सदभाव के शिल्पी : पद्मश्री जे.एम.नेल्सन
छत्तीसगढ के प्रसिद्ध मूर्तिकार जे.एम.नेल्सन को इस वर्ष पद्मश्री का सम्मान प्रदान किया गया । हम भिलाई में कई वर्षों से नेल्सन के कलागृह के सामने बडी-बडी मूर्तियों को आकार लेते देख रहे हैं साथ ही मीडिया में उनके मूर्तियों के जगह-जगह पर स्थापित होने का समाचार भी पढते आ रहे हैं । उनकी बनाई मूर्तियों की खासियत यह होती है कि राह चलता व्यक्ति भी उन मूर्तियों को देखकर ठिठक पडता है और निहाने लगता है उसकी जीवंतता को ।
आज नेलसन जी का जन्म दिन है, हम पिछले कई दिनों से उनसे मिलने का कार्यक्रम तय कर रहे हैं पर हो ही नहीं पा रहा है, आज उनके घर में हमने दस्तक दिया तो पता चला कि जे.एम.नेल्सन जी भिलाई के कुष्ट रोगियों के बीच परिवार सहित अपना जन्म दिन मनाने गये हैं अत: उनसे मुलाकात नहीं हो पाई, पर आज उनका जन्मदिन है इस कारण हम इस पोस्ट को और विलंब न करते हुए आज ही प्रस्तुत कर रहे हैं ।
मूर्तिकार नेलसन को जब यह सम्मान प्राप्त हुआ तो हमारे पत्रकार मित्रों से चर्चा के दौरान सहज स्वभाव के धनी नेलसन नें कहा कि ‘ कर्म ही पूजा है। इसी भावना से मैने अपना कर्म किया। सरकार ने उसका सम्मान करते हुए मुझे सम्मानित किया है। यह सम्मान प्रत्येक छत्तीसगढ़ वासियों का हैं जिनके आशीर्वाद व प्यार से आज मैं इस मुकाम तक पहुंचा हूं। उन्होंने कहा कि प्रकृति मेरा गुरू है। ईश्वर को इसका पूरा श्रेय देता हूं क्योंकि ईश्वर के द्वारा दी हुई कला को मैं केवल निखारता हूं। प्रदेश में चाहने वालों के कारण सरकार ने मुझे इस योग्य समझा व मुझे यह सम्मान दिया। कर्म की पूजा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति सम्मानित होता है। शासन ने भी इस भावना को ध्यान में रखकर मुझे यह सम्मान दिया। मैने कभी भी सम्मान अथवा पुरस्कार के लिए कोई कार्य नहीं किया किन्तु प्रदेश की जनता ने मुझे हमेशा ही सम्मानित किया है। वर्षों से मैं तपस्या करता आ रहा हूं। किन्तु कभी भी सम्मान की चाह नहीं रखी परंतु मुझे हमेशा ही लोगों ने पूरा आशीर्वाद व सम्मान दिया। उन्होंने कहा कि सरकार ने यह सम्मान देकर मुझे और अधिक कार्य करने के लिए संबल प्रदान किया है।‘
छत्तीसगढ के स्वनामधन्य जनों पर कलम चलाते हुए डॉ.परदेशीराम वर्मा जी इनके संबंध में लिखते हैं ‘ छत्तीसगढ के प्रसिद्ध मूर्तिकार जे.एम.नेल्सन की आज चतुर्दिक ख्याति है । विगत चालीस वर्षों की सतत कला साधना में रत नेलसन की कला नें आज एक विशेष मुकाम हासिल कर लिया है । उनके बनाये विशाल तैल चित्रों को देखकर कलापारखी चकित रह जाते हैं । अलग – अलग माध्यमों का भरपूर उपयोग कर जे.एम.नेल्सन नें स्वयं को अभिव्यक्त किया है ।
बमलेश्वरी मैया की नगरी डोंगरगढ से जब रेलगाडी गुजरती है तो खिडकी के पास बैठा यात्री मंदिर के ध्वज को दूर से देखकर सर झुका लेता है । डोंगरगढ से गुजर रही रेलगाडी की खिडकी से आजकल एक और भव्य मूर्ति का दमकता मस्तक दिखता है । यह माथा सहस्त्र सूर्यों के समान दैदिप्यमान, संसार में ज्ञान की दिव्य आंख के रूप में पूजित भगवान बुद्ध का है । भगवान बुद्ध की यह प्रतिमा 30 फीट उंची है । ध्यान मुद्रा में बैठे तथागत की यह भव्य मूर्ति प्रज्ञा पहाडी डोंगरगढ में स्थापित है । यहां हर वर्ष प्रज्ञा मेला लगता है । हम सब यह देखकर चकित हैं कि अपनी शर्तों पर जीते हुए उपलब्धि पाने वाला यह कलाकार यहीं रहकर यश के शिखर की ओर बढ चला है । आज उसकी बनाई महात्मा गांधी की भव्य धातु निर्मित मूर्ति छत्तीसगढ के विधान सभा भवन में स्थापित है ।‘
