श्रीलंका- विलुप्त हुए चीते

वेल्‍लूपिल्‍लई प्रभाकरन
जनश्रुतियां व लोक साहित्य किस तरह से इतिहास को पुष्ट करती हैं, इसका बेहतरीन उदाहरण मलिक मोहम्मद जायसी के 'पद्मावत' में देखा जा सकता है। इस ग्रंथ के आरंभ में सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के लिए मेवाड़ के गोहिल राजा रतन सिंह की सिंहलद्वीप (श्रीलंका) की यात्रा का रोचक विवरण है। यह जनश्रुति (वस्तुतः यह जनश्रुति ही है जिसका पद्मावत में उपयोग कर लिया गया है), उस इतिहास पर भारी पड़ गयी जिसके अनुसार यह माना जाता रहा कि श्रीलंका को तमिलों ने आबाद किया, क्योंकि भाषाशास्त्रियों व नृतत्वशास्त्रियों ने ऐसे ढेरों प्रमाण दिये जिससे स्‍पष्‍ट होता है कि प्रारम्भिक श्रीलंकाई विशेषकर सिंहली, तमिलों के बजाय गुजरात के काठियावाड़ व राजस्थान के मेवाड़ के लोगों से अधिक नजदीक है, जो सदियों पहले व्यापार के लिए, साहसिक अभियानों में यहां आए। सिंहली और तमिल समाज का यही नस्ली विभाजन वहां चले गृहयुद्ध का प्रमुख कारण भी था।

स्पष्टतः श्रीलंका अपने प्रारम्भिक काल से ही भारत से जुड़ा रहा है। पौराणिक काल की रामायण हो या चेरों व चोलों का ऐतिहासिक विवरण, सभी में श्रीलंका का उल्लेख है। श्रीलंका के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ संघमित्रा व महेन्द्र के वहां पहुंचने के बाद आया। जब पूरा देश उनके उपदेशों से प्रभावित होकर धम्म के मार्ग पर चलने को राजी हो गया। तब बहुत से बौद्ध विद्वान भी अपने धार्मिक ग्रंथों के साथ यहां आये। इन ग्रन्थों को कैण्डी के प्रसिद्ध दंत मंदिर में बहुत ही श्रद्धापूर्वक सहेज कर रखा गया, जहां वे उन मुस्लिम आक्रांताओं से भी सुरक्षित थे जो उस समय उत्तर भारत में उत्पात मचा रहे थे। कालांतर में इन्हीं धर्मग्रन्थों में से दीपवंश व महावंश, भारतीय इतिहास में तिथि निर्धारण व पुनर्रचना के लिए महत्वपूर्ण साबित हुए। श्रीलंका के इतिहास में और भी बहुत से रोचक तथ्य है पर उनकी चर्चा फिर कभी। फिलहाल उस युद्ध की चर्चा, जिसे वेल्लु पिल्‍लई प्रभाकरन व उनके तमिल चीतों ने दशकों तक लड़ा।

तमिल, यद्यपि श्रीलंका में बहुत पहले से थे, पर औपनिवेशिक शासन के दौरान उन्हें मजदूरों के रुप में बड़ी संख्‍या में लाया गया। 1948 में श्रीलंका की आजादी तक, उनकी संख्‍या बढ़कर, कुल जनसंख्‍या का 17% तक हो गया। आजादी के बाद आयी सिंहली सरकार ने तमिलों के साथ धार्मिक व नस्ली आधार पर भेदभाव किया व विरोध करने पर उसे बर्बरता से कुचला, जिसके प्रतिरोध में तमिल उग्रवादी आन्दोलन का जन्म हुआ। प्रारंभ में ऐसे कई संगठन थे, जो हथियारों के दम पर राजनैतिक सुधारों के लिए लड़ रहे थे, किन्तु प्रभाकरन ने जाफना के मेयर की हत्या करके जिस नये संगठन एलटीटीई-लिट्टे (लिबरेशन टाईगर ऑफ तमिल ईलम) की नींव रखी, वह अपने पूर्वगामियों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली व खूंखार था तथा जिसने स्वतंत्र तमिल राष्ट्र को लक्ष्य बनाकर श्रीलंकाई सरकार के खिलाफ यु़द्ध ही छोड़ दिया।

एलटीटीई एयर विंग के लड़ाके

सिंहली प्रताड़ना से त्रस्त तमिल जनता को प्रभाकरन उद्धारक की तरह नजर आया और जाफना से शुरु हुआ यह विद्रोह धीरे-धीरे समस्त उत्तर-पूर्वी श्रीलंका में फैल गया तथा इन क्षेत्रों का नियंत्रण श्रीलंका की सरकार के हाथों से निकलकर लिट्टे के पास आ गया। लिट्टे की इस चमत्कारिक सफलता के पीछे भारतीय खुफिया ऐजेन्सी 'रा' (RAW) का भी महत्वपूर्ण योगदान था, जो उसे सैन्य प्रशिक्षण, हथियार व खुफिया सूचनाएं उपलब्ध करा रही थी। भारत में प्रशिक्षित लिट्टे के पहले दस्ते में (जिन्हें हिमाचल व उत्तराखण्ड में प्रशिक्षण दिया गया था), वे लोग भी शामिल थे जिन्होंने बाद में पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
दरअसल तत्कालीन भारतीय सरकार श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के सख्‍त खिलाफ थी और उनको वाजिब अधिकार दिलाना चाहती थी। इसीलिए जब श्रीलंकाई सरकार ने लिट्टे द्वारा अधिकृत किये गये क्षेत्रों की आर्थिक नाकेबंदी कर दी, तब तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भारतीय वायुसेना की मदद से यहां खाद्यान्न, दवाईयां, ईधन व अन्य जरूरी वस्तुएं भिजवाईं, जिन्हें ले जा रहे मालवाही विमानों के साथ युद्धक विमान भी थे। लिट्टे को भारत सरकार के इस खुले समर्थन से श्रीलंकाई सरकार न सिर्फ घबराई, वरन् खीझते हुए उसने तमिलों को समान नागरिक अधिकार व स्वायत्त राज्य देने को सहमत हो गयी, बशर्ते तमिल अपना सशस्त्र संघर्ष त्याग दें। भारत सरकार की मध्यस्थता में एक समझौता भी हुआ जिसमें राजीव गांधी, प्रेमदास व प्रभाकरन के हस्ताक्षर थे (ये तीन ही इस युद्ध के भेट चढ़े), परन्तु वापस जाफना लौटते ही प्रभाकरन, दिल्ली के अशोका होटल में हुए अपने अपमान को आधार बनाकर इस समझौते से मुकर गया और युद्ध पुनः शुरु हो गया। अब भारत सरकार के सामने विचित्र स्थिति थी क्योंकि वह इस समझौते की मध्यस्थ व गारंटर थी। अतः उसे वहां शांति स्थापित करने के लिए सेना भेजनी पड़ी, जिसे श्रीलंकाई सरकार के उचित सहयोग न मिल पाने की वजह से बिना किसी खास उपलब्धि के वापस लौटना पड़ा। प्रमाकरन इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ उसने 1991 में श्री पेराम्बदूर की चुनावी जनसभा में राजीव गांधी की हत्या करा दी। इसी तरह 1993 में एक आत्मघाती हमले में प्रेमदास को भी मार डाला गया।

