सुशील भोले का आलेख : छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति और वर्तमान स्वरूप

मूल संस्कृति की चर्चा करते कुछ बातें यहां के इतिहास लेखन की भी हो जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि यहां की मूल संस्कृति के नाम पर अभी तक हम सृष्टिकाल या कहें कि सतयुग की संस्कृति की चर्चा करते आए हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास को केवल रामायण और महाभारत कालीन ही क्यों कहा जाता है? इसे सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित क्यों नहीं कहा जाता?
किसी भी अंचल की पहचान वहां की मौलिक संस्कृति के नाम पर होती है, लेकिन यह छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है कि पृथक राज्य निर्माण के एक दशक बीत जाने के पश्चात् भी आज तक उसकी अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान नहीं बन पाई है। आज भी यहां की संस्कृति की जब बात होती है तो यहां की मूल संस्कृति को दरकिनार कर उत्तर भारत की संस्कृति को यहां की संस्कृति के रूप में बताने का प्रयास किया जाता है, और इसके लिए हिन्दुत्व के नाम पर प्रचारित उन ग्रंथों को मानक माने जाने की दलील दी जाती है, जिन्हें वास्तव में उत्तर भारत की संस्कृति के मापदंड पर लिखा गया है, इसीलिए उन ग्रंथों के नाम पर प्रचारित संस्कृति और छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में कहीं पर भी सामंजस्य स्थापित होता दिखाई नहीं देता।
वास्तव में छत्तीसगढ़ की संस्कृति एक मौलिक संस्कृति है, जिसे हम सृष्टिकाल की या युग निर्धारण के मानक पर कहें तो सतयुग की संस्कृति कह सकते हैं। यहां पर कई ऐसे पर्व और संस्कार हैं, जिन्हें इस देश के किसी अन्य अंचल में नहीं जिया जाता। ऐसे ही कई ऐसे भी पर्व हैं, जिन्हें आज उसके मूल स्वरूप से परिवर्तित कर किसी अन्य घटना के साथ जोड़ दिया जाता है। आइए कुछ ऐसे ही दृश्यों पर तार्किक चर्चा कर लें।
सबसे पहले हिन्दुत्व की उस बहुप्रचारित व्यवस्था पर जिसे हम चातुर्मास के नाम पर जानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि चातुर्मास (आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तक) में देवता सो जाते हैं, इसलिए इन चारों महीनों में किसी भी प्रकार का मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। अब छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें तो यह व्यवस्था यहां लागू ही नहीं होती। यहां चातुर्मास पूर्ण होने के दस दिन पहले ही भगवान शंकर और देवी पार्वती का विवाह पर्व गौरा पूजाके रूप में मनाया जाता है। अब जब भगवान की ही शादी देवउठनी से पहले हो जाती है तो फिर उनका सोना (शयन करना) या फिर इन महीनों को मांगलिक कार्यों के लिए किसी भी प्रकार से अशुभ मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि यहां पर यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति में चातुर्मास के इन चारों महीनों को ही सबसे ज्यादा शुभ और पवित्र माना जाता है, क्योंकि इन्हीं चारों महीनों में यहां के सभी प्रमुख पर्व संपन्न होते हैं।
श्रावण अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व हरेलीसे लेकर देखें तो इस महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी को नागपंचमीतथा पूर्णिमा को शिव लिंग प्राकट्यदिवस के रूप में मनाया जाता है। भादो मास में कृष्ण पक्ष षष्ठी को स्वामी कार्तिकेय का जन्मोत्सव पर्व कमर छठके रूप में, अमावस्या तिथि को नंदीश्वर का जन्मोत्सव पोलाके रूप में, शुक्ल पक्ष तृतीया को देवी पार्वती द्वारा भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किए गए कठोर तप के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व तीजातथा विघ्नहर्ता और देव मंडल के प्रथम पूज्य भगवान गणेश का जन्मोत्सव पर्व।
क्वांर मास का कृष्ण पक्ष हमारी संस्कृति में स्वर्गवासी हो चुके पूर्वजों के स्मरण के लिए मातृ एवं पितृ पक्ष के रूप में मनाया जाता है। शुक्ल पक्ष माता पार्वती (शक्ति) के जन्मोत्सव का पर्व नवरात्र के रूप में (यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यहां की संस्कृति में वर्ष में दो बार जो नवरात्र मनाया जाता है उसका कारण शक्ति के दो बार अवतरण को कारण माना जाता है। प्रथम बार वे सती के रूप में आयी थीं और दूसरी बार पार्वती के रूप में। सती के रूप में चैत्र मास में तथा पार्वती के रूप में क्वांर मास में)। क्वांर शुक्ल पक्ष दशमीं तिथि को समुद्र मंथन से निकले विष का हरण पर्व दंसहरा (दशहरा) के रूप में मनाया जाता है। (बस्तर में इस अवसर पर जो रथयात्रा का आयोजन किया जाता है वह वास्तव में मंदराचल पर्वत के माध्यम से समुद्र मंथन का पर्व है। आगे इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे)। तथा विष हरण के पांच दिनों के बाद क्वांर पूर्णिमा को अमृत प्राप्ति का पर्व शरद पूर्णिमाके रूप में मनाया जाता है।
इसी प्रकार कार्तिक मास में अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला भगवान शंकर तथा देवी पार्वती का विवाह पर्व गौरा-पूजामें सम्मिलित होने के लिए लोगों को संदेश देने का आयोजन सुआ नृत्यके रूप में किया जाता है, जो पूरे कृष्ण पक्ष में पंद्रह दिनों तक उत्सव के रूप में चलता है। इन पंद्रह दिनों में यहां की कुवांरी कन्याएं कार्तिक स्नानका भी पर्व मनाती हैं। यहां की संस्कृति में मेला-मड़ई के रूप में मनाया जाने वाला उत्सव भी कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि से ही प्रारंभ होता है, जो भगवान शंकर के जटाधारी रूप में प्रागट्य होने के पर्व महाशिवरात्रि तक चलता है।
चातुर्मास के अंतर्गत हम दंसहराकी चर्चा कर रहे थे। तो यहां यह जान लेना आवश्यक है दशहरा (वास्तव में दंस+हरा) और विजया दशमी दो अलग-अलग पर्व हैं। दशहरा या दंसहरा सृष्टिकाल के समय संपन्न हुए समुद्र मंथन से निकले विष के हरण का पर्व है तो विजयी दशमी आततायी रावण पर भगवान राम के विजय का पर्व है। यहां के बस्तर में दशहरा के अवसर पर जो रथयात्राका पर्व मनाया जाता है, वह वास्तव में दंस+हरा अर्थात दंस (विष) हरण का पर्व है, जिसके कारण शिवजी को नीलकंठकहा गया। इसीलिए इस तिथि को नीलकंठ पक्षी (टेहर्रा चिरई) को देखना शुभ माना जाता है, क्योंकि इस दिन उसे विषपान करने वाले शिवजी का प्रतीक माना जाता है।
बस्तर के रथयात्रा को वर्तमान में कुछ परिवर्तित कर उसके कारण को अलग रूप में बताया जा रहा है, बिल्कुल वैसे ही जैसे राजिम के प्रसिद्ध पारंपरिक मेलेके स्वरूप को परिवर्तित कर कुंभका नाम देकर उसके स्वरूप और कारण को परिवर्तित कर दिया गया है। पहले दशहरा के अवसर पर प्रतिवर्ष नया रथ बनाया जाता था, जो कि मंदराचल पर्वत का प्रतीक होता था, क्योंकि मंदराचल पर्वत के माध्यम से ही समुद्र मंथन किया गया था। चूंकि मंदराचल पर्वत को मथने (आगे-पीछे खींचने) के कार्य को देवता और दानवों के द्वारा किया गया था, इसीलिए इस अवसर पर बस्तर क्षेत्र के सभी ग्राम देवताओं को इस दिन रथयात्रा स्थल पर लाया जाता था। उसके पश्चात रथ को आगे-पीछे खींचा जाता था, और जब आगे-पीछे खींचे जाने के कारण रथ टूट-फूट जाता था, तब विष निकलने का दृश्यि उपस्थित करने के लिए उसे खींचने वाले इधर-उधर भाग जाते थे। बाद में जब वे पुन: एकत्रित होते थे, तो उन्हें विष वितरण के रूप में दोने में मंद (शराब) दिया जाता था। वर्तमान में इस देश में बस्तर के अलावा केवल कल्लू में विषहरणका यह पर्व मनाया जाता है।
इस बात से प्राय: सभी परिचित हैं कि समुद्र मंथन से निकले विषके हरण के पांच दिनों के पश्चात अमृतकी प्राप्ति हुई थी। इसीलिए हम लोग आज भी दंसहरा के पांच दिनों के पश्चात अमृत प्राप्ति का पर्व शरद पूर्णिमाके रूप में मनाते हैं।
यहां के मूल पर्व को किसी अन्य घटना के साथ जोडक़र लिखे जाने के संदर्भ में हम होलीको उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। छत्तीसगढ़ में जो होली मनाई जाती है वह वास्तव में काम दहनका पर्व है, न कि होलिका दहनका। यह काम दहन का पर्व है इसीलिए इसे मदनोत्सव या वसंतोत्सव के रूप में भी स्मरण किया जाता है, जिसे माघ महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि से लेकर फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि तक लगभग चालीस दिनों तक मनाया जाता है।
सती आत्मदाह के पश्चात तपस्यारत शिव के पास आततायी असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं द्वारा कामदेव को भेजा जाता है, ताकि उसके (शिव) अंदर काम वासना का उदय हो और वे पार्वती के साथ विवाह करें, जिससे शिव-पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र (कार्तिकेय) की प्राप्ति हो। देवमंडल के अनुरोध पर कामदेव बसंत के मादकता भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ माघु शुक्ल पक्ष पंचमीं को तपस्यारत शिव के सम्मुख जाता है। उसके पश्चात वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से शिव-तपस्या भंग करने की कोशिश की जाती है, जो फाल्गुन पूर्णिमा को शिव द्वारा अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसे (कामदेव को) भस्म करने तक चलती है।
छत्तीसगढ़ में बसंत पंचमी (शुक्ल पंचमी) को काम दहन स्थल पर अंडा नामक पेड़ (अरंडी) गड़ाया जाता है, वह वास्तव में कामदेव के आगमन का प्रतीक स्वरूप होता है। इसके साथ ही यहां वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से मदनोत्सव का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इस अवसर पर पहले यहां किसबीन नाचकी भी प्रथा थी, जिसे रति नृत्य के प्रतीक स्वरूप आयोजित किया जाता था। होलिका दहनका संबंध छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले पर्व के साथ कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। होलिका तो केवल एक ही दिन में चिता रचवाकर उसमें आग लगवाती है, और उस आग में स्वयं जलकर भस्म हो जाती है, तब भला उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने का सवाल ही कहां पैदा होता है?
मूल संस्कृति की चर्चा करते कुछ बातें यहां के इतिहास लेखन की भी हो जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि यहां की मूल संस्कृति के नाम पर अभी तक हम सृष्टिकाल या कहें कि सतयुग की संस्कृति की चर्चा करते आए हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास को केवल रामायण और महाभारत कालीन ही क्यों कहा जाता है? इसे सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित क्यों नहीं कहा जाता? जबकि बस्तर के लोक गीतों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि शिवजी देवी पार्वती के साथ अपने जीवन वाला सोलह वर्ष बस्तर में रहकर व्यतीत किए हैं।
इस संदर्भ में एक कथा प्राप्त होती है, जिसके अनुसार भगवान गणेश को प्रथम पूज्य का आशीर्वाद प्राप्त हो जाने के कारण उनके ज्येष्ठ भ्राता कार्तिकेय नाराज हो जाते हैं, और वह हिमालय का त्याग कर दक्षिण भारत में रहने के लिए चले जाते हैं। उन्हीं रूठे हुए कार्तिकेय को मनाने के लिए शिवजी देवी पार्वती के साथ यहां बस्तर में आकर सोलह वर्षों तक रूके हुए थे। छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में शिव और शिव परिवार का जो वर्चस्व है, शायद उसका यही कारण है कि शिवजी यहां सोलह वर्षों तक निवासरत रहे थे।
अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे इतिहासकारों को इतना गौरवशाली अतीत क्यों  ज्ञात नहीं हुआ? क्यों वे यहां के इतिहास को मात्र द्वापर और त्रेता तक सीमित कहते हैं? तो इन सबका एक सीधा सा उत्तर है कि उनके ज्ञान का मानक स्रोत ही गलत है। वे जिन ग्रंथों को यहां के इतिहास एवं संस्कृति के मानक के रूप में उद्घृत करते हैं, वास्तव में उन्हें छत्तीसगढ़ के मापदंड पर लिखा ही नहीं गया है। इस बात से तो सभी परिचित हैं कि यहां के मूल निवासी शिक्षा के प्रकाश से कोसों दूर थे, इसलिए वे अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित स्वरूप नहीं दे पाए। इसलिए जब बाहर के प्रदेशों से यहां आकर बस जाने वाले लोगों ने यहां के इतिहास और संस्कृति को लिखित रूप देना प्रारंभ किए तो वे अपने साथ अपने मूल प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों और संस्कृति को मानक मानकर छत्तीसगढ़को परिभाषित करने लगे।
आज उस लिखित स्वरूप और यहां की मूल (अलिखित) स्वरूप में जो अंतर दिखाई देता है, उसका वास्तविक कारण यही है। इसलिए यहां के मूल निवासी जो अब स्वयं भी शिक्षित हो चुके हैं, वे चाहते हैं कि यहां की संस्कृति एवं इतिहास का पुनर्लेखन हो, और उस लेखन का आधार बाहर के प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों की बजाय यहां की मूल संस्कृति और लोक परंपरा हो।
सुशील भोले
संपर्क: म.नं. 41-191, डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)रायपुर

