संस्कृति के उजले पक्ष के लिए कार्य करें : कोदूराम

संस्कृति के उजले पक्ष के लिए कार्य करें : कोदूराम सुशील भोले छत्तीसगढ़ के एकमात्र शब्दभेदी बाण अनुसंधानकर्ता कोदूराम वर्मा राज्य निर्माण के पश्चात् यहाँ की मूल संस्कृति के विकास के लिए किए जा रहे प्रयासों से संतुष्ट नहीं हैं। उनका मानना है कि यहाँ के नई पीढ़ी के कलाकारों की रुचि भी अपनी अस्मिता के गौरवशाली रूप को जीवित रखने के बजाय उस ओर ज्यादा है कि कैसे क्षणिक प्रयास मात्र से प्रसिद्धि और पैसा बना लिया जाए। इसीलिए वे विशुद्ध व्यवसायी नजरिया से ग्रसित लोगों के जाल में उलझ जाते हैं। 87 वर्ष की अवस्था पूर्ण कर लेने के पश्चात् भी कोदूराम जी आज भी यहाँ की लोककला के उजले पक्ष को जन-जन तक पहुँचाने के प्रयास में उतने ही सक्रिय हैं, जितना वे अपने कला जीवन के शुरूआती दिनों में थे। पिछले 13 अक्टूबर 2011 को धमतरी जिला के ग्राम मगरलोड में संगम साहित्य समिति की ओर से उन्हें ‘संगम कला सम्मान’ से सम्मानित किया गया, इसी अवसर पर उनसे हुई बातचीत के अंश यहाँ प्रस्तुत है-

0 कोदूराम जी सबसे पहले तो आप यह बताएं कि आपका जन्म कब और कहाँ हुआ? 

मेरा जन्म मेरे मूल ग्राम भिंभौरी जिला-दुर्ग में 1 अप्रैल 1924 को हुआ है। मेरी माता का नाम बेलसिया बाई तथा पिता का नाम बुधराम वर्मा है। 

0 अच्छा अब यह बताएं कि आप पहले लोककला के क्षेत्र में आए या फिर शब्दभेदी बाण चलाने के क्षेत्र में?

सबसे पहले लोककला के क्षेत्र में। बात उन दिनों की है जब मैं 18 वर्ष का था, तब आज के जैसा वाद्ययंत्र नहीं होते थे। उन दिनों कुछ पारंपरिक लोकवाद्य ही उपलब्ध हो पाते थे, जिसमें करताल, तम्बुरा आदि ही मुख्य होते थे। इसीलिए मैंने भी करताल और तम्बुरा के साथ भजन गायन प्रारंभ किया। चँूकि मेरी रुचि अध्यात्म की ओर शुरू से रही है, इसलिए मेरा कला के क्षेत्र में जो पदार्पण हुआ वह भजन के माध्यम से हुआ। 

0 हाँ, तो फिर लोककला की ओर कब आए? 
यही करीब 1947-48 के आसपास। तब मैं पहले नाचा की ओर आकर्षित हुआ। नाचा में मैं जोकर का काम करता था। 

0 अच्छा... पहले नाचा में खड़े साज का चलन था, आप लोग किस तरह की प्रस्तुति देते थे? 
हाँ, तब खड़े साज और मशाल नाच का दौर था, लेकिन हम लोग दाऊ मंदरा जी से प्रभावित होकर तबला हारमोनियम के साथ बैठकर प्रस्तुति देते थे। 

0 अच्छा... नाचा का विषय क्या होता था? 
 उस समय ब्रिटिश शासन था, मालगुजारी प्रथा थी, इसलिए स्वाभाविक था कि इनकी विसंगतियाँ हमारे विषय होते थे। 

0 आप तो आकाशवाणी के भी गायक रहे हैं, कुछ उसके बारे में भी बताइए? 
आकाशवाणी में मैं सन् 1955-56 के आसपास लोकगायक के रूप में पंजीकृत हुआ। तब मैं ज्यादातर भजन ही गाया करता था। मेरे द्वारा गाये गये भजनों में - ‘अंधाधुंध अंधियारा, कोई जाने न जानन हारा’, ‘भजन बिना हीरा जमन गंवाया’ जैसे भजन उन दिनों काफी लोकप्रिय हुए थे। अब भी कभी अवसर मिलता है, तो मैं इन भजनों को थोड़ा-बहुत गुनगुना लेता हूँ। मुझे इससे आत्मिक शांति का अनुभव होता है। 