राजीव गांधी की हत्या ने पूरे संघर्ष की दिशा ही बदल दी। यह बदलाव धीरे-धीरे पर निर्णायक हुआ। 1991 में सत्ता में आयी पीवी नरसिंहराव की सरकार ने यद्यपि लिट्टे के खिलाफ कोई कठोर कार्यवाही तो नहीं की, पर लिट्टे को मिलने वाला भारतीय समर्थन खत्म कर दिया। हालांकि लिट्टे पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि उसने अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा व मलेशिया इत्यादि देशों में रहने वाले तमिलों के माध्यम से धन व हथियारों का इंतजाम कर लिया, परन्तु जब 2005 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए सत्ता में आयी तो उसने न सिर्फ हिन्द महासागर से लिट्टे के लिए होने वाली हथियारों की आपूर्ति पर रोक लगाना शुरु किया वरन् श्रीलंकाई सरकार को भी लिट्टे के दमन के लिए आवश्‍यक हथियारों की खरीद करने की छूट दे दी, जिसका परिणाम हुआ कि लिट्टे के नियंत्रण क्षेत्र का दायरा धीरे-धीरे सिमटने लगा। बढ़ते दबाव से लिट्टे में भी फूट पड़ गयी और एक समूह जनरल करुणा ने नेतृत्व में अलग हो गया। लगभग इसी समय यह तय हो गया कि अब प्रभाकरण के पास गिनती के ही दिन बचे है और अंततः वह 18/05/09 को वन्नी के पास हुई मुठभेड़ के बाद अपने साथी पोट्टू अम्मोन व पुत्र चार्ल्स एंटोनी के साथ मृत पाया गया। शायद पराजय सुनिश्‍िचत जानकर सभी ने आत्महत्या कर ली।
मृत प्रभाकरन 

लिट्टे अब तक सभी आतंकवादी संगठनों में सबसे अधिक दुर्दान्त था। इसकी मारक क्षमता के आगे अल कायदा, हमास, पीएलए, तलिबान या आईआरए सभी बौने पड़ते हैं। यह एकमात्र ऐसा आतंकवादी संगठन था जिसके पास अपनी नौसेना व वायुसेना भी थी। इसकी वायुसेना ने कोलम्बो तक पर सफलतापूर्वक हवाई हमला किया और नौसेना ने श्रीलंका से सैकड़ों समुद्री नाटीकल मील दूर मालदीव पर हमला कर उस पर कब्जा करने की कोशिश की। गनीमत कि सही समय पर भारतीय नौसेना वहां पहुंच गयी, अगर कुछ घंटों की देरी होती तो मालद्वीप के राष्ट्रपति सहित पूरा देश लिट्टे के कब्जे में होता। इसके अलावा आत्मघाती हमलों की शुरुआत भी लिट्टे ने की थी। इसका कैडर इतना समर्पित था कि ये पकड़े जाने की स्थिति में सायनाइड की कैप्सूल खाकर आत्महत्या कर लेते। यद्‌यपि तमिल दिलेरी से लड़े पर उनका शीर्ष नेतृत्व अपनी सैनिक सफलता को राजनैतिक सफलता में बदलने में न सिर्फ असफल रहा वरन कई मौकों पर गजब की राजनैतिक मूर्खता भी दिखाई।
कैंडी का दंतस्‍तूप 
दरअसल सभी पृथकतावादी आन्दोलनों में शस्त्र उठाने का प्रमुख उद्‌देश्‍य अपनी ताकत प्रदर्शित करना भर होता है, ताकि विरोधी पक्ष को समझौते की मेज तक ला कर अपनी मांगे मनवायी जा सकें। फिलिस्तिनी मुक्ति मोर्चा के यासिर अराफात इसके सटीक उदाहरण हैं जिन्होंने आपेक्षाकृत कम खून बहाया और इजराईल-अमेरिका जैसे अधिक शक्तिशाली देशों से आखिरकार स्वतंत्र फिलिस्तीन ले ही लिया। अगर प्रभाकरन भी दिल्ली समझौते के अनुरूप स्वायत्त राज्य के लिए सहमत हो जाते तो उन्हें भारत का समर्थन भी मिलता रहता और स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का विकल्प भी खुला रहता है। पर उन्होंने एक समुदाय के अधिकारों की लड़ाई को अपने व्यक्तिगत अहंकार की लड़ाई में बदलकर तमिलों का जो अहित किया, उसे तमिल सदियों तक न भूल सकेंगे। 

अब चूंकि श्रीलंकाई सरकार यह युध्द जीत चुकी है तब उसे चाहिए कि उदार मन से तमिलों को समान नागरिक अधिकार देते हुए उनकी न्यायोचित मांगो को पूरा कर उन कारणों को ही खत्म कर दे जिसके चलते लिट्टे का जन्म हुआ था ताकि शांति स्थायी हो सके। 




समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 
इस ब्‍लॉग में विवेक राज सिंह जी के पूर्व आलेख - 

सभी चित्र गूगल खोज से साभार

दसमत कैना (किस्सा नौ लाख ओड़िया का) रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव


कैना यानी कन्या। ध्यातव्य है कि छत्तीसगढ़ी कथा गीतों में स्त्री की उपस्थिति भरपूर है। स्त्री पात्रों को केंद्र में रखकर गाई जाने वाली गाथाओं में स्त्री की वेदना और पारिवारिक जीवन में उसकी दोयम दर्जे की हैसियत के इंगित हैं। इसके बरक्स उसकी जिजीविषा और शक्ति को व्यक्त करने वाली रचनाएं भी हैं। इन गाथाओं में ब्याहता और क्वांरी कन्याएं हैं जिनके लिये कैना संज्ञा का प्रयोग किया गया है। किन्तु दसमत-कथागीत की नायिका के लिये जिस अपनत्व से कैना पद जोड़ा गया है वह परंपरा मात्र नहीं लगता बल्कि इसमें विशेष अर्थ की व्यंजना ध्वनित होती है। इस संबोधन में दसमत के किसी विशेष समुदाय की प्रतिनिधि कन्या होने का भाव व्यक्त होता है। यह कथा 'दसमत ओड़निन' और 'नौ लाख ओड़िया' के नाम से भी जानी जाती रही है। इस कथागीत की सम्प्रेष्य वस्तु इसे सिध्द भी करती है। दसमत की गाथा किसी व्यक्ति की वीरता पर आधारित ना होकर, एक मिहनतकश समुदाय के स्वाभिमान और स्त्री के आत्मसम्मान की कथा को अद्भुत सादगी से व्यक्त करती है। लोकमानस में विभिन्न स्थानों और मानव समुदायों जातियों के संबंध में कहावतें प्रचलित हुआ करती थीं। 'छत्तीसगढ़ का इतिहास' के लेखक इतिहासविद डॉ. रमेंद्र मिश्र ने ऐसी ही एक कहावत का उल्लेख किया है- 

