स्‍वप्‍नों का व्‍यवसाय : Speak Asia और उसके चम्‍मच

अभी पिछले महीनें मुझे एक पुराने मित्र नें बहुत दिनों बाद फोन किया, मैंने पिछले वर्ष उसका एक हिन्‍दी ब्‍लॉग बनाया था। हाल चाल के बाद उसने पूछा कि मेरी ब्‍लॉगिंग कैसे चल रही है। इधर-उधर की बातों के बाद वो आया कि उसने भी घर में ब्राडबैंड कनेक्‍शन ले लिया है और वो हिन्‍दी नेट व हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग के प्रति उत्‍सुक है। मैंनें सहयोग के लिए हामी भरी और बात बंद करनी चाही तो उसने कहा कि पते की बात तो बताना भूल गया। मैंने जब पूछा कि ये पते की बात क्‍या है तो उसने कुछ 'झाड़-झंखाड़' से कमाई वाली कोई योजना के बारे में विस्‍तार से बतलाया। चूंकि मुझे चमत्‍कारिक रूप से प्राप्‍त धन पर विश्‍वास और भरोसा नहीं है इसलिए मैंनें अपना काम जारी रखते हुए, उसका मान रखा और उसकी बात सुनी। उसके बातों को मेरे विरोधी मन नें जो कुछ ग्रहण किया उसमें सिर्फ एक वाक्‍य था 'स्‍पीक एशिया' 'आनलाईन सर्वे'। मैंनें मित्र को 'देखते हैं', कह कर चलता किया और मोबाईल बंद कर दिया।

दूसरे दिन मित्र का पुन: फोन आया कि आपने नेट में 'स्‍पीक एशिया' 'आनलाईन सर्वे' सर्च किया क्‍या। मैंरे 'नहीं' कहने पर वह उस कम्‍पनी की पुन: बड़ाई बतलाने लगा और साथ ही उसने मेरी राय मांगी कि क्‍या उसे 11000/- रूपयों के गुणक में कुछ अंश का निवेश करना चाहिए। मैंनें मना किया तो उसने स्‍वयं इसका हल देते हुए कहा कि वापसी में कम्‍पनी 1000/- के गुणक में प्रति सप्‍ताह राशि वापस करेगी जिससे लगभग एक डेढ़ महीने में ही हमें हमारा जमा पैसा वापस मिल जायेगा, आगे की कमाई तो शुद्ध है। बस एक महीने कम्‍पनी बनी रहे। उसकी स्‍वयं की संतुष्टि पर मैंनें कहा कि भाई आपकी मर्जी, मैं उत्‍सुक नहीं हूँ, मैं पांच पैसे भी इस कम्‍पनी में निवेश नहीं करूंगा, भले ही यह मुझे लाखो रूपये देने का प्रलोभन देवे।

नेट में मैने जब स्‍पीक एशिया (Speak Asia) को खोजा तो उसका एक हिन्‍दी ब्‍लॉग स्‍पीक एशिया इंडिया आनलाईन मिला और भी बहुत सारे समान नाम वाले पोर्टल मिले। जिसमें से स्‍पीक एशिया के एक पोर्टल में इस प्रकार से लुभावने शब्‍दों का प्रयोग किया गया था ''आप आर्थिक स्वतंत्रता के लिए दिन रात मेहनत करते हैं लेकिन हासिल उतना नहीं हो पाता जितना आप उम्मीद करते हैं तो अब सिंगापुर की एक ओन लाईन सर्वे कंपनी आपको उम्मीद से बढ़ कर देने वाली है। जी हां यह कोरी कल्पना नहीं बल्कि एक हकीकत है। यह कहना है प्रिंट एण्ड इलेक्ट्रानिक नेटवर्क समूह का। हिंदी की यह पत्रिका देश की पहली ऐसी पत्रिका है जिसने आन लाईन मार्केटिंग के इस कायाकल्प की पूरी इत्मीनान से समीक्षा की है। पत्रिका के मुताबिक 90 का दशक जहां सूचना क्रांति का दशक रहा वहीं 2000 से 2010 तक का वक्त नेटवर्क मार्केटिंग के नाम रहा किंतु इस दौरान इन कंपनियों ने लोगों को सपने बेचने के सिवा कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया। लोगों को लाखों करोड़ों के ख्वाब दिखाए गए और हाथ कुछ भी नहीं आया। किंतु अब स्पीक एशिया ओन लाईन के पदार्पण से दावा किया जा सकता है कि सर्वे व नेटवर्किंग के मिश्रण से यह कंपनी लोगों को कमाई का बेहतरीन विकल्प उपलब्ध करवा रही है।''

नेट में बिखरे स्पीक एशिया के अवशेषों के अनुसार यह कम्‍पनी मई 2010 से भारत में ऑनलाइन सर्वे का काम करनें का दम भर रही है। कम्‍पनी सदस्य बनाने के लिए रू. 11,000/- लेती है, फिर कम्‍पनी महीने में कुल 8 सर्वे कराती है और इसके बदले में हर सर्वे के लिए 500 रुपए सदस्‍यों को देती है। इस प्रकार से लगभग तीन महीनें में सदस्‍य द्वारा जमा किया गया रूपया वापस प्राप्‍त हो जाता है। आनलाईन सर्वे के नाम पर यह कुछ सामान्‍य प्रश्‍नों का उत्‍तर फार्म फारमेट में पूछती है और उसके बाद पैसे का भुगतान करती है। और ... लगभग मुफ्त में प्राप्‍त होने वाले पैसे के लोभ में लोग फंसते चले जाते हैं। इस सारे खेल में एजेंटों/बिचौलियों की भूमिका अहम होती है जो स्‍पीक एशिया जैसी कम्‍पनी से भी ज्‍यादा गुनहगार हैं जो अपने बीच के लोगों को सपना दिखा कर लूटते हैं।

मैं सालों से इन स्‍वप्‍न बेंचने वाली कम्‍पनियों में फंसते मध्‍यमवर्गीय परिवार को देख रहा हूँ जो शार्टकट से पैसा कमाने के लालच में इन कम्‍पनियों के चक्‍कर में आते हैं। स्‍पीक एशिया जैसी कम्‍पनी अपनी लुभावनी बातों से लोगों के मर्म में ललक जगाती है, उनकी आकांक्षाओं में पर लगाती है, और-और की भावना को बलवती करती है और सितारा होटलों में मीटिंग कराकर ग्राहकों को फांसती है। कल्‍पतरू ब्‍लॉग में स्‍पीक एशिया के संबंध में पहले भी चेतावनी दी गई, मोलतोल में भी कहा गया था, और अक्टूबर में मनीलाईफ़ पत्रिका ने इनके व्यवसाय के बारे में आपत्ति जताई थी इसके बावजूद लोग पिल पड़े थे। आज 'स्‍पीक एशिया' 'आनलाईन सर्वे' का हाल आप सबके सामने है, कम्‍पनी नें भारत में लगभग 19 लाख सदस्य बनांए हैं और उनसे करोड़ो रूपये जमा करवाये हैं। मेरे मित्र नें भी लगभग दो लाख रूपये का चढ़ावा इस कम्‍पनी में चढ़ाया है, किन्‍तु उसे भरोसा है कि उसका पैसा उसे मिल जायेगा ... खुदा ख़ैर करे।

संजीव तिवारी

तन संयुक्‍त राष्ट्र संघ में, मन छत्‍तीसगढ़ में

पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्‍तुत है बारहवीं और आखिरी किस्त ....



न्‍यूयार्क में संयुक्‍त राष्ट्र के मुख्यालय में जाना दिलचस्प होता है। मेरे वहां के मेजबान आनंद इसी मुख्यालय में काम करते हैं इसलिए उनके साथ वहां पहुंचना भी आसान होता है और भीतर तमाम चीजों को देखना-समझना भी। पिछली बार जब मैं वहां गया तब संयुक्‍त राष्ट्र की इमारत में कुछ दूसरे मुद्दों पर प्रदर्शनी लगी थी और इस बार वहां बंधुआ मजदूरी, गुलामी प्रथा और लैंड माइंस (जमीनी सुरंग) के खिलाफ प्रदर्शनी लगी थी। 

संयुक्‍त राष्ट्र लंबे समय से हर बरस 4 अप्रैल को अंतरराष्ट्रीय लैंड माइन (जमीनी सुरंग) दिवस मनाते आ रहा है। इस बार वहां ऐसी तस्वीरों की प्रदर्शनी लगी थी जिनमें दुनिया के कई देशों ने लोगों के पैर या दूसरे हिस्से ऐसी सुरंगों के धमाकों से उड़ चुके थे। इनमें बच्‍चों से लेकर बड़े तक हर उम्र के लोगों की तस्वीरें। इन तस्वीरों को देखते हुए मुझे एक ही बात लगती है कि भारत में जिन नक्‍सल-हमदर्दों ने संयुक्‍त राष्ट्र तक अपने लिए दौर लगाई उनमें से कितने ऐसे थे जिन्‍होंनें इस देश में नक्‍सलियों द्वारा लगातार इस्तेमाल की जाने वाली जमीनी सुरंगों के खिलाफ कोई अभियान छेड़ा है? कहने को ऐसे लोग अपने कुछ बयानों की कुछ कतरनें दिखा सकते हैं कि वे तो हिंसा के खिलाफ हमेशा से बोलते आए हैं लेकिन इस बात को उनसे बेहतर और कौन जान-समझ सकता है कि एक तरफ वे सरकार के खिलाफ रोज लोकतंत्र के किसी न किसी फोरम तक दौर लगाते हैं तब नक्‍सलियों के बारे में बहुत ही सोची-समझी ऐसी आलोचना जिसमें अनिवार्य रूप से ‘सरकारी हिंसा’ का आरोप लगाते हुए उसके साथ जोडक़र ही कुछ कहते हैं।

यह सोचते हुए मैं इस प्रदर्शनी को देखते रहा और इसी मंजिल पर बगल में लगी एक दूसरी प्रदर्शनी में गुलामी प्रथा के देशों से आई हुई, कपड़ों पर बनी ऐसी तस्वीरें देखते रहा जो छत्‍तीसगढ़ की गुदना कला जैसी दिख रही थीं। उन दोनों को साथ-साथ देखते हुए दिल-दिमाग फिर घूम -फिरकर अपने इलाके छत्‍तीसगढ़ की तरफ लौट रहा था और मैं इन दोनों को जोडक़र सोच रहा था कि क्‍या जमीनी सुरंगों वाली हिंसा पर टिका हुआ नक्‍सल युद्ध उस इलाके के लोगों को हिंसा का गुलाम बनाकर नहीं रख रहा है? कहने को नक्‍सलियों के हमदर्दों के पास, और नक्‍सलियों के पास अपनी हिंसा की वकालत के कई तर्क हो सकते हैं लेकिन यह जाहिर है कि वे तमाम तर्क लोकतंत्र को खत्‍म करने की बुनियाद पर ही टिके हुए हैं। ऐसे में एक सवाल यह भी उठता है कि जिस दिन नक्‍सली लोकतंत्र को सचमुच खत्‍म कर पाएंगे, और अगर कर पाएंगे, तो उस दिन उनके आज के हमदर्दों को बोलने की कितनी आजादी होगी? क्‍या उनके आज के सारे उदार विचार उनके गलों को उसी तरह काटने का आधार नहीं बन जाएंगे जैसे कि आज अपने कब्‍जे के इलाकों में नक्‍सली जिसे चाहे उसे पुलिस का मुखबिर कहकर उसका गला रेत देते हैं? 

