
चैत्र माह के प्रारंभ होते ही बस्तर के आदिम जन माटी तिहार या बीज पूटनी नामक त्योहार बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाते हें। बीज बोने के पूर्व यहां के ग्रामीण जन इस त्योहार को सदियों से मनाते आ रहे हैं। इस दिन ग्रामीण जन अपनी माटीदेव की पूजा अर्चना करते हैं तथा अपने खेत के लिए बीज धान निकालकर पलास के पत्तों से पोटली बनाकर रख लेते हैं। इन छोटे-छोटे बीज के पोटली को ग्रामवासी माटी देव स्थल एकत्र करके अपने माटीदेव की पूजा करते हैं। इस दिन सामूहिक रूप से बलि दिये गये जीवों को पकाकर आपस में वितरित करते हें। जिसे प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं।
इस त्योहार की एक प्रमुख विशेषता है कि इस उत्सव में स्त्रियां भाग नहीं लेती और नही इसका प्रसाद ग्रहण करती है। यह परंपरा कुंवारी लड़कियों पर भी लागू होता है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व ही ग्रामीण अपने-अपने घरों से बीज की पोटली बांधकर निकल पड़ा है आने वाले वर्ष में अच्छी फसल की कामना के लिए। सुबह से ही रास्ते में रोड़ा बनाकर प्रत्येक आने जाने वालों से पैसे, अनाज, सब्जी आदि एकत्र करते हैं। इस बीच अश्लील शब्दों का प्रयोग निरंतर जारी रहता है जो कि इस त्योहार की अपनी एक अलग परंपरा है। इस उत्सव में बच्चे,बूढ़े, जवान सभी सम्मिलित होते हैं सिवाय महिला एवं लड़कियों को छोड़कर किंतु दंतेवाड़ा जिले के कुछ क्षेत्रों में महिला एवं युवतियों को भी रास्ते में रोड़ा लगाये देखा जा सकता है। अनाज, पैसे एकत्र करने का सिलसिला शाम ढले तक तथा कभी-कभी दूसरे दिन तक चलता रहता है। इस एकत्र किये हुए पैसे तथा अनाज को सामूहिक रूप से आयोजित भोज में सम्मिलित कर लिया जाता है।
बीज पूटनी त्योहार के एक दिन पूर्व गांव के समस्त बड़े-बूढ़े मिलकर अपने पारंपरिक हथियारों से लैस होकर पास के जंगलों में पारद (शिकार) करने निकल जाते हैं। तथा शिकार से प्राप्त जंगली जीवों को लेकर माटी को समर्पित करते हैं तथा प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं किंतु अब न तो घने वन हैं और न ही वन्य जीव जहां ग्रामीण अपने परंपरा के निर्वाह के लिए एक चूहा भी पकड़ सकें। वैसे भी वन्य जीवों के शिकार पर शासन ने प्रतिबंध किया हुआ है। ग्रामीण सिर्फ खानापूर्ति के लिए पास के जंगलों में घूम आते हैं तथा प्रतीक स्वरूप मुर्गा अथवा मुर्गी के अण्डों को बलि देकर अपने पारंपरिक उत्सव का निर्वहन कर लेते हैं। इसके अलावा गांव में जो भी कास्तकार होते हैं सभी से चंदा स्वरूप कुछ पैसे लेकर बाजार से बलि के लिए बकरा खरीद लेते हैं तथा अपने परंपरा का निर्वहन कर लेते हैं।
पूजा-अर्चना में लगने वाले पूजन सामग्री के अलावा चूड़ी-फुंदड़ी, मदिरा भी होते हैं जिसके अर्पण पश्चात ग्रामीणजन भी ग्रहण करते हैं। पूजा-पाठ के बाद माटी देव स्थल के पास ही छोटा गड्ढा किया जाता है जिसे पानी और मिट्टी से कीचड़मय बना दिया जाता है तथा पूजा के पश्चात धान की छोटी-छोटी पोटलियों को पुजारी की गोद में डाल दिया जाता है फिर प्रारंभ होता है कीचड़, मिट्टी से लथपथ अश्लील गालियों की बौछार और साथ ही होली सा माहौल। इसके पीछे मान्यता है कि ऐसा करने से खेत में बिहड़ा तथा अच्छी फसल होने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। माटीदेव उनकी फसल की रक्षा करेंगे। इसके बाद रात्रि में सभी ग्रामीणों के द्वारा लाये गये धान की पोटलियों को पुजारी के निवास स्थान में ले जाया जाता है तथा दूसरे दिन गांव के बड़े-बुजुर्ग के साथ मिलकर स्वयं पुजारी, जिन ग्रामीणों के यहां से धान लाया गया होता है, पहुंचाता है और बदले में पारिश्रमिक बतौर रूपये लेता है। माटी त्योहार के बाद पुजारी द्वारा पहुंचाये गये इस धान की पोटली के साथ ही धान की बुवाई तक पोटलियों को सुरक्षित रखा जाता है।

नई दुनिया के बस्तर संस्करण से साभार
परंपराओं के बारे में सुन्दर सामग्री ।
जवाब देंहटाएंयह त्योहार धान की फसल में से बीजों को अगली बुआई के लिए सुरक्षित रखने के रिवाज को अभिव्यक्त करता है।
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण जानकारी पढ़ने को मिली ।
जवाब देंहटाएं...प्रभावशाली व महत्वपूर्ण जानकारी !!!!
जवाब देंहटाएंaisa lag raha hai jaise aap kuchh din vaha bitaa kar aaye ho..
जवाब देंहटाएंजानकारी के लिए शुक्रिया!
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