धन बर बखानेव धमधा ल भइया फेर
अऊ गरब बखानों औड़ियान हो
गाये नांईस बर बने कवर्धा हे ग
फेर चारा सहसपुर राज ये।

छत्तीसगढ़ी कथा गायन परंपरा का यह लुप्त प्राय कथागीत लोकवार्ता का अमूल्य रत्न है। दसमत कैना के कथा गायन के दो बिन्दु हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। प्रथम बिन्दु का संबंध कथा की अंतर्वस्तु से है जिसके केंद्र में सामंती ठसक तथा नामी के भोग की लिप्सा के विरुध्द एक श्रमजीवी समाज का आक्रोश और विद्रोह की सुस्पष्ट गूंज है। यह ना तो वीराख्यानक युध्द कथा है और ना ही किसी अलौकिक घटना युक्त बोधकथा। इस कथागीत में सामंती समाज का वर्ग चरित्र उभरता है। बेशक उसमें दो प्रमुख चरित्र दसमत ओड़निन और राजा महान देव कथा के केंद्र में हैं लेकिन उसका पूरा ताना बाना एक विशेष जाति के सामुदायिक जीवन से गहराई से जुड़ा हुआ है। दसमत की कथा से मिलती-जुलती जस्मा ओड़न की कथा गुजरात, राजस्थान और मालवा में भी लोकप्रिय रही है। यह लोक गाथा इस अर्थ में विशिष्ट है कि लोक कलाकारों ने स्थानीय भूगोल को शामिल करते हुए, विभिन्न पाठों तथा कला रुपों के माध्यम से लोक मानस को इसके द्वारा उध्देलित किया।

ध्यानाकर्षण करने वाला दूसरा बिन्दु यह है कि छत्तीसगढ में इस कथा का गायन देवार जाति के कलाकारों के द्वारा ही किया जाता रहा। जिस तरह बांस गीत, विशेष रूप से यादवों की कला है, उसी तरह 'दसमत कैना' देवारों की विशिष्ट गायकी रही है। बांस गीतों में यादव जाति के नायकों की शौर्यगाथाओं की स्मृतियों को आलोकित करने की तीव्र आकांक्षा कथा का रुप लेती है जबकि दसमत कैना की कथा देवारों की जातीय स्मृति से संबंधित नहीं है। उनकी जातीय अस्मिता की गाथा तो 'गोपालराम विझंवार' के कथा गीत से जुड़ती है। बावजूद इसके दसमत कैना की कथा देवार जातिकी गायकी की अचूक पहचान है। पंडवानी, चंदैनी, ढोला आदि गाथाएं विभिन्न जातियों के कलाकार गाते हैं इसलिये विभिन्न पाठों के रुप में उनकी प्रवहमानता समय के दबावों से उत्पन्न परिवर्तनों के बावजूद बनी रही है किंतु दसमत कैना की गायकी लुप्त प्राय है। इस कथागीत को धारण करने वाली देवार जाति की जीवन पध्दति का बदलाव इसका कारण है। कभी इस घुमंतू जाति का व्यवसाय ही प्रमुख रुप से नाच-गाना रहा है। आज की बदली हुई जीवन शैली में देवार जाति की नई पीढ़ी यदि वही व्यवसाय नहीं अपना रही है तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। 

भारतवर्ष में लोक कथाओं और लोकाख्यानों का विशाल भंडार है। यदि हम इस लोकवृत्त में गहराई से अवगाहन करें तो हमारी 'विविधता में एकता' के पुष्ट प्रमाण तो हमारी लोक संस्कृति भी है। सैकड़ों वर्षों से ये किस्से कहानियां इस विशाल देश के विराट जनसमूह के अंतर्मन के जीवन सौंदर्य और आस्वाद के धरातल की समरूपता को प्रतिबिंबित करती रही हैं। दसमत ओड़निन का कथा गीत गुजरात, राजस्थान, मालवा में प्रचलित जस्मा ओडन की लोक कथा से आश्चर्यजनक रुप से मेल खाता है। जस्मा की कहानी गीत और लोक नाटय के रुप में उक्त क्षेत्रों में लोकप्रिय है। हम छत्तीसगढ़ी कथा गीत दसमत कैना पर चर्चा करने के पूर्व इस कथा के समानान्तर प्रचलित 'जस्मा ओडन' से भी परिचय प्राप्त करें। जस्मा ओडन का किस्सा ओड नामक जनजाति की सुंदरी स्त्री जस्मा से जुड़ी है। बारहवीं सदी में गुजरात में खंगार वंश का सिध्दराज जयसिंह एक प्रतापी नरेश हुआ जो जस्मा पर आसक्त हो गया था। जयसिंह के राजकवि बारोट ने जस्मा के अपूर्व सौंदर्य का वर्णन अपने स्वामी के समक्ष किया। रुप लोभी राजा का मन जस्मा को पाने के लिये बेचैन हो गया। 

जस्मा का विवाह रुपा नाम के एक कुरुप व्यक्ति से हुआ था जिसे उसने अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लिया था। अपने मिहनतकश कबीले में वह अपने परिवार के साथ संतुष्ट और प्रसन्न थी। ओड मिहनत मजदूरी करने वाला समुदाय था जिसे कुएं और तालाब खोदने में निपुण माना जाता था। उनके दुर्भाग्य से एक बार भीषण दुर्भिक्ष पड़ा। उधर कवि बारोट की सलाह से सिध्दराज जय सिंह ने यह मुनादी करवा दी कि पाटन की सहस्त्र लिंग झील को बंधवाने का काम लगाया गया है ताकि अकाल पीड़ित क्षमता को आजीविका प्राप्त हो सके। इस घोषणा को सुनकर गुजरात, राजस्थान और मालवा के ओड पाटन पहुंचे और उन्होंने झील के किनारे अपने डेरे लगा लिये। रूपलोभी राजा झील पर काम के निरीक्षण के बहाने जस्मा ओडन को देखने पहुंचा। जस्मा के सौंदर्य को देखकर वह अपना संयम खो देता है और अपनी आसक्ति प्रकट करता है। राजस्थान की लोक संस्कृतिविद रानी लक्ष्मी कुमारी चूण्डावत ने 'जसमल ओडन' शीर्षक से इस लोक कथा को राजस्थानी भाषा में लिखा है। राव खंगार (सिध्दराज जयसिंह) झील के बांध पर जस्मा को रोककर कहता है

राजा जी बुलावैं ओ जसमल ओडणी
ए जसमल। राठियां जोवण आव।
आछी म्हाने लागे ओडणी ए,
जसमल था पर रीझयो राव खंगार।