लेकिन यह सब सोचते हुए और यह प्रदर्शनी देखने के बाद जब हम संयुक्‍त राष्ट्र की सामान्‍य सभा के उस विशाल हॉल में पहुंचे जहां पर होती कार्रवाई आमतौर पर टीवी की खबरों में देखने मिलती है तो वहां गुजारे कुछ मिनट इस ऐतिहासिक संस्था के आज इस कदर बेअसर हो जाने पर सोचते हुए गुजरे। अमरीकी सरकारी अधिकारियों में जो दोस्ताना बर्ताव दिखता है वह संयुक्‍त राष्ट्र के अधिकारियों में भी कायम था। इस हॉल के भीतर पर्यटक अपने गाईड के साथ मौजूद थे, लेकिन वहां के सुरक्षा अधिकारी ने खुद होकर हमें आगे बढ़ाया और कहा कि हम मंच पर जाकर तस्वीरें ले सकते हैं। ये मेरे लिए एक अजीब अनुभव था क्‍योंकि हिन्‍दुस्‍तान में अधिक से अधिक लोग सरकारी वर्दी या कुर्सी में आते ही अधिक से अधिक लोगों को हर जगह रोकने पर उतारू होते हैं। अपनी तस्वीरें उतरवाना पसंद न रहते हुए भी आनंद के कहे मैं इस मंच पर चले गया और उसने इस तरह की मेरी तस्वीर खींची कि मानो मैं संयुक्‍त राष्ट्र संघ की सामान्‍य सभा में भाषण दे रहा हूं। 

संयुक्‍त राष्ट्र में घूमते हुए मुझे सान फ्रांसिस्को में एक फुटपाथ के किनारे का एक फौव्वारा याद पड़ा जिसे दिखाते हुए बर्कले के मेरे प्राध्‍यापक दोस्त लॉरेंस कोहेन ने बताया था कि संयुक्‍त राष्ट्र संघ की स्थापना उसी जगह हुई थी। लेकिन राष्ट्र संघ के बारे में आज अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकारी रखने वाले यह कहते हैं कि उसका महासचिव अमरीकी सरकार के एक अधिकारी की तरह काम करता है और अमरीका के हितों के खिलाफ राष्ट्र संघ कुछ नहीं करता। मैं इस तरह की हल्की-फुल्की बातचीत को किसी विश्‍लेषण के निष्कर्ष के रूप में यहां रखना नहीं चाहता क्‍योंकि कुछ घंटों का मेरा राष्ट्र संघ मुख्यालय देखना एक पर्यटक जैसा ही था, किसी अंतरराष्ट्रीय विशेषण जैसा नहीं। 

इस इमारत में भीतर आते और बाहर निकलते एक बड़ी सी कलाकृति ढाई बरस पहले भी देखने मिली थी और अभी भी इसमें एक तमन्‍चे की नाल को मोडक़र रख लिया गया है मानो वह हथियारों का विरोध हो। लेकिन दुनिया के देशों के बीच टकराव को सुलझाने और एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कायम करने के लिए बनी इस संस्था का कोई योगदान तमन्‍चे को इस तरह मोडऩे में नहीं है। राष्ट्र संघ के ठीक सामने एक बड़ी सी अमरीकी इमारत नई बनी है जिसकी नीचे की बहुत सी मंजिलों को किसी हमले से बचाने के हिसाब से उन्‍हें ठोस कांक्रीट का बनाया गया है और वहां कोई खिड़कियां भी नहीं रखी गई हैं। संयुक्‍त राष्ट्र संघ की तमन्‍चे वाली यह कलाकृति ऐसी लगती है कि मानो अमरीकी इमारत की तरफ निशाना किए हुए तमन्‍चे को राष्ट्र संघ ने मोडक़र रख दिया है। यह सब तो अपने पूर्वाग्रह की वजह से दिखने वाले प्रतीक हैं, लेकिन मैं यह सोचते रहा कि गांधी से लेकर संयुक्‍त राष्ट्र संघ तक, और दुनिया के सबसे बड़े हमलावर देश अमरीका से लेकर दुनिया के एक सबसे गैर गांधीवादी, भ्रष्ट और बेईमान देश, भारत, क्‍या अब गांधी से लेकर संयुक्‍त राष्ट्र तक किसी भी बात से प्रभावित होते हैं? या फिर हम जैसे लोगों की कोशिशें सिर्फ आत्‍म संतुष्टि के लिए हैं? 

(फिलहाल यह आखिरी किस्त, बाकी कुछ अलग-अलग बातें कुछ और मौकों पर)
सुनील कुमार

गांधीवादी पदयात्रा शुरू होने के पहले एक दिन हॉलीवुड में



पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्‍तुत है ग्‍यारहवीं किस्त ....


दांडी मार्च-2 शुरू होने के पहले अमरीका के हॉलीवुड वाले शहर लॉस एंजल्स में मेरे पास एक दिन का वक्त खाली था। वहां के आयोजकों ने मुझे एक दिन पहले आने की सलाह इसलिए दी थी कि दांड़ी में 12 घंटे से अधिक का पडऩे वाला फर्क मैं झेल सकूं। दिन की जगह रात, और रात की जगह दिन कुछ लोगों पर भारी पड़ते हैं। लेकिन कुछ बार दुनिया में बाहर जाने से मेरा यह अनुभव हो गया था कि कहीं पहुंचकर दिन में सोने के बजाय अगर सीधे काम पर जुट जाए तो ‘जेट लैग’ कहा जाने वाला यह असर कम होता है। इसलिए मैंने मेरे मेजबान श्रीपाल से कहा कि मैं इस दिन का इस्तेमाल घूमने-फिरने के लिए करना चाहूंगा न कि आराम करके वक्त बर्बाद करने में।


उन्‍होंने मेरे लिए हॉलीवुड के यूनिवर्सल स्टूडियो का दिन भर का एक टिकट खरीदकर दिया और सुबह वहां पहुंचा दिया। मैं आमतौर पर पर्यटकों की तरह ऐसी दर्शनीय या मशहूर जगहों पर कम से कम जाता हूं लेकिन फिल्मों में अपनी पुरानी दिलचस्पी और फिल्म निर्माण की तकनीक की बहुत हल्की सी समझ के चलते मुझे यह स्टूडियो देखने में दिलचस्पी भी थी। एक पहाड़ी सी जगह पर बसा हुआ यह स्टूडियो एक तरफ तो इसकी बनी हुई फिल्मों की एक झलक ही दिखाता है और दूसरी तरफ यह भी दिखाता है कि आने वाली टेक्‍नालॉजी किस तरह की है। अब तक सिनेमाघरों में थ्रीडी फिल्में चलती हैं लेकिन यहां पर फोरडी फिल्में दिखाई जा रही थीं। त्रिआयामी से अधिक कोई आयाम कैसे हो सकता है यह कल्पना आसान नहीं थी। लेकिन जब खास बने सिनेमाघरों में फिल्मों के साथ कुर्सियां हिलती हों, कहीं से पानी आकर गिरता हो, कहीं कानों में तेजी से हवा आ जाती हो, कहीं छत और स्क्रीन से कोई कलाकार उतरकर फिल्म के परदे की कहानी के साथ जुड़ जाते हों, कहीं परदे की फिल्म पर बारिश के साथ-साथ सिनेमाघर की छत पर बिजली कौंधने लगती हो तो वह फिल्म देखना नहीं होता, उसका अनुभव करना होता है। वहां के कई सिनेमाघरों में ऐसी खास बनी हुई फिल्में दिखाई जा रही थीं जिनमें परदा और सिनेमाघर एक हो गया था और फिल्म एक नाटक की तरह, स्टंट की तरह जिंदा भी थी। कब परदे से निकलकर कोई मोटरसाइकिल पर हॉल में आ जाता था और कब छत से रस्‍सी उतरकर कोई परदे में चला जाता था, यह एक हैरान कर देने वाली तकनीक थी । ऐसे सिनेमाघरों में नोटिस लगे थे कि दिल के मरीज और गर्भवती महिलाएं सबसे आखिर की कतार में बैठें, जहां की सीटें नहीं हिलेंगी।

यह स्टूडियो फिल्मों को बनाने के साथ-साथ एक बहुत बड़ा पर्यटन उद्योग बन गया है और 1930 के पहले से यहां पर फिल्में बनना और पर्यटकों को घुमाना दोनों काम चल रहा है। मेरे जैसे नए लोग जब ऐसे आधुनिक और व्यस्त फिल्म उद्योग को उसकी सबसे नई तकनीक के साथ देखते हैं तो लगता है कि फिल्मों की संभावनाएं परदे से परे भी कितनी है। एक वक्त इस स्टूडियो की पहाड़ी और जगह पर बाग-बगीचे भी थे जिनमें होने वाले फल-सब्‍जी पर्यटकों को बेचे भी जाते थे। लेकिन अब एक कस्बे की तरह बड़ा यह स्टूडियो अब फिल्म निर्माण की जानकारी वहां आए पर्यटकों को देने के साथ-साथ एक ऐसा थीम-पार्क भी है जो कि अमरीका में पर्यटकों के लिए जगह-जगह बने हुए हैं।

दुनिया के कई देशों से आए हुए कई हजार पर्यटक इस स्टूडियो में एक साथ मौजूद थे और इसकी दसियों हजार लोगों को एक साथ समाने की क्षमता उस दिन पूरी इस्तेमाल नहीं हो रही थी। करीब घंटे भर में इस स्टूडियो की सैर कराने वाली 3 डिब्‍बों वाली बस के लिए खासी लंबी कतार लगती है और इसका एक-एक मिनट लोगों को अलग-अलग नजारे दिखाने वाला रहता है। कहीं एक तालाब में उस शार्क मछली का हमला दिखाया जाता है जो कि बरसों पहले आई ‘जॉज’ (जबड़े) का एक रोमांचक नजारा पेश करती है। इसी तरह एक चर्चित फिल्म ‘जुरासिक पार्क’ का नजारा महसूस कराने के लिए एक सुरंग में ले जाकर बस खड़ी कर दी जाती है और उसकी दीवारों पर इस फिल्म के डायनासॉर झपटकर आते, आपस में लड़ते और बस में बैठे पर्यटकों पर पानी फेंकते दिखते हैं। उनकी चिंघाडऩे की आवाज के साथ जब चारों तरफ से वे झपटते हैं, और पूरी की पूरी बस बुरी तरह से डगमगाने लगती है, आसपास यह दिखता है कि किस तरह एक दानवाकार डायनासॉर ने बस के एक डिब्‍बे को उठाकर फेंक दिया है तो बस में बैठे पर्यटक चीख पड़ते हैं। यह नजारा ऐसा त्रिआयामी था कि मेरा कैमरा उसके लायक नहीं था, और कोशिश करने पर भी कैमरे के भीतर इसमें से कोई तस्वीर तो नहीं आई, कैमरे के बाहर ‘डायनासॉर’ का फेंका हुआ पानी जरूर आ गया। किसी बस को झिंझोड़ते हुए उस बस से कई गुना बड़ा डायनासॉर किस तरह दिल दहला सकता है इसका अंदाज ऐसी फिल्मों को सिनेमाघर में देखने से नहीं लग सकता क्‍योंकि वहां पूरा हॉल तो हिल नहीं सकता और यहां किसी खास तरह से बने हुए सुरंग के प्‍लेटफॉर्म पर पूरी बस मानो भूकंप का शिकार थी।

इस पूरे दिन का दांडी मार्च के साथ रिश्ता इतना ही था कि मैं वहां अमरीका के एक मोबाईल फोन से वहां के अलग-अलग शहरों में बसे अपने दोस्तों से यह बताते चल रहा था कि मैं इस सिलसिले में यहां पहुंचा हूं और वे भी कोशिश करके कम से कम एक दिन के लिए दांडी मार्च में आने की कोशिश करें। उनको यह भरोसा नहीं हो रहा था कि मैं इतना सिरफिरा काम कर सकता हूं और पैदल चलने के लिए हिन्‍दुस्‍तान से अमरीका अपने खर्च पर आ सकता हूं। इनमें से कई दोस्त ऐसे थे जिन्‍होंने इंटरनेट पर मेरे गाजा कारवां को पढ़ा था और उनमें से कुछ को यह लगा कि फिलीस्तीन तक का वह सफर इजराइल और अमरीका के खिलाफ था इसलिए अब मैं प्रायश्चित करने अमरीका पहुंचा हूं। इस एक दिन में दर्जनों दोस्तों से कोई एक दर्जन अमरीकी शहरों में बात हुई और उनमें से कुछ अपने-अपने शहरों में दांडी मार्च-2 के आखिरी दिन होने वाले कार्यक्रम में शामिल होने को तैयार भी हुए। उन लोगों को इस पदयात्रा के लिए मेरा आना जितना अजीब लग रहा था उतना ही अजीब मुझे दांडी मार्च के लिए पहुंचकर यह स्टूडियो देखना लग रहा था। लेकिन यह मार्च शुरू होने के पहले का दिन था और इसके बाद फिर किसी दिन किसी मनोरंजन की कोई गुंजाइश अगले पखवाड़े नहीं निकलनी थी, और नहीं निकली।

दुनिया भर से आए पर्यटकों में से जिन लोगों ने इस स्टूडियो में बनी हुई बड़ी-बड़ी फिल्में देखी थीं वे उन फिल्मों के सेट्स पर दिखाई जाती करतबों का मजा बहुत अधिक ले रहे थे लेकिन उन फिल्मों को देखे बिना भी मैं यहां की एक्‍शन के एक-एक पल को देखते ही रह गया। ‘वॉटर वल्र्ड’ शायद किसी फिल्म का नाम था और उस फिल्म के सेट को एक स्टेडियम की तरह बनाकर एक साथ हजारों दर्शकों को वहां जिस तरह की एक्‍शन दिखाई जाती है वह किसी फिल्म के मुकाबले बहुत ही अधिक रोमांचक रही। इस सेट के छोटे से तालाब में जिस तरह बाहर से आकर एक पूरा हवाई जहाज गिरता है वह तकनीकी बारीकी देखने लायक है। स्टूडियो के एक हिस्से में एक विमान दुर्घटना के बाद का नजारा दिखाता हुआ एक पूरा विमान बिखरा पड़ा था। स्टीवन स्पीलबर्ग की किसी फिल्म के लिए यह असली विमान लाकर उसे चूर-चूर करके विमान दुर्घटना पर वह फिल्म बनी थी और यहां पहुंचने वाले लोगों के लिए विमान दुर्घटना का नजारा देखने का जिंदगी का शायद यह इस किस्म का अकेला ही अनुभव रहेगा। फिल्मों के बहुत से पात्रों की तरह बने हुए वहां पर लोग घूम रहे थे और उनके साथ बच्‍चे- बड़े सभी लोग तस्वीर खिंचाने में भी लगे थे। अमरीका किस तरह एक बहुत ही कामयाब बाजार बना लेता है यह देखना हो तो एक तरफ तो कैलिफोर्निया के इस पश्चिम तट पर इस स्टूडियो जैसी जगह है जहां से कुछ दूरी पर ही उस दिन सुनामी के आने के खतरे के हिसाब से तैयारी चल रही थी और लोगों का समंदर के किनारे जाना रोक दिया गया था।

