नया भू अधिग्रहण अधिनियम : सरकार एवं न्यायालय को तत्काल संज्ञान लेना चाहिए

नया भू अधिग्रहण अधिनियम (भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनव्य र्वस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013  Right to Fair Compensation and Transparency in Land Acquisition, Rehabilitation and Resettlement Act, 2013) के प्रभावी हो जाने के बावजूद छ.ग.शासन के द्वारा पुराने अधिनियम (भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894) के तहत् की जा रही भू अधिग्रहण कार्यवाही उद्योगपतियों एवं नौकरशाहों के गठजोड़ का नायाब नमूना है. भारत गणराज्य के चौंसठवें वर्ष में संसद के द्वारा नया भू अधिग्रहण अधिनियम अधिनियमित कर दिया गया है जिसका प्रकाशन भारत का राजपत्र (असाधारण) में दिनांक 27 सितम्बकर 2013 को किया गया है.

नया भू अधिग्रहण अधिनियम के प्रवृत्त होने की तिथि के संबंध में इस नये अधिनियम की धारा 1 (3) में कहा गया है कि ‘यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा, जो केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे’ इसी तरह पुराने अधिनियम के व्यपगत होने के संबंध में इस नये अधिनियम की धारा 24 में स्पष्टत किया गया है कि जहॉं पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के द्वारा जारी कार्यवाही में यदि धारा 11 के अधीन कोई अधिनिर्णय नहीं लिया गया है वहॉं नये अधिनियम के प्रतिकर का अवधारण किये जाने से संबंधित सभी उपबंध लागू होंगे. यदि किसी मामले में पांच वर्ष पूर्व भी कोई अधिनिर्णय लिया गया हो किन्तु भूमि का वास्तविक कब्जा नहीं लिया गया हो या प्रतिकर का संदाय नहीं किया गया हो तो वहॉं पुरानी कार्यवाही को व्यपगत करते हुए, नये अधिनियम के उपबंधों के तहत अर्जन कार्यवाही नये सिरे से आरंभ की जावेगी.

पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के स्थान पर नये भू अधिग्रहण अधिनियम के प्रभावी होने की तिथि के संबंध में केन्द्रीय सरकार के द्वारा भारत का राजपत्र (असाधारण) में दिनांक 19 दिसम्बिर 2013 को अधिसूचना जारी कर दी गई है जिसके अनुसार नया अधिनियम 1 जनवरी 2014 से प्रवृत्त हो गया है.

नये अधिनियम के प्रवृत्त हो जाने की तिथि 1 जनवरी 2014 के बाद भी छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा हजारों एकड़ भूमि के अधिग्रहण के लिए पुराने अधिनियम के तहत् धारा 4, 6, 11 आदि का निरंतर प्रकाशन किया जा रहा है. जो मौजूदा अधिनियम के अनुसार व्यपगत कार्यवाहियॉं है. छत्‍तीसगढ़ शासन के नौकरशाह इसके लिए प्रशासनिक बौद्धिकता, कार्यालयीन श्रम, राज्‍य वित्त व समय का बेवजह व्यय करवा रहे है जो उचित नहीं है. इसके साथ ही यह भारतीय कानून एवं संविधान के प्रति जनता की आस्था पर भी कुठाराधात है. इस संबंध में सरकार एवं न्यायालय को तत्काल संज्ञान लेना चाहिए एवं पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत् व्यवहरित अधिग्रहण कार्यवाहियों पर रोक लगाया जाना चाहिए.


माइक्रो कविता और दसवाँ रस

क्या आपका दिन काटे नहीं कटता? तो समय बिताने के लिये फल्ली खाने या अंत्याक्षरी खेलने की जरूरत नहीं है। मेरी सलाह मानिये और कवि बन जाइये। टाइम पास का इससे बढ़िया तरीका और कुछ नहीं हो सकता। फिर भी समय बच जाय तो फिकर मत कीजिये। बाकी समय एक अदद् श्रोता ढ़ूँढ़ने में कट जायेगा।

क्या कहा आपने? कविता लिखना नहीं आता। कोई बात नहीं, तरीका मैं बताता हूँ आपको। तरीका नहीं, गुरू-मंत्र समझिये इसे आप।

आजकल कवि बनने के लिये वियोगी या योगी होने का कोई बंधन नहीं है और न ही पत्नी या प्रेमिका से दुत्कारे जाने की आवश्यकता ही। बस नीचे बताये जा रहे गुरू-मंत्रों पर अमल कीजिये और एक महान् कवि बनने की दिशा में अपने दोनों भारी-भरकम पाँव हल्के मन से, प्रफुल्ल चित्त होकर बढ़ाते चले चलिये। अखबारों में अपनी कविता, मय छाया चित्र देख-देख कर महान् कवियों के स्वप्न लोक में विचरण कीजिये।

महामंत्र क्रमांक एक - इस महामंत्र का नाम है, ’हर्रा लगे न फिटकिरी, रंग चढ़े सुनहरी’। इसके अनुसार अखबार का ताजा अंक हाथ लगते ही आप सारे लेखों और संपादकीय पर एक सरसरी निगाह डालिये। प्रासंगिक, सामयिक और ज्वलंत समस्याओं पर छपे लेखों को रेखांकित कीजिये। इनमें से किसी एक का चयन कीजिये। (यदि ताजा अखबार न मिले या इससे काम न बने तब भी आप निराश मत होइये। अपने आस-पास, घर में, बाहर में, कूड़े की ढेर में, कहीं भी निगाह दौडा़इये; अखबार का कोई न कोई फटा-पुराना टुकड़ा मिल ही जायेगा, इसमें काम की कोई न कोई चीज जरूर हाथ लग जाएगी।) बस अपना काम बन गया समझो। अब सिर्फ इतना कीजिये, उस लेख में से एक-दो पंक्तियाँ चुनिये और उनके शब्दों के क्रम में उचित फेर-बदल करते हुए उसे कविता की शक्ल में ढाल लीजिये। बन गई कविता। एक उदाहरण देखिये -

’..........अब राम मंदिर निर्माण का नारा एक जुनून मात्र रह गया है। यह जन-मानस को उद्वेलित तो कर सकता है लेकिन जनता को पहले रोजी-रोटी की जरूरत है। आखिर रोटी के लिए संघर्ष कर रही जनता के बीच राम मंदिर का जुमला कब तक चलता रहेगा?’ ( 5.7.92 को रायपुर से प्रकाशित एक दैनिक के संपादकीय पृष्ठ का टुकड़ा जिस पर यह लेख छपा था और, जो मुझे होटल के बाहर पड़ा मिला था।)

अकल का घोड़ा तेज कीजिये और तैयार है कविता, कुछ इस प्रकार -

नारा
मंदिर निर्माण का
रह गया है अब
जुनून मात्र
जन-मानस को
कर सकता है, उद्वेलित यह
लेकिन
जरूरत है
रोजी रोटी की
जनता को पहले;
आखिर
भूखी जनता के बीच
चलता रहेगा कब तक
यह जुमला।
0
(नीचे अपना अच्छा सा एक साहित्यिक नाम टांक दीजिये। जैसे - नमस्ते जी ’शुक्रिया’)

महामंत्र क्रमांक दो -इसका शीर्षक है, ’बूझ सको तो बूझो, नहीं किसी से पूछो’। वर्तमान युग का यह सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रचलित मंत्र है। आपको अधिक माथापच्ची करने की जरूरत नहीं है। माथापच्ची करे आपके दुश्मन। आपके खाली दिमाग में जितने भी शैतानी विचार आते होंगे, उन्हें ज्यों का त्यों कागज पर उतार दीजिये। इसे पढ़िये और समझने की कोशिश कीजिये। समझ में आ रहे सारे नामाकूल वाक्यों को तुरंत निकाल बाहर कीजिये। ध्यान रखिये, आप साहित्य लिख रहे हैं, मजाक नहीं कर रहे हैं। बचे हुए असमझनीय वाक्यों को समझने का निरर्थक प्रयास बिलकुल मत कीजिये। समझने और समझाने वाले बहुत मिल जायेंगे। आप तो बस लिखते जाइये। आपकी कविता कुछ इस प्रकार होनी चाहिये -