प्रज्ञागिरि में स्थापित गौतम बुद्ध की मूर्ति के निर्माण की अपनी कहानी है । संभवत: नेलसन को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाने में भगवान बुद्ध की ही कृपा रही हो । इस पर स्वयं नेलसन के अनुभव सुनिये जिसे डॉ.परदेशीराम वर्मा जी नें अपने शव्द दिये हैं ।
‘1997 की बात है । तब मैं भिलाई स्पात संयंत्र का कर्मचारी था । संयंत्र भवन में ‘कर्म ही पूजा है’ इस संदेश पर केन्द्रित मूर्ति गढ रहा था कि वहां से तत्कालीन ए.जी.एम. फूलमाली जी गुजरे । उन्होंनें कुछ देर ठहर कर मेरी कृति को देखा, फिर उन्हें याद आया कि बीस वर्ष पहले मैं ही उनके आग्रह पर बुद्ध की छोटी मूर्ति बना चुका हूं । उस घटना को याद करते हुए फूलमाली जी नें बताया कि डोंगरगढ में जापान से कुछ लोग आये हैं और वहां वे बुद्ध की भव्य मूर्ति स्थापित करना चाहते हैं । आप भी चलिए, वे मुझे डोंगरगढ ले गए ।
साथ में मैं अपनी कृतियों का एलबम ले गया था और मुझे ही यह काम मिला । तय हुआ कि सामाग्री उनकी होगी और मुझे अस्सी हजार देने की बात सुनिश्चित कर दी गई । यह राशि यद्यपि नगण्य थी लेकिन भावनावश मैंनें स्वीकार कर लिया । अब सवाल माडल का था । मैं कई तरह से प्रयोग करता रहा, इसी बीच विश्व शांति रैली निकली । मेरे कलागृह से रैली गुजरी । मैनें एक भक्त को बैठाकर मॉडल बनाया । मॉडल को आधार बनाकर मैनें मूर्ति के लिए कुछ छाया चित्र लिए ।
अब काम की शुरूआत हुई । प्रज्ञा पहाडी पर नागपुर के एक आर्टिस्ट को मूर्ति के लिए आधार तैयार करने का काम दिया गया । उसने पत्थरों में छेद कर रॉड डालकर बेस तैयार करने का यत्न किया । लगभग 3 लाख रूपये स्वाहा हो गए लेकिन बेस तैयार नहीं हुआ, फिर उन्होंनें आधार तैयार करने का काम भी मुझे सौंपा । मॉडल को मिली स्वीकृति से मैं बेहद उत्साहित था । इसे विशेषज्ञों के दल नें स्वीकृति दी । इस दल में धम्म त्योति यात्रा में आये इण्डो-जापान यात्रा में निकले इण्डो-जापान बुद्धिस्ट फ्रेंड एसोसियेशन के महासचिव भन्ते संघ माण्डे, भन्ते सिन्द कोदो (जापान), भन्ते तर्सोवन्नो (थाईलेंड), भन्ते सोबतेन लोनसुक (तिब्बत), माता धम्मवती (नेपाल), भन्ते महासथिविर (भारत), भन्ते धम्मरण (श्रीलंका) जैसे विशिष्ठ पारखी जन थे । इन्होंनें मॉडल को देखकर खूब पसंद किया । इस तरह मुझे आशीष मिला और एक बडी यात्रा की शुरूआत हुई ।
अब डोंगरगढ की उस एकाग्र टिकरी पर मेरा डेरा लग गया साथ में मेरा आर्टिस्ट भागीरथी, मेरे दोनों बेटे एलिस तथा जेवियर फ्रांसिस गये । तब वे 15 से 17 वर्ष के किशोर थे । पहाड पर नीचे रेत, ईंट, पानी लाना होता था । करीब एक किलोमीटर दूर से पानी आता था । पहाड पर पानी था नहीं । अधिक उम्र में मजदूर काम नहीं कर पाते, छोटी उम्र के बेहद चुस्त लडके लडकियां काम पर लगे । घोडों से समान लेकर वे उपर आते । यह कविता मुझे उन दिनों खूब याद आई ...
