राजिम मेला और हमारी आस्था - कुछ बदलते सन्दर्भ में : शहरनामा

राजिम मेला के संबंध में पूर्व में संजीत त्रिपाठी जी चित्रमय विवरण प्रस्तुत कर चुके हैं । हम अपने पाठकों को एक व्यंगकार के नजरिये से इस मेला को दिखाने का प्रयास कर रहे हैं । चित्रों के लिए संजीत त्रिपाठी जी के पोस्ट एवं इस वेब साईट 12, एवं विकीपीडिया, व तपेश जैन जी के ब्‍लाग का अवलोकन करें ।

राजिम मेला और हमारी आस्था - कुछ बदलते सन्दर्भ में

विनोद साव

यह सही है कि छत्तीसगढ़ में राजिम मेला का जो वैभवपूर्ण इतिहास रहा है वह किसी दूसरे मेले का नहीं रहा। माघी पूर्णिमा से लेकर महाशिवरात्रि तक रोज रोज भरे जाने की जो एक मैराथन पारी इस मेले में संपन्न होती थी इसका कोई दूसरा जोड़ न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि इसके पड़ोसी राज्यों में भी देखने में नहीं आता था। राजिम का अपना पौराणिक इतिहास तो है ही लेकिन यहां भरा जाने वाला मेला अपनी विशालता के कारण विशिष्ट रहा है। महानदी की फैली पसरी रेत पर नदी के बीचोंबीच भरने वाला यह मेला अपनी कई विशेषताओं के कारण लोक में सबसे अधिक मान्य रहा है। बरसों तक राजिम मेला देखने जाना एक उपलब्धि मानी जाती रही है। राजिम के आसपास रहने वाले जन भी अपने रिश्तेदारों को कहा करते थे `ले .. मेला बखत आबे।`

छत्‍तीसगढ के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार लेखक श्री विनोद साव जी का संक्षिप्‍त जीवन परिचय

विनोद साव

जन्म : २० सितंबर १९५५ को दुर्ग में।

शिक्षा : एम. ए. ( समाजशास्त्र )

पता : `सिद्धार्थ` मुक्तनगर, दुर्ग ( छत्तीसगढ़ ) ४९१००१

फोन : मो. ९३०११४८६२६ (का.) ०७८८ २८९७०६१

प्रकाशन : पहल, ज्ञानोदय, वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, लोकायत और अक्षरपर्व में कहानियों का प्रकाशन।

पुस्तकें : दो उपन्यास-चुनाव, भोंगपुर-३० कि.मी.। चार व्यंग्यसंग्रह-मेरा मध्यप्रदेशीय हृदय, मैदान-ए-व्यंग्य, हार पहनाने का सुख और आत्मघाती आत्मकथा। संस्मरण व रिपोर्ताज का एक संग्रह-आखिरी पन्ना। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन।

पुरस्कार : अट्टास सम्मान : श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन के लिए यह सम्मान २८ मार्च १९९८ को रवीन्द्रालय, लखनऊ में प्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल द्वारा दिया गया।

वागीश्वरी पुरस्कार : श्रेष्ठ उपन्यास लेखन के लिए यह पुरस्कार १६ जुलाई १९९९ को संस्कृति भवन, भोपाल में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा उपन्यास `चुनाव` के लिए प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवरसिंह के हाथों दिया गया।

जगन्नाथरॉय शर्मा स्मृति पुरस्कार : २४ दिसंबर २००३ को जमशेदपुर में वरिष्ठ समालोचक डॉ. शिवकुमार मिश्र एवं खगेन्द्र ठाकुर द्वारा दिया गया।

दूरदर्शन : दूरदर्शन के लिए लिखे गए हास्य-धारावाहिक `जरा बच के` का प्रसारण।

विशिष्ट : साहित्य लेखन के अतिरिक्त एक प्रखर वक्ता के रुप में पहचान। दूरदर्शन, आकाशवाणी तथा विभिन्न मंचों पर व्यंग्य रचनाओं का पाठ। अखबारों एवं पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन जारी है। कुछ पत्रिकाओं का संपादन किया है।

सम्प्रति : भिलाई इस्पात संयंत्र में अनुभाग अधिकारी।


तब राजिम की चारों दिशाओं से बैल गाड़ियों का काफिला पहुंचा करता था। इनमें ज्यादातर भैंसा गाड़ा वाले होते थे जो कई कई दिनों और रातों का सफर तय करके सुदुर क्षेत्रों से मेला देखने के लिए पहुंचा करते थे। मंद गति से चलने वाले ऐसे भैंसा गाड़ा के पीछे पैदल चलने वाले मेला दर्शनार्थियों के झुंड के झुंड किसी भी गांव में मुंह अंधेरे ही दिख जाते थे। जो राजिम की ओर जा रहे होते थे। पचासों मीलों की दूरी को गा्रमवासी जिस परिश्रम, धैर्य, और उत्साह के साथ चला करते थे वह विस्मयकारी था। लोकसंस्कृति की यह चेतना मनुष्य को कितने निर्लिप्त भाव से अपनी मंजिल तक ले जाती है।

राजिम नगर के पास आने पर पहुंचने वालों का उत्साह और भी बढ़ता जाता था। लोगों की उमंगरी किलकारियों को सड़क पर सहज ही देखा और सुना जा सकता था। तब नदी के भीतर खुली रेत पर मेले स्थल में पहुंचते ही मेले की छटा आए हुए लोगों की थकान को हर लेती थी। दिन भर मेला घूमने और रात भर सिंगल मशीन के टूरिंग टॉकीजों में पिक्चर देखने का आनंद कितना था यह तो आज भी पूछने पर बताया नहीं जा सकता। जबकि इन सिनेमा स्थलों का यह हाल था कि बीस रील वाली फिल्म की कौन सी रील आगे लगी है कौन सी पीछे कुछ कहा नहीं जा सकता था। मसलन `उपकार` फिल्म देखने वाला दर्शक प्राण को गोली खाकर मरते हुए पहले देखता था और `कसमे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या` गाना गाते हुए उसे बाद में देखता था। नदी तट पर मेले स्थल में रात बिताने, ईंट की सहायता से अपने चूल्हे तैयार कर लेने और उसमें जर्मन के बगोना में अपने लिए भात रांध लेने और मेले में मिरचा, पताल, धनिया खरीद कर उसकी चटनी बनाकर उसे गरम गरम भात के साथ खाकर वहीं रेत पर सो जाने का उसका अपना सुख किसी स्वर्ग के सुख के समान हुआ करता था।


राजिम के इस मेले में छत्तीसगढ़ की आत्मा समा जाया करती थी। फिर ता-उम्र इस मेले को देख लेने वाले की छाती फूली होती थी कि उसने भी राजिम मेला देखा है।


एक लम्बे गौरवमयी इतिहास के बाद भी आज तक राजिम छत्तीसगढ़ का एक सर्वसुविधायुक्त तीर्थ स्थान नहीं बन पाया है। और ऐसे समय में भी नहीं बन पा रहा है जब अपना राज पा लेने और क्षेत्रीय अस्मिता की पहचान का हल्ला जोरों पर है। यह हल्ला रोज रोज होता है कि `यह छत्तीसगढ़ का प्रयागराज है`। यह भी श्रेय लूटा जाता है कि असली प्रयाग (इलाहाबाद) में तो केवल दो नदियां दृष्टव्य हैं एक तो गुप्त है पर यहां (राजिम में) तो जिन तीन नदियों का संगम है वे तीनों दृष्टव्य हैं। असली त्रिवेणी संगम तो राजिम में है। पर त्रिवेणी होने के बाद भी जल का संकट यहां इतना गहराया है कि पानी की धार को खोजना पड़ता है। इन नदियों को पानीदार बनाने के लिए वैज्ञानिक स्तर पर जो काम शासन से करवाया जाना था वह कभी नहीं करवाया जा सका। वर्ष के अधिकांश महीनों में ये नदियां सूखी रहती हैं किसी बरसाती नाले के समान। इसके त्रिवेणी संगम को देखने से यहां केवल रेत और गोटर्रा पत्थरों का संगम ही दीख पड़ता है।


कुलेश्वर महादेव का दर्शन करने के लिए लम्बे समय तक रेत पर चलना एक थका देने वाली कसरत है। ले देकर मेला मनाने और मेले में तीर्थ यात्रियों के स्नान के लिए पानी को बांधा गया है। अस्थि विसर्जन कार्यक्रम को कर पाने में छत्तीसगढ़ का यह प्रयागराज जिस ढंग से फ्लाप हुआ है उसके पीछे पानी का यही संकट है। जब हम अपनी नदियों से पानी की धार ही पैदा नहीं कर पाए तब हमारे पुरखों की अस्थियां बहाने वाली और उनको तारने वाली वह पतित पावनी वैतरणी हम कहां से लाएंगे? इसके समीप बसने वाला चंपारण भी विशेष आकर्षण पैदा नहीं कर सका।

छत्तीसगढ़ में हमारे सबसे हल्ला बोल तीर्थ स्थान राजिम का यह हाल है। बड़े उत्साह से लोग आज भी राजीवलोचन और राजिमबाई तेलिन का दर्शन करने या पिकनिक मनाने के लिए राजिम पहुंचते हैं। पर मेला पर्व को छोड़कर साल के शेष समय में देखा जाए तो वहां यात्रियों के लिए कोई विशेष सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। रेलवे का वही एक शताब्दी पुराना धमतरी लाइन जिसमें राजिम के लिए छुक छुक गाड़ी चलती है। सड़क मार्ग का यह हाल था कि अभनपुर से राजिम की सोलह किलोमीटर की सड़क वर्षों तक जर्जर पड़ी थी। अभी बनी है। जबकि यहां के विधायक बड़े नामी मुख्यमंत्री हो चुके थे।


अब इसे कुंभ बनाने की तैयारी चल रही है। जब वैदिक युग से ही कुंभ के चार स्थान नियत हैं तब इक्कीसवी सदी में किस तरह राजिम को कुंभ घोषित कर दिया जाए यह विचार एक छलावा है। कल को कुलेश्वर महादेव को ज्योतिर्लिग में शामिल किए जाने की कोई आवाज उठेगी और देश में शंकराचार्य की एक पदवी यहां के लिए स्वीकृत किए जाने का हल्ला उठेगा तब क्या होगा ? धर्म और संस्कृति अब संस्कृति कर्मियों के नहीं राजनेताओं के हाथ होते है और उनके हाथों में हर सांस्कृतिक मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा बनने में देर कितनी ?


बल्कि इसे कुंभ बनाने का हवाला देखकर कुछ असंगत प्रयोग किए जा रहे है। अब यहां नागा बाबाओं की भीड़ एकत्रित की जा रही है। पिछले बरस एक नागा बाबा के शिश्न में बांधकर कार को उससे खिंचवाया गया था। राजिम के कुछ प्रबुद्धजनों ने ऐसे विकृत प्रयोग का विरोध भी किया था। आवश्यकता इस बात की है कि स्थानीय पंडों और पुजारियों को ही जोड़कर राजिम मेले के पारम्परिक रुप को परिष्कृत किया जावे, मेला स्थल को और भी सुविधा सम्पन्न बनाया जावे न कि बाहर से बुलाये गये शैव, वैष्णव या नगा बाबाओं की अनावश्यक भीड़ एकत्रित कर उन पर करोड़ों रुपये फूंका जावे जिसकी कि राजिम में कभी परम्परा ही नहीं रही।


यदि यहां संस्कृति और पर्यटन को बढ़ावा मिलता है तो राजिमवासियों के रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। आज पर्यटन स्थल केवल एक मनोरंजन गाह भर नहीं होते ये बड़े व्यावसायिक केन्द्र भी बन सकते है। आखिरकार आज का पर्यटक राजिम मेले में अब भैंसा गाड़ी से तो नहीं जाएगा। उसकी आस्था और रुचियों में बदलाव आया है

विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग ४९१००१

मो. ९३०११४८६२६

हम प्रयास करेंगें कि श्री विनोद साव जी के व्यंग एव रचनांए नियमित रूप से इस ब्लाग पर प्रस्तुत होता रहे ।

क्या वट की जड और विदारीकन्द का तिलक किसी को वशीभूत कर सकता है?

9. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

- पंकज अवधिया


प्रस्तावना यहाँ पढे


इस सप्ताह का विषय


क्या वट की जड और विदारीकन्द का तिलक किसी को वशीभूत कर सकता है?


