छायावाद के मुकुट : पं.मुकुटधर पाण्‍डेय

हिन्‍दी साहित्य को जानने समझने वालों के लिए ‘छायावाद’ एक ऐसा विषय रहा है जिसकी परिभाषा एवं अर्थ पर आरंभ से आज तक अनेक साहित्य मनीषियों एवं साहित्यानुरागियों नें अपनी लेखनी चलाई है एवं लगातार लिखते हुए इसे पुष्ट करने के साथ ही इसे द्विवेदी युग के बाद से पुष्पित व पल्लवित किया है । छायावादी विद्वानों का मानना है कि, सन. 1918 में प्रकाशित जयशंकर जी की कविता संग्रह ‘झरना’ प्रथम छायावादी संग्रह था । इसके प्रकाशन के साथ ही हिन्दी साहित्य जगत में द्विवेदीयुगीन भूमि पर हिन्दी पद्य की शैली में बदलाव दष्टिगोचर होने लगे थे । देखते ही देखते इस नई शैली की अविरल धारा साहित्य प्रेमियों के हृदय में स्थान पा गई । इस नई शैली के आधार स्तंभ जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पन्‍त और महादेवी वर्मा थे । कहा जाता है कि इस नई शैली को साहित्य जगत में परिभाषित करने एवं नामकरण करने का श्रेय पं.मुकुटधर पाण्डेय को जाता है । सन् 1918 से लोकप्रिय हो चुकी इस शैली के संबंध में सन् 1920 में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘श्री शारदा’ में जब पं. मुकुटधर पाण्डेय जी की लेख माला का प्रकाशन आरंभ हुआ तब इस पर राष्ट्र व्यापी विमर्श हुआ और ‘छायावाद’ नें अपना सम्मामन स्थापित किया ।

‘छायावाद’ पर प्रकाशित लेखमाला व ‘छायावाद’ के संबंध में स्वयं पं. मुकुटधर पाण्डेय कहते हैं – ‘सन् 1920 में 'छायावाद' का नामकरण हुआ और जबलपुर की 'श्री शारदा' में हिन्‍दी में छायावाद शीर्षक से मेरी लेख-माला निकली । इसके पहले सन् 1918 में 'प्रसाद जी' का 'झरना' निकल चुका था, जो छायावादी कविताओं का प्रथम संग्रह था । ...... आचार्य शुक्‍ल नें Romanticism के पर्याय के रूप में जिसे स्‍वच्‍छंदतावाद, कहा था, वह 'छायावाद' का अग्रगामी था Romanticism जिसे हरफोर्ड नें heightening of sensibility भावोत्‍कर्ष कहा था, वही 'छायावाद' के रूप में परिणित हुआ था उसकी मुख्‍य विशेषतायें हैं, मानवतावाद सौंदर्यवाद, रहस्‍यवाद, रोमांटिक निराशावाद । 'छायावाद' की कुछ कविताओं में एक ऐसी मर्मभेदी करूणा ध्‍वनि पाई जाती है जो करूणा होने पर भी अत्‍यंत मधुर है । वह एक करूण व्‍यथा की कथा है, जो मनुष्‍य की साधारण समझ के बाहर की बात है । 'छायावाद' के सौंदर्य बोध और कल्‍पना में पूर्ववर्ती कविताओं से बडा अंतर था । छायावाद द्वारा द्विवेदी युगीन काव्‍यधारा का एक नई दिशा की ओर व्‍यपवर्तन घटित हुआ था ।‘


छायावादी काव्य एवं ‘छायावाद’ शव्द के प्रयोग पर तद्समय साहित्य जगत में हो रही चर्चाओं में किंचित विरोध के स्वर भी मुखरित होने लगे थे जिसका कारण मूलत: निराला एवं उनके अनुयायियों के द्वारा छंदों का अंग भंग किया जाना था किन्तु यह सृजन के पूर्व का हो हल्ला था, आगे उसी लेख में पं. मुकुटधर पाण्डेय जी कहते हैं – ‘द्विवेदी जी नें सुकवि किंकर के छद्मनाम से 'सरस्‍वती' में छायावाद की कठोर आलोचना की । उनका व्‍यंग्‍यपूर्ण कटाक्ष था, जिस कविता पर किसी अन्‍य कविता की छाया पडती हो, उसे छायावाद कहा जाता है, तब मेरा माथा ठनका । लोग छाया शव्‍द का लाभ उठाकर छायावाद की छीछालेदर कर रहे थे । छायावादी कवियों की एक बाढ-सी आ गई । मैनें 'माधुरी' में एक लेख लिखकर नई शैली के लिये 'छायावाद' शव्‍द का प्रयोग नहीं करने का आग्रह किया । पर उस पर किसी नें ध्‍यान नहीं दिया, जो शव्‍द चल पडा, सो चल पडा ।‘

छायावाद हिन्दी साहित्य में स्थापित हो गया और इसे ‘छायावाद’ सिद्ध करने में पं.मुकुटधर पाण्डेय के ‘श्री शारदा’ में प्रकाशित लेखमाला की अहम भूमिका रही । उनके इस लेखमाला के संबंध में प्रो. इश्वरी शरण पाण्डेय जी कहते हैं ‘ श्री पाण्डेय जी की इस लेखमाला के प्रत्येंक निबंध छायावाद पर लिखे गए बीसियों तथाकथित मौलिक शोधात्मतक प्रबंध ग्रंथों से एतिहासिक तथा साहित्तिक दोनों दृष्टि यों से कहीं अधिक स्थायी महत्व के हैं । यह लेखमाला हिन्दी साहित्य की ‘दीप्त-धरोहर’ हैं ।‘ पं. मुकुटधर पाण्डेय की सरस्वती में प्रकाशित कविता ‘कुकरी के प्रति’ को प्रथम छायावादी कविता माना गया एवं समस्त हिन्दी साहित्य जगत नें इसे स्वीकार भी किया । ‘कुकरी के प्रति’ पं.मुकुटधर पाण्डेय की ऐसी कविता थी जिसमें छायावाद के सभी तत्व समाहित थे, इस कविता के संबंध में डॉ.शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ नें रायगढ में कहा था – ‘कुकरी में तो भारत वर्ष की सारी संवेदना की परंपरा निहित है .... ’