इस आलेख के लेखक श्री सुशील भोले जी छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य के चर्चित हस्‍ताक्षर हैं, वे मुखर पत्रकार हैं एवं हिन्‍दी व छत्‍तीसगढ़ी में समान रूप से निरंतर लिखते हैं। विगत वर्षों से वे छत्‍तीसगढ़ी भाषा में लोकप्रिय कालम 'गुड़ी के गोठ' लिख रहे हैं जिसमें वे सामयिक विषयों व सामाजिक विद्रूपों पर तगड़ा प्रहार करते हैं। वर्तमान में सुशील भाई दैनिक छत्‍तीसगढ़ प्रकाशन समूह की साप्‍ताहिक पत्रिका 'इतवारी अखबार' के संपादक हैं।

विश्व रंगमंच दिवस पर आरम्भ के सुधि पाठकों के लिए... चंदैनी-गोंदा का सफर

आज विश्व रंगमंच दिवस है. लोक  गायिका कविता विवेक वासनिक के पुत्र के विवाह का निमंत्रण-पत्र आया है. जेहन में चंदैनी-गोंदा की स्मृतियाँ ताजी हो गई और  कुछ लिखने की इच्छा  जाग गई. सत्तर के दशक की शुरुवात में ग्राम- बघेरा, दुर्ग के दाऊ राम चन्द्र देशमुख ने ३६ गढ़ के ६३ कलाकारों को लेकर "चंदैनी-गोंदा" की स्थापना की. "चंदैनी-गोंदा"  किसान के सम्पूर्ण जीवन की गीतमय गाथा है. किसान के जन्म लेने से लेकर मृत्यु होने तक के सारे दृश्यों को रंगमंच पर छत्तीसगढ़ी गीतों के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत किया गया कि यह मंच एक इतिहास बन गया.
चंदैनी गोंदा की आरंभिक प्रस्तुति ग्राम पैरी (बालोद,जिला दुर्ग के पास) छत्तीसगढ़ के जन कवि स्व.कोदूराम "दलित" को समर्पित करते हुए दाऊ जी ने मंच पर उनकी धर्म-पत्नी को सम्मानित किया था. इस आयोजन की भव्यता का अनुमान इस बात से  लगाया जा सकता है कि चंदैना गोंदा देखने सुनने के लिए लगभग अस्सी हजार दर्शक ग्राम पैरी में उमड़ पड़े थे. इस प्रदर्शन के बाद जहाँ भी चंदैनी-गोंदा का आयोजन होता,आस -पास के सारे गाँव खाली हो जाया करतेथे. सारी भीड़ चंदैनी-गोंदा के मंच के सामने रात भर मधुर गीतों और संगीत की रसभरी चांदनी में  सराबोर हो जाया करती थी. इसके बाद छत्तीसगढ़ के कई स्थानों पर चंदैनी-गोंदा के सफल प्रदर्शन हुए.चंदैनी-गोंदा के प्रदर्शन छत्तीसगढ़ के बाहर भी कई शहरों में हुआ.
चंदैनी-गोंदा के उद्घोषक सुरेश देशमुख की मधुर और सधी हुई आवाज दर्शकों को भोर तक बाँधे रहती थी.चंदैनी गोंदा के मधुर गीतों को स्वर देने वाले प्रमुख गायक-गायिका थे लक्ष्मण मस्तुरिया, भैय्या लाल हेडाऊ, केदार यादव, अनुराग ठाकुर, संगीता चौबे, कविता हिरकने (अब कविता वासनिक) साधना यादव आदि. प्रमुख गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया के आलावा रवि शंकर शुक्ल, पवन दीवान, स्व.कोदूराम "दलित", रामेश्वर वैष्णव, पारंपरिक गीत आदि. इन गीतों को संगीतबद्ध करने वाले संगीतकार थे खुमान लाल साव. खुमान लाल साव के साथ बेन्जो पर गिरिजा शंकर सिन्हा, बांसुरी पर संतोष टांक, तबले पर महेश ठाकुर आदि. मंच पर सशक्त अभिनय का लोहा मनवाते थे- दाऊ रामचंद्र देशमुख, भैया लाल हेडाऊ, शिव कुमार दीपक (हास्य), सुमन, शैलजा ठाकुर आदि. साउंड-सिस्टम पर नियंत्रण रहता था स्वर-संगम,दुर्गके बहादुर सिंह ठाकुर  का. (गायक, गीतकार, वादक, अभिनय के नाम अपनी याददाश्त के अनुसार लिख रहा हूँ,इन नामों के आलावा और भी बहुत से कलाकारों का संगम था चंदैनी-गोंदामें. यदि किसी पाठक के पास जानकारी उपलब्ध हो तो मेरे लेख को पूर्ण करने में मदद करेंगे,मैं आभारी रहूँगा.)
छत्तीसगढ़ी गीतों से सजे चंदैनी-गोंदा के मधुर गीतों का उल्लेख किये बिना यह लेख अधूरा ही रह जायेगा. चल - चल गा किसान बोये चली धान असाढ़ आगे गा में जहाँ आसाढ़ ऋतु का दृश्य सजीव होता था वहीँ आगी अंगरा बरोबर घाम बरसत हे -गीत ज्येष्ठ की झुलसती हुई गर्मी का एहसास दिलाती थी. छन्नर –छन्नर पैरी बजे, खन्नर-खन्नर चूरी गीत में धान-लुवाई का चित्र उभर आता था, आज दौरी माँ बैला मन... गीत अकाल के बाद किसान की मार्मिक पीड़ा को उकेरता था. किसान कभी अपना परिचय देता है...मयं छत्तीसगढ़िया हौं गा. मयं छत्तीसगढ़िया हौं रे, भारत माँ के रतन बेटा बढ़िया हौं गा.....कभी अपनी मातृ- भूमि को नमन करते हुए गा उठता है... मयं बंदत हौं दिन-रात, मोर धरती-मैय्या जय होवै  तोर.. चंदैनी-गोंदा में बाल मन में-चंदा बन के जिबो हम,सुरुज बनके जरबो हम, अनियाई के आगू भैया, आगी बरोबर बरबो हम जैसे गीत के माध्यम से देश प्रेम की भावना का संचार किया गया तो कभी आगे सुराज के दिन रे संगी ... के द्वारा  आजादी का आव्हान किया गया.. संयोग श्रृंगार में नायक-नायिका ददरिया गाते   झूमते नजर आते थे-मोर खेती-खार रुमझुम ,मन
भँवरा नाचे झूम-झूम किंदर के आबे चिरैया रे... नई बाँचे  चोला छूट जाही रे परान, हँस-हँस के  कोन हा खवाही बीड़ा पान. छत्तीसगढ़ी श्रृंगार -गीत में खुमान लाल साव ने अद्भुत संगीत से इस गीत को संवारा-बखरी के तुमा नार बरोबर मन झूमे.... अपने नायक की स्मृति में कभी नायिका कह उठती है... तोला देखे रहेवं गा, तोला देखे रहेवं रे, धमनी के हाट माँ बोइर तरी... नायिका अपने घर का पता कुछ तरह से बताती है.. चौरा माँ गोंदा, रसिया मोर बारी माँ पताल.... प्रेम में रमी नायिका को जब मुलाकात में हुई विलम्ब का अहसास होता है तो घर लौटने का मनुहार कभी इस प्रकार से करती है... अब मोला जान दे संगवारी, आधा रत पहागे मोला घर माँ देही गारी रामा... और कभी कहती है.... मोला जावन दे ना रे अलबेला मोर, अब्बड़ बेरा होगे मोला जावन दे ना.. नायिका के विरह गीतों में काबर समाये रे मोर बैरी नयना मा,  मोर कुरिया सुन्ना से,बियारा सुन्ना रे, मितवा तोर बिना का बेहतरीन मंचन किया गया.. 