आजकल चल
अदल-बदल
दल-दल
दलदल-दलदल
चल-चल
कलकल-कलकल चल
चले चल
एकला चल
सबल चल
सदल चल
अदल-बदल चल।
0
नमस्ते जी ’शुक्रिया’

महामंत्र क्रमांक तीन - इसे ’माइक्रो कविता’ के नाम से जाना जाता है। माइक्रोचिप्स से अभिप्रेरित होकर यह अस्तित्व में आई है। यदि माइक्रोचिप्स इलेक्ट्रानिक्स की दुनिया का अनोखा आविष्कार है, तो माइक्रो कविता भी साहित्य की दुनिया का महानतम् आविष्कार है। आलस्य, प्रयत्न लाघव, और गिलास में गागर नामक तीन अति- आधुनिक आवश्यकताएँ इसकी जननी हैं। महामंत्र क्रमांक दो का यह लघु संस्करण है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है -
1
हल्दी
मेंहदी
चल दी।
( एक मित्र महोदय की डायरी से)

2
लेता
देता
नेता

3
खिलाना
पिलाना
बनाना।

4
वश
बस
बस-बस।
0
नमस्ते जी शुक्रिया

जिस प्रकार माइक्रोचिप्स के उपयोग से इलेक्ट्रानिक उपकरणों का आकार छोटा हो गया है, पाकिट साइज कंप्यूटर बनने लगे हैं, उसी प्रकार माइक्रो कविता के प्रयोग से अब छोटे-छोटे अर्थात् माइक्रोग्रंथ बनना संभव हो सकेगा। उसी के साथ बीते जमाने के भारी भरकम ग्रंथों को भी छोटे संस्करणों में लाना संभव हो सकेगा। इससे पाठकों के समय और श्रम की बचत होगी। उनके मानसिक प्रदूषण का निवारण भी होगा। छपाई में कागज कम लगने से वनस्पत्ति की कम हानि होगी, और पर्यावरण प्रदूषण निवारण में मदद मिलेगी। इसके अलावा भी इसके अनेक लाभ हैं। कुछ पुरातन पंथी तथाकथित साहित्यकार इसे कविता मानने से इन्कार करते हैं। परंतु मेरी समझ में एकमात्र यही आज के इलेक्ट्रानिक युग की इलेक्ट्रानिक कविता है। जाहिर है, इसे समझने के लिए भी इलेक्ट्रानिक बुद्धि की आवश्यकता होती है। इस मामले में हम बहुत अच्छी स्थिति में हैं। हमारे विश्वविद्यालय हर वर्ष अनेक इलेक्ट्रानिक बुद्धियों को डॉक्टरेट की उपाधि देने के काम में लगी हुई है। अतः माइक्रो कविता को समझने और समझाने वालों की हमारे देश में न अभी कोई कमी है, और न ही भविष्य में कभी कोई कमी होगी।

माइक्रो कविताएँ बड़ी विलक्षण होती हैं। ये ’अतिरंजना’ शब्द शक्ति से युक्त होती हैं। इनमें ’बाल की खाल’ नामक एक नये क्रांतिकारी अलंकार का समावेश होता है। इन कविताओं में ’बौखलाहट’ नामक रस होता है, जिसका स्थायी भाव ’माथापच्ची’ है। निर्लज्जता, बेहयाई, व्यभिचारकर्म करके गर्व करना, चोरी और सीनाजोरी आदि इनके संचारी या व्यभिचारी भाव हैं। इन कविताओं को पढ़ते वक्त ’माथा पीटना’, ’बाल नोचना’ तथा ’छाती पीटाना’ उबासी आना, जम्हाई आना, सुनते वक्त श्रोताओं द्वारा एक-दूसरे के कान में ऊँगली डालना, चेहरे का रंग उड़ना आदि भावों का प्रगटीकरण इस रस के अनुभाव हैं।

आज के हमारे अतिआधुनिक अतिप्रगतिशील अर्थात उत्तरआधुनिक युग के नये मानवीय मूल्य, यथा - अनैतिकता, दुराचार, भ्रष्टाचार, असत्य भाषण तथा इन मूल्यों को धारण करने वाले राजपुरूष, उनके कर्मचारी और व्यापारीगण उत्तरधुनिकता के रंग में रंगी हुई युवापीढ़ी आदि इस रस के आलंबन विभाव हैं। ऊबड़-खाबड़ तुकांतों वाली, न्यूनवस्त्रधारित्री व अतिउदात्त विचारों वाली आधुनिक रमणी के समान, पारंपरिक अलंकारों से विहीन छंद-विधान इसके ’उद्दीपन विभाव’ हैं। इन कविताओं में पाई जाने वाली ’बौखलाहट’ नामक रस साहित्य का दसवाँ रस है।

महामंत्र क्रमांक चार का नाम है - ’शब्द हार’। चाहें तो इसे आप शब्दाहार भी कह सकते हैं। जैसा पुष्पहार, वैसा ही शब्द हार। पुष्पहार बनाने के लिये ताजे फूलों की जरूरत पड़ती है। इन्हें बागों से चुनने पड़ते हैं। शब्द हार बनाने के लिये शब्दों की जरूरत पड़ती है। इन्हें शब्द कोश से चुनने पड़ते हैं। शब्द चयन में विशेष ध्यान रखने की जरूरत पड़ती है, जैसे -

वनस्पत्तियों में कैक्टस, गुलमोहर, गुलाब, पलास, गुलमेंहदी आदि। कुछ समाजशास्त्रीय शब्द जैसे - अमीरी, गरीबी, सर्वहारा, समाज, मानवता, आदि। कुछ नैतिकता (या अनैतिकता) के शब्द जैसे - ईमान, बेईमान, सदाचार, भ्रष्टाचार आदि। कुछ राजनीतिक शब्द जैसे - समाजवाद, पूंजीवाद आदि। मौसम संबंधी शब्द जैसे - पावस, शिशिर आदि सेनापति के जमाने में अधिक प्रचलित थे, अब कुछ पुराने पड़ गए हैं, फिर भी इनका उपयोग किया जा सकता है। बीच-बीच में ठेठ देशज शब्दों का उपयोग करते हुए इन शब्दों को अपने अकल के सिंथेटिक धागे में पिरो दीजिये। लो बन गई कविता।

महामंत्र क्रमांक पाँच में ’हँसगुल्ले’ कविता विराजमान हैं। इनका उपयोग कवि सम्मेलनों में होता है। कुछ चुटकुले याद कीजिये और महामंत्र क्रमांक एक की मदद से हँसगुल्ले कविता तैयार कर लीजिये। ऐसा करते वक्त श्लीलता का पालन करना कविकर्म के मार्ग में बाधक होती है अतः आप इसका परित्याग कर दे तो अच्छा होगा। जैसे -

माधुरी मेम का स्कूल में बड़ा जलवा है
छात्राओं के लिये आदर्श
छात्रों के लिये प्रादर्श और
सह-अध्यापको के लिये गाजर का हलवा हैं।

सामान्य ज्ञान परीक्षण के दिन
विद्यार्थियों से उनहोंने एक जटिल सवाल पूछा -

’बच्चों! अब मैं सीधे अपने मकसद् पे आ रही हूँ
तुम लोगों के बीच एक सामयिक प्रश्न उठा रही हूँ
समोसा और कचैरी में क्या अंतर होता है?
अपने अकल का घोड़ा दौड़ाइये
इस सवाल का जवाब बताइये
सही जवाब देकर इनाम में यह चाॅकलेट पाइये।’

एक लड़के ने कहा -

’मेम!
समोसे और कचोरी की बात कर दी आपने
अब चाॅकलेट कौन खायेगा
रखे रहिये, घर में अंकल के काम अयेगा।
पर पहले दोनों का सेंपल दिखाइये
सबके हाथों में एक-एक पकड़ाइये
अंतर तभी तो समक्ष में आयेगा।
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यदि आप किसी के प्यार में गोता खा रहे हों और नाकामी की वजह से निराशा के अथाह समुद्र में डूब-उतरा रहे हों तो फिर क्या कहने। आपकी हर आह और कराह स्वंय में एक महान् कविता होगी। यह छठवें प्रकार की कविता होती है। उदाहरणार्थ -

