारों से शिकश्‍त दिया जा सकता है। 

राज्‍य के प्रश्रय में चल रहे सलवा जुड़ुम आन्‍दोलन के मुख्‍य सारथी के रूप में विश्‍वरंजन समय समय पर मीडिया व बुद्धिजीवियों के सम्‍मुख उपस्थित होते रहे हैं। वे अपनी तर्कपूर्ण उत्‍तरों से सदैव इस तथाकथित स्‍वस्‍फूर्त आन्‍दोलन का पक्ष लेते रहे हैं। मानवाधिकार वादियों के छत्‍तीसगढ़ में रूदाली मचाये जाने पर भी उन्‍होंनें सदैव सामने आकर बयान दिया और उनका प्रमुखता से प्रतिरोध भी किया है। छत्‍तीसगढ़ में हो रहे नक्‍सल नरसंहार व संविधान की खुले आम अवहेलना पर वे न केवल एक पुलिस मुखिया के रूप में डटे रहे बल्कि वैचारिक क्रांति लाने के उद्देश्‍य से वैचारिक प्रहार भी करते रहे। नरसंहार व नक्‍सलियों के अमानवीय कृत्‍यों को जनता तक पहुचाने हेतु वे प्रयासरत रहे एवं नरसंहार व बर्बरता के साक्ष्‍य के रूप में चित्र प्रदर्शनियॉं भी जगह-जगह लगवाते रहे ताकि जनता पुलिस व नक्‍सलियों के कृत्‍यों को समझ सके और पुलिस को वैचारिक रूप से जनता का सहयोग मिले। प्रमोद वर्मा स्‍मृति संस्‍थान की स्‍थापना व विश्‍वरंजन के पद पर रहते हुए संस्‍थान के संपादित विविध आयोजनों व संचालन का विरोध भी गाहे बगाहे होते रहा है। प्रदेश के साहित्‍यकार विश्‍वरंजन के इस रथ में कुछ शामिल हुए और कुछ स्‍पष्‍ट रूप से विरोध में खड़े रहे तो कुछ अपनी तटस्‍थता में चुप रहे। 

साहित्‍यकारों-विचारकों के आपसी गुटबाजी से परे सोंचें तो प्रमोद वर्मा स्‍मृति संस्‍थान नें प्रदेश को साहित्यिक क्षितिज पर एक पहचान दी है। संस्‍थान नें लेखक बिरादरी को व नये कलमकारों को अलग-अलग विधा में पारंगत करने के लिए कार्यशाला का आयोजन किया है और साहित्यिक विषयों पर गंभीर विमर्श करवायें हैं। प्रमोद वर्मा की समग्र रचनायें ग्रंथावली के रूप में प्रकाशित कर संस्‍थान नें बहुत सुन्‍दर कार्य किया। संस्‍थान नें अनेक अन्‍य साहित्‍यकारों की कृतियों को भी प्रकाशित कराने में सहयोग दिया है जिससे साहित्‍यकारों में एक आशा की किरण फूटी है। प्रमोद वर्मा स्‍मृति संस्‍थान द्वारा प्रकाशित पत्रिका पाण्‍डुलिपि हिन्‍दी साहित्‍य जगत में एक महत्‍वपूर्ण पत्रिका के रूप में उभरी है।