30 सितम्बर सन् 1895 को छत्तीसगढ के एक छोटे से गांव बालपुर में जन्में पं. मुकुटधर पाण्डेय अपने आठ भाईयों में सबसे छोटे थे । इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई । इनके पिता पं.चिंतामणी पाण्डेय संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे और भाईयों में पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय जैसे हिन्दी के ख्यात साहित्यकार थे । इनके संबंध में एक लेख में प्रो.अश्विनी केशरवानी जी कहते हैं – ‘पुरूषोत्तम प्रसाद, पद्मलोचन, चंद्रशेखर, लोचनप्रसाद, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा बहनों में चंदनकुमारी, यज्ञकुमारी, सूर्यकुमारी और आनंद कुमारी थी। सुसंस्कृत, धार्मिक और परम्परावादी घर में वे सबसे छोटे थे। अत: माता-पिता के अलावा सभी भाई-बहनों का स्नेहानुराग उन्हें स्वाभाविक रूप से मिला। पिता चिंतामणी और पितामह सालिगराम पांडेय जहां साहित्यिक अभिरूचि वाले थे वहीं माता देवहुति देवी धर्म और ममता की प्रतिमूर्ति थी। धार्मिक अनुष्ठान उनके जीवन का एक अंग था। अपने अग्रजों के स्नेह सानिघ्य में 12 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने लिखना शुरू किया। तब कौन जानता था कि यही मुकुट छायावाद का ताज बनेगा...?’

बाल्‍यकाल में ही पिता की मृत्यु हो जाने पर बालक पं.मुकुटधर पाण्डेय के मन में गहरा प्रभाव पडा किन्तु वे अपनी सृजनशीलता से विमुख नहीं हुए । सन् 1909 में 14 वर्ष की उम्र में उनकी पहली कविता आगरा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘स्वदेश बांधव में प्रकाशित हुई एवं सन् 1919 में उनकी पहली कविता संग्रह ‘पूजा के फूल’ का प्रकाशन हुआ । इतनी कम उम्र में अपनी प्रतिभा और काव्य कौशल को इस तरह से प्रस्तुत करने वाले पं. मुकुटधर पाण्डेय अपने अध्ययन के संबंध में स्वयं कहते हैं – ‘सन् 1915 में प्रयाग विश्ववविद्यालय की प्रवेशिका परीक्षा उतीर्ण होकर मैं एक महाविद्यालय में भर्ती हुआ पर मेरी पढाई आगे नहीं बढ पाई । मैंने हिन्दी , अरबी, बंगला, उडिया साहित्य का अध्ययन किसी विद्यालय या महाविद्यालय में नहीं किया । घर पर ही मैंनें उनका अनुशीलन किया और उसमें थोडी बहुत गति प्राप्त की ।‘ महानदी की प्राकृतिक सुषमा सम्पपन्न तट और सहज ग्राम्य जीवन का रस लेते हुए कवि नें अपनी लेखनी को भी इन्हीं रंगों में संजोया -

कितना सुन्दर और मनोहर, महानदी यह तेरा रूप ।
कलकलमय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप । 
तुझे देखकर शैशव की है, स्मृंतियां उर में उठती जाग । 
लेता है किशोर काल का, अँगडाई अल्हड अनुराग ।

आबाध गति से देश के सभी प्रमुख पत्रिकाओं में लगातार लिखते हुए पं. मुकुटधर पाण्डेय नें हिन्दी पद्य के साथ साथ हिन्दी गद्य पर भी अपना अहम योगदान दिया । पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित अनेकों लेखों व कविताओं के साथ ही उनकी पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित कृतियां इस प्रकार हैं – ‘पूजाफूल (1916), शैलबाला (1916), लच्छमा (अनुदित उपन्यास, 1917), परिश्रम (निबंध, 1917), हृदयदान (1918), मामा (1918), छायावाद और अन्य निबंध (1983), स्मृतिपुंज (1983), विश्वबोध (1984), छायावाद और श्रेष्ठ निबंध (1984), मेघदूत (छत्तीसगढ़ी अनुवाद, 1984) आदि प्रमुख है। हिन्‍दी जगत में योगदान के लिये इन्हें विभिन्न अलंकरण एवं सम्मान प्रदान किये गये। भारत सरकार द्वारा भी इन्हें ‘पद्म श्री’ का अंलंकरण प्रदान किया गया । ऐसे ऋषि तुल्य मनीषी का सम्मान करना व अलंकरण प्रदान करने में सम्मान व अलंकरण प्रदान करने वाली संस्थायें स्वयं गौरवान्वित हुई । पं.रविशंकर विश्‍वविद्यालय द्वारा इन्हें मानद् डी.लिट की उपाधि भी प्रदान की गई ।

साहित्‍य प्रेमियों, साहित्यकारों और समीक्षकों नें इनकी रचनाओं की उत्कृ‍ष्टता के संबंध में बहुत कुछ लिखा जो समय समय पर पत्र- पत्रिकाओं में एवं पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होती रहीं एवं सम्मान के साथ उनकी लेखनी को अंतरतम तक स्वीकार किया जाता रहा । साहित्‍य के शास्त्रीय परम्पraओं से अनभिज्ञों के द्वारा भी पं. मुकुटधर पाण्डेय की रचनाओं को पढने और शव्दों की गरहाई में गोता लगाने का काम आज तलक किया जा रहा है । पं.मुकुटधर पाण्डेय की रचना शैली पर डॉ. सुरेश गौतम जी कहते है - इनके काव्य में मानव-प्रेम, प्रकृति-सौंदर्य, करूणाजनित सहानुभूति, दु:खवाद, मानवीकरण, वैयक्तिकता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्‍मकता, आध्‍यात्मिकता, संयोग-वियोग, अव्‍यक्‍त सत्ता के प्रति जिज्ञासा और गीतात्मकता की प्रधानता रही है । .... कमोबेश इनके सभी गीत संक्षिप्त एवं छायावादी शैली का पूर्वाभास है । छायावाद के कल्पना-वैभव की अट्टालिका का पहला द्वार मुकुटधर पाण्डेय है । इनकी गीत-पदचाप छायावादी गोली का सौंदर्य है जिनकी प्रतीतियों नें कालान्‍तर में ऐतिहासिक यात्रा करते हुए छायावाद की संज्ञा प्राप्त की ।‘

अपनी रचनाओं के संबंध में स्वयं पं. मुकुटधर पाण्डेय जी कहते हैं - ‘'मेरी रचनाओं में चाहे लोग जो भी खोज लें परन्तु वे विशुद्ध रूप से मेरी आंतरिक सहज अभिव्याक्ति मात्र है । मैंनें कुछ अधिक लिखा नहीं केवल कुछ स्पुट कविताऍं लिखी हैं । उनमें न तो कल्पना की उँची उडान है न विचारों की उलझन, न भावों की दुरूहता । उनमें उर्दू की चीजों की तरह चुलबुलाहट या बांकपन भी नहीं । वह सहज-सरल उद्गार मात्र हैं । ..... पर हम लोगों का महत्व अब केवल ऐतिहासिक दृष्टि से हैं । आजकल हिन्दी में बडे बडे कवि हैं, उनके सम्मुख हम नगण्य हैं ।'