अरि!
ओ मेरी नींद हराम करने वाली सूर्यमुखी
तुम तो संपादक की तरह रूठी हो
किस्मत की तरह झूठी हो
अच्छा हुआ, जो अपने बाप के घर जाकर बैठी हो?
तेरे जाने से मुझे कितना फायदा हुआ है
तू क्या जानेगी री कलमुही
रात भर अब चैन से जगता हूँ
संुबह तक एक नया महाकाव्य रचता हूँ।
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इस प्रकार किसी भी बंधन को अस्वीकार करते हुए भारीभरकम और आकर्षक शब्दों से युक्त, सामान्यजन की समझ में न आने वाली और समझ में आ जाये तो उबकाई लाने वाली, वाक्य रचना आधुनिक कविता कहलाती है। ऐसी कविता लिखकर आप अपने युग के महान् कवियों में जरूर शुमार हो जऐंगे।
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कुबेर


16 जून 1956 को जन्‍में कुबेर जी हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढ़ी के सिद्धस्‍थ कलमकार हैं. उनकी प्रकाशित कृतियों में भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह), उजाले की नीयत (कहानी संग्रह), भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्ती़सगढ़ी लोककथा संग्रह) आदि हैं. माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह), और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह), प्रसिद्ध अंग्रजी कहानियों का छत्‍तीसगढ़ी अनुवाद आदि पुस्‍तकें प्रकाशन की प्रक्रिया में है. कुबेर जी नें अनेक पुस्‍तकों को संपदित भी किया है जिनमें साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010 व शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका ‘नव-बिहान’ 2010, 2011 आदि हैं. इन्‍हें जिला प्रशासन राजनांदगाँव का गजानन माधव मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012 मुख्मंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा प्राप्‍त हुआ है. कुबेर जी का पता ग्राम – भोड़िया, पो. – सिंघोला, जिला – राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441 है. वे शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.) में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं. उनसे मोबाईल नु. – 9407685557 पर संपर्क किया जा सकता है.
कुबेर जी के आलेखों एवं क‍हानियों को आप उनके ब्‍लॉग 'कुबेर की कहानियॉं' में भी पढ़ सकते हैं. गुरतुर गोठ में कुबेर जी के आलेखों की सूची यहॉं है।

यात्रा: सिहावा की गोद में

- विनोद साव

सड़क की दोनों ओर शाल के हरे भरे पेड़ थे। यह दिसंबर की आखिरी दोपहरी थी पर नये साल के उल्लास में थी। सड़क के किनारे खड़े पेड़ों को मानों प्रतीक्षा थी उन राहगीरों की जो नव वर्ष में प्रवेश उसके सामने बिछी सड़क से करें। सड़क बिल्कुल सूनी थी इसलिए साठ किलोमीटर की दूरी साठ मिनट में ही पूरी हो गई थी। जंगल की सूनी और चमकदार सड़क पर ड्रायविंग प्लेरजर का यह सुनहरा मौका था जिसे हाथ से जाने नहीं देना था ‘‘... याहू... चाहे कोई मुझे जंगली कहे...’’ कार के भीतर शम्मीकपूर थे और हमारे भीतर रायल स्टेग।

धमतरी से नगरी की यह दूरी तय हो गई थी। बस स्टेंड पर नरेन्‍द्र प्रजापति ने पहचान लिया था जिसने सिहावा-नगरी घुमा देने को आश्वस्त किया था। अभी कुछ दिनों पहले ही उसने एक पाठक के रुप में मोबाइल किया था कि ‘सर ! मैंने आपका यात्रा-वृतांत ‘केसरीवाड़ा’ पढ़ा ... कलम का जादू है सर आपके पास ... आपके साथ साथ मैं भी घूमता रहा।’’ पाठक नरेन्र् अब हमारे मार्ग दर्शक हो गए थे। सिहावा नगरी में वे आगे आगे थे और हम उनके पीछे पीछे।

‘नगरी में आप रहते कहां हैं?’
‘लाइन पारा में।’ उसने विनोदी स्वर में कहा था। वह नगरी का सच्चा माटीपुत्र है। एक तो वह उस समुदाय से है जो मिट्टी से बने उत्पाद पैदा करता है... लेकिन वह खुद पेशे से टेलर मास्टर है और बातचीत करने की उस्तादी शायदः इसी मास्टरी से उसमें आई होगी। अपने जातीय विरासत में मिले लोकरंग ने नरेन्र्द के भीतर कई रंग भर दिए हैं और उसे लहरी बाबू बना दिया है। एक लम्बा समय उसने लोक मंडली का संचालन करते बिताया है। उसे अपनी नगरी से प्यार है और किसी अच्छे गाइड की तरह वह दो दिनों तक हमारे साथ रहा। अपनी नगरी के इतिहास और पंरपरा और उसके क्रमिक उत्थान पर वह लगातार बोलता है ‘‘यह सप्त़ऋषियों का सिहावा है। हर पहाड़ी पर एक ऋषि की समाधि स्थली है। लेकिन सर! पहले दुधावा बांध चलते हैं।’ नदी पहाड़ों में मेरी ज्यादा दिलचस्पी को देखकर उसने खुद ही पहल की।

लगता है हम छत्तीसगढ़ की धरती पर नहीं पोर्ट-ब्लेयर में खड़े हैं। सामने अंतहीन जल सागर है। दोपहरी में भी हल्के कोहरे के बीच अनेक टापुनुमा शिलाखण्डों को समेटे हुए यह विराट दृश्य है। 1964 में बना यह दुधावा बांध है जिसमें 625 वर्ग किलोमीटर का जल क्षेत्र है। एक उठी हुई चट्टान पर कर्व ऋषि का आश्रम है। इस चट्टान तक हम अपनी कार चढ़ा लेते हैं। सिहावा की पहाड़ियां घुमावदार आकार में है ऊन के गोलों की मानिंद। पहाड़ी इलाका होने के बाद भी यहां के रहवासियों में कोई मानसिक पिछड़ापन नहीं है। हर आदमी चैतन्य और समझदार है नरेन्र्य प्रजापति की तरह।

बांध के कई पाइण्ट हैं जहां से अलग अलग नजारे देखे जा सकते हैं। बांध के निर्माण के समय विस्थापित हुए जन मानस को सामने बसा दिया गया था और अब यहां एक भरा पूरा गांव है जिसके साप्ताहिक बाजार भर जाने का आज दिन है। बाजार में हरी सब्जियों के बीच वह लाल सेमी दिखी जो लगभग लुप्त हो चुकी थी पर अब फिर उसकी आवक होने लगी है। डांग कांदा और लाल रंग का झुरगा पहली बार देखा। नरेन्र्ब कहते हैं कि ‘इन दोनों को उबालकर एक साथ बनाया जाता है मसालेदार... खूब अच्छा लगता है।’

दूसरे दिन अल्सुबह ही हम उस पहाड़ी की लम्बी सीढ़ियों को लांघ गए थे जहां महानदी का उद्गम स्थल माना जाता है। अचंभा होता है यह देखकर कि धान कूटने का बहाना जैसे छेद पर थोड़ा जल भरा है और इसी छेद से महानदी का उद्गम हुआ है। यह ऋंगऋषि की तपोभूमि है जिनकी तपस्या से त्रेता के महानायक राम का भी जनम हुआ माना जाता है। यहां एक पालतू मोरनी को विचरण करते देखा जिसे निकट बसे एक पंडित ने पाला है। पहाड़ी के नीचे झांकने पर सिहावा नगर की सुन्दरता खण्डाला से भी कहीं अधिक आकर्षक जान पड़ती है। नीचे आकार लेती नन्ही महानदी है जो सोलह किलोमीटर की यात्रा कर और फिर वहां से लौटकर पश्चिम से पूर्व की ओर बह चली है। नीचे उतरकर हमने नदी में स्नान कर लिया था।