दूसरी तरफ जब इस दांडी मार्च-2 के खत्‍म हो जाने के बाद मैं कैलिफोर्निया के पूर्वी तट पर न्‍यूयार्क पहुंचा तो वहां 11 सितंबर के हमले के शिकार विश्व व्यापार केंद्र की खत्‍म हो चुकी इमारतों की जगह बन रहे स्मारक के स्मृति चिन्‍हों की एक सरकारी दूकान ही लगी हुई थी। वहां लादेन के विमानों के हमले से इमारतों के गिरने के साथ-साथ आसपास के जिन पेड़ों से पत्तियां गिर गई थीं, उन पत्तियों की शक्‍ल के स्मृति चिन्‍ह भी इस दूकान में थे, जो कि किसी कलाकार द्वारा धातु की प्‍लेट पर बनाए गए थे। 11 सितंबर के हमले के स्मारक-चिन्‍हों की बिक्री देखकर मुझे यह भी याद आया कि किस तरह ढाई बरस पहले इसी शहर में अमरीका के मूल निवासियों के एक सरकारी संग्रहालय में आदिवासी कला के सामानों की एक दूकान भी थी। और वहां पर एक दान पेटी लगी हुई थी जिस पर लिखा था कि मूल निवासियों की मदद के लिए कृपया दान दें। मुझे अभी तक उस वक्त के लिखे हुए सफरनामे की याद है जिसमें इस संग्रहालय की इमारत में ही ठीक बगल में अमरीका की दीवाला-अदालत थी जहां पहुंचकर कोई भी व्यक्ति अपने दीवालिए हाल को कानूनी दर्जा दिलवा सकता है। जहां पर खरबपति कंपनियां दीवाला निकालकर सरकार को चूना लगाती हों वहीं पर वहां के मूल निवासियों (भारत की जुबान में आदिवासियों) के संग्रहालय में उन सबसे पहले बाशिंदों के लिए सरकार दान मांग रही थी।

अमरीका हो, ऑस्‍ट्रेलिया या हिन्‍दुस्‍तान , मूल निवासियों का बेहाल शायद एक सरीखा है। और यह बात मुझे उस वक्त भी लगी थी जब अवतार नाम की फिल्म देखकर मैं उसकी समीक्षा लिख रहा था। न्‍यूयार्क में दुनिया में आतंक के इस सबसे बड़े हादसे को देखने लोग वहां लगातार आ-जा रहे थे, ग्राउंड जीरो कही जाने वाली इस खाली हो गई जमीन पर इमारतें अभी तक बन ही रही हैं और उसके चारों तरफ जिंदगी जारी है। इस एक जगह कुछ घंटे अकेले बैठकर मैं इस स्मारक की इमारतों को भी देखते रहा और अमरीका के खिलाफ हुए इस आतंकी हमले के बारे में, इसके पीछे की वजहों के बारे में और आगे के खतरों के बारे में सोचते हुए, तकरीबन बिना देखते हुए तस्वीरें भी लेते रहा। इस जगह आते-जाते लोगों में हिन्‍दुस्तानियों का हिस्सा इतना अधिक था कि एक पल को यह भी लगता था कि यह न्‍यूयार्क न होकर मुंबई है और यहां विदेशी पर्यटक इस पल थोड़े से अधिक दिख रहे हैं। बाद में मेरे दोस्त आनंद ने बताया कि फायनांस सेक्‍टर में हिन्‍दुस्तानी बहुत बड़ी संख्या में हैं और यहां आसपास उस तरह के दफ्तर बहुत अधिक हैं।

बाजार के छोटे-छोटे इश्तहार वहां सडक़ों के किनारे बिजली के खंभों पर कील से ठोंक देने का चलन है। कुछ लोगों को यह देखकर हैरानी भी हो सकती है कि किस तरह अमरीका के सबसे विकसित राज्‍यों में से एक, कैलिफोर्निया में बिजली के शायद अधिकतर खंभे लकड़ी के हैं। ऊंचे-ऊंचे 30-30 फीट लंबे खंभे, किसी एक पेड़ के तने के ही हैं और उन पर बिजली के भारी-भरकम हाई वोल्टेज तार भी टंगे हैं और बिजली के उपकरण भी। ऐसे में इन तनों पर बाजार अपने इश्तहार टांग देता है और उनके निकल जाने के बाद उनकी कीलें इन खंभों पर टंगी रह जाती है और ऐसी दर्जनों तस्वीरें लेते हुए मेरे दिमाग में इनके लिए एक ही बात आती रही-बाजार का सलीब। ईसा मसीह के नाम के साथ जुड़े हुए सलीब के साथ जैसा दर्द जुड़ा हुआ है शायद वैसा ही दर्द एक बाजार व्यवस्था पूरी दुनिया के लिए खड़ा करते रहती है।

क्रमश: अंतिम किश्‍त ...

सुनील कुमार

बाजार और सरकार की मिली-जुली साजिश वाला अमरीका


पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्‍तुत है दसवीं किस्त ....


 दांडी मार्च-2 के दौरान कुल एक बार ऐसा मौका आया जब ट्रेन में बैठना नसीब हुआ। अमरीका में रेलगाडिय़ों का चलन नहीं के बराबर है। हर कोई अपनी बड़ी-बड़ी निजी कारों पर निर्भर रहता है और लंबी दूरी का सफर लोग विमान से तय करते हैं। ऐसे में सान फ्रांसिस्को शहर में गांधी प्रतिमा पर समापन समारोह के पहले उस इलाके में इस पदयात्रा के कुछ पर्चे वहां आसपास के भारतीय मूल के लोगों को देने के मकसद से एक दिन पहले उस दिन का आखिरी 6 मील का हिस्सा हम लोगों ने वहां जाकर तय किया। इसके लिए पास के एक शहर में पहले 12-13 मील चलने के बाद एक रेल्वे स्टेशन पहुंचे और वहां से ‘बार्ट’ में सवार होकर गए। वहां रेलगाड़ी को बार्ट कहा जाता है और स्टेशन की पार्किंग से लेकर प्‍लेटफार्म और रेल के डिब्‍बों तक काम के दिन में काम के घंटे और शाम के घंटे ऐसे सुनसान पड़े हुए थे मानो रेलगाड़ी का दिवाला निकला हुआ हो। जाहिर था कि लोग वहां रेलगाड़ी के भरोसे जिंदगी नहीं चला सकते हैं। अमरीका में शहर के भीतर और शहरों के बीच सार्वजनिक परिवहन को ऑटोमोबाईल उद्योग ने सोच-समझकर साजिश के साथ तबाह किया ताकि गाडिय़ां बिक सकें। मुझे साथ चलने वाले लोगों ने कहा कि जनरल मोटर्स ने अमरीका की रेलगाडिय़ों को खरीदकर पटरियों को उखाडक़र खत्‍म कर दिया ताकि एक वक्त की अमरीका की यह सबसे बड़ी कंपनी अपनी गाडिय़ों के लिए लोगों को मजबूर कर सके। यह चर्चा मैं बरसों से सुनते आ रहा था और अभी जब इस बारे में लिखते हुए इंटरनेट पर पढ़ रहा हूं तो यह जानकारी मिल रही है कि 1950 के पहले ही जनरल मोटर्स और कुछ दूसरी कंपनियों ने शहरों के भीतर चलने वाली ट्राम गाडिय़ों को खरीदकर उन्‍हें कबाड़ घर भेज दिया और उनकी जगह अपनी बनाई बसों को खपाना शुरू किया। इस साजिश के बारे में कुछ फिल्में बनीं और मीडिया में इसके बारे में लिखा भी गया।
1946 में एक रिटायर्ड नौसेना अफसर ने पूरे देश में इस सबसे महत्‍वपूर्ण जनसुविधा को खत्‍म करने की साजिश का भांडाफोड़ किया। इसके बाद 1949 जनरल मोटर्स और दूसरी कंपनियों के बसों की बिक्री में एकाधिकार खड़ा करने की साजिश का कसूरवार पाया गया और सजा सुनाई गई। लेकिन इस दौरान वहां के 45 बड़े शहरों में बसों की पूरी सर्विस को थोप दिया गया था। और आज वहां गिने-चुने ऐसे शहर हैं जहां पर लोकल ट्रेन या ट्राम बच गई हैं।

अमरीकी कंपनियों के साथ साजिश में हिस्सेदारी करके वहां की सरकार ने टैय्स का ढांचा ऐसा बनाया कि निजी गाडिय़ां लेना और उन पर चलना लोगों के लिए आसान लगने लगा और इससे इन कंपनियों की बिक्री बढ़ी और सार्वजनिक परिवहन को खत्‍म करने की साजिश जारी रही। इस पूरे मामले को ‘ग्रेट अमेरिकन स्ट्रीटकार स्कैंडल’ कहा गया और यह अमरीकी इतिहास में एक बड़े भ्रष्टाचार के रूप में दर्ज है। इस भ्रष्टाचार में रिश्वत का लेन-देन दर्ज हुआ हो या न हुआ हो, बाजार और सरकार मिलकर किस तरह एक देश के चलते-फिरते ढांचे को खत्‍म कर सकते हैं ये देखने लायक मामला है। सरकार और अदालतों की कार्रवाई में जगह-जगह यह लिखा गया कि किस तरह जनरल मोटर्स जैसे एकाधिकारीवादी शैतान की अगुवाई में पेट्रोलियम और टायर कंपनियों ने मिलकर अपने धंधों के लिए गाडिय़ों को बढ़ावा दिया। आज की अमरीका की सडक़ों को देखें तो न्‍यूयार्क जैसे इक्का-दुक्का टापूनुमा शहर को छोड़ दें जहां कि अधिक गाडिय़ों की जगह ही नहीं है तो फिर बाकी पूरे देश में ऐसा लगता है कि आटोमोबाईल उद्योग ही देश का मालिक है। एक-एक इंसान ट्रक जैसी गाडिय़ों में चलते हैं और सैकड़ों मील की दूरी को कोई दूरी नहीं मानता। जब मैंने साथ चल रहे एक साथी से पूछा कि क्‍या बिना गाड़ी कोई यहां जी सकता है, तो उसका कहना था कि मकान और बीवी के बिना तो कोई जी सकता है लेकिन गाड़ी के बिना नहीं। ऐसे देश में जब हम लंबा पैदल चल रहे थे तो वह एक हिसाब से अजीब था और एक हिसाब से नहीं भी था। पैदल चलने के हिसाब से नहीं लेकिन कसरत के हिसाब से लोग वहां दौड़ते और साइकिल चलाते दिखते हैं। कुछ तो मौसम साथ देता है और कुछ कम्‍प्‍यूटरों के धंधों पर जिंदा कैलिफोर्निया में लोगों को काम करने के घंटों का लचीलापन भी बहुत जगहों पर है इसलिए दिन और रात के हर वक्त लोग दौड़ते दिख जाते हैं। खेल के कपड़ों और जूतों का बाजार भी उसी तरह बड़ा सा है।

जो देखा और सुना उसके मुताबिक वहां पर आबादी दो किस्म में बंटी, आंखों से ही दिख जाती है। ऐसे लोग जो खूब कसरत करके अपने बदन को देखने लायक बनाकर रखते हैं, और ऐसे लोग जो खाने-पीने की लापरवाही से अपने बदन का ऐसा हाल कर लेते हैं कि उनके लिए ट्रिपल एक्‍स एल साईज के बाद के कपड़ों की दुकानें अलग रहती हैं। मोटापा इस कदर वहां फैला हुआ है और जिस अफ्रीकन समुदाय के लोगों को अपेक्षाकृत गरीब माना जाता है, उनके बीच भी मोटापा चारों तरफ पसरा दिखता है। यह अतिसंपन्नता की वजह से हो यह जरूरी नहीं है, वहां पर बाजार व्यवस्था में खाने-पीने के तमाम सामान की पैकिंग और उनका आकार इतना बड़ा रखा है कि लोग या तो उसका कुछ हिस्सा जूठा छोड़ देते हैं या फिर जरूरत से अधिक खाकर चर्बी बढ़ाते हैं। और अगर आटोमोबाईल उद्योग की साजिश के साथ लोगों के मोटापे को जोडक़र देखें तो यह बात साफ है कि लोगों को अपने घर के दरवाजे पर ही गाडिय़ां देकर अमरीकी बाजार व्यवस्था उनके जरा भी पैदल चलने की संभावना को कम कर देती है। लेकिन वहां एक नई सोच यह चल रही है कि जो मोटे हैं उनके मोटापे को लेकर समाज के भीतर जो पूर्वाग्रह खड़ा हो रहा है उससे एक नए किस्म का भेदभाव समाज में आ गया है। इसे एक अन्‍यायपूर्ण बात मानते हुए वहां अभी यह चर्चा चल रही है कि मोटापे को समस्या कहकर उसकी चर्चा करना गलत है क्‍योंकि इससे एक तबके के भीतर हीन भावना खड़ी होती है और दूसरे तबके के भीतर मोटे लोगों के लिए हिकारत की बात उपजती है। मैं दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे बड़ी अपराध वाली बाजार व्यवस्था के बीच से गुजरते हुए लगातार यह भी सोचते रहा कि क्‍या मोटापे के लिए यह हमदर्दी उस बाजार ने एक अगली साजिश की तरह तो खड़ी नहीं कर दी है क्‍योंकि बढ़ते ही चले जाने वाला मोटापा बाजार में बढ़ती चली जाने वाली ग्राहकी भी पैदा करता है। जब बाजार की ही बात हो रही है तो एक बात यह भी कि वहां के बाजार ग्राहकों को खरीददारी के लिए उकसाने को क्‍या -क्‍या करते हैं। 