विश्‍वरंजन के छत्‍तीसगढ़ के साहित्यिक क्षितिज में 
धमाकेदार अवतरण एवं उल्‍लेखनीय अवदान को देखते हुए आशावादियों का मानना था कि इनके मौजूदा कार्यकाल में छत्‍तीसगढ़ शासन इन्‍हें सेवावृद्धि भी देगी और विश्‍वरंजन का साथ दो-तीन वर्ष और मिल पायेगा। बल्कि कुछ साहित्‍यकारों का मानना था कि वैचारिक व्‍यूह जल्‍द ही ध्‍वस्‍त हो जावेंगें। यद्धपि नक्‍सल उन्‍मूलन के लिए सरकार के.पी.एस.गिल जैसे धुरंधर को भी बतौर सलाहकार लेकर आई पर सरकार को कोई फायदा नहीं हुआ। विश्‍वरंजन को स्‍वयं मुख्‍यमंत्री आईबी से लेकर आये तब धमाकेदार प्रवेश नें सबको चौंकाया। इनकी कार्यशैली व चुस्‍ती की जितनी प्रशंसा हुई उतनी ही गजलकार के नाती के रूप में इन्‍हें प्रतिष्ठित करने के प्रोपोगंडे का विरोध भी हुआ। उनके व्‍यक्तित्‍व में एक कवि व चित्रकार के रूप को अनावश्‍यक उभार देने के कार्य से कइयों का मन भी आहत हुआ। हमने भी एक लम्‍बी कविता दे मारी थी। हालांकि इसके बाद जयप्रकाश मानस जी नें इसे कविताई कहा और हमें सुन्‍दर पदों से विभूषित भी किया। मेरे जैसे विरोध के स्‍वरों पर विश्‍वरंजन नें कई-कई बार कहा कि वे इन छोटी-मोटी बातों में अपना दिमाग खराब नहीं करते और अपना समय भी नहीं गंवाते। 

इन दिनों डीजीपी एवं प्रदेश के गृह मंत्री के बीच वैचारिक मदभेद की खबरें भी लगातार समाचार पत्रों में आती रही पर लगता था कि विश्‍वरंजन इन सब बातों से परे शिव बने हुए हैं। अचानक उन्‍हें हटाया जाना यद्यपि अप्रत्‍याशित रहा ...  किन्‍तु विश्‍वरंजन ... विश्‍वरंजन. बने रहे.



संजीव तिवारी

गुरतुर गोठ डाट काम में छत्‍तीसगढ़ी गज़लों की श्रृंखला

कविता, कहानी, लघुकथा फिर व्‍यंग्‍य को एक स्‍वतंत्र विधा के रूप में स्‍थापित करते लोक भाषा छत्‍तीसगढ़ी के कलमकार अब गज़ल को भी एक स्‍वतंत्र विधा के रूप में विकसित कर चुके हैं. छत्‍तीसगढ़ी गज़ल को विश्‍वविद्यालय के हिन्‍दी साहित्‍य के पाठ्यक्रमों में शामिल किया जा चुका है। दो तीन संग्रहों के प्रकाशन के बावजूद अभी यह शैशव काल में ही है, छत्‍तीसगढ़ी भाषा के प्रेमी छत्‍तीसगढ़ी गजलों को अवश्‍य पढ़े और इसके विकास के साक्षी बनें . 


पिछले वर्षों में लोक भाषा भोजपुरी के गज़कार मनोज 'भावुक' के गज़ल संग्रह 'तस्‍वीर जिन्‍दगी' को "भारतीय भाषा परिषद सम्‍मान" दिया जाना इस बात को सिद्ध करता है कि लोक भाषाओं में भी बेहतर गज़ल लिखे जा रहे हैं। जरूरत है लोक भाषाओं के साहित्‍य को हिन्‍दी जगत के सामने लाने की। अमरेन्‍द्र भाई अवधी भाषा के गज़लों को अपने पोर्टल अवधी कै अरघान में प्रस्‍तुत करते रहे हैं। हम गुरतुर गोठ डाट काम में नेट दस्‍तावेजीकरण एवं भविष्‍य की उपयोगिता को देखते हुए छत्‍तीसगढ़ी गज़लों की एक श्रृंखला क्रमश: प्रकाशित कर रहे हैं, अवसर मिलेगा तो विजिट करिएगा.