सिहावा का तहसील मुख्यालय नगरी है। पुराने मूल गांव से हटकर इसका नया नगर भी विकसित हो गया है नया रायपुर की तरह। यह सुदूर अंचल में बसे होने के कारण अपनी जीवटता से एक आत्मनिर्भर नगर हो गया है। बस स्टेंड गुलजार है। टैक्सी और ऑटो भी खूब मिल जाते हैं। हर किसम के होटल-रेस्तरॉं हैं जहॉं वाजिब दाम में सब कुछ मिल जाता है। इसके चौराहों से हर दिशा में निकलती सड़कें खूब चौड़ी हैं जगदलपुर की सड़कों की तरह। यदि पास में बस्तर जैसा प्राकृतिक सौन्दर्य निहारना है तो सिहावा-नगरी को एक और आदर्श पर्यटन स्थल के रुप में सरकार विकसित कर सकती है। हमें बिदा करते हुए नरेन्र्ड़ प्रजापति अपनी भावभीनी आवाज में कहते हैं ‘‘और आइए सर... लेकिन सपनों में न आना ... हकीकत में आना’’


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com


मास्टर चोखे लाल भिड़ाऊ चांद पर Master Chokhelal

चांद देश की संसद की आपात बैठक चल रही थी। प्रधान मंत्री ही नहीं, सबके माथे पर बल पड़ा हुआ था। वे गहरी चिंता में जान पड़ते थे, मानो राष्ट्रीय शोक का समय हो। हो भी क्यों नहीं। पृथ्वी नामक ग्रह के इकलौते सुपर पावर देश की सरकार की ओर से आज एक सुझाव-पत्र आया है। सुझाव-पत्र क्या, खुल्लमखुल्ला चेतावनी है, फरमान है। पत्र में स्पष्ट कहा गया है कि यदि चांद सरकार ने अपने देश में साक्षरता का स्तर नहीं बढ़ाया तो उन्हें दी जा रही सारी आर्थिक और सैन्य सहायता बंद कर दी जायेगी। इतना ही नहीं युनाइटेड नेशन्स द्वारा आर्थिक नाकेबंदी की भी घोषणा की जा सकती है।

चांद देश की सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक था। उनका मानना था कि उनके देश में साक्षरता की दर शत-प्रतिशत है। उन्हें अपनी साक्षरता पर बड़ा घमंड था। इसी के दम पर वह सुपर पावर की बराबरी करना चाहता था। सुपर पावर को यह टुच्चापन कब भाने वाला था। भुगतो अब। उन्होंने जो कह दिया कि सालों, तुम सब निरक्षर हो, तो हो। कह दिया सो कह दिया। तुम सब निरक्षर ही हो। सुपर पावर की बादशाहत को चुनौती देने वाला निरक्षर और मूर्ख नहीं होगा तो और क्या होगा भला।

बिना आइना देखे अपना चेहरा सबको सुंदर लगता है। सुपर पावर ने उन्हें आइना दिखा दिया था। निकल गई सारी हेकड़ी। सुपर पावर आईने का रूख सदैव दूसरों की ओर ही रखता है। चाहे कोई कितना ही खूबसूरत क्यों न हो, उसकी मेकप में कोई न कोई मीन-मेख निकाल ही देता है। इसीलिये दुनिया की अधिकतर सरकारें अपनी जनता के लिये प्रसाधन सामग्री सुपर पावर के यहाँ से ही आयात करती रहती हैं। प्रसाधन सामग्री ही क्यों, हथियार, व्यवहार और विचार भी ये सुपर पावर के यहाँ से ही आयात करना पसंद करते हैं। देसी विचार अपना कर भला वे सुपर पावर को नाराज क्यों करे।

चांद देश की संसद को इस संतोष के साथ स्थगित किया गया कि - ’गनीमत है, कि साक्षरता के ही चाबुक से मारा गया है; मानवाधिकार के ब्रह्मास्त्र का उपयोग नहीं किया गया है।’

तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना, की तर्ज पर चांद देश की सरकार ने सुपर पावर को फौरन एक अनुरोध पत्र लिखा कि - ’’हे महाबली, हम सब निहायत ही मूर्ख व अज्ञानी हैं। आपकी कृपा हम पर सदा बनी रहेे। हमारे यहाँ साक्षरता जैसे महायज्ञ संपन्न कराने लायक ऋषि-मुनियों का नितांत अभाव है। एक महान कृपा और करें। आप तो जगत गुरू हैं। इस कार्य में आपके यहाँ के विशेषज्ञ ऋषियों का एक दल हमारे यहाँ भेज दें। वे हमारे यहाँ के अज्ञानियों के एक दल को, चाहे कान पकड़ाकर, चाहे उठक-बैठक कराकर, प्रशिक्षित करें। वे हमारे लिये ईश्वर तुल्य होंगे।’’

पत्र की भाषा अत्यंत शालीन और विनय-पत्रिका की भाषा के अनुरूप दासत्व-भाव लिये हुए थी। चांद देश की सरकार को यकीन था कि इसे पढ़कर सुपर पावर खुश हो जायेगा। पर जल्द ही उनका यह भ्रम टूट गया। सुपर पावर का जवाब आया।

जवाब क्या घुड़की थी। लिखा था - ’’आपने पत्र में जिस भाषा का प्रयोग किया है वह नितांत ही अपमानजनक और आपत्तिजनक है। न हम जगत गुरू हैं और न ही हमारे यहाँ कोई ऋषि-मुनि पाए जाते हैं। इसके लिये आपको आर्यावत्र्त नामक देश से संपर्क करना चाहिये। लेकिन आपको इसकी सजा जरूर मिलेगी। अरे मूर्खों, तुम्हें इतना भी पता नहीं कि हम तो केवल मिसाइल और लड़ाकू विमान ही भेजते हैं।’’

चांद सरकार को अपनी गलती का एहसास हुआ। नादानी में सांप के बिल में हाथ डालने का फल उसे मिल रहा था। उसने तत्काल आर्यावत्र्त के दूतावास से संपर्क कर अपनी समस्या रखी।

चांद सरकार का अनुरोध-पत्र पाकर आर्यावत्र्त की सरकार अतीव प्रसन्न हुई। उसे अपनी ऋषि परंपरा पर गर्व हुआ। जिस देश से अब तक मनोरंजन सामग्री के रूप में केवल बच्चों और महिलाओं का ही निर्यात किया जाता रहा हो, उससे मास्टर आफ मास्टर की मांग सचमुच गर्व की बात थी। उसने चांद सरकार को आश्वस्त किया कि जल्द ही यहाँ के योग्यतम शिक्षक को चांद पर भेज दिया जायेगा। आपकी सारी समस्याओं को सुलझा लिया जायेगा। सुपर पावर को भी मना लिया जायेगा।

आर्यावत्र्त की सरकार ने तत्काल एक कर्मठ व समर्पित शिक्षक का सर्वेक्षण करने का आदेश अपने मानव संसाधन विभाग को दिया, जिसे मास्टर आफ मास्टर के रूप में चाद देश भेजा जा सके।

उचित माध्यम और नियमानुसार सर्वेक्षण का मार्ग काफी लंबा और अव्यवहारिक होता। इसमें कम से कम दो साल लगने की संभावना थी, अधिक भी लग सकता था, अतः मंत्रालय ने नियमों को शिथिल करते हुए अत्यंत व्यवहारिक और लघु मार्ग अपनाया। देश की इज्जत का सवाल जो था। राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित देश के समस्त शिक्षकों की सूची निकाल कर उनके अभिलेखों का, जिनके आधार पर उन्हें सम्मानित किया गया था, अति सूक्ष्मता पूर्वक अवलोकन करने का निर्णय लिया गया ताकि इन्हीं लोगों में से किसी एक का चयन किया जा सके। इस हेतु एक उच्चाधिकार प्राप्त खोजी आयोग का गठन किया गया। नाम रखा गया - शिक्षक अन्वेषण आयोग। देश के एक सेवानिवृत्त महान् छिद्रान्वेषी महोदय को इस आयोग का कर्ताधर्ता नियुक्त किया गया। एक महीने के अंदर काम पूरा करने कहा गया।