90 वर्ष की उम्र तक हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में छायावादी परिर्वतन को स्थापित करा देने वाले तेजोमय चिर युवा का निधन 6 नवम्बर 1995 में रायपुर में लम्बी बीमारी के बाद हो गया । उन्होंनें स्वेयं ही अपनी एक कविता में महानदी से अनुरोध करते हुए कहा था कि, ‘हे महानदी तू अपनी ममतामयी गोद में मुझको अंतिम विश्राम देना, तब मैं मृत्यु – पर्व का भरपूर सुख लूटूंगा -

चित्रोत्पले बता तू मुझको वह दिन सचमुच कितना दूर, 
प्राण प्रतीक्षारत लूटेंगें, मृत्यु-पर्व का सुख भरपूर ।

‘कुकरी के प्रति’ के सर्जक और ‘छायावाद’ के प्रर्वतक संत, ऋषि पं. मुकुटधर पाण्डेय हिन्दी साहित्य जगत में दैदीप्यमान नक्षत्र के रूप में सदैव प्रकाशमान रहेंगें एवं नवसृजनोन्मेषी मानसिकता को राह प्रशस्थ करते रहेंगें ।

आज उनकी जयंती पर हम कृतज्ञतापूर्वक उनका पुण्य स्मरण करते हैं एवं उनके चरणों पर अपना श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं ।

संजीव तिवारी
यह आलेख स्‍थानीय दैनिक छत्‍तीसगढ के 29 सितम्‍बर के अंक में संपादकीय पन्‍ने Page 6 पर प्रकाशित है)
ऐतिहासिक कविता 'कुकरी के प्रति' को इस ब्‍लाग के उपर दाहिने साईडबार में पढा जा सकता है ।

कैलीफोर्निया विश्‍वविद्यालय में छत्‍तीसगढ के नक्‍सल हिंसा पर एक विशेष सत्र

अमेरिका के कैलीफोर्निया विश्‍वविद्यालय में भारत के लोकतंत्र पर केन्द्रित दो दिन का सेमीनार आयोजित किया गया है जिसमें छत्‍तीसगढ की नक्‍सल हिंसा और उससे जुडे हुए सभी पहलुओं पर चर्चा के लिये एक विशेष सत्र रखा गया है । इस सेमीनार में पूरे देश से विभिन्‍न व्‍यक्तियों को वक्‍ता के रूप में आमंत्रित किया गया है जिसमें छत्‍तीसगढ के दो लोग शामिल हैं, इनमें एक प्रदेश के पुलिस महानिदेशक विश्‍वरंजन जी और लोकप्रिय समाचार पत्र छत्‍तीसगढ के संपादक सुनील कुमार जी हैं । इनका व्‍याख्‍यान भी वहां उक्‍त सत्र में होगा ।

इन दो वक्‍ताओं के अलावा दिल्‍ली की एक समाज शास्‍त्री और जन मुद्दों को लेकर अदालती लडाई लडने वाली प्राध्‍यापिका नंदिनी सुन्‍दर सर्वोच्‍च न्‍यायालय के एक सेवानिवृत न्‍यायाधीश बी.एन.श्रीकृष्‍णा भी वक्‍ता हैं । यह महत्‍वपूर्ण सेमीनार पिछले वर्ष से शुरू हुआ है और इसमें भारत के करीब एक दर्जन प्रमुख लोग वक्‍ता रहे हैं । जिनमें केन्‍द्रीय मंत्री, प्रमुख उद्योगपति, प्रमुख पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख वकील शामिल थे । पिछले वर्ष की तरह इस समय भी भारत के अलग अलग क्षेत्रों से लगभग एक दर्जन लोगों को वहां आमंत्रित किया गया हैं और इसके अलावा पूरी दुनिया से भारतीय लोकतंत्र में दिलचस्‍पी रखने वाले दर्जनों अन्‍य विद्वानों को भी इस सेमीनार में आमंत्रित किया गया है ।

आभासी दुनिया के दीवाने : ब्लागर्स

सन् 1995 से भारत में इंटरनेट के पदापर्ण के बाद से नेट में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए भारत के लोग निरंतर प्रयास में लगे रहे हैं जो आज तक जारी है। अंग्रेजी वेबसाईटों के बाद इंटरनेट में हिन्दी वेबसाईटें भी धीरे धीरे छाने लगी है इसी के साथ भारत में इंटरनेट के कनेक्शनों में भी भारी वृद्धि हुई है। विकासशील देशों के इन नेट प्रयोक्ताओं को टारगेट करते हुए इंटरनेट में विज्ञापन के द्वारा अरबों आय कमाने वाली कम्पनियों के द्वारा अपने वेबसाईटों में ट्रैफिक बढ़ाने के उद्देश्य से विभिन्न प्रयोग भी किये हैं। जिसमें ई मेल, कम्यूनिटी वेब साईट व ब्लाग आदि शामिल हैं, इससे इंटरनेट में सर्फिंग करने वालों को देर तक नेट में बांधे रखने का कार्य भी हुआ है। इसके नेपथ्य में साईटों में लगे विज्ञापन को अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाना रहा है ।

कम्पनियों का उद्देश्य कुछ भी हो पर इसके चलते अपनी भावनाओं का आदान प्रदान करने की इच्छा संजोये लोगों को ब्लाग सौगात के रूप में एक बेहतर व विश्वव्यापी प्लेटफार्म मिला है, जो इस सदी के अंतरजाल विकास का उल्लेखनीय सोपान है ।

ब्लाग लेखन को हिन्दी जगत नें विभिन्न परिभाषाओं से नवाजा है, वहीं इस पर वाद- विवाद एवं मत भिन्नता भी प्रदर्शित हुई है । किसी नें इसे डायरी लेखन कहा तो किसी नें इसे वर्तमान परिस्थिति के अनुसार 'कबाड़' तो किसी नें इसे 'साहित्य' की श्रेणी में खड़ा किया । परिभाषाओं एवं इसकी विषय सामाग्री पर हो रहे विवादों से परे यदि हम इसके लेखकों के उद्देश्यों पर अपना ध्यान आकर्षित करें तो यह बात उभर कर सामने आती है कि 4000 हिन्दी ब्लागर्स, किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिये लगातार प्रयास करते नजर आ रहे हैं ।