0 अच्छा, आप लोक सांस्कृतिक पार्टी भी तो चलाते थे? 
हां चलाते थे... अभी भी चला रहे हैं ‘गंवई के फूल’ के नाम से। इसमें पहले 40-45 कलाकार होते थे, अब स्वरूप कुछ छोटा हो गया है। यह साठ के दशक की बात है। तब दाऊ रामचंद्र देशमुख की अमर प्रस्तुति ‘चंदैनी गोंदा’ का जमाना था, उन्हीं से प्रभावित होकर ही हम लोगों ने ‘गंवई के फूल’ का सृजन किया था। 

0 अच्छा.. यह बताएं कि तब की प्रस्तुति और अब की प्रस्तुति में आपको कोई अंतर नजर आता है? 
हाँ... काफी आता है। पहले के कलाकार स्वाधीनता आन्दोलन के दौर से गुजरे हुए थे, इसलिए उनमें अपनी माटी के प्रति, अपनी कला और संस्कृति के प्रति अटूट निष्ठा थी, जो अब के कलाकारों में दिखाई नहीं देती। अब तो संस्कृति के नाम पर अपसंस्कृति का प्रचार ज्यादा हो रहा है। लोगों के अंदर से अपनी अस्मिता के प्रति आकर्षण कम हुआ है, और उनकी नजरिया पूरी तरह व्यावसायिक हो गयी है। निश्चित रूप से इसे अच्छा नहीं कहा जा सकता। 

0 क्या यहाँ का शासन भी इस दिशा में उदासीन नजर आता है? 
पूरी तरह से तो नहीं कह सकते, लेकिन राज्य निर्माण के पश्चात जो अपेक्षा थी वह पूरी नहीं हो पा रही है। 

0 अच्छा... अब आपके उस विषय पर आते हैं, जिसके कारण आपको सर्वाधिक ख्याति मिली है। आप बताएं कि आपने शब्दभेदी बाण चलाना कैसे सीखा? 
ये उन दिनों की बात है जब मैं भजन गायन के साथ ही साथ दुर्ग के हीरालाल जी शास्त्री की रामायण सेवा समिति के साथ जुड़ा हुआ था। तब हम इस सेवा समिति के माध्यम से मांस-मदिरा जैसे तमाम दुव्र्यवसनों से मुक्ति का आव्हान करते हुए लोगों में जन-जागरण का कार्य करते थे। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश से बालकृष्ण शर्मा जी आए हुए थे। जब शास्त्री जी रामायण का कार्यक्रम प्रस्तुत करते तो कार्यक्रम के अंत में बालकृष्ण जी से शब्दभेदी बाण का प्रदर्शन करने को कहते। बालकृष्ण जी इस विद्या में पूर्णत: पारंगत थे। वे आँखों पर पट्टी बांधकर 25-30 फीट की दूरी से एक लकड़ी के सहारे से घूमते हुए धागे को आसानी के साथ काट देते थे। मैं उनकी इस प्रतिभा से काफी प्रभावित हुआ और उनसे अनुरोध करने लगा कि वे मुझे भी इस विद्या में पारंगत कर दें। बालकृष्ण जी पहले तो ना-नुकुर करते रहे, फिर बाद में इन शर्तों के साथ मुझे इस विद्या को सिखाने के लिए तैयार हो गये कि मैं जीवन भर सभी तरह के दुव्र्यवसनों से दूर रहूँगा। मैं उनके साथ करीब तीन महीने तक रहा। इसी दरम्यान वे मुझे इस विद्या की बारीकियों को सीखाते, और मैं उन्हें सीखकर अपने घर में आकर उन्हें दोहराता रहता। इस तरह इस विद्या में मैं पारंगत हो गया। 

0 तो क्या आपने भी अन्य लोगों को इसमें पारंगत किया है? 
अभी तक तो ऐसा नहीं हो पाया है।
0 क्यों ऐसा नहीं हो पाया? 
असल में यह विद्या मात्र कला नहीं, अपितु एक प्रकार से साधना है। लोग इसे सीखना तो चाहते हैं, लेकिन साधना नहीं करना चाहते। इसे सीखने के लिए सभी प्रकार के दुव्र्यवसनों से मुक्त होना जरूरी है। मुझे कुछ संस्थाओं की ओर से भी वहाँ के छात्रों को धनुर्विद्या सीखाने के लिए कहा गया। मैं उन संस्थानों में गया भी, लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी बनी कि मुझे खाली हाथ लौटना पड़ा। 