संग न होई दुई काज भुवालू, हसब ठठाव फुलावहूं गालू : एक निवेदन

गुरतुर गोठ छत्‍तीसगढ़ी में हमनें जून प्रथम सप्‍ताह में छत्‍तीसगढ़ी गज़लों पर केन्द्रित विशेषांक प्रस्‍तुत करने की घोषणा लगाई थी। और उसी दिन से लगातार छत्‍तीसगढ़ के समाचार-पत्रों के छत्‍तीसगढ़ी परिशिष्‍ठों व पत्रिकाओं को खोज-खोज कर हम छत्‍तीसगढ़ी गज़ल एकत्रित कर रहे थे। हमारा प्रयास था कि छत्‍तीसगढ़ी गज़ल लिखने वाले सभी मनीषियों के कम से कम एक गज़ल इसमें संग्रहित किया जाए। दुर्ग के दोनों सरकारी पुस्‍तकालयों व उपलब्‍ध साधनों (पत्र-पत्रिकाओं) से प्रमुख साहित्‍यकारों के गज़ल प्राप्‍त हो गए हैं किन्‍तु हम चाहते थे कि गुरतुर गोठ में सामाग्री प्रकाशन के पूर्व कवि मुकुन्‍द कौशल और रामेश्‍वर वैष्‍णव जी के प्रकाशित छत्‍तीसगढ़ी गज़ल संग्रह का अध्‍ययन अवश्‍य किया जाए और उनमें से आवश्‍यक जानकारी को गुरतुर गोठ में समाहित किया जाए। 

कवि मुकुन्‍द कौशल जी दुर्ग में ही रहते हैं इस कारण विश्‍वास था कि दो-चार दिनों में उनसे मुलाकात हो जावेगी और हम गुरतुर गोठ के इस अंक की तैयारी कर लेंगें। किन्‍तु जब मुकुन्‍द कौशल जी के पास समय था तो मैं कार्य में व्‍यस्‍त था और जब मेरे पास समय था तो मुकुन्‍द जी कार्य में व्‍यस्‍त थे या उनका फोन आउट आफ कवरेज एरिया दिखा रहा था। रोजी-रोटी के और पारिवारिक कार्यों के बीच समय कहॉं गुम होता है पता ही नहीं चलता और दिनों की संख्‍या बढ़ते जाती है। कुल मिला कर मुकुन्‍द कौशल जी की छत्‍तीसगढ़ी गज़ल संग्रह मुझे प्राप्‍त नहीं हो सका। हमने पढ़ा था कि मुकुन्‍द जी के गज़ल संग्रह पर भाषा विज्ञानी डॉ.चित्‍तरंजन कर जी नें छत्‍तीसगढ़ी गजलों पर लम्‍बी और आधिकारिक टिप्‍पणी भी दर्ज की थी। गज़लों के साथ ही डॉ.चित्‍तरंजन कर जी के इस आलेख के अंशों को हम गुरतुर गोठ में देना चाहते थे सो संभव नहीं हो पाया।


अपने नगर में निवासरत कवि मुकुन्‍द कौशल जी से जब मुलाकात नहीं हो सकी तो हमने निराशा में रामेश्‍वर वैष्‍णव जी से भी संपर्क नहीं किया। हॉं इस वाकये के बाद मन में पुन: ये भाव जागृत हुए कि छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य सर्वसुलभ क्‍यूं नहीं है, बाजार के पुस्‍तक दुकानों में ये क्‍यूं उपलब्‍ध नहीं हो पाते। यदि छत्‍तीसगढ़ी गज़ल संग्रह बाजार में मिल रहा होता तो हम उसे बाजार से खरीद लेते, हमारा समय व श्रम भी बचता। संग्रह के अंशों के पुन: प्रकाशन की अनुमति के लिए हमें आदरणीय कविगणों से मात्र फोन से ही चर्चा करनी होती और इतना तो विश्‍वास है कि वे हमें अनुमति दे देते। 