पहले अपनी लेखनी को जनता तक ले जाने का माध्यम प्रिंट मीडिया ही रहता था, जहां कुछ अपवादों को छोडक़र, स्थापित लेखकों व संपादकों के रहमों करम पर रचनायें जनता तक पहुचती थीं । छपने के बाद एक- एक कहानी या कविता पर देश में जगह जगह छोटी छोटी गोष्ठियां होती थीं उससे संबंधित समाचार छपते थे । टिप्पणीकार समीक्षक बनकर गली के पानठेलों पर अपनी स्तुति गान खुद करता था और लोग दबी जुबान में उसका साथ देते थे। अब ब्लाग ने ऐसे मठाधीशों की कलई खोलकर रख दी है यहां तो पोस्ट पब्लिश हुआ कि पूरा विश्व एग्रीगेटरों के सहारे गोष्ठी कर लेता है और बिना माल्यार्पण समाचार पत्र में समाचार छपवाये जाते हैं । ऐसे लोग जो कागज रंगते थे पर छपते नहीं थे, या छपने भेजते भी नहीं थे, उनकी डायरियों और मानस में भावनायें भरी पड़ी रहती थी, ऐसे रचनाकारों को तो ब्लाग नें बढिय़ा अवसर दिया है। सही मायनों में ऐसे ही रचनाकारों नें ही, ब्लाग को पठनीय व स्तरीय बनाया है । इनके कारण ही ब्लाग की चर्चा अब प्रिंट मीडिया को भी करना पड़ रहा है।

पिछले दिनों अपनी दमदार लेखनी व निरंतरता के कारण हिन्दी ब्लाग जगत में कम समय में ही छा जाने वाले अनेक ब्लागरों ने ब्लाग लेखन के मुद्दों पर चर्चा करते हुए लिखा था कि हिन्दी ब्लागर्स अपने मानस में एक आभासी दुनिया का निर्माण करते हैं जिसमें ब्लाग उनके स्वयं के आभासी व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है। ब्लागर्स अपनी इसी दुनिया का आनंद लेता है, जो वह बोलना चाहता है, पाडकास्ट पर दिल खोलकर बोलता है ब्लाग पर लिखता है । उसकी बातों को लोग सुनते हैं और उसकी लेखनी को लोग पढ़ते भी हैं , इससे वह संतुष्ट होता है । मनोवैज्ञानिक भी कहते हैं कि यदि मनुष्य अपनी भावनाओं को व्यक्त न कर पाये तो कुंठा ग्रस्त हो जाता है, तो यहां उसी कुंठा का इलाज होता है।

17 दिसम्बर 1997 से जान बर्जर का Logging the Web - Blog का क्रांतिकारी पदार्पण आभासी दुनियां के दीवानों का मयखाना है जहां टिप्पणीकार व पाठक शाकी है तो ब्लागर व वर्डप्रेस पैमाने और ब्लाग लेखक के शब्द जाल हैं। इस आभासी किन्तु ज्ञान के मधुशाला में सब मदमस्त हैं, आईये आप भी एक बार हमारी इस महफिल में ...

मधुर भावनाओं की सुमधुर
नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने
अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं
उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी,
पीनेवाला, मधुशाला।।

संजीव तिवारी
(यह लेख उदंती.काम के अगस्‍त' 2008 अंक में प्रकाशित है )

उफनते कोसी को देख शिवनाथ की यादें : संस्‍मरण

कोसी की तबाही का मंजर टीवी व समाचार पत्रों पर देखकर स्वाभाविक मानवीय संवेदना जाग उठी है देश भर से लोग मदद के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहयोग कर रहे हैं । उफनती कोसी को टीवी में देख कर उसकी भयावहता को मैं छत्‍तीसगढ से ही महसूस कर रहा हूं । ऐसी ही एक बाढ (कोसी की बाढ से काफी छोटी) की स्थिति से एक बार मेरा भी सामना हुआ था उसकी यादों को मैं आप लोगों के साथ बांटना चाहता हूं ।

मेरा गांव छत्तीसगढ में शिवनाथ नदी के एकदम किनारे बसा है, घरों से नदी की दूरी बमुश्किल 100 मीटर होगी । शिवनाथ छत्तीसगढ की दूसरे नम्बर की बडी नदी है, इसमें खारून, हांफ, आगर, मनियारी, अरपा, लीलागर, तान्दुरला, खरखरा, अमनेरा, खोरसी व जमुनियां आदि नदियां मिलती हैं एवं शिवनाथ शिवरीनारायण में जाकर महानदी से मिल जाती है । मेरे गांव से दो किलोमीटर पूर्व ही शिवनाथ व खारून का संगम है (इस संगम का चित्र मेरे ब्लाग के हेडर में लगा है) इन दोनों नदियों के मिलने के कारण यहां से शिवनाथ अपने वृहद रूप में बहती है ।

वर्ष 1994 में छत्तीसगढ की नदियों में अतिवृष्टि के कारण भीषण बाढ आई थी, महानदी, शिवनाथ व खारून नें समूचे छत्तीसगढ के पठारी हिस्से  को जलमग्न कर दिया था । मैं इस अवधि में भिलाई में अपने संस्थान में कार्यरत था, दुर्ग-भिलाई में लगातार बारिस हो रही थी जिससे कामकाज सब प्रभावित हो रहे थे एवं मैं लगभग खाली था रोज शाम को भिलाई से दुर्ग जाकर शिवनाथ के बढते कदमों को नाप आता था । बचपन से मेरी आदत रही है कि बाढ के समय में समय मिलते ही नदी के किनारे जाना एवं पानी की सीमा में दो चार लकडियां गडा कर निशान बनाना फिर एकाध घंटे बाद पुन: वहां जाकर जलस्तर को बढते या घटते देखना फिर गांव भर ढिंढोरा पीटना कि गंगरेल से पानी छोडा गया है, बाढ तेजी से आ रही है गुणा भाग करते हुए बताता कि इतने समय में इतना दूर तक पानी चढ जायेगा । सो यहां भी प्रत्येक शाम जाकर ऐसा ही निशान लगा आता था जो निरंतर मिट रहा था ।