किसी भी दूकान से कोई सामान लें तो अगले पूरे पखवाड़े में कभी भी जाकर उस सामान को लौटाया जा सकता है और न उस पर सवाल होता न कोई दूसरा सामान लेने की मजबूरी होती और उस सामान का पैसा लोगों को उनके क्रेडिट कार्ड पर वापिस भी मिल जाता है। नतीजा यह होता है कि लोग पूरे भरोसे से और पूरी लापरवाही से सामान खरीदते हैं और जाहिर है कि ऐसा बहुत सा सामान वे बाद में रख भी लेते हैं। ऐसे तेज-तर्रार और आक्रामक बाजार में ग्राहक को धीरे - धीरे यह अहसास होना बंद हो जाता है कि वह कब जरूरत से अधिक खरीददारी कर रहा है। मुझे वहां अपने लिए और कुछ दोस्तों की फरमाईश वाले ऐसे सामान लेने थे जो बाजार में जाकर लेने के बजाय इंटरनेट पर घर बैठे क्रेडिट कार्ड से लेना अधिक आसान और खासा अधिक सस्ता होता। मेरे लिए साथ चलते दोस्त अपने फोन के इंटरनेट से ऐसे सामान लेकर उन्‍हें मेरे कुछ दिन बाद के न्‍यूयार्क के पते पर रवाना करते जा रहे थे और उन्‍हें यह फिक्र नहीं थी कि सामान पसंद नहीं आया तो क्‍या होगा क्‍योंकि देश भर में किसी भी जगह उस दूकान में जाकर वह सामान लौटाया जा सकता था। हमारी खासी दिलचस्पी हि‹दुस्तानी दुकानों में थी क्‍योंकि वहां आसपास आते-जाते हिन्‍दुस्तानी ग्राहक दिख जाते थे और उनमें से कुछ हमारे साथियों की बातें सुनने को तैयार भी हो जाते थे। ऐसी दुकानों के बोर्ड वहां हर शहर में हर बस्ती में थे और यह अमरीका की उस खूबी का एक हिस्सा भी थे जिसके तहत किसी भी देश से आए हुए लोग वहां पर अपनी संस्कृति, अपने रीति-रिवाज को पूरी तरह मान भी सकते हैं और उससे किसी शिवसेना या राज ठाकरे की स्थानीय क्षेत्रीय भावना को नुकसान भी नहीं पहुंचता। पदयात्रा पूरी होने के बाद जब न्‍यूयार्क में मैं अपने दोस्त आनंद के साथ घूम रहा था तो उसने शहर के बीच एक ऐसी सडक़ ही दिखाई जिसका नाम कोरिया स्ट्रीट था। वहां की तमाम दुकानें कोरिया से आए हुए लोगों की थीं और उनके तमाम बोर्ड भी कोरिया की ही भाषा में थे। उन पर वहां कालिख पोतने वाला कोई ठाकरे नहीं था। 
क्रमश: ...
सुनील कुमार

भारत-पाक विभाजन का इतिहास लेखन और उसी को लेकर विरोध प्रदर्शन


पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्‍तुत है नवीं किस्त ....


कैलिफोर्निया में सान फ्रांसिस्को और बर्कले के आसपास का इलाका बे एरिया कहे जाने वाले इलाके में आता है जो कि समंदर से लगा हुआ है। इस समंदर के किनारे तक हम चल रहे थे और समंदर को देखते हुए चलने की जितनी हसरत थी वह पूरी की पूरी सर्द तेज हवाओं की मार से काफी जल्दी हवा हो गई थी। कुछ लोगों ने मुझे पहले ही एक टोपी लगाने की सलाह दी थी जो वहां जाकर एकदम सही लग रही थी। यह इलाका इसी राज्‍य के हॉलीवुड वाले इलाके से दूसरे कोने पर था और अपनी जागरूकता के मामले में बिल्कुल अलग भी था। इसी सान फ्रांसिस्को और बर्कले के इलाके में तरह-तरह के पूंजीवादी विरोधी , युद्ध विरोधी , नस्लभेद विरोधी , मानवाधिकार वादी आंदोलन खड़े होने पर लंबा इतिहास है। यहां पर दांडी मार्च-2 के सफर का दूसरा हिस्सा पूरा करते हुए गुजरात से रिटायर होकर आए अंग्रेजी के प्राध्‍यापक प्रो. ओम जुनेजा साथ में थे और उनसे कुछ घंटे बहुत दिलचस्प बातें होती रहीं। वे बर्कले विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास का एक हिस्सा पढ़ा भी रहे हैं और इसके लिए उन्‍होंने किसी नियमित पाठ्यक्रम के बजाय एक नया विषय ढूंढा है, गांधी और सावरकर के तुलनात्‍मक अध्‍ययन का। उन्‍होंने गांधी की किताब ‘हिन्‍द स्वराज’ और विनायक दामोदर सावरकर की हिन्‍दुत्‍व पर एक किताब का व्यापक अध्‍ययन करके इन दोनों की विचारधारा की तुलना की है और भारत की संस्कृति, भारत की आजादी, हिन्‍दुत्‍व, गैरहिन्‍दू जैसे कई मुद्दों पर इन दोनों की सोच में एकरूपता या विचारधारा को वे इतिहास की क्‍लास में पढ़ा रहे हैं। चूंकि मुझे इन दोनों किताबों के बारे में इतनी अधिक जानकारी नहीं थी इसलिए मैं उनके एक छात्र की तरह उत्‍सुकता और जिज्ञासा से सबकुछ सुनता और जानता रहा। उन्‍हें मैंने बताया कि छत्‍तीसगढ़ के एक बड़े वकील और प्रमुख लेखक कनक तिवारी हिन्‍द स्वराज पर हमारे अखबार और साप्ताहिक पत्रिका के लिए बहुत विस्तार से लिख चुके हैं और वे इस विषय के बहुत जानकार और विद्वान भी हैं। मैंने उनसे यह भी कहा कि मैं आप दोनों का संपर्क करवाकर इस विषय को और आगे बढ़ाना चाहूंगा।
मैंने उनसे उनकी राजनीतिक विचारधारा के बारे में नहीं पूछा लेकिन वे कदम-कदम पर गांधी की बहुत सारी सोच को हिन्‍दुत्‍व के मुद्दे पर सावरकर की सोच के करीब पा रहे थे और अपनी कम जानकारी पर मुझे अफसोस हो रहा था कि इस व्याख्यान को मैं बहस में तब्‍दील नहीं कर पा रहा था। दोपहर जब हम एक परिवार में खाने के लिए रूके तो एक बड़े कमरे में प्रोफेसर जुनेजा बाबा रामदेव का योग और प्राणायाम सिखाने लगे और पदयात्रियों में से करीब दर्जन भर उसका फायदा पाने में जुट गए। बर्कले विश्वविद्यालय के एक दूसरे प्रोजेक्‍ट के बारे में उनसे पता लगा कि भारत-पाक के विभाजन के इतिहास का दस्तावेजीकरण करने का एक प्रोजेक्‍ट यह विश्वविद्यालय कर रहा है और इसके लिए विभाजन से प्रभावित लोगों के साक्षात्‍कार दर्ज किए जा रहे हैं। भारत से हजारों मील दूर, भारत के ठीक दूसरे सिरे पर, जिस वक्त भारत और पाकिस्तान सोते हैं, उस वक्त यहां के इतिहास का बहुत गंभीरता से एक दस्तावेजीकरण अमरीका में लोग कर रहे हैं और शोध कार्य के आम भारतीय स्तर को अगर देखें तो कई बार ऐसा लगता है कि पश्चिम के देशों के बहुत से विद्वान भारत के मुद्दों पर अधिक महत्‍वपूर्ण और तटस्थ, पूर्वाग्रह रहित काम कर पाते हैं। यह एक अलग बात है कि भारत पर पश्चिमी लेखकों की लिखी किताबों को भारत के बहुत से लोग एक अच्‍छी तगड़ी हिकारत के साथ देखते हैं और अपने इतिहास को वे स्लेट पट्टी की तरह मिटाने का मौलिक अधिकार चाहते हैं। इस मुद्दे पर अपने सोचने को यहां पर और अधिक लिखने के बजाय मैं अगर फिर पदयात्रा की सडक़ों पर लौटूं तो भारत-पाक विभाजन मुझे इस विश्वविद्यालय के इतिहास लेखन से परे सडक़ों पर अच्‍छा खासा दिखा।
दांडी मार्च-2 शुरू होने के वक्त अधिकतर सिखों और कुछ बौद्ध लोगों वाला विरोधी जत्‍था यह पदयात्रा खत्‍म होने के वक्त सान फ्रांसिस्को की गांधी प्रतिमा पर एक बड़ी मौजूदगी के साथ नारे लगा रहा था। उनके नारे और बैनर पहले के मुकाबले अधिक हमलावर थे और नाथूराम गोडसे की जिंदाबाद के नारे कुछ अधिक तेज थे। सिखों की शिकायत गांधी को विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए लाखों सिखों की मौतों के लिए गांधी को हत्‍यारा ठहरा रही थी। दूसरी तरफ बौद्ध अपनी अंबेडकरवादी सोच के मुताबिक गांधी को मनुवादी वर्णव्यवस्था का एक झंडाबरदार करार देते हुए उन्‍हें घोर नस्लवादी साबित कर रहे थे। गांधी की प्रतिमा के सामने एक तरफ तो इस पदयात्रा के साथ चलते हुए लोग पहुंचे थे और कुछ लोग वहां पहले से थे। लेकिन गांधी वादी या भ्रष्टाचार विरोधी लोगों की छोटी भीड़ से आगे लोग तो गांधी को गालियां देते हुए भी थे। एक तरफ दूसरे पदयात्रियों के साथ-साथ मेरा भी सम्मान हो रहा था और हम सभी से कुछ कहने के लिए कहा जा रहा था, दूसरी तरफ गांधी को गालियां देने वाले धीरे -धीरे इस पूरे कार्यक्रम के चारों तरफ घेरा डाल चुके थे और वे नाथूराम गोडसे के नारे को छोडऩे की अपील को भी खारिज कर चुके थे। पास ही अमरीकी पुलिस खड़ी हुई थी और वह दोनों तरफ के लोगों को बिना हिंसा सिर्फ जुबानी और पोस्टरी मतभेद के खड़े हुए नारे लगाते पा रही थी और उसमें अपने दखल का उसे कुछ नहीं लग रहा था।

पिछले कुछ दिनों में हमारे साथ अलग-अलग हिस्सों में पैदल चलने वाले लोग आकर बधाई दे रहे थे कि हमने 240 मील की लंबी पदयात्रा पूरी कर ली, कुछ लोग साथ में तस्वीरें खिंचा रहे थे, और हमारे कुछ पदयात्रियों के परिवार सैकड़ों मील दूर से सफर करके इस मौके के लिए पहुंचे थे। जो छह लोग पिछले पन्‍द्रह दिनों से रात-दिन साथ चलते और रहते आए थे, न लोगों को यह अहसास भी खा रहा था कि अगले कुछ मिनटों में हम अलग-अलग होने जा रहे थे और उस हिसाब से भी भरी आवाज में हर कोई एक-दूसरे से लिपट रहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस लड़ाई में फिर किसी दिन हम सब मिलेंगे और आगे बढ़ेंगे। हमारे सबसे बुजुर्ग साथी, 71 बरस के केवल परनामी मुझे याद दिला रहे थे कि मुझे भारत से भ्रष्टाचार विरोधी एक और पदयात्रा का जो न्‍यौता मिला है वह मैं उन्‍हें याद से भेजूं। इस पदयात्रा में शामिल होने से इंटरनेट पर इतना नाम या इतना बदनाम हो गया है कि गौहाटी से दिल्‍ली तक करीब ढाई हजार किलोमीटर की एक पदयात्रा का न्‍यौता मुझे वहां रहते-रहते पहुंच गया था और केवल सचमुच ही करीब तीन महीने की इस पदयात्रा में दिलचस्पी ले रहे थे। वे अपनी बुजुर्ग पत्‍नी को दोनों घुटनों के जोड़ बदले जाने के कुछ हफ्तों के भीतर ही घर पर छोडक़र इस पदयात्रा के लिए आए थे और इस एक पखवाड़े को सबसे अधिक आसानी से उन्‍होंने ही झेला था। पदयात्रा के पहले दिन मैंने विरोध करने वाले सिख और बौद्ध नेताओं को अपना कार्ड देते हुए उनसे अनुरोध किया था कि वे अपने तर्क और अपना पक्ष मुझे ईमेल से भेजें और उनके बारे में लिखने में मुझे खुशी होगी। लेकिन पहले दिन का वायदा आज पांच हफ्तों बाद भी वे पूरा नहीं कर पाए इसलिए उनके नारों से परे उनके तर्कों के बारे में लिखने को मेरे पास अधिक कुछ नहीं है। लेकिन मैं उम्मीद करता हूं कि बर्कले विश्वविद्यालय के जो लोग भारत-पाक विभाजन के इतिहास लेखन के लिए लोगों के इंटरव्यू दर्ज कर रहे हैं उनमें ऐसी और बातें सामने आ सकेंगी और अगर वे किसी किताब की शक्‍ल में छपेंगी तो भारत में एक और किताब को जलाने का मौका लोगों को मिलेगा।