चंदैनी-गोंदा में पारंपरिक गीतों में सोहर, बिहाव-गीत, गौरा- गीत, करमा, सुवा-गीत, राउत नाचा, पंथी नृत्य तथा अन्य लोक गीतों का समावेश भी खूबसूरती से किया गया था. गौरा गीत मंचन के समय बहुत बार कुछ दर्शकों पर तो देवी भी चढ़ जाती थी जिसे पारंपरिक तरीकों से शांत भी किया जाता था. जिस प्रकार चंदैनी-गोंदा के मंच के सामने पता ही नहीं चलता  था की रात कैसे बीत गई, उसी प्रकार उसके गीतों को याद करते करते आज  रविवार का दिन भी बीता जा रहा है. बाकी दिन तो काम की वजह से इतना लम्बा लिखने की फुर्सत ही नहीं रहती. फिर टायपिंग सीखी भी नहीं है. एक-एक बटन देख कर इतना लिख लिया, यही बहुत है. 
चंदैनी-गोंदा के मुख्य गायक- गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया हैं. उपरोक्त अधिकांश गीत उन्ही के द्वारा रचित हैं सन २००० के दशक के प्रारंभ से शुरू हुई अनेक छत्तीसगढ़ी फिल्मों में उनके गीत लोकप्रिय हुए.. संगीतकार खुमान लाल साव ने छत्तीसगढ़ी गीतों को नया आयाम दिया. आपने भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अपना योगदान दिया है. चंदैनी-गोंदा के बाद छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य परिष्कृत रूप में बनने प्राम्भ हो गए. बाद के अन्य संगीतकारों की संगीत रचनाएँ भी काफी मशहूर हुई किन्तु उनमें कहीं न कहीं खुमान लाल साव की शैली का प्रभाव जरुर होता था.बंगाल में जैसे रविन्द्र-संगीत का प्रभाव है उसी तरह खुमान - संगीत पर भी विचार किया जाना चाहिए. भैयालाल हेडाऊ ने  सत्यजीत रे की फिल्म सद्गति में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी. शैलजा ठाकुर भी रुपहले परदे पर नजर आई. सन १९८२ में तेरह इ.पी.रिकार्ड के जरिये चंदैनी गोंदा के बहुत से गीतों ने छत्तीसगढ़ में धूम मचाई, आज भी अच्छे सुनने वालों के पास ये गीत उनके संकलन में हैं.
दाऊ रामचंद्र देशमुख ने चंदैनी गोंदा के बाद "देवार- डेरा" और "लोरिक चंदा" का भी सफल मंचन किया. चंदैनी गोंदा के प्रदर्शन के  लगभग साथ-साथ  ही दुर्ग के दाऊ महा सिंह चंद्राकर ने "सोनहा-बिहान" को मंच पर प्रस्तुत कर छत्तीसगढ़ को अनमोल भेंट दी. इनके बाद छत्तीसगढ़ में बहुत से कलाकारों ने इस दिशा में प्रयास किये हैं किन्तु चंदैनी गोंदा और सोनहा बिहान ही सर्वाधिक सफल मंच रहे. केदार यादव के " नवा-बिहान" ने भी काफी लोकप्रियता हासिल की. दुर्ग के संतोष जैन के  मंच "क्षितिज रंग शिविर" ने छत्तीसगढ़ तथा भारत के अनेक प्रदेशों में अपने  उत्कृष्ट से अभिनय को नई उँचाईयां प्रदान की हैं.
अरूण कुमार निगम
इस आलेख के लेखक श्री अरूण कुमार निगम छत्‍तीसगढ़ के जनकवि कोदूराम 'दलित' जी के पुत्र हैं। निगम जी बचपन से रेडियो श्रोता संघ से जुड़े हुए हैं। छत्‍तीसगढ़ की कला-संस्‍कृति व समसामयिक मुद्दों पर उनका आलेख समय समय पर स्‍थानीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहता है। निगम जी हिन्‍दी व छत्‍तीसगढ़ी में समान रूप से लिखते हैं। निगम जी वर्तमान में भारतीय स्‍टैट बैंक, जबलपुर में प्रबंधक के रूप में सेवारत हैं।

ब्‍लॉगर का नया गैजट : फालो बाई ई मेल

ब्‍लॉगर डाट काम नें अब ब्‍लॉग पोस्‍टों को पाठकों तक सीधे पहुंचाने के उद्देश्‍य से एक नया गैजैट पिछले दिनों प्रस्‍तुत किया है। Follow by Email नाम का यह गैजैट फीडबर्नर के द्वारा प्राप्‍त पोस्‍ट के फीड को हमारे पाठकों के मेल बाक्‍स पर पब्लिश करते ही पहुंचाने में सहायक होगा। 
यह गैजैट लगभग उसी प्रकार है जिस प्रकार हम फीडबर्नर के ई मेल सब्‍सक्रिप्‍शन गैजैट कोड को जनरेट कर अपने ब्‍लाग में लगाते हैं। फीडबर्नर के इस कोड को प्राप्‍त करना एवं इसे अपने ब्‍लॉग में लगाने की प्रक्रिया कई ब्‍लॉगर बंधुओं के लिए किंचित कठिन काम होता है। जबकि इस नये Follow by Email गैजैट को सिर्फ एड करने मात्र से यह गैजैट हमारे ब्‍लॉग में जुड़ जाता है। 
Follow by Email गैजैट में दिए रिक्‍त स्‍थान में यदि हमारा कोई पाठक अपना ई मेल आईडी डाल कर उसे सम्बिट करता हैं तो, उसके बाद से हमारा प्रत्‍येक पोस्‍ट नियमित रूप से उस पाठक को उसके ई मेल बाक्‍स में मिलना आरंभ हो जाता है। इस सुविधा से पाठकों को बार-बार हमारे ब्‍लॉग पर आने की आवश्‍यकता नहीं पड़ती और वे अपने ई मेल बाक्‍स में ही हमारे पोस्‍टों को पढ़ लेंते हैं। 
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दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़ : वागार्थ में प्रकाशित कैलाश बनवासी की कहानी

वर्तमान कथा साहित्‍य में कैलाश बनवासी जाने पहचाने कथाकर हैं जो विविधआयामी परिदृश्‍यों को रचते हुए आम जन की कथा लिखते हैं। कैलाश भाई मेरे नगर के हैं और मेरा सौभाग्‍य है कि मैं कुछ वर्षों तक उनके पड़ोस में ही रहा हूं और कथाकार मनोज रूपड़ा जी के दुकान तक की दौड़ लगाते रहा हूं. कैलाश बनवासी जी की 'लक्ष्य तथा अन्य कहानियां' व 'बाज़ार में रामधन' कहानी-संग्रहों के अलावा समसामयिक विषयों पर कई लेख व समीक्षाएं प्रकाशित हैं तथा वे कई पुरस्कारों से सम्मानित हैं। कहानी संग्रह 'बाजार में रामधन' यहां मेरी गूगल बुक्‍स लाईब्रेरी में उपलब्‍ध है। इसी शीर्षक से संग्रह की पहली कहानी रचनाकार में यहां प्रकाशित है। 'दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़' कहानी वागार्थ के मार्च 2011 अंक में प्रकाशित है, यह कहानी कैलाश जी के उपन्‍यास का कथा रूप है। हम अपने पाठकों के लिए 'दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़' यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं - 

'दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़'

अजीब-सा स्वाद लगा था पानी का ।

कहावत है- कोस-कोस में बदले पानी, सात कोस में बानी, फिर मैं तो भूल ही चुका था, हम घर से कितना आगे आ चुके हैं । ...शायद हजार से भी ज्यादा । और यह हिसाबने का कोई तुक नहीं था, फिलहाल । मैं प्लेटफार्म के अपेक्षाकृत कुछ दूर के नलके में हाथ-मुँह धो रहा था, स्टेशन के टॉयलेट से निवृत्त होने के बाद । यह सुबह के साढ़े पाँच-छह के बीच का समय था, झीने और कोमल सफेद उजास का समय । मेरे ऊपर आकाश था, गहरा नीला, जिसमें कहीं-कहीं तारे टिमक रहे थे । और चाँद था, निस्तेज, किसी पुरानी किताब के पीले पड़ गए कागज-सा ।

यह दिल्ली का आकाश था । निजामुद्दीन ।

गौरी ने कुछ देर पहले जब मुझे जगाया था, मैं बहुत गहरी नींद में था । उठकर मैं भकुआया-सा कुछ देर देखता रहा था अपने ईद-गिर्द जहाँ कुछ लोग बेसुध सो रहे थे स्टेशन के लाउंज के फर्श पर, हमारी ही तरह । एक पल को तो समझ में मनहीं आया मैं कहाँ हूँ । जब समझ में आया तो अपनी घड़ी देखी, क्या समय हुआ है । सवा पाँच ही बजे थे । मुझे गौरी पर खीज हुई, क्यों उठा दिया इतनी जल्दी । गौरी की बहुत सी बातों पर मैं अक्सर खीज जाता हूँ, बहुत जल्दी । आदतन । मैं उस पर ऐसे खीजता हूँ मानों यह मेरा अधिकार हो ! और वह भी जैसे इसे स्वीकार कर चुकी है कि भाई जो करेगा, सही करेगा, क्योंकि मैं उसका एक जिम्मेदार भाई हूँ । एक गार्जियन । उससे उमर में दो बरस छोटा होने के बावजूद । ...और यह अभिभावकपन कब मेरे भीतर दाखिल हुआ और कब अपनी जड़ें जमा लिया, मुझे नहीं मालूम ।

इस सुबह यहाँ मैं अकेला था । और बहुत शान्ति । सुबह की नम हवा में भीगी शान्ति । और एक साफ-सुथरापन । एक सूनापन । सब कुछ भला-भला-सा । प्लेटफार्म की जलती हुई बत्तियाँ भी इस समय आँखों को नहीं चुभ रही थीं । अभी वह गहमा-गहमी कहीं नहीं थी, न ही वैसी भाग-दौड़, जब कल रात आठ के आसपास यहाँ पहुँचे थे ।

प्लेटफार्म के स्वीपर आ चुके थे । मार्निंग शिफ्ट के स्वीपर । लम्बे डण्डे वाली झाड़ू से बुहार रहे हैं । इन्हें देखकर रात की घटना की कड़वाहट मन में एक बार फिर तिर आई... ।

हम स्टेशन के टिकटघर से कुछ हट के सो गए थे । असल में किसी होटल में रात रुकने की बात हम सोच ही नहीं सकते थे । यह हमारे लिए महँगा सौदा था । फिर एक रात की ही तो बात है । काट लेंगे कैसे भी ! कितने सारे लोग तो सोते हैं प्लेटफार्म पर । फिर हमारे साथ जनरल डिब्बे में आये बिरेभाट गाँव के छह लोग भी थे, वे भी यहीं सो रहे थे । इसलिए चिंता की कोई बात नहीं थी । पर रात में दो स्वीपरों ने हमें उठा दिया था, अपने झाड़ूवाले डण्डे से हमें कोंचते हुए, ``उठो-उठो, ये तुम्हारे सोने की जगह नहीं है ! बाहर जा के सोओ ! टिकट खिड़की के सामने सो गए हैं साले देहाती !''

मुझे उनके चेहरे याद नहीं हैं, याद है उनकी आवाजें... जो असामान्य रूप से गहरी चिढ़ और नफरत से भरी थीं । अगर आवाज का रंग होता तो ये गहरे काले रंग की चमकदार आवाजें थीं, और जिन्हें अपने ऐसा होने का कोई अफसोस नहीं था, दूर-दूर तक । उनके लिए यह रोज की बात रही होगी, बहुत सामान्य । और गाँव से आए लोगों के लिए भी ये लगभग उतनी ही सामान्य बात थी । उन्हें हर साल ऐसे ही पलायन करना होता है कमाने-खाने के लिए । ऐसे अपमानों का उन्हें काफी अभ्यास है- सहने का भी और भूलने का भी । थोड़ा कुनमुनाकर हम वहाँ से उठ गए थे और कोने की एक खाली जगह में चले गए थे अपना बोरिया-बिस्तर लेकर । और फिर वहाँ सो भी गए थे, बावजूद इसके कि वहाँ ठंडी हवा सीधी आ रही थी, बावजूद इस भय के कि फिर कोई और आकर हमें यहाँ से खदेड़ देगा... । और हम यहाँ से

भी उठकर किसी और जगह चले जाएँगे... ।

प्लेटफार्म के नीचे पटरियाँ दूर तक चली गई हैं, भोर के सफेद उजास में चमकती हुइंर्, काले साँपों की मानिंद... । इस भली-भली-सी शान्त सुबह में तौलिए से अपने हाथ-मुँह पोंछता मैं वहाँ आ रहा हूँ जहाँ दीदी बैठी है, हमारे सामान के साथ । एक सूटकेस और दो सफारी बैग ।