0 क्या आपको इस धनुर्विद्या के लिए शासन के द्वारा कभी सम्मानित किया गया है? 
नहीं धनुर्विद्या के लिए तो नहीं, लेकिन कला के लिए राज्य और केन्द्र दोनों के ही द्वारा सम्मानित किया गया है। केन्द्र सरकार द्वारा मुझे सन् 2003-04 में गणतंत्र दिवस परेड में करमा नृत्य प्रदर्शन के लिए बुलाया गया था, जिसमें मैं 65 बच्चों को लेकर गया था। इस परेड में हमारी कला मंडली को सर्वश्रेष्ठ कला मंडली का पुरस्कार मिला था, तथा मुझे ‘करमा सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था। इसी तरह राज्य शासन द्वारा सन् 2007 में राज्योत्सव के दौरान कला के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए दिए जाने वाले ‘दाऊ मंदरा जी सम्मान’ से सम्मानित किया गया था। 

0 नई पीढ़ी के लिए कुछ कहना चाहेंगे? 
बस इतना ही कि वे अपनी मूल संस्कृति को अक्षण्णु बनाये रखने की दिशा में ठोस कार्य करें। 

सुशील भोले 
संपर्क : 41-191, डॉ. बघेल गली, 
संजय नगर (टिकरापारा) 
रायपुर (छ.ग.) 
मोबा. नं. 098269-92811

चीन: ड्रैगन की दुम पर

चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस का प्रसिद्ध कथन है कि ‘‘दूसरों से वैसा व्यवहार न करें, जैसा आप स्वयं के लिए पसंद न करते हो’’ पर आजकल उनके देशवासी याद रखने योग्य सिर्फ कामरेड माओ की उक्तियों को ही मानते है। भारतीय तेल व गैस उत्खनन कम्पनी ओएनजीसी विदेश को वियतनाम के दक्षिण चीन सागर में खनन की मिली अनुमति को चीन के विदेश मंत्रालय ने चीन-वियतनाम के आपसी विवाद में भारत का बेवजह दखल करार दिया है। उनसे पूछा जाना चाहिए कि कि वैधानिक रूप भारत में शामिल पाक अधिकृत काश्मीर पर चीनी सैनिकों द्वारा बनाये जा रहे काराकोरम राजमार्ग पर उनकी क्या राय है। उनकी राय का पता नहीं, पर लगता है कि भारत ने ड्रैगन की दुम पर पैर रख दिया है और यह भारत सरकार का सोच-समझकर उठाया गया कदम है। 

चीन में बुद्ध
चीन-भारत के संबंध पिछले कुछ दशकों से तनावपूर्ण अवश्य है पर इतिहास के पन्नों पर ये काफी मधुर रहे हैं। भारतीय सिन्धु घाटी सभ्यता के ही समकालीन चीन की ह्वांग-हो घाटी की सभ्यता थी। भारत के उपगुप्त व अन्य कई बौद्ध भिक्षुकों ने चीन में धर्म प्रचार किया और बौद्ध धर्म सदियों तक चीन का राजकीय धर्म बना रहा। चीन के फाह्यान व हे्वनसांग जैसे बौद्ध भिक्षुकों ने बुद्ध के देश व बौद्ध धर्म के मूल तत्वों को जानने के लिए भारत भ्रमण किया। चीनी व्यापारिक जहाज भी सदियों तक भारतीय तटों पर आते रहे और भारतीयों ने सदैव उनका स्वागत किया। प्राचीन इतिहास में भारत-चीन के बीच सैनिक संघर्ष का कोई विवरण नहीं है, जिसका कारण शायद हिमालय की विशालता व ऊंचाई है जिसे पार करके सैनिक अभियान चलाना उस समय असंभव था।