बढते पानी को देखकर मन गांव के बचपन के दिनों को याद करने लगा, तीन चार दिन बाद मैं अपने गांव जाने के लिये तैयार हो गया, सडक मार्ग से रायपुर तक गया वहां से सिमगा के बीच पडने वाले नालों में पानी उफान पर था सो रेलमार्ग से तिल्दा गया वहां से पुन: सडक मार्ग से सिमगा पहुचा । मेरे बडे भाई साहब परिवार सहित सिमगा में रहते हैं जो तहसील प्लेस है यहां से मेरा गांव जबलपुर रोड शिवनाथ पार कर अंदर भाग में लगभग आठ किलोमीटर दूर है ।

गांव तक पहुच पाना संभव नहीं था क्योंकि सिमगा शिवनाथ पुल में लगभग बीस फुट पानी था । भाभी नें बताया कि गांव में मां-बाबूजी बीमार हैं और यहां आ पाना अब संभव नहीं है । पिछले बीस सालों में इतना भीषण बाढ नहीं आया था, गांवों में लोग फंसे थे सरकार द्वारा हेलीकाप्टर से राहत सामाग्री गिराई जा रही थी । सेना के जवान नावों के साथ सिमगा में कैंम्प कर रहे थे और गांवों से दूर पेंडों एवं इक्का दुक्का घरों के छप्परों में फंसे लोगों को निकालने व राहत सामाग्री पहुचाने में लगे थे ।

उत्सुकता नें मुझे पुन: नदी के किनारे पर ले आया, पर किनारा गायब था शिवनाथ सिमगा शहर तक पहुच चुकी थी । मन में पुन: बचपन भर आया क्योंकि कई बार बढते शिवनाथ के पानी को मैंने छूकर माथे में लगाया फिर पैर छुआया और अगले घंटों से शिवनाथ वापस अपने किनारों में सिमटने लगी, दादा मजाक में कहते थे कि ‘तोर चरन धोवाये बर आये हे रे गंगा मईया हा, पांव पर अउ चरन धो, चल दिही’ । शायद यही सोंचकर पानी को माथे से लगाया हाथ पांव धोया और वापस भईया के घर आ गया । दूसरे दिन शिवनाथ वापस जाने के बजाय और आगे बढ आई । सुबह नहानें और बाढ में मस्ती करने के लिये गया तो वहां सैनिक दल में भिलाई का मेरा एक मित्र सहपाठी मिल गया । दुआ सलाम के बाद पता चला कि वह सेलर है, मैनें मजाक में ही कह दिया कि मुझे मेरे गांव ले जाओगे क्या, वह तुरत अपने आफीसर से पूछ लिया कि यह मेरा दोस्त है और इधर के गांव का रहने वाला है इसे क्षेत्र का अनुभव है और हमें उधर ही जाना है यह भी हमारे साथ जाना चाहता  है, क्या हम इसे अपने साथ ले चले । उसका आफीसर किंचित ना नुकुर के बाद मान गया क्योंकि नाव में आस पास के गांव के दो कोतवाल भी थे जो मुझे जानते थे । इतने सहज रूप से भ्रमण का कार्यक्रम बनने पर मैं आनन फानन में बडे भाई के घर साथ आये भतीजे को वापस भेजकर सेदेशा भेजा और मन ही मन प्रफुल्लित होने लगा ।

चार बडी नावों की टीम तैयार थी, हम लोग इस बडी नाव को ‘मलगी डोंगा’ कहते हैं । इसकी संख्या यहां गिनतियों में है यहां छोटी डोंगियां ज्यादा है, इन बडे नावों को सेना ही लेकर आई थी । मैं ‘मलगी’ नाव में चढ गया, हम सिमगा से दक्षिण पश्चिम में लहरों व भंवरों को पार करते हुए, नदी के उस पार पहुंचे । नदी के पार का मात्र अनुमान ही था पानी के धार का पार तो अंत्यंत विस्तृत था । उस दिन बारिस बंद थी सूर्यनारायण लुक छिप रहे थे । कुछेक जगहों पर पेडों के उपरी हिस्सें नजर आ रहे थे बाकी चारो तरफ जहां तक नजर जाती पानी ही पानी, पूर्ण वेग के साथ बहती व भंवर मारती धारा । इधर बंबूल के वृक्ष बहुतायत है जिनकी उंचाई औसतन पंद्रह बीस फुट होती है पर ये उपर से घने होते हैं इस कारण पानी में भारी खलबली मचा रहे थे । पेंडों के शेष हिस्सों में सांप, बंदर व अन्य छोटे जानवर जगह जगह चिपके सांसों के साथ जद्दोजहद कर रहे थे, चींटिंयों का तो बोझा बोझा लगभग पांच सात फिट व्यास के तुकडे कहीं कहीं पेडों में अटके थे तो कहीं कहीं पानी में बह रहे थे ।

हमारे साथ चले रहे एक सैनिक नें हमें बतलाया कि कल ऐसा ही एक छोटा चींटी का टीला बचाव दल के नाव से टकरा गया था जिससे करोडों चींटिंयां नाव में आ गई थी, सैनिकों की सहनशक्ति व बहादुरी के कारण नाव डूबते डूबते बची थी उस नाव में सवार पांचों सैनिकों को चीटियों नें जगह जगह काटा है उनका शरीर सूज गया है जिनका कैम्प में इलाज चल रहा है । उसने बतलाया था कि चीटिंयों के बहते ढेर से टकराने के कारण ढेर तुकडों में बंट गया और एक हिस्सा उछलकर नाव में सैनिकों के उपर ही गिरा था, सैनिकों नें अपने आप को संयत रखते हुए शरीर में हलचल नहीं होने दिया जिसके कारण चीटिंया नाव में एक जगह इकत्र हो गई बाद में फावडे से उन्हें पानी में फेंका गया ।