पहले छिद्रान्वेषी महोदय की खोजबीन शुरू हुई ताकि उन्हें उनका नियुक्ति पत्र दिया जा सके। पता चला कि सेवानिवृत्ति के बाद कोई काम न मिलने से निराश होकर वे विदेश चले गये हैं, जहाँ उनका बेटा नौकरी करता है।

उनके विदेश से वापस आने और कार्यभार ग्रहण करने में ही एक माह का नियत समय समाप्त हो गया।

कार्यभार ग्रहण करते ही उन्होंने अपना काम शुरू कर दिया। सबसे पहले उन्होंने सरकार को पत्र लिखा। पत्र में सरकार से आग्रह किया गया था कि आयोग का कार्यकाल एक महीने के लिये बढ़ाया जाय। पत्र में सरकार को पूर्ण आश्वस्त किया गया था कि एक माह में आयोग अपना काम पूरा कर लेगी।

काम शुरू हुआ। बढ़ाया गया महीना फाइलों को ढूंढने में ही समाप्त हो गया। अब तो पत्र लिखने और आश्वासान देने का जैसे सिलसिला ही चल पड़ा। बार-बार एक ही काम में माथा क्यों खपाया जाय। विभाग को समझ आ गया था कि यह काम
इतना सरल नहीं है। उन्होंने आयोग का कार्यकाल एकमुस्त छः महीनों के लिये बढ़ा दिया।

एक महीना फाइलों की धूल झाड़ने में लगा। एक महीना फाइलों को व्यवस्थित करने में लगा। इस बीच पता चला कि कुछ फाइलंे गायब हो गई हैं। गायब फाइलों के मिले बगैर आयोग का काम आगे कैसे बढ़े? क्या पता, देश का सर्वश्रेष्ठ शिक्षक उन्हीं फाइलों में दबा पड़ा हो। लेकिन सवाल यह नहीं था कि उस फाइल में कौन दबा पड़ा होगा। सवाल यह था कि फाइल गायब कैसे हुई। प्रजातंत्र में फाइलों के गायब होने से बड़ा अपराध और कुछ नहीं हो सकता। प्रजातंत्र में फाइलों से बड़ी भी कोई चीज होती है क्या ? फाइल आखिर फाइल है। फाइल के चलने से ही तो सरकार चलती है, देश चलता है।

अब तो युद्ध स्तर पर फाइलों को ढ़ँूढ़ने का काम शुरू हो गया।

छिद्रान्वेषी महोदय जी को बड़ा सुकून मिला। यह कह कर कि फाइल मिलने पर उन्हें सूचित कर दिया जाय, वे पुनः अपने बेटे के पास चले गये।

छः महीने बीत गए। फाइल नहीं मिली।

उधर छिद्रान्वेषी महोदय विदेश में सरकारी या़त्रा-भत्ता का जी भर कर उपभोग कर रहे थे और इधर फाइल ढूंढ़ने वाले यह भी भूल चुके थे कि वे क्या ढंूंढ़ रहे हैं। विभाग वाले भी भूल चुके थे कि उन्होंने शिक्षक अन्वेषण नामक आयोग भी कभी गठित किया था।

इस बीच चांद देश की सरकार हर महीना स्मरण पत्र भेजती रही। यहाँ वाले पत्र पढ़-पढ़ कर खुश होते रहे। अंत में वहाँ का विशेष दूत पत्र लेकर आया। पत्र बड़ा मार्मिक था। लिखा था - ’’हे जगत गुरू ! हमारी दशा को समझें, रहम करें। मिल गया हो तो अपने महान ऋषि पुत्र को जल्द से जल्द भेजने की कृपा करें। पता नहीं सुपर पावर कब यहाँ अपनी फौज उतार दे। सोंच-सोंच कर हम और हमारी सारी जनता अनिद्रा के रोगी हो गए हैं। सबकी बी. पी. खतरे की निशान तक बढ़ चुका है। देश पक्षाघात के मुहाने पर खड़ा है। हे कृपानिधान, हे तारनहार! हमें तार लीजिये। आपका आश्वासन सुन-सुनकर हमारा धीरज समाप्त हुआ जा रहा है।’’

पत्र की भाषा मार्मिक ही नहीं अत्यन्त गूढ़ भी थी, किसी की समझ में नहीं आई। लिहाजा पत्र की भाषा और तथ्यों को समझने के लिए भाषा शास्त्रियों और कूटनीतिज्ञों का एक विशेष दल गठित किया गया। सबने कई-कई बार पत्र का पठन
किया। एक-एक अक्षर और विराम चिन्हों का विश्लेषण किया गया। अंत में निम्न निष्कर्ष निकाले गये।

चांद देश के विशेष दूत से प्राप्त पत्र का विश्लेषण करने पर निम्न तथ्य स्पष्ट होते हैं -

- ’चांद देश की सरकार में आत्मबल की कमीं है। वह और उनकी जनता फौज-फोबिया नामक एक विशेष मानसिक रोग से ग्रसित प्रतीत होती है। यह रोग असुरक्षा की भावना के कारण पैदा होती है।’

- ’उनमें न तो धीरज है और न ही आत्मविश्वास। उन्हें मित्रों पर भी विश्वास नहीं है।’

- ’वे घोर निराशावादी हैं।’

- ’वे अनिद्रा के रोगी हैं।’
(ये सभी लक्षण मानसिक रोग के हैं।)

- ’वे आश्वासन की शक्तियों से परिचित नहीं हैं। न तो वे आश्वस्त होना जानते हैं और न ही आश्वासन देना। सुपर पावर का आरोप पूर्णतः सत्य है। आश्वासन का महत्व जो न समझे उससे बड़ा मूर्ख और निरक्षर, प्रजातंत्र में भला और कौन होगा? प्रजातांत्रिक सरकारें आश्वासनों के भरोसे ही चलती हैं। प्रजातंत्र में आश्वासन ही जनता का संतुलित आहार होती है। इसी से लोगों के पेट भरे जाते हैं।’

- ’वे बी. पी. के मरीज हैं और पक्षाघात के मुहाने पर खड़े हैं।’

उपरोक्त बातों से पता चलता है कि उन्हें न सिर्फ शिक्षक, बल्कि मनोचिकित्सक, हृदय रोग विशेषज्ञ और योग शिक्षक की भी जरूरत है। उन्हें इन रोगों में काम आने वाली दवाइयों की भी सख्त जरूरत है।

उपरोक्त रिपोर्ट सुनते ही चांद देश का विशेष दूत गश खाकर गिर गया।

व्यापक खोजबीन के बाद दो नामों की संक्षिप्त सूची सरकार के पास चयनार्थ भेजी गई।

पहले नंबर पर मास्टर दीनानाथ जी सुशोभित थे। मास्टर दीनानाथ शिक्षा-जगत ही नहीं फिल्मों, रंगमंचों और कहानियों में भी एक चर्चित नाम हैं। शिक्षकीय कार्य इनके लिये तप के समान है। धोती-कुरता और हर मौसम में छाता धारण करने वाले दीनानाथ जी सिद्धान्त और नियम के पक्के हैं। इनके अनेक विद्यार्थी देश-विदेश में उच्च प्रशासनिक पदों पर कार्यरत हैं। सादा जीवन, उच्च विचार को अपने जीवन में अपनाने वाले और ताउम्र पैसों के लिये तरसने वाले इस शिष्ट और शालीन शिक्षक की काया को देखकर किसी परग्रही प्राणी का भ्रम होता है। राष्ट्रीय पुरस्कार तो क्या इन्हें आज तक पंचायत स्तर का भी पुरस्कार नहीं मिला है।

ऐसे दीन-हीन प्राणी को भेजने से राष्ट्र की छवि खराब होने की संभावना थी। और फिर केवल राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त शिक्षक का ही प्रस्ताव मांगा गया था।