लेकिन मैं भारत में किसी विचारधारा या शोध पूर्ण विश्लेषण और निष्कर्ष के विरोध की बात जब सोचता हूं तो एक छोटी सी बात मुझे और दिखाई देती है। राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक अमरीका के इस इलाके में ढाई बरस पहले जब मैं भारत के नक्‍सल मुद्दों से जुड़े कई पहलुओं पर अपना एक पेपर पढक़र लौटा था तो मुझे अपनी सोच की वजह से लोगों का कुछ विरोध भी झेलना पड़ा था। शायद उसी में से कुछ लोग इस बार भी मेरा विरोध करने इस पदयात्रा के दौरान प्रदर्शन करने के लिए आने वाले थे। वह तो नहीं हुआ लेकिन फिर भी एक बात मुझे अब भी खटकती है कि ढाई बरस पहले के उस सेमिनार में वहां के जो लोग मुझसे वैचारिक रूप से असहमत रहे, उनमें से बहुत से इस बार मेरे वहां पहुंचने की खबर मुझसे पाने के बाद भी जवाब देने से दूर रहे। ऐसा करने की लोगों की अपनी-अपनी मजबूरी या अपनी-अपनी पसंद और नापसंद भी हो सकती है, लेकिन मैं यह भी सोचता हूं कि क्‍या यह एक वैचारिक असहमति की वजह से उपजी हुई नापसंदगी है? जो कि भारत के किताब जला देने जैसी हमलावर तो नहीं है लेकिन नापसंदगी तो दिखती है। लेकिन मेरे इस छोटे से महत्‍व हीन अनुभव से परे दुनिया के इन दो बड़े देशों में लोकतांत्रिक असहमति के लिए समाज में आमतौर पर मौजूद जगहों में खासा फर्क है। अमरीका में शायद वैचारिक असहमति के लिए अराजकता की हद तक आजादी है और वहां घोषणा करके कुरान के पन्ने जलाकर भी कोई बने रह सकता है। दूसरी तरफ भारत की सामाजिक स्थितियां और राजनीतिक दकियानूसीपन शायद इतना तंगदिल है कि इस देश में ऐतिहासिक शोध संस्थानों को साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों जलना नसीब है। यही सब सोचते हुए यह पदयात्रा गांधी प्रतिमा पर पूरी हुई। पैर थम गए लेकिन सोचना जारी है। इसके बाद के कुछ दिनों के बारे में शायद एक-दो किस्तें और ....


सुनील कुमार 

आसमान छूती इमारतों वाले देश में आसमान तले जीते लोग भी


पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्‍तुत है  आठवीं किस्त ....


दुनिया के बाकी तमाम विकसित देशों की तरह अमरीका एक बड़ा साफ-सुथरा और खूबसूरत देश है। लोगों की जिंदगी में साफ-सफाई की आदत है और आमतौर पर लोग जरा सा भी कचरा डालने घूरे के डिब्‍बे तक चलकर जाते हैं। लेकिन इसमें एक अलग नौबत तब दिखाई पड़ती है जब बेकार लोग सडक़ किनारे दिखते हैं। इनमें से अधिकांश अधिक उम्र के हैं और इनमें आदमी अधिक दिखते हैं, औरतें कम। इनके सामान अक्‍सर किसी बड़े सुपर बाजार के भीतर ग्राहकों के लिए रखी गई ट्रॉली पर लदे दिखते हैं और ऐसे सामानों में मोटे कपड़े और कंबल शायद इसलिए अधिक रहते हैं कि इन्‍हें खुले आसमान तले ठंड में रहना होता है। इनमें से कुछ लोग न्‍यूयार्क के सबवे में जमीन के नीचे बने रेल्वे स्टेशनों में भी दिखे जहां कि ठंड कुछ कम रहती है और मौसम की बाकी मार भी। ऐसा ही एक इंसान वहां पर एक तख्ती लिए दिखा- आई लव न्‍यूयार्क । ढाई बरस पहले जब मैं कैलिफोर्निया के ही बर्कले विश्वविद्यालय के सेमिनार में बुलाया गया था तब भी वहां के लोगों ने मुझे बताया था कि शहर के एक बड़े बगीचे पर बेकार लोगों ने पूरी तरह से कब्‍जा कर लिया था और राजनीतिक रूप से बहुत ही जागरूक और अपनी वामपंथी विचारधारा के लिए जाना जाने वाला बर्कले बगीचे से ऐसे बेबस लोगों का कब्‍जा हटाने के पक्ष में भी नहीं था। नतीजा यह था कि ये लोग वहां बसे हुए थे और बगीचे को खाली कराना आसान नहीं था। यह ऐसा शहर था जहां पर उन दिनों विश्वविद्यालय के अहाते के पेड़ों को कटने से रोकने के लिए वहां के छात्र -छात्राएं बड़ी संख्या में उन पेड़ों पर चढक़र बस गए थे और उन्‍हें वहां जीते हुए शायद कुछ महीने हो रहे थे। विश्वविद्यालय की पुलिस ने उन्‍हें हटाने की तमाम कोशिशें कर ली थीं लेकिन आखिर में उन पेड़ों को शायद काटा नहीं जा सका।



बेकार लोगों की बात मैं समझने की कोशिश कर रहा था लेकिन इस बार मेरे साथ चले लोगों में से किसी का बेकार लोगों का सीधा वास्ता नहीं था, और पिछली बार मुझे यह भी सुनने मिला था कि कुछ लोग आदतन बेकार रहना पसंद करते हैं क्‍योंकि सरकार ने उनके लिए जो इंतजाम किए भी हैं उन्‍हें वे अपनी आजादी में खलल मानते हैं और अपनी मर्जी से रहना चाहते हैं। यह तर्क हिन्‍दुस्‍तान में भी फुटपाथी बच्‍चों के लिए बनाए गए रैनबसेरों को लेकर सुनाई पड़ता है जहां बच्‍चे अधिक टिकते नहीं हैं और अपनी आजादी के लिए वे बार-बार से वहां से भाग निकलते हैं। बर्कले विश्वविद्यालय में एंथ्रोपोलॉजी पढ़ाने वाले मेरे दोस्त प्रो. लॉरेंस कोहेन की एक छात्रा ऐसे बेकार लोगों पर पीएचडी कर रही हैं, और लॉरेंस ने मुझसे ईमेल पर उसकी मुलाकात करवाने का वायदा किया था, लेकिन-...चलो बस हो चुका मिलना, न तुम खाली न हम खाली,..., के अंदाज में शायद न उन्‍हें याद रहा और मैं याद दिला पाया, इसलिए बेकार लोगों की चर्चा में आज इससे अधिक कोई समझ मेरे पास नहीं है।

बहुत से लोग जगह-जगह घूरों के डिब्‍बों के भीतर से तरह-तरह के सामान निकालकर, छांटकर ले जाते भी दिखे और खाते हुए भी दिखे। लेकिन उनका हुलिया वहां के बहुत से दूसरे लोगों की ही तरह का था और कचरे के डिब्‍बों में उन्‍हें झुका हुआ न देखें तो यह अंदाज लगाना मुश्किल होगा कि वे कामकाजी हैं या कचरे में से कुछ बीनने वाले हैं। शायद इसी वजह से एक दिलचस्प वाकया मेरे साथ दांडी मार्च-2 के दौरान यह हुआ कि सान फ्रांसिस्को के पास एक शहर में जब सुबह हम एक बगीचे से पदयात्रा शुरू करने पहुंचे तो अपने सारे सामान के साथ मैं बगीचे की पार्किंग में फुटपाथ पर बैठकर बाकी लोगों के आने का इंतजार कर रहा था। इसलिए कि पदयात्री अलग-अलग घरों में बंटकर रूकते थे ताकि सुबह तैयार होने में देर न हो। मुझे फुटपाथ पर सामान सहित बैठे देखकर वहां टहलने निकली एक बुजुर्ग चीनी महिला चलकर आई और अपने हाथ का पैकेट मेरी ओर बढ़ाकर बोली-क्‍या कुछ केक खाना पसंद करोगे? मुझे यह तो समझ आ गया कि वह मुझे फुटपाथ पर जी रहा बेकार समझ रही थी, मेरे आसपास के सामान की वजह से, और शायद वहां बैठे मैं अपने पैरों की तीमारदारी कर रहा था इसलिए भी।



पूरे अमरीका में सडक़ किनारे लोग तख्तियों पर अपनी असली व फर्जी परेशानी लिखकर भीख की उम्मीद में बैठे रहते हैं। उनमें से कुछ अपने परिवार के दिक्कतों का जिक्र उसमें करते हैं और कुछ खुलकर यह लिख देते हैं कि वे झूठ क्‍यों कहें, उन्‍हें पीने के लिए पैसे चाहिए। लेकिन इनमें से लगभग तमाम भिखारी अधेड़ से लेकर बूढ़े तक थे, एक भी बच्‍चा कहीं भीख मांगते नहीं मिला, कहीं बेकार जिंदगी जीते नहीं मिला, बाल मजदूर की तरह काम करते नहीं मिला, जो कि हिन्‍दुस्‍तान में कदम-कदम पर देखने मिलता है। बल्कि वहां गरीब बचचों की जिंदगी बचाने के लिए दान देने की अपील वाला एक सामाजिक संस्था का ईश्तहारी पोस्टर था जिसमें साड़ी पहनी महिलाएं यह साबित कर रही थीं कि वे हिन्‍दुस्तानी या बांग्‍लादेशी हैं।

ढाई बरस पहले के अमरीका प्रवास के दौरान मैं बर्कले में यह देखकर हक्का-बक्का रह गया था कि एक नौजवान और खूबसूरत लडक़ी हाथ में एक तख्ती लिए एक रेस्‍त्रां के शीशों के बाहर खड़ी थी और उसका तख्ती पर बड़ी अश्लील बात लिखी हुई थी कि वह एक खाने के एवज में क्‍या करने के लिए तैयार है। वैसा तकलीफदेह कोई नजारा इस बार सामने नहीं आया। अमरीकी फुटपाथ और वहां की शहर के भूमिगत रेल्वे स्टेशन ऐसे लोगों से भरे हुए दिखते हैं जो कि तरह-तरह का संगीत पेश करके लोगों से बिना भीख मांगे एक किस्म की बख्शीश बाते रहते हैं। इनमें से बहुत से ऐसे संगीतकार होते हैं जो अपनी खुद की सीडी या डीवीडी बनाकर बिक्री के लिए सामने रख देते हैं और आते-जाते लोग 5 या 10 डॉलर की यह सीडी उठाकर उतने पैसे एक बय्से में डालते हुए आगे निकल जाते हैं। इस तरह संगीत का एक हुनर लोगों को खासी रोजी दिला देता है। लोग अगर कुछ देर भी वहां रूककर गाना सुनते हैं तो एक डॉलर का नोट वहां डालकर ही आगे बढऩे वाले लोग काफी रहते हैं। दिन भर में अगर ऐसा एक संगीतकार सौ-पचास डॉलर कमा लेता होगा तो मुझे हैरानी नहीं होगी। इसी तरह लोगों के स्केच बनाकर कुछ कमा लेने वाले लोग भी सडक़ों किनारे जगह-जगह दिखते हैं। फिलीस्तीन के गाजा में एक बहुत सर्द सुबह नंगे पैर बचचों की भीड़ सिक्के मांगते हमारे आसपास थी।



अमरीकी कानून या सामाजिक व्यवस्था में इस तरह के कोई बच्‍चे या कोई बाल मजदूर इन दो प्रवासों में गुजारे पांच हफ्तों में एक बार भी मुझे देखने नहीं मिले। जबकि कुछ ऐसे शहरों से भी हम गुजरे जहां पर व्यापार कमजोर होने से बाजार में दर्जनों इमारतें खाली पड़ी थीं और जो किरायेदार ढूंढ रही थीं या बिकने की मुनादी कर रही थीं। लेकिन अमरीका का मेरा अनुभव वहां के एक सबसे संपन्न प्रदेश कैलिफोर्निया और दूसरे सबसे संपन्न शहर न्‍यूयार्क , और एक बड़े पर्यटन केंद्र फ्लोरिडा जैसी जगहों का ही था। हो सकता है कि बाकी का अमरीका इतना चमकदार न हो। इसी चमकदार अमरीका में तो मुझे वहीं के किसी संगठन द्वारा लगाया गया वह बड़ा सा बोर्ड दिखा था जिसमें लिखा था कि हर छठवां अमरीकी भूख का शिकार है। और यह लिखते-लिखते ही मुझे याद पड़ता है कि बर्कले के आसपास के किसी इलाके में वहां की मेरी एक दिन की मेजबान आभा शुक्‍ला किसी गरीब बस्ती में लोगों को खाना देने के लिए जाने वाली थीं और अपनी पदयात्रा के चलते मैं चाहकर भी उनके साथ नहीं जा पाया था। लेकिन जिस तरह भारत के सबसे चमचमाते हिस्सों में भी भीख मांगते बच्‍चों की भीड़ लगी दिखती है, वैसा एक भी बच्‍चा इन पांच हफ्तों में अगर न दिखे तो वह उस देश के लिए एक अच्‍छी बात तो है ही।


कमश: ....