आधुनिक चीन एक विशाल देश है जिसमें हान प्रमुख जातीय समूह है। इसके अतिरिक्त हुई मांचू, तिब्बती व उईधुर समूह भी है। जिसमें उईधुर मुस्लिम है जो पश्चिमी चीन में खानाबदोश ढ़ंग से रहते हैं। चीन का मांचू सम्राज्य 1911 में समाप्त कर दिया गया और गणतंत्र की स्थापना हुई, जिसमें कुओं मीन तंग (नेशनल पीपुल्स पार्टी) के डॉ. सनयात सेन राष्ट्राध्यक्ष बने। उन्होंने चीन का आधुनिकीकरण प्रारंभ किया, उनके उत्तराधिकारी च्यांगकाई शेक ने लौकिक कन्फ्यूशियसवाद पर देश चलाने की कोशिश की पर 1937 के जापानी आक्रमण को रोकने के लिए उन्हें जमीन पुनर्वितरण के मुद्दे पर ताकतवर होती, माओत्सेतुंग की साम्यवादी पार्टी से समझौता करना पड़ा। युद्ध के पश्चात सत्ता पर नियंत्रण को लेकर दोनों दल आपस में भिड़ गये और 1949 में माओत्सेतुंग ने मुख्य भूमि पर साम्यवादी सरकार की स्थापना की, जबकि च्यांगकाई शेक ने ताईवान जाकर गणतांत्रिक सरकार बनायी। चीन की नई साम्यवादी सरकार की फौजें 1950 में तिब्बत में घुस आयी और उसे अपना प्रांत घोषित कर दिया। 1958 में तिब्बतियों ने चीनी कब्जे के खिलाफ विद्रोह किया जिसे कुचल दिया गया और तिब्बती धर्मगुरु व प्रमुख नेता दलाईलामा अपने अनुयायी सहित भारत आ गये। भारत द्वारा दलाईलामा को शरण देना चीन को नागवार गुजरा और यही 1962 के भारत-चीन युद्ध का कारण बना। 


थियेनमेन चौंक का छात्र आन्‍दोलन
तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे के बाद भारत से सीमा विवाद प्रारंभ हो गया क्योंकि चीन मैकमोहन रेखा को मान्यता नहीं देता वह अरूणांचल प्रदेश को अपना हिस्सा तथा सिक्किम को स्वतंत्र राष्ट्र बताता रहा है। जबकि भारत 1962 के युद्ध में चीन के कब्जे में गये आक्साई चीन को वापस मंाग रहा है। इस विवादों के बाद भी 1962 के बाद भारत चीन में बड़ा सैनिक संघर्ष नहीं हुआ और हाल के तनाव का कारण भी मुख्यतः आर्थिक है।

दरअसल चीन व भारत दुनिया की तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएँ है, जिन्हें अपनी तीव्र आर्थिक विकास दर को बनाये रखने के लिए ऊर्जा संसाधनों व तैयार माल के लिए बाजार की जरूरत है, इसीलिए चीन पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को विकसित कर रहा है, ताकि खाड़ी देशों से तेल व गैस को पाईप लाईन से पाक अधिकृत काश्मीर होकर पश्चिमी चीन तक पहुंचाया जा सके और उसके जहाजों को हिन्द महासागर का चक्कर न लगाना पड़े जहां भारत मजबूत स्थिति में है। भारत ओएनजीसी तथा कोल इंडिया, विदेश के माध्यम से कई देशों में तेल व कोयले का खनन कर रहा है, जिसे वह निर्बाध रूप से नौ परिवहन कर भारत पहुचांना चाह रहा है। भारत गंगा-मैकांग परियोजना के तहत पूर्वी एशियाई देशों से अपने संबंध लगातार बढ़ा रहा है और आसियान समूह के देशों की अर्थव्यवस्था में भी अपना हिस्सा लगातार बढ़ा रहा है। अफ्रीकी व लैटिन अमेरिकी देशों के बाजारों पर दोनों ही देशों की नजर है। जैसे-जैसे दोनों अर्थव्यवस्थाएं फैलाती जायेंगी, यह आर्थिक टकराव भी बढ़ेगा, जो सैनिक संघर्ष में भी बदल सकता है। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह अपने अधिकतम आर्थिक हित वाले क्षेत्रों को रेखांकित कर अपनी सैनिक क्षमता को इतना बढ़ा ले कि अपने आर्थिक हितों को सुरक्षित रख सके। 