'वशीकरण' शब्द सदा ही से मुझे आकर्षित करता रहा है। कौन नही चाहेगा कि कुछ उपाय अपनाकर मनचाहे व्यक्ति को वश मे कर ले। तंत्र से सम्बन्धित बहुत सी पुस्तको मे मैने यह लिखा पाया कि वट की जड और विदारीकन्द को बराबर मात्रा के पीसकर तिलक के रूप मे इसे माथे पर लगाकर बाहर निकले तो जो देखेगा वही वशीभूत हो जायेगा। कौतूहलवश मैने इसे आजमाया। वट की जड तो आसानी से मिल गयी पर विदारीकन्द के लिये काफी मशक्कत करनी पडी। तिलक का कोई असर नही दिखा। मैने जब ख्यातिलब्ध तांत्रिको से यह चर्चा की तो उन्होने बताया कि सस्ते साहित्य मे आधी-अधूरी जानकारी होती है यदि आपको इन वनस्पतियो का महत्व जानना है तो आप महंगे साहित्य पढे। मैने हजारो रुपये खर्च कर मूल ग्रंथ खरीदे पर फिर भी पूरी जानकारी नही मिली। इन ग्रंथो मे भी बडे-बडे दावे थे पर इनका कोई वैज्ञानिक आधार नही था। तांत्रिक अपनी बात पर अडे रहे पर न तो उन्होने इसे करके दिखाया और न ही असफलता के कारण गिनाये।


बाद मे जब मैने पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण आरम्भ किया तो पारम्परिक चिकित्सको से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। मैने उनके सामने यह बात रखी तो उन्होने ऐसे पारम्परिक नुस्खो के विषय मे बताया जिनमे वट की जड और विदारीकन्द को मुख्य घटक के रूप मे मिलाया जाता है। इन दोनो वनस्पतियो को मिलाकर भी वे शक्तिवर्धक दवा बनाते है। छत्तीसगढ मे विदारीकन्द को पातालकुम्हडा कहा जाता है। ताकत की दवा के रूप मे यह वनवासियो के बीच लोकप्रिय है। पर इन दोनो का तिलक के रूप मे उपयोग नही होता है और वो भी वशीकरण के लिये। हाँ राज्य के पारम्परिक चिकित्सक अवश्य कहते है कि इन दोनो के आंतरिक प्रयोग से शरीर इतना आकर्षक हो जाता है कि कोई भी आकर्षित हो जाये।


पिछले दस से अधिक वर्षो मे मैने 55 से अधिक पुस्तको मे इस तिलक का वर्णन देखा है। मुझे लगता है कि यदि जमीनी स्तर पर यह सम्भव नही है तो इस तरह के दावे करके अंतोगत्वा तंत्र विज्ञान को ही क्षति पहुँचायी जा रही है। इसी तरह के दावो जैसे एक खुराक से कैसर जड से खत्म, से आयुर्वेद को भी नुकसान पहुँच रहा है। इस लेख के माध्यम से तंत्र विज्ञान के जानकारो से मै अनुरोध करना चाहूंगा कि वे आगे आकर इस तरह के दावो की सत्यता नयी पीढी को बताये। इस पर व्यापक चर्चा हो और झूठे दावो करने वालो को हतोत्साहित किया जा सके।


अगले सप्ताह का विषय़


क्यो कहा जाता है कि जहरीले साँप को देखते ही रुमाल सहित सभी कपडे उस पर डाल देना चाहिये?

प्रभात मर्मज्ञ : मंगत रविन्द्र

छत्तीसगढ के साहित्यकार - 1


छत्तीसगढ के चर्चित कहानीकार, लेखक श्री मंगत रविन्द्र का जीवन परिचय


आलेख- संजीव चंदेल

नाम मंगत रवीन्द्र है, ग्राम गिधौरी वास ।
थाना उरगा जिला कोरबा, ग्राम भैसमा पास ।।


Mangat सरिता की प्रवाहित धारा, समीर की निरंतरता, उदित रवि किरण, शशि की मनोहारी पुंज, इन्द्रधनुष की अनुपम छटा, ललना की ललक नारी की श्रद्धा एवं लज्जा, पुष्प की पावन परिमल, को कोई रोक नहीं सकता ऐसे ही एक साहित्यकार की साहित्यिक प्रतिभा, कलाकार की कला, चित्रकार की उदगम्य भावना, मुकुलित पुष्‍प की तरह विकसित होती है । आदरणीय श्रीयुत रवीन्द्र की प्रतिभा कली को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है ।

किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व एक दर्पण के समान होता है अंतर इतना है कि व्यक्ति दर्पण के सामने खडा होता है और वह हमारे सामने....... । हम अपना स्वरूप उस दर्पण में झांकते है जबकि उस दर्पण के सामने उसका व्यक्तित्व दिखाई देता है । आइए छत्तीसगढी भाषा के धनी श्रद्धेय श्रीयुक्त मंगत रवीन्द्र जी के जीवन दर्शन का संक्षिप्त अवलोकन करें । कहा गया है कि अब हम अपने बारे में सहीं-सहीं बतलाने में असमर्थ होते हैं तो क्या अन्य व्यक्ति के संदर्भ में विस्तार दे सकते हैं । असम्भव तो है फिर भी संक्षिप्त का सहारा लेते हैं और उसके सम्पूर्ण जीवन चित्र को शब्दों की लकीरों में अभिव्यक्त करते हैं । हमारे सामने उनका एक जीवन वृत ही दिखाई देता है जिससे सारी बातों का आंकलन किया जाता है ।


बाल्यावस्था एवं शिक्षा

श्री मंगत रविन्द्र जी बचपन से ही प्रतिभावान रहे हैं । शाला प्रवेश के पूर्व से ही इनमें चित्रकारी एवं मूर्ति कला की प्रतिभा पनप चुकी थी । कहा जाता है कि, शाला में भर्ती के प्रथम दिवस ही स्लेट पर स्वर-व्यंजन (वर्णमाला) को ज्यों का त्यों लिख दिये । इस अदृभुत प्रतिभा से आचार्य श्री रामदाउ शर्मा जी, विस्मित होकर बालक की खूब प्रशंसा की एवं पीठ थपथपाकर आर्शीवाद दिये ।


बालक में आरंभ से ही इमानदारी, लगन चिंतन और नियमितता के गुण विद्यमान थे । यह स्वभाव आज भी देखने को मिलता है । ये सदैव अध्ययनरत मिलते हैं । इनके जीवन के अनेक गाथाएं उनका मेरा जीवन नामक कृति में मिलती है जिसे उन्होंने सनृ 1977 ई. में लिखा है । इससे आगे की कथा साक्षात्कार से प्राप्त होती है । श्री रवीन्द्र जी का सिद्धांत है कि, काम करने से धन, सदाचरण करने से सम्मान और अध्ययन करने से विद्या प्राप्त होती है ।


।। करत-करत अभ्यास ते, जडमति होत सुजान ।।

।। रसरि आवत जात ते, सील पर पडत निशान ।।


श्री रविन्द्र जी अपना एक पल भी गंवाना नहीं चाहते उन्हें समय का अच्छी तरह मूल्यांकन करना आता है । उनका मानना है कि जो व्यक्ति, वर्तमान की उपेक्षा करता है वह अपना सब कुछ खो देता है । अत: हर पल बडा कीमती होता है । उसे जीवन के सदुपयोग में लगाना चाहिए । जिसने समय को गंवाया समझा वह पारस खो दिया । समय गंवाना दुख का हेतु भी है खैर.........।


श्री रविन्‍द्र जी के माता-पिता भूमिहीन मजदूर थे । माता का नाम श्रीमती समारिन एवं पिता का नाम श्री मुनीराम था । पिता श्री अब इस धरती में नहीं है । ग्राम गिधौरी कोरबा में में जन्में बालक में अभूतपूर्व प्रतिभाथी । पाठशाला के पंजी के अनुसार इनके जन्म की तारीख 04/04/59 चार अप्रैल सन् उनसठ है । गरीबी के थपेडों को झेलते हुए सन् 1977 ई. में बडी मुश्किल से हायर सेकेण्डरी की परीक्ष उत्तीर्ण की । पाठयक्रम की कोई किताबनहीं होने पर सहपाठियों से मांगकर अध्ययन करते थे । कक्ष 11वीं बोर्ड में एक भी किताब नहीं थी, केवल श्क्षिकों का अध्यापन ही सफलता का कारण रहा ..........।


श्री मंगत रवीन्द्र जी, गरीबी के थपेडों को खूब सहा है । गरीबी के निर्दय भाव एवं उसके कू्र रूप को अति निकट से देखा है । अभावों की पीडा से कराहते जीवन का प्रतिपल बडा निर्दयी था । सडक पर मजदूरी करता मन, खेतों पर टपकती श्रम की बूंदे, हाथ पर कूदाल की बेंट, सिर पर मजदूरी और मजबूरी का बोझ.... उबड खाबड जमीन पर चलते नंगे पैर, 30 वर्षो की अवस्था तक रात की बासी का उदर क्षूछा की पूर्ति प्रत्येक शीत ऋतु में वस्त्राभाव के कारण ठिठुरता शरीर बिजली की बात तो दूर रही पढाई में चिराग भी साथ नहीं देता था । दिन को सूर्य की उदारता एवं रात में चूल्हे में घास-फूस जलाकर पढाई करना रवीन्द्र जी की तपस्या ही तो है ।


श्रममय जीवन की अकथनीय साधना..... साहित्य में परिणित होकर भाषा सम्मान जैसी उपाधि ही उनकी महान उपलब्धि है । छत्तीसगढी भाषा व्याकरण जैसे महान शोध ग्रंथ, छत्तीसगढी भाष के लिये श्रेष्ठ उपहार ही है । इसी तरह सतनामी समाज के महान गुरू एवं सतनाम के संस्थापक ज्ञानेश्वर ज्ञानमणि संत गुरू घासीदास जी की सम्पूर्ण लीलाओं को श्री प्रभात सागर नामक महाकाव्य रचकर साहित्य जगत की बडी सेवा की है ।


चाहे गरीबी हो मजदूरी, चित्रकारी, मूर्तिकला, या गाने-बजाने का विषय हो........सभी क्षेत्रों में स्मरणीय घटनाओं को स्मरण या अभिव्यक्त कर उनके चेहरे पर ग्लानि का भाव नहीं झलकता बल्कि संघर्ष का जोश तथा प्रसन्नता का भाव उभर आता है दीनता तो विरासत में मिली है इस क्रूर दानव से टकरा कर कभी चूर नहीं हुए बल्कि संघर्ष जारी रखा । रवीन्‍द्र जी मानते हैं कि सच में यही तो जीवन की परिभाषा है । शून्य जीवन में कर्मो के छंद, प्रसन्नता के रस तथ लगन के अलंकार से जीवन को श्रृंगार देना........यही श्रेष्ठ जीवन है ।


अमीरी की दोस्ती से अकर्मण्यता, उदासीनता तथ अहंकार पैदा हो सकते हैं जबकि गरीबी की दोस्ती से कर्म की प्रवृति, सरलता, सहजता, उदारता, संतोष, शांति उत्‍साह एवं श्रम की महत्ता को समझने की क्षमता आती है । गरीबी की खूशबू अमीरों के लिये नहीं बल्कि श्रमशील व्यक्ति के लिये प्रसन्नता दायक होती है वे कहते हैं कि हे गरीबों तुम श्रमिक हो तुम्‍हारे कुशल हाथो से संसार का निर्माण होता है सदैव प्रसन्न रहो ।

पारिवारिक जीवन

मजदूरी जिनके आय का मात्र साधन हो क्या वह महाविद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर सकता है । नहीं.... । परन्तु किशोर ने अपना रास्ता बदल कर ज्ञानार्जन की कडी गूंथता रहा । सन् 1977 ई. में शादी हुई तथा गृहस्थ जीवन बिताने लगे । अब तो गांवों में ही मजदूरी, जडी बूटियों द्वारा इलाज, चित्रकारी, मूर्ति गढना, गम्‍मत, रामायण एवं छत्‍तसगढी नाच पार्टी में रहकर गरीबी तथा मजदूरी की पीडा को थोडा-बहुत बिसरने का प्रयास करते रहे ।


अध्ययनशील व्यक्तित्व होने के कारण बचपन से ही अनेक पुराणों रामायण, गीता, भागवत, सुखसागर, प्रेमसागर, विश्रामसागर,आल्हा-रामायण, महाभारत, ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र एवं अन्य धर्मग्रंथों के विविध साहित्यों का अध्ययन पठन करते रहे । जहॉ भी अच्छे साहित्य का नाम सुनते वहां से मांगकर बालललक में अध्ययन करते एवं आज भी यह जिज्ञासा एवं ललक बनी हुई है । उन्हें शास्त्रों के अध्ययन । पारायण से आनंद की अनुभूति होती है । पुस्‍तक अपना मित्र है ऐसा मानते हैं इससे समय का सदुपयोग, ज्ञान की प्राप्ति एवं सुख की अनुभूति होती है । सागर की गहराई से मोती और शास्त्रों के पारायण से ज्ञान रूपी मणि प्राप्त होता है जो हृदय रूपी मंदिर को प्रभावान बनाता है ।