सुनील कुमार

सार्वजनिक जगह पर भी लोगों का निजी दायरे का दावा


पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्‍तुत है सातवीं किस्त ....


दांडी मार्च-2 के दौरान अमरीका को कुछ अधिक बारीकी से और कुछ अधिक करीब से देखने का मौका इसलिए भी मिला कि पखवाड़े लंबी यह पदयात्रा शुरू होने के पहले एक दिन और खत्‍म होने के बाद तीन दिन मुझे एक साधारण सैलानी की तरह घूम ने का मौका मिला और अलग-अलग जगहों पर अलग- अलग बातों से सामना भी हुआ। पश्चिम के कुछ दूसरे विकसित देशों की तरह अमरीका में भी लोगों के मन में अपने निजी अधिकारों के लिए एक बड़ा चौकन्नापन है। किसी सार्वजनिक जगह पर रहते हुए भी कोई किस तरह अपने निजी दायरे को निजी मानकर उसमें किसी की दखल का कैसा विरोध करता है इसका एक-दो मामलों में मुझे अनुभव हुआ। फोटोग्राफी करते हुए बहुत हिचककर और झिझककर काम नहीं चलता, इसलिए एक-दो मौकों पर मैंने कुछ छूट लेकर कुछ लोगों की तस्वीरें खींचने की कोशिश की। सान फ्रांसिस्को के सबसे गहमागहमी वाले इलाके के एक फुटपाथ पर एक नौजवान लडक़ी एक लडक़े के साथ चली आ रही थी। दोनों का हुलिया काफी रंगीन था, बाल, गहने, कपड़े सबकुछ बहुत अजीब से थे। इस लडक़ी के कंधे पर एक बिल्‍ली बैठी हुई थी और सबकुछ एक बहुत अच्‍छी , दिलचस्प तस्वीर का सामान दिख रहा था। मैंने अपने तैयार कैमरे से तुरंत ही उसकी तस्वीर खींची और उसने मुझे रोककर इसका विरोध किया और कहा कि मैंने उसकी इजाजत के बिना उसकी तस्वीर खींची है। अब कुछ झिझकते हुए मैंने उससे कहा कि उसकी बिल्‍ली की वजह से मैंने यह तस्वीर खींची थी, और अगर उसे आपत्ति हो तो मैं यह तस्वीर मिटा देता हूं। उसने मेरे कैमरे में देखते हुए यह तस्वीर मिटवाकर दम लिया और बात वहीं खत्‍म हुई। लेकिन एक बगीचे में बच्‍चों के झूलों सरीखे सामानों के बीच खेलते हुए बहुत से बचचों की तस्वीरें मैं लेना चाहता था। पास ही एक बेंच पर तीन महिलाएं बैठकर उन बचचों की निगरानी कर रही थीं इसलिए मैंने काफी देर इंतजार करने के बाद उनसे पूछा कि क्‍या मैं इन बचचों की तस्वीरें ले सकता हूं। उनमें से एक महिला ने कहा कि वह इसे पसंद नहीं करेगी। उसके शब्‍द थे- आई वोंट बी कम्फर्टेबल। लेकिन ऐसे ही एक दूसरे बगीचे में एक दूसरी महिला से जब मैंने उसके बचचे के साथ तस्वीरें लेने के बारे में पूछा तो उसने विनम्रता से इसकी वजह पूछी। जब मैंने कहा कि मैं हिन्‍दुस्‍तान से आया हुआ एक अखबारनवीस हूं तो उसने हामी भर दी। इसके बाद इस महिला से बहुत अच्‍छी बातचीत होती रही और फिर उसने अपने कैमरे से हम लोगों की तस्वीरें भी खींची और हमारे साथ खड़े रहकर अपनी तस्वीरें भी खिंचवाई।

हॉलीवुड के यूनिवर्सल स्टुडियो में, इस बार के अमरीका प्रवास का पहला ही दिन था। वह जगह पूरी दुनिया से पहुंचे हुए पर्यटकों से बुरी तरह भरी हुई थी और इतनी अधिक संस्कृतियों के बीच कई तरह की गलतफहमी होने की गुंजाइश भी थी। इसलिए मैं कुछ सावधानी से चल रहा था। वहां पर एक चित्रकार कम्‍प्रेशर से चलने वाले स्‍प्रे को ब्रश की तरह इस्तेमाल करते हुए लोगों की तस्वीरें बना रहा था। खूब रंगे हुए चेहरे वाले एक बच्‍ची की तस्वीर बनते मैं देखते रहा और जब तस्वीर पूरी हो गई तो उसकी मां से इजाजत लेकर मैंने उसके साथ उसकी तस्वीर की तस्वीर उतारी। इसी स्टुडियो में एक दूसरे कोने पर एक महिला अपनी बहुत ही स्मार्ट बच्‍ची की तस्वीरें अपने मोबाईल फोन के कैमरे से ही ले रही थी। एक पेशेवर मॉडल की तरह यह बच्‍ची अपनी मां के कैमरे के लिए तरह-तरह के पोज दे रही थी। मुझे उसकी तस्वीरें खींचने का दिल किया और मैंने कुछ पूछने के बजाय उसकी मां की तरफ देखकर एक मुस्कुराहट के साथ अपना कैमरा उठाया और उसने भी कुछ कहे बिना सिर्फ मुस्कुराकर एक किस्म से इजातत दे दी। नतीजा यह हुआ एक मॉडल फैशन शूट की तरह बहुत सी अच्‍छी तस्वीरें मेरे पास आ गईं। एक पल को मुझे यह भी लगा कि मैं उससे ईमेल एड्रेस मांग लूं ताकि इन खूबसूरत तस्वीरों को भेज सकूं, या अपना पता उसे दे दूं, लेकिन फिर मुझे लगा वह मुझे ऐसा पेशेवर फोटोग्राफर न समझ ले जो उससे कुछ कमाई करना चाहता है। इसलिए उस अनजान खूबसूरत बच्‍ची की तस्वीरों के साथ बिना उसके नाम के मैं आगे बढ़ गया।

पदयात्रा पूरी होने के बाद जब मैं न्‍यूयार्क के यूनियन स्‍क्‍वेयर पर गांधी प्रतिमा तक पहुंचा तो वहां ढाई बरस पहले की तरह ही दर्जनों कलाकार अपने काम को बिक्री के लिए रखकर बैठे हुए थे। इनमें से कुछ ने मुझे अपने काम की तस्वीरें खींचने की इजाजत दी और कुछ ने मना कर दिया लेकिन साथ ही कहा- आपने पूछा इसके लिए हम आपकी तारीफ करेंगे। वहां पर एक चित्रकार युवती की बनाई तस्वीरों के साथ उसके विजिटिंग कार्ड भी रखे थे जिनमें इंडिया शब्‍द भी लिखा था। उससे मैंने इसका मतलब पूछा तो उसने कहा कि यह उसकी बिल्‍ली का नाम है। यह नाम उसने इसलिए रखा है कि उसे इंडिया बहुत पसंद है और अपनी बिल्‍ली उतनी ही पसंद है। यहां पर अफ्रीकी मूल की एक महिला चित्रकार ऐसी मिली जिसने गांधी की कुछ तस्वीरें बनाई हुई थीं और उन तस्वीरों में गांधी के चेहरे के साथ-साथ चारों तरफ बहुत से फूल खिले हुए थे। उसने कहा कि बसंत के दौरान इस गांधी प्रतिमा के आसपास इसी तरह फूल खिलते हैं और उसने उसी वक्त को अपनी तस्वीर में उतारा है। उसकी एक तस्वीर खरीदने के बाद मैंने उससे कुछ तस्वीरें खिंचवाने का अनुरोध किया तो वह तैयार हो गई।

एक बड़ा ही दिलचस्प मामला इसी न्‍यूयार्क में अकेले घूमते हुए सामने आया जब वहां पुलिस के तीन अफसर अफ्रीकी नस्ल के एक नौजवान को फुटपाथ पर ही हथकड़ी डालकर उसके सामानों की तलाशी ले रहे थे। इसकी पिछली रात ही सडक़ों पर घूमते हुए ऐसा ही एक नजारा देखने मिला था और मेरे मेजबान आनंद ने बताया था कि नशे के सामानों की तलाश में पुलिस कई बार ऐसी जांच करती है। उस वक्त दो लोगों को दीवार के सहारे खड़ा करके पुलिस उनकी तलाशी ले रही थी और उनके साथ की दो लड़कियां अपने मोबाईल फोन पर इसकी वीडियो रिकॉर्डिंग कर रही थीं। अगली दोपहर मैं अकेले घूम रहा था और ऐसा ही नजारा फिर देखने मिला लेकिन इस बार इस अफ्रीकन नौजवान को हथकड़ी लगाई जा चुकी थी और उसके साथ आधा दर्जन लोग थे जो कि वीडियो रिकॉर्डिंग भी कर रहे थे। जब मैं इस पूरे नजारे की तस्वीरें लेने लगा तो इस टोली में शामिल एक गोरी लडक़ी ने मेरा विरोध किया और कहा कि मैं इस तरह फोटो नहीं ले सकता। जब मैंने कहा कि यह तो एक सार्वजनिक जगह है और यह खुली हुई पुलिस कार्रवाई चल रही है तो उसका कहना था कि यह पुलिस का रंगभेद चल रहा है और काले या अश्वेत लोगों को रोज ही ऐसी प्रताडऩा झेलनी पड़ती है। मैंने उससे कहा कि मैं हिन्‍दुस्‍तान से आया हूं और ऐसे रंगभेद को अच्‍छी तरह समझता हूं और ऐसे भेदभाव का विरोधी भी हूँ , और इसीलिए यह तस्वीर ले रहा हूं तो वह शांत हुई और फिर अमरीकी पुलिस की रंगभेदी ज्‍यादती के बारे में बताने लगी।


उसकी बातों से मुझे यूनियन स्क्वेयर पर बिकते हुए कुछ टी-शर्ट याद आए। न्‍यूयार्क के इस सबसे जिंदादिल इलाके में सडक़ किनारे बहुत से स्थानीय आदिवासी (रेड इंडियंस) अपने नारों के टी-शर्ट बेचते दिखते हैं। उन पर बनी तस्वीरें आधी सदी से चली आ रही हैं और उन पर किसी का कॉपीराईट भी नहीं है इसलिए मैंने बिना इजाजत ही चुपचाप कुछ तस्वीरें खींच लीं। इनमें अमरीका की सरकारों के खिलाफ वहां के मूल निवासियों की नाराजगी के नारे थे और मुझे इस बात का कोई अंदाज नहीं है कि ये नारे वहां की आज की हकीकत है या फिर ये एक राजनीतिक बेचैनी की वजह से एक आकर्षक और बिकाऊ नारे के रूप में टी-शर्ट पर हैं। इनमें वहां की सरकार को आतंकी करार देते हुए रेड इंडियंस को ही आंतरिक सुरक्षा रखने वाला बताया गया है और एक दूसरे टी-शर्ट पर वहां का एक दूसरा लोकप्रिय नारा था- हां, आप सरकार पर भरोसा कर सकते हैं,... किसी इंडियन (मूल निवासी) से पूछकर देखें। इसी तरह कुछ दूसरे टी-शर्ट थे जिन पर अमरीका की उस विख्यात पहाड़ी, माऊंट रशमोर, की तस्वीर छापी गई थी जिस पर वहां के प्रमुख राष्ट्रपतियों के चेहरे चट्टानों पर तराशे गए हैं। इस टी-शर्ट पर इस पहाड़ी के सामने वहां के मूल निवासी खड़े हुए हैं और इनके बारे में यह नारा लिखा गया है- इस देश के असली पितामह। ऐसी कुछ तस्वीरों को मुझे बिना इजाजत ही लेना पड़ा क्‍योंकि कोई मौलिक डिजाइन न होते हुए भी ऐसे दुकानदार तस्वीरें लेने देना पसंद नहीं कर रहे थे। अमरीकी लोगों में बेतकल्‍लुफी, यूरोपीय लोगों के मुकाबले काफी अधिक है। लेकिन अपनी निजी बातों को निजी रखने को लेकर वे काफी चौकस रहते हैं और यह पसंद करते हैं कि लोग किसी भी तरह की दखल की सोचने के भी पहले उनसे इजाजत ले लें।
क्रमश: ...

सुनील कुमार

गांधी की टी-शर्ट तले बस्ती जलाने के गौरव से भरा दिल!


पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्‍तुत है छठवीं किस्त ....