... बहरहाल छत्‍तीसगढ़ी गज़ल संग्रह अलवा-जलवा (बसंत 'नाचीज') डॉ.परदेशीराम वर्मा जी के सौजन्‍य से प्राप्‍त हुआ किन्‍तु यह पर्याप्‍त नहीं है।  आप सभी से अनुरोध है कि यदि आप मुझे कवि मुकुन्‍द कौशल और रामेश्‍वर वैष्‍णव जी सहित अन्‍य कवियों के छत्‍तीसगढ़ी गज़ल संग्रह उपलब्‍ध करा सकें तो बतावें। संग्रह के प्रकाशक का नाम पता चल जाए तो उनसे भी सुविधाजनक रूप से क्रय किया जा सकेगा। यदि नेट पर छत्‍तीसगढ़ी गज़ल से संबंधित कोई आलेख उपलब्‍ध होगी तो भी बतावें। 


व्‍यावसायिक दौड़ में कार्य की व्‍यस्‍तता के साथ आगिंग-ब्‍लॉगिंग, ठकठका कर हसने और मुह फुलाने (तुलसी के मूल भाव को छोड़कर) दोनों को एक साथ साधने की कला है जिस पर हम अभी तक खरे नहीं उतर पाये हैं। आपके सहयोग से हम इस कला को निरंतर सीखने का प्रयास करते रहेंगें। 
पुण्‍यस्‍मरण : आज छत्‍तीसगढ़ी भाषा के प्रति समर्पित विभूति पं.द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' जी की जयंती है।   

सघन हूँ मैं : गॉंव से कस्‍बे का सफर

बहुत कठिन है अपने संबंध में कुछ लिखना। बहुत बार डायरी लिखने की सोंचता रहा किन्‍तु नहीं लिख पाया। अपने संबंध में कुछ लिखना हिम्‍मत का काम है, क्‍योंकि जब हम अपने संबंध में लिख रहे होते हैं तो सुविधा का संतुलन हमारे अच्‍छे व्‍यक्तित्‍व को उभारने की ओर ही होता है। मैं-मैं की आवृत्ति में हम अपने उजले पक्षों को सामने रखते हुए अंधेरे पक्षों पर परदा डालते चलते हैं। कथा-कहानियों व आत्‍मकथाओं की आलोचनात्‍मक व्‍याख्‍या करने वाले स्‍वयं कहते हैं कि जब कथाकार कहानी लिख रहा होता है तो वह अपनी आत्‍मकथा लिख रहा होता है और जब आत्‍मकथा लिख रहा होता है तो कहानी लिखता है। तो यूं समझें कि कहानी और आत्‍मकथा के बीच से तीन-चार मनकें तिथियों के अंतराल में इस ब्‍लॉग में आपके सामने रखने का प्रयास करूंगा।

मेरा जन्‍म सन् 1968 के जनवरी माह में एक गांव में हुआ। मॉं व पिताजी शिक्षित थे और रांका राज के कुलीन जमीदार (राजस्‍व अभिलेख 'वाजिबुल अर्ज 1930' में मालगुजारी-जमीदारी के स्‍थान पर 'लम्‍बरदार' का उल्‍लेख है) परिवार के बड़े बेटे-बहू थे। मै अपने भाई बहनों में सबसे छोटा और चौंथे नम्‍बर का था। मुझसे ठीक बड़ी बहन और मेरे उम्र के बीच लगभग 10 वर्ष का अंतराल था इस बीच मेरे एक भाई और एक बहन बड़ी माता के शिकार होकर परलोक सिधार गए थे। मेरे जन्‍म के पूर्व ही जमीदारी उन्‍मूलन लागू हो चुका था किन्‍तु गांवों में उसका असर कम था इस कारण हमारे अधिकार की भूमि विशाल थी। मेरे किशोर होते तक घर में बीसियों घोड़े और बीसियों जोड़ी बैल के साथ ही पूरा गायों का एक ‘टेन बरदी’ उपलब्‍ध था। घड़ों में दही और घी का भंड़ारन होता था और मेरी एक चाची सिर्फ दूध-दही-घी का काम देखती थी। आज जैसे प्रत्‍येक बच्‍चे के पास छोटी सायकल होती है वैसे ही मेरे व मेरे चचेरे भाईयों के पास घोड़े होते थे।  