मैदान में ही सब अकडते हैं
पहाड पर आदमी तो आदमी
पेड भी सीधे हो जाते हैं ।
शाम होते ही पहाडी के उपर उल्लू बोलते । लकडबघ्घे घूमते । अमावस की रात में तो हम अपनी कुटी में दुबक जाते मगर चांदनी रात में नजारा स्वर्गिक हो जाता तब मैथिलीशरण गुप्त की पंक्ति याद हो आती ...
चारू चंद्र की चंचल किरणे
खेल रही है जल थल में
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में
स्वच्छ चांदनी में सरसराते सांपों को हमने देखा है । एक अवसर पर तो न भूलने वाला दृश्य देखने को मिला । दोपहर का समय था । एक शिलाखण्ड पर लगभग 25 फीट लम्बा, तगडा, अजगर धीरे-धीरे सरक रहा था । चील उपर आवाज करते हुए मंडरा जरूर रहे हैं मगर तगडे भजंग को छेडने का साहस वे भी नहीं कर रहे थे । जीवित, ताकतवर सांप पर वार करना ठीक नहीं है, यह चील भी जान रहे थे । करीब आते मगर चोंच मारने का दुस्साहस नहीं करते । मर्यादा में रहते । लगभग दो घंटे तक सांप सरकता रहा, तब कहीं चटटानी दरार में वह घुसा । चीलें चिल्लाते हुए उड गई अन्य दिशा को, और तब धर्मवीर भारती की अंधा युग की कविता उस पल मुझे आद आयी ..
मर्यादा मत तोडो
तोडी हुई मर्यादा
कुचले हुए अजगर सी
गुंजलिका में कौरव वंश को लपेट कर
सूखी लकडी सा तोड डालेगी ।
पहाडी की अपनी विशेषता थी और मुझ जैसे मैदानी व्यक्ति की अपनी कमजोरियां । मैं पहली बार पहाडी पर रह रहा था । यह रहना भी सामान्य निवास की तरह नहीं था । मूर्ति बनाने के लिए पहाडी पर मैं गया लेकिन पहाडी नें मेरे भीतर भी कुछ जोडा । मुझे भीतर से समृद्ध किया । पाकीजा फिल्म में जुगनुओं से लदे पेड का दृश्य है, ऐसे दृश्यों की गहराई में उतरने का मुझे वहां अवसर मिला । एकांत पहाडी पर गरजते बादलों की दुंदुभी का अपना भी वैभव होता है । नागार्जुन की यह पंक्ति बेहद चर्चित है ...
अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है ।
गिरि शिखर पर बादल से मेल मिलाप का अनुभव क्या है, यह उस अनुभव से गुजर कर ही जाना जा सकता है । सुखद अनुभूतियां थी तो दुख के पहाड भी थे । उंची पहाडी से नीचे संदेश देना तो कठिन था ही, तब मोबाईल फोन की सुविधा होती तो कलादल की बहुतेरी परेशानियां खत्म हो जाती । विज्ञान कला के पीछे चला है, कला सदा विज्ञान के आगे चलती है और स्वयं अपना मार्ग प्रशस्त भी करती है ।
मूर्ति दो हिस्सो में दो अलग-अलग जगहों पर बनी । धड पहाडी पर ढल रहा था । सिर को मैं अपने सेक्टर 1 के कलागृह में जाकर बनाया, सिर 18 तुकडों में बना, 30 फीट की मूर्ति थी । सिर भी उसी अनुपात में ढला । जब धड ढल गया तब सिर के 18 तुकडे लाए गये । पांच हजार रूपये में सिर के तुकडों को उपर लाने के लिए कांवर वाले श्रमिकों को ठेका दिया गया । दस-दस लोग एक एक तुकडे को उठाकर चलते और धीरे-धीरे सम्हलकर उपर लाते ।
सभी तुकडे आ गए, अब शुरू हुई असल परीक्षा । एक तुकडे को स्थापित करने के बाद फिर शेष तुकडे बिठाये जाने थे । मैं भीतर से डरा हुआ भी था । पहला तुकडा ठीक बैठे तो फिर शेष अपना आकार ग्रहण करे । ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ का निनाद मेरे भीतर अनुगूंजित होता रहता था । धीरे-धीरे तुकडों नें स्थान लिया और हम सब रात 10 बजे खुशी से उछल पडे । जब भगवान गौतम बुद्ध अपने पूरे प्रभाव में प्रज्ञा गिरि में विराजित हो गये । उसी दिन पूजा प्रारंभ हो गई, वह 5 फरवरी की तारीख मैं कभी नहीं भूल पाता ।
6 फरवरी को मेला लगा । जापान से भिच्छु पधारे थे दो चार्टड जहाज में जापान से भक्तगण आये थे, एक में वहां से धनिक लोग आये थे, एक में भिक्षुगण ।
भगवान भुवन भास्कर की पहली किरण मुर्ति पर पडी और मेरे पास खडे एक बौद्ध भिक्षु नें यह पंक्ति सर झुका कर पढा ...
प्रभातवेलेव, सहस्त्रभनुम
प्रदोषलक्ष्मीरिव शीत रश्मिम
भद्रे मुहुर्ते नृपधर्मपत्नी
प्रासूत पुत्रम भुवनैक नेत्रम ।
मैं भावविह्लल भक्तों की भीड में घिर सा गया । सबने मुझे कुर्सी पर बिठा लिया । विदेशी भिक्षुक सब नीचे जमीन पर बैठे । वे मुझे उंचा आसन देकर सम्मान दे रहे थे । मेरी आंखें भी तरल हो गई, मुझे लगा कि इस मूर्ति को बनाकर ही मेरा जीवन सार्थक हो गया, मगर यह तो इस तरह की यात्रा की शुरूआत थी ।
जापानी नोहिशिको हिबोनो नें मुझे बाहों में लेते हुए कहा कि जापान चलिए, वहां सौ फीट की मूर्ति बनाईये, हम ऋणी रहेंगें । मैं कुछ कह न सका लेकिन जब वक्त आया तो मैनें बता दिया कि छत्तीसगढ छोडकर मैं कहीं नहीं जाउंगा । इस पुण्य धरा में ही मेरी भक्ति और मुक्ति है ।
भविष्य में हम उनसे मिलकर आपको इस संबंध में और जानकारी देंगें । आज पद्मश्री जे.एम.नेल्सन जी के जन्म दिवस पर हमारी हार्दिक शुभकामनायें ।
संजीव तिवारी
क्या गरूड वनस्पति या इसकी फली घर मे रखने से साँप नही आता?
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बटकी मा बासी अउ चुटकी मा नुन
तो, आरंभ में बासी और बटकी और चटनी (अमारी) के बारे में भी ऐसा ही विस्तृत लेख लिख दें तो मजा आ जाए..."