हम पहली बार घर से इतनी दूर आए हैं वह भी दिल्ली ! दीदी गौरी का इण्टरव्यू है फरीदाबाद में । हमें ट्रेन में मुसाफिरों से ही पता चला था कि फरीदाबाद जाने के लिए नई दिल्ली नहीं, बल्कि निजामुद्दीन उतरना पड़ेगा । इसलिए कल रात आठ बजे हम अपनी ट्रेन `छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस' के यहाँ रुकते ही उतर गए थे । हमारे साथ बिरेभाट गाँव वाले यात्री भी उतर गए थे जो दुर्ग से चढ़े थे । उन्हें नोएडा जाना है, जो शायद यहाँ से पास पड़ता है ।
मैं पच्चीस बरस का हूँ, बी.एससी. तक पढ़ा । दो साल से सरकारी नौकरी में हूँ- वन विभाग में क्लर्क की नौकरी । इसके बावजूद बड़े शहर का डर खत्म नहीं हुआ था । वह बना हुआ था । यह गहरा था और बहुत चमकीला । पता नहीं कब से हमारे भीतर अपनी जड़ें जमाए हुए । एक अविश्वास... और ठग लिए जाने का भय... । ठगे जाने का भय अपने सचमुच के ठग लिए जाने से बहुत बड़ा था । हालाँकि अपने शिक्षित होने का एक दंभ मैं इस सफर में अपने साथ रखे था- किसी जरूरी और उपयोगी औजार की तरह, पर वह सचमुच कोई खास काम नहीं दे रहा था । मैं यहाँ भी उतना ही कमजोर था । बल्कि गौरी मुझसे ज्यादा सहज थी यहाँ । क्या यह मेरी अतिरिक्त सजगता थी, जो मुझे और नर्वस कर रही थी ? इसका आभास मुझे सारे रास्ते इन देहातियों को देखकर भी होता था जो मुझसे कहीं ज्यादा निश्चिन्त लगते थे, मेरी किताबी पढ़ाई को कमतर सिद्ध करते हुए । जबकि मैं उन्हें देहाती और गँवार ही मान रहा था, अपने से हर हाल में पिछड़ा, पर मैं गलत था; क्योंकि उनके पैंतीस-चालीस उम्र के चेहरों में कुछ था जो मेरे नौसिखिएपन पर भारी था । मैं ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या था ? उनका अनुभव ? दु:ख और कष्टों से जूझने का लम्बा और लगातार अनुभव, जिसे कोई किताब नहीं, सिर्फ और सिर्फ जीवन सिखाता है ।
कल रात खाने के लिए मैं स्टेशन के बाहर के एक ठेले से ब्रेड-आमलेट ले आया था । वे छह लोग गाँव से अपने साथ लाए एक मोटरे से अंगाकर रोटी निकालकर गुड़ के साथ खा रहे थे, बहुत तृप्त भाव से । उनके खाने में एक सुख था । साझा सुख । दो पुरुष, उनकी पत्नियाँ, उनकी अधेड़ माँ और छह-सात साल की उनकी एक बेटी का साझा सुख । मैं पा रहा था उनके इस साझे सुख को तोड़ पाना बहुत कठिन है ! ये अपना गाँव छोड़ आए हैं, यहाँ से कुछ कमाकर लौट जाने के लिए । और एक दिन यहाँ से लौटकर जाने का इनका विश्वास कितना सहज और गहरा है! और कितना मजबूत ! जैसे बरसों से इनके जीवन में यही होता आ रहा हो... ।
और मुझे देखो, इनसे आर्थिक रूप से अधिक सक्षम होने के बाद भी मेरे भीतर वैसा विश्वास नहीं !
बरामदे के उस कोने में जब मैं पहुँचा, दीदी तैयार बैठी थी, मानों अभी ही उसका इण्टरव्यू लिया जाना हो ! वह हल्के आसमानी रंग की साड़ी पहने थी, जिस पर गहरे नीले रंग का कंट्नस्ट बार्डर था । चेहरे से सफर की थकान उतर चुकी थी, और नई जगह जाने का उत्साह दिखता था । मैंने पाया, आज गौरी अच्छी लग रही है, बावजूद अपने चेहरे पर हमेशा नजर आने वाले एक बचपने के ।
``अरे, तुम तैयार हो गई, इतनी जल्दी ?''
``तू भी तैयार हो जा जल्दी । हमको दस बजे तक वहाँ पहुँचना है ।'' गौरी मुझसे कहती है । छत्तीसगढ़ी में । हम छत्तीसगढ़ी में ही बात करते हैं, घर हो या बाहर ।
``मेरा क्या है, अभी हो जाता हूँ ।'' मेरा थोड़ा लापरवाह जवाब, जिसमें निहित है कि तुमको मेरे बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं, मुझको पता है कि कब क्या करना है ।
``टिकिट कटा लिया ?'' वह पूछती है ।
``नहीं । कटा लूँगा । अभी टिकिट-खिड़की कहाँ खुली है ?''
``जल्दी कटा लेना । यहाँ तो हर काम में बहुत भीड़ है ।''
``हाँ, कटा लूँगा ।'' मैं उसे आश्वस्त करना चाहता हूँ, क्योंकि देख रहा हूँ, उसका विश्वास, आत्म- विश्वास दोनों गड़बड़ा रहे हैं । ऐसा होने पर वह कुछ ज्यादा ही पूछने या सवाल करने लग जाती है । तब उसे यह बोध नहीं रहता कि कुछ सवाल अपने लिए भी होते हैं जिनके उत्तर जरा सा सोचने पर मिल जाते हैं । पर नहीं, वह फिर पूछेगी, क्योंकि पूछे बिना उसे चैन नहीं मिलता । सत्ताइस बरस की अबोधनुमा लड़की... मानो किसी कारण से चौदह-पन्द्रह की मानसिक दशा में ही अटक गई हो... ।
हमारे ग्रामीण सहयात्री अपना सामान समेट रहे हैं । सामान क्या, पूरी गृहस्थी ! उनके इतने सारे सामानों के कारण मेरे भीतर उनके प्रति एक चिढ़ बैठ गई है... कि ये कौन-सा तरीका है सफर करने का ? पूरा घर लादे लिए जा रहे हो ! दूसरों को कितनी दिक्कत होती है, इसकी बिल्कुल भी चिंता नहीं ! पूरे रास्ते मुझे यह खलता रहा है, और अपनी चिढ़ को मैंने प्रकट भी किया है । पर इससे कुछ होना-जाना नहीं । वे अपना मामला अपने हिसाब से तय करेंगे ।
... प्लास्टिक की खादवाली चार सफेद बोरियाँ, जिनमें दो में चावाल हैं, बाकी दो में उनकी गृहस्थी का सामान... गंज, कड़ाही, थालियाँ, लोटा, गिलास आदि से लेकर एक स्टोव और मिट्टी तेल की एक प्लास्टिक केन । दो पुराने टिन के बक्से हैं, जिन पर पेंट किए चटखीले फूल बदरंग होकर जंग खाए धूसर रंग में घुल-मिल गए हैं । एक बक्से में ताला लगा है जबकि दूसरे की कुंडी में तार का टुकड़ा बँधा है । इनमें शायद इनके कपड़े-लत्ते होंगे । यही है इनकी छोटी, बेपर्द गृहस्थी । मोबाइल गृहस्थी । जगह-जगह इनके साथ घूमती-भटकती गृहस्थी । कभी लखनऊ, कभी आगरा, कभी दिल्ली, कभी होशियारपुर... ।
छत्तीसगढ़ के हर बड़े स्टेशन में इन्हें देखा जा सकता है, अपने ऐसे ही माल-असबाब के साथ, हर साल... । बाढ़ या अकाल के साल इनकी संख्या बहुत बढ़ जाती है... टिडि्डयों की मानिंद दिखने लगते हैं ये... । साल के छह महीने खेती कमाने के बाद ये निकल जाते हैं, जहाँ इन्हें काम मिल जाए... कुछ महीने मजदूरी के बाद रुपये कमाकर ये अपने गाँव लौट आएँगे, प्रवासी पक्षियों की तरह... ।
``तुम लोग नोएडा कैसे जाओगे ?'' मैं पूछता हूँ ।
``टेम्पो करके जाएँगे, बाबू ।'' साँवला अधेड़ मुस्कराकर कहता है । वह इस समय अपना कड़े रेशे वाला काला कम्बल तहा रहा है ।
``बड़ दूरिहा हे बेटा, इही पायके टेम्पो करत हन, नहीं त हम मन रेंगत चल देतेन !'' उसकी बुढ़िया माँ कह रही है हँस के । ...सच कह रही है वो, कि हम तो पैदल ही चले जाते । इनका वश चले तो सारा जहान ही पैदल घूम लें ! दूरी इनके लिए मायने नहीं रखती, पैसा मायने रखता है जो ये मुश्किल से हासिल कर पाते हैं । उनका सामान बँध गया । वे अब हमसे विदा ले रहे हैं ।
वह बूढ़ी माँ और उनकी दोनों बहुएँ दीदी से बहुत घुल-मिल गए थे । खुद गौरी भी । वे कह रही हैं दीदी से, बहुत आत्मीयता से- ``जाथन बेटी ! दुरुग आबे त हमर गाँव आबे ! दया-मया धरे रहिबे !''
परिवार के पुरुष मुझसे यही कह रहे हैं, हँसकर । अपनी गँवई सरलता में ।
``हौ, तुहू मन आहू हमर घर दुरुग में ।'' दीदी भी उनसे हँसकर वैसी ही सरलता से कह रही है । इस बात को बिल्कुल भूले हुए कि अभी कुछ ही देर में ये दुनिया की बड़ी भीड़ में न जाने कहाँ खो जाएँगे... शायद हमेशा-हमेशा के लिए । फिर कभी नहीं मिलने के लिए, सिर्फ भूले-भटके कभी याद आ जाने के लिए ।
अब मुझे लगा, छत्तीसगढ़ हमसे बिछड़ रहा है... । छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से हमारे साथ आया एक गाँव,
उसकी सहज-सरल गँवई संस्कृति हमसे बिछड़ रही है... अपनी आत्मीयता से हमें विभोर किए हुए... ।
मैंने दीदी को देखा, वह उन्हें तब तक देखती रही जब तक वे गेट के बाहर नहीं चले गए । उसकी मुस्कुराहट में एक उदासी और अजीब-सा खोया-खोयापन था । दिल्ली को वह बिल्कुल भूल चुकी थी इस समय ।
एक पल के लिए मुझे सूझा कि उसे याद दिलाऊँ कि वह दिल्ली में है... पर लगा, दिल्ली की याद दिलाना अभी उसको आहत करना होगा, एक अन्याय होगा । ऐसे समय में दिल्ली को दूर रखना ही ठीक है । दिल्ली को हर समय अपने साथ रखना एक बड़ी बीमारी है... कई छोटी-बड़ी बीमारियों से मिलकर बनी एक बड़ी और खतरनाक बीमारी, जिसका ठीक होना मुश्किल होता है... ।
ये लड़की दिल्ली में रहेगी ?