मेरे दो चाचा सरकारी सेवा में बाहर नौकरी करते थे। मेरे पिता बड़े होने के कारण गांव में रहते हुए कृषि कार्य देखते थे। एक चाचा गृहस्‍थ होते हुए भी आध्‍यात्‍म में इतने रमें थे कि उनका सारा समय हरिद्वार और इलाहाबाद के मठ-मंदिरों में कटता था। मेरे पिता के चार भाईयों में जब आपस में बटवारा हुआ तब राजस्‍व अभिलेख नहीं देखे गए बल्कि कब्‍जे के अनुसार से सभी भाईयों को हिस्‍सा दे दिया गया। मेरे पिताजी नें अलग होनें के बाद अतिवृष्टि व अनावृष्टि एवं लगातार पड़ते अकालों के बाद जब अपनी भूमि सम्‍पत्ति का सरकारी दस्‍तावेज खंगाला तो उसमें से अधिकतम भूमि कब्‍जे में होते हुए भी घांस दर्ज थे। सो दूसरे भाईयों से कम भूमि में ही संतुष्‍ट इसलिए हो गए क्‍योंकि उनके पिताजी (बुढ़ुवा दाउ) नें उन्‍हें जो दिया वो पाये। मेरी मॉं इससे संतुष्‍ट नहीं थी किन्‍तु जमीदार दादा के रूतबे नें उसे कुछ नहीं कहने दिया और हमने संतुष्टि को स्‍वीकार लिया।

जमीदारी के समय के हमारे दादाजी के अत्‍याचारों नें समयानुसार पाप का रूप लिया और इसके आंच में जमींदारी परिवार धीरे-धीरे हासिये पर जाने लगी। चाचा लोगों के पास खेती से इतर आय के साधन थे सो वे जमे रहे किन्‍तु हमारे पास खेती ही एक साधन था। एक किसान अपनी जिन्‍दगी की आवश्‍यकताओं में खेती को ही दांव पर लगाता है, हमारे खेत भी धीरे-धीरे बिकते गये और हम सिर्फ एक सामान्‍य किसान बनकर रह गए। भिलाई स्‍पात संयंत्र के खुलने के दिनों में मेरे पिताजी की भिलाई स्‍टील प्‍लांट में नौकरी लग गई थी किन्‍तु मेरे जमीदार दादाजी नें मेरे पिताजी को वहां इसलिए नहीं भेजा कि खेती कौन सम्‍हालेगा। मॉं बार-बार दादाजी के इस फैसले को कोसती रही। 

दादाजी और मेरी मॉं की पटरी संभवत: दादाजी के पूरे जीवनकाल में नहीं बैठी। दादाजी महिला स्‍वतंत्रता के घोर विरोधी थे, ‘अच्‍छा ठठा ना डौकी ला, बड़ चढ़-बढ़ के गोठियाथे’ कहते हुए बहुओं को मार खाते, रेरियाते देखना उन्‍हें अच्‍छा लगता था। मेरी मॉं ऐसे परिवेश से मेरे पिताजी के घर में आई थी जो महिलाओं को उचित शिक्षा व समाज में बराबरी का मान देता था किन्‍तु यहॉं उसे अपनी भावनाओं को विवशतापूर्ण दबाना पड़ा। पता नहीं मेरी मॉं की शैक्षणिक योग्‍यता क्‍या थी, किन्‍तु वह कहती थी कि मैं सातवी हिन्‍दी पास हूं। हिन्‍दी के अतिरिक्‍त अंग्रेजी शब्‍दों को पढ़-लिख पाने, कुछ हद तक बोल पाने के कारण हमें ‘सातवी हिन्‍दी’ अटपटा लगता पर हमने कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि यह वर्तमान शिक्षण व्‍यवस्‍था के अनुसार कौन सी डिग्री थी। पिता जी भी सातवी हिन्‍दी ही पास थे किन्‍तु मॉं की मानस प्रतिभा से कम विलक्षण थे। 