गांधी की सोच को लेकर चल रहे दांडी मार्च-2 में तमाम बातें गांधी वादी ईमानदारी और पारदर्शिता की चलती थीं और इसमें शामिल लोग ऐसे ही थे जो कि भारत के सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार देखकर थके हुए थे और भड़ास से भरे हुए थे। ऐसी बातों के बीच जब साथ चल रहे एक सज्‍जन ने गांधी के नारे लगाने के साथ-साथ बहुत साम्प्रदायिकता की बातें मुझसे कहीं तो थोड़ी सी हैरानी हुई। गुजरात से आकर अमरीका में बसे इस सज्‍जन ने मेरे नाम से ही मेरे धर्म का अंदाज लगा लिया था और मुझसे यह पूछने की जहमत भी उन्‍होंने नहीं की कि साम्प्रदायिकता या दूसरे धर्मों के बारे में मेरा क्‍या सोचना है। दरअसल हिन्‍दुस्‍तान के बाहर बसे हुए हिन्‍दुओं में से एक बड़ा तबका ऐसा है जो आक्रामक हिन्‍दुत्‍व को पसंद करता है और जिसके लिए भारत के भीतर धर्म निरपेक्षता एक कम्युनिस्ट सोच से अधिक कुछ नहीं है। देश से परे रहते हुए धर्म या ईश्वर पर आस्था लोगों को जोडक़र रखने का काम करती है और जगह-जगह मंदिर या ऐसे ही दूसरे आस्था केंद्र सामुदायिक केंद्रों की तरह काम भी करते हैं। इसलिए अमरीका के अपने ढाई बरस पहले के अनुभव और इस बार के अनुभव, दोनों के आधार पर मैं यह सोचता हूं कि वहां बसे हिन्‍दुओं का अधिक तर हिस्सा हिन्‍दुत्‍व को लेकर भारत में बसे आम हिन्‍दू के मुकाबले कुछ अधिक संवेदनशील और सक्रिय है। शायद अपनी जमीन से दूर रहते हुए लोगों को धर्म का महत्‍व कुछ अधिक लगता है। तो मैं बात कर रहा था कि गुजरात से अमरीका जाकर बसे हुए एक गुजराती सज्‍जन की जो कि इस दांडी मार्च में कुछ वक्त हमारे साथ रहे। उन्‍हें अच्‍छी तरह मालूम था कि मैं अखबारनवीस हूं, और साम्प्रदायिकता को लेकर मेरी क्‍या सोच है, उसके बाद भी वे अगर खुलासे से मुझे गुजरात की घटनाओं के बारे में बताते रहे, तो मेरा मानना है कि उसे लिखने में कोई नैतिकता भी मेरे आड़े नहीं आती।

कई दशक पहले के गुजरात के अहमदाबाद में एक साम्प्रदायिक तनाव के चलते उन्‍होंने जो किया उसका व्‍यौरा वे मुझे बहुत ही फख्र के साथ दे रहे थे। उन्‍होंने कहा कि उनके इलाके के बगल में मुस्लिम बस्ती थी और ऐसी आशंका थी कि मुसलमान इस मुहल्‍ले में आकर हिन्‍दू मंदिरों पर हमला कर सकते हैं। इस पर उन्‍होंने हिंदू मुहल्‍ले के और लोगों के साथ मिलकर, पुराने कपड़ों को लकड़ी पर बांधकर मशाल बनाई और मुस्लिम मुहल्‍ले में आग लगा दी। मैं उनका यह बखान सुनकर हक्का-बक्का रह गया। फिर मैंने पूछा कि क्‍या उसमें कुछ लोग मारे भी गए, तो उनका बड़ा साफ-साफ कहना था कि जब पूरी बस्ती जल गई तो कई लोगों को तो मरना ही था। मैंने सरकार की किसी कार्रवाई के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि मुख्‍यमंत्री वहां पर आए और उन्‍होंने कहा कि ये आप लोगों ने क्‍या कर दिया? उन्‍होंने कहा कि विधानसभा में जवाब तो उन्‍हें देना होगा।
कैलिफोर्निया की सडक़ों पर इस गांधी यात्रा में पैदल चलते हुए उन्‍होंने आगे मुझे बताया कि उन लोगों ने मुख्‍यमंत्री से यह कहा कि जवाब देना उनका काम है और अगर वे यह बस्ती नहीं जलाते तो वे लोग आकर मंदिरों पर हमला करने वाले थे। इसके बाद जब इस गांधी मार्च के समापन समारोह में भारत से किसी प्रमुख व्यक्ति से वीडियो कांफ्रेंस की संभावना टटोली जा रही थी तो इन्‍होंने राय दी कि गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेन्‍द्र मोदी से बात करनी चाहिए क्‍योंकि वे एक ईमानदार सरकार के लिए जाने जाते हैं। न चाहते हुए भी मुझे इस आयोजन के इंतजाम की चर्चा में हिस्सा लेना पड़ा क्‍योंकि अगर यह दांडी यात्रा नरेन्‍द्र मोदी का इस तरह से सम्मान करने जा रही थी तो फिर वहां मेरा क्‍या काम रह जाता। मैंने सबके बीच ही कड़ा विरोध करते हुए कहा कि नरेन्‍द्र मोदी गुजरात की अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक तरह-तरह से अपनी सरकार के काम को लेकर कटघरे में हैं और उन पर देश के सबसे भयानक प्रायोजित साम्प्रदायिक दंगों के दाग भी लगे हुए हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में अगर ऐसे लोगों को महिमामंडित किया गया तो उससे देश का एक बड़ा तबका इस आंदोलन से ही दूर हो जाएगा।

 दांडी मार्च-2 के आयोजकों को मेरा तर्क ठीक लगा और मोदी पर चर्चा खत्‍म हो गई। लेकिन अब तक यह सवाल मेरे सामने खड़ा है कि गांधी के छाप वाली टी-शर्ट पहनकर, गांधी की दांडी यात्रा के तर्ज पर हो रही इस यात्रा में ऐसे घोर साम्प्रदायिक और हिंसक लोग क्‍यों शामिल हो रहे हैं? हो सकता है कि इस कड़े सफर के बहुत से साथियों को मेरा यह लिखना नागवार गुजरे और वे शायद यह मानें कि ऐसी कड़वी चर्चा न करना इस आंदोलन के भविष्य के लिए बेहतर होता। लेकिन फिर मैं यह सोचता हूं कि अपने भीतर के अखबारनवीस को एक बार मैं मनाकर चुप भी कर लूं, तो भी गांधी की सोच के मुताबिक तो मुझे अपने से रूबरू की गईं ऐसी भयानक बातों की चर्चा तो कर ही लेनी चाहिए। अगर हमारे बीच ऐसे लोग हैं तो या तो अपने भीतर की हिंसा और साम्प्रदायिकता से आजादी पा लें, या फिर भ्रष्टाचार से आजादी का यह आंदोलन ऐसे लोगों से आजादी पा ले। मैंने आयोजकों को यह भी सुझाया कि अगर गांधी के नाम पर कोई भी कार्यक्रम करना है तो उससे किसी भी तरह की साम्प्रदायिकता को दूर रखना ही ईमानदारी होगी। लेकिन आज की दुनिया में जो लोग आर्थिक सफलता और संपन्नता को ही सरकार या किसी राज्‍य की अकेली खूबी मानते हैं, उनके बीच नरेन्‍द्र मोदी खासे सफल हैं। लेकिन ऐसे लोगों में मैं अभी किसी गैरहिंदू से वहां नहीं मिला था। मोदी के वार के शिकार जो लोग हैं, उनके हमबिरादरी लोगों से अगर बात हुई होती तो हो सकता है कि कुछ और सुनने-समझने मिलता।


इस पदयात्रा के पहले कुछ दिनों में ही एक सुबह जब स्कूल की उम्र वाली एक लडक़ी अपने सिर पर एक कपड़े को हिजाब की तरह बांधकर साथ चल रही थी तो उसके आसपास दाढ़ी वाले एक सज्‍जन देखकर यह अंदाज लगाना मेरे लिए आसान था कि वे शायद मुस्लिम हैं। साथ चलते-चलते इस बच्‍ची से मैंने उसके बारे में पूछा, उसके मजहब, उसके हिजाब के बारे में पूछा और यह बताया कि मैं पिछले दिनों किस तरह एक कारवां में हिन्‍दुस्‍तान से फिलीस्तीन तक गया था और किस तरह कुछ हफ्ते लगातार मुस्लिम देशों में रहना हुआ। साथ चलते-चलते उसके पिता भी उत्‍सुकता से मेरी बातों को सुनते रहे और फिर बातचीत में शरीक हुए। उन्‍हें गाजा कारवां के बारे में जानकर बहुत हैरानी हुई और वे लगातार सोचते रहे कि किस तरह अमरीका के कुछ मुस्लिम संगठनों के साथ वे मुझे एक बैठक में बुला सकें और वहां अमरीकी मुस्लिम मेरी बात सुन सकें।

मैं पिछले कुछ दिनों से इस पदयात्रा के साथ-साथ कई मंदिरों में जा चुका था और आगे भी मंदिरों में जाना तय था इसलिए मुस्लिमों की एक बैठक में जाने से मुझे बहुत सी नई जानकारी मिल सक ती थी । लेकिन हम हर दिन एक नए शहर में थे, रोज बहुत सुबह से लेकर देर शाम तक लगातार पैदल चलते थे इसलिए ऐसी कोई बैठक हो नहीं पाई। हमारे साथ चल रहे लगभग सभी पदयात्री साम्प्रदायिकता से बहुत दूर थे और गांधी की सोच पर अमल कर रहे थे। लेकिन बीच-बीच में जब कभी किसी बैठक में या बहस में जब कुछ लोग उग्र हिंदुत्‍व की सोच वाले निकल आते थे तो उस उग्रता से बहस करने वाला मैं लगभग अकेला पड़ जाता था। लोगों की नजरों में मुस्लिम समाज के कुछ अपराधियों द्वारा किए गए गोधरा कांड और मोदी सरकार द्वारा करवाए गए दंगों के बीच कोई अधिक फर्क नहीं था, बल्कि कोई फर्क ही नहीं था। हिंसा कुछ अपराधी करें, या संविधान की शपथ लेने वाली सरकार, इसके बीच कोई फर्क लोगों की नजरों में नहीं था। लेकिन यह हाल सिर्फ अमरीका में बसे हुए लोगों का ही नहीं है, हिन्‍दुस्‍तान में भी आम हिंदुओं में से बहुत से लोगों की सोच ऐसी ही है। दरअसल इंसाफ, लोकतंत्र और जिंदगी के बाकी बहुत से महीन पहलुओं को सोचने का रिवाज हिन्‍दुस्‍तान में आम लोगों के बीच नहीं सा है।

क्रमश: ....

सुनील कुमार 

अमरीका में बसे तन और भारत की तरफ खिंचे मन के बीच खींचतान


पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्‍तुत है पांचवीं किस्त ....



अमरीका के कैलिफोर्निया में कदम-कदम पर भारतीय मूल के लोग दिखते हैं। और हमारे आयोजकों की तरह उनके संपर्क के अधिकांश लोग कम्‍प्‍यूटरों के पेशे से आए हुए हैं। जब वे भारत की दिक्कतों को लेकर वहां रहते-रहते एक आंदोलन छेडऩे की बात सोच रहे थे तो मैं एक तरीके से उनके सामने कई सवाल खड़े कर रहा था। उनकी नीयत साफ थी लेकिन हिन्‍दुस्‍तान में बाहर जाकर बसे हुए लोगों के लिए एक सोच यह भी रहती है कि वे ब्रेन ड्रेन करके गए हुए लोग हैं जिन्‍होंनें इस देश की महंगी और ऊंची पढ़ाई पाकर यहां काम नहीं किया और बाहर जाकर बस गए। ऐसी छवि तस्वीर के साथ उनकी कही बातों में से कुछ बातें लोगों को एक एनआरआई मसीहा द्वारा दी गई नसीहत जैसी भी लग सकती है। इसलिए मैं उन्‍हें आगे के आंदोलन के लिए सावधान भी करते चलते था कि लोगों तक भारत के हित की कोई बात पहुंचाते हुए भी उन्‍हें किस तरह और किस कदर चौकन्ना रहना चाहिए। किसी नेक काम की आपकी नीयत ठीक हो सकती है लेकिन जनता के बीच उसे लेकर कैसी धारणा बनती है यह भी एक जनआंदोलन में बहुत मायने रखता है।