मैंने शायद सौवीं बार यह सोचा होगा... या शायद हजारवीं बार ! मैं बहुत अविश्वास से अपने सामने की सीट पर बैठी गौरी को देख रहा था, जो ट्रेन की खिड़की से बाहर देख रही थी, और ऐसे खोई हुई देख रही थी जैसे उसे अभी देर तक सिर्फ यही करना हो ! सुबह साढ़े छह की `शटल' इस समय अपनी पूरी स्पीड में भाग रही थी । खिड़की के शीशे गिरे हुए थे, फिर भी ठंडी हवा नीचे से सेंध लगाकर घुसी आ रही थी । ट्रेन उसी दिशा की ओर जा रही थी जिधर से हम आए थे । एक पल के लिए मुझे लगा, हम लौट रहे हैं... ।
फरीदाबाद, ओल्ड । हम वहीं जा रहे थे ।
``दो टिकट फरीदाबाद !'' मैंने भरपूर आत्म-विश्वास का प्रदर्शन करते हुए टिकट काउण्टर पर बैठे क्लर्क से कहा था । लेकिन उस फ्रेंच-कट दाढ़ी वाले गोरे क्लर्क ने अपने चश्मे के भीतर से मुझे एक पल घूरकर पूछा था- ``फरीदाबाद ओल्ड कि न्यू ?'' मैं इस पर चकरा गया था । ओल्ड कि न्यू ? मुझे इसका कोई आइडिया नहीं था । हमें जाना है सेक्टर-१७ । अब यह ओल्ड है या न्यू, नहीं पता । मैंने दसियों बार गैरी के कॉल-लेटर में संस्था का एड्रेस पढ़ा था, उसमें कहीं ओल्ड या न्यू नहीं लिखा है, फिर ये क्या चक्कर है ? इधर क्लर्क के घूरने में मेरे प्रति चिढ़ बढ़ती जा रही थी, सो मैंने बिना सोचे कह दिया, ``ओल्ड ।'' क्लर्क ने टिकट बना दिए । इससे ज्यादा वह मेरी कोई सहायता करने का इच्छुक नहीं था । मुझे लगा, टिकट देने के बाद जैसे उसने मुक्ति की साँस ली है, मुझसे पीछा तो छूटा !
ट्रेन में मुझे आश्चर्य था कि अपेक्षित भीड़ नहीं है । भीड़ क्या, पूरी सीटें लगभग खाली हैं । शायद इतनी सुबह के कारण । और बगैर भीड़ और धक्का-मुक्की के दिल्ली के ट्रेन की कल्पना करना मेरे लिए मुश्किल था । हमारे डिब्बे में मुश्किल से आठ-दस आदमी रहे होंगे । मेरे दाएँ कोने की सीट पर एक अधेड़ पुलिसवाला आराम से सो रहा था, अपना मोटा भूरा कोट पहने । शायद जी.आर.पी. का कर्मचारी हो, रात पाली ड्यूटी से घर लौटता हुआ । मुझे सोया हुआ पुलिसवाला एक जागे हुए पुलिसवाले से ज्यादा अच्छा लग रहा था । लगता था, अगर वह जाग गया तो उसके जागने के साथ ही उसका `पुलिस-मैन' भी जाग जाएगा, उसके सिरहाने पड़ी बेंत भी जाग जाएगी, समूचा थाना जाग जाएगा, और वह ऐसा शान्त और निर्विकार नहीं नजर आएगा । तुम्हारे सामने कोई पुलिसवाला सोया हो, तो तुम भी वही शान्ति महसूस कर सकते हो जो मैं महसूस कर रहा था ।
हवा में जनवरी के अन्तिम सप्ताह की ठंडकता थी । बहुत । जब छू जाती तो हम सिहर उठते । दिल्ली की ठंड के बारे में हमने अभी तक केवल सुना था, अब महसूस कर रहे थे । फिर भी लगा, हम किस्मत वाले हैं जो शीतलहर नहीं चल रही है । हमारा बचाव अपने साधारण गर्म कपड़े में हो जा रहा है । दीदी ने कत्थई शॉल कस के लपेट रखा है, और मैं पूरी बाँह का स्वेटर पहने हूँ, हल्के आसमानी रंग का । यह हमने यहाँ आने के पहले ही खरीदा है- दिल्ली की ठंड से मुकाबले के लिए ।
मेरा ध्यान हमारे यहाँ आने के मकसद पर आया । गौरी का इण्टरव्यू । सुबह के दस बजे का समय दिया है । दीदी का इण्टरव्यू-लेटर मेरे पैंट की जेब में पड़ा है । मटमैले भूरे रंग के लिफाफे के भीतर का वह कागज, जिसका उसे पिछले तीन महीने से इन्तजार था । यह एक प्रतिष्ठित स्वयं-सेवी संस्था का इण्टरव्यूलेटर है, जो अनाथ बच्चों के लिए काम करती है । मैं ट्रेन में इस समय दीदी के चेहरे पर अपने साक्षात्कार को लेकर थोड़ी चिंता या गंभीरता देखना चाहता था, जिसके लिए हम इतनी दूर आए हैं । पर यह नदारद ।
गौरी खिड़की के बाहर के दृश्यों में ही इतना रमी थी मानों भूल गई हो, कहाँ आई है और किसलिए । मुझे यह देखकर पहले थोड़ी चिंता हुई, फिर गुस्सा आने लगा । मैंने उसका ध्यान हटाने के लिए पूछा, ``गौरी, तुम्हारी तैयारी है न पूरी ?''
``हाँ, कर ली हूँ,'' उसका संक्षिप्त जवाब ।
अब मैं नया प्रश्न ढूँढ़ने लगा । और झल्लाया मन ही मन- बेवकूफ लड़की ! इसका कुछ नहीं हो सकता । वह अभी भी बाहर के दृश्यों को बच्चों की उत्सुकता से देख रही थी, और अब उसके चेहरे पर मौजूद यह भोलापन मुझे चुभने लगा था । ...तो हमारा इतनी दूर आना व्यर्थ हो जाएगा ? भूल गई कि उसे नौकरी की कितनी सख्त आवश्यकता है ? और खुद भी तो बाबू से लड़कर यहाँ आई है ! बाबू, जाने क्यों, नहीं चाहते थे कि दीदी इतनी दूर जाकर काम करे- ``अभी यहाँ एक स्कूल में पढ़ा तो रही है, फिर क्या जरूरत है दिल्ली जाने की !'' लेकिन बाबू भूल रहे थे कि एक छोटे से प्राइवेट स्कूल की अस्थायी और बहुत कम वेतन वाली नौकरी के भरोसे जीवन नहीं काटा जा सकता । गौरी और मैं दोनों ही समझ रहे थे कि यह अच्छा अवसर है, नियुक्ति शायद आगे चलकर स्थायी हो जाएगी । और मैं पा रहा था, यह काम गौरी के स्वभाव और योग्यता के हिसाब से भी ठीक है... ।
अब मैं यहाँ की प्रतिस्पर्धा के बारे में सोच रहा था, जिसका कोई ठोस और निर्धारित रूप मेरे सामने नहीं था । मुझे पता है कि यह दिल्ली है । देश की राजधानी । देश भर के प्रतियोगी आए होंगे । उनसे मुकाबला । और हमेशा लगता कि दूसरे निश्चय ही हमसे ज्यादा अच्छे हैं- रंग-रूप में ही नहीं, शिक्षा- दीक्षा, परवरिश, ज्ञान और व्यवहार में भी, ...कि हममें ढेर सारी कमियाँ हैं... कि हम एक बहुत पिछड़े परिवार से हैं... आर्थिक और मानसिक दोनों स्तर पर । पता नहीं क्या और कैसे होगा!... गौरी इण्टरव्यू बोर्ड में बैठे अधिकारियों को प्रभावित कर सकेगी, सचमुच?
मुझे इण्टरव्यू के लिए प्रतियोगी पत्र-पत्रिकाओं की ढेर सारी बातें याद आने लगीं जो वे इण्टरव्यू में सफलता के लिए बताते हैं, जिन्हें अपनी बेरोजगारी के दिनों में पब्लिक-लाइब्रेरी में बैठकर मैं पढ़ता रहता था । ये सफलता के कुछ नुस्खे बताते, आपका आत्म-विश्वास बढ़ाते । मसलन ये बताते कि इण्टरव्यू कक्षा में आपको कैसे प्रवेश करना है, कि आपके जूते खट-खट की आवाज करने वाले न हों, आपकी हेयर स्टाइल कैसी हो, आपके चेहरे पर बोर्ड-मेम्बर को नमस्कार करते वक्त कितने सेंटीमीटर की मुस्कान होनी चाहिए, कि आपके शर्ट और पैण्ट के रंग बहुत सौम्य होने चाहिए, कि आप उनके सामने सर झुकाकर या आँखें चुराकर बात ना करें, खुद को बहुत आत्म-विश्वास और स्पष्टता से प्रस्तुत करें, मेज पर अपनी उँगलियाँ न बजाएँ, आपके बातचीत का लहजा संतुलित, सहज और आत्मीय होना चाहिए एक गरिमामय ढंग से... । जिन सवालों के जवाब आपको नहीं आते हों, स्पष्ट बता कर क्षमा माँग
लें, यह आपके गोल-मोल या अस्पष्ट जवाब की तुलना में ज्यादा प्रभावी होगा । और इण्टरव्यू समाप्त होने के बाद सभी महानुभावों का मुस्कराकर धन्यवाद देते हुए आपको बाहर निकलना है... ।
लगभग ऐसी ही बातें होती थीं हर प्रतियोगी पत्र-पत्रिकाओं में । पढ़ते हुए मैं कल्पना में खुद को अत्यन्त मेधावी, शालीन और व्यवहार-कुशल उम्मीदवार के रूप में पाया करता था, और किसी काल्पनिक इण्टरव्यू में पाता कि बोर्ड के अधिकारी मेरी योग्यता से बहुत प्रसन्न हैं और मेरा चयन हो गया है... ।
मेरा सपना तब टूटता था, जब म्युनिसिपल लाइब्रेरी का चपरासी मनबोधी लाइब्रेरी बन्द होने के आठ बजे के नियत समय के पहले ही ``चलो, टाइम हो गया'' कहते हुए पत्र-पत्रिकाओं को सहेजना शुरू कर देता और छत पर धीरे-धीरे घूमते बाबा आदम जमाने के पंखों का स्विच ऑफ कर देता । इस समय मनबोधी का चेहरा अजब ढंग से मनहूसी और कड़वाहट से भरा लगता था, और वक्र । मानों यहाँ आनेवाले लोग एकदम निठल्ले और फालतू हैं जो यहाँ अपना टाइम-पास करते बैठे हैं! और कड़के इतने कि कभी कोई एक कप चाय के लिए भी नहीं पूछता !
...मैं नहीं जान पा रहा था, इस समय गौरी के मन में क्या चल रहा है । सोचा, उसे अपने पढ़े हुए को बताऊँ... । पर मेरे ज्ञान बघारने से वो कहीं और नर्वस न हो जाए? उसे घर में ऐसी बातें कहता ही रहता हूँ कि वह अपना आत्म-विश्वास बढ़ाए, खुद को ज्यादा मजबूत बनाए... । तब अभी ये सब कहने का क्या तुक? मैं सहसा मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगा कि इसका भला हो जाए, हालाँकि भगवान जैसी किसी चीज पर मेरा विश्वास बिल्कुल नहीं है, इसके बावजूद यह हो रहा था, अपने-आप ।
`शटल' बहुत तेजी से दौड़ रही है... ।
धड़-धड़-धड़-धड़...धड़-धड़-धड़-धड़... ।