जस्मा को पाने के लोभ में राजा राजमहल छोड़कर झील के पास ही अपना तंबू लगवा लेता है। ओड-ओडन मिट्टी खोदते थे और राजा बैठे बैठे जस्मा की रुप माधुरी का पान करता था। इतना ही नहीं, राजा जस्मा का ध्यान आकृष्ट करने के लिये उसे कंकड़ फेंक कर मारता है। 

राजाजी बैठा है पाल तलाब री,
जसमल चुग-चुग कांकरड़ी सी बाय
मिरगानैणी भरवण ए जसमल,
था पर रीयो राव खंगार।

जसमल ने कहा 'अरे हरामी राजा, अकल रख तुझे लाज नहीं आती। राजा होकर प्रजा की इज्‍जत लेता है।' 
जस्मा के किस्से को गुजरात के लोक नाटय 'भवाई' में भी प्रस्तुत करने की परंपरा है। इस नाटय रुप का नाम 'सती जस्मा ओडन का वेश है।' इस पारंपरिक भवाई वेश का गुजराती से हिन्दी में अनुवाद प्रसिध्द रंगकर्मी शांता गांधी के सौजन्य से राष्ट्रीय नाटय विद्यालय को प्राप्त हुआ जिसकी पुनर्सजना स्वयं शांता गांधी ने की। भवाई शैली में ही उसकी कई प्रस्तुतियां हिन्दी तथा अन्य आंचलिक बोलियों में की गई। 

जस्मा ओड़न के भवाई वेश में प्राचीन भारतीय शैली का अनुसरण करते हुए जस्मा को शापग्रस्त अप्सरा बतलाया गया है जिसने इंद्र के आदेश पर एक ऋषि की तपस्या को भंग करने का अपराध किया था फल स्वरुप उसे मनुष्य जाति में जन्म लेना पड़ा। इस कथा में यह दैवी स्पर्श राजा के कुकर्म को तरल बनाता है। बावजूद इसके जमीन से जुड़कर ऐसी किसी कथा की वस्तु में निहित संघर्ष पूरी तरह अदृश्य नहीं हो पाता। भवाई वेश में भी राजा सिध्दराज जयसिंह मिट्टी ठोती हुई जस्मा को महल की रानी बनाने का लालच देता है किन्तु जस्मा अपनी मिहनत-मजूरी को महलों के सुख की अपेक्षा अधिक महत्व देती है- 

राजा जस्मा, तुम क्यों खोदती हो माटी रे
बनो हमारी रानी रे।
जस्मा भाये मुझे मेरी माटी रे
ना होऊँ तेरी रानी रे।
राजा-ओ जस्मा तेरे लिये है भेडी महल
तुझे क्यों रहना ऐसी झोपड़ी में रे।
जस्मा-भेडी महल तेरी रानी को
भाय मुझे भली मेरी झोपड़ी रे।

जस्मा को पाने के लिये राजा उसके पति की हत्या कर देता है। ओडों द्वारा विरोध किये जाने पर राजा उनका संहार कर देता है। जस्मा अपने पति के शव के साथ आत्मदाह कर लेती है और राजा हाथ मलता रह जाता है। लोक में प्रचलित कथा में इंद्र के द्वारा ओडों को पुन: जीवन दान मिलता है। इस तरह एक टे्रजेडी को सुखांत बना दिया गया है।

छत्तीसगढ़ी कथा-गीत 'दसमत ओड़निन'

इसे हम पुन: रेखांकित करते हैं कि दसमत कैना की कथा देवार गायन परंपरा की अचूक पहचान हैं। यह गाथा पीढ़ी दर पीढ़ी देवार गायक गाते रहे हैं। अन्य जाति के लोक कलाकारों की तुलना में देवार कलाकार नितांत निरक्षर रहे हैं और उनका उच्चारण भी छत्तीसगढ़ की अन्य जातियों के कलाकारों से भिन्न रहा है। देवार जनजाति का अध्ययन करने वालों ने उन्हें स्थानों के आधार पर वर्गीकृत करते हुए यह सूचित किया है कि रायपुरिया देवारों का नाटय सारंगी और रतनपुरिया देवारों का वाद्य ढुंगरु कहलाता था। इस वाद्य को रुंझू वाद्य भी कहा जाता है। यह वाद्य गज (हाथा) से बजाया जाता है। इस वाद्य की संगत के कारण विशेष प्रकार का सुर लगाये बिना देवारों की गायन पध्दति से न्याय नहीं किया जा सकता। घुमन्तू जाति होने के कारण कथा के पाठ में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। मूल कथा की स्थिरता के बावजूद कथा के कुछ अंशों में जो परिवर्तन आया है वह कथा के मन्तव्य को बदल देते हैं। विशेष रुप से इस कथा के पाठों के अंतिम अंशों के कारण तो उसके निहितार्थ को भिन्न दिशाएं मिलती हैं। यह अलग विश्लेषण का विषय है। यहां हम दसमत कैना की कथा के विभिन्न पाठों के आधार पर कथानक का एक क्रम निर्धारित कर रहे हैं।

इस लोक आख्यान का कथानक हम निम्न लिखित पाठों के आधार पर प्रस्तुत कर रहे हैं:-

1. रायपुर जिले के भाठापारा जनपद स्थित सुहेला गांव के भैंसवार देवार की वाचिक प्रस्तुति का ध्वन्यांकित पाठ। सौजन्य: खुमान साव, दलेश्वर साहू। लिप्यंतर एवं हिन्दी अंतरण: व जीवन यदु। साभार लोक मड़ई 2004।
2. गण्डई जिला राजनांदगांव में चैतराम देवार और उनके भाई करिया देवार का ध्वनांकित पाठ। सौजन्य पीसी लाल यादव, लिप्यंतर एवं हिन्दी अंतरण: पीसीलाल यादव। 
3. ग्राम कुकुसदा, जिला बिलासपुर की लोक कलाकार श्रीमती रेखा देवार की प्रस्तुति का दृष्यांकन ध्वन्यांकन एवं उनकी अप्रकाशित पांडुलिपि।
4. म.प्र. आदिवासी लोक कला परिषद द्वारा प्रकाशित मोनोग्राफ 'देवार' में प्रकाशित पाठ निरंजन महावर। 
5. देवार कलाकारों को सुनकर लिपिबध्द करने वाले डॉ. सोनऊराम निर्मलकर ग्राम झलमला, जिला जांजगीर के सौजन्य से प्राप्त सामग्री।

प्राप्त सभी पाठ मूलकथा का आधार थामकर भी एक दूसरे से कुछ भिन्न हैं। कुछ पाठों की कथा में व्यतिक्रम है। वृध्द कलाकारों का स्मृति विचलन भी कथा प्रवाह को खंडित करता है। इस संदर्भ में समीक्षक जय प्रकाश का कथन दृष्टव्य है- 'दरअसल यह समूचा समाज अप्रत्याशित तीव्रता के साथ रुपांतरित हो रहा है, जिसकी जीवनचर्या में लोकवार्ताएं कभी निरंतर स्पंदित हुआ करती थीं। लोक स्मृति में क्षरण होने से ऐसे जानकार बड़ी मुश्किल से मिल पाते हैं जिन्हें लोकवार्ताएं कण्ठस्थ हों। खास तौर से गाथाओं के संकलन में यह कठिनाई बहुत प्रत्यक्ष है कि गाथा गायकों की संख्या अब बहुत कम रह गई है।'10 स्थान, आवश्यकता और अपनी इच्छा के अनुसार लोक कलाकार कथा के प्रसंगों को छोटा या बड़ा भी कर लेते हैं।