जब मैं प्राथमिक से माध्‍यमिक स्‍कूल की दौड़ में मेरे पैत्रिक गांव खम्‍हरिया से सात किलो मीटर दूर कस्‍बा सिमगा में खेतों के मेढों में बने पगडंडियों से पैदल पढ़ने जाने लगा तब मॉं के हाथ में गुरूदत्‍त व गुलशननंदा के साथ ही देवकीनंदन खत्री, भीष्‍म साहनी, नरेन्‍द्र कोहली, रामकुमार 'भ्रमर', हंशराज रहबर, श्रीलाल शुक्‍ल, शानी के उपन्‍यासों व पिताजी के हाथ में कल्‍याण सहित धर्मिक ग्रंथों को पाया। बाद में सारिका, हंस व कादंबिनी जैसी पत्रिकायें नियमित रूप से मेरी बड़ी बहन की सौजन्‍यता से घर की शोभा बढ़ाने लगी। शोभा इसलिये कि मुझे इन पत्रिकाओं की अहमियत तब तक ज्ञात ही नहीं था। जब मैं उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍कूल में आया तब मुझे हिन्‍दी विशिष्‍ठ पढ़ने को मिला और मैं हंस को समझ पाया। उच्‍चतर माध्‍यमिक स्‍कूल में छात्रों को पुस्‍तकालय की सुविधा भी प्रदान की गई और नौंवी से ग्‍यारहवीं तक के तीन साल में मानसरोवर के सभी भाग, गुलीवर-सिंदबाद यात्रा व पुस्‍तकालय के सभी हिन्‍दी साहित्‍य के पुस्‍तकों को क्रमश: जारी कराया जिसे मैं तो कम पर मेरी मॉं नें पूरी लगन से पढ़ा। हिन्‍दी माथे की बिन्‍दी और चिन्‍दी-चिन्‍दी होती हिन्‍दी जैसे वादविवाद के लिए नोट्स रटवाए, श्रीकृष्‍ण 'सरल' की पंक्तियॉं 'होंगें वे कोई और जो मनाए जन्‍म दिवस, मेरा नाता तो रहा मरण त्‍यौहारों से' मन में बसाया। 

मॉं के संबंध में और भी बहुत कुछ स्‍मृतियों में है किन्‍तु यहॉं उन्‍हें विस्‍तार नहीं दूंगा, आगे संक्षिप्‍त में मेरे गांव खम्‍हरिया से भिलाई व्‍हाया रायपुर आने के संबंध में बतलाउंगा।

संजीव तिवारी 

हा-हा, ही-ही से परे ब्‍लॉग जगत में छत्‍तीसगढ़ का नवा बिहान : जिम्‍मेदार ब्‍लॉ-ब्‍लॉं

कल  जीचाट ठेले में चेटियाते हुए एक अग्रज नें चिट्ठाचर्चा का लिंक दिया 'यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने हुआ' । चिट्ठाचर्चा में लगे लिंक के सहारे रचना जी के पोस्‍टों पर नजर पड़ी जिसमें उनके नारी ब्‍लाग को बंद करने का फैसला और बिना लाग लपेट में मठाधीशों की सूची और रचना जी के पसंद के चिट्ठों की सूची देखने को मिली, दुख हुआ कि इतना समय-श्रम, तेल-मालिस-पैसा लुटाने के बावजूद हमारा नाम मठाधीश के रूप में नहीं है । खैर ... फुरसतिया अनूप जी नें बहुत दिनों बाद चिट्ठा चर्चा लिखा और उसमें जो लिंक मिले उससे ब्‍लॉग जगत की ताजा हलचलों की जानकारी हमें मिली। अनूप जी नें वहां लिखा कि 'हमारे मौज-मजे वाले अंदाज की रचना जी अक्सर खिंचाईं करती रहीं। उनका कहना है कि ब्लागजगत के शुरुआती गैरजिम्मेदाराना रुख के लिये बहुत कुछ जिम्मेदारी हमारी है। अगर हम हा-हा, ही-ही नहीं करते रहते तो हिन्दी ब्लागिंग की शुरआत कुछ बेहतर होती।'  इसे पढ़ते हुए मुस्‍कान लबो पर छा गई, सचमुच में मौजों की दास्‍तान है यह, फुरसतिया के मौज की लहर में बड़े-बड़े की हर-हर गंगे हो गई है।

हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत में मौज लेने वाले पोस्‍टों की शुरूआती दौर में आवश्‍यकता शायद रही हो किन्‍तु अब मौज में मजा लेने वाले लोगों के अतिरिक्‍त ऐसे पाठकों की संख्‍या भी निरंतर बढ़ रही है जो 'सिंहावलोकन',  'जानकी पुल' और 'रचनाकार' जैसे ब्‍लॉगों में रमते हैं। अब पाठकों नें अपनी पसंद के अनुसार से अपना वर्ग चुन लिया है। हा-हा, ही-ही करने वाले एक तरफ तो एक तरफ जिन्‍हें इनकी परवाह नहीं है, वहीं दूसरी तरफ ऐसे भी हैं जो इन दोनों के बीच अपना संतुलन बनाए हुए हैं। हिन्‍दी ब्‍लॉग के शुरूआती दिनों से अभी तक जिसे व्‍यवहार रूप में हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत कहा जा रहा है उसमें कुछ गंभीर लेखन के अतिरिक्‍त हा-हा, ही-ही ही अधिक है। अब ये अलग बात है कि फुरसतिया जी जैसे ताल ठोंक कर अपने आप को गैरजिम्‍मेदार कहने का साहस बहुत कम लोगों में है। सब अपने आप को जिम्‍मेदार गंभीर लेखक/ब्‍लागर समझते हैं क्‍योंकि हम सभी अपने आप में आत्‍ममुग्‍ध हैं, हमें लगता है कि हमारा ब्‍लॉग अच्‍छा है, हमारी भाषा, हमारा ज्ञान अप्रतिम है। हम क्‍यूं स्‍वीकारें कि हम हा-हा, ही-ही की दुकान के सहारे यहॉं तक आ पहुचे हैं। 

संतोष कुमार
हा-हा, ही-ही ब्‍लॉ-ब्‍लॉ के बीच हम निरंतर छत्‍तीसगढ़ के ब्‍लॉगों में रमे हुए हैं, यहॉं के ब्‍लॉगरों के द्वारा बिना ढपली बजाए लिखे जा रहे पोस्‍टों को पढ़ रहे हैं। हम अपनी स्‍वयं की रूचि के अनुसार छत्‍तीसगढ़ के संबंध में लिखने वाले ब्‍लॉगों को प्राथमिकता देते हुए उनका लिंक यहां देने का प्रयास भी कर रहे हैं। ऐसे ही कुछ ब्‍लॉगों की जानकारी हमने पिछले पोस्‍ट में दिया था, आज इस पोस्‍ट में छत्‍तीसगढ़ के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र गुंडरदेही से संचालित एक ब्‍लॉग नवा बिहान से हम आपको परिचित करा रहे हैं। यह ब्‍लॉग संतोष कुमार जी का है इसमें छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दकोश व व्‍याकरण एवं भाषा से संबंधित कई ग्रंथों के लेखक व भाषाविज्ञानी प्रो.चंद्रकुमार चंद्राकर जी के आलेख संग्रहित हैं। इस ब्‍लॉग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें क्रमश: छत्‍तीसगढ़ी मुहावरा भी पब्लिश किया जा रहा है। आप भी देखें छत्‍तीसगढ़ के नवा बिहान को एवं संतोष जी को प्रोत्‍साहित करें, ताकि हमें ज्ञान का यह खजाना ब्‍लॉग के सहारे मिलता रहे।

संजीव तिवारी  

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...