दूसरे नंबर पर कुण्डली मारे बैठे थे मास्टर चोखेलाल भिड़ाऊ। आपकी महिमा अपरंपार है। बच्चों, विशेष रूप से छात्राओं से आप विशेष लगाव रखते हैं। आप ही सच्चे अर्थों में गुरू हैं क्योंकि गुरूमंत्र जो आपके पास है, और किसी के पास नहीं है। साल भर पाठ्यपुस्तकों में माथापच्ची करना आपकी शिक्षा नीति के विरूद्ध है। जिस दिन शाला में आपका पदार्पण होता है, वह दिन शाला के इतिहास में अमर हो जाता है। अध्यापन कार्य छोड़कर बाकी सभी काम आप पूरे मनोयोग से करते है। सत्तापक्ष के नेताओं के साथ आपके बड़े मधुर और पारदर्शी संबंध हैं। स्थानीय विधायक से लेकर मुख्यमंत्री तक के आप चहेते हैं। आपकी कक्षा का कोई भी विद्यार्थी परीक्षा में अनुत्तीर्ण नहीं होता। (यह बात और है कि आगे की कक्षाओं में इनमें से कोई कभी
उत्तीर्ण भी नहीं होता।)

खेलों में भी ’जीतना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं जीतकर ही रहूँगा’ के गुरूमंत्र का पालन करने वाले आपके छात्र कभी असफल नहीं होते। अपना लक्ष्य हासिल करने के लिये अक्सर आप प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ियों के हाथ-पाँव तुड़वाने में भी संकोच नहीं करते हैं।

आप वर्तमान शिक्षा प्रणाली के सख्त विरोधी हैं। प्राचीन, गुरूकुल शिक्षा प्रणाली को आप सर्वोत्तम शिक्षा प्रणाली मानते हैं। साथ ही व्यवहारिक शिक्षा पर आप अधिक जोर देते हैं, फलस्वरूप आपकी कक्षाएँ शाला-भवन की बजाय आपके फार्म हाऊस पर ही लगती है। ऐसा आप ’लर्निंग बाय डूईंग’ सिद्धांत के तहत करते हैं। सर्वशिक्षा अभियान और संजीव गांधी शिक्षा मिशन जैसे साक्षरता कार्यक्रमों को सफल बनाने हेतु आप तब तक पसीना बहाते रहते हैं, जब तक इसकी आबंटित राशि समाप्त नहीं हो जाती। इन कार्यक्रमों को सफल बनाने हेतु आपकी धर्मपत्नी भी जी जान से जुटी रहती हैं। कलेक्टर महोदय की विशेष संरक्षण में आपकी पत्नी एक एन. जी. ओ. का भी संचालन करती हैं। आपकी इन्हीं उपलब्धियों के लिए आपको राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तर के शिक्षक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।

मास्टर आफ मास्टर के लिये आपसे अधिक योग्य शिक्षक और कहाँ मिलता?

चांद देश की धरती पर कदम रखते ही मास्टर चोखे लाल जी ने अपना काम शुरू कर दिया। छः महीनें तक एयरकंडीशंड सरकारी कार में गाँव-गाँव घूमकर वहाँ की शालाओं का निरीक्षण किया। ग्रामीणों से मुलाकात कर वहाँ की साक्षरता दर का जायजा लिया। उन्होंने पाया, वहाँ पर प्रत्येक शाला की अपनी पक्की, मजबूत और खूबसूरत इमारतें हैं। इमारतों में बिजली, पानी और शौचालयों की समुचित व्यवस्था है। सभी स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक हैं। सभी जगह सभी बच्चे बराबर स्कूल जाते हैं। सभी बड़े-बूढ़े और औरतें अच्छी तरह पढ़ना-लिखना जानती हैं। स्कूल समय पर खुलते और बंद होते हैं। शिक्षक मन लगाकर पढ़ाते हैं।

मास्टर चोखे लाल जी को वहाँ पर न तो एक भी शाला भवन भारतीय शाला भवन-सा मिला और न ही कोई अपने जैसा गुरू। उन्हें स्थिति भंापते देर नहीं लगी। उन्हें चांद सरकार की शिक्षा नीति पर रोना आया। निष्ठा, ईमानदारी, और नैतिकता जैसे पुरातन, दकियानूसी विचारों को पकड़ कर चलने का केवल यही अंजाम होना था। उन्हें वहाँ का शिक्षा विभाग और शिक्षा प्रणाली यहाँ की तुलना में एकदम तुच्छ नजर आई।

छः महीने उन्हें अपना निरीक्षण प्रतिवेदन तैयार करने में लग गए। पूरे दो शिक्षा सत्र गुजर जाने के बाद ’भिड़ाऊ प्रस्ताव’ चांद देश की संसद के पटल पर रखी गई। इस बीच आश्वासनों की खुराक का भरपूर उपयोग होता रहा।

प्रस्ताव इस प्रकार था।

’’सुपर पावर को खुश करने का ’भिडा़ऊ प्रस्ताव’।’’

प्रस्ताव क्र.1:- ’शिक्षा विभाग को दी जा रही सारी सरकारी वित्तीय सहायता बंद कर दी जाय। भवन निर्माण और शिक्षण सहायक सामग्रियों की खरीदी पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी जाय। इस मद से बची राशि से सुपर पावर के यहाँ से युद्धक विमान और मिसाइलें खरीद ली जाय।’

प्रस्ताव पर संसद ने एक स्वर से आपत्ति की - ’’यह तो घुमाने वाली बात है। मामला साक्षरता का है, रक्षा का नहीं।’’

मास्टर चोखे लाल ने वहाँ के मूढ़ सांसदों को समझाया - ’’साहबानों, मामला न साक्षरता का है, और न रक्षा का। मामला केवल सुपर पावर को खुश करने का है।’’

प्रस्ताव का निहितार्थ समझ में आते ही संसद में चुप्पी छा गई। मास्टर चोखे लाल भिड़ाऊ अपनी कामयाबी पर मुस्कुराने लगा। उसने दूसरा प्रस्ताव पेश किया।

प्रस्ताव क्र.2:- ’औपचारिकेत्तर शिक्षा एवं प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की जाय। संजीव गांधी शिक्षा मिशन की स्थापना करके सर्वशिक्षा अभियान प्रारंभ किया जाय। हर तीन महीने के अंतराल पर समतुल्यता परीक्षा आयोजित किए जाएँ। समस्त शाला त्यागी बच्चों को उसमें सम्मिलित करके मुफ्त में प्रमाण-पत्र बांटे जाएँ।’

कुछ सांसदों ने फिर आपत्ति किया। मास्टर चोखे लाल ने उन्हें बैठने का इशारा करते हुए फिर कहा - ’’आपकी समस्याएँ मैं अच्छी तरह जानता हूँ। ईमानदारी के साथ प्रयास करने पर सारी समस्याएँ हल हो जायेगी। औपचारिकेत्तर शिक्षा केन्द्रों के लिये बच्चे कहाँ से आएँगे? भेरी सिम्पल; शालाओं के पच्चीस प्रतिशत नियमित बच्चों के नाम यहाँ दर्ज कर लिये जाए; पचीस प्रतिशत को समतुल्यता की परीक्षा में बिठा लिए जाए। चालीस साल से अधिक अवस्था के सभी स्त्री-पुरूषों के नाम प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों में अनिवार्य रूप से लिख लिए जाए। इन सभी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिये सुपर पावर के यहाँ से आर्थिक सहायता लेना हरगिज न भूलें। इसके दो फायदे होंगे - बेरोजगारों को रोजगार मिलेगी और साक्षरता के लिये किये जा
रहे प्रयासों का ब्यौरा सुपर पावर को देने में आसानी होगी।’’

उपरोक्त दोनों प्रस्ताव सुनकर सांसदों को चक्कर आने लगा। अब बारी थी तीसरे और चैथे प्रस्ताव की।

प्रस्ताव क्र.3:- ’यहाँ के शिक्षकों को गुरूमंत्रों का ज्ञान नहीं है। इसके लिये उन्हें बारी-बारी से आर्यावत्र्त की शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में प्रशिक्षण हेतु भेजे जाए।’

सुनकर सांसदों ने दिल थाम लिए।

प्रस्ताव क्र.4:- ’यहाँ के शिक्षा मंडलों और विश्वविद्यालयों को न तो आधुनिक शिक्षा प्रणालियों का ज्ञान है और न उन्हें पाठ्यक्रम बनाना ही आता है। इन्हें भंग करके इन संस्थानों को कम से कम तीन वर्षों के लिये आर्यावत्र्त की शिक्षा विभाग के हवाले कर दिए जाएँ।’

इन चारों प्रस्तावों को सुनकर सारे सांसद गश खाकर गिर गये। कुछ लोगों को दिल का दौरा भी पड़ गया।

तीन साल बाद बड़े सुखद परिणाम आने लगे। सुपर पावर अब चांद देश की सरकार पर दिल खोलकर मेहरबान रहने लगी क्योंकि उनके एक्सपायर हो रहे सारे युद्धक विमान और अन्य साजो सामान बिक गये थे।

चांद देश की शिक्षा व्यवस्था का कायाकल्प हो गया था। सरकारी स्कूलों की पक्की इमारतें अब खंडहर लगने लगी थीं। शिक्षकों की मौज हो गई थी। कइयों ने अपनी निजी शिक्षण संस्थाएँ खोल ली थी। कुछ लोग फर्जी डिग्री के कारखाने खोलकर बैठ गए थे। छात्राओं के साथ शिक्षकों द्वारा बलात्कार के भी दिलचस्प समाचार आने लगे थे। व्यापारी भी खुश थे। अपने पारंपरिक व्यवसायों को छोड़कर वे अब शिक्षा के व्यवसाय में आ गये थे।

शिक्षा अधिकारी भी बेहद खुश थे। संजीव गांधी शिक्षा मिशन में नियुक्ति पाने के लिये लाखों के सौदे होने लगे थे।

औपचारिकेत्तर शिक्षा केन्द्र, प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र, और समतुल्यता परीक्षाओं के दस्तावेजों से कार्यालय की अलमारियाँ अटी पड़ी थी।

मास्टर चोखे लाल चांद देश के शिक्षा विभाग में दिव्य पुरुषों में शुमार कर लिये गए थे। सभी शैक्षणिक संस्थाओं में उनकी प्रतिमाएँ स्थापित हो गई थी। वे अभी पाँच साल और यहाँ रहकर अपना चार सूत्रीय सुधार कार्य चलाना चाहते थे, परंतु चांद देश की सरकार ने उनके पाँव पकड़ लिये। अत्यंत करुण स्वर में बोली - ’’हे गुरूर्देवो महेश्वरः, आपके इतने ही उपकार के बोझ से हमारा देश कृत-कृत्य हो चुका है। अब अधिक उपकृत होने की हममें शक्ति बाकी नहीं रही। प्रस्थान की बेला आ चुकी है, सादर विदाई स्वीकार करें। आर्यावत्र्त सरकार के प्रति कृतज्ञता प्रगट करते हुए, अनेक प्रशस्तियों के साथ मास्टर चोखे लाल भिड़ाऊ जी को एयर आर्यावत्र्त के विशेष पुष्पक विमान में बिठा दिया गया। इस विदाई के दुख को चांद देश की शिक्षा विभाग
सह नहीं पाई। बिदा करने आये सभी शिक्षा अधिकारी बेहोश होकर गिर पड़े।

16 जून 1956 को जन्‍में कुबेर जी हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढ़ी के सिद्धस्‍थ कलमकार हैं. उनकी प्रकाशित कृतियों में भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह), उजाले की नीयत (कहानी संग्रह), भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्ती़सगढ़ी लोककथा संग्रह) आदि हैं. माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह), और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह), प्रसिद्ध अंग्रजी कहानियों का छत्‍तीसगढ़ी अनुवाद आदि पुस्‍तकें प्रकाशन की प्रक्रिया में है. कुबेर जी नें अनेक पुस्‍तकों को संपदित भी किया है जिनमें साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010 व शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका ‘नव-बिहान’ 2010, 2011 आदि हैं. इन्‍हें जिला प्रशासन राजनांदगाँव का गजानन माधव मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012 मुख्मंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा प्राप्‍त हुआ है. कुबेर जी का पता ग्राम – भोड़िया, पो. – सिंघोला, जिला – राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441 है. वे शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.) में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं. उनसे मोबाईल  9407685557 पर संपर्क किया जा सकता है.
कुबेर जी के आलेखों एवं क‍हानियों को आप उनके ब्‍लॉग 'कुबेर की कहानियॉं' में भी पढ़ सकते हैं. गुरतुर गोठ में कुबेर जी के आलेखों की सूची यहॉं है।

बिस्मार्क

ओटो एडुअर्ड लिओपोल्ड बिस्मार्क (बिस्मार्क का जन्म शून हौसेन में 1 अप्रैल, 1815 तथा निधन 30 जुलाई, 1898 को हुआ था), जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर तथा तत्कालीन यूरोप का प्रभावी राजनेता था। वह ’ओटो फॉन बिस्मार्क’ के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। उसने अनेक जर्मनभाषी राज्यों का एकीकरण करके शक्तिशाली जर्मन साम्राज्य स्थापित किया। वह (1862 ई. में)द्वितीय जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर बना। वह ’रीअलपालिटिक’ की नीति के लिये प्रसिद्ध है जिसके कारण उसे ’लौह चांसलर’ के उपनाम से जाना जाता है। वह लगभग 25 वर्षों तक जर्मनी का सर्वेसर्वा रहा। बिस्मार्क एक महान राष्ट्रनिर्माता था, जिसने अपने राष्ट्र की जरूरतों को समझा और उन्हें पूरा करने की भरपूर कोशिश की। जर्मन राष्ट्र उसके प्रति हमेशा कृतज्ञ रहेगा।

बिस्मार्क का जन्म शून हौसेन में 1 अप्रैल, 1815 को हुआ। गांटिंजेन तथा बर्लिन में कानून का अध्ययन किया। बाद में कुछ समय के लिए नागरिक तथा सैनिक सेवा में नियुक्त हुआ। 1847 ई. में वह प्रशा की विधान सभा का सदस्य बना। 1848-49 की क्रांति के समय उसने राजा के ’दिव्य अधिकार’ का जोरों से समर्थन किया। सन् 1851 में वह फ्रैंकफर्ट की संघीय सभा में प्रशा का प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। वहाँ उसने जर्मनी में आस्ट्रिया के आधिपत्य का कड़ा विरोध किया और प्रशा को समान अधिकार देने पर बल दिया। आठ वर्ष फ्रेंकफर्ट में रहने के बाद 1859 में वह रूस में राजदूत नियुक्त हुआ। 1862 में व पेरिस में राजदूत बनाया गया और उसी वर्ष सेना के विस्तार के प्रश्न पर संसदीय संकट उपस्थित होने पर वह परराष्ट्रमंत्री तथा प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त किया गया। सेना के पुनर्गठन की स्वीकृति प्राप्त करने तथा बजट पास कराने में जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने पार्लमेंट से बिना पूछे ही कार्य करना प्रारंभ किया और जनता से वह टैक्स भी वसूल करता
रहा। यह ’संघर्ष’ अभी चल ही रहा था कि श्लेजविग होल्सटीन के प्रभुत्व का प्रश्न पुनः उठ खड़ा हुआ। जर्मन राष्ट्रीयता की भावना से लाभ उठाकर बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के सहयोग से डेनमार्क पर हमला कर दिया और दोनों ने मिलकर इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया (1864)।