दसमत कैना इस कथा गीत के अनुसार एक राजपुत्री है जो एक गरीब उड़िया सुदन बिहइया से ब्याह दी गई थी अत: वह दसमत ओड़निन के नाम से जानी गई। उसके राजा पिता ब्राह्मण जाति के बतलाये गये हैं। यानी इस कथा का प्रारंभ ही एक वैषम्य से होता है। विभिन्न पाठों में दसमत के पिता के नाम और उसके नगर के नामों में अंतर है। जस्मा ओडन की कथा में पात्रों के नाम और स्थान में एक सुनिश्चितता है जबकि दसमत कैना में कुछ स्थान अवश्य गाथा क्षेत्र के रुप में प्रसिध्द हैं किन्तु दसमत के परिवार की पृष्ठभूमि और उसका ओड़िया समाज से संबंध बैठाने वाला प्रसंग एक अन्य प्रचलित लोक कथा का जोड़ लगता है। साथ ही दसमत के पिता, उसकी जाति और कथा गीत के प्रमुख पुरुष पात्र (जिसे खलनायक ही कहा जाना उचित है) के साथ चाचा-भतीजे के संबंध में बैठाने में कल्पना तत्व सुस्पष्ट है इसलिये इस कथा गीत की पृष्ठभूमि छत्तीसगढ़ में घटी घटना के रुप में सिध्द करने के लिये इतिहास संबंधी दूर की कौड़ी लाना एक व्यर्थ का श्रम होगा। यह अवश्य कहा जा सकता है कि दसमत कैना की गाथा छत्तीसगढ़ की लोक गायन परंपरा की अपनी मौलिकता है जिसका वस्तु तत्व जितना गहन गंभीर है, उसका कलापक्ष भी उतना ही मोहक और अद्वितीय है। इसे छत्तीसगढ़ के लोक कला रुप में देखना ही उचित है। किसी काव्य रुप के विषय में तुलसीदास की उक्ति अत्यंत सार्थक है-मणि मानिक मुक्ता छवि जैसी। अहि गिरि गजसिर सोहन तैसी। नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहि सकल सोना अधिकाई। तैसेही सुकवि कवित कुछ कह हीं। उपजहिं अनता अनत छबि लहहीं।

एक शोधार्थी की दिलचस्प स्थापना यह है कि दुर्ग का पुराना नाम धार नगर है। आधार यह है कि एक पाठ में यह पंक्ति है- 'आगू के रहिय धार नगर, अब के दुरुग कहाय।' कथागीत में सुरही डीह और ओडारबांध के नाम अवश्य आबध्द हैं। लोक गाथाओं की यह प्रकृति हमें स्मरण रखना चाहिये कि वह आतिथेय परिदृष्य में अपने को रुपांतरित करती है। ओडार बांध के आसपास बसा ओडिया समाज अपना संबध दसमत ओड़निन से जोड़ता है। दसमत कैना की गाथा की तलाश के अनुभवों का जिक्र करते हुए दलेश्वर साहू लिखते हैं कि अपने को दसमत कैना का वंशज मानने वाले, दुर्ग जिले के कुटेला खपयी नामक गांव के उड़िया समाज के लोग अपने नाम के साथ 'सागरवंशी' उपाधि जोड़ते हैं और वे राजस्थान के गुणधरों की तरह तालाब और बांध बनाने का विशेषज्ञ माने जाते हैं जो कभी उनका पैतृक व्यवसाय था। 'वे उड़ीसा से आकर छत्तीसगढ़ में बसे उड़िया लोगों से अपने को बिलकुल भिन्न बताते हैं, ना ही उनके साथ किसी तरह का रोटी-बेटी का रिश्ता रखते हैं। वे उड़िया भाषा भी नहीं बोलते।' यह प्रसंग नव निर्मित राज्य में अस्मिता के साथ ही सत्ता विमर्श से किस तरह जुड़ता है इस पर हम अन्यत्र विचार करेंगे। मेरा संकेत यह है कि गाथा कहां से कहां गई है यह उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है जितनी कला रुप में उसकी वस्तु और रुपतत्व की पहचान। लोक गाथाओं में इतिहास के संकेत अवश्य हैं किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि वे मनुष्य के साथ ही यात्राएं करती हैं और पड़ाव डालती हैं। 

अस्तु, दसमत ओड़निन किसी पाठ में रायपुर के राजा भोगजी की बेटी है और उस पर आसक्त ब्राह्मण राजा महानदेव रिश्ते में उसका चाचा है-

लेखा-लेखी में भला
रैपुर के राजा जिया
छोड़ देवे मोर ग साथ या।
राजा भोगजी के बेटी लगे भतीजिन तोर
नता ल चिन्ह गा बाह्मन देवता।
(रायपुर राजा का प्रमाण हर एक लेख है मेरा साथ निभा ना पायेंगे है राजा। बेटी भोगदेव की और भतीजी का रिश्ता है आपसे मेरा इस पावन रिश्ते को अब पहचान लीजिये।)

अन्य पाठ में वह 'राजा महर के बेटी ए दसमत ए दे ओड़निन हे ज्वान।' किसी पाठ में वह सवर्ण कुल ब्राह्मण राजा भोज की पुत्री है

राजा भोज के बेटी ये दे कइना ओ दसमत
अऊ भइफिल बमनीन के सुजात।
(राजा भोज की बेटी दसमत कन्या देखने में लगती थी ब्राह्मण की बेटी समान)

दसमत का राजा भोज की बेटी होने का आग्रह कध के पाठों में अधिक है। रेखा देवार की प्रस्तुति के प्रारंभिक अंश की पंक्तियां इस प्रकार हैं

राजा भोज बाम्हन कई बेटी
कुल बमनीन के जात
अपन करमत तकदीर के कारण
पाये हे ओड़िया भतार
सुदन बिहइया लागे कइना के
लच्छन देवता तोर
सोला के लागे भतार
बारा बछर दसमत के उम्मर
सब उड़िया ताबेदार।
(ब्राह्मण राजा की बेटी है दसमत कुल की तो है ब्राह्मण किन्तु अपनी नियति के कारण उसने पाया है उड़िया पति सुदन बिहइया है पति उसका देवर है लक्ष्मण जैसा पति है सोलह वर्ष का बारह वर्ष की है दसमत की उम्र सारे उड़िया हैं उसके ताबेदार)।