गर पोटार के भाई
ददा बपुरा मुह छपक के
बोम फार के दाई ।
‘भारतीय आर्य जीवन में प्रेम और दया जैसे जिन शाश्वत जीवन मूल्यों को आज भारतियों नें विष्मृत कर दिया है वे आज भी यहां जीवित हैं । जाति, धर्म और भाषा आदि की लपटों से झुलसते हुए भारतीय जीवन को यह प्रदेश आज भी प्रेम और दया का शीतल-आलोक जल दे सकता है । आज भारत ही नहीं समस्त विश्व की सबसे बडी आवश्यकता प्रेम और सहिष्णुता की है जिसके बिना शांति मृगजल और शांति के सारे प्रयत्न बालू की दीवार की भांति हैं । प्रेम और सहिष्णुता का मुखरतम स्वर छत्तीसगढी लोक-गीतों का अपना स्वर है जो भारतीय जीवन से इन तत्वों के बुझते हुए स्वरों को नई शक्ति प्रदान कर सकता है ।‘
संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़ी ब्लॉगर की उर्जा
‘एक और बात - ये छत्तीसगढ़ी ब्लॉगर क्या खाते हैं कि इनमें इतनी ऊर्जा है? मैं सर्वश्री पंकज, संजीत और संजीव की बात कर रहा हूं? कल पहले दोनो की पोस्टें एक के बाद एक देखीं तो विचार मन में आया। इनकी पोस्टों में जबरदस्त डीटेल्स होती हैं। बहुत विशद सामग्री। इन्हीं के इलाके के हमारे इलाहाबाद के मण्डल रेल प्रबंधक जी हैं - दीपक दवे। बहुत काम करते हैं। पता नहीं सोते कब हैं।‘
मैनें जब से इस अंश को पढा है मन अभिभूत हुआ जा रहा है, यह मानव स्वभाव है कि प्रोत्साहन से मन प्रफुल्लित होता है । ज्ञान जी के हम बहुत आभारी है कि जिन्होंनें हमें यह सम्मान दिया । इसके साथ ही एक प्रश्न बार बार कौंध रहा है कि क्या हमारा प्रयास इतना सराहनीय है ? यह तो पाठक ही समझेंगें क्योंकि हम स्वयं अपना सटीक आंकलन नहीं कर सकते । ज्ञान जी के ‘उर्जा’ के प्रश्न पर मैं जो सोंचता हूं वह प्रस्तुत कर रहा हूं :-
आदरणीय डॉ.पंकज अवधिया जी वनस्पति विज्ञानी है, शोधकार्यों व यात्राओं के कारण इनके पास समय का पूर्णत: अभाव है, इनका कार्य हिन्दी ब्लागिंग के क्षेत्र में पाठकों के प्रति एक जिम्मेदारी का अहसास कराती है, यदि वे चाहें तो अपने शोध को अपने तक ही सीमित कर सकते थे किन्तु उन्होंनें अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को समझा है और अपने शोध और अनुभव आप तक बांट रहे हैं और जहां जिम्मेदारी का अहसास है वहां उर्जा अपने आप आती है ।
संजीत त्रिपाठी जी व्यवसायी व स्वतंत्र पत्रकार हैं एवं अपने लेखनकर्म को परिष्कृत कर रहे हैं आपने स्वयं देखा होगा कि उनके लेखन में विषय के प्रति विश्लेषणात्मकता व गंभीरता स्पष्ट परिलक्षित होती है । उन्होंनें स्वयं अपने टिप्पणी में कहा कि ‘शुक्रिया कि आपने हम छत्तीसगढ़िए ब्लॉगर्स पर ऐसी विश्लेषणात्मक नज़र डाली, दर-असल हमारे ब्लॉग जगत पर एक सबसे वरिष्ठ छत्तीसगढ़िया बैठे हुए हैं जिनकी ऊर्जा के सामने हम कुछ नही और हम शायद उनसे ही प्रेरित हैं, वह वरिष्ठ छत्तीसगढ़िया ब्लॉगर है "रवि रतलामी जी"। तखल्लुस भले ही रतलामी लिखने से अपनी कर्मभूमि रतलाम के प्रति उनका लगाव जाहिर होता है लेकिन हैं तो वह मूलत: छत्तीसगढ़ से।‘
मै एक वकील हूं एवं भिलाई के एक औद्योगिक समूह में पूर्णकालिक सलाहकार हूं, सुबह 9 से रात 9 तक का, मेरे पास मेरे निजी अनुभव हैं इस लघुभारत - भिलाई के जहां कुछ अपवाद के साथ ही छत्तीसगढ के प्रति प्रेम, मूल छत्तीसगढिया मात्र में ही सीमित है बाकी सभी के नजरों में यह एक गवांर व अशिक्षित कौम है जिन पर शासन किया जा सकता है एवं जिनका शोषण गैर छत्तीसगढियों का नैतिक अधिकार है । यद्धपि लोगों का कहना है कि यह स्थिति अब छत्तीसगढ में नहीं रही पर यह भिलाई में तो आज भी जीवित है इस कारण मैं निरंतर अपने स्वाभिमान को जीवंत रखते हुए छत्तीसगढ की श्रेष्ठता को प्रस्तुत करने का प्रयास करते रहता हूं और मुझे उर्जा इसी से प्राप्त होती है ।
हरेली (हरियाली अमावस्या) मे नीम की डाल घरो मे लगाना अन्ध-विश्वास है या नही?
4. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?
-पंकज अवधिया
इस सप्ताह का विषय
हरेली (हरियाली अमावस्या) मे नीम की डाल घरो मे लगाना अन्ध-विश्वास है या नही?
हरेली (हरियाली अमावस्या) का पर्व वैसे तो पूरे देश मे मनाया जाता है पर छत्तीसगढ मे इसे विशेष रूप से मनाया जाता है। इस दिन लोग अपने घरो के सामने नीम की शाखाए लगा देते है। यह मान्य्ता है कि नीम बुरी आत्माओ से रक्षा करता है। यह पीढीयो पुरानी परम्परा है पर पिछले कुछ सालो से इसे अन्ध-विश्वास बताने की मुहिम छेड दी गयी है। इसीलिये मैने इस विषय को विश्लेषण के लिये चुना है।
नीम का नाम लेते ही हमारे मन मे आदर का भाव आ जाता है क्योकि इसने पीढीयो से मानव जाति की सेवा की है और आगे भी करता रहेगा। आज नीम को पूरी दुनिया मे सम्मान से देखा जाता है। इसके रोगनाशक गुणो से हम सब परिचित है। यह उन चुने हुये वृक्षो मे से एक है जिनपर सभी चिकित्सा प्रणालियाँ विश्वास करती है। पहली नजर मे ही यह अजीब लगता है कि नीम को घर के सामने लगाना भला कैसे अन्ध-विश्वास हो गया?
बरसात का मौसम यानि बीमारियो का मौसम। आज भी ग्रामीण इलाको मे लोग बीमारी से बचने के लिये नीम की पत्तियाँ खाते है और इसे जलाकर वातावरण को विषमुक्त करते है। नीम की शाखा को घर के सामने लगाना निश्चित ही आने वाली हवा को रोगमुक्त करता है पर मैने जो हरेली मे नीम के इस अनूठे प्रयोग से सीखा है वह आपको बताना चाहूंगा।
इस परम्परा ने वनस्पति वैज्ञानिक बनने से बहुत पहले ही नीम के प्रति मेरे मन मे सम्मान भर दिया था। ऐसा हर वर्ष उन असंख्य बच्चो के साथ होता है जो बडो के साये मे इस पर्व को मनाते है। पर्यावरण चेतना का जो पाठ घर और समाज से मिलता है वह स्कूलो की किताबो से नही मिलता। हमारे समाज से बहुत से वृक्ष जुडे हुये है और यही कारण है कि वे अब भी बचे हुये है।
नीम के बहुत से वृक्ष है हमारे आस-पास है पर हम उनकी देखभाल नही करते। हरेली मे जब हम उनकी शाखाए एकत्र करते है तो उनकी कटाई-छटाई (प्रुनिग) हो जाती है और इस तरह साल-दर-साल वे बढकर हमे निरोग रख पाते है। यदि आप इस परम्परा को अन्ध-विश्वास बताकर बन्द करवा देंगे तो अन्य हानियो के अलावा नीम के वृक्षो की देखभाल भी बन्द हो जायेगी।
पिछले वर्ष मै उडीसा की यात्रा कर रहा था। मेरे सामने की सीट पर जाने-माने पुरातत्व विशेषज्ञ डाँ.सी.एस.गुप्ता बैठे थे। उन्होने बताया कि खुदाई मे ऐसी विचित्र मूर्ति मिली है जिसमे आँखो के स्थान पर मछलियाँ बनी है। उनका अनुमान था कि ये मूर्ति उस काल मे हुयी किसी महामारी की प्रतीक है। मैने उन्हे बताया कि प्राचीन भारतीय ग्रंथो मे हर बीमारी को राक्षस रूपी चित्र के रूप मे दिखलाया गया है। वे प्रसन्न हुये और मुझसे उन ग्रंथो की जानकारी ली। पहले जब विज्ञान ने तरक्की नही की थी और हम बैक्टीरिया जैसे शब्द नही जानते थे तब इन्ही चित्रो के माध्यम से बीमारियो का वर्णन होता रहा होगा। इन बीमारियो को बुरी आत्मा के रूप मे भी बताया जाता था और सही मायने मे ये बीमारियाँ किसी बुरी आत्मा से कम नही जान पडती है। यदि आज हम बुरी आत्मा और बीमारी को एक जैसा माने और कहे कि नीम बीमारियो से रक्षा करता है तो यह परम्परा अचानक ही हमे सही लगने लगेगी। मुझे लगता है कि नीम के इस प्रयोग को अन्ध-विश्वास कहना सही नही है।
चलते-चलते
हर वर्ष हरेली के दिन कई संस्थाओ के सदस्य गाँव-गाँव घूमते है और आम लोगो की मान्यताओ व विश्वास को अन्ध-विश्वास बताते जाते है। एक बार एक अभियान के दौरान एक बुजुर्ग मुझे कोने मे लेकर गये और कहा कि छत्तीसगढ की मान्यताओ और विश्वासो को समझने के लिये एक पूरा जीवन गाँव मे बिताना जरूरी है। मुझे उनकी बात जँची और इसने मुझे आत्मावलोकन के लिये प्रेरित किया।
अगले सप्ताह का विषय
रायपुर की मॉं महामाया
पौराणिक राजा मोरध्वज एक बार अपनी रानी कुमुददेवी के साथ आमोद हेतु शिवा की सहायक नदी खारून (इसका पौराणिक नाम मुझे स्मरण में नहीं आ रहा है) नदी के किनारे दूर तक निकल गए वापस आते-आते संध्या हो चली थी अत: धर्मपरायण राजा नें खारून नदी के तट पर संध्या पूजन करने का मन बनाया । राजा की सवारी नदीतट में उतरी । रानियां राजा के स्नान तक प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण नदी तट में भ्रमण करने लगी तो देखा कि नदी के पानी में एक शिला आधा डूबा हुआ है और उसके उपर तीन चार काले नाग लिपटे हैं ।
अचरज से भरी रानियों नें दासी के द्वारा राजा को संदेशा भिजवाया । राजा व उनके साथ आए राजपुरोहित कूतूहलवश वहां आये । राजपुरोहित को उस शिला में दिव्य शक्ति नजर आई उसने राजा मोरध्वज से कहा कि राजन स्नान संध्या के उपरांत इस शिला का पूजन करें हमें इस शिला में दैवीय शक्ति नजर आ रही है ।
राजा मोरध्वज स्नान कर उस शिला के पास गए और उसे प्रणाम किया, उस शिला में लिