पिरामिडो, ममियो, अजायबघरों व मिथकों के अतिरिक्त काहिरा

महफूज रेस्तरॉं से निकलते हुए हमने वहां के मैनैजमैंट से पूछा कि इतने अच्छे और मशहूर रेस्तरॉं का नाम किसी साहित्यकार के नाम से कैसे कर दिया गया क्योंकि हमारे देश में तो साहित्यकारों के नाम से सार्वजनिक व सरकारी इमारतें होती है जिसकी पूछ परख साल में दो बार जयंती और पुण्यतिथि पर होती है. इसी बहाने सरकारी विभाग या चंद संजीदा लोग उस इमारत के बहाने उस साहित्यकार को याद कर लेते हैं. कट्टरपंथी स्लामिक राजनैतिक पार्टी मुस्लिम ब्रदरहुड के दमदार विपक्ष के बावजूद अरब में लिखने पढने वाले के नाम से रेस्तरॉं का खुलना अरब के साहित्य के प्रति लगाव की एक अलग छवि प्रस्तुत कर रहा था. प्रबंधन से जानकारी प्राप्त हुई कि यह रेस्तरॉं भारत के ओबेरॉय ग्रुप की है तो और भी खुशी हुई चलो हमारे देश में नोबेल पुरस्कार विजेता रविन्द्र नाथ के नाम पर कोई होटल या रेस्तरॉं हो कि ना हो यहां मिश्र में नोबेल विजेता के नाम पर ओबेरॉय ग्रुप नें कुछ उल्लेखनीय किया तो. साथ चल रहे मित्र नें बतलाया कि काहिरा के मुख्य सडक तलाल हर्ब स्ट्रीट में उसने एक स्थान सूचक पट्टी देखा था जिसमें मैमार अलशाय अल हिन्दी अर्थात हिन्दी टी हाउस लिखा था. यद्धपि वर्तमान में तलाल हर्ब स्ट्रीट में मैमार अलशाय अल हिन्दी जैसी कोई टी हाउस नहीं है. समय के गर्द में यह पट्टिका हमारे देश की याद दिलाते काहिरा के सडकों में टंगी है और इस स्थान पर भारतीय विदेश मंत्रालय का मौलाना आजाद सांस्कृतिक केन्द खोल दिया गया है, इस बात का हमें सूकून है.

कॉफी पीकर बाहर निकलने पर रास्ते के दुकानों में बिक रहे तिल्दा के चांवल नें पुनः ध्यान खींच लिया जो डेढ सौ रूपये किलो में बिक रहा था. छत्तीसगढ के रायपुर जिले का तिल्दा ब्लाक चांवल मिलों के लिए प्रसिद्ध है, हमारे ब्लॉगर साथी नवीन प्रकाश जी इसी नगर के समीप खरोरा से हैं और मैं भी इस नगर के लगभग तेरह किलोमीटर के फासले पर स्थित एक गांव का हूं. बचपन से तिल्दा के सासाहोली मिशन अस्पताल और चांवल मिलों के संबंध में सुनते आया हूं. सासाहोली मिशन अस्पताल के संबंध में तो पुरानी जानकारी पिछले दिनों तिल्दा में ही एक प्रांसीसी नागरिक से बातचीत करने और क्षेत्रीय दस्तावेजों को खंगालने से मिल गया था कि अंग्रेजों नें जब छत्तीसगढ में अपनी जडे जमानी शुरू की थी तो रायपुर से बिलासपुर सडक मार्ग से सिमगा के पास बैतलपुर फिर विश्रामपुर में चर्च की स्थापना कर ब्रिटैन के पादरियों की नियुक्ति की थी. इसके बाद रेल लाईन में रायपुर से बिलासपुर के मध्य तिल्दा में मिशनरी चर्च की स्थापना हुई और प्रदेश का पहला कुष्ट अस्पताल विश्रामपुर में और चर्च बैतलपुर मे अंग्रेजों के द्वारा खोला गया. तिल्दा व बैतलपुर के अस्पताल आज भी संचालित हैं और इन तीनों चर्चों का छत्तीसगढी भाषा, संस्कृति व परंपरा के दस्तावेजीकरण में अहम स्थान रहा है जिसके संबंध में फिर कभी चर्चा करेंगें अभी तो तिल्दा के दूसरे पहलू चांवल पर दिमाग अटका हुआ है. तिल्दा का चावल लगभग इन्ही दिनो से विदेशो मे महकता रहा है. छत्तीसगढ में इस पंचवर्षीय चुनाव में डॉ. रमन सिंह के जीत को जनता नें चांउर वाले बाबा की जीत कहा क्योंकि रमन सिंह नें धान का कटोरा कहे जाने वाले इस प्रदेश में गरीबों को तीन रूपये व एक रूपये किलों में चांवल मुहैया कराया. रमन के इस चमत्कार नें कांग्रेस के सभी रणनीतियों पर पानी फेर दिया और चांउर वाले बाबा नें चांउर का जलवा दिखा दिया. आज काहिरा में डेढ सौ रूपये  किलो तिल्दा के चांउर को बिकते देखकर तीन रूपये वाले चांउर बाबा बहुत याद आ रहे थे.

रास्ते में मित्र से जब हमने भारत और मिश्र के रिश्तों  की और निशानियों के संबंध में पूछा तो उन्होंने बतलाया कि काहिरा में डॉ.जाकिर हुसैन के नाम से भी एक महत्वपूर्ण स्ट्रीट है. अफ्रो एशियाई एकजुटता सम्मेलन के स्थानीय निवासी और भूगर्भशास्त्री डॉ.फंकरी लबीब नें अरूंधती रॉय के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘द गाड आफ स्माल थिंग‘ का अरबी में अनुवाद किया है इसके साथ ही अल आहर विश्वविद्यालय जहां मौलाना आजाद नें अपनी पढाई की है, में हिन्दी की पढाई होती है. इस विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ए.एम.अहमद नें दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी की है और वे धाराप्रवाह हिन्दी बोलते हैं. हम लाख प्रयाशो के बाद भी प्रोफेसर साहब से नहीं मिल पाये. खैर ठीक है हम ना सहीं कोई और भारतीय सैलानी जब काहिरा आये तो इनसे जरूर मिलें.

पिरामिडो, ममियो, अजायबघरों व मिथकों के अतिरिक्त मिश्र के सफर में जीवंत यादों को फिर हम कभी आपसे बांटेंगें जिसमें तमार ए हिन्द, बेलादी खुब्ज का मजेदार स्वाद लेते, काहिरा पर्यटन पुलिस से रूबरू होते, काहिरा मैट्रो की सैर करते हुए उमडते हमारे विचारों से आपको अवगत करायेंगें. इस बीच समय मिलेगा तो कनाडा भी जायेंगें क्योंकि हमारे पिछले पोस्ट पर अदा जी नें हमें कनाडा आमंत्रित किया है. उनके स्नेहिल आमंत्रण के लिए धन्यवाद सहित.

संजीव तिवारी

काहिरा में महफ़ूज़ और तिल्दा का चांवल

पिछले दिनों ब्लॉग जगत में अदा जी के घर के चित्रों को ब्लॉग में प्रस्तुत करने के संबंध में प्रकाशित एक पोस्ट पर सबने दांतो तले उंगली दबा ली थी और जिस प्रकार पाबला जी ने कनाडा यात्रा की वैसी यात्रा करने के लिए अनेक ब्लॉगर उत्सुक थे. कल पाबला जी हमारे पास आये तो हमने भी बिना पासपोर्ट वीजा के कनाडा यात्रा के गुर के संबंध में पाबला जी से पूछा पर वे बाद में बतलाता हूं कह कर टाल गए. हमने अपनी जुगत और जुगाड लगाई. इन दिनो हिन्दी ब्लॉगजगत में आभासी दुनिया के भूगोल पर बडी-बडी विद्वतापूर्ण पोस्टें आ रही है सो हमने भी इस आभासी दुनिया का सहारा लिया और उड चले तूतनखामीन और पिरामिडो के देश मिश्र की ओर.

इंडियन एयरलाईन्स से काहिरा की ओर उडते हुए नील नदी, सहारा रेगिस्तान और पिरामिडो को हवाई नजरों से देखना सचमुच में अपने आप में एक सुखद अनुभूति थी. शहर के लगभग मध्य स्थित काहिरा हवाईअड्डे से होटल की ओर जाते हुए हम सडकों के आजू बाजू बने भवनो के अलावा सडक के किनारे खोमचे लगाए भुट्टा भूनते, खजूर बेंचती काली लबादों में लिपटी बूढी हो चली महिलाओं को देखकर काहिरा की सम्पन्नता और विपन्नता से रुबरू होते रहे. टैक्सी से सामान उतारते ही होटल के वेटर नें हमें देखकर खुशी से चहकते हुए बोला ‘इंडियन!‘ हम जब मुस्कुराने लगे तो उसने फिर कहा ‘महाराजा!‘ अब हम चौंक के पीछे देखे , एक और गाडी में भारतीय सिख पगडी लगाए उतर रहे थे. हमें सिख और महाराजा वाली बात समझ में नहीं आई, हम चुपचाप स्वगत कक्ष की औपचारिकता निभाते हुए अपने कमरे में चले गए. वेटर नें कमरे में सामान रखा, टीवी चालू किया तो हमने कहा न्यूज चैनल लगाओ. उसने ‘अल जजीरा‘ चैनल लगाया. शायद यहां न्यूज चैनल का मतलब ‘अल जजीरा‘ होता हो. हमने रिमोट अपने हाथ में ले लिया कि देखें खाडी देशो जैसे यहां भी भारतीय चैनल आते हैं कि नहीं. किन्तु एक भी भारतीय चैनल नहीं. चैनलों के आवाजाही में हमें ‘महाराजा‘ का उत्तर मिल गया. अरबी व अंग्रेजी कई चैनलों में इंडियन एयरलाईन्स के विज्ञापन नजर आये इन्ही विज्ञापनों नें उस वेटर को पगडी पहने इंडियन को देखते ही तात्कालिक प्रतिक्रिया स्वरूप ‘महाराजा‘ कहलवाया होगा.

हम सिटी आफ स्फिंग काहिरा, सहारा व नील नदी के अतिरिक्त कुछ विशेष जगहों पर घूमना चाहते थे. हम मौलाना आजाद व जवाहर लाल नेहरू के मिश्र प्रेम एवं हमारी तीन हजार साल की मित्रता के पहलुओं को भी छूना चाहते थे सो निकल पडे काहिरा के सडकों पर. जमालिक के भारतीय दूतावास के राजदूत स्वामीनाथन महोदय के कार्यालय से कुछ जानकारी लेकर मौलाना आजाद भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र को निहारने जहां श्रीमति सुचित्रा दोराई निदेशक हैं. उनसे मुलाकात नहीं हो पाई अब तक एक और भारतीय हमारे जैसे भटकने को तैयार दिखे जो विगत कई दिनों से काहिरा में डेरा डाले हुए थे, हमने उसे कोई नायाब जगह ले जाने को कहा तो वह तुरत लगभग घसीटते हुए काहिरा के खान-अल-खलीली इलाके की ओर ले गया. रास्ते में पडते बाजारों में बिकते सामानों के बीच एक पैकेट पर मेरी दृष्टि ठहर गई, मित्र को बरबस रोकते हुए मैने एनक को नाक के उपर उठाते हुए उस दुकान के सामने रूककर पैकेट को पढने लगा उसमें लिखा था ‘तिल्दा का चांवल‘. मैंनें पैकैट मांगा, दुकानदार नें जो बतलाया उसी उत्तर की मुझे प्रतीक्षा थी, उसने अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी में जो कहा उसका मतलब यह था कि यह चांवल भारत के छत्तीसगढ प्रांत के तिल्दा शहर का मशहूर चांवल है. मैं अभिभूत हुए पैकैट को पकडे खडा रहा. मित्र नें झकझोरते हुए मुझसे कहा कि चांवल लेकर क्या तुम्हें यहां खाना बनाना है, चलो आगे बढो. मैं आगे बढ गया पर मन छत्तीसगढ लौट आया. आगे एक रेस्तरां का नाम चमक रहा था ‘नज़ीब महफ़ूज़ कैफे एण्ड रेस्तरॉं‘.

छत्तीसगढ के प्रति आत्ममुग्धता से उबरने के बाद पिछले सालों से ब्लॉग के आभासी दुनियां में खोये रहने के कारण इस महफ़ूज़ नाम को पढते ही हमें मेरी रचनाऍं वाले महफ़ूज़ अली याद आ गए. उनके व्यक्तित्व और उनके पिछले पोस्टो को देखते हुए लगा कि हो सकता है कि यह रेस्तरॉं उनका स्वयं का हो, रेस्तरॉं में प्रवेश करते ही देखा एक बडा सा चित्र दीवाल में लगा है नीचे लिखा है ‘नज़ीब महफ़ूज़ ‘. ओह, तो ये हैं महफ़ूज़ जी, हमने आभासी खयालात को दूर झटका. चित्र के बाजू में पारदर्शी कांछ के रैक में कुछ किताबें सजी थी पास जाकर देखा. अंग्रेजी और अरबी भाषा की पुस्तकों के बीच ‘टैरो क्रायलाजी‘ देखकर मानस पीछे किन्हीं स्मृतियों की ओर चला गया. अरब क्षेत्र से एकमात्र नोबल पुरस्कार प्राप्त पुस्तक. हां यही तो है ‘टैरो क्रायलाजी‘. इस पुस्तक का कलेवर और नज़ीब महफ़ूज़ का चित्र याद आने लगा. पैलेस वॉक ( बैनुल-कसरैन), पैलेस ऑव डिज़ायर (कसरुस्शौक) तथा सुगर स्ट्रीट (अस्सुकरिय) 1959 में प्रकाशित पुस्तक औलादो हार्रतुना (चिल्ड्रेन ऑफ गेबेलावी) ‘मिडक एली’....... अभी कुछ माह पहले ही समकाल ब्लाग मे दो सभ्यताओं का दुलारा बेटा और रवि रतलामी जी के रचनाकार में इस संबंध में जानकारी हमने पढी भी थी.

मित्र नें टेबल में बैठ कर आर्डर दे दिया था, कॉफ़ी आ गई थी मैं टेबल में बैठकर रैक से निकाले किताब के पन्ने पलटने लगा. हमारे मानस के आभासी व स्थानीय भूगोल के इस केमिकल लोचे में तिल्दा का चांवल, ब्लॉगर महफ़ूज़ और नोबेल प्राप्त महफ़ूज़ का व्यक्तित्व व लेखन, हमारी आत्ममुग्धता, सैकडो किलोमीटर दूर भी जुगलबंदी करती रही. काहिरा की कडक कॉफ़ी हलक में उतरती रही.

अपना कैमरा हम भारत मे ही भूल गये थे, इसलिये फोटो नही चिपका पाये. आगामी पोस्टों में काहिरा के इस "आभासी यात्रा वृत्तांत" अंतरालों में जारी रहेगा. .....

संजीव तिवारी

रायपुर हिन्दी ब्लागर्स परिचय मिलन और चिट्ठा चर्चा विवाद के पार्श्व से


छत्तीसगढ के रायपुर में प्रदेश के हिन्दी ब्लॉगरों का परिचय मिलन की चित्रमय खबरें आप पिछले दिनों से छत्तीसगढ के ब्लॉगरों के पोस्टों में देख रहे हैं. आपकी सार्थक प्रतिक्रिया भी टिप्पणियों के माध्यम से वहां दर्शित हो रही है और हिन्दी ब्लागिंग के विकास के पदचाप को आप हम महसूस कर रहे है. इस सम्बन्ध मे संजीत त्रिपाठी जी के पोस्ट फिर मिलने की आशा के साथ छत्तीसगढ़ ब्लॉगर बैठक संपन्न, एक रपट पर उठाये गये कुछ मुद्दो पर मैं इस पोस्ट के माध्यम से अपने निजी विचार रखना चाहता हूं.

मेरे ब्लॉग सफर मे संपूर्ण आभासी दुनिया के भूगोल की ओर पीछे देखुं  तो तब के पांच सौ के आंकडे के अंदर के हिन्दी ब्लाग जगत नें छत्तीसगढ के हर आने वाले ब्लागों का तहेदिल से स्वागत किया और प्रोत्साहन भी दिया. तब नारद एग्रीगेटर हुआ करता था और अनुप शुक्ल जी चिट़ठाचर्चा किया करते थे. हम तब से आजतक इस चिट़ठाचर्चा से नियमित पाठक नहीं रहे. ना ही हमने इसे कोई तूल दिया, हम तो ब्लागजगत में अनूप जी जैसे ही बातें लिये आये थे कि हम भी जबरै लिखबे यार ......... सो लिखते गये.

साथी ब्लॉगर उन दिनों नेटवर्किंग व गुटों की वैसी ही बातें करते थे जो आज मुझे ब्लाग जगत में सुनने देखने और पढने को मिलता है. मगर तब गुट सीनियर-जूनियर, मानवाधिकारवादी और गैरमानवाधिकारवादियों की होती थी. मेरे द्वारा नारद एग्रिगेटर के सम्बन्ध  लिखे एक पोस्ट मे उन दिनो कुछ असहमति बन गयी थी और कुछ दिनो के लिये मेरे ब्लॉग को फ्लैग कर दिया गया था तब लगा था कि इन सीनियरो से दूर ही रहो तो ज्यादा अच्छा. उन दिनों मुझे नहीं पता कि किसी चिट़ठाचर्चा में मेरे ब्लाग का उल्लेख हुआ भी या नहीं. यदि हुआ भी है तो मुझे ध्यान नहीं. उन दिनो मै जब भी चिट़ठाचर्चा खोलता था उसमे कुछ विशेष लोगो के ब्लाग ही नजर आते थे. लोग सुलग सुलग जाते थे और दबी जुबान मे कहते थे कि यह तो गुटबाजी है. उन दिनो कुशवाहा नामक किसी ब्लागर भाई नें काफी के लब्बोलुआब के साथ अपने पसंद के लोगों के ब्लाग को उंचाईयां देने की भरसक कोशिस जब आरंभ की तब भी लोगो ने कहा कि सब गुटबाजी में मस्त हैं.

लोगो ने मठाधीशी को उखाड फेंकने के लिये धीरे धीरे अपने अपने गुट बना लिये है और अब सभी गुट वाले अपने अपने गुट के ब्लॉग पोस्टों में कमेंट करने के लिए इस कदर बेताब नजर आते हैं कि यदि वे टिप्पणी नहीं करेंगें तो बहुत बडी आफत आ जायेगी जैसे टिप्पणी करना मतदान हो गया. गुटो का यह खेल किसी से छुपा नहीं है, आप स्वयं देखें ये गुट वाले अपने गुट के किसी भी ब्लागर के किसी भी हद तक के छिछोरे हरकतों को भी सांस्कारिक व सांवैधानिक सिद्ध करने पर तुले पिले नजर आते हैं. ऐसा प्रदर्शित करते हैं कि उनके गुट के सभी पोस्ट विश्व के नायाब पोस्टों में से एक है. पोस्ट पर पोस्ट लिखना विवादों को पैदा करने के लिये चैट व मोबाईल से अपने मनमाफिक टिप्पणियों की बाड पैदा करना ऐसे भावी मठाधीशो के लक्षण हैं.

ऐसी स्थिति में हमे तब के मठाधीश या अभी के नवोदित मठाधीशो से कुछ भी नहीं मिलने वाला ना ही हमें कोई फायदा होने वाला क्योंकि आज जिस तरह से खेमेबाजी और बौद्धिक एकजुटता कुछ लोग दिखा रहे हैं वो आगामी कल के मठाधीश होगें. और ऐसे मठाधीशो से भगवान बचाये.  ये सिर्फ उन्हीं का साथ देते हैं जो या तो इनके पिछलग्गू हों. हम इनमें से कोई भी नहीं है इसलिये हमें ये कुछ भी फायदा पहुचाने वाले नहीं है उल्टा इनके ग्रुप के किसी ब्लागर को प्रतिटिप्पणी यदि हमने कर दी तो वे सभी आपको टिप्पणियों व पोस्टो से मानसिक यंत्रणा तो दे ही सकते हैं इसलिये हमें अपने भौगोलिक सीमा पर ज्यादा विश्वास है हम भविष्य को नहीं जानते हैं किन्तु हमने देखा है कि सत्ता जिसके पास भी आई है उसने अपनी मनमानी की है और उस ब्यवस्था को ढहाने के लिए पुनः कोई संगठित समूह आया है, यह तो समय चक्र है.

रही बात चिट़ठाचर्चा डाट काम एवं चिट़ठाचर्चा डाट ब्लॉगस्पाट डाट काम के संचालन के संबंध में तो मुझे नहीं लगता कि कोई नैतिक शास्त्रीयता है कि एक नाम के दो ब्लॉग या वेब पोर्टल नहीं हो सकते. मैं यहां संजीत त्रिपाठी से सहमत नहीं हूं चिट़ठाचर्चा कोई हिन्दी साहित्य की ऐतिहासिक पत्रिका सरस्वती नहीं है कि इसके नाम पर किसी व्यक्ति विशेष का अधिकार हो. वर्तमान में पच्चीसों चर्चायें चल रही है जो व्यक्तिगत रूप से मुझे निरर्थक लगती है हो सकता है मेरे मन में यह धारणा इसलिये बन गई हो क्योंकि मुझे कभी भी इन चर्चाओं में महत्व नहीं दिया गया है. आप यह भी कह सकते हैं कि मैं इन चर्चाकारों से दुर्भावना रखता हूं किन्तु वर्तमान में तो इतने सारे सभी चर्चाकारों के प्रति दुर्भावना हो ऐसी बात नहीं हो सकती. हां मुझे लगता है कि अपने चेलो के कूडे पोस्टों की चर्चा करते हुए इन चर्चाओं में अच्छे पोस्ट भी एक जगह पर नजर आ जाती है यही एक फायदा इसमें है. इससे अतिरिक्त पाठक व प्रसंशक मिल जाते हैं और कुछ नही ना आलोचना ना ही समालोचना. किन्तु हिन्दी ब्लाग के विकास के लिये इसकी आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता.  मेरी व्यक्तिगत पसंदगी नापसंदगी मायने नहीं रखती.

तो अनूप जी के चिट्ठाचर्चा सहित सभी चर्चा के ठिकानें अपनी चर्चा निरंतर रखें और दिखा दे वक्त को कि आप सब अपने अपने चर्चा को सदियों तक निरंतर रखने में सक्षम हैं और छत्तीसगढ में लिये गए निर्णय व परिकल्पना के अनुसार चिट़ठाचर्चा डाट काम में भी चर्चा अनवरत हो. चर्चाकार कहां से आयेंगें इस बात की समस्या वर्तमान में अभी नहीं है क्योंकि ललित शर्मा जी वर्तमान में सक्रिय सभी चर्चा ब्लागों में सफलतापूर्वक चर्चा कर ही रहे हैं और वे इन सभी ब्लागों में चर्चा करते हुए भी इस पोर्टल में भी चर्चा करने में सक्षम होंगें. और जब कोई समस्या होगी तब का तब देखा जायेगा. मेरे ब्लॉगरों मित्रो आप सब रायपुर के मिलन की खुशियो को जीवंत रखे, वादो विवादो से दूर अपने आगामी पोस्टो मे क्या प्रकाशित करना है इसकी तैयारी के साथ.

संजीव तिवारी

क्या इंटरनेट परोस रहा है नक्सल विचार धारा ??

गूगल सर्च में यदि आप अंग्रेजी एवं हिन्दी में ‘नक्सल’ शब्द को खोंजें तो लगभग पांच लाख पेज की उपलब्धता नजर आती है. इन पांच लाख पेजों पर सैकडों पेजों के लिखित दस्तावेज, चित्र व फिल्मो के क्लिपिंग्स उपलब्ध हैं जिनमें से कईयों मे, लाल गलियारे को स्थापित करने वाली विचारधारा को हवा दी गई है. इन पेजों में घृणा का बीज बोंते लोग भी हैं तो मावोवादी विचारधारा के विरूद्ध आवाज उठाने वाले लोग भी हैं जो टिमटिमाते दिये के सहारे इस हिंसक विचारधारा के अंधेरे को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं.

सैकडों व हजारों की संख्या में प्रतिदिन क्लिक होने वाले. खूब पढे जाने वाले इन ब्लागों में शहीद कामरेडों के चित्रों, छत्तीसगढ में हुए तथाकथित पुलिस बर्बरता के किस्से, फर्जी मुठभेडों व शोषण के शब्द चित्रों, बलत्कार के वाकयों को बयां करते लेखों व विचारों की अधिकता है. इसके साथ ही मानवतावा‍दी विचारधारा वाले व हिंसा से विरत रहने के अपील करते लेखों व नक्सल समस्या पर सार्थक विमर्श करते ब्लागों की भी कतारें  हैं. इसके अतिरिक्त नेट में फैले तथाकथित मानवतावादी, खालिस मावोवादी, नक्सलवादी व जनवादियों एवं बस्तर, नक्सल व छत्तीसगढ के मुद्दों पर बहस करने वालों या इन पर कलम चलाने वालों की भी लम्बी फेहरिश्त है. समाचार सूचना के अन्य माध्यम व पिंट मीडिया को जिसके लिये सेंसर, नैतिक कर्तव्य व सरकारी मंशा के साथ ही बहुसंख्यक जनता का ध्यान रखते हुए लेखन व प्रकाशन करना पडता है. वहीं इन पोर्टलों व ब्लागों में सीधे जमीन से उपजे समाचार व आन्दोलित कर देने वाले विचारों का पुलिंदा वीडियों, आडियो व फोटो सहित नेट में प्रतिदिन प्रकाशित हो रहे हैं. पुलिस संभावित आरोपियों के घरों से नक्सल साहित्य के नाम पर तलासी में सिर खपाती रही है और यहां ये हाईटेक लोग अपने दस्तावेज आनलाईन कर मुफ्त में हर किसी के लिए उपलब्ध करा रहे हैं. खून को खौलाने के हर हथकंडे अपनाए जा रहे हैं और वाद व विचारधारा के शब्दजाल बुनकर जनमानस को अपने पक्ष में करने का चक्र-कुचक्र जारी है.

वर्तमान में छत्तीसगढ व नक्सली मुद्दों पर ज्यादातर अंग्रेजी में पोर्टल व ब्लाग उपलब्ध हैं. जिनमें ब्लागों की संख्या अधिक है. विश्व सुलभ भाषा अंग्रेजी में होने के कारण बस्तर या छत्तीसगढ के नक्सल व सलवा जुडूम के संबंध में जो जानकारी यहां है वह संपूर्ण विश्व के पाठकों तक उसी रुप मे सर्वसुलभ हो जा रही है. यह भी हो सकता है कि ये ब्लाग के लेखक छत्तीसगढ में ही बैठकर अपना विरोध और अपने चिंतन को तथ्यात्मक रूप से सप्रमाण (ऐसा उनका मानना है) वहां परोस रहे हों. जैसा वहां प्रस्तुत हो रहा है वैसा ही विश्व बौद्धिक समाज उसे ग्रहण कर रहा है और छत्तीसगढ शासन व पुलिस के विरूद्ध मानसिकता तैयार हो रही है. इंटरनेट में फैलाये जा रहे इस तथाकथित वैचारिक क्रांति की संवेदनशीलता इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि विगत दिनों पुलिस प्रमुख व नक्सली प्रवक्ता गुडसा उसेडी एवं सुभ्रांशु चौधरी के बीच जो विमर्श का दौर छत्तीसगढ समाचार पत्र में प्रकाशित हो रहे थे उसमें पुलिस प्रमुख विश्वरंजन जी नें लिखा था कि उन्हे इंटरनेट में हो रहे छत्तीसगढ शासन व पुलिस विरोधी हलचलों की जानकारी गूगल रीडर व एलर्ट से त्वरित रूप से हो जाती है. यानी डीजीपी स्वयं नक्सल विचारधारा के नेट दस्तक के प्रति संवेदनशील हैं. और ... नेट में ऐसे दस्तक प्रतिदिन हो रहे हैं.

सलवा जुडूम,डॉ.बिनायक सेन, अजय जीटी का मसला संपूर्ण विश्व में किस कदर छाया इसका उदाहरण बर्कले मे सामने आया. अमेरिका के सर्वाधिक प्रतिष्ठित बर्कले विश्वविद्यालय में आयोजित एक सम्मेलन मे  संपूर्ण विश्व के चिंतको के सामने छत्तीसगढ के डीजीपी विश्वरंजन जी के विरूद्ध वहां के छात्रो ने ‘विश्वरंजन वापस जावो’ जैसे नारे लगाए और तख्तियां टांगनें पर उतारू हो गए. यह सब पूर्वनियोजित तरीके से नियमित रूप से इंटरनेट के माध्यम से छत्तीसगढ विरोधी खबरें विश्व के कोने कोने में फैलाये जाने से हुआ. बर्कले विश्वविद्यालय कैलीफोर्नियां में दक्षिण एशियाई संगठन के छात्र, प्रिस्टन, हार्वड, येल और अन्य जानेमाने विश्वविद्यालयों के छात्र व शिक्षक एक सुर में छत्तीसगढ शासन व पुलिस के विरोध में खडे हो गए. हालांकि छत्तीसगढ से उस कार्यक्रम में शिरकत करने वाले डीजीपी एवं छत्तीसगढ के संपादक सुनील कुमार जी नें दमदारी से अपना पक्ष रखा था. विदित हो कि संपूर्ण विश्व में इस बडे आयोजन का हो – हल्ला हुआ था, विश्व के प्रबुद्ध समाज इससे वाकिफ हुआ था या इससे वाकिफ कराया गया था. विदेशों में खासकर इंडोनेशिया के महीदी, सीयरालियोन के कामजोर, सूडान के जंजावीद, रवांडा, चाड, आफ्रीका व विश्व के तमाम जन मिलिशियाओं के चिंतकों व शुभचिंतकों तक बस्तर की संवेदनाओं को बांटने एवं उनके समर्थकों/विचारकों को बस्तर के विषय में गंभीर होने एवं अपना समर्थक बनाने में कारगर माध्यम बनने के लिए इंटरनेट बेताब है, यह बर्कले में स्पष्ट हो गया.

इन परिस्थितियो मे नेट मे सक्रिय छत्तीसगढ के हितचिंतको का चिंतन आवश्यक है. क्योकि वर्तमान मावोवादी विचारधारा किसी भौतिक बारी बखरी से सुविधाविहीन नेतृत्व के द्वारा आरंभ होकर अब पूर्णतया सुविधा सम्पन्न एवं तकनीकि सूचना तंत्रों के बेहतर जानकार लोगों के नेतृत्व में फल-फूल रही है. अब नक्सल विचारधारा के पोषक इंटरनेट के द्वारा संपूर्ण विश्व में अपने वाद को उचित ठहराने के उद्देश्य से सक्रिय हैं. यह विश्वव्यापी त्वरित प्रभावी सूचना तकनीकि बहुत ही सहज व सरल है इस कारण उनकी बातों को स्वीकारने वाले एवं उनके पक्षधर पाठकों की संख्या में दिनो दिन इजाफा हो रहा है. वे अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए बस्तर एवं देश के अन्य नक्सल प्रभावित क्षेत्र की तस्वीर जिस रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, उनके पाठक उसी रूप में उसे स्वीकार कर रहे हैं और तथाकथित क्रांति के इस यज्ञ में अपने अपने सामर्थनुसार हबि डालने को उत्सुक नजर आ रहे हैं. दूसरी तरफ इस बात की सच्चाई उजागर करने वालों की जमात इंटरनेट की दुनिंया में कम है. यदि है भी तो वे स्पष्ट रूप से सरकार या पुलिस से प्रायोजित प्रतीत हो रहे हैं जिसके कारण उनकी विश्वसनीयता सामान्य पाठक के लिए संदिग्ध है.

पिछले दिनों भिलाई के आसपास छुपाये गए हथियारों के जखीरों के मिलने पर पूर्व मंत्री भूपेश बघेल जी द्वारा शासन व पुलिस की भर्त्सना एवं न‍क्सलियों के विरूद्ध वैचारिक क्रांति का जो शंखनाद किया था उस वक्त समाचार पत्रों नें हथियारों के इस खेल को ‘नक्सलियों के शहरी नेटवर्क’ का नाम दिया था. डीजीपी विश्वरंजन जी नें भी पिछले दिनों भोपाल में कहा था कि भारत में कुल हिंसक वारदातों में से 95 प्रतिशत हिस्सा मावोवादी हिंसा है. इसके साथ ही उन्होनें यह भी कहा कि नक्सलियों के दो तरह के कार्यकर्ता होते हैं एक पेशेवर और दूसरे जो अंशकालिक तौर पर और कोई दूसरा काम करते हुए उनका शहरी नेटवर्क. मेरी समझ के अनुसार यह शहरी नेटवर्क संचार तंत्र का भरपूर उपयोग करता है और सहीं मायनों में यही धुर जंगल में कैम्प कर रहे लोगों तक विचारों को थोपता है. व्यापक रूप से इन्ही शहरी नेटवर्कों का माइंड वाश किया जाना आवश्यक है. क्योकि शहरी नेटवर्क के बिना नक्सली पंगु हो जावेंगें. शायद इसे ही विगत दिनों विचारकों के द्वारा ‘स्‍ट्रेटेजिक हैमलेटिंग’ कहा-समझा गया. मेरा विचार है कि इन शहरी नेटवर्कों के द्वारा जिस प्रचुरता से इंटरनेट में नक्सल व मावो समर्थित लेख व सलवा जुडूम के विरोध में लेख परोसे जा रहे हैं उसी प्रचुरता से उन विचारधाराओं के समीक्षात्मक व वास्तविक चित्रण प्रस्तुत करते हुए विचार व समाचार नेट में भी उपलब्ध हों. ताकि दुनिया में छत्तीसगढ की सही तस्वीर प्रस्तुत हो सके.

संजीव तिवारी

देवकीनन्दन खत्री से अलबेला खत्री तक हिन्दी की यात्रा : माईक्रो पोस्ट

मेरे पिछ्ले पोस्ट मे हुए टंकण त्रुटि पर ललित शर्मा जी की टिप्पणी पर भाई शरद कोकाश जी ने लिखा 'ललित जी के लिये एक शोध विषय का सुझाव - " देवकीनन्दन खत्री से अलबेला खत्री तक हिन्दी की यात्रा ". देवकीनन्दन खत्री जी का नाम हिन्दी के विश्व मानस पटल मे जाना पहचाना है. शरद भाई के इस टिप्पणी ने  देवकीनन्दन खत्री जी व उनके किताबो को मेरे मन मे और जीवंत कर दिया. हमने तिलिस्मी लेखक बाबू देवकीनन्दन खत्री के सम्बध मे नेट मे उपलब्ध जानकारियो को नेट में खोजना शुरु किया तो जो लिंक (LINK) मिले उन्हे यहा रखते हुये हमने इस माईक्रो पोस्ट की रचना कर दी. बाबू देवकीनन्दन खत्री के  काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोंडा, कटोरा भर, भूतनाथ, चंद्रकान्ता और चन्द्रकान्ता सन्तति से होकर अलबेला खत्री की कविताओ तक बहती हिन्दी की यात्रा सचमुच गंगा है.

निरंतर सृजनशील अलबेला खत्री जी की लोकप्रिय कविताओं की धारा, हिन्दी की इस गंगा मे, अनवरत बहेगी और भविष्य मे शरद भईया के सुझाये इस विषय पर निश्चित ही शोध भी होंगे. हिन्दी के मठाधीशों ने तो हरिशंकर परसाई, रवीन्द्र नाथ त्यागी, शरद जोशी जैसे लेखको को भी गजटिया लेखक कह कर दरकिनार करने की कोशिश की थी. पर पाठको ने उन्हे पढा-समझा और ईशों-धीसों ने भी बाद मे उनकी वन्दना की. बहरहाल  अलबेला खत्री जी से हमारी मुलाकात दुर्ग मे हुई है. किंचित दुख है कि हम ललित भैया जैसे उनके साथ फोटू - सोटू नही खिचा सके, जब हम उनसे होटल मे मिले तब  कैमरा नही था और जब पाबला जी ने उन्हे दुर्ग स्टेशन मे टा-टा कहने आने को कहा था तब हम दौड के फटफटिया मे 'टेशन' पहुंच गये थे कि अब तो फोटु जरूर 'इंचायेंगे' अलबेला खत्री जी के साथ पर मुआ पाबला जी का कैमरा उनके कार मे ही आराम फरमाता रहा और हम स्टेशन मे जोशोखरोश के साथ  अलबेला खत्री जी के गले मिलते रहे कि पाबला जी का कैमरा अब चमका कि तब. ..... पर कैमरा नहीं चमका.

दरअसल तभी से अलबेला खत्री जी से हमारे सम्बन्धो को ज(ब)ताने  के लिये एक पोस्ट लिखना चाह रहा था, आज शब्दो की यह रचना पूरी हुई, अब तनि टिपियाओगे तो हमे और अच्छा लगेगा.

संजीव तिवारी 

ब्लॉग प्लेटफार्म दो प्रकार के लोगों के लिए सार्थक है बिगनर या अमिताभ बच्चन ??