भारत और चीन के बीच एक तीसरा पक्ष अमेरिका भी है। चीन ने जिस दबावपूर्ण ढंग से हांगकांग (बिट्रेन) व मकाओं (पुर्तगाल) को वापस लिया है और पूर्वोत्तर एशिया में दखल देना प्रारंभ किया है, उससे अमेरिका आशंकित है क्योंकि उसके भी सैनिक-आर्थिक हित जापान, ताईवान, दक्षिण कोरिया व फिलीपिन्स तक फैले हैं। 

चीन की लाल सेना
हिन्द महासागर में चीन व भारत की सैनिक प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ रही है, क्योंकि ये दोनों देशों का प्रमुख व्यापारिक मार्ग है। चीन ग्वादर, श्रीलंका व वर्मा के कोको द्वीप में नौसैनिक अड्डे बनाकर भारत को घेरना चाह रहा है। जबकि भारत द्वारा अंडमान में संयुक्त कमान की स्थापना इस घेरेबंदी को तोड़ने के लिए ही है। ये रक्षा तैयारियां अन्य क्षेत्रों में भी चल रही हैं। भारत अपनी मिसाइलों की क्षमता बढ़ा रहा है 3500 कि.मी. मार करने वाली अग्नि-3 के बाद जल्द ही 5000 कि.मी. तक मार करने वाली ‘‘सूर्या’’ का परीक्षण करने वाला है, जिसकी जद में सभी प्रमुख चीनी शहर आ जायेंगे। 

चीन भी अपनी सेना व भारतीय सीमा से लगे चीनी क्षेत्र में राजमार्गों का नवीनीकरण कर रहा है। वह पाकिस्तान को मिसाइल व परमाणु बम बनाने की तकनीक देकर भारत से उलझना चाहता है। भारत भी शायद वियतनाम लाओस या फिलीपिन्स को मध्यम दूरी की मिसाइलों की तकनीक देकर चीन के खिलाफ खड़ा करना चाहे, पर फिलहाल वह चीन पर ही ध्यान केfन्द्रत किये हुए है और भारतीय रक्षा तैयारियां पहाड़ी युद्धों को ध्यान में रखकर की जा रही है। हाल के वर्षों में भारतीय सेना में माऊंटेन डिविजन लगातार बढ़ रही है। साथ ही दुर्गम क्षेत्रों में उतर कर युद्ध करने में सक्षम एयरबार्न यूनिट भी, जिनके लिए हाल ही में सी-13 हरकुलिस व 130 ग्लोबमास्टर जैसे मालवाही विमान खरीदे गये हैं। 

कारगिल युद्ध में बोफोर्स तोप
भारतीय वायु सेना भी तकनीकी रूप से चीनी वायु सेना से आगे है। चीनी वायु सेना में पुराने विमान ही बड़ी संख्या में है। उनका सुपर-7 विमान भी अमेरिका के एफ-16 की सस्ती नकल है। जो भारत के सुखोई 30-एमकेआई से तकनीकी रूप से बहुत पीछे है। भारतीय वायुसेना में जल्द ही सुखोई 50 तथा यूरोफाईटर शामिल हो जायेगे जो आकाश में भारत को निर्णायक बढ़त दिला देंगे। चीन आर्टलरी में भारत से आगे है पर पहाड़ी युद्धों में इनकी क्षमता सीमित होती है, परन्तु भारत की बोफोर्स व बह्योस जैसी लेजर आधारित शस्त्र प्रणालियां यहां भी कारगर होती हैं, क्योंकि पहाड़ों के पार ढलानों पर छिपे शत्रुओं पर सटीक निशाना लगा सकती हैं, जिसका चीन के पास कोई जवाब नहीं है।