जीवन में नया मोड

इनके जीवन में विवाहापरान्त एक नया मोड अया । उच्च शिक्षा की कोई गुंजाइश नहीं थी अत: गांव में ही बढईगिरी, चित्रकारी मूर्तिकला (लघु रूप) एवं मजदूरी जैसे कलामय श्रम जीवन व्यतीत करने लगे । आयुर्वेदिक औषधि की सामान्य जानकारी होने के कारण लोगों का प्राथमिक उपचार करते रहे । इसे देखकर गांव के एक शिक्षक श्री गोपालसिंह कंवर जी ने आयुर्वेद रत्न की परीक्षा दिलाने का सुक्षाव दिया फलत: सन् 1978 ई. से अनवरत चार वर्षो तक वैध विशारद एवं आयुर्वेद रत्न का स्वाध्यायी अध्‍ययन कर हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद केन्द्र उ.प्र. से दोनों परीक्षाएं द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की । सन् 1977 ई. से 50 रूपये मासिक मानदेय के आधार पर प्रा. स्वा. केन्द्र करतला (जिला कोरबा) में जन स्वास्थ्य रक्षक का कार्य करने लगे । तब तक आर्थिक स्थिति में थोडा सुधार हो चुका था । कहा जाता है कि प्रकृति किसी को अकेला नहीं छोडती । क्या रवीन्द्रजी की स्थिति पूर्ववत् रहती ....... नहीं.....। सुधार एवं विकास आवश्यक है । काफी उतार-चढाव की जिंदगी बिताते हुए सन् 1991 ई. में विज्ञान सहायक शिक्षक के पद पर शा. उ.मा. शा. कापन (अकलतरा) जिला जांजगीर चाम्पा में प्रथम नियुक्ति हुई यहीं से इनकी साहित्यिक सेवा की कली विकसित होती है । तरूण साहित्य समिति जांजगिर एवं दल्हा साहित्य विकास परिषद अकलतरा के सानिध्य में रहकर साहित्य के प्रति रूचि गहराती गई । वरिष्ठ साहित्यकार श्री विद्याभूषण मिश्र, डॉ. विजय राठौर, श्री मुकुन्दलाल साहू प्रो. केशरवानी जी एवं अकलतरा के सम्मानीय श्री सतीश पांडेय (द.सा.वि.परिषद के अध्यक्ष) श्री रमेश सोनी, संजीवन चंदेल जी का विशेष सहयोग एवं स्‍नेह मिलता रहा है ।


भारतेन्दु साहित्य समिति बिलासपुर की सदस्यता ने इन्हें अधिक साहित्य साधना के लिये प्रेरित किया । सर्वश्री रामनारायण शुक्ल, पालेश्वर शर्मा, पं. श्यामलाल चतुर्वेदी जी एवं अनेक साहित्यकारों का आशीर्वाद मिलता रहा । त्रैमासिक पत्रिका के कुशल सम्पादक श्री नंदकिशोर तिवारी जी ने इनकी प्रतिभा को परखा । एवं इनकी रचनाओं को अनवरत प्रकाशित करते रहे । इसी तरह साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था सेवाजली अकलतरा के सचिव श्री रवीन्द्रकुमार सिंह बैस जी (कवि/शिक्षक) एवं अध्यक्ष श्री लवकुमार सिंह चंदेल जी ने रवीन्द्र जी को अपनी संस्था की सम्मानीय सदस्यता दी तथा साहित्यिक सेवा के लिये प्रथ‍म बार सम्मानित किये । इसी तरह छत्तीसगढ लोक कला मंच आस्‍था कला मंच अकलतरा ने इसकी कला प्रतिभा से प्रभावित होकर प्रथम सम्मान दिया ।


आज इनकी रचनाएं विभिन्‍न शीर्षस्‍थ पत्र-पत्रिकाओं तथा आकाशवाणी बिलासपुर से प्रकाशित तथ प्रसारित हो रही है । लगभग 200 से अधिक काव्य संकलनों में इनकी रचनाएं छप गई हैं ।


मिलनसार, सहज, सरल, स्वभाव मृदूभाषी, सततअध्ययनरत एकनिष्ठ साधक श्री रविन्द्र् जी का लघु ग्राम कापन साधना स्थल रहा है और इसी तपोभूमि में रहकर अपंजीकृत स्थानीय प्रकाशन काव्य हंस सेवा सदन कापन से इनकी छोटी -छोटी किताबें छपती रहीं । जिनका आथ्रिक व्यय स्वयं वहन करते रहे । आज भी काव्य ‍य साधना अध्यापन के साथ जारी है । इनकी निम्न किताबें जारी हो चुकी हैं :-


1. नवरात्रि गीत 1993

2. दोहा मंजूषा संकलन 1993

3. छत्तीसगढी भाषा व्याकरण 1993, 2000, 2006

4. होली के रंग गोरी के संग 1995

5. माता सेवा 1997

6. गीत गंगार 1998

7. मयारू बर मया 1999

8. आधुनिक विचार 2000

9. सुंगध धारा 2001

10. सतनाम चालीसा 2002

11; रतनजोत 2002

12. चमेली डारा 2004

13. श्री परदेशीबाबा : एक दर्शन 2005

14. गुडढिढा 2006

15. कंचनपान 2006

16. काव्य उर्मिला 2006

17. श्री सतनाम सुधा 2006

18. श्री सतनाम पूजा एवं विवाह पद्धति 2007

19. श्री प्रभातसागर (महाकाव्‍य) 2007

20. गुलाबलच्छी (प्रेस में)


इस तरह श्री रवीन्द्र जी लेखन कार्य में जुडे साहित्य की खूब सेवा कर रहे हैं । सन् 1979 से 1993 तक ग्राम पंचायत गिधौरी (कोरबा) में उपसरपंच के पद पर भी बडी कुशलता पूर्वक कार्य कर चुके हैं । सागदीपूर्ण जीवन बिताने वाले अध्यापन कार्य से जुडे युवा कवि नि:संदेह छत्तीसगढी भाषा के संदर्भ में (इनकी रचना नहीं है) उनकी जुबान से हमेशा प्रस्फूटित होता है:-


।।छत्तीसगढ के कन्हार माटी, पीउरा रंग मटासी ।।

।। गुरमटिया के मोटहा चउर, गजब मिठाथे बासी ।।

।। जीयव मूड उठाके रेंगव छाती ठोक ।।

।। पढव लिखव बोलव छत्‍तीसगढी गोठ ।।

।। साग जिमी कांदा, अमसुरहा कढी ।।

।। अब्‍बड मयारू हे, भाखा छत्तीसगढी ।।


श्री रविन्द्र जी संगीत एवं ज्योतिष पर आस्‍था रखते हैं । समय-समय पर इनकी अनेक रचनाऍ (गीत, कविता, कहानी, रूपक आलेख्‍) अकाशवाणी बिलासपुर से प्रकाशित होती है । अभी तक इन्‍हें 39 सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्‍त हो चुके हैं । इनका छत्तीसगढी भाषा व्याकरण रविशंकर विश्व विद्यालय रायपुर के पाठ्यक्रम एम.ए. पूर्व में संदर्भ ग्रंथ के रूप में शामिल है ।


इस तरह श्री रवीन्द्र जी छत्तीसगढी एवं हिन्दी के सच्चे साधक, कर्मठ व्यक्तित्व सादा जीवन बिताने वाले कलम के परम साधक है । आगे खूब लिखते रहे हमारी मंगल कामना है । परमात्मा इन्हें दीर्घ जीवन दे एवं संसार में कीर्ति प्राप्त करे । इनकी एक वाणी के साथ शब्दों के सीमान्त में.......


।। शब्‍द भाव लखहिं जिन भाई । बदलहि दिशि रवि दशा सुहाई ।

।। माया जीवन मोक्ष दे ज्ञाना । सत रूप होय सुविज्ञ बखाना ।।


संजीव चंदेल

(आदरणीय मंगत रविन्द्र जी से साभार)

जगार : हल्बी महागाथा

जगार : हल्बी महागाथा

छत्तीसगढ की राजधानी रायपुर के मोतीबाग में विगत कई वर्षों से जगार उत्सव का आयोजन किया जाता है । जिसमें उपस्थित होने के सुअवसर भी प्राप्त हुए, विगत रविवार को टैक्नोक्रेट रवि रतलामी जी एवं संजीत त्रिपाठी जी से मुलाकात में चर्चा के दौरान जगार उत्सव की महक को हमने महसूस भी किया ।

जगार बस्तर के हल्बी बोली बोलने वाले अधिसंख्यक आदिवासियों का उत्सव है । यह सामूहिक रूप से मनाया जाने वाला बस्तर का सांस्कृतिक आयोजन है । इसका आयोजन आदिवासी ग्रामवासी मजरा-टोला के सभी लोग जुर-मिल कर करते हैं । कहीं कहीं तो दो-चार गांव के लोग सामूहिक रूप से बीच वाले किसी गांव के गुडी-चौपाल में जगार गान आयोजित करते हैं, इसके लिए जगार गीत गाने वाली हल्बी गुरूमाय को नरियर देकर आमंत्रित किया जाता है । जगार स्थल को पारंपरिक भित्तिचित्रों व बंदनवारों से सजाया जाता है । देव प्रतिष्ठा एवं माता दंतेश्वरी का आवाहन पूजन अनुष्ठान किया जाता है । इस आयोजन का प्राण जगार गान होता है जिसे गुरू माय धनकुल वाद्ययंत्र के सुमधु‍र संगीत के साथ प्रस्तुत करती है ।

धनकुल वाद्य यंत्र मटकी, सूपा एवं धनुष के सम्मिलित रूप से बना गोंडी वाद्य यंत्र है जिसे गुरू माय ही बजाती है और स्वयं अपने स्वर में जगार गीत गाती है । जगार गीतों के संबंध में लाला जगदलपुरी जी का मत है कि बस्तर का जगार गान हिन्दू देवी देवताओं पर केंन्द्रित हल्बी महाकाव्य है जो पीढी दर पीढी वाचिक परम्परा में चौथी शताब्दि से आजतक गाई जा रही है जिसमें शिवपुराण के प्रसंग, सागर मंथन के प्रसंग व कृष्ण गाथा प्रसंग को लयबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाता है ।

भारत में भीलों के बीच गाथा परम्परा के इस रूप को मैं साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित भगवानदास पटेल जी की पुस्तक 'भारथ' का हिन्दी अनुवाद 'भीलो का भारत' में जीवंत होते पढ चुका हूं । जिसमें छोटा मारवाड के भीलो के बीच वाचिक परम्परा में गाए जाने वाले महाभारत का अद्भुत रूप प्रस्तुत हुआ है ।

जगार उत्सव की ऐतिहासिकता के संबंध में कहा जाता है कि यह बस्तर में चौथी से छठवी शताब्दि के मध्य वर्तमान छत्तीसगढ व उडीसा सीमा क्षेत्र में फैले हल्बी बोली बोलने वाले आदिवासियों के बीच आरंभ हुआ था और तब से आजतक यह उत्सव बस्तर के भीलों में प्रचलित है । बस्तर में तीजा जगार, अष्टमी जगार, लछमी जगार व बाली जगार मनाया जाता है । तीजा जगार में शिव पुराण के आख्यानों का गायन, अष्टमी जगार में कृष्ण कथा, लछमी जगार में समुद्र मंथन की कथा व बाली जगार में तंत्र-मंत्र चमत्कार साधना का गायन होता है ।

जगार बस्तर का धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजन है जो बस्तर की संस्कृति, सामाजिक परिवेश एवं धार्मिकता की मनोहारी झांकी है । आज यह अपने नागर स्वरूप में जगार उत्सव के रूप में मोती बाग, रायपुर में उपस्थित है ।

जगार के चित्र व विवरण आदरणीय रवि रतलामी जी के ब्लाग में देखा जा सकता है ।

संजीव तिवारी

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?
- पंकज अवधिया

इस सप्ताह का विषय
क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?
बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है।

आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञान भी इन उपयोगो को मान्यता देता है। यही कारण है कि न केवल भारत बल्कि दुनिया भर के पुस्तकालयो मे ढेरो शोध-पत्र इस वनस्पति पर उपलब्ध है। देश के दूरस्थ अंचलो मे यह वनस्पति आज भी लाखो रोगियो को आराम पहुँचा रही है।
न केवल छत्तीसगढ बल्कि देश के अन्य राज्यो मे भ्रमण के दौरान मुझे कई बार सफेद फूलो वाले दुर्लभ कहे जाने वाले भटकटैया को देखने का अवसर मिला। कौतूहलवश मैने खुदाई भी करवायी पर नतीजा सिफर ही रहा। बाद मे मैने जब इसका उपयोग करने वाले पारम्परिक चिकित्सको को इस खुदाई और नाकामी के बारे मे बताया तो उन्होने स्पष्ट किया कि इस वनस्पति को पा लेना ही खजाने को पाने जैसा है। इसे सामान्य भटकटैया की तुलना मे औषधीय गुणो मे अधिक समृद्ध माना जाता है। कैंसर जैसे जटिल रोगो की चिकित्सा मे इसे मुख्य घटक के रूप मे दवा मे मिलाया जाता है। छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सक तो सिकल सेल एनीमिया की चिकित्सा मे इस दुर्लभ वनस्पति का प्रयोग करते है। पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि खजाने वाली बात के कारण अब यह बडी मुश्किल से मिलती है। वे मुझसे इंन स्थानो के विषय मे न लिखने का अनुरोध करते रहे। मैने इसकी तस्वीरे ली और थोडा लिखा अपने शोध आलेखो के माध्यम से ताकि आधुनिक विज्ञान भी इस पर प्रयोग कर सके।

आम तौर बहुत सी दुर्लभ वनस्पतियो से ऐसी बाते जुडी हुयी होती है। अक्सर इन बातो के कारण वनस्पति के अस्तित्व के लिये खतरा पैदा हो जाता है। मै अभी तक के अनुभवो के आधार पर यह कह सकता हूँ कि गडे खजाने वाली बात सही नही लगती है पर विज्ञान का छात्र होने के नाते इन बातो की असलियत जानने के लिये सफेद भटकटैया की खोज और खुदाई मै जारी रखना चाहूंगा। यदि इसके नीचे आपको कभी खजाना मिला हो तो बताये?
अगले सप्ताह का विषय
क्या बट की जड और विदारीकन्द का तिलक किसी को वशीभूत कर सकता है?





छत्तीसगढ गौरव : रवि रतलामी

छत्तीसगढ, दिल्ली व हरियाणा से एक साथ प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'हरिभूमि' में 13 फरवरी 2008 को सम्पादकीय पन्ने पर यह आलेख प्रकाशित हुआ है जिसकी फोटो प्रति व मूल आलेख हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं :-

“जन्म से छत्तीसगढ़िया, कर्म से रतलामी. बीस साल तक विद्युत मंडल में सरकारी टेक्नोक्रेट के रुप में विशाल ट्रांसफ़ॉर्मरों में असफल लोड बैलेंसिंग और क्षेत्र में सफल वृहत् लोड शेडिंग करते रहने के दौरान किसी पल छुद्र अनुभूति हुई कि कुछ असरकारी काम किया जाए तो अपने आप को एक दिन कम्प्यूटर टर्मिनल के सामने फ्रीलांस तकनीकी-सलाहकार-लेखक और अनुवादक के ट्रांसफ़ॉर्म्ड रूप में पाया. इस बीच कंप्यूटर मॉनीटर के सामने ऊंघते रहने के अलावा यूँ कोई खास काम मैंने किया हो यह भान तो नहीं लेकिन जब डिजिट पत्रिका में पढ़ा कि केडीई, गनोम, एक्सएफ़सीई इत्यादि समेत लिनक्स तंत्र के सैकड़ों कम्प्यूटर अनुप्रयोगों के हिन्दी अनुवाद मैंने किए हैं तो घोर आश्चर्य से सोचता हूँ कि जब मैंने ऊँधते हुए इतना कुछ कर डाला तो मैं जागता होता तो पता नहीं क्या-क्या कर सकता था?” यह शब्द हैं छत्तीसगढ के राजनांदगांव में 5 अगस्‍त 1958 को जन्में भारत के जानेमाने इंटरनेट विशेषज्ञ व तकनीशियन रविशंकर श्रीवास्तव के । हिन्दी इंटरनेट व ब्लाग को भारतीय पृष्टभूमि में लोकप्रिय बनाने वाले अतिसक्रिय नेट टेक्नोक्रैट रवि शंकर श्रीवास्तव बीस सालों तक एमपीईबी में इलेक्ट्रिकल इक्यूपमेंट मैन्टेनेंस इंजीनियर के रूप में कार्य कर चुके हैं वे वहां से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर पिछले सालों से इंफरमेशन टेक्नालाजी के क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्य कर रहे हैं ।

रवि रतलामी हिन्दी को इंटरनेट में स्थापित करने के लिए अपने सामान्य व विशिष्ठ प्रयासों में निरंतर जुटे रहे जिसे वे उंघते और जागते हुए प्रयास कहते हैं । इसी क्रम में इन्होंनें अपने तकनीकी अनुभवों को तकनीकी पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा बांटना शुरू किया जिससे भारत के इंटरनेट व सूचना तकनीकी के क्षेत्र के काम में एक अभूतपूर्व क्रांति आने लगी । इनके सैकडों तकनीकी लेख भारत की प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे । इन्होंने इस क्षेत्र में अपने ज्ञान व शोध कार्यों को निरंतर नया आयाम दिया है । इनके कम्प्यूटर साफ्टवेयरों व इंटरनेट प्रयोगों में हिन्दी भाषा को पूर्णत: स्थापित करने के अपने दृढ निश्चय व प्रतिबद्धता के उद्देश्य के कारण ही लिनिक्स आपरेटिंग सिस्टम के पूर्ण हिन्दीकरण स्वरूप मिलन 0.7 (हिन्दी संस्करण) को जारी किया जा सका एवं गनोम डेस्कटाप के ढेरों प्रोफाईलों का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया गया । लिनिक्स सिस्टम के रवि जी अवैतनिक – कार्यशील सदस्य हैं । कम्प्यूटर में हिन्दी प्रयोग का यह प्रयास भारत के अधिसंख्यक हिन्दी भाषा-भाषी जन के लिए एक नया सौगात है इससे देश में कम्प्यूटर अनुप्रयोगों में काफी वृद्धि हुई है एवं देश में सूचना क्रांति का विकास हिन्दी के कारण संभव होता दिख रहा है क्योंकि ऐसे साफ्टवेयरों के प्रयोग से अंग्रेजी से डरने वाले कर्मचारी एवं सामान्य जन भी कम्प्यूटर के प्रयोग में रूचि दिखलाने को उत्द्धत हुए हैं ।

हिन्दी या स्थानीय भाषा में कम्प्यूटर आपरेटिंग सिस्टम व साफ्टवेयर के विकास से व्यक्ति के मूल में अंग्रेजी के प्रति सर्वमान्य झिझक दूर हो जायेगी क्योंकि हिन्दी या स्थानीय भाषा में संचालित होने व हेल्प मीनू भी उसी भाषा में होने के कारण सामान्य पढा लिखा व्यक्ति भी कम्प्यूटर प्रयोग कर पायेगा । यहां यह बात अपने जगह पर सदैव अनुत्तरित रहेगा कि भारत जैसे गरीब देश में कम्प्यूटर व इंटरनेट में हिन्दी या स्थानीय भाषा के प्रयोग को यदि प्रोत्साहन दिया जाए तो क्या मजदूरों को काम मिलेगा ? भूखों को रोटी मिलेगी ? पर इतना तो अवश्य है कि जैसे टीवी, एटीएम व मोबाईल और मोबाईल नेट पर मीडिया का प्रयोग इस गरीबी के बाद भी जिस तरह से बढा है और लोगों के द्वारा अब इसे विलासिता के स्थान पर आवश्यकता की श्रेणी में रखा जा रहा है । इसे देखते हुए इन सबके आधार में कम्प्यूटर आपरेटिंग सिस्टम व साफ्टवेयरों का हिन्दीकरण व स्थानीय भाषाकरण की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता ।

कम्प्यूटर पर हिन्दी का प्रयोग विगत कई वर्षों से हो रहा है, कहीं कृति देव, चाणक्य तो कहीं श्री लिपि या अन्य फोन्ट-साफ्टवेयर हिन्दी को प्रस्तुत करने के साधन हैं । इन सभी साधनों के प्रयोग करने के बाद ही आपके कम्प्यूटर में हिन्दी के दर्शन हो पाते हैं । इन साफ्टवेयरों को आपके कम्प्यूटर में डाउनलोड करने, संस्थापित करने एवं कहीं कहीं कुजी उपयोग करने या अन्य उबाउ तकनिकी के प्रयोग के झंझट सामने आते हैं और प्रयोक्ता हिन्दी से दूर होता चला जाता है किन्तु यूनिकोड आधारित हिन्दी नें इस मिथक को तोडा है । आज विन्डोज एक्सपी संस्थापित कम्प्यूटर यूनिकोड यानी संपूर्ण विश्व में कम्प्यूटर व इंटरनेट में मानक फोंट ‘मंगल’ हिन्दी को प्रदर्शित करने के सहज व सरल रूप में उभरा है जिसे अन्‍य आपरेटिंग सिस्टमों नें भी स्वीकारा है । जिसके बाद ही यूनिकोडित रूप से लिखे गये हिन्दी को वेब साईटों या कम्प्यूटर में देखने के लिए किसी भी साफ्टवेयर को संस्थापित या डाउनलोड करने की आवश्यकता अब शेष नहीं रही, मानक हिन्दी फोंट विश्व में कहीं भी अपने वास्तविक रूप में प्रदर्शित होने लगा है ।

वेब दुनिया व बीबीसी जैसे हिन्दी पोर्टलों के द्वारा पूर्व में कृति व अन्य फोंटों का प्रयोग किया जाता था जिसे देखने के लिए संबंधित फोंट को डाउनलोड करना पडता था इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए वेबदुनिया नें अपना फोंट यूनिकोडित कर लिया । यूनिकोडित हिन्दी के प्रयोग को अब भारत के पत्रकारों नें भी स्वीकार करना प्रारंभ किया है क्योंकि यह तकनिक समाचारों को सीधे वेब पोर्टल में प्रस्तुति एवं प्रकाशन के लिए सक्षम बनाता है और यह सुविधा स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता कर रहे व्यक्तियों व लेखकों के लिए तो अब अतिआवश्यक हो गया है ।

90 के दसक में जब इंटरनेट नें भारत में पाव पसारना प्रारंभ किया था तब भिलाई स्पात संयंत्र व अन्य स्थानीय संयंत्रों में तकनीकी सहयोग के लिए भिलाई आने वाले विदेशियों के लेपटाप में इंटरनेट कनेक्शन कानफिगर करते हुए हमने देखा है कि जर्मनी एवं जापान जैसे छोटे देश के निवासियों के लेपटाप में कम्प्यूटर आपरेटिंग सिस्टम उनके देश की भाषा में ही होता है । वे बोलते व कार्य करते हैं, अंग्रेजी भाषा में किन्तु कम्प्यूटर का प्रयोग वे अपने देश की भाषा में करते हैं । उस समय हम सोंचा करते थे कि वह दिन कब आयेगा जब भारत में भी हिन्दी आपरेटिंग सिस्टम का प्रचलन हो पायेगा । माईक्रोसाफ्ट व लिनिक्स नें हमारे इस स्वप्न को पूरा करने में सराहनीय कदम उठाया है और इस पर हो रहे प्रयोगों से मन को सुकून मिला है ।

इन सबके नेपथ्य में रवि रतलामी जैसे व्यक्तियों का योगदान है, हिन्दी के प्रयोग को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बढावा देने की प्रक्रिया सामान्य अनुभव से दृष्टिगत भले ही न हो किन्तु हिन्दी नें शनै: शनै: विकास किया है और इसके लिए रवि रतलामी जैसे धुरंधरों नें काम किया है ।

विश्व में हिन्दी भाषा के ताकत को माईक्रोसाफ्ट नें बखूबी पहचाना है इस कारण उसने भी अपने साफ्टवेयरों व आपरेटिंग सिस्टमों को हिन्‍दी में परिर्वतित करना प्रारंभ कर दिया है । माईक्रोसाफ्ट नें हिन्दी पर हो रहे नित नव प्रयोगों में टेक्नोक्रैट रवि शंकर श्रीवास्तव के महत्व को स्वीकारते हुए इंटरनेट के हिन्दीकरण व प्रोग्राम डेवलपमेन्ट के साथ समुदाय की समस्याओं के समाधान के लिए दिये जानेवाले माइक्रोसाफ्ट के मोस्ट वैल्युएबल प्रोफेशनल एवार्ड के लिए उन्हें चुना । एमवीपी संसार भर के 90 से भी ज्यादा देशों से चुने गये ऐसे विशिष्ट तकनीकी लोगों को दी जाने वाली उपाधि है जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से अपने तकनीकी ज्ञान, अनुभव को समुदाय में बाँट कर उन्हें समृद्ध किया है। आम जन के लिए पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा लगातार लेख लिखने, कार्यशालाओं में शिरकत करने के साथ ही रवि नें जून 2004 में ‘रवि रतलामी का हिन्दी ब्लाग’ प्रारंभ किया जिसमें उनके द्वारा नियमित रूप से आम घटनाओं के साथ-साथ हिन्दी कम्यूटिंग व तकनीक से जुड़ी जानकारियों पर लेख लिखे जा रहे हैं । इनके इस ब्लाग से अनगिनत लोगो नें इंटरनेट पर हिन्‍दी का प्रयोग सीखा तकनीकी जानकारियां आम हुई । हिन्दी के इस अतिलोकप्रिय ब्लाग के महत्व का आंकलन इस बात से लगाया जा सकता है कि 2006 में इसे माइक्रोसॉफ्ट भाषा इंडिया ने सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग से नवाजा ।

‘रवि रतलामी का हिन्दी ब्लाग’ के अतिरिक्त रवि रतलामी ‘रचनाकार’ और ‘देसीटून्‍ज’ नाम के साईट में भी हिन्दी के अपने कौशल को प्रस्‍तुत कर रहे हैं । इन दोनों साईटों के संबंध में कहा जाता है कि ‘रचनाकार’ जहाँ पूरी तरह से गंभीर साहित्यिक ब्लॉग है, वहीं ‘देसीटून्‍ज’ में व्यंग्यात्मक शैली के कार्टून्स और केरीकेचर्स से आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएँगे ।‘ हिन्दी साहित्य में रूचि रखने के कारण इन्होंने हिन्दी कविताऍं, गजल व व्यंग लेखन को भी आजमाया है जो अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं । रवि जी कई हिन्दी व अंग्रेजी के तकनीकि पत्रिकाओं में अब भी नियमित स्तभ लेखन करते हैं ।

रवि रतलामी अपने जन्म भूमि छत्तीसगढ की सेवा में भी पिछले कई वर्षों से लगे हुए थे । कम्प्यूटर में हिन्दी अनुप्रयोगों में गहन शोध करते हुए रवि नें छत्तीसगढी भाषा के आपरेटिंग सिस्टम पर भी कार्य किया एवं अंतत: इसे सफलतापूर्वक पूर्ण कर लिया । सरकार एवं जनता के द्वारा छत्तीसगढ में सूचना प्रौद्यौगिकी के बेहतर व सफलतम प्रयोग को देखते हुए यह आपरेटिंग सिस्टम हम छत्तीसगढियों के लिए और भी महत्वपूर्ण हो गया है इससे कम्प्यूटर का प्रयोग सरल हो जायेगा । धान खरीदी, ग्रामपंचायतों में भविष्य में लगने वाले कियोक्स टचस्क्रीन-कम्प्यूटर, च्‍वाईस सेंटरों आदि में अपनी भाषा में संचालित कम्प्यूटर को चलना व समझना आसान हो पायेगा ।

रवि रतलामी के इस योगदान पर छत्तीसगढ की प्रतिष्ठित साहित्य हेतु सर्मपित संस्था सृजन सम्मान द्वारा वर्ष 2007-08 के लिए ‘छत्तीसगढ गौरव सम्मान’ देने की घोषणा की गई है । सृजन सम्मान नें श्री रतलामी के कार्य को सूचना और संचार क्रांति के क्षेत्र में राज्य के 2 करोड़ लोगों की भाषा-छत्तीसगढ़ी के उन्नयन और विकास के लिए परिणाममूलक और दूरगामी प्रभाव वाला निरूपित किया है, जिसकी आज महती आवश्यकता है । हमें रवि रतलामी के प्रयासों पर नाज है क्योंकि विश्व में हिन्दी को कम्प्यूटर पर स्थापित करने में जो योगदान रवि नें किया है उसे चंद शब्दों में बांधा नहीं जा सकता । आज यही योगदान उनके द्वारा छत्तीसगढी के लिए किया जा रहा है जिसका तात्कालिक लाभ एवं आवश्यकता यद्धपि समझ में नही आ रहा हो किन्तु यह एक आगाज है आगे इस तकनीकी व भाषा को अपने प्रगति के कई और सोपान रचने हैं । सृजन के इस शिल्पी की उंगली पकड कर हमें संचार तकनीकी के क्षेत्र में भी समृद्ध बनना है ।
(ब्लाग जगत में उपलब्ध जानकारियों के आधार पर )

संजीव तिवारी

श्री रवि रतलामी जी को सृजन-सम्मान के द्वारा एक प्रतिष्ठापूर्ण समारोह में 'छत्तीसगढ गौरव' सम्मान
दिनांक 17.02.2008 को प्रदान किया जायेगा रवि भाई को अग्रिम शुभकामनायें ।
श्री रवि रतलामी जी 17.02.2008 को सुबह
9 से संध्या 7 तक रायपुर में रहेंगें , निर्धारित कार्यक्रमों के बीच संभावना है कि हम दोपहर 11 से 2 तक उनके साथ रह कर हिन्दी चिट्ठाकारी पर पारिवारिक चर्चा करें एवं इस सम्मान समारोह के सहभागी बनें । रईपुर वाले हमर बिलागर भाई मन घलो संग म रहितेव त अडबड मजा आतीस, त आवत हव ना भाई मन .....

कौन नामवर सिंह ?


स्‍थानीय दैनिक छत्तीसगढ द्वारा समसामयिक स्वतंत्र साप्ताहिक लघु पत्रिका इतवारी अखबार के 10 फरवरी के अंक में मेरी एक छत्तीसगढी लघु कथा प्रकाशित हुई है यहॉं मेरे इसी ब्लाग में. हमारे ब्लाग पाठक साथियों के लिए हम यहां मूल प्रकाशन व साथ ही हिन्दी रूपांतर प्रस्तुत कर रहे हैं :-


पूर्णिमा के दिन मेरे घर में भगवान सत्यनारायण कथा-पूजा का आयोजन किया गया । इस पूजा में मेरा पडोसी आमत्रण देने के बाद भी नहीं आया । उसके बाद भी मेरी पत्नी पडोसन सहेली के प्रेम में मग्न कथा समाप्ति के बाद सबको प्रसाद देकर प्रसाद को मेरे टेबल में रखे कागज से सुन्दर पुडिया बनाकर कामवाली बाई के हाथ पडोसन के घर भिजवाई ।
कथा पूजा के बाद मैं फुरसद से कथावाचक ब्राह्मण को भोजन-दान-दक्षिणा दे पूर्ण संतुष्ट करा कर आत्म प्रसंशा में मग्न अपने आप को *बकिया तिवारी एवं वेदपाठी ब्राह्मण बतलाते हुए कथावाचक के चेहरे में अपने आप को उससे ब्राह्मणत्व में एक अंगुल उंचे बैठाता हुआ, भावों को उसके चेहरे पर पढता हुआ अपने टेबल–कुर्सी में बैठा । मेरे होश उड गये !
मेरे समस्त प्रकाशित रचनाओं को मेरी पत्नी पहले ही नदी में प्रवाहित कर चुकी थी, पर मेरे इंदौर भास्कर में प्रकाशित एक कहानी के संबंध में डॉ. नामवर सिंह नें मुझे समीक्षात्मक पत्र भेजा था । उस पत्र को मैं अपने टेबल के उपर में ही रखा था, क्योंकि सत्यनारायण जी की कथा सुनने आने वालों की उस पत्र पर नजर पडे और मेरा सम्मान बढे ।
टेबल से पत्र गायब था । घर के सभी सदस्यों को मैं पूछ डाला, पता चला प्रसाद उस पत्र की पुडिया में बंध कर पडोसी के घर पहुंच गया है । मैं तुरन्त पडोसी के घर गया, पर कैसे कहूं, प्रसाद को कैसे वापस मांगूं । दरवाजे में खडे सोंचता रहा । वैसे ही दन से प्रसाद की पुडिया बाहर सडक पर । पडोसन नें मेरी पत्नी पर बडबडाते हुए प्रसाद को बाहर फेंका । मैं खुशी के अतिरेक में बावरा प्रसाद की पुडिया की ओर दौडा । मुझसे पहले ही गली का कुत्ता उसे अपने मुह में दबा लिया, अरे-तरे कहते तक पुडिया तार हो गई । मेरा क्रोध सातवे आसमान पर ।
मैं बडा सा पत्थर उठाया और कुत्ते के सिर पर दे मारा । कॉंय ! कॉंय ! मेरा अंतस रो दिया उस पत्र को मैं अपने बीते दिनों की निसानी के रूप में रखा था, हाय ! घर वापस लौट गया, कुत्ते का कॉंय कॉंय बंद नहीं हुआ था, चोट गहरी थी ।
घर आकर सोंचने लगा । वाह रे सत्यनारायण के भक्त तुम्‍हारी पत्नी नें प्रसाद उसे दिया जिसके मन में भगवान के प्रति श्रद्धा नहीं है । वह पडोसन लीलावती-कलावती के कहानी से बेखबर प्रतिस्पर्धी रंजिश के कारण भगवान के प्रसाद को फेंक दी । मैं कथा-पूजा कराने वाला उस निरीह प्राणी के सिर को मार दिया, कुत्ता बडे चाव से उस प्रसाद को खा रहा था, वो क्या जाने कि प्रसाद मेरे सम्मान में बंधा है । उसे प्रसाद को खाने नहीं दिया !
वह कुत्ता बिचारा क्या जाने कौन नामवर सिंह और कौन लीलावती ?


संजीव तिवारी

दुर्ग में वकालत की थी बाबा आमटे नें

हिंगनघाट, महाराष्‍ट्र के एक जमीदार परिवार में जन्‍में बाबा आमटे के समाजसेवा के कार्यों को संपूर्ण विश्‍व पहचानता है । उनके पावन पदचरण हमारे छत्‍तीसगढ के दुर्ग में भी पडे थे । बाबा दुर्ग जिला न्‍यायालय में दो वर्ष एवं दुर्ग के ही तहसील न्‍यायालय बेमेतरा में एक वर्ष तक वकालत कर चुके हैं ।

बाबा आमटे सन् 1936 में नागपुर से बेमेतरा आए तब उनकी उम्र 22 वर्ष थी । सहज सरल और सादगी के धनी बाबा का नगर में काफी सम्‍मान था । यहां रहकर न सिर्फ उन्‍होंने वकालत की बल्कि समाजसेवा में भी पूरे तीन साल गुजारे ।


आज जब इस समाचार को भिलाई भास्‍कर नें प्रमुखता से प्रकाशित किया तो चारो तरफ यह चर्चा होती रही, बार एसोसियेशन नें आज महाकवि निराला की याद एवं बसंत पंचमी के अवसर पर एक कार्यक्रम रखा था वहां भी बाबा को याद किया गया एवं भावभीनि श्रद्धांजली दी गई । वरिष्‍ठ व बुजुर्ग अधिवक्‍ता मित्रों से हमने जब इस संबंध में पूछा तो वे बाबा के संबंध में अपने-अपने अनुभव बताये ।


यहां के कई अधिवक्‍ता बाबा से मिलने यदा कदा उनके आश्रम जाते रहते थे तब वे यहां के अधिवक्‍ताओं एवं अन्‍य व्‍यक्तियों के संबंध में कुशलक्षेम पूछते थे । उन्‍हें दुर्ग से बेमेतरा के बीच एक कस्‍बे की खोये की जलेबी बहुत पसंद थी, दुर्ग या बेमेतरा से कोई भी जब उनसे मिलने जाता था तो वे देवकर की खोये की जलेबी की याद जरूर करते थे ।


शुरूआती दिनों की यादे मनुष्‍य के मानस पटल पर गहरे से पैठती हैं, दुर्ग स्थित अपने किराये के घर से कोर्ट तक के रास्‍ते के सभी रोड, बिल्डिंगों यहां तक कि मुनगा के पेड की भी याद अपने दिल में संजोये बाबा नें छत्‍तीसगढ की सेवा के लिए अपने छोटे पुत्र प्रकाश व पुत्रवधु डॉ. मंदाकिनी को बस्‍तर के आदिवासियों के लिए दिया है एवं रायपुर-बिलासपुर मार्ग स्थित बैतलपुर में कुष्‍ट अस्‍पताल का भी निर्माण कराया है ।


भारत के सच्‍चे सपूत बाबा आमटे को छत्‍तीसगढ की अंतिम श्रद्धांजली ।

11/02/08 कतरने काम की : बात पते की

संजीव तिवारी

क्या पीले पुष्प वाले पलाश से सोना बनाया जा सकता है?

7. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

- पंकज अवधिया

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इस सप्ताह का विषय

क्या पीले पुष्प वाले पलाश से सोना बनाया जा सकता है?

पलाश (परसा, ढाक, टेसू या किंशुक) को हम सभी जानते है। इसके आकर्षक फूलो के कारण इसे जंगल की आग भी कहा जाता है। प्राचीन काल ही से होली के रंग इसके फूलो से तैयार किये जाते रहे है। अब पलाश के वृक्षो मे पुष्पन आरम्भ हो रहा है। देश भर मे इसे जाना जाता है। लाल फूलो वाले पलाश का वैज्ञानिक नाम ब्यूटिया मोनोस्पर्मा है। पहले मै एक ही प्रकार के पलाश से परिचित था। बाद मे वानस्पतिक सर्वेक्षण के दौरान मुझे लता पलाश देखने और उसके गुणो को जानने का अवसर मिला। लता पलाश भी दो प्रकार का होता है। एक तो लाल पुष्पो वाला और दूसरा सफेद पुष्पो वाला। सफेद पुष्पो वाले लता पलाश को औषधीय दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी माना जाता है। वैज्ञानिक दस्तावेजो मे दोनो ही प्रकार के लता पलाश का वर्णन मिलता है। सफेद फूलो वाले लता पलाश का वैज्ञानिक नाम ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा है जबकि लाल फूलो वाले को ब्यूटिया सुपरबा कहा जाता है।

मुझे सबसे पहले पीले पलाश के विषय मे छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सको से पता चला। ज्यादातर पारम्परिक चिकित्सको ने अपने पूरे जीवन मे कुछ ही पेड देखे थे। मुझे नागपुर यात्रा के दौरान वर्धा सडक मार्ग पर इसे देखने का सौभाग्य मिला। वहाँ लोगो ने बताया कि हाल ही मे किसी तांत्रिक ने पूरे पेड की कीमत लाखो मे लगायी और जड सहित इसे उखाडा गया। तब मुझे इसके तंत्र सम्बन्धी महत्व के बारे मे पता चला। मैने वैज्ञानिक दस्तावेजो को खंगाला पर कुछ खास नही मिला। मैने अपने अनुभवो को शोध आलेखो के रुप मे प्रकाशित किया।

इन शोध आलेखो का जब मैने हिन्दी मे अनुवाद कर कृषि पत्र-पत्रिकाओ मे प्रकाशित करना आरम्भ किया तो देश भर से पत्र आने लगे। पंजाब से आये एक विस्तृत पत्र मे दावा किया गया था कि पीले पलाश से सोना बनाया जा सकता है। बाद मे मुझे फोन पर बताया गया कि यह जानकारी प्राचीन भारतीय साहित्यो मे लिखी है। उन्होने इसकी फोटोकापी भी भेजी। इसे पढकर लगा कि यह जानकारी आधी-अधूरी है। बाद मे जब मैने पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की तो उन्होने बताया कि इससे सोना बनने की बात ने ही इस दुर्लभ वृक्ष के लिये खतरा पैदा कर दिया है। लोग वनो मे इसे खोजने जी-जान लगा दे रहे है। चूँकि पुष्पन के समय ही इसकी पहचान होती है इसलिये इस समय बडी मारामारी होती है।

पारम्परिक चिकित्सा मे पीले पलाश का प्रयोग बहुत सी जटिल बीमारियो के उपचार मे होता है। पारम्परिक चिकित्सक आम पलाश के औषधीय गुणो को बढाने के लिये इसका प्रयोग करते है। वे सोने से अधिक अपने रोगियो की जान की परवाह करते है। यही कारण है कि पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही वे इन्हे दिखाते है। अधिक्तर वृक्ष घने जंगलो मे है। मुझे लगता है कि इनकी चिंता जायज है। पीले पलाश से सोना बनता है या नही इसके लिये प्राचीन साहित्यो मे वर्णित जानकारियो के आधार पर आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोग कर सकते है। पहले तो यह जरुरी है कि जो लिखा गया है उसका सही अर्थ समझा जाय। हो सकता है कि किसी दूसरे सन्दर्भ मे सोने की बात कही गयी हो। पहले भी कई प्रकार की वनस्पतियो पर ऐसी ही गलत जानकारियो के कारण संकट आते रहे है। पीले पलाश की वैज्ञानिक पहचान स्थापित की जाये। और यदि पारम्परिक चिकित्सक चाहे तो इनकी रक्षा मे उनकी मदद की जाये। तंत्र से जुडे लोगो के लिये टिशू कल्चर तकनीक की सहायता से पुराने वृक्षो से नये असंख्य पौधे तैयार करने शोध हो ताकि इन्हे बचाते हुये माँग की पूर्ती की जा सके। पीढीयो से पीले पलाश के विषय मे चर्चा है। इसका सत्य जानने के लिये अब और देर करने की जरुरत नही है।

अगले सप्ताह का विषय

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

छत्तीसगढी ‘नाचा’ के जनक : दाउ मंदराजी

स्‍वर्गीय दुलार सिंह दाउ जी के मंदराजी नाम पर एक कहानी है । बचपन में बडे पेट वाला एक स्‍वस्‍थ बालक दुलारसिंह आंगन में खेल रहा था । आंगन के ही तुलसी चौंरा में मद्रासी की एक मूर्ति रखी थी । मंदराजी के नानाजी नें अपने हंसमुख स्‍वभाव के कारण बालक दुलार सिंह को मद्रासी कह दिया था और यही नाम प्रचलन में आकर बिगडते-बिगडते मद्रासी से मंदराजी हो गया ।

दाउजी का जन्‍म जन्‍म 1 अप्रैल 1911 को राजनांदगांव से 7 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम रवेली के सम्‍पन्‍न मालगुजार परिवार में हुआ था । उन्‍होंनें अपनी प्राथमिक शिक्षा सन 1922 में पूरी कर ली थी । गांव में कुछ लोक कलाकार थे उन्‍हीं के निकट रहकर ये चिकारा और तबला सीख गये थे । वे गांव के समस्‍त धार्मिक व सामाजिक कार्यक्रमों भे भाग लेते रहे थे । जहां कहीं भी ऐसे कार्यक्रम होते थे तो वे अपने पिताजी के विरोध के बावजूद भी रात्रि में होने वाले नाचा आदि के कार्यक्रमों में अत्‍यधिक रूचि लेते थे ।


इनके पिता स्‍व.रामाधीन दाउजी को दुलारसिंह की ये रूचि बिल्‍कुल पसंद नहीं थी इसलिए हमेंशा अपने पिताजी की प्रतारणा का सामना भी करना पडता था । चूंकि इनके पिताजी को इनकी संगतीय रूचि पसंद नहीं थी अतएव इनके पिताजी नें इनके रूचियों में परिर्वतन होने की आशा से मात्र 24 वर्ष की आयु में ही दुलारसिंह दाउ को वैवाहिक सूत्र में बांध दिया किन्‍तु पिताजी का यह प्रयास पूरी तरह निष्‍फल रहा । आखिर बालक दुलारसिंह अपनी कला के प्रति ही समर्पित रहे । दाउ मंदराजी को छत्‍तीसगढी नाचा पार्टी का जनक कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।


लोककला में उनके योगदान को देखते हुए छत्‍तीसगढ शासन द्वारा प्रतिवर्ष राज्‍य में दाउ मंदराजी सम्‍मान दिया जाता है जो लोककला के क्षेत्र में राज्‍य का सवोच्‍च सम्‍मान है । छत्‍तीसगढ में सन् 1927-28 तक कोई भी संगठित नाचा पार्टी नहीं थी । कलाकार तो गांवों में थे किन्‍तु संगठित नहीं थे । आवश्‍यकता पडने पर संपर्क कर बुलाने पर कलाकार कार्यक्रम के लिए जुट जाते थे और कार्यक्रम के बाद अलग अलग हो जाते थे । आवागमन के साधन कम था, नाचा पार्टियां तब तक संगठित नहीं थी । ऐसे समय में दाउ मंदराजी नें 1927-28 में नाचा पार्टी बनाई, कलाकारों को इकट्ठा किया । प्रदेश के पहले संगठित रवेली नाचा पार्टी के कलाकरों में थे परी नर्तक के रूप में गुंडरदेही खलारी निवासी नारद निर्मलकर, गम्‍मतिहा के रूप में लोहारा भर्रीटोला वाले सुकालू ठाकुर, खेरथा अछोली निवासी नोहरदास, कन्‍हारपुरी राजनांदगांव के राम गुलाम निर्मलकर, तबलची के रूप में एवं चिकरहा के रूप में स्‍वयं दाउ मंदराजी ।


दाउ मंदराजी नें गम्‍मत के माध्‍यम से तत्‍कालीन सामाजिक बुराईयों को समाज के सामने उजागर किया । जैसे मेहतरिन व पोंगवा पंडित के गम्‍मत में छुआ-छूत को दूर करने का प्रयास किया गया । ईरानी गम्‍मत हिन्‍दू-मुस्लिम एकता का प्रयास था । बुढवा एवं बाल विवाह
मोर नाव दमांद गांव के नाम ससुरार गम्‍मत में वृद्ध एवं बाल-विवाह में रोक की प्रेरणा थी । मरारिन गम्‍मत में देवर-भाभी के पवित्र रिश्‍ते को मॉं और बेटे के रूप में जनता के सामने रखा गया था दाउजी के गम्‍मतों में जिन्‍दगी की कहानी का प्रतिबिम्‍ब नजर आता था ।


आजकल के साजों की परी फिल्‍मी गीत गाती है और गम्‍मत की परी ठेठ लोकगीत गाती है ऐसा क्‍यों होता है ? के प्रश्‍न पर दाउजी कहते थे - समय बदलता है तो उसका अच्‍छा और बुरा दोनों प्रभाव कलाओं पर भी पडता है, लेकिन मैनें लोकजीवन पर आधारित रवेली नाच पार्टी को प्रारंभ से सन् 1950 तक फिल्‍मी भेंडेपन से अछूता रखा । पार्टी में महिला नर्तक परी, हमेशा ब्रम्‍हानंद, महाकवि बिन्‍दु, तुलसीदास, कबीरदास एवं तत्‍कालीन कवियों के अच्‍छे गीत और भजन प्रस्‍तुत करते रहे हैं । सन् 1930 में चिकारा के स्‍थान पर हारमोनियम और मशाल के स्‍थान पर गैसबत्‍ती से शुरूआत मैनें की ।


सार अर्थों में दाउजी नें छत्‍तीसगढी नाचा को नया आयाम दिया और कलाकरों को संगठित किया । दाउजी के इस परम्‍परा को तदनंतर दाउ रामचंद्र देशमुख, दाउ महासिंग चंद्राकर से लेकर लक्ष्‍मण चंद्राकर व दीपक चंद्राकर तक बरकरार रखे हुए हैं जिसके कारण ही हमारी सांस्‍कृतिक धरोहर अक्षुण बनी हुई है ।


सापेक्ष के संपादक डॉ. महावीर अग्रवाल के ग्रंथ छत्‍तीसगढी लोक नाट्य : नाचा के अंशों का रूपांतर

संजीव तिवारी

डॉ. रमन का सम्‍मान, मानवीय मूल्‍यों का सम्‍मान है


छत्‍तीसगढ के मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह को भारत अस्मिता श्रेष्ठ सम्मान से अलंकृत किया जाना उनके लोकतंत्र के लिए दिये जाने वाले योगदान का सम्मान है । यह सम्मान डॉ.रमन सिंह को महारा्‍ट्र तकनीकी संस्थान नें लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए उनके प्रयासों के प्रतिफल के रूप में दिया/किया है ।

देश में सम्मानों की एक परम्परा रही है और समूची दुनिया में व्यक्ति विशेष के किसी क्षेत्र में किये जा रहे योगदान के लिए सम्मान किया जाता रहा है । हालांकि इधर भारत में सम्मानों को लेकर एक विवाद सा पैदा हो गया है, जिसकी प्रतिध्व‍वनि आपने हिन्दी ब्लागजगत में भी देखा था लेकिन यदि सम्मानित करने वाली संस्था के कद और उसकी सोंच को नजर अंदाज कर दिया जाए तो किसी व्यक्ति विशेष के कार्यों के सम्मान का सीधा मतलब तो यही होता है कि समाज उसके कार्यों का अनुकरण करे और समाज में मानवीय मूल्यों की स्थापना हो सके ।