मैंनें पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के एक मसिजीवी को हिन्दी ब्लॉग जगत मे आने और हिन्दी ब्लॉग बनाने के लिए कहा तो उन्होंनें तपाक से कहा कि ना बाबा ना, ब्लॉग प्लेटफार्म दो प्रकार के लोगों के लिए सार्थक है. एक तो वे जो पहले से ही किसी क्षेत्र में पूर्ण स्थापित हैं जैसे अमिताभ बच्चन और दूसरे वे जो बिगनर है या पहचान बनाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. जिनके मन में लेखन का कीडा कुलबुला रहा है और विचार व भावनायें शब्दों का रूप लेने के लिए उद्धत हैं किन्तु उनका श्रृंगार होना अभी शेष है उन शब्दों को सजाने के लिए यह आदर्श प्लेटफार्म है. दुर्ग के एक साहित्यकार नें भी कुछ दिन पहले मुझसे नामवर सिंह जी के ब्लॉग बवाल पर लगभग ऐसा ही कहा था. मैनें उनकी बातों पर नोटिस इसलिए नहीं लिया था क्योंकि वे इंटरनेट या ब्लॉग से पूर्णत: परिचित नहीं थे. अभी जिन मसिजीवी से मेरी चर्चा हुई उन्होंनें छत्तीसगढ़ सहित देश के विभिन्न हिन्दी ब्लॉगरों का नाम लेते हुए उनके ब्लॉग और विषयवस्तुओं की विवेचना भी की. मैं आश्चर्यचकित हो गया कि वे न केवल हिन्दी ब्लॉगिंग से परिचित हैं बल्कि ब्लॉग पोस्टों को गहराई से पढते भी हैं.

उन्होंनें स्वयं मेरा उदाहरण देते हुए बडे साफगोई से कहा कि 'तुम स्वयं अपने आप को लो, तुम पिछले दशकों से इक्का दुक्का पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हो तुम्हारा नाम क्षेत्रीय लोगों को याद भी नहीं था. जब से तुम हिन्दी ब्लॉग जगत में सक्रिय हुए हो तुम्हारा संपर्क क्षेत्र बढा है. पत्र-पत्रिकाओं द्वारा स्वाभाविक तौर पर सुलभ नेट में उपलब्ध रचनाओं को प्रकाशित करने के कारण तुम्हारी रचनांए लगभग लगातार प्रकाशित होने लगी है और तुम्हारा 'गुम' नाम फिर से क्षेत्रीय लेखकों-पाठकों के बीच सामने आ गया है. यदि तुम अपनी सक्रियता ऐसे ही बनाए रखोगे और अपनी भाषा को सुधारते रहोगे तो तुम्हारे लिए ब्लॉग सार्थक प्लेटफार्म होगा. वे और लोगों के संबंध में बोलते रहे और मैं सिर झुकाए सुनता रहा.

'भाषा को सुधारते रहो' के चेतावनी मिश्रित सुझाव पर मेरा ध्यान अटक गया. अभिव्यक्ति को प्रवाहपूर्ण रूप से पटल पर लाने के मेरे प्रयासों में भाषा की गलतियां मुझसे होती रही है. मुझे खुशी है कि हिन्दी ब्लॉग जगत के मित्रों ने मेरी भाषा की गलतियों को सुधारने मे सहयोग किया है. इस सम्बन्ध मे मेरे पहले सुधारक वर्तमान मे दिल्ली मे निवासरत छत्तीसगढ के यशश्वी पत्रकार और उर्दु के साहित्यकार भाई सैयद शहरोज़ क़मर रहे हैं. मेरे ब्लॉग पर भाई शहरोज़ ने अपनी टिप्पणी मे कहा कि फ़लां - फ़लां सुधार करो और चाहो तो इस टिप्पणी को डिलीट कर दो, मैने सुधार किये पर टिप्पणी को डिलीट नही किया ताकि सनद रहे. इसके बाद बहुत कम अवसर आये जब मुझे टिप्पणियों से सीख मिली हो, कभी उन टिप्पणियों पर भी चर्चा करुंगा. टिप्पणियां कम मिलने से निराशा जरूर होती है पर ऐसी टिप्पणियां जिससे हमारी दिशा प्रभावित होती हो एक ही काफी होती है.

भाषा को निरंतर सीखने के मेरे इस ब्लॉगिया स्कूल से मुझे अभी भी बहुत कुछ सीखना है. मेरे पिछले पोस्ट में ही गिरिजेश राव जी की टिप्पणी नें इसे सिद्ध कर दिया है. मैं गिरिजेश राव जी का आभारी हूं जिन्होने मेरी भाषा संबंधी गलतियों की ओर ध्यान दिलाया. वर्तमान मे सम्पूर्ण हिन्दी ब्लॉग जगत भाषा और साहित्य मे उनकी टिप्पणियो पर भरोसा करता है और वे इनसे सम्बधित पोस्टो मे अपनी बिना लाग लपेट टिप्पणियां करते भी है.

जैसा कि मेरे लिये मेरे साहित्यकार मित्र नें कहा कि ब्लॉग बिगनरों का प्लेटफार्म है उसी रूप में मैं इसे स्वीकार भी कर रहा हूं. चूंकि सीखने का क्रम दौर ए कब्र भी जारी रहता है इसलिये आशा है मेरे जैसे ब्लॉगर मित्र,  भाई शहरोज़ एवं गिरिजेश राव जी की टिप्पणियों से दिशा प्राप्त करते रहेंगे और बिगनरों के इस दौड मे ताजगी बनी रहेगी. आप अमिताभ बच्चन नहीं हैं तो क्या हुआ उनकी नजर में बिगनर ही सही. अमिताभ बच्चन कहां हमारे ब्लॉग में टिपियाने आयेंगें. हैप्पी ब्लॉगिंग मित्रो.

संजीव तिवारी

(गिरिजेश राव जी का चित्र क्वचिदन्यतोअपि..........! ब्लॉग से साभार) 

शास्त्रीयता की कसौटी में खरा उतरने को उद्धत हिन्दी ब्लागिंग

किसी भी भाषा की परम्परा रही है कि कोई लेख, कविता, कहानी या अन्य विधा लेखन की शास्त्रीयता की कसौटी मे तुल कर साहित्य की श्रेणी मे स्वीकार कर ली जाती है और उसे तथाकथित सहित्यिक मठाधीशो को भी किंचित ना-नुकुर के बावजूद भी स्वीकार करना पडता है. मठाधीशो को हिन्दी ब्लागिंग के दमदार धमक के कारण पुस्तक पाठन रुचि के गिरते ग्राफ की चिंता है. उनका मानना है कि  किसी भी विधा मे शास्त्रीयता अध्ययन और निरंतर प्रयाश से आती है. और यह शास्त्रीयता मोटी मोटी किताबो मे बन्द है.

इन्ही सन्दभों में हिन्दी ब्लागरो के शव्द सामर्थ्य व पुस्तक अध्ययन की रुचि हमे देखने को मिली.  पिछले दिनों ब्लाग पोस्टों को पढनें के दौरान डॉ.अरविन्द मिश्रा जी के पोस्ट पर पढने को मिला कि वे तीन पुस्तकें क्रय कर लाये है और किताबों का अवगाहन कर रहे है. अपने छत्तीसगढ के  ललित शर्मा जी नें भी अवधिया जी के एक पोस्ट में टिप्पणी में कहा कि उन्हें आजकल बहुत किताबें पढनी पडती हैं जबकि वे स्वयं संस्कृत,  ज्योतिष, भाषा सहित अनेक विषयों के ज्ञाता हैं एवं एकेडमिक रूप से भी वे इन विषयों को पढ चुके हैं. इनके अतिरिक्त और भी कई हिन्दी ब्लागर हैं जो हिन्दी ब्लागिंग के लिए प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रुप से पुस्तको का अध्ययन करते रहते है. जिसमे पाठकों तक जानकारी प्रदान करने के लिए, पोस्ट को पठनीय बनाने के लिए विभिन्न पुस्तकों का सन्दर्भ देते रहे हैं.

मेरा एक मित्र कहता है कि हिन्दी ब्लागरों के पुस्तक पाठन का यह बैरोमीटर ब्लाग में चल रहे पोस्ट-कमेंट वार के चलते उपर उठने को मजबूर हुआ है. उसका मानना है कि हिन्दी ब्लाग विवादों नें भी ब्लागरों के पुस्तकों के अध्ययन को बढाया है अभी पिछले दिनों अलबेला खत्री जी की एक कविता पर जब विवाद हुआ तब हिन्दी साहित्य के शास्त्रीय परम्पराओं की किताबें खुल पडी एवं कविता- नवगीत व कविता के अन्यान्य विधाओं, बिम्बों के रूप में खत्री जी की कविता की स्वीकार्यता-अस्वीकार्यता प्रस्तुत की गई. जो भी हो यह हिन्दी के विकास के लिए अतिउत्तम है. हिन्दी ब्लागजगत में इस पठन-पाठन का फायदा भी अब स्पष्ट नजर आने लगा है एक तरफ ज्ञानीजन सुन्दर विमर्श प्रस्तुत करने वाले पोस्ट ठेल रहे हैं वहीं ब्लाग जगत में भारतीय संस्कृति व परंपरा के विकास के लक्षण भी नजर आने लगे हैं. अब हिन्दी ब्लागर टिप्पणियों में आदरणीय व आदरणीया ब्लागरों  के प्रति श्रद्धा-स्नेह-आदर सूचक शव्दों का बहुधा प्रयोग भी करने लगे हैं जिसमें प्रणाम-चरण स्पर्श जैसे शद्वों से टिप्पणियों की शुरूआत हो रही है. यह बहुत ही शुभ लक्षण हैं. ऐसे में पाठकों को पोस्ट पढने एवं ब्लाग लेखकों को अन्य साधनों से ज्ञान अर्जित करने, अन्य ब्लाग पोस्टों को पढने व अपने विषय वस्तुओं को पोस्ट के रूप में परिर्वर्तित करने में बौद्धिकता का क्रमश: परिमार्जन हुआ है.

चलते चलते - हल्का - फुल्का :-

ब्लाग पोस्टों के द्वारा वैचारिक विमर्श का यह दौर भी अजूबा है. जिसमे हल्के फुल्के मनोरंजन के साथ सतही चिंतन भी है. एक तरफ प्रवीण त्रिवेदी जी कैमरा व ललित शर्मा जी व्यंग्य के रूप में ब्रांडेड चड्डी खरीदने का सुझाव ब्लाग जगत से मांगते है तब उन्हें व्यवहारिक सुझाव दिये जाते है. और जब डॉ.अरविंद मिश्र जी 'नहीं पाप का भागी ........' का अर्थ जानने-जनाने के लिए एक पोस्ट लिखते है उसमें सार्थक विमर्श होता है और उस पर हिन्दी ब्लागरो के द्वारा न केवल अपने स्वयं के मानस में इस पर चिंतन किया जाता है बल्कि अपने मित्रों-परिचितों व सहकर्मियों तक को इस विमर्श में शामिल किया जाता है . इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि हिन्दी ब्लाग जगत में एक ओर आप अपने लिए चड्डी खरीदने के लिए सुझाव मांग सकते हैं तो दूसरी ओर आप विशुद्ध काव्य मीमांशा करते हुए किसी छंद पंक्ति या गद्यांशों पर साहित्तिक विमर्श भी कर सकते हैं.

संजीव तिवारी  

हाय महंगाई ..... महंगाई महंगाई .

दस पैसे कप चाय तीस पैसे का दोसा से दादाजी का नाश्‍ता हो जाता था आज ये सच्चाई जितनी सुखद लगती हैं, उतनी ही दुखद लगती हैं कि हमारा पोता बीस रुपये कप चाय पीकर दो सौ रुपये का दोसा खाऐगा, बात साधारण सी इसलिऐ हो जाती हैं क्योकि आज जिस वेतन पर पिताजी सेवानिवृत हो रहे हैं बेटा आज उस वेतन से अपनी सेवा की शुरुवात कर रहा हैं, सन् 1965 में पैट्रोल 95 पैसे लीटर था चालीस सालो में पचास गुना बढ गया तो आश्‍चर्य नही की 2050 में भी अगर हम इसके विकल्प को न तलाश पाऐ तो 2500 रुपये लीटर आज जैसे ही रो के या गा के खरीदेगे, मंहगाई के नाम पर इस औपचारिक आश्‍वासन से किसी का पेट नही भरता पर कीमत का बढना एक सामान्य प्रक्रिया जरुर हैं पर ये सिलसिला पिछले कुछ सालो से ज्यादा ही तेज हो गया हैं जहां आमदनी की बढोतरी इस तेजी की तुलना में अपेक्षाकृत कमजोर महसूस कर रही हैं वही से शुरू होती हैं मंहगाई की मार, दरअसल मंहगाई उत्पादक व विक्रेता के लिऐ तो मुनाफा बढाने का काम करती हैं पर क्रेता की जेब कटती जाती हैं.

देश में तेजी से बढती मंहगाई पर राजनेताओ की लम्बे समय से खामोशी समझ से परे हैं बस कैमरे के सामने आपस में कोस कर इतिश्री कर ली जा रही हैं पुर्व में प्याज के दाम पर सरकार गिरने की जैसी बैचेनी कहीं भी दिखती नही दरअसल इस देश में भष्‍ट्राचार और मंहगाई अब प्रजातांत्रिक मुद्रदा ही नही रहा, कहानी कुछ इस तरह हैं कि डीजल के दाम बढे तीन रुपये लीटर, औसतन सौ सवारी लेकर चलने वाली बसे रोज तीन फेरे लगाती हैं एक फेरे में लगते हैं बीस लीटर डीजल, बस मालिको ने भी तीन रुपये सवारी बढाने के नाम पर हडताल, यातायात अस्त व्यस्त, मंत्री जी ने सक्रियता का परिचय देते हुऐ बस मालिको के साथ पांच सितारा बैठक ली बात दो रुपये प्रति सवारी पर सफलतापुर्वक सेंटल कर ली गई, बस मालिको का मंहगाई बढने से प्रतिदिन 1140 रुपये का लाभ बढ गया, उसी एवज में तमाम मंत्री संत्री की कमीशन बढ गई, सिर्फ सवारी के जेब पर पडी मंहगाई की मार जिसे कहा जाता हैं कानून सम्मत लूट.....

राजनेताओ की चुप्पी के अलावा आम लोगो की बेफिक्री का ही नतीजाहैं कि आक्रामक रुप से बढती मंहगाई के बावजूद भी केन्द्र सरकार का लोक सभा चुनाव फिर जीत गई । जिस मध्यम वर्ग की दुहाई में छाती पीट पीट कर मंहगाई की पैरवी की जाती हैं दरअसल वही विश्‍व का सबसे बडा अतिवाद से ग्रसित खरीददार हैं जो अपनी जेब से ज्यादा बाजार को टटोल रहा हैं और इससे पनपते असन्तोष व हीनभावना पर आग में घी डालने का काम कर रहा हैं विज्ञापन जगत जो इस बात में माहिर हैं कि आम आदमी से पैसा कैसे निचोडा जाता हैं चतुर वर्ग इसलिऐ व्यवस्था के साथ मिलकर उसको खोखला करना या फिर अंगूर खट्रटे कह कर उसे कोसते रहना ही उचित समझ रहा हैं , आज जिस दस साल में हम मंहगाई बढने की बात करते हैं उसी अंतराल में आश्‍चर्यजनक ढंग दस गुना ज्यादा कार की बिक्री बढी जिसके ईधन व लोन रकम में ही इस मध्यमवर्ग की आय का एक बडा हिस्सा खिसक रहा हैं,गौरतलब हैं की लाख कोशिशो, कटौतियो के बाद मध्यमवर्ग आज लोन की कार घर के सामने खडाकर ऐसे फूल के बात करता हैं लम्बी दूरी दोडकर धावक विजयी सांस भरता हैं जबकी न तो कार खडी करने की जगह हैं न चलाने बैठने का सहूर.....

मंहगाई का हास्यास्पद पहलू यह भी हैं कि रतन टाटा के द्वारा भारतीय मघ्यम वर्ग के बजट को ध्यान में रख कर बनाया नैनो का सबसे सस्ता माडल सबसे कम बिका मंहगे माडल की मांग आज भी बनी हुई हैं अर्थात सस्ती क्यों ले, अरहर दाल नब्बे रुपये किलो हुई बाजार में विकल्प के रुप में मटर दाल को पैतीस रुपये किलो लाया गया जिसमे अपेक्षाकृत ज्यादा फैट, प्रोट्रीन, कारर्बोहाईड्रट और मिनरल और विटामिन हैं और बनाने बघारने की कला के साथ ज्यादा स्वाद भी लिया जा सकता था पर गले उतरना तो दूर इसकी पूछ परख भी नही हुई । दरअसल उपयोगिता से ज्यादा सुविधा को महत्व दिया जा रहा और इसी मनोविज्ञान के साथ घातक ढग से लोगो में सघर्ष करने की क्षमता खत्म हो रही हैं परिणामत आत्महत्या की प्रवृति बढी इसीलिऐ इस सच को समझ लेना चाहिये की अमीर बनने के लिऐ खर्च करना जरुरी हैं, खर्च करना सीख गऐ फिर, कमाना तो खुद ही सीख जाऐगे, कटुसत्‍य है कि बचत करके कोई अमीर नही बना । दुर्भाग्य से प्रजातंत्र का वोट बैंक इसी बात से बेपरवाह सामाजिक आर्थिक अराजकता फैला रहा हैं जिस सरकारी खजाने से अच्छे सडक, अस्पताल, स्कूल, पानी, कुटीर व पांरम्पारिक व्यवसाय के अलावा अनाज व उर्जा उत्पादन में उपयोग होना चाहिये वह मुफ्तखोरी के चावल बिजली बांटकर वोट बैंक बनाने में खर्च किया जा रहा हैं इस वजह से लोग मेहनत कर अपनी जरुरते जुटाने के बजाय मक्कार बनकर सरकारी सहूलियतो के लिऐ गरीब बना रहना अपेक्षाकृत ज्यादा बेहतर समझ रहे हैं देश के तमाम नीतिर्निधारक समृद्ध राष्‍ट्र निर्माण के लिऐ अगर अच्छे स्वास्थ, शिक्षा, रोजगार,सडक, पानी जैसी बुनियादी आवश्‍यकताओ को उचित नही समझते तो फिर अनिश्चित व दगाबाज वर्षा, बीज, और खाद पर जी तोड मेहनत कर भी कुछ उत्पादन की उम्मीद पर जीने वाला कुछ उत्‍पादन कर भी ले तो न्यूनतम् मूल्य के लिऐ आत्महत्या करने को मजबूर होने के बजाय किसान क्यों न अपनी खेतीहर भूमि को किसी बिल्डर या उद्योगपति को मोटी रकम में बेचकर वह भी जींस टी शर्ट पहन चकाचैंध करते बडे बडे शापिंग माल में पिज्जा बर्गर खाते हुऐ घूमे क्योकी एक छोटी जमीन के टुकडे का मालिक किसान भी लोन की शहरी जिन्दगी से बेहतर हैं, इसलिऐ बढती जनसंख्या के बावजूद लगातार अनाज उत्पादन में कमी आई हैं किसान के प्रति सरकारी बेरुखी के आत्‍मद्याती परिणाम हैं जय जवान जय किसान के देश में जब जवान सत्ता की सहूलियतो से महज वोट बैंक बनकर निकम्‍मा हो जाऐगा और किसान बेबस लाचार तो मंहगाई के आगे अराजकता भी मुंह बाऐ खडी हैं सत्‍ता से ही जुडे लोग वे दलाल किस्म के लोग भी हैं जो आयात निर्यात की कमीशनबाजी और जमाखेरी के खेल से अकेले महाराष्‍ट्र में पिछले प्‍याज के नाम पर तीन हजार करोड डकार गऐ थे.

सतीश कुमार चौहान , भिलाई 98271 13539

चलते चलते - कुछ हल्का फुल्का .....
कल रामहृदय तिवारी जी को प्रदान किये गये ग्यारहवे बहुमत सम्मान कार्यक्रम मे हमारी चर्चा प्रसिद्ध व्यंग्यकार, उपन्यासकार विनोद साव जी से हुई उन्होने हमे आरम्भ के हेडर मे कुछ सुधार करने का सुझाव दिया और हमने उस पर अमल किया. आपको कैसा लगा आरम्भ का नया हेडर .. . .?   संजीव तिवारी.  

विश्वरंजन या तो मारे जाएंगे या जेल जाएंगे - सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख जनहित वकील प्रशांत भूषण ने आक्रोश में कहा


विशेष संवाददाता, रायपुर, 11 जनवरी (छत्तीसगढ़)। प्रसिद्ध सुप्रीम कोर्ट वकील और अनेक जनवादी संगठनों की ओर से विभिन्न मामलों में पैरवी करने वाले प्रशांत भूषण छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन पर जमकर बरसे। उन्होने आपरेशन ग्रीन हंट को तत्काल रोकने की मांग करते हुए कहा कि जिस हिसाब से छत्तीसगढ़ पुलिस निर्दोष आदिवासियों का खून बहा रही है उसके चलते जल्द ही या तो विश्वरंजन गोली से मार दिए जाएंगे अथवा वे जेल के भीतर होंगे।

उन्होने चेतावनी दी कि ग्रीन हंट से सिविल वार का अंदेशा है और यह गृह युद्ध छत्तीसगढ़ के शहरी क्षेत्रों को भी अपनी लपेट में ले लेगा। उन्होने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में एमनेस्टी इंटरनेशनल भेजे जाने की मांग भी की। उन्होने विश्वरंजन को छद्म साहित्यकार निरूपित करते हुए छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों की इस बात को लेकर आलोचना की कि वे विश्वरंजन को साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित कर उन्हे सिर पर उठाए घूम रहे हैं।

एक कार्यक्रम के सिलसिले में बिलासपुर आए प्रशांत भूषण कल प्रसिद्ध वकील कनक तिवारी के कार्यालय में शहर के कुछ चुनिंदा पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के साथ बातचीत कर रहे थे। उन्होने इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि नक्सलवादियों द्वारा भी निर्दोष आदिवासियों के कत्ल किए जा रहे हैं। उन्होने कहा कि हो सकता है नक्सलियों की ओर से कुछ लोग मारे गए हों परंतु इसका अनुपात एक के मुकाबले सौ ही है। यानि अगर पुलिस वाले सौ बेगुनाहों को मार रहे हैं तो एकाध आदिवासी नक्सलियों की ओर से मारा जा रहा होगा। हालांकि उन्होने कहा कि इस बात की उन्हे ज्यादा जानकारी नहीं है कि नक्सली क्या कर रहे हैं।

उन्होने कहा कि ग्रीन हंट के नाम पर विश्वरंजन जंगलों में जो कर रहे हैं वह उन्हे 'सबसे बड़ा अपराधी साबित करने के लिए पर्याप्त है और उचित समय पर वे जेल जाएंगे। उन्होने बताया कि इस ऑपरेशन से नक्सलियों की तादाद बढ़ेगी। जिन निर्दोषों को सताया जा रहा है उनमें से कम से कम एक फीसदी तो नए नक्सली बनेंगे।

प्रशांत भूषण का मानना है कि ग्रीन हंट का असर कम से कम दो लाख आदिवासियों पर होगा पर इनमें से दो हजार लोग निश्चित ही नक्सली बनेंगे। इस तरह डीजीपी नए नक्सली पैदा कर रहे हैं और माओवादियों का कैडर विस्तारित कर रहे हैं। उन्होने चेतावनी दी कि ग्रीन हंट के खिलाफ इतना भीषण रोष है कि यह गृह युद्ध में तब्दील हो जाएगा। उन्होने चेतावनी दी कि शहर वाले ये न समझें कि वे इस युद्ध से अछूते रह जाएंगे। जंगलों से निकलकर नक्सली शहरी इलाकों में भी कार्रवाई करेंगे।

प्रशांत भूषण ने इस बात पर रोष जताया कि आदिवासियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले और मानवाधिकार की चिंता करने वाले हर किसी को विश्वरंजन नक्सली बताने पर तुले हैं और उनके खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं। डॉ. बिनायक सेन, हिमांशु आदि इसी नीति के शिकार हो रहे हैं। उन्होने बताया कि इन तमाम परिस्थितियों पर विचार-विमर्श करने के लिए दिल्ली में एक बैठक इसी शनिवार को बुलाई गई है जिसमें अनेक प्रसिद्ध बुद्धिजीवी, मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ता आदि शामिल होंगे।

यह पूछे जाने पर कि क्या नक्सलियों को भी बातचीत के लिए आगे नहीं आना चाहिए, उन्होने कहा कि आखिर वे (नक्सली) किस विषय पर बातचीत करेंगे। उनका तो लोकतंत्र में विश्वास ही नहीं है और वे इस राज्य की सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। प्रशांत भूषण ने तत्काल राज्य की ओर से युद्ध विराम की मांग करते हुए कहा कि इसके साथ ही तीन काम किए जाने अत्यंत आवश्यक हैं, वे हैं-भूमि सुधार लागू करना, खदान माफिया खत्म करना और एसईजेड के नाम पर होने वाले गैर कानूनी भूमि अधिग्रहण व निजीकरण को रोकना।

प्रशांत भूषण का दावा है कि इतना भी अगर किया जाता है तो माओवादियों की गतिविधियां काफी सीमित हो जाएंगी। जब उनके ध्यान में लाया गया कि छत्तीसगढ़ में एसईजेड जैसी कोई चीज ही नहीं है और निजीकरण भी माओवादियों की गतिविधियों के मुकाबले हाल ही में लागू हुआ है तो उन्होने कहा कि किसी भी रूप में जमीनों का हो रहा अधिग्रहण रोका जाना चाहिए क्योकि इससे आदिवासियों में व्यापक असंतोष फैल रहा है और उनके जीवन-यापन के साधन छिन रहे हैं।

उन्होने पूरे लाल गलियारे (माओवादियों के प्रभाव वाला पट्टा) में एसईजेड के कारण नक्सली गतिविधियों के बढऩे की बात कही। उन्होने कहा कि एसईजेड दरअसल पैसे वालों के लिए अनैतिक और गैर सांवैधानिक तरीके से जमीन हथियाने की सरकारी चाल है जिसमें जनता का कोई फायदा नहीं है। यहां बड़े-बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान आएंगे और उसके बाद आदिवासियों और ग्रामीणो के लिए कोई भी विकल्प नहीं बचेगा। वे या तो अपनी जमीनें छोडक़र भाग जाएंगे अथवा नक्सली बनकर लड़ते रहेंगे। माओवादियों के इलाकों में खदानों के निजीकरण पर तत्काल रोक की मांग करते हुए प्रशांत भूषण ने कहा कि इससे सरकार को कोई विशेष फायदा नहीं हो रहा है।

कर्नाटक में सरकार को लौह अयस्क में प्रति टन रायल्टी 27 रुपए मिलती है जबकि उसे उद्योगपति छह सौ रुपए प्रति टन की दर से खुले बाजार में बेचते हैं। उड़ीसा में स्टरलाईट इंडस्ट्रीज ने कई लाख टन बाक्साइट भंडार वाले नियामगिरी खदानों पर गैर कानूनी तरीके से कब्जा कर लिया है जिससे वहां के आदिवासियों में व्यापक असंतोष फैला हुआ है। उन्होने आरोप लगाया कि इसमें गृह मंत्री पी. चिदंबरम का भी शेयर है।

प्रशांत भूषण के अनुसार यह खदान माफिया लगातार फल-फूल रहा है और लगभग सभी राजनैतिक दलों की इसमें हिस्सेदारी है। इसीलिए सरकार ने उनसे जमीनें अधिग्रहित कर इन कंपनियों को दे दी है। इसी के चलते माओवादियों का प्रभाव क्षेत्र लगातार बढ़ रहा है तथा कोई भी सरकार उन पर प्रभावशाली ढंग से अंकुश नहीं कर पा रही है। इसका कारण उन्होने यह भी बताया कि पुलिस का मनोबल अत्यंत गिरा हुआ है जबकि माओवादी कई वर्षों से इतने बड़े क्षेत्र में बढ़ते मनोबल के साथ संघर्षरत है।

हालांकि प्रशांत भूषण ने यह भी माना कि नक्सलियों का कोई संगठित नेतृत्व नहीं है और जो बुद्धिजीवी व सामाजिक कार्यकर्ता उनके बीच काम करने जा रहे हैं वे भी उन्हे प्रभावित करने की स्थिति में नहीं है और न ही किसी बातचीत में उनका प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। उन्होने कहा कि सबसे पहले आदिवासियों को बराबरी के स्तर पर लाया जाए तभी कोई बातचीत अर्थर्पूण रहेगी। गैर बराबर पक्षों के बीच कोई बातचीत नहीं हो सकती। इस दिशा में उन्होने राज्य और लोगों के सहयोग को भी आवश्यक बताया।

प्रशांत भूषण ने यह मानने से इंकार किया कि नक्सलवादी भी निर्दोष आदिवासियों का बड़े पैमाने पर कत्ल कर रहे हैं। उनका दावा था कि जिस पैमाने पर पुलिस आदिवासियों को मार रही है उसके मुकाबले नक्सलियों द्वारा निर्दोषों को काफी कम तादाद में मारा जा रहा है। उन्होने कहा कि हो सकता है कुछ मुखबिर आदि उनके हाथों मारे गए हों। लेकिन इस बारे में उन्हे ज्यादा जानकारी न होने से उन्होने किसी तरह की टिप्पणी करने से इंकार किया। उन्होने मांग की कि इस क्षेत्र में एमनेस्टी इंटरनेशनल या राष्ट्रसंघ द्वारा नियुक्त कोई एजेंसी या व्यक्तियों को भेजा जाना चाहिए जो वहां जाकर वस्तुस्थिति की निष्पक्ष जांच करे और निदान सुझाए।

सलवा जुडूम को पूरी तरह से गैर कानूनी और असंवैधानिक सशस्त्र बल बताते हुए प्रशांत भूषण ने कहा कि अगर यहां हिंसा को रोकना है तो सलवा जुडूम को तत्काल खत्म करना होगा। इन क्षेत्रों के चुनावों को भी उन्होने छद्म बताया।

स्कूल और अन्य विकास कार्यों में नक्सलियों द्वारा अवरोध पैदा करने और उन पर हमले किए जाने की ओर ध्यान दिलाने पर प्रशांत भूषण ने कहा कि नक्सली उन्ही स्कूलों को अपना निशाना बना रहे हैं जहां पर कोई पढ़ाई नहीं होती और उनमें माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे सशस्त्र बल ने अपना ठिकाना बना रखा है। उन्होने कहा कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं है क्योकि वे तो पुलिस वालों के खिलाफ युद्ध कर रहे हैं सो उन पर वे हमले तो करेंगे ही। उन्होने यह भी माना कि मुख्य सडक़ों से ज्यादा अंदर विकास कार्य होने संभव ही नहीं है। सरकारी एजेंसियां और मुलाजिम उनमें घुस ही नहीं सकते क्योकि वहां माओवादियों ने बारूदी सुरंगे बिछा रखी हैं।

छत्तीसगढ़ के मीडिया के कामकाज पर भी उन्होने असंतोष जताते हुए कहा कि राष्ट्रीय मीडिया और स्थानीय समाचार पत्रो में उन्हे एकदम अलग तरह की रिपोर्टिंग इस विषय पर देखने को मिली है। राष्ट्रीय मीडिया ज्यादा सही और जिम्मेदारी से रिपोर्टिंग कर रहा है जबकि यहां का मीडिया पुलिस के खौफ से अथवा किसी अन्य प्रभाव से पुलिस के पक्ष में लिख रहा है। प्रशांत भूषण ने बताया कि इन स्थितियों को देखते हुए कहा कि यहां के मीडिया पर बहुत विश्वास नहीं किया जा सकता और वे कोई मानवाधिकार आयोग अथवा उच्चा स्तरीय समिति लाने की कोशिश करेंगे ताकि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जो हो रहा है उसकी वस्तुस्थिति का पता चल सके।

न्यायपालिका को पुलिस विभाग के बाद दूसरा सबसे बड़ा भ्रष्ट विभाग बताते हुए प्रशांत भूषण ने कहा कि यह कोई सोच ही नहीं सत्ता कि सुप्रीम कोर्ट जैसे प्रतिष्ठान में भी पचास फीसदी से ज्यादा जस्टिस भ्रष्ट हैं। उन्होने कहा कि अगर कोई यह कहता है कि ज्यादा भ्रष्टाचार नीचे स्तर पर है और ऊपर के स्तर पर कम तो ऊपर की कोर्ट निचली कोर्ट के भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए कोई कदम क्यो नहीं उठाती? उन्होने कहा कि गाजियाबाद प्रकरण से तो यह स्पष्ट हो गया है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे चलता है तथा उस स्तर पर भ्रष्टाचार की राशि का एक बडा हिस्सा उपर तक जाता है।

मेरी मौत कैसे होगी, यह प्रशांत भूषण तय नहीं करेंगे : विश्वरंजन


प्रशांत भूषण के इस बयान पर कि छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन या तो गोली से उड़ा दिए जाएंगे अथवा जेल में होंगे, खुद श्री विश्वरंजन का कहना है कि आदमी की मौत सिर्फ एक बार होती है और वे इस बात की परवाह नहीं करते कि उनका सामना मौत से कैसे होगी। उन्होने पूछा कि आखिर प्रशांत भूषण यह तय करने वाले कौन होते हैं कि उन्हे नक्सली गोली मारेंगे या नहीं?


प्रशांत भूषण के बयान को पूरी तरह एकतरफा बताते हुए विश्वरंजन ने कहा कि छत्तीसगढ़ के बारे में उनके पास पर्याप्त जानकारी नहीं है। पुराने बस्तर का कुल क्षेत्रफल करीब 40 हजार वर्ग किलोमीटर है जिसमें से बामुश्किल दो सौ वर्ग किलोमीटर पर खनिज पट्टे हैं और यहां निजी औद्योगिक घरानों को खदाने देने के काफी पहले से माओवाद पनप चुका है।

बस्तर में तो 1980 से माओवादी निर्दोषों का खून बहा रहे हैं, विकास रोक रहे हैं तथा स्कूल-सडक़ों को ध्वस्त कर रहे हैं। प्रशांत भूषण को चाहिए कि वे छत्तीसगढ़ खनिज विभाग से जानकारी लेकर अपने बयान को खुद ही सच्चाई की कसौटी पर कसें। निजीकरण और एसईजेड प्रदेश के लिए माओवाद के इतिहास के मुकाबले काफी नए हैं।

विश्वरंजन का कहना है कि ग्रीन हंट ऑपरेशन को रोकने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होने कहा कि ग्रीन हंट के अंतर्गत सिर्फ नक्सली ही निशाने पर हैं और इसके साथ ही आदिवासियों के बीच ग्रीन हंट ऑपरेशन इस बात का जनजागरण कर रहा है कि पुलिस उनकी रक्षा में तत्पर है तथा वे अपनी सुरक्षा संबंधी समस्याएं लेकर पुलिस के पास आएं। पुलिस उनकी पूरी हिफाजत करेगी। उन्हे हमसे डरने की जरूरत नहीं है।

डीजीपी ने दावा किया कि इसका व्यापक असर हुआ है और आदिवासी खुद को पहले से ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रहे हैं तथा पुलिस को स्वस्फूर्त सहयोग दे रहे हैं। उन्होने प्रशांत भूषण के इस बयान को भी गलत बताया कि पुलिस के हाथों सौ निर्दोषों की हत्या के मुकाबले नक्सली एक बेगुनाह आदिवासी को मार रहे हैं। उन्होने कहा कि पिछले कई वर्षों से नक्सली निर्दोष आदिवासियों के खून-खराबे का घिनौना खेल खेलते आ रहे हैं। हाल ही में एक प्रदर्शनी लगाई गई थी जिसमें प्रदर्शित चित्रों में स्पष्ट दिखाई देता है कि नक्सली किस हद तक हिंसा का इस्तेमाल कर रहे हैं और निर्दोष आदिवासियों और नागरिकों के प्राण ले रहे हैं।

प्रशांत भूषण द्वारा एमनेस्टी इंटरनेशनल की ओर से नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किए जाने के प्रस्ताव पर श्री विश्वरंजन ने कहा कि कोई भी व्यक्ति या एजेंसी आकर देख सकती है कि इन क्षेत्रों में क्या हो रहा है। ऐसे किसी भी व्यक्ति या एजेंसी का स्वागत है।

पुलिस महानिदेशक का कहना है कि अगर बातचीत के लिए नक्सलियों के पास कोई मुद्दा ही नहीं है तो इतनी लंबी लड़ाई आखिर वे किस आधार पर लड़ रहे हैं यह उनके बीच जाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं,
मानवाधिकार संगठनों और उनके प्रतिनिधियों के सोचने की बात है। इसी से साबित होता है कि वे हिंसा में विश्वास रखते हैं और शांति प्रक्रिया में शामिल नहीं होंगे।

प्रशांत भूषण के इस बयान पर कि 'विश्वरंजन छद्म साहित्यकार हैं, उन्होने कहा कि यह तय करना साहित्यिक बिरादरी और पाठकों का काम है न कि प्रशांत भूषण का। इसके बारे में उन्हे बहुत ज्यादा कुछ नहीं कहना है।



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(यह रपट हम छत्तीसगढ से साभार प्रस्तुत कर रहे है)