आगे उंचे पीपल, बरगद, इमली, कौहा आदि के बडे व फैले हुए पेंड पानी में डूबे थे जिसके बाजू से नाव के गुजरने से दिल धक से करने लगता था क्योंकि पानी में डूबे पेडों के आजू बाजू तेज बहाव के कारण भंवर पैदा होती है जो नांव को अपनी ओर खींचती है । इधर बीच बीच में चार पांच इंट भट्ठे थे पानी में डूबे होने के कारण इनकी चिमनियां व खपरैल अपना ठिकाना बता रहे थे साथ ही भूमि का कुछ पठारी हिस्सा भी नजर आ रहा था जिसमें कुछ मजदूर परिवार फंसे थे । पिछले तीन दिनों में सैनिक इन भट्ठों से चार-पांच की संख्या में क्रमश: बहुतायत मजदूरों को सुरक्षित निकाल कर कैम्पों में ले गये थे पर कुछ हठी मजदूर अब भी वहां से बाहर नहीं आये थे उनकी जिद के कारण सैनिकों को उनकी सेवा के लिये खाने के पैकेट ले जाकर वहां देना था । नाव जब वहां पहुचा तब मजदूरों नें मुझे नाव पर देखकर आश्चेर्य प्रकट किया । मैनें उन्हें समझाने की कोशिस की कि कैम्प में चले जाओं तुम लोगों के कारण नाहक प्रशासन को तुम्हारी चिंता करनी पड रही है, कैम्प में सारी व्योवस्थायें हैं, पर वे नहीं माने । उनमें से एक मेरे हमउम्र नें तो यह कह कर बात समाप्त कर दी कि फोकटउवा गरमा गरम खाये ल मिलत हे दाउ, उंहा कैम्प  के गिद्ध मसानी ले तो बने हे, हम जानत हन हमर डीह नई बूडय ।

यहां से होते हुए हम आगे बढे लगभग पांच किलोमीटर पानी में सफर उसके बाद मेरा गांव था हमारे नाव को अगले कैम्प तक लगभग दस गांव के लोगों तक सीमित खाने के पैकेट पहुचाने थे एवं गस्त कर वापस जेवरा में कैम्प कर रही पार्टी से मिलकर वापस आना था । नाव में बैठे कोतवाल नें बताया कि मेरे गांव में उस समय लगभग 200 परिवारों की आबादी रही होंगी जिसमें से लगभग सौ परिवार ही गांव में रह गये थे बाकी पानी के बढने के पहले ही मवेशियों व पालतू जानवरों के साथ पास के कीरितपुर कैम्प में चले गये थे । हम आगे बढ रहे थे, चारो तरफ फैले पानी के महासागर के बीच गांव का कुछ हिस्सा नजर आ रहा था जो धीरे धीरे नजदीक आ रहा था और मेरी उत्सुकता बढती जा रही थी, अपनों से ऐसी विषम परिस्थिति में मिलने की उत्कंठा चरम में थी ।

दोपहर लगभग बारह बजे के करीब हम गांव के किनारे पहुचे । दूर से नावों को आते देखकर गांव वाले उन छप्परों पर चढकर इकट्ठे हो गये थे जहां पर नावों को धाराओं से बचाते हुए खडा किया जा सकता था । भीड में बुजुर्ग और लीडर मेरे बाबूजी ही थे, मुझे देखकर सबने आश्चर्य किया कि इतनी बाढ में कहां ‘मरे बर गांव आ गेस’ । मैनें उन्हें बतलाया कि मैं तो सिर्फ आप लोगों के लिये दवाई लेकर आया हूं, मैं नावों के साथ ही वापस चला जाउंगा । गांव में मेरे चचेरे भाई और भतीजे थे जो मेरे हमउम्र थे और मेरे लंगोटिया थे । उन लोगों नें मुझसे अनुरोध किया कि नावों की टीम अमोरा कैम्प से वापस इधर से होते हुए ही सिमगा जायेगी अत: तुम यहीं उतर जाओ वापसी में चले जाना, किंचित ना नुकुर के बाद मैं गांव में ही रूक गया और चारो नाव आगे गांवों की ओर बढ गए ।

अब मेरे साथ मेरा गांव था एवं मेरे मित्र थे, गांव चारो ओर से बाढ से घिरा हुआ था जिसमें तेज बहाव थी । गांव की लगभग बीस डोंगियों का प्रभार बीस नवयुवकों के हाथ में था जिसमें से एक मुझे मिल गया था, बरसों से यह मेरे गांव की परिपाटी रही है कि जब गांव में बाढ आती है तो नदी के किनारे बसे मछेरे कुछ प्रतिष्ठित घरों के दरवारों में एक एक डोंगियां बांध आते हैं ताकि हमें गांव में कहीं आने जाने एवं दैनिक क्रियाकलापों से निवृत्ति के लिये आसानी हो, खतरा ज्यादा बढने से इन्हीं घरों के निर्देशों पर गांव वाले सुरक्षित स्थानों पर निकल जाते थे, हालांकि यह मैनें अपने ग्रामीण जीवन के बीस सालों में कभी नहीं देखा, सभी डटे रहते हैं गांव में, कोई बाहर नहीं जाना चाहता । पानी बढने पर गांव की मवेशियों एवं अतिबुजुर्ग व बीमार व्यक्तियों को पास के ही पानी से अप्रभावित गांव किरितपुर में पैदल चलने लायक पानी को पार कर शिफ्ट कर दिया जाता रहा है । एक दो बार तो पानी ज्यादा बढने के बाद ही हमारी गायें वापस हमारे घर आ गई थी जिन्हें हमने नाव से सूखे जगह में पुन: खदेडा था ।

जिस स्थान से हमारे गांव के लोग किरितपुर जाते हैं उस स्थान में लगभग 200 मीटर का ऐसा स्थान है जहां गांव में पानी चढ जाने के बाद पानी चढता है । बाढ के दिनों में इस स्था न पर दो नालों का पानी एक दूसरे से मिलने के लिये जिस तरह से आतुर नजर आती है उसे मैं सदैव याद करता हूं क्यों कि इस दृश्य को देखने के लिये मैं घंटों वहां बैठे इसका इंतजार किया हूं एवं दोनों नालों को धीरे धीरे अपना जलस्तर बढाते हुए इंच इंच बढते हुए फिर फुटों से मीटरों का फासला तय करते और सदियों से दो बिछडों के मिलन के दौड को देखा हूं जो पूरे वेग के साथ एकदूसरे को आलिंगनबद्ध करती है, इन क्षणों को मैं ताउम्र विस्मृत नहीं कर पाता हूं । दोनों के आलिंगनबद्ध होनें और उस सुरक्षित स्थान पर जलस्तर कमर भर होनें के बाद वहां से गुजरना मुश्किल हो जाता है उसके बाद ही नदी अपना मुख्य बहाव केन्द्र गांव को अपने आगोश में लेते हुए बहने लगती है और खतरा बढ जाता है, पर हमने बरसों इसे यूंही उफान में आते और दो चार दिन में वापस जाते देखा है इस कारण इससे भय नहीं लगता ।