कैलाश बनवासी 
४१, मुखर्जी नगर, सिकोला भाठा, दुर्ग-४९१००१ (छत्तीसगढ़) मो. ०९८२७९९३९२०

अहसास ही तो प्रयासों को जन्म देते है : विश्व गौरैया दिवस पर श्रद्धा थवाईत का आलेख

हिन्‍दी में पक्षी के पर्यायवाची अनेक शब्द हैं, लेकिन  सबसे सामान्य बोलचाल का शब्द है – चिड़िया. बस इस लाइन पर रुक कर आँख बंद करें  और मन में शब्द दोहराएँ  'चिड़िया'. अब बताएं  आपने अपनी कल्पना में कौन सा पक्षी देखा? आपकी कल्पना में गौरैया ही रही होगी. गौरैया हमारे मन में जीवन में रची-बसी ही इस तरह है कि वही  चिड़िया का पर्याय हो गई है. सबने बचपन में एक छोटी सी कविता सुनी और सुनाई होगी-
"चिड़िया आ जा,
दाना खा जा
पानी पी जा
फुर्रर्रर से उड़ जा."
इस कविता को सुनते हुए मेरी कल्पना में जो चिड़िया आती,दाना खाती,पानी पीती दिखती वह गौरैया ही होती थी.
पहले आंगन की ओर खुलते बरामदे में बीनने-चुनने के कार्यक्रम का अक्सर दोपहर भोजन के बाद आयोजन होता था. गप-शप चलती  जाती  और  अभ्यस्त   उंगलियाँ अनाज  के दानों से कंकड़, घास के बीज  चुन  फेंकती  जाती, उन्ही के साथ  अनाज के कुछ दाने भी  बरामदे में बिखर जाते.  इन्ही के लिए  आई गौरैया हमारी समय बिताने की साथी होती  क्योंकि  हमें पता था कि यदि बड़ों की बातों  में देंगे दखल तो हम यहाँ से कर दिए जायेंगे बेदखल.
हमें गौरैया की ची-ची, उसका  फुदकना  बहुत  अच्छा  लगता और फिर इसे  हथेली में सहेजने की इच्छा बहुत बलवती हो जाती  इसके लिए तरह- तरह के उद्यम  किये जाते बचपन में शायद आपने भी किये होंगे. कभी बरामदे में दो चारपाई को जोड़ कर ऊपर से चादर ढँक कर, बाहर  सूपा खड़ा कर उसके सामने अनाज बिखरा दिया जाता और दोनों चारपाइयों के बीच बिना हिले-डुले, साँस रोके बैठे  होते कि  किसी हरकत से गौरैया  को हमारी उपस्थिति का अहसास न हो जाये.  मानो युगों-युगों के इंतजार के बाद गौरैया दाने खाने आती तो चारपाई के छिद्रों के बीच से टहनी से सूपा को धक्का  देते  पर ऐसा होता की सूपा के गिरने तक का समय गौरैया की छठी  इन्द्रिय  जागृत करने पर्याप्त हुआ करता  और अनेक बार की असफल कोशिशो के बाद फिर  अगले  दिन यही प्रक्रिया दुहराई जाती. बारम्बार चलने वाले इस उद्यम में कुछ  हम सफल रहे लेकिन सुपे को चादर से ढँक सूपा हल्के से टेढ़ा कर हाथ डाल कर गौरैया  निकालते  वक़्त चिड़िया फुर्रर्रर्र  ये जा वो जा.....
इसके अलावा कभी कमरे में गौरैया आ जाने पर कमरा बंद कर उसे पकड़ने का उद्यम करते, कभी उसके घोसलों के नीचे चक्कर  लगाते   आशंका और आशा  करते कि  कोई बच्चा उड़ना सीखते-सीखते गिर गया तो उसकी सेवा का अवसर हमे मिल जाये. यदि कैसे भी ऐसा अवसर मिल जाता उस दिन स्कूल में  विशिष्ट बन जाते, सभी को अनुभव मिर्च-मसालों के साथ सुनाया जाता, पर “चिड़िया ठीक हो उड़ गई” बताते शर्म आती तो महानता के भाव के साथ  कहते - "मम्मी ने कहा चिड़िया  पकड़  के नहीं रखते इसलिए उसे उड़ा दिया." कभी अनुभव नकारात्मक भी होते, कभी पंखे से कट जाने के तो कभी घोंसले से गिर चींटी लग जाने के. पर सबसे सहमा देने वाला अनुभव होता बम्भन चिरई के छुवाछूत का. तब गड्ढा खोद उसमे सुला कर  उपर से मिट्टी से ढँक देते, फूल अगरबत्ती लगा देते. वह बड़ा उदास दिन होता.
गर्मियों में घर के सामने मोंगरे की पुरानी बेल जिसकी लचकदार  हरी बेलों ने कड़ी  लहरदार  लकड़ियों  का रूप ले लिया था में दो मिट्टी के बर्तन में दाना-पानी लटका दिया जाता. जिनमे से अधिकांश दाने तो गिलहरियाँ और चींटियाँ ही खा जाती पर वो मोंगरे की बेल दुपहरी में गौरैयों  की  आरामगाह या बैठक-कक्ष हुआ करता जहाँ से दिन भर संसद सत्र सा शोर सुनाई आता  रहता. सबकी आवाज  एक साथ मिश्रित रूप  में. कभी रात में संसद-सत्र  शुरू होता तो समझ  जाते  कि जरूर कोई सांप वहां आ गया है, हमे वहां जाना पड़ेगा. सुबह का शोर जीवन का जश्न होता तो रात का जीवन की जंग.
आंगन में फुदकती गौरैया कभी उथले पानी में नहाते दिखती तो कभी अपने परों को फुला, धूल में पंख फडफडा, परों पर धूल की परत चढ़ाते. हम आप यह कह कर रह जाते कि- "हाय बड़ी गर्मी हो रही है कब राहत  मिलेगी?" पर  गौरैया क्रमशः धूल  या पानी में नहा के बता देती कि अब जल्दी ही वर्षा होगी  या और गर्मी बढ़ेगी . आखिर घाघ-भड्डरी भी कह गये हैं -  कलसा पानी गरम रहै, चिड़िया नहाये धूर, चींटी ले अंडा चढे, तो बरखा भरपूर.
गौरैया को छत्तीसगढ़ी में गुरेडिया, उड़िया में चुटिया, अंग्रेजी  में हाउस स्पैरो कहते है.  ये गौरैया ही थी जिसने वैज्ञानिक नाम की आवश्यकता समझाई . इसने ही बताया कि हर भाषा के अलग नाम के जगह यदि इसे 'पेसर डोमिसटीकस' कहा जाये तो सारे  विश्व  में  इसका   मतलब 'गौरैया' ही होता है. इस तरह जीवन में  गौरैया के साथ परंपरागत विज्ञान का सम्मान और आधुनिक विज्ञान का ज्ञान दोनों ही सहज में ही जुड़ गए  है .  
इसके बाद गौरैया मानो वैज्ञानिक नजरिये की खिड़की खोल कही दुबक गई.  पढ़ाई का दबाव बढ़ता गया, अच्छे नम्बर लाने हैं, अपने पैरों पर खड़ा होना है, मम्मी-पापा हम पर गर्व कर सके ऐसा अवसर लाना है. बस गौरैया से मानो सम्पर्क ही टूट गया. यह सम्पर्क  केवल तब ही बहाल होता  जब छुट्टियों में घर आते .  
इन कुछ वर्षों में दिन बड़ी तेजी से बदलते गये. गाँवों ने कस्बों कस्बों, कस्बों ने नगरों  और नगरों  ने शहरों का रूप ले लिया. हरियाली सिमटती ही गई, आंगन-बरामदे भी ख़त्म होते गये जिधर देखो कंक्रीट के जंगल उस पर प्रदूषण, विकिरण. इसके साथ ही घरो में भी गौरैया का घोंसला कचरे की उपमा पा परेशानी का सबब बनने  लगा  था अर्थात न  सिर्फ भौतिक अपितु  सांस्कृतिक परिवर्तन  भी तेजी से हुए . गौरेयों की संख्या भी बड़ी तेजी से घटने लगी. अब भी स्थिति बहुत बदली नहीं है लेकिन भला हो `सेव द बर्ड कैम्पेन' का जिसके प्रयासों ने पक्षियों की स्थिति के प्रति जागरूकता   फैलाई है.
रायपुर में यूँ  भी गौरैया अधिक हैं .मेरे जीवन में भी गौरैया वापस लौट आई है वह रोज सुबह अपनी चहचाहट से जगाती है, बालकनी में लटके दानों की डोली से दाना खाती है और गोल  उथले गमले में बने पिस्टिया के तालाब का पानी पीते सुबह की चाय  की साथी बनती है और पेपर पढने पर उस  पर भी फुदक एक नजर मार लेती है.
आज पेपर पर  फुदकते हुए मानों उसने कहा "कल बीस  मार्च को विश्व गौरैया दिवस है क्यों नहीं मेरे लिए कुछ लिखती. अस्तु बचपन से अब तक गौरैया के साथ स्मृतियों का लेखा प्रस्तुत है इसे पढ़ क्यों न आप भी आंखे बन्द कर  एक बार स्मृतियों  के उपवन से गुजर जीवन में रची-बसी गौरैया से लगाव का खोया अहसास  फिर से पा लें. पक्षियों को बचाने के विविध प्रयासों में एक  अकिंचन  प्रयास कि 'अहसास ही तो प्रयासों को जन्म देते है'.