वनवासियों की असल चेतना


जलते बस्तर के दंतेवाडा से लगातार आ रहे समाचारों - विचारों की कडी में संपादक सुनील कुमार जी का विशेष संपादकीय कल छत्तीसगढ में पढने को मिला. देश की स्थिति परिस्थिति के संबंध में मीडिया जनता तक सच को लाती है, दिखाती है या पढाती है. इस संपादकीय से यह स्पष्ट हुआ कि यह मीडिया का नैतिक कर्तव्य ही नहीं आवश्यक कार्य (ड्यूटी) भी है. और सुनील कुमार जी नें इसे बखूबी निभाया है. लोगों को वास्तविक परिस्थिति से अवगत कराने की मीडिया की भूमिका को कायम रखते हुए सुनील कुमार जी नें समय समय पर अपने समाचार पत्र में व संपादकीय में छत्तीसगढ का स्पष्ट चित्र सदैव प्रस्तुत किया हैं. वर्तमान परिदृश्य में दंतेवाडा में गांधीवाद के नाम पर विश्व जन मानस को प्रभावित करने एवं अपने पक्ष में लेने के तथाकथित मानवाधिकार वादियों के प्रयासों की हकीकत ‘खादी की बंदूकें’ से उजागर हो गई है.
पिछले दिनों हिन्दी ब्लागों में भी बहुत हो हल्ला हुआ कि छत्तीसगढ के ब्लागर्स एवं पत्रकार कुछ विशेष आवश्यक और ज्वलंत मुद्दों में तथ्यात्महक एवं विचारपरक रपट प्रकाशित नहीं कर रहे हैं. ब्लाग जगत में सक्रिय रहने के कारण हम पर भी स्पष्ट‍त: ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि हम पुलिस की बर्बरता और दमन पर चुप्पी साध लेते हैं. पुलिस या प्रशासन के विरूद्ध नक्सल मामलों में कुछ भी लिखने से हम कतराते हैं और उसमें तुर्रा यह कि छत्तीसगढ के ब्लागर्स नक्सली हिंसा पर मानवाधिकार वादियों की चुप्पी पर तगडा पोस्ट ‘ठेलते’ हैं. आखिर क्यों छत्तीसगढ की मानसिकता मानवाधिकार वादियों के विरोध में ही कलम चलाना चाहती है. क्योंकि वह सत्य को सिर्फ पढती नहीं है उसे महसूस करती है.
पिछले कई दिनों से इन तथाकथित मानवाधिकार वादियों के नाट्य प्रयोगों का साक्षी छत्तीसगढ रहा है. वर्तमान में इनका प्रायोजित रंगशिविर दंतेवाडा में चल रहा है जिसमें भाग ले रहे नाट्यकर्मी व दर्शक सभी छत्तीसगढ से बाहर के निवासी हैं. इन प्रस्तुतियों का तथाकथित उद्देश्य दिल्ली और विश्व पाठक समुदाय में प्रायोजकों के सत्य‍ को स्थापित करना है और प्रायोजकों को स्थानीय पत्रकारों पर भरोसा नहीं था इसलिए यहां पत्रकार बाहर से बुला लिये गये. गांधीवाद के इस संस्करण के विमोचन समारोह से समाचार यह आया हैं कि दंतेवाडा में जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडे और नर्मदा बचाओ आन्दोलन की नेत्री मेधा पाटकर को आदिवासियों के तीव्र विरोध का सामना करना पडा है. दोनों के साथ धक्का-मुक्की की गयी और सन्दीप पांडे को मोटर साइकिल से गिरा कर उन पर पत्थर, सड़े हुए अंडे और टमाटर फेंके गए. यह घटना बस्तर के जनजातीय इतिहास में आदिवासियों की एकजुटता और अन्याय के विरूद्ध उठ खडे होने की प्रवृत्ति को दर्शाता है. उनका यह विरोध गांधीवाद के नाम पर खादी की बंदूकें बनाकर नक्सल मोर्चे पर नक्सलियों का साथ दे रहे लोगों का विरोध है.
संपादक जी ने ‘खादी की बंदूकें’ में सभी विचारणीय मुद्दों पर बेबाकी से अपना कलम चलाया है. आशा है मीडिया का महानगरीय और अंतरराष्ट्रीय तबका भी इस छद्म गांधीवादी सत्य को समझेगा और छत्तीसगढ के बहुसंख्यषक आदिवासियों के इस विरोध को स्वीकार करेगा. धीरे-धीरे वनवासियों की असल चेतना अब जागृत होने लगी है और क्लेम व ब्लेम के खेल की अंतिम पारी खेली जा रही है.
संजीव तिवारी

खादी की बंदूकें - सुनील कुमार जी की विशेष संपादकीय

बस्तर में सरकार के खिलाफ कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आकर एक प्रदर्शन शुरू किया तो वहां के स्थानीय लोगों में से सैकड़ों ने उसका विरोध शुरू किया है। इन स्थानीय लोगों का मानना है कि अपने-आपको गांधीवादी कहने वाले ये संगठन नक्सलियों के हाथ मजबूत करने का काम कर रहे हैं। सरकार का भी यही मानना है कि ऐसे बहुत से संगठन लगातार सरकार को और सुरक्षा बलों को चारों तरफ अदालतों से लेकर आयोगों तक में फंसाकर उन्हें नक्सल मोर्चे से दूर उलझाकर रखने का काम कर रहे हैं और इससे नक्सलियों के हाथ मजबूत हो रहे हैं। मीडिया का एक तबका जो बस्तर से दूर बसा हुआ है वह भी बस्तर के आदिवासियों के मानवाधिकार हनन की उन्हीं कहानियों को सुन रहा है और सुना रहा है जिनमें आरोप सुरक्षा बलों पर लगे हैं या सरकार पर लगे हैं। नक्सलियों की की जा रही लगातार हिंसा के बारे में उनके पास उसी सांस में कहने के लिए बस दो शव्द होते हैं जिस सांस में वे सरकार को कटघरे में खड़ा करके उसे रायपुर से बिलासपुर होते हुए दिल्ली तक जवाबदेह और जिम्मेदार ठहराते हैं।

यह बात सही है कि लोकतत्र में जवाबदेह और जिम्मेदार तो सरकार ही होती है। लगातार हिंसा करने वाले नक्सली या दूसरे किस्म के आतंकी या इन दोनों ही किस्मों के अपराधी उस तरह से जवाबदेह नहीं होते जिस तरह लोकतांत्रिक निर्वाचित सरकार होती है। लेकिन बस्तर को मानवाधिकार हनन के आरोपों के कतरों के मार्फत देखने वाले बाहरी पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता या संगठन और दुनिया भर में बसे हुए अमनपसंद बुद्धिजीवी इस बात को नहीं समझ पा रहे कि बस्तर में ये हालात हुए कैसे हैं, इन स्थितियों को लाने के लिए जिम्मेदार कौन हैं और आज वहां पर लहू बहाने का दावा कौन लोग कर रहे हैं? मीडिया का एक महानगरीय और अंतरराष्ट्रीय तबका ऐसा है जिसकी लिखी हुई रिपोर्ट देखें तो उसमें इस हकीकत की कोई झलक नहीं दिखती और वे एक एक्टिविस्ट - जर्नलिस्ट की तरह सरकार के खिलाफ लगे हुए हैं। सरकार के खिलाफ असहमति लोकतंत्र का एक जरूरी हिस्सा है और हम खुद लगातार स्थानीय, राज्य और केंद्र सरकारों के खिलाफ, सरकारों से परे की बाजार की सत्ता के खिलाफ लगातार आवाज उठाते हैं। लेकिन आज की यह चर्चा हमारे बारे में नहीं है बल्कि उन लोगों के बारे में है जो छत्तीसगढ़ के तमाम मीडिया को एक लाईन लिखकर खारिज करते हैं कि यहां का मीडिया मानवाधिकार संगठनों के खिलाफ है या सरकार के हाथों बिका हुआ है या दोनों ही है। हम इस बहस में भी अभी पडऩा नहीं चाहते क्योकि इस तरह की खरीदी-बिक्री चाहे स्थानीय मीडिया की हो या फिर दिल्ली- मुंबई के उस बड़े मीडिया की हो जिसके एक बड़े हिस्से के चुनावों में पूरी तरह से बिक जाने और नेताओं की जीत के पहले ही उनके सिक्कों के लिए मुजरा करने की खबरें खुद दिल्ली के कुछ जिम्मेदार अखबारों में छपी हैं, और मीडिया से परे भी सामाजिक कार्यकर्ता या सामाजिक संगठन किस तरह बिक सकते हैं वह भी सबने देखा हुआ है इसलिए जब तक किसी की खरीद बिक्री के बिल या उसकी रसीदें उजागर न हो जाएं तब तक हम उस पटरी पर अपनी आज की गाड़ी को ले जाना नहीं चाहते। लेकिन आज बहस का और चर्चा का एक बहुत बड़ा मुद्दा यह है कि गांधीवाद क्या है और आज गांधीवाद के नाम पर जो लोग आतंक का साथ दे रहे हैं वे लोक्तंत्र का भला कर रहे हैं, गांधीवाद का भला कर रहे हैं, या आतंक के हाथ मजबूत कर रहे हैं।

किसी लेबल से अगर सब कुछ अच्छा हो जाता तो फिर बाल कल्याण संस्थान बनाकर बच्चों के देह शोषण करने वाले अपराधी भी बच्चों के प्रिय चाचा बन गए होते। लेकिन नाम से बढ़कर नीयत मायने रखती है। आज अपने-आपको गांधीवादी के रूप में प्रचारित करने वाले बस्तर के एक सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार पूरी दुनिया में बस्तर को लेकर खबरों में हैं। लेकिन उनके अनशन के प्रचार-प्रसार के लिए देश भर से बस्तर के दंतेवाड़ा में आकर कैम्प कर रहे पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के भेजे ई-मेल अगर देखें तो गांधीवाद के इस संस्करण के चेहरे से परदा उठ जाता है। जिस तरह एक ही सांस में नक्सलियों और सरकार को एक बराबर गिना जा रहा है वह देखने लायक है। इनके बयानों को पढ़ें और इसी किस्म से देश के कुछ प्रमुख लेखों और स्तंभकारों के अभियान को देखें तो दूर बैठे लोगों को यह लगेगा कि बस्तर के बेकसूर और मासूम आदिवासी दो पाटों के बीच में पिस रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि बस्तर एक खलबट्टा बन चुका है जिसमें सरकार तो खल है और उसके ऊपर बैठे आदिवासियों को नक्सलियों का बट्टा कूट रहा है। अब अगर आदिवासियों की नीचे की जमीन को भी चक्की का एक पाटा मान लिया जाएगा तो फिर दो पाटन के बीच में किस्म की बहुत सी कहावतें तो निकल ही आएंगी।

आज जब पूरे देश की मीडिया का एक हिस्सा और कुछ आंदोलनकारी-पत्रकारिता करने वाले लोगों की मेहरबानी से पूरी दुनिया के मीडिया का एक हिस्सा बस्तर से निकलते हुए हर झूठ को सच मानने पर आमादा बैठा है तब नक्सलियों के हाथ मजबूत करने की खुली साजिश को भी गांधीवाद कहा जा सकता है। हमने पिछले दिनों अपने संपादकीय में छत्तीसगढ़ के सबसे अधिक चर्चित मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता डॉ. बिनायक सेन के बारे में लिखा था कि किस तरह वे मुंबई में जगह-जगह भाषण दे रहे हैं और मुंबई के उनके प्रति भारी सहानुभूति दिखाने वाले पत्रकारों की रिपोर्ट में ही उन्होने छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की बेदखली के आंकड़ों में सच से कोसों दूर के आंकड़े दिए थे। हम उस बात को यहां पूरे का पूरा दोहराना नहीं चाहते लेकिन आज छत्तीसगढ़ में कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लोक्तंत्र, मानवाधिकार और गांधीवाद के नाम पर जिस तरह की अराजकता को बढ़ावा देने का काम किया है उससे इस सीधे-सादे प्रदेश में इन तीनों महत्वपूर्ण शव्दो का मतलब बदनाम हो गया है। आज नक्सलियों से लड़ाई में जूझती हुई छत्तीसगढ़ सरकार सहित देश के आधे दर्जन राज्यों की सरकारें और उनके पीछे खड़ी केंद्र सरकार का कितना वक्त और कितना पैसा इस मोर्चे पर खर्च हो रहा है, आदिवासियों का कितना लहू नक्सलियों के हाथ बह रहा है, इन सबको अनदेखा करके सिर्फ सरकार को कोसते चलना, सिर्फ स्थानीय मीडिया के बिक जाने की बात कहते चलना, किस तरह का गांधीवाद है, किस तरह का लोक्तंत्र है और किस तरह का मानवाधिकार है? जब नक्सली दर्जनों लोगों को धमाकों से मारकर उनके चिथड़ों के बारे में अफसोस भर जाहिर कर देते हैं कि उन्होने इन बेकसूरों को पुलिस जानकर मार डाला था, तो ऐसे वक्त ऐसे एक्टिविस्ट - जर्नलिस्ट और ऐसे तथाकथित गांधीवादी मोटे तौर पर चुप बैठे रहते हैं। बस्तर में हिमांशु कुमार को तो चाहिए था कि नक्सलियों की हिंसा के खिलाफ वे आमरण-अनशन पर बैठते जिसके लिए कि गांधी जाने जाते थे और फिर नक्सलियों के वायदे के साथ आए फलों के रस को पीकर अनशन तोड़ते। लेकिन अफसोस यह है कि नक्सली हिंसा के खिलाफ न होकर उनका सारा गांधीवाद सरकार के खिलाफ हो गया है।