यदि दसमत राजपुत्री है वह भी कुलीन ब्राह्मण राजा की तो उसे काला कलूटा मजदूर उड़िया पति कैसे मिला? उपलब्ध पाठों में इसका कोई विवरण नहीं मिलता किन्तु देवार गायक एक अवांतर कथा के माध्यम से इस प्रसंग को पूर्णता प्रदान करते हैं। रेखा देवार अपने कथा गायन में इसे गद्य रुप में प्रस्तुत करती हैं। एक स्वतंत्र लोक कथा के रुप में यह किस्सा भारत के बड़े हिस्से में विभिन्न भाषाओं और बोलियों में प्रचलित है। संभवत: उसी कथा के प्रभाव से दसमत ब्राह्मण राजा की पुत्री बन गई। भाग्य और कर्म के वैषम्य को अधिक तीक्ष्णता से प्रस्तुत करने के लिये यह कथा-कथन का पैटर्न भी हो सकता है। अपने को औरों के भाग्य का विधाता मानने वाले सामंत के अहम और कर्म की सार्थकता के तनाव की ओर भी यह कथा इंगित करती है।

भोज नगर का राजा भोज अपनी सात कन्याओं को बुलाकर पूछता है कि वे किसके भाग्य का खाती पहनती हैं? छह बहनों ने कहा कि वे अपने पिता के भाग्य से सब कुछ पाती हैं। सबसे छोटी राजकुमारी अतीव सुंदरी दसमत ने कहा कि वह अपने 'करम' का खाती है। राजा उसके पिता हैं किन्तु सभी का अपना भाग्य होता है। राजा के अहम को ठेस पहुंची। उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि दसमत के लिये ऐसे वर की तलाश की जाय जिसे यदि दिन में भोजन मिले तो रात को भूखा सोना पड़े और यदि उसे रात में खाना मिले तो दिन को कुछ ना मिले। राजाज्ञा के आधार पर काला-कलूटा ओड़िया मजदूर सुदन बिहइया नाम का लड़का ढूंढा गया जो अपने भाई के साथ उड़ीसा से खाने-कमाने आया था। उसी के साथ दसमत का विवाह कर दिया गया। सुदन बिहइया और उसका भाई जंगल में पत्थर तोड़कर पथरा पिला या जुगनू निकालते थे और उनकी मां उसे साहूकार को बेचती थी जिससे उन्हें किसी तरह जीवन यापन के लायक अर्थ प्राप्ति होती थी। एक दिन दसमत ने अपने पति से कहा कि वह उसे भी जुगनू दिखलाये। वस्तुत: वह पत्थरों से निकले हीरे थे। दसमत साहूकार को भूखा सोना पड़े और यदि उसे रात में खाना मिले तो दिन को कुछ ना मिले। राजाज्ञा के आधार पर काला-कलूटा ओड़िया मजदूर सुदन बिहइया नाम का लड़का ढूंढा गया जो अजहां तक दसमत कैना के कथा गायन का प्रश् है, उपलब्ध पाठों में तालाब पर काम करते हुए ओड़िया समाज के साथ मजदूरी करती हुई दसमत और ब्राह्मण राजा के वार्तालाप से ही कथा का प्रारंभ है। पाठों में राजा के भिन्न भिन्न नाम है अत: सुविधा की दृष्टि से हम राजा का नाम महानदेव स्वीकार कर लेते हैं। कथा को एक क्रम देने का प्रयास रेखा देवार की प्रस्तुति में ही है। रेखा देवार वर्तमान में कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाली अकेली देवार कलाकार है अत: उनके लिये टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी आधी-अधूरी कथा को परंपरा और मौलिक कल्पना के संयोग से पूर्णता प्रदान करना एक आवश्यकता भी है। उनकी वाचिक प्रस्तुति के अनुसार तालाब पर काम करने आये उड़िया समाज की नेत्री के रुप में दसमत कैना श्रृंगार करके धौरा नगर के राजा को जोहारने के लिय छह कोरी (6)(20=120) स्त्रियों के साथ उसके दरबार जाती है। उसने सारंगढ़ का पहेरा, सक्ती की टिकुली और चांपा का चूड़ा पहन रखा है। उसने आरंग की बिछिया तथा धमधा की चुटकी धारण की है। राजा दसमत के सौंदर्य पर रीझ जाता है। एक ब्राह्मन चिरई (गोरैया चिड़िया) राजा को चेतावनी देती है किन्तु राजा दसमत को सोने की चौकी पर बैठा कर उसका परिचय पूछता है। दसमत बतलाती है कि उसने भोजनगर में जन्म लिया अत: भोजनगर उसका मायका है और ओडार गांध उसकी ससुराल है। यह जानते हुए कि दसमत विवाहिता है, राजा पूरी धृष्टता से प्रस्ताव रखता है

अब तै आये तोर पाव मा
अब चल तैं मोर साथ
छोड़ दे ओड़निन डाली टुकनिया
छोड़ देबे ओड़िया भतार
आके बइठ जा राजा के महल मा
अऊ नौ सो झोंकव जोहार।
(अब तुम आ ही गई हो तो चलो मेरे साथ छोड़ दो यह डाली टोकनी और छोड़ दो अपने ओड़िया पति को आकर बैठो राजमहल में और स्वीकारों लोगों का आदर सत्कार) 

नौ लाख ओड़िया बांध पर काम करते हुए मिट्टी खोदते हैं और नौ लाख ओड़निन झऊआ से मिट्टी ढोती है। आसक्त राजा कदंब की छाह में बैठकर दसमत का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिये कंकड़ बीन-बीनकर उसे मारता है। राजा की ओछी हरकत पर दसमत कहती है- 

एक ढेला मारे तो भैया मुलाहिजा
दूसर में ठट्टा आय
फेर ढेला मारवे तो राजा
मांर हूं तोला कुदारी के घाव।
(एक ढेले के मारने पर मुलाहिजा किया भाई मानकरदूसरे को हंसी ठट्ठा माना फिर ढेला मारोगे राजा तो मैं तुम्हें दूंगी कुदाली का घाव)

राजा महानदेव कहता है-दसमत थोड़ी देर यहां कदंब की छांह में बैठो। धूप में तुम्हारा शरीर काला पड़ जायेगा। दसमत कहती है-मैं माटी की बेटी हूं। राजा, मैंने तो धूप में ही जन्म लिया है और जीवन गुजारा है। मैं छांह में बैठूंगी तो मेरा शरीर और मन काला पड़ जायेगा। किन्तु ब्राह्मण राजा दसमत को हर कीमत पर पाना चाहता है अत: उसे लालच देता है-

तब ब्राम्हय कथे-सुन रे ओड़निन कैना बात
बेटी ल छांडत हव बहुरियाल
अऊ छोड़व बियालिस गांव
सात रानी के लिखवं बनवासा
जुगन छोड़व साथ जी।
(ब्राह्मण राजा बोले-ओड़िनिन मेरी बात छोड़ दूंगा मैं बहू-बेटियों को सात रानियों को दूंगा बनवास पर मैं छोडूंगा न साथ तुम्हारा युगों तक)