श्रद्धा थवाईत
रायपुर
सबसे उपर वाले गौरैया का चित्र उदंती डाट काम से साभार

सामंती व्यवस्था पर चोट का नाम है फाग

राजा बिकरमादित महराज, केंवरा नइये तोर बागन में...
छत्‍तीसगढ़ के फाग में इस तरह चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्‍य के बाग में केवड़े का फूल नहीं होने का उल्‍लेख आता है। फाग के आगे की पंक्तियों में केकती केंवरा किसी गरीब किसान के बारी से लाने की बात कही जाती है। तब इस गीत के पीछे व्‍यंग्‍य उजागर होता है। फाग में गाए जाने वाले इसी तरह के अन्‍य गीतों को सुनने पर यह प्रतीत होता है कि, लोक जीवन जब सीधे तौर पर अपनी बात कह नहीं पाता तो वह गीतों का सहारा लेता है और अपनी भावनाओं (भड़ास) को उसमें उतारता है। वह ऐसे अवसर को तलाशता है जिसमें वह अपनो के बीच सामंती व्‍यवस्‍था पर प्रहार करके अपने आप को संतुष्‍ट कर ले। होली के त्‍यौहार में बुरा ना मानो होली है कहकर सबकुछ कह दिया जाता है तो लोक भी इस अवसर को भुनाता है और कह देता है कि, राजा विक्रमादित्‍य महाराज तुम चक्रवर्ती सम्राट हो, किन्‍तु तुम्‍हारी बगिया में केवड़े का फूल नहीं है,  जबकि यह सामान्‍य सा फूल तो यहां हमारे घर-घर में है। केवड़े के फूल के माध्‍यम से राजा को अभावग्रस्‍त व दीन सिद्ध कर लोक आनंद लेता है।

अरे हॉं ... रे कैकई राम पठोये बन, का होही...., नइ होवय भरत के राज ... रे कैकई ... देखिये लोक मानस कैकई के कृत्‍यों का विरोध चिढ़ाने के ढ़ग से करता है, कहता है कि कैकई तुम्‍हारे राम को वनवास भेज देने से क्‍या हो जायेगा। तुम सोंच रही हो कि भरत को राजगद्दी मिल जायेगी।, ऐसा नहीं है। ऐसे ही कई फाग गीतों में हम डूबते उतराते रहे हैं जिनमें से कुछ याद है और कुछ भूल से गए हैं। प्रेम के अतिरिक्‍त इसी तरह के फाग छत्‍तीसगढ़ में गाए जाते हैं जिसमें राजा, बाह्मण, जमीनदार और धनपतियों के विरूद्ध जनता के विरोधी स्‍वर नजर आते हैं। नाचा गम्‍मत के अतिरिक्‍त लोकगीतों में ऐसी मुखर अभिव्‍यक्ति फाग में ही संभव है।

सदियों से बार बार पड़ने वाले अकाल, महामारी और लूट खसोट से त्रस्‍त जन की उत्‍सवधर्मिता उसे दुख में भी मुस्‍कुराने और समूह में खुशियां मनाने को उकसाती है। वह उत्‍सव तो मनाता है, गीत भी गाता है किन्‍तु आपने हृदय में छ़पे दुख को ऐसे समय में अभिव्‍यक्‍त न करके वह उसे व्‍यंग्‍य व विरोध का पुट देता है। छत्‍तीसगढ़ी फाग गीतों के बीच में गाए जाने वाले कबीर की साखियॉं और उलटबासियॉं कुछ ऐसा ही आभास देती है। सामंती व्‍यवस्‍था पर तगड़ा प्रहार करने वाले जनकवि कबीर छत्‍तीसगढ़ के फाग में बार-बार आते हैं। लोग इसे कबीर की साखी कहते हैं यानी लोक के बीच में कबीर खड़ा होता है, वह गवाही देता है सामाजिक कुरीतियों और विद्रूपों के खिलाफ। डॉ.गोरेलाल चंदेल सराररा रे भागई कि सुनले मोर कबीर को सचेतक आवाज कहते हैं मानो गायक सावधान, सावधान की चेतावनी दिया जा रहा हो।

फाग गीतों को गाते, सुनते और उसके संबंध में विद्वानों के आलेखों को पढ़ते हुए, डॉ.गोरेलाल चंदेल की यह बात मुझे फाग गीतों के निहितार्थों में डूबने को विवश करती है-  
... तमाम विसंगतियों एवं दुखों के बीच भी जन समाज की मूल्‍यों के प्रति गहरी आस्‍था ही फाग गीतों के पानी में इस तरह मिली हुई दिखाई देती है जिसे अलग करने के लिए विवेक दृष्टि की आवश्‍यकता है। जन समाज को उनकी सांस्‍कृतिक चेतना को संपूर्णता के साथ देखने तथा विश्‍लेषित करने की जरूरत है। फाग की मस्‍ती एवं गालियों के बीच जीवन दृष्टि की तलाश ही जन समाज की सांस्‍कृतिक चेतना को पहचानने का सार्थक मार्ग हो सकता है।


इनके इस बात को सार्थक करता ये फाग गीत देखें अरे हां रे ढ़ेकुना, काहे बिराजे, खटियन में/ होले संग करव रे बिनास .... समाज के चूसकों को इस त्‍यौहार में जलाने की परंपरा को जीवंत रखने का आहृवान गीत में होता है। इसी परम्‍परा के निर्वाह में छत्‍तीसगढ़ में होली की आग में खटमल (ढ़ेकुना) और पशुओं का खून चूसने वाले कीटों (किन्‍नी) को जलाया जाता है ताकि उनका समूल नाश हो सके।  सांकेतिक रूप से होली के आग में समाज विरोधी मूल्‍यों का विनाश करने का संदेश है यह।

पारम्‍परिक फाग गीतों का एक अन्‍य पहलू भी है जिसके संबंध में बहुत कम लिखा-पढ़ा गया है। होली जलने वाले स्‍थान पर गाए जाने वाले अश्‍लील फाग का भी भंडार यहां उसी प्रकार है जैसे श्‍लील फाग गीतों का। होली के जलते तक होले डांड में रात को तेज आवाज में यौनिक गालियां, होले को और एक दूसरे को दिया जाता है और अश्‍लील फाग गीत के स्‍वर मुखरित होते हैं। लोक के इस व्‍यवहार पर डॉ.गोरेलाल चंदेल जो तर्क देते हैं वे ग्राह्य लगते हैं, वे कहते हैं कि
लोक असत् को जलाकर सत की रक्षा ककी खुशी मनाता है तो, पौराणिक असत् पक्ष की भर्त्‍सना करने से भी नहीं चूकता। वह असत् के लिए अश्‍लील गालियों का भी प्रयोग करता है और अश्‍लीलता युक्‍त फाग गीतों का गायन भी करता है।

रात के बाद फाग का यह अश्‍लील स्‍वरूप बदल जाता है, लोक अपनी विरोधात्‍मक अभिव्‍यक्ति देने के बाद दूने उत्‍साह के साथ राधा-किसान के प्रेम गीत गाने लगता है। जैसे दिल से कोई बोझ उतर गया। मुझे जब बी मेटफिल्‍म का वो दृश्‍य याद आता है जब नायक नायिका को उसके बेवफा प्रेमी पर अपना भड़ास उतारने को कहता है और नायिका फोन पर पूर प्रवाह के साथ अपना क्रोध उतारते हुए तेरी मां की ..... तक चली जाती है। उसके बाद वह सचमुच रिलेक्‍स महसूस करती है। उसी प्रकार लोक होले डांड में जमकर गाली देने (बकने) के बाद रिलेक्‍स महसूस करते हुए लोक चेतना को जगाने वाले एवं मादक फाग दिन के पहरों में गाता है।

डॉ. पालेश्‍वर शर्मा अपने किताब छत्‍तीसगढ़ के तीज त्‍यौहार और रीतिरिवाज में इन पहलुओं पर बहुत सीमित दृष्टि प्रस्‍तुत करते हैं किन्‍तु वे भी स्‍वीकरते हैं कि लोक साल भर की कुत्‍सा गालियों के रूप में अभिव्‍यक्‍त करता है। जिसे वे अशिष्‍ठ फाग कहते हैं, इसकी वाचिक परंपरा आज भी गावों में जीवंत है और इसे भी सहेजना/लिखा जाना चाहिए। यद्धपि इसे पढ़ना अच्‍छा नहीं लगेगा किन्‍तु परम्‍परागत गीतों के दस्‍तावेजीकरण करने के लिए यह आवश्‍यक होगा। इस संबंध में छत्‍तीसगढ़ी मुहावरों एवं लोकोक्तियों पर पहली पीएचडी करने वाले डॉ.मन्‍नू लाल यदू का ध्‍यान आता है जिन्‍होंनें छत्‍तीसगढ़ के श्‍लील व अश्‍लील दोनों मुहावरों एवं लोकोक्तियों का संग्रह एवं विश्‍लेषण किया। अशिष्‍ठ फाग लिखित रूप में कहीं भी उपलब्‍ध नहीं है। इसमें ज्‍यादातर रतिक्रिया प्रसंगों एवं दमित इच्‍छाओं का लच्‍छेदार प्रयोग होता है। 'चलो हॉं ... गोरी ओ .. तोर बिछौना पैरा के ...' पुरूष अपनी मर्दानगी के डींगें बघारता हुआ नारी के दैहिक शोषण का गीत गाता है। वह अपने गीतों में किसबिन (नर्तकी वेश्‍या) व अन्‍य नारीयों का चयन करता है। बिना नाम लिये गांव के जमीदार, वणिक या ऐसे ही किसी मालदार आसामी के परिवार की नारी के साथ संभोग की बातें करता है। इसका कारण सोंचने व बड़े बुजुर्गों से पूछने पर वे सीधे तौर पर बातें होलिका पर टाल देते हैं कि लोग होलिका को यौनिक गाली देने के उद्देश्‍य से ऐसा करते हैं। किन्‍तु आमा के डारा लहस गे रे, तोर बाम्‍हन पारा, बम्‍हनिन ला  *दंव पटक के रे बाम्‍हन मोर सारा या 'बारा साल के बननिन टूरी डोंगा खोये ला जाए, डोंगा पलट गे, ** चेपट गे, ** सटा-सट जाए'   जैसे गीत पूरे उत्‍साह के साथ जब गाए जाते हैं तब पता चलता है कि लोक अपनी भड़ास आपके सामने ही नि‍कालता है और आप मूक बने रह जाते हैं। अपनी सांस्‍कृतिक परम्‍पराओं की दुहाई देते हुए। होली है.....  

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

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