यहां पर एक बात का फर्क बहुत साफ कर देने की जरूरत है। जिन लोगों के भी मन में नक्सलियों के लिए एक समर्थन है और सरकार के लिए एक हिकारत है उन्हें ठंडे दिल से इस बात को समझना होगा कि नक्सली अपनी की गई हिंसा के दावे करते हैं, उन हत्याओं के तरीकों को लेकर लंबे-चौड़े छपे हुए बयान जारी करते हैं जिनमें हत्याओं पर फख्र किया जाता है। दूसरी तरफ सरकार के सुरक्षा जवानों के खिलाफ हिंसा के आरोप लगते हैं, जिनमें से अधिकांश आरोपों का सरकार की तरफ से खंडन होता है और कुछ आरोपों पर कार्रवाई होती है, कुछ पर अदालतों या मानवाधिकार आयोगों के कहे जांच होती है। लेकिन सरकार जिस हिंसा से इंकार कर रही है उसे सच मानकर उसके सिर पर हमलों की बौछार कर देना और दूसरी तरफ नक्सली जिस हिंसा का दावा करते हैं उस हिंसा की तरफ आंखे बंद रखना किस तरह का गांधीवाद है? अंग्रेजी के दो शव्दो को लेकर इस बात को और साफ किया जा सकता है, नक्सली अपनी हिंसा का क्लेम (दावा) करते हैं, दूसरी तरफ सरकार अपने पर लगे ब्लेम (आरोप) को खारिज करती है। ऐसे में इस क्लेम और इस ब्लेम को एक बराबर मानकर जब ये तथाकथित गांधीवादी अपने हर बयान में इसे बराबरी की हिंसा, इसे युद्ध की स्थितियां करार देते हैं तो उन्हें मासूमियत का लाभ नहीं दिया जा सकता। ये लोग बहुत ही समझदार लोग हैं और झूठ के ऐसे अभियान का तरीका और उसका असर ठीक से जानते हैं। खुद के किए हुए क्लेम और दूसरों के लगाए हुए ब्लेम को जो लोग बराबरी का मान रहे हैं वे लोग आज के इस नाजुक दौर में गांधीवाद के नाम पर खादी की बंदूकें बनाकर नक्सल मोर्चे पर नक्सलियों का साथ दे रहे हैं। सरकार की हुई गलतियों को पकडऩा और उसे कटघरे में खड़ा करना तो आसान है लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि यह कटघरा लोक्तंत्र पर आधारित सरकार को घेरे रखने और बंदूक की नली से निकली हुई शासन व्यवस्था को कायम करने के मकसद से किया गया काम तो नहीं है। आज छत्तीसगढ़ में लोक्तंत्र, मानवाधिकार, गांधीवाद, और सामाजिक आंदोलन की सारी की सारी साख उन बिनायक सेनों पर दांव पर लगा दी गई है जिनकी जनता में साख शुन्य है। ऐसे में अगले किसी मुद्दे पर दांव पर लगाने के लिए गांधी की और हड्डियां कहां से लाई जाएंगी? आज खादी की बंदूकें बनाकर लोक्तंत्र के खिलाफ लडऩे वाले लोग इस देश को गांधी से बहुत दूर ले जा रहे हैं।


लेखक प्रदेश के लोकप्रिय दैनिक छत्तीसगढ समाचार पत्र के सम्पादक है.
उनका मेल आईडी है - editor.chhattisgarh@gmail.com

(यह सम्पादकीय हम छत्तीसगढ से साभार प्रस्तुत कर रहे है)

धीरज धरें हिन्दी ब्लागजगत मे लाखों रुपये बरसने वाले हैं

हिन्दी ब्लाग जगत में लगातार नये ब्लागरों के आगमन एवं वर्तमान ब्लागरों की चढ-बढ कर ली जा रही हिससेदारी यह शुभ संदेश देती है कि हिन्दी ब्लागरी का भविष्य उज्वल है. हिन्दी ब्लागरों के द्वारा ब्लाग से कमाई संबंधी पोस्टों पर अधिकाधिक चटका लगाना यह संकेत देता है कि अधिकांश ब्लागरों के मन में हिन्दी ब्लागरी से कमाई करने की आशा जीवंत है जो आज नहीं तो कल साकार अवश्य होगी. अभी भी गूगल एड सेंस व अन्य विज्ञापनों एवं नेट तकनीक में हिन्दी समर्थित कार्य करते हुए कई लोग बिना हो हल्ला किए भी अच्छा कमाई कर रहे हैं किन्तु बहुसंख्यक हिन्दी ब्लागरों के पहुच से अभी दिल्ली बहुत दूर है. हम गूगल एड सेंस या अन्य विज्ञापन के द्वारा हिन्दी ब्लागिंग में कमाई के प्रति उतने आशान्वित नहीं हैं किन्तु ब्लागिंग के द्वारा कमाई के अन्य पहलुओं पर हमें ज्यादा भरोसा है. इसके संबंध में हमने पहले भी पोस्ट लिखा था.

अभी पिछले दिनों हमारे इस सोंच को पुन: बल मिला. हिन्दी ब्लाग में प्रोत्साहन के लिए दिये जाने वाले पुरस्कारों का यदि आर्थिक आकलन किया जाए तो यह भी एक प्रकार से ब्लागिंग से लाभ माना जाएगा . हिन्दी ब्लागरों को लाभ के इस पहलू पर भी विचार करना चाहिए एवं पुरस्कार प्राप्त करने हेतु प्रयास करना चाहिए. हिन्दी ब्लागों में ऐसे पुरस्कारों का आगाज हिन्द युग्म नें किया था, हिन्द युग्म जनवरी 2007 से यूनिकोड-हिन्दी के प्रयोग के प्रचार और प्रसार के उद्देश्य से माह के चुनिंदा हिन्दी कविताओं के लिए लगभग  300 रू. की किताबें पुरस्कार स्वरूप देता रहा है जो आज बढते हुए लगभग 1000 रू. तक पहुच चुका है. उनका यह क्रम अनवरत जारी है. पिछले माह तक प्राप्त जानकारी के अनुसार रचनाकार में व्यंग्य लेखन पुरस्कार की राशि भी क्रमश: बढते हुए 10000 रू. से भी अधिक तक पहुच गई थी.

वर्तमान परिदृश्य में हिन्दी ब्लागिंग से कमाई का यह ग्राफ बहुत उपर तक पहुच गया है. हिन्दी ब्लागजगत के प्रोत्साहन के लिए अलबेला खत्री जी द्वारा जारी पोस्टों का हम अवलोकन करें तो यह स्पष्ट  हो जाता है. वर्ष 2009 के लिए हिन्दी ब्लॉग जगत के सर्वश्रेष्ठ  ब्लागर को रू. 25000 नगद,  टिप्पणीकर्ता को रू. 11000 नगद, विशेष पुरस्कार के रूप में रू. 51000 एवं अन्य सम्मान व पुरस्कार दिये  जाने वाले थे. इसके अतिरिक्त दमन में  100 चुनिंदा ब्लागरों को दिन भर की मौज मस्ती आदि पर खर्च होने वाले थे, कुल मिला कर ब्लागरों के इस सम्मेलन में खूब पैसा खर्च होने वाला था (मेरे अनुमान के अनुसार लगभग डेढ से दो लाख). दुर्भाग्य से यह आयोजन वर्तमान में नहीं हो सका किन्तु हमें विश्वास है भविष्य में यह आयोजन अवश्य ही होगा और निरंतर होगा. आगामी भविष्य में होने वाले ऐसे आयोजनो-पुरस्कारों-प्रोत्साहनों का आर्थिक आकलन बढते क्रम में ही होगा.

यद्धपि आप यह कह कर इस पोस्ट को दरकिनार कर सकते हैं कि यह लाभ तो उन्हें होगा जिन्हें पुरस्कार मिलेंगें, हमें क्या. किन्तु भविष्य में पुरस्कार आपको भी मिल सकता है. इसलिए उम्मीद का दामन मत छोडिये. क्योंकि .....


हिन्दी के नाम पर
लाभ कमाने का असल सूत्र
जिसके भी झोली में  आया है
उसने हर मौके पर
रुपये के साथ साथ
अपना नाम कमाया है.


संजीव तिवारी

रामहृदय को 11वां रामचंद्र देशमुख सम्मान


छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के अग्रपुरुष दाऊ रामचन्द्र देशमुख की स्मृति में स्थापित तथा लोक संस्कृति के प्रति प्रदीर्घ समर्पण एवं एकाग्र साधना के लिए प्रदत्त रामचंद्र देशमुख बहुमत सम्मान इस वर्ष राज्य के प्रतिष्ठित संस्कृतिकर्मी रामहृदय तिवारी को प्रदान किया जाएगा। दाऊ रामचन्द्र देशमुख की 11वीं पुण्यतिथि के अवसर पर 14 जनवरी को आयोजित एक गरिमामय समारोह में श्री तिवारी को 11 वें रामचन्द्र देशमुख बहुमत सम्मान से अलंकृत किया जाएगा। सम्मान के अंतर्गत श्री तिवारी को 11 हजार रुपए की सम्मान निधि, शाल, श्रीफल एवं प्रशस्ती पत्र से सम्मानित किया जाएगा।

निर्णायक समिति के निर्णय की जानकारी देते हुए वरिष्ठ कवि जय प्रकाश मानस ने बताया कि यह निर्णय वरिष्ठ साहित्यकार देवेश दत्त मिश्र की अध्यक्षता में गणित निर्णायक समिति द्वारा लिया गया है। समिति में जनवदी शायर मुमताज, रंगकर्मी राजेश गनोदवाले, कवि बीएल पाल, कथाकार विनोद मिश्र, सामाजिक कायकर्ता सुमन कन्नौजे, पत्रकार सहदेव देशमुख एवं समालोचक केएस प्रकाश सदस्य थे।

दुर्ग जिले के उरडहा गांव में 16 सितम्बर 1943 को जन्मे रामहृदय तिवारी लोककला के क्षेत्र में पिछले चार दशकों से सक्रिय है। एक स्वतंत्र रंगकर्मी के रुप में श्री तिवारीर सिर्फ रंगमंच ही नहीं अपितु नाट्यकर्म से जुड़ी अनेकानेक गतिविधियों में निरंतर संलग्न रहें हैं। श्री तिवारी द्वारा निर्देशित अंधेरे के उस पार भूख के सौदागर, भविष्य, अश्वत्थामा, राजा जिंदा है, मुर्गी वाला, झड़ीराम सर्वहारा, पेंशन, विरोध, हम क्यों नहीं गाते, अरण्यगाथा तथा अन्य अनेक हिन्दी नाटक छत्तीसगढ़ के समृद्ध रंगमंचीय इतिहास का हिस्सा तो बने ही, जनता के संघर्षमय जीवन की अंतरंग, शूक्ष्म और संवेदनशील अभिव्यक्ति के वाहक भी बने।

रामहृदय तिवारी ने कसक, संवरी, स्वराज, एहसास जैसी अनेक टेली फिल्मों का भी निर्देशन किया। श्री तिवारी ने छत्तीसगढ़ी नाचा, बोली, लोकगीत, लोककथा, लोक परम्परा, लोक संगीत, लोक नाट्य और लोक अभिव्यक्ति की विभिन्न विधाओं पर निरंतर और सौद्देयपूर्ण लेखन भी किया। वे लंबे संय तक हिन्दी रंगमंच क्षितिज रंग शिविर से जुड़े रहे और वर्तमान में राज्य की अत्यंत प्रतिष्ठित रंग संस्था लोक रंग अर्जुन्दा से संबद्ध है। वे लंबे समय तक दाऊ रामचंद्र देशमुख और दाऊ महासिंग चंद्राकर के सानिध्य में रहे।

बहुमत सम्मान निर्णायक समिति मानती है कि रामहृदय तिवारी ने छत्तीसगढी लोकजीवन की चहल-पहल को अत्यंत कलात्मक एवं उद्देश्यपूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान किया है। दाऊ रामचंद्र देशमुख ने जनता के सुख-दुख को जिस अंतरंगता एवं संवेदनशीलता के साथ लोकनाट्य का हिस्सा बनाया, रामहृदय तिवारी ने उसे सार्थक दिशा और अर्थपूर्ण विस्तार प्रदान किया। महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने पहले रंगकर्म को अपने जीवन का हिस्सा बनाया, बाद में उनका जीवन ही रंगकर्म का हिस्सा बन गया।

इस  ब्लाग मे रामहृदय तिवारी जी द्वारा रचित एवं उनके संबंध में सम्पुर्ण प्रविष्टियां यहां पढें.

(कथाकार विनोद मिश्र द्वारा जारी विज्ञप्ति के आधार पर)
संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...