राजा ने दसमत को लालच दिया कि वह उसे पान खाने के लिये पटना दे देगा, चूड़ी के लिये फुलझर राज समर्पित कर देगा। लुगड़ा पहनने के लिये रायगढ़ और चूड़ा पहनने के लिये चांपा का बाजार दे देगा। टिकली लगाने के लिये धमधा दे देगा और विश्राम करने के लिये धौरागढ़ दे देगा। राजा की उफनती लालसा को शांत करने के लिये दसमत ने उसे बतलाया कि वह राजा की भतीजी लगती है-

जात के बेटी नोहवं ग बाम्हन देवता
करम के बेटी आंव
राजा भोज के बेटी लगे भतीजिन तोर
नताल चीन्ह ग बाम्हन देवता
(जाति की बेटी नहीं हूँ मैं हे विप्र देवता, किन्तु करम की बेटी मैं हूं बेटी राजा भोजदेव की और भतीजी का रिश्ता है आपसे मेरा इस पावन रिश्ते को पहचान लीजिये।)

किन्तु महानदेव की एक ही टेक है कि दसमत उसकी पटरानी बन जाये। अपनी सातों रानियों को वह उसकी दासियां बना देगा। दसमत कहती है कि पुरुष स्वभाव चंचल होता है वह औरत की चढ़ती जवानी पर मोहित होता है और जवानी ढलने पर तिरस्कार करता है। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि वह राजा की भतीजी लगती है। वासना में अंधा राजा तब भी नहीं मानता तो दसमत इस राजहठ का उपहास करती है। वह अपने समाज की औरतों को बुलाकर कहती है-देखो अपने नये नवेले जीजा को। ओड़निनें माा लेते हुए हैं राजा से आग्रह करती हैं कि यदि उनकी जाति की बेटी को ब्याहना है तो राजा को उनकी जीवन शैली अपनानी होगी। उसे उनके साथ मिट्टी ढोनी होगी। ब्राह्मण राजा लुदुक-लुदुक मिट्टी ढोता है। सात खेप मिट्टी ढोते ही उसका सिर कल्ला गया और उसे लगा कि उसका सिर छाती में धंस जायेगा। उसके प्राण 'उकुल-बुकुल' हो गये। तब राजा ने झउआ फेंक दिया और गुडरी को फाड़कर फेंक दिया। राजा बोला-अरी ओड़निन मिट्टी वजनदार होती है। मुझसे कोई दूसरा काम करवा लो।

अरे गदही चरई लेवे ओड़निन कैना सूरा चरई लेबे न अरे पानी भरई लेबे कइनाओ जेवन रंधई लेवे न (अरी ओड़निन गधी चरवा लेना, सुअर चरवा लेना पानी भरवा लेना कन्या, भोजन बनवा लेना)

राजा का हाल देखकर ओड़िया मजा लेते हैं और कहते हैं कि हमारी जाति की बेटी को पाना है तो हमारी तरह मद्यपान करो और मांस खाओ। राजा इसके लिये तैयार हो जाता है इस सुंदर औरत को पाने के लिये शराब और गोश्त खाना कौन सी बड़ी बात है। एक पाठ में ब्राह्मण राजा की वर्णगत चालाकी भी उजागर होती है-

आजेच खांहू मंदे मांस ल
काली जाहूं नहाय
तुलसी पतर के पूजा ल कर लेहूं
फेर ब्राम्हन होई जाहूं कहे
(आज ही पीयूंगा मद्य और खाऊंगा मांस कल कर लूंगा तीर्थ स्नान तुलसी पते की कर लूंगा पूजा फिर बन जाऊंगा ब्राह्मण)

एक औरत दौड़कर टिपली में दार ले आई फिर तो तमाशा देखने लायक था। ब्राह्मण राजा जम कर शराब पीता है और नशे में चूर हो जाता है। 

छांक छांक ल ग पिये ग ब्राम्हन
उठ के नाचत हे आज
दंगरस दंगरस ब्राम्हन देवता
नाचे बे रंडी-ताल
नाचे ग भलुआ के नाचाल
नाचे बेंदरा के नाच।
प्याला-दर-प्याला वह पीता चला गया गत्र हुआ, उन्मदों जैसा लगा नाचने ऐसा नृत्य जैसे कोई रंडी हो या भालू हो या कि बंदर) 

राजा के आभिजात्य को और भी हास्यास्पद बनाते हुए उसके समक्ष मिर्च-मसाला से पकाया हुआ सुअर का चटपटा गोश्त परोसा जाता है। राजा गोश्त की तारीफ करता हुआ पतल को और कोहनी तक बहते शोरबा को चाट-चाट कर खाता है और फिर मदहोश होकर खाट पर सो जाता है। ओड़िया उसे खाट से बांध देते हैं और उसकी चोटी को गधी की पूंछ से बांधकर गधी को कोड़ा मार कर भगा देते हैं। 

विभिन्न पाठों के बावजूद दसमत ओड़निन की कथा इस प्रसंग तक कमोबेश एक जैसी है किन्तु इसके बाद घटनाओं का तीव्र प्रवाह दो धाराओं में बंटा हुआ दिखलाई देता है। जिस पाठ में राजा महानदेव ओड़िया समाज से बदला लेता है वह अधिक स्वाभाविक और तर्क संगत है अत: हम पहले उसी पाठ पर प्रकाश डालते हैं भैंसवार देवार के पाठ में जब गधी की लात खाता हुआ और जमीन पर घिसटता हुआ राजा अपनी जान बचाने के लिये अपनी रानियों और बेटे को पुकारता है तो रानियों अपने पुत्र को रोक देती है। 

बेटा ल बरज दिन ग सातों रानी मन
मेकर करा के साधल झन कर बाबू
आज सात झन रानी रहिन
का कभी रहिस ग? तेला बता
ओड़निन खातिर अपन जिवल गंवाये तेला जान दे
(इनको नहीं बचाना बेटे अगर पिता को चाह रहे ओ कुंवर बचाना सात रानियां कम थी क्या? ओड़निन की खातिर अपने प्राण गंवाने की पड़ी थी, उन्हें जाने दो) 

राजा के नाई ने चबरी गधी की पूंछ काट कर राजा को बंधन मुक्त किया। क्रोधावेश में राजा के माथे पर बल पड़ गये और उसकी आंखों से अंगार बरसाने लगे। वह गरजा-अरे ओड़ियो, अब तुम नहीं बचोगे। दसमत को तो मैं पाकर ही रहूंगा-