आज समाज में जिस तरह से मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है, इसे बचाए रखने के लिए लोकतंत्र एक कारगर हथियार है क्योंकि वोटों की राजनीति से ही अपनी बात को रखा जा सकता है, लेकिन यह भी सच है कि लोकतंत्र को बचाए रखना भी एक बडी चुनौती है । व्यक्तिवादी राजनीति के वर्तमान दौर में लोकत्रांत्रिक मूल्यों की हिफाजत में लगे छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह का यह सम्मान देश की राजनीती में नये आयाम स्थापित तो करेगा ही साथ ही यह लोगों को इस बात के लिए प्रेरित भी करेगा कि आने वाली नस्लें उनका अनुसरण करें ।
डॉ. रमन को मिला यह सम्मान अमानवीय होते सामाजिक परिवेश के बरक्स मानवीय मूल्यों की स्थापना का सम्मान है ।

कतरने काम की : बात पते की

संजीव तिवारी

महर्षि महेश योगी चिर समाधि में लीन

छत्तीसगढ में रायपुर जिले के पाण्डुका गांव में जन्में योग और ध्यान को दुनिया के कई देशों तक पहुंचाने वाले आध्यात्मिक गुरू महर्षि महेश योगी आज नीदरलैण्ड में चिरनिद्रा में लीन हो गए । दुनियां में योग और आध्यात्‍म को नई बुलंदियों में पहुंचाने वाले महर्षि महेश योगी का असली नाम महेश प्रसाद वर्मा था । उनका जन्‍म 12 जनवरी 1917 को छत्तीसगढ के एक छोटे से गांव में हुआ था । महर्षि योगी नें आरंभिक पढाई छत्तीसगढ में एवं आगे की पढाई जबलपुर में की फिर उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि इलाहाबाद से प्राप्‍त किया । भारतीय वैदिक दर्शन नें उन्हें काफी प्रभावित किया और योग एवं वेद को उन्होंनें अपने जीवन में उतार लिया ।

साठ के दसक में मशहूर रॉक बैंड बीटल्स के सदस्यों के साथ ही वे कई बडी हस्तियों के आध्यात्मिक गुरू हुए और दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गए । पश्चिम में जब हिप्पी संस्कृति का बोलबाला था, तब महर्षि महेश योगी नें भावातीत ध्यान के जरिये दुनिया भर में अपने लाखों अनुयायी बनाए ।

40 व 50 के दशक में उन्होंने हिमालय में अपने गुरू से ध्यान और योग की शिक्षा लिया, अपने इसी ज्ञान के द्वारा महर्षि महेश योगी नें बेहतर स्वास्थ्य और आध्यात्मिक ज्ञान को बांटना प्रारंभ किया और दुनिया भर के लोग उनसे जुडते चले गए ।

दुनिया में अपने स्वयं के टीवी चैनलों व 150 देशों में लगभग पांच सौ स्कूलों एवं चार महर्षि विश्वविद्यालयों से भारतीय वैदिक परम्‍परा को दूर दूर तक फैलाने वाले योगी के पावन जन्मस्थली में भी लगभग 200 छात्रावासी बच्चे वैदिक परम्पराओं के अनुसार शिक्षा ग्रहण करते हैं ।
महर्षि महेश योगी के भारतीय वैदिक ज्ञान, भावातीत ध्यान व योग-आध्यात्‍म को देश के अतिरिक्त विदेशों में भी स्थापित करने के योगदान को भारत सदैव याद रखेगा ।

छत्‍तीसगढ के इस सपूत को अंतिम नमन ।

चना के दार राजा : बैतल राम साहू

ददरिया

छत्तीसगढ के लोकप्रिय ददरिया से हम आपको छत्तीसगढी व हिन्‍दी में परिचय करा रहे है । पढिये सुनिये एवं आनंद लीजिये छत्तीसगढी लोकगीत का :-

बटकी म बासी अउ चुटकी म नून
मैं गावत हौं ददरिया तें कान देके सुन ।
चना के दार राजा चना के दार रानी
चना के दार गोंदली कडकत हे,
टूरा हे परबुधिया होटल म भजिया धडकत हे ।

बागे बगैचा दिखेल हरियर
मोटरवाला नई दिखे बदेहंव नरियर । वो चना के दार ....

तरी पतोई उपर कुरता
रहि रहि के छकाथे तोरेच सुरता । वो चना के दार ....

नवा सडकिया रेंगेला मैना
दू दिन के अवईया लगाए महीना । वो चना के दार ....

चांदी के मुंदरी किनारी कर ले वो
मैं रहिथौं नवापारा चिन्‍हारी कर ले । वो चना के दार .

कांदा ये कांदा केवंट कांदा ओ
ये ददरिया गवईया के नाम जादा । वो चना के दार ....

चना के दार राजा चना के दार रानी
चना के दार गोंदली कडकत हे,
टूरा हे परबुधिया होटल म भजिया धडकत हे ।

बटकी में बासी (पके चांवल को डुबोने से बने) और चुटकी में नमक लेके मैं ददरिया गा रहा हूं तुम कान लगाकर सुनो ! चना का दाल है राजा, चना का दाल है रानी, चना के दाल एवं प्याज से बना हुआ भजिया तला जा रहा है । इस भजिये को होटल में वह प्रेमी लडका ‘धडक’ रहा है (यहां ‘धडकत हे’ शव्द का प्रयोग हुआ है छत्तीसगढी में खाने के भाव में आनंद जब मिल जाता है तब ‘धडकना’ कहा जाता है, यानी मजे से खा रहा है) जो किसी दूसरे प्रेयसी के प्रेम में अपना सुध-बुध खो बैठा ‘परबुधिया’ है ।

बाग और बगीचे सब हरे हरे दिख रहे हैं पर मेरा मोटर वाला (किसी किसी जगह यहां दुरूग वाला या प्रेमी के परिचय स्वरूप शव्दों का प्रयोग किया जाता है) प्रिय नहीं दिख रहा है मैने उसके आने के लिए भगवान को मन्नत स्वरूप नारियल चढाने का वादा किया है ।

प्रेमिका अपने प्रेमी के मन में बसे स्वरूप व कपडों का वर्णन करती है कि शरीर के नीचे अंग में पतोई (गमछा जिसे धोती जैसा पहना जाता है) एवं उपर में कुरथा (छत्तीसगढ में कमीज को कुरथा कहा जाता है जो रंग बिरंगी रहता है) है । रूक-रूक कर तुम्हारी याद आती है मेरे सब्र का बांध टूटता है ।

नये सडक में मैंना चल रही है प्रिय दो दिन में आने वाले थे पर महीना हो गया तुम नहीं आये हो । यहां मैना वह स्वयं है जो प्रिय के आने के आश में बार बार सडकों का चक्कर लगा रही है पर सडक प्रिय के बिना सूना है ।

चांदी के छल्ले में लकीर खींचकर चिन्ह बना लो मैं नवापारा में रहता हूं मुझे पहचान लो । प्रेमी शहर में भजिया धडकते हुए किसी और सुन्‍दरी से इश्क लडाने का प्रयास करता है और उसे पहचान स्वरूप उपनी अंगूठी देता है ।

शकरकंद को छत्तीसगढ में केंवट कांदा कहा जाता है क्योंकि यहां नदी के किनारे कछार में केंवट लोग ही शकरकंद लगाते हैं । छत्तीसगढ में इसे उबाल कर एवं सब्जी बनाकर खाया जाता है । ददरिया जो गाता है उसका नाम शकरकंद के मिठास की तरह ही चहूं ओर व्याप्त रहती है । ददरिया गाने के इसी फन के कारण युवा प्रेमी के जहां तहां प्रेमिकाएं मिल जाती है और उसकी मूल प्रेमिका इसी कारण चिंतित रहती है कि मेरा प्रिय परबुधिया है ।

वाद संवाद के वाचिक परंपरा में आबद्ध ददरिया व्यक्ति को प्रेम के रस में सराबोर कर झूमने और गाने को बार बार मजबूर करती है बगिया से उठती कोयल की कूक जैसी वाणी ददरिया में जान भरती है और सुनने वाला छत्तीसगढ के ग्रामीण परिवेश में खो सा जाता है ।

बैतल राम साहू के स्वर में संगीत के साथ इसका मजा लीजिये (कापीराईट के.के.कैसेट, रायपुर फोन न. 0771 2228898)
Bataki ma Basi.mp3

संजीव तिवारी

नीम के पुराने वृक्ष से रिसने वाला रस एक चमत्कारिक घटना है या नही?

6. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

-पंकज अवधिया

प्रस्तावना यहाँ पढे

इस सप्ताह का विषय

नीम के पुराने वृक्ष से रिसने वाला रस एक चमत्कारिक घटना है या नही?

कुछ वर्षो पहले मुझे इटारसी की एक सामाजिक कार्यकर्ता ने फोन किया कि पास के एक गाँव मे नीम के पुराने वृक्ष से पानी जैसा रस टपक़ रहा है और दूर-दूर से लोग एकत्र हो रहे है। मेला जैसा लगा है। पूजा शुरु हो गयी है। कुछ लोग बर्तनो मे इस पानी को भर कर ले जा रहे है। आप वनस्पति विशेषज्ञ है इस लिये इस पर कुछ टिप्पणी कीजिये। मैने अपने वैज्ञानिक मित्रो और दूसरे विशेषज्ञो से सलाह ली तो अपने-अपने विषय के आधार पर सबने अपने-अपने ढंग़ से इसकी व्याख्या की। पर सभी ने अपने जीवन मे यह घटना देखी थी। मैने अपने डेटाबेस का अध्ययन किया तो उससे भी रोचक जानकारी मिली। प्राचीन चिकित्सा प्रणालियो मे इसका वर्णन मिला।

प्राचीन सन्दर्भ साहित्यो के अनुसार इसे नीम का मद कहते है। यह लिखा गया है कि जिस तरह मदमस्त हाथी के मस्तक से मद निकलता है उसी तरह नीम से भी मद निकलता है पर यह कभी-कभी ही होता है। इस रस को त्वचा रोगो के लिये उपयोगी बताया गया है। बहुत से आयुर्वेदिक नुस्खो मे इस मद का उल्लेख मिलता है। देश के पारम्परिक चिकित्सक इस मद का आँतरिक प्रयोग भी करते है। मैने अपने वानस्पतिक सर्वेक्षण के आधार पर इस बात का दस्तावेजीकरण किया है कि कैंसर की चिकित्सा मे अन्य औषधीयो के साथ नीम के मद का बाहरी और आँतरिक प्रयोग होता है। घावो को धोने के लिये यह उपयोगी है।

आम लोगो विशेषकर अधिक उम्र वाले लोगो के पास इस विषय मे बहुत जानकारी है। चूँकि ऐसा कम ही होता है इसलिये नीम से पानी टपकने की बात सुनकर लोग उस ओर दौड पडते है। नीम वैसे ही हमारे जीवन से परिवार के सदस्य जैसे जुडा हुआ है। इटारसी के फोन के जवाब मे मैने यह जानकारी भेजी और कहा कि यदि इस घटना का लाभ उठाकर यदि कोई आम लोगो को लूट रहा है तो उसे हतोत्साहित करे। यदि आम लोग इसे ले जा रहे है और नीम की पूजा कर रहे है तो यह निज आस्था है उसे जारी रहने दे। यह भी कहा कि शहर के वैज्ञानिको को वहाँ ले जाये और विस्तार से अनुसन्धान करने का यह अवसर न छोडे। यदि सम्भव हो तो आधुनिक विज्ञान की कसौटी मे भी इस पारम्परिक ज्ञान को परखने प्रयोग कर ले। जिससे देश भर मे इस घटना की व्याख्या की जा सके। बाद मे उन्होने काफी जानकारी भेजी।

यही जानकारी छत्तीसगढ के बिलासपुर शहर मे जब वैसी ही घटना हुयी तो काम आयी। मैने हिन्दी और अंग्रेजी मे दसो लेख लिखे और देश भर मे प्रकाशित किये ताकि नयी पीढी इसकी व्याख्या कर सके। अब देश भर से पत्र आते है जिससे पता चलता है कि पूरे देश मे यह होता ही रहता है। तो क्या यह चमत्कार है? जब तक चमत्कार की व्याख्या न हो तब तक ऐसी घटनाओ को चमत्कार ही माना जाता है। यद्यपि हम नीम के मद के विषय मे बहुत कुछ जानते है फिर भी उन कारणो की पहचान जरुरी है जो इस प्रक्रिया के लिये उत्तरदायी है। अभी विशेषज्ञो का कार्य समाप्त नही हुआ।

अगले सप्ताह का विषय

क्या पीले पुष्प वाले पलाश से सोना बनाया जा सकता है?

परम्‍परा और नवीनता का संगम : नाचा 3

परम्‍परा और नवीनता का संगम : नाचा 1
परम्‍परा और नवीनता का संगम : नाचा 2

हिरमा की अमर कहानी : हिरमा की अमर कहानी में लेखक, निर्देशक हबीब तनवीर ने एक साथ अनेक मूल्‍यों के निर्वाह का प्रयत्‍न किया है । आदिवासियों की परम्‍परागत जीवन शैली और को ईश्‍वर मानने की अवधारणा का रेखांकन है । स्‍वयं राजा भी उसी प्रकार का मानवेत्‍तर व्‍यवहार प्रदर्शित करता है । हिरमादेव सिंह स्‍वतंत्र भारत में भी अपनी रियासत का अलग अस्तित्‍व अलग बनाए रखने के लिए कृत संकल्‍प है । यही कारण है कि वे उच्‍च अधिकारियों के समझाने या उनके अधिकारों को नजरअंदाज करने की हिम्‍मत दिखाते हैं । उनकी हठधर्मिता यहां तक बढती है कि वे राष्‍ट्पति से भी मिलने से इन्‍कार कर देते हैं । आदिवासी जनता की अपने राजा के प्रति आस्‍था प्राचीन मूल्‍यों के अनुरूप है । इसलिए राजा के साथ ही साथ उनके हजारों अनुयायी अपना ब‍लीदान देते हैं । नवीन दृष्टिकोण के रूप में आजादी के बाद हिरमादेव शासकीय नियमों के अनुसार स्‍थापित करने के लिए राजनेता, बडे अधिकारियों को दमन की खुली छूट देते हैं । जिसका परिणाम राजशाही के अंत के रूप में दिखाई देता है । प्रजातंत्र के साथ पनपती हुई नौकरशाही की भी रूपरेखा खींची गई है । कलेक्‍टर और उसकी पत्‍नी राज्‍य की अमूल्‍य धरोहर को हस्‍तगत करने का प्रयास करते हैं । इस प्रकार भ्रष्‍टाचार और लाल फीताशाही को उभारने का भी प्रयास है । आदिवासी समस्‍याओं की ओर ध्‍यान न देकर केवल अपना उल्‍लू सीधा करने की कोशिश न केवल आधुनिक शासन व्‍यवस्‍था का वरन् प्रजातंत्र का चिंतनीय दोष है । हबीब तनवीर इस रूप में प्रशंसा के पात्र हैं कि उन्‍होंने तथ्‍यों को सही परिप्रेक्ष्‍य में सामने रखने का साहस दिखाया है । भारतेन्‍दु हरिशचन्‍द्र पर डॉ. गिरीश रस्‍तोगी का यह सम्‍मानजनक कथन मुझे इस संदर्भ में हबीब तनवीर पर शत-प्रतिशत सही प्रतीत होता है, इन सारी परि‍स्थितियों के बीच भी अकेला व्‍यक्तित्‍व भारतेन्‍दु हरिशचन्‍द्र का उभरता है, जिन्‍होंने बडी तीव्रता से नाटक की माध्‍यमगत, कलागत विशेषताओं को पूरी तरह समझा ही नहीं, उसके लिए सामूहिक और योजनाबद्ध ढंग से एक सम्‍पूर्ण आन्‍दोलन की तरह काम किया । उन्‍होंने न केवल नाटक को युगीन समस्‍याओं, राजनैतिक-सामाजिक स्थितियों, राष्‍ट्ीय चेतना, जन-जागृति और मनुष्‍य की संवेदना से जोडा, बल्कि नाटक और रंगमंच के परस्‍पर संबंध और अनिवार्यता को समझते हुए नाट्यरचना भी की और रंगकर्म भी किया । मण्‍डली की स्‍थापना करके अभिनेता और निर्देशक के रूप में उनकी सक्रियता इसे प्रमाणित करती है ।

गम्‍मतिहा : दीपक चंद्राकर की शानदार प्रस्‍तुति ‘गम्‍मतिहा’ एक बेजोड प्रस्‍तुति है । परम्‍परागत शोषण के निम्‍नतर स्‍वरूप को इसमें भी दिखाया गया है । यह शोषण आर्थिक होते हुए भी किसान और मजदूरों का न होकर कलाकारों का है । यह कथावस्‍तु की नवीनता है क्‍योंकि अन्‍य सभी नाटकों में दलित वर्ग किसान या मजदूर ही हुआ करता है । यद्यपि ताना बाना पुराना है । नायक भी कला के प्रति कसक, अनुराग और समर्पण की भावना नें इसे अत्‍यधिक मार्मिक बना दिया है । कलाकरों की विश्‍व रंगमंच से जुडने की आकांक्षा का किस प्रकार दोहन किया जाता है इसका अत्‍यंत सजीव चित्रण है । एक ओर अन्‍तर्राष्‍ट्रीय मंचों से जुडे निर्देशक नामदास सांगसुल्‍तान की वह अमानवीय व्‍यंजना है जिसमें वह कलाकार से अनुरोध करता है कि अपने मृत कलाकार पुत्र, (जिसका निधन मंच पर अभिनय करते हुए हुआ है) की लाश को मंच के किनारे करके अपना प्रदर्शन जारी रखें । क्‍योंकि यह प्रदर्शन उसकी ख्‍याति, उसके इज्‍जत का सवाल है । दूसरी ओर वह अद्वितीय कलाकार है जो अपनी बडी जायजाद को भी कला के लिए समर्पित कर स्‍वयं निर्धन हो जाता है । छत्‍तीसगढ के लिए मदराजी दाउ का इस रूप में सम्‍मान के साथ स्‍मरण किया जाता है । आज भारत महोत्‍सव के नाम से छत्‍तीसगढ के कलाकारों की भी टोलियां देश विदेश का भ्रमण कर रही है पर उसके ख्‍यातिप्राप्‍त कलाकारों को क्‍या मिलता है विश्‍व के महानगरों में अपनी कला की पताका फहराने के बाद वे पुन: रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटकते दिखाई देते हैं । शोषण का यह रूप सचमुच कलाकरों के लिए ही नहीं, स्‍वयं कला के उत्‍थान के लिए एक प्रश्‍नचिन्‍ह है ।

(डॉ. महावीर अग्रवाल से साभार)

आधुनिक छत्‍तीसगढी लोक नाट्य पर हुए प्रयोगों एवं भव्‍य प्रस्‍तुतियों का क्रमिक विवरण :

चंदैनी गोंदा
सोनहा बिहान

चरणदास चोर व हबीब तनवीर की अन्‍य प्रस्‍तुतियां

लोरिक चंदा
कारी
सोन सरार
हरेली
हिरमा की अमर कहानी
दशमत कैना
लोरिक चंदा (द्वितीय संस्‍करण)
गम्‍मतिहा
देवारी

समय पर हम इन सभी प्रस्‍तुतियों के संबंध में विवरण प्रस्‍तुत करेंगें ।
पाठकों से अनुरोध है कि उपरोक्‍त नाट्य प्रस्‍तुतियां दूरदर्शन के राष्‍ट्रीय प्रसारणों एवं विश्‍व के कई स्‍थानों पर हुई है यदि आपने इनमें से किसी प्रस्‍तुति को देखा हो तो अपना अनुभव यहां बांटने की कृपा करें

संजीव तिवारी

परम्‍परा और नवीनता का संगम : नाचा 2

परम्‍परा और नवीनता का संगम : नाचा 1

कारी : रामहृदय तिवारी के निर्देशन में प्रस्‍तुत कारी इस श्रृंखला की एक महत्‍वपूर्ण प्रस्‍तुति है । प्रारंभ में परम्‍परागत छत्‍तीसगढी परिवार के रूप में विशेसर और कारी के सुखी दाम्‍पत्‍य जीवन की सुन्‍दर झांकी है । संतान विहीन दम्‍पत्ति की मानसिक पीडा, हास्‍य, परिहास का मनोहारी पुट, ग्रामीण जीवन में रामलीला या अन्‍य आयोजनों का महत्‍व, सभी कुछ लोकनाटय के अनुरूप है । पत्‍नी (कारी) के चरित्र पर आरोप लगने पर बिशेसर का विरोघ तथा अपने घरेलु जीवन में खुलापन सब कुछ छत्‍तीसगढ की संस्‍कृति के अनुरूप है । विशेसर की मृत्‍यु के पश्‍चातृ नाटक में आया मोड सर्वथा नवीन है । छत्‍तीसगढ अंचल में पति की मृत्‍यु के बाद छत्‍तीसगढी युवती का चूडी पहनकर दूसरा विवाह कर लेना सामान्‍य बात है । इसके विपरीत कारी का अपने सास और देवर के लिये त्‍याग सर्वथा नवीन प्रयोग है । अपने बच्‍चे की तरह देवर का पालन पोषण करने वाली कारी का गांव के अध्‍यापक मास्‍टर भैयया से न केवल मेलजोल वरन् पारिवारिक संबंध भी लोकापवाद की श्रेणी में आता है । यद्यपि ग्रामीण जीवन में एक बाहरी अध्‍यापक किसी विधवा युवती के साथ इतनी आत्‍मीयता प्रदर्शित नहीं करता परन्‍तु कारी के उच्‍च नैतिक चरित्र एवं पारिवारिक जीवन में इसे संभव बनाकर दिखाया गया है । ऐसा आदर्श इस परम्‍परागत समाज में एक अभिनव प्रयोग ही कहा जाएगा ।

वृद्धावस्‍था की कारी का देवरानी के सुखी पारिवारिक जीवन के लिये एकाकी जीवन यापन का निर्णय उसे और उंचाई तक पहुंचा देता है । कुल मिलाकर परंपरा और नवीनता का एक संगम दिखलाई पडता है ।

हरेली : हरेली में प्रकृति और मनुष्‍य का संबंध बहुत खूबसूरती के साथ दिखाया गया है । लक्ष्‍मण चंद्राकर की प्रस्‍तुति हरेली को भी लोगों ने खूब सराहा है । इसका नायक कंठी ठेठवार अपनी जाति के पारम्‍परिक व्‍यवसाय पशुपालन पर आसन्‍न संकट को दूर करने के लिए अपने प्राणों की भी बलि दे देता है । कहते हुए पेडों से चारागाह बस्‍ती से दूर होते चले जा रहे थे । इसके लिए जब उसने राजा बिंझवार का विरोध किया तो वह लडाई में मारा गया । परम्‍परागत रूढियों के अनुसार कंठी ठेठवार के प्राण उसके आंगन के एक पेड में बसते थे । इसलिए राजा ने छल से उस पेड को कटवा दिया था । कंठी ठेठवार की पत्‍नी जब अपने लडके को यह पूरी कहानी बताती है तो साथ में यह भी कहती है कि राज परिवार के किसी सदस्‍य के खून से सिंचित होने के बाद ही वह ठूंठ पुन: हरा हो जाएगा । अपने पिता की हत्‍या का बदला लेने के लिए कंठी ठेठवार का लडका बिंझवार के राज्‍य में जाता है । राजा की राजा की लडकी संवरी जो उसकी प्रेयसी होती है और बाद में पत्‍नी बन जाती है । इसलिए उसका लडका जो राजा के यहां प्रतिशोध की भावना से गया था, परन्‍तु राजा की लडकी जो उसकी पत्‍नी बनती है उसे अत्‍यधिक प्‍यार करने के बाद भी ठूंठ को हरा करने के लिए, वह अपनी पत्‍नी की बलि देता है । इस प्रकार इस कथा में परम्‍परागत रूढियों एवं प्रेम प्रसंग होते हुए भी वृक्षारोपण तथ पर्यावरण संरक्षण का एक संदेश है । यह प्रकृति प्रेम भले ही प्राचीन हो पर आज की आवश्‍यकता के अनुरूप उसे नये कलेवर में प्रस्‍तुत किया गया है ।

क्रमश: .... आगामी अंक में हबीब तनवीर के निर्देशन में प्रस्‍तुत हिरमा की अमर कहानी एवं गम्‍ममिहा

परम्‍परा और नवीनता का संगम : नाचा 3



डॉ. महावीर अग्रवाल से साभार

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