चीन ने यदि 1962 की तरह इस बार फिर आक्रमण किया तो उसे युद्ध के पहले ही दौर में यह पता चल जायेगा कि इस बीच भारत कितना बदल गया है पर यह आर्थिक प्रतिस्पर्धा पूर्णकालिक युद्ध में बदलेगी भी, इसकी संभावना कम है क्योंकि दोनों देशों के पास परमाणु हथियार हैं व एक दूसरे के क्षेत्र में भीतर तक घुसकर मार करने की क्षमता भी, जो विनाश को और भी व्यापक बना देगा। चूंकि दोनों देशों का उद्देश्य आर्थिक विकास है सो अंततः समान क्षमता वाले प्रतिद्वंदी से भिड़कर कोई भी विनाश को निमंत्रित नहीं करेगा पर चीन जैसा धूर्त देश भारत को कमजोर करने के लिए पाकिस्तान का उपयोग करना चाहेगा, जबकि अमेरिका उसे रोकने के लिए भारत को मजबूत करेगा। ये कूटनीतियां अभी लगातार चलती रहेंगी और सीधे संघर्ष से बचते हुए दोनों देश अपने-अपने आर्थिक हितों को साधते रहेंगे। पर 1965 की तरह यदि हमने अपनी सैनिक तैयारियों में ढील दी तो हमें अपने महत्वपूर्ण सामरिक व आर्थिक हितों से हाथ धोना पड़ सकता है। हमें चौथी सदी ई.पू. के चीनी विचारक सुनत्सु की पुस्तक ‘‘आर्ट ऑफ वार’’ के कथन को ध्यान में रखना चाहिए कि ‘‘अपने शत्रु के हर कदम पर नजर रखो और उसकी विशेषताओं को कभी नजरअंदाज मत करो।’’

विवेक राज सिंह
समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 
इस ब्‍लॉग में विवेक राज सिंह जी के पूर्व आलेख - 
अन्तरिक्ष में मानव के पचास साल 
अफगानिस्तान - दिलेर लोगों की खूबसूरत जमीन
काश्मीर- जलते स्वर्ग की कथा
नेपाल एक प्रेम कहानी 

सभी चित्र गूगल सर्च से साभार

भिलाई-दुर्ग साहित्यिक बिरादरी द्वारा श्रीलाल शुक्ल को भावभीनी श्रद्धाँजलि

राग दरबारी के यशस्वी लेखक श्रीलाल शुक्ल (31 दिसम्बर 1925-28 अक्टूबर 2011) के दुःखद् निधन से शोकाकुल भिलाई-दुर्ग के संस्कृतिकर्मियों द्वारा उनके चित्र पर सभी उपस्थितों ने सिंघई विला, भिलाई में 30 अक्टूबर, 2011 को श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। जन सांस्कृतिक मंच के संरक्षक व विख्यात समालोचक डॉ. सियाराम शर्मा की अध्यक्षता में सम्पन्न श्रद्धाँजलि व स्मरण सभा में वरिष्‍ठ साहित्यकार डॉ. नलिनी श्रीवास्तव ने स्मृति-दीप प्रज्वलित कर सभा की शुरूआत की। भिलाई इस्पात संयंत्र के पूर्व जनसम्पर्क व राजभाषा प्रमुख अशोक सिंघई ने सभा का संचालन किया तथा उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुये कहा कि मृत्यु से मात्र दस दिनों पूर्व 45वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत पद्मभूषण श्रीलाल शुक्ल बहुपठ्य लेखक थे। हिन्‍दी भाषा के गद्य के टिकाऊ विकास में उनका योगदान अद्वितीय है। प्रेमचंद द्वारा गढ़ी भाषा को उन्होंने और अधिक विस्तार देते हुये जनोन्मुख बनाया। उन्हें मिले समस्त सम्मान व्यंग्य की धारा को मिले सम्मान व स्वीकृतियाँ हैं। परसाईजी के बाद व्यंग्य विधा में श्रीलाल शुक्ल ने गंभीर काम किया और अपनी वरेण्य विधा व्यंग्य की प्रतिष्‍ठा बढ़ाई श्रीवृद्धि की है।

प्रखर आलोचक डॉ. सियाराम शर्मा ने अध्यक्षीय श्रद्धाँजलि में उन्हें एक ‘क्लैसिक राइटर’ निरूपित करते हुये कहा कि औपनिवेशिक भारत का जटिल चित्र प्रेमचंद के ‘गोदान’ में, आजादी के बाद बदलते ग्रामीण स्वरूप का चित्रण रेणु के ‘मैला आँचल’ में और साठवें दशक का यथार्थपरक प्रमाणिक चित्रण हमें श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ में मिलता है। बड़ी रचनायें समय के साथ खुलती हैं। उनके समस्त लेखन में ‘राग दरबारी’ कालजयी तो है पर एक महान उपन्यास की जगह वह कई व्यंग्य-लेखों या हास्य-प्रहसनों का समुच्चय प्रतीत होता है जिसमें पात्र अपने-अपने खाँचों में कैद हैं। उनकी भाषा नई थी। उनके पास प्रेमचंद जैसी दृष्टि तो नहीं थी पर भाषा के संदर्भ में वे प्रेमचंद से एक कदम आगे ही नज़र आते हैं।

छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्‍दी साहित्य सम्मेलन के महामंत्री व वरिष्‍ठ व्यंग्यकार रवि श्रीवास्तव ने कहा कि राग दरबारी की अनेकों घटनायें अब घटती नज़र आ रही हैं। राजनीति की मूल्य-विहीनता, कदाचरण और बेशर्मी की जो कल्पनायें साठवें दशक में श्रीलाल शुक्ल ने की थी, वे सब अब साकार हैं।

वरिष्‍ठ व्यंग्य के सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर विनोद साव ने बताया कि श्रीलाल शुक्ल ने विपुल लेखन किया है। ‘राग दरबारी’ के अलावा ‘मकान’, ‘सूनी घाटी का सूरज’, ‘पहला पड़ाव’, ‘अज्ञातवास’ तथा ‘विश्रामपुर का संत’ आदि उनकी अत्यंत चर्चित रचनायें हैं। उनके अनेक व्यंग्य संग्रह हैं। निर्मल वर्मा, कमलेश्वर की श्रेणी के वे विशुद्ध गद्यकार थे। वे उत्कृष्‍ठ साक्षात्कार-देते थे। तद्भव के सम्पादक अखिलेश के साथ साक्षात्कार के रूप में उनकी लंबी बातचीत एक महत्वपूर्ण साहित्यिक दस्तावेज़ है। लेखकों में सभी प्रवक्ता नहीं होते, वे दुर्लभ लेखक-प्रवक्ता थे।

डॉ. नलिनी श्रीवास्तव ने कहा कि उनका लेखन उन्हें हमेशा जीवित रखेगा। वरिष्‍ठ साहित्यकार पत्रकार शिवनाथ शुक्ल ने कहा कि प्रेमचंद के बाद ग्रामीण परिवेश का इतना सुन्दर चित्रण और कहीं देखने नहीं मिलता। रेणु की धारा में होते हुये भी वे आँचलिकता से मुक्त थे। कवि विजय ‘वर्तमान’ ने बताया कि जब वे हाईस्कूल के छात्र थे, तभी उन्होंने डाक से मँगवाकर ‘राग दरबारी’ पढ़ी थी। उसे दुबारा एम.एस-सी. करने के बाद पढ़ा और अर्थ खुलते चले गये। सतीश कुमार चौहान ने कहा कि ‘सरिता’ में एक रचना पुरस्कृत हुई थी और जीवन के इस पहले पुरस्कार में मिली थी पुस्तक ‘राग दरबारी’। यह अनुभव मैं कभी नहीं भुला पाऊँगा। वरिष्‍ठ रंगकर्मी आनन्द अतृप्त ने संकल्प लिया कि उनके कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ पर एक पूर्णकालिक नाटक खेलूँगा। व्ही.व्ही.एन. प्रसाद राव ने बताया कि एक नाटक देखते समय उनकी बगल में बैठने का सुअवसर मिला था जिसमें मंच पर ही बारात का दृश्य साकार किया गया था। वह दृश्य और वह निकटता मेरी स्मृतियों में टँक गई है। कवि शिवमंगल सिंह एवं ‘संचार टुडे’ के सम्पादक डी.एस. अहलुवालिया ने भी अपने विचार व्यक्त किये।

इस अवसर पर बहुमत के सम्पादक विनोद मिश्र, शायर मुमताज़, ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ के सम्पादक प्रदीप भट्टाचार्य, सांगीतिक संस्था ‘गुँजन’ के अध्यक्ष शैलेन्द्र श्रीवास्तव, कवि राजा राम रसिक, पत्रकार प्रशान्त कानस्कर, समाजसेवी ओ.पी. शर्मा, भिलाई क्रिश्चियन कौंसिल के अध्यक्ष रेव्हरेण्ड अर्पण तरुण, पुनीत कुमार गुप्ता, सहित भिलाई-दुर्ग के साहित्यकार व साहित्यप्रेमी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...