राजा के सेना ग जुरगे
मारव मारव जी, धरव धरव ग पेलिक पेला
झगड़िक-झगड़ा मेजी
बंदूक भाला ग चढ़गे लगगे ग हथियार जी
खून के धार बोहवय ऐ संगी देखत न बनि जाय
ब्राह्मन देवता ये जी बयालीस गांव के राजा ये भैया
कोई भागत हे दिल्ली चंपर
कोई भागे पट पर भांठा कोई भागे परबास
(राजा का सैन्य दल जुड़ा मारो मारो, पकड़ो पकड़ो का शोर बंदूक और भाले तने, चमके हथियार खह गई खून की धार देखा नहीं जाता था दृश्य बयालीस गांवों के ब्राह्मण राजा का क्रोध देखते नहीं बनता था ओडिया-ओड़निन भागे कोई दिल्ली कोई पटपर भाठा तो कोई और कहीं)।

दसमत के पति सुदन बिहइया को घेर घार कर मार दिया गया। ओड़िया डेरा उजड़ गया। बस दसमत को राजा ने बचा लिया। उसके लिये ही तो उसने यह सब किया था। किन्तु दसमत ने कहा कि वह राजा को स्वीकार कर ही नहीं सकती अत: पति की चिता के साथ सती होगी। अडिग निश्चय के साथ वह अगि् में भस्म हो गई। राजा को उसकी राख भर मिली जिसे उसने गंगा में बहा दिया। तीर्थ से लौटते हुए पत्थर की ठोकर खाकर राजा के प्राण भी निकल गये।

चैतराम देवार की प्रस्तुति में भी ओड़िया समाज राजकीय कोप का शिकार होता है और दसमत अपने पति के शव के साथ सती हो जाती है। दृष्टव्य है कि चैतराम देवार के पाठ के अतिरिक्त अन्य पाठों में (जिनमें गाथा का अंत भिन्न है) भी यह प्रसंग आता है कि राजा को गधी की पूंछ से बांधने के बाद ओड़िया समाज अपना डेरा सकेलकर सुरगी राज भागे। उन्होंने ओड़ियान बांध में विश्राम किया और ओडार बांध खोदकर पानी पिया। नौ लाख-ओड़िया-ओड़निन ने एक रात में ओडार बांध बनाया यह किंवदंती राजनांदगांव जिले में स्थित ओडार बांध के विषय में प्रचलित है। इस बांध से जुड़ी दंतकथाओं ने दसमत कैना की कथा को गहराई से स्थानीय भूगोल से जोड़ा हैजिसके कारण एक रहस्य भरा आकर्षण उत्पन्न होता है।

अभ सब डेरा डंडी ल टोर के भइया रे
ओड़िया भागे सुरगी राज डाहर
अउ जाके ओड़ियान बांध में थिराय
ओडार बंधान में पानी कोड़ के
ओड़िया मन सागर कोड़ पानी पीन हवे

इस पाठ का अंत भी वहीं है-यानी राजा ओड़िया समाज का पीछा करता हुआ ओडार बांध पहुंचा जरुर किन्तु 'राजा सात करम कर डारिस, तब ले ओड़निन के नई पाइस पार।' 
इस लोक गाथा का दूसरा अंत यह है कि उड़िया समुदाय गुस्से या ग्लानि के कारण ओडार बांध में डूब मरे-

उही सुरंग में निंग के राजा
ओडार बांध जब जाय
तरिया मां ओड़निन दसमत के दरस तबे हो जाय
बार-बार समझां एव राजा बरजे न माने बात सब उड़िया मन गुस्सा के मारे कर लिन अपनेच घात

अन्य पाठों की तुलना में मोनोग्राफ में प्रकाशित पाठ आधा-अधूरा सा है। डॉ. सोनऊराम निर्मलकर ने रेखा देवार की अप्रकाशित पाण्डुलिपि, डॉ. निशा शर्मा द्वारा संकलित पाठ तथा गाथा को केंद्र में रखकर डॉ.पालेश्वर शर्मा द्वारा रचित कहानी के आधार पर कथा के अंतिम अंश को इस रुप में प्रस्तुत किया है कि ओड़िया समाज के पलायन के बाद राजा महानदेव जोगी बन कर दसमत को तलाशता है। ओडार बांध में नहाती हुई दसमत के पास पहुंचकर पुन: प्रेम निवेदन करता है तो ओड़िया आत्मग्लानि में डूब मरते हैं। दसमत आत्मदाह कर लेती हैं और राजा पत्थर पर सिर-पटक कर मर जाता है।

गाथा का यह अंत कथा के समस्त तनाव और द्वन्द्व को तरल बनाकर ब्राह्मण राजा को लगभग प्रेमी का दर्जा प्रदान कर उसके दोष के परिहार का प्रयास जैसा प्रतीत होता है। कथागीत का यह अंत इस चर्चा की मांग करता है कि इसके पीछे क्या संकेत हैं? पहले पाठ में राजा और ओड़िया समुदाय का द्वन्द्व उभरता है जबकि दूसरे पाठ में वह पागल प्रेमी की तरह, अपमानित होकर पुन: उन्हीं के पास पहुंचता है। वह ओड़िया समाज का संहार नहीं करता बल्कि ओड़िया जन स्वयं ही ओडार बांध में डूब मरते हैं! ध्यातव्य है कि नागर साहित्य से लेकर लोक साहित्य तक श्रीमंत समाज के अनाचारों पर परदा डालने के प्रयास की प्रवृत्ति भी दिखलाई देती है। इसके सामाजिक कारण है। सत्ता के केंद्र की वर्चस्वता ने कला रुपों को प्रभावित किया है। मध्य युग तक प्रतिरोध की संस्कृति अपनी पूरी उठान पर नहीं आ सकी थी। देवार भी अंतत: चारण थे जिनकी आजीविका सामान्य जन से कहीं अधिक उच्च वर्ग और उच्च वर्ण के समक्ष अपनी कला के प्रदर्शन से जुड़ी थी।

रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव



रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव जी का जन्म- 1942 में हुआ, रचनाएँ- कहानी संकलन- मध्यांतर, स्याही सोख्ते, खानदान में पहली बार, बेटे को क्या बतलाओगे, टोरकिल का शहर, उपन्यास- टूटे पुल, समीक्षा- भगवती चरण वर्मा के उपन्यास, बाल साहित्य- साइट वाला भूत के अतिरिक्त लगभग तीस कहानियाँ। प्रकाश्य- छत्तीसगढ़ी लोक गाथाएँ : सांस्कृतिक-सामाजिक निहितार्थ और संरचना, लीजेन्ड को छूते हुए (संस्मरण), बच्चू चाचा के किस्से (बाल साहित्य) सम्मान- म.प्र. साहित्य परिषद का सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार, म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार, म.प्र. साहित्य अकादमी का राष्ट्रीय मुक्तिबोध पुरस्कार, महाराष्ट्र मंडल का मुक्तिबोध सम्मान। संबंद्धता- सक्रिय रंगकर्मी के रूप में प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भागीदारी, म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के पूर्व महासचिव और अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष । साठोत्तरी पीढ़ी के महत्वपूर्ण कथाकार। संपर्क- रमाकांत श्रीवास्तव, शांतिगीत, 209, दाऊचौरा, खैरागढ़ 491881, छ.ग., मोबाइल- 9977137809.

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