दो वर्ष बाद बिस्मार्क ने आस्ट्रिया से भी संघर्ष छेड़ दिया। युद्ध में आस्ट्रिया की पराजय हुई और उसे जर्मनी से हट जाना पड़ा। अब बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी के सभी उत्तरस्थ राज्यों को मिलाकर उत्तरी जर्मन संघराज्य की स्थापना हुई। जर्मनी की इस शक्तिवृद्धि से फ्रांस आंतकित हो उठा। स्पेन की गद्दी के उत्तराधिकार के प्रश्न पर फ्रांस जर्मनी में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई और अंत में 1870 में दोनों के बीच युद्ध ठन गया । फ्रांस की हार हुई और उसे अलससलोरेन का प्रांत तथा भारी हर्जाना देकर जर्मनी से संधि करनी पड़ी। 1871 में नए जर्मन राज्य की घोषणा कर दी गई। इस नवस्थापित राज्य को सुसंगठित और प्रबल बनाना ही अब बिस्मार्क का प्रधान लक्ष्य बन गया। इसी दृष्टि से उसने आस्ट्रिया और इटली से मिलकर एक त्रिराष्ट्र संधि की। पोप की ’अमोघ’ सत्ता का खतरा कम करने के लिए उसने कैथॉलिकों के शक्तिरोध के लिए कई कानून बनाए और समाजवादी आंदोलन के दमन का भी प्रयत्न किया। इसमें उसे अधिक सफलता नहीं मिली। साम्राज्य में तनाव और असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो गई। अंततोगत्वा सन् 1890 में नए जर्मन सम्राट् विलियम द्वितीय से मतभेद उत्पन्न हो जाने के कारण उसने पदत्याग कर दिया। बिस्मार्क के समान ही लौह संकल्पों के कारण भरत के लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल को ’भारत का बिस्मार्क’ कहा जाता है।

कुबेर

16 जून 1956 को जन्‍में कुबेर जी हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढ़ी के सिद्धस्‍थ कलमकार हैं. उनकी प्रकाशित कृतियों में भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह), उजाले की नीयत (कहानी संग्रह), भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्ती़सगढ़ी लोककथा संग्रह) आदि हैं. माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह), और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह), प्रसिद्ध अंग्रजी कहानियों का छत्‍तीसगढ़ी अनुवाद आदि पुस्‍तकें प्रकाशन की प्रक्रिया में है. कुबेर जी नें अनेक पुस्‍तकों को संपदित भी किया है जिनमें साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010 व शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका ‘नव-बिहान’ 2010, 2011 आदि हैं. इन्‍हें जिला प्रशासन राजनांदगाँव का गजानन माधव मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012 मुख्मंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा प्राप्‍त हुआ है. कुबेर जी का पता ग्राम – भोड़िया, पो. – सिंघोला, जिला – राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441 है. वे शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.) में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं. उनसे मोबाईल नु. – 9407685557 पर संपर्क किया जा सकता है.
कुबेर जी के आलेखों एवं क‍हानियों को आप उनके ब्‍लॉग 'कुबेर की कहानियॉं' में भी पढ़ सकते हैं. गुरतुर गोठ में कुबेर जी के आलेखों की सूची यहॉं है।

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013 भारत की राजनीति

भारत की राजनीति, राजनीतिक वातावरण और राजनीतिज्ञों के शुद्धिकरण की दिशा में अभी-अभी दो महत्वपूर्ण बातें हुई है। पहला - भारत निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों को अस्वीकृत करने का मतदाताओं को अधिकार देने की दिशा में पहल। दूसरा - दागी मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की सदस्यता समाप्त करने से संबंधित भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी आदेश को विफल करने के लिए सरकार द्वारा लाये गये अध्यादेश के विरूद्ध जन आक्रोश का राहुल गांधी द्वारा समर्थन करना और उसे फाड़कर नाली में बहाने की बात कहना। इससे बौखलाकर केन्द्र सरकार द्वारा इस अध्यादेश को वापस ले लिया गया है।

दागी मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की सदस्यता समाप्त करने से संबंधित भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आदेश जारी होने के बाद अनेक मंत्रियों और राजनेताओं और राजनीतिक दल के प्रवक्ताओं ने अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं दी है। किसी ने कहा कि हम जनप्रतिनिधि हैं, पुलिस का कोई भी सिपाही हमें कैसे गिरफ्तार कर सकता है? इस तरह का वक्तव्य देने वालों से पूछा जाय, क्या ये अपने लिए विशेष पुलिस बल चाहते हैं, जिसे ये अपने इशारों पर नचा सकें? वैसे भी पुलिस के कामकाज को प्रभावित करना इनके लिए कोई नई बात नहीं है। किसी ने कहा - हम दागी हैं, अपराधी हैं तो जनता हमें चुनती क्यों है? बेशर्मीपूर्वक इस तरह का तर्क (वास्तव में कुतर्क) देने वाले ये तुर्रमखान पहले यह बताएं कि चुनाव पंचार के दौरान क्या उन्हानें वोट की भीख अपने नाम पर मंगा था या अपनी पार्टी के नाम पर? यदि वोट की भीख इन लोगों ने अपने ही नाम पर मांगा था तो मांगते वक्त क्या इन लोगों ने अपने काले कारनामों और किए गये अपराधों को जनता के सामने प्रगट किया था?

सच्चाई तो यह है कि यहां के मतदाता किसी उम्मीदवार के पक्ष में नहीं बल्कि राजनीतिक पार्टी के पक्ष में अपना मत देते हैं। गांवों में ऐसे मतदाताओं की संख्या कम नहीं है जो आज भी अपना मत या तो इंदिरा माई को देते हैं या कि अटल बिहारी बाजपेई को। हर चुनाव में सभी राजनीतिक दल अपना-अपला चुनाव घोषण-पत्र जारी करते हैं। जनता अपना मत राजनीतिक दलों को उनके द्वारा जारी किये गए चुनावी घोषणा पत्र में किये गए वादों के आधार पर देती है। हम भलीभांति जानते हैं कि इन घोषण-पत्रों में लिखे गये अधिकांश लोकलुभावन वादों को कभी पूरा नहीं किया जाता है। राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों, जिनके लिए वे मत याचना करते हैं, की अच्छाइयों और बुराइयों को, उनके द्वारा किये गए अपराधों को जनता के सामने प्रगट क्यो नहीं करते हैं?

क्या अपनी असलियत को जनता की नजरों से छुपाकर, अथवा अपने उम्मीदवार की असलियत को जनता की नजरों से छुपाकर, झूठे वादों वाली चुनावी घोषणा-पत्र के आधार पर जनता से मतों की याचना करने वाले उम्मीदवारों और राजनीतिक दालों के विरूद्ध धोखा धड़ी और जनता को छलने के अपराध में चार सौ बीसी का अपराध पंजीबद्ध नहीं होना चाहिये?

कुबेर


16 जून 1956 को जन्‍में कुबेर जी हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढ़ी के सिद्धस्‍थ कलमकार हैं. उनकी प्रकाशित कृतियों में भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह), उजाले की नीयत (कहानी संग्रह), भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्ती़सगढ़ी लोककथा संग्रह) आदि हैं. माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह), और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह), प्रसिद्ध अंग्रजी कहानियों का छत्‍तीसगढ़ी अनुवाद आदि पुस्‍तकें प्रकाशन की प्रक्रिया में है. कुबेर जी नें अनेक पुस्‍तकों को संपदित भी किया है जिनमें साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010 व शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका ‘नव-बिहान’ 2010, 2011 आदि हैं. इन्‍हें जिला प्रशासन राजनांदगाँव का गजानन माधव मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012 मुख्मंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा प्राप्‍त हुआ है. कुबेर जी का पता ग्राम – भोड़िया, पो. – सिंघोला, जिला – राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441 है. वे शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.) में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं. उनसे मोबाईल नु. – 9407685557 पर संपर्क किया जा सकता है.
कुबेर जी के आलेखों एवं क‍हानियों को आप उनके ब्‍लॉग 'कुबेर की कहानियॉं' में भी पढ़ सकते हैं. गुरतुर गोठ में कुबेर जी के आलेखों की सूची यहॉं है।

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