भारत की आज की हालत को लेकर उनमें से सभी लोग फिक्रमंद बहुत थे और करना भी बहुत कुछ चाहते थे, लेकिन यूपीए सरकार को लेकर, नेहरू-गांधी परिवार को लेकर, भारत की राजनीति को लेकर, यहां की अफसरशाही को लेकर उनके मन में नफरत बहुत गहरी थी। मेरा खासा वक्त उनसे बातचीत और बहस में, भारतीय लोकतंत्र को लेकर मेरी समझ और सोच का बखान करने में निकल जा रहा था और लोगों को सुनने, जानने और अपने-आपको बेहतर बनाने की मेरी कोशिश को मौका कम मिल रहा था। हमारे बहुत से साथियों के मुकाबले भारत के मुद्दों से मैं कुछ अधिक जुड़ा हुआ था क्‍योंकि अखबार के धंधे में था, वे लोग कुछ दूर भी बसे हैं और उनका काम भी उन्‍हें भारत के मुद्दों से काफी देर अलग रखता है। लेकिन वे भारत की अर्थव्यवस्था में लगातार कुछ न कुछ जोड़ते हुए चलते हैं और अमरीका की अपनी कमाई को वे भारत में जितना लगातार भेजते हैं उससे भी इस देश को मदद मिलती है। ब्रेन ड्रेन का मतलब भारत के सरकारी खर्च पर तैयार ब्रेन का सीधे नाली में बह जाना नहीं होता। वह ब्रेन दुनिया में दूसरी जगह रहकर भी भारत के लिए काम कर सकता है, जिस तरह की आईआईटी से पढक़र अमरीका गए लोग वहां से भारत की आईआईटी के लिए सैकड़ों करोड़ रुपए भेज भी चुके हैं। लेकिन अमरीका में पूरी दुनिया से आए हुए लोगों की प्रतिभा और उनके हुनर का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने के लिए उनको अधिक से अधिक मौका भी देने की जो सोच है वही अमरीका को अर्थव्यवस्था की इस ऊंचाई तक पहुंचाती है।

भारत में अगर लोग यह देखेंगे कि यहां के कितने सरकारी खर्च की पढ़ाई के बाद लोग अमरीका में जाकर कितना कमा रहे हैं तो ऐसा देखने से भारत का कुछ भला नहीं होगा। अपनी कमाई के साथ-साथ वे देश की अर्थव्यवस्था में इतना जोड़ रहे हैं जितना कि भारत में बेरोजगार रहने वाले या कोई काम न करने वाले कभी नहीं जोड़ सकते। इसलिए किसी एनआरआई थाली का घी देखकर कुंठा में आने के बजाय उन संभावनाओं को देखना होगा जो किसी भारतीय के दुनिया में बाहर जाकर काम करने या बसने से इस देश के बाकी लोगों के लिए भी खड़ी होती हैं। लेकिन जब तक आज की जनधारणा नहीं बदलती है तब तक भारत के किसी आंदोलन में प्रवासी भारतीयों के शामिल होने में सावधानी बरतनी होगी। कुछ दूरी पर बसे होने का एक नुकसान यह भी था कि वहां किसी को भी भारत में पिछले कुछ बरसों में सूचना के अधिकार से आए हुए फर्क का पता नहीं था और भ्रष्टाचार के पिछले बरसों में उजागर मामलों में भी सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी का योगदान उन्‍हें नहीं मालूम था। वहां बहुत से लोगों को इस बात पर बड़ी और कड़ी आपत्ति थी कि किस तरह कांग्रेस पार्टी की लीडरशिप एक ही परिवार के हाथ है।

मुझे शैतान का वकील बनने के अंदाज में बहुत से दोस्तों से तर्क-वितर्क और कुतर्क करने पड़े कि एक तो यह कि एक राजनीतिक दल का अंदरूनी मामला है, दूसरा यह कि कांग्रेस पार्टी में कुछ बरस का एक ऐसा दौर आया था जब पीवी नरसिंहराव की लीडरशिप में सरकार और पार्टी दोनों से ही सोनिया और उनका परिवार बाहर थे, और बाद में चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस के नेताओं ने जाकर सोनिया गांधी को खींचकर राजनीति में उतारा। इसलिए वंशवाद तो नरसिंहराव के पहले खत्‍म हो गया था, और नरसिंहराव के बाद सोनिया का एक नया वंश कांग्रेस की लीडर के रूप में उभरा। इस तरह की बहस रात-दिन हम लोगों के बीच चलते रहती थी और गांधी ने 240 मील के इतने ही लंबे सफर को अधिक दिनों में पूरा किया था, उन्‍होंने जरूर इससे अधिक बातें की होंगी, सुनी होंगी। हम लोगों की हालत यह थी कि बाकी दुनिया की खबरों से कटे हुए थे और जब जापान में भूकंप और सुनामी की तबाही आई तो शायद हिन्‍दुस्‍तान से फोन पर बातचीत में किसी के बताने पर एक दिन बाद पता लगा, और जापान के परमाणु बिजलीघर से निकला रेडिएशन कैलिफोर्निया पहुंचने की बात भी एक-दो दिन बाद यहां से किसी ने फोन पर बताई। यह भी किसी और ने भारत से फोन पर कहा कि जापान से उठे रेडियो एक्टिव प्रदूषण की वजह से एशिया में लोगों को बारिश से बचने की चेतावनी दी गई है और हम लोग कैलिफोर्निया में बारिश में भीगते चल रहे हैं। इस पूरे एक पखवाड़े में एक या दो दिन कुछ मिनटों के लिए टीवी पर खबरें देखने के अलावा खबरों की बाकी दुनिया से लगभग कटा रहना बुरा इसलिए नहीं रहा क्‍योंकि सूचनाओं के लगातार ताजा सैलाब से भीगे दिमाग में कई बार गहरे सोचने-विचारने का मौका कम मिलता है। यहां पर हम लोग कई गंभीर मुद्दों पर आज की वारदातों से बचे रहकर सोच पा रहे थे।


दुनिया कितनी छोटी होती है इसका एहसास मुझे हर देश या हर शहर में होते चलता है। लॉस एंजल्स जाने के पहले वहां मेरी अकेली दोस्त मीना के फोन नंबर और ईमेल पते बदल गए थे इसलिए उससे बात नहीं हो पाई। लेकिन एक सुबह वहां हमारे साथ चलने के लिए एक नौजवान जोड़ा शामिल था। अमित और नेहा कुछ ही महीनों पहले वहां पहुंचे थे। मेरे छत्‍तीसगढ़ से आने की खबर से अमित ने आकर मुझसे कहा कि वह मध्‍य प्रदेश के पिपरिया का रहने वाला है। जब मैंने कहा कि मैं वहां कई दिनों तक रह चुका हूं क्‍योंकि वहां मेरी ननिहाल के रिश्तेदार रहते हैं। वह बात इतनी पुरानी थी कि अमित उस वक्त पैदा भी नहीं हुआ था लेकिन ननिहाल के नाम गिनाते ही वह तुरंत कह बैठा कि उसी परिवार की दूकान से तो अमित का परिवार हमेशा से सारा सामान खरीदते आया है। पिपरिया के बगल के एक छोटे गांव खापरखेड़ा में अपने पिता की रिश्तेदारी की बात जब मैंने कही तो वहां के उस परिवार का नाम भी अमित को मालूम था। अमित और नेहा को इस तरह चलने की आदत तो थी नहीं और वे सिर्फ इस मकसद को पूरा करने के लिए एक पूरा दिन चलना चाहते थे। आदत तो मुझे भी रोज एक मील चलने की भी नहीं थी लेकिन एक किस्म का जुनून था कि पांव चले जा रहे थे और हर दिन तकरीबन छह-छह मील के तीन हिस्से चलते हुए मैं यह भी गिनते चलता था कि हर हिस्सा पूरे सफर का करीब दो फीसदी हो रहा है। जब हमारे साथ चलने वाले मुझसे बहुत कम उम्र के लोग मुझे देखकर हैरान होते थे और कहते थे कि इस उम्र में मैं इतना चल रहा हूं, तो मुझे अचानक उम्र का एहसास और अफसोस दोनों होता था।

एक पूरे दिन चलने की जिद में नेहा के पैर इस तरह जख्मी हुए कि अगले कई दिन उसने बिस्तर पकड़ लिया। ऐसा ही हाल रास्ते में कुछ और लोगों का हुआ जो कि एक दिन चलने के बाद ही अपनी कार तक चलने के लायक नहीं बच गए थे। इस पखवाड़े में एक से अधिक दिन ऐसे आए जब कुछ मिनटों को मुझे लगा कि मैं कहां आकर फंस गया हूं और हमारे एक प्रमुख साथी जवाहर ने उस सुबह मेरा चेहरा देखते ही कह दिया कि आज मैं बहुत परेशान दिख रहा हूं। लेकिन फिर जब अपनी दुनिया, अपनी रोज की दुनिया की कई परेशानियों की याद आई तो लगा कि अपनी कड़ी जमीन से तो यहां की जमीन जख्मी पैरों तले भी आरामदेह है। और अपनी जिंदगी की परेशानियों और चुनौतियों से मानो पलायन सा करते हुए मैं कैलिफोर्निया की खूबसूरत वादियों के बीच कड़वी बहस में डूबकर रह गया। दुनिया छोटी होने की बात उस वक्त भी लगी जब बर्कले के एक भारतीय नौजवान से पहले फोन पर बात हुई और फिर मिलकर। मेरे प्रदेश और शहर के बारे में पता लगने पर उसने कहा कि यहां पर उसका एक दोस्त प्रतीक रहता है। प्रतीक का पूरा नाम जानकर जब मैंने उसके पिता का अंदाज लगाया तो वह सही निकला। यहां के साइंस कॉलेज में पढ़ाने वाले प्रोफेसर हमारे पारिवारिक परिचित भी हैं और हमारे अखबार की तारीफ करने वाले भी। उनके बेटे का दोस्त वहां इस तरह अचानक मिल जाएगा यह भला कब सोचा था! लेकिन ऐसे कुछ और लोग भी मिले जो दोस्तों के दोस्त थे।
एक दिन के लिए हमारे साथ चल रहे एक रिटायर्ड प्रोफेसर ओमप्रकाश जुनेजा से परिचय हुआ और पता लगा कि वे गुजरात के बड़ौदा विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाते थे तो मुझे अहमदाबाद की अपनी एक दोस्त याद आई जो कि वहां अंग्रेजी पढ़ाती है और जो आठ हाथों वाली देवी की तरह सक्रिय रहकर इंटरनेट और असल जिंदगी में हजारों लोगों से रोजाना संपर्क रखती है। मुझे एक पल में ही यह पक्का भरोसा हो गया था कि वह प्रोफेसर जुनेजा को जानती ही होगी। मैंने उनसे पूछा कि क्‍या वे रेखा को जानते हैं जो अहमदाबाद में अंग्रेजी पढ़ाती हैं, तो उन्‍होंने कहा कि वह तो फेसबुक पर उनके दोस्तों में भी शामिल हैं। हिन्‍दुस्‍तान में उस वक्त रात कुछ देर हो चुकी थी लेकिन मैं लालच रोक नहीं पाया और रेखा को फोन लगाकर इन दोनों की बात करा दी। दुनिया के लोगों से मिलते चलें तो दुनिया एक शहर, कस्बे और फिर एक गांव की तरह छोटी सी लगने लगती है। एक पखवाड़े की पदयात्रा के दौरान वहां सैकड़ों लोगों से मैंने यह सवाल किया कि अमरीका में अपने रहते-रहते क्‍या उन्‍हें कभी भ्रष्टाचार, रिश्वत का सामना करना पड़ा?


कुछ लोग कुछ महीनों से वहां थे और कुछ लोग आधी सदी से वहां बसे हुए थे। इनमें से कुछ लोगों का यह मानना था कि अफगानिस्तान जैसे देश में अमरीकी सरकार और सेना ने उस देश के पुनर्निर्माण के लिए जो बड़े-बड़े ठेके लिए उनमें भ्रष्टाचार की खबरें सामने आई थीं। लेकिन अमरीका में गुजारी अपनी आधी सदी में भी इनमें से किसी ने रिश्वत की नौबत नहीं देखी थी। ऐसे में इस भारतीय समुदाय का इस बात को लेकर तकलीफ पाना स्वाभाविक था कि भारत भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है और भ्रष्टाचार की कमाई से भ्रष्ट लोग चुनाव, संसद, अदालत और लोकतंत्र सबको खरीद ले रहे हैं। इसके बावजूद बहुत से लोगों में भारत लौटने का उत्‍साह कम नहीं था। कुछ ही बरस पहले वहां जाकर बसे और एक कामयाब पेशेवर सुभाष हमारे साथ पूरे 240 मील चलने वाले नौजवान थे। और उन्‍हीं से मेरा मजाक का सबसे अधिक रिश्ता भी था। दांडी मार्च-2 की पूरी तैयारियों के साथ-साथ भारत लौटने की तैयारी भी कर रहे थे और अपनी पत्‍नी और छोटी सी बेटी के साथ हैदराबाद आकर विख्यात इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में पढ़ाई करने वाले थे। पिछले हफ्ते सुभाष यहां आ भी गए और उनका यह भी मानना है कि यह उनके लिए काम के हिसाब से भी घाटे का काम नहीं रहेगा क्‍योंकि हिन्‍दुस्‍तान में भी अब बहुत अच्‍छे अवसर मिलने लगे हैं। सुभाष की यह बात मुझे आगे जाकर वेंकटेश शुक्‍ला से हुई बातचीत के दौरान फिर याद आई जब उन्‍होंने कहा कि अब तक वे भारत में प्रोडक्‍ट तैयार करके अमरीकी बाजार में ला रहे थे लेकिन अब वे अमरीका में प्रोडक्‍ट तैयार करके भारतीय बाजार में ले जा रहे हैं। इन बातों से उस भारत में भी संभावनाओं के एक आसमान का पता लगता है जो आज दुनिया के पांच सबसे भ्रष्ट देशों में से एक गिना जा रहा है।


क्रमश: ....

सुनील कुमार

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

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