जब मैं गांव पहुचा था तब स्थितियां इससे भी आगे निकल गई थी । गांव के सभी लोग दो तीन पक्के मकानों में शरण लिये थे जिसमें एक मेरा घर भी था । एक एक कमरों में पचास पचास लोग रह रहे थे, सामूहिक रसोई पकाई जा रही थी । मेरे घर का सब सामान अस्त। व्यस्तम था एवं लोगों को जमीन ज्यादा उपलब्ध कराने के लिये कुर्सियां व पलगें हटा ली गई थी । बंद पडे बिजली के बोर्डों को गांव के बच्चे ‘टूडूडूंडूं $$$$$$$ .......’ करते हुए इस तेजी से आफआन कर रहे थे कि वे बैंजों या हारमोनियम बजा रहे हों । इन सबके लिये गरियाना वक्त के अनुसार उचित नहीं था । इतना तो मैं बचपन से देखते आ रहा हूं कि जब जब बाढ आती है तब तब गांव भेदभाव छोडकर एक हो जाता है, दिल से दिल मिल जाते हैं और हमें अपना दायित्व पूरा करने का भी पूरा अवसर मिल जाता है जिससे कि हमारा पूरा परिवार बरसों तक आत्मिक संतुष्टि महसूस करता है । यह हमें परंपरा से मिलती आई सीख है जिसे हमने स्वाभाविक तौर से ग्रहण किया है ।

मेरे गांव में अधिकाश घर मिट्टी के हैं एवं 200 घरों की संख्यां वाले गांव के सभी घरों का ग्राउंड लेबल गलियों से लगभग चार पांच फुट उपर है, नींव में पत्थरों की जुडाई है उपर मिट्टी, खपरैल व फूस के छप्पर हैं । अपनी अपनी औकात व पसंद के अनुसार सभी के घर हैं किन्तु सभी घरों में एक चीज अवश्य है और वह है दो घरों के बीच के दीवालों पर एक तीन-चार फुटा मिट्टी का आला जिसे आल्मा‍री के रूप में लकडी से पार्टीशन कर बनाया गया है । बचपन में जब मैं अपने बाबूजी से इसके कामन होने एवं यहीं से घरों में सेंध लगा कर चोरी होने पर प्रश्न करता था तो बाबूजी कहते थे कि यह इमरजेंसी एक्जिट है जैसे बसों और ट्रेनों में होती है, तो मुझे समझ में ही नहीं आता था कि इस इमरजेंसी एक्जिट की घरों में क्या आवश्यकता है किन्तु जैसे जैसे मैं बडा होता गया इस इमरजेंसी एक्जिट का कमाल देखता गया । जैसे ही बाढ की पानी गलियों में भरकर आवाजाही को बाधित करती है, घरों-घर इस इमरजेंसी एक्जिट को फोड दिया जाता है और एक-दूसरे के घरों से होते हुए पूरा गांव एक संयुक्त आवास में तब्दील हो जाता है ।

जब मैं वहां पहुचा तब यह इमरजेंसी एक्जिट ओपन था, कहीं कहीं पानी का स्तर दीवार में लगे पत्थरों से भी उपर चढ गया था इसलिये मिटटी के दीवार ढह रहे थे फलत: मिट्टी के घरों वाले लोग पक्के मकानों को अपना शरणस्थली बना लिये थे जिसको जो समेटते बना समेंट कर एक जगह सिमट गये थे, अनाज की बोरियों को यहां से वहां शिफ्ट किया जा रहा था और कईयों का रोना भी चल रहा था कि वे तो अनाज को सुरक्षित जगह पर रख ही नहीं पाये पानी चढ आया ।

बहुत से लोग बीमार थे किन्तु गांव में लोग जीवट होते हैं उनकी  रोगप्रतिरोधक क्षमता नें उन्हें बचाये रखा था । हॉं नई व्याह कर आई बहुओं का हाल बुरा था उनमें से कईयों का वास्ता ऐसी बाढ से कभी नहीं हुआ था सो वे हर समय सुबक रही थी गांव के देवरों के द्वारा मजाक में डराये जाने पर दहाड मार कर रोनें लगती थी जिन्हें  बडे बूढे समझा रहे थे । यह सब मेरे लिये सामान्यं था, मां बाबूजी की तबियत उस दिन कुछ ठीक थी । मैं अपने मित्रों के साथ अपनी डोंगी में गांव की गलियों के भ्रमण के लिये निकल गया जैसे पेरिस के सडकों का भ्रमण कर रहा हूं । पर यह भ्रमण बहुत खतरनाक था क्योंकि गलियों में भरे पानी व बहाव से कई दीवार लगातार धाड धाड गिर रहे थे और पांनी में भीषण हलचल मचा रहे थे ।

मैं नाव चलाने में मेरे भाईयों से कम प्रवीण हूं इसलिये मेरे मित्र व भाई मुझे नाव नहीं चलाने देते गांव के ही किसी लडके को मेरी सेवा में लगा देते हैं और कहते हैं कि तू बस बैठे रह ड्राईवर सहित कार मिला है तुम्हें क्योंकि तू बडे दाउ (मेरे पिताजी मेरे मालगुजार दादाजी के बडे बेटे हैं) का छोटा बेटा है ना ‘छोटे दाउ’ । पर मैं उनकी बातों को खूब समझता हूं और जिद कर पतवार हमेशा छीन कर नाव चलाता हूं मेरे इसी जिद के कारण मेरी नाव उस दिन पलटते पलटते बच गई और मैं पानी में कूद गया, नाव के सामान्य होते ही मैं पुन: उस पर आ गया ।  देर तक हा हा ही ही चलती रही तब तक आसमान में हेलीकाप्टर मंडराने लगा ।

छतों में पहुचकर बच्चे हाथ हिलाने लगे । देखते ही देखते हेलीकाप्टर से बोरियों में कुछ गिराये जाने लगा जो लोगों के छप्परों को फोडते हुए गिर रहे थे कई तो पानी में भी गिर रहे थे । लोग इमरजेंसी एक्जिट से ‘बुलुंग बुलुंग’ दौड दौड कर बोरों को ‘सकेलने’ लगे । यहां मैनें पहली बार सरकारी सहायता पाने के बाद लोगों के मनों में वैमनुष्यता को पनपते देखा और उन बोरों को छुपाते, छीनते-झपटते देखा । इन बोरों में पूरी-सब्जी, इलैक्टाल पाउडर व दवाईयों के पैकेट थे जिसकी आवश्यकता सभी को थी किन्तु राहत सामाग्री सीमित थी । हमने लोगों से कहा भी कि सभी बोरियों को एक जगह इकट्ठा कर मिल बांट कर खाओ पर लोग नहीं माने । यह क्रम अगले चार दिनों तक चलता रहा ।

शाम को सैनिकों के नाव गांव नहीं आये, शायद वे नदी के उस पार से होते हुए सिमगा की ओर निकल गए थे । मेरे खुशी का ठिकाना न रहा, मुझे इस बाढ में गांव वालों के साथ, अपने मित्रों के साथ रहने को जो मिल रहा था । मेरी मॉं बता रही थी कि शिवनाथ नें लगभग बीस वर्ष पहले इतने जल स्तर को छुआ था उस वक्त मैं लगभग पांच-छ: वर्ष का था, गलियों में बाढ के पानी में बहते और अपनी प्राण रक्षा के लिये घरों में घुसते सांपों व चूहों को छोटे से लकडी के डंडें से पानी में वार कर भगागाता था । उस समय की बातें तो मुझे याद नहीं है किन्तु इसके बाद के इससे कुछ कम जलस्तर के कई बाढों का सामना मैनें किया है ।

तीन दिन बाद जलस्तर कम होने लगा और चौथे दिन नदी अपने किनारों में सिमट गई पर जाने के बाद जो मंजर हमने देखा वो दिल दुखाने वाला था, हालांकि किसी भी प्रकार से जान की क्षति नहीं हुई थी किन्तु माल की क्षति सामने नजर आ रही थी लगभग 90 प्रतिशत घरों का नामोंनिशान मिट गया था । गांव के नाम पर सिर्फ कुछ मकान बचे थे बाकी सब सफाचट था । खपरैल व फूस के छप्पर गांव से दूर बहकर कहीं कहीं जमीन में पसरे पडे थे । मवेशियों की फूली हुई लाशे यहां वहां अटके पडे थे, किसानों की कई काठ की गाडियां भी इधर उधर बह कर लटके पडे थे । चारो तरफ फसलों व घांसों के सडने की तेज गंध फैली थी । इंट भट्ठे वाले का एक ट्रक भी बहुत दूर नाले में बहते हुए धंसा-फंसा था । मैं स्थिति सामान्य होते तक दो दिन और गांव में रहा, इस बीच पटवारी गांव में हुए सम्पत्ति के नुकसान का आकलन करने आ पहुचा था और जुगाड तोड व लेन देन की बातें तय होने लगी थी । मैं गांव वालों के चेहरों पर दुख की अमिट छाप के बावजूद फिर से उठ खडे होने की ललक को देखकर वापस भिलाई आ गया ।

हालांकि मेरे गांव वालों को उठ खडे होने में लगभग दो तीन साल लगे किन्तु किसी भी की जान नहीं गई । कोसी नें तो हजारों लोगों को लील लिया, भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे एवं बाढ में फंसे या प्रकोप से पीडित लोगों को इस विभीषिका से निबटने एवं मेरे गांव की तरह फिर से उठ खडे होने की शक्ति प्रदान करे.
संजीव तिवारी
(यह लेख उदंती.काम के सितम्‍बर' 2008 में प्रकाशित हुई है )

उदंती डाट काम डॉ. रत्‍ना वर्मा की पत्रिका www.udanti.com पर उपलब्‍ध

'पत्रकारिता की दुनिया में 25 वर्ष से अधिक समय गुजार लेने के बाद मेरे सामने भी एक सवाल उठा कि जिंदगी के इस मोड़ पर आ कर ऐसा क्या रचनात्मक किया जाय जो जिंदा रहने के लिए आवश्यक तो हो ही, साथ ही कुछ मन माफिक काम भी हो जाए। कई वर्षों से एक सपना मन के किसी कोने में दफन था, उसे पूरा करने की हिम्मत अब जाकर आ पाई है। यह हिम्मत दी है मेरे उन शुभचिंतकों ने जो मेरे इस सपने में भागीदार रहे हैं और यह कहते हुए बढ़ावा देते रहे हैं कि दृढ़ निश्चय और सच्ची लगन हो तो सफलता अवश्य मिलती है।' 

यह उदंती डाट काम के संपादक, प्रकाशक व मुद्रक डॉ. रत्‍ना वर्मा के अंतरमन से निकले शव्‍द हैं जिन्‍हें रूपांतरित करने के लिए उन्‍होंनें उदंती डाट काम के आनलाईन और प्रिंट प्रकाशन का निर्णय लिया और  अपने स्‍वप्‍नों को साकार करते हुए विगत दिनों प्रदेश के मुख्‍य मंत्री डॉ. रमन सिंह के करकमलों इस पत्रिका के प्रिंट वर्जन  का  विमोचन करवाया ।
डॉ. रत्‍ना वर्मा जी के इस कार्य को आनलाईन ब्‍लाग प्‍लेटफार्म देनें हेतु हमने सहयोग किया और आरंभिक तौर पर इसे www.udanti.com पर होस्‍ट कर पब्लिश कर दिया । प्रदेश की राजधानी में इस संबंध में आज समाचार प्रकाशित भी हुए हैं, हम ब्‍लागर्स साथियों के लिए इस पत्रिका की लिंक व विषयक्रम यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं :-

अंक 1, अगस्‍त 2008

अनकही :
संपादक की कलम से
पत्रिकायें नियमित अंतराल के बाद हर बार एक नया अंक प्रस्‍तुत करती हुई प्रवाहमान रहती है अत: पत्रिकाओं को रचनात्‍मक विचारों की नदी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी आगे पढे


कृषि /छत्‍तीसगढ :
खुशहाली के इंतजार में धान का कटोरा - चंद्रशेखर साहू

पर्यटन / नीति :
देश के पर्यटन नक्‍शे पर छत्‍तीसगढ कहां है ? - विनोद साव


उदंती :
खूबसूरत गोडेना फॉल - संतोष साव


इंटरनेट / सर्फिंग :
आभासी दुनियां के दीवाने ब्‍लागर्स - संजीव तिवारी

सेवा /स्‍वर्ण जयंती वर्ष :
सृजन का पर्याय भिलाई महिला समाज - ललित कुमार

इतिहास से / खजाना :
ओ मेरे सोना रे, सोना रे . . . - प्रताप सिंह राठौर

बस्‍तर / जीवन शैली :
गोंड जनजाति का विश्‍वविद्यालय घोटुल - हरिहर वैष्‍णव
छोटे परदे की टीआरपी बढाते बडे सितारे - डॉ. महेश परिमल

संस्‍मरण / बचपन के दिन :
सॉंस सॉंस में बसा देहरादून - सूरज प्रकाश


मन की गांठ / आदत :
कृपया क्षमा कीजिए - लोकेन्‍द्र सिंह कोट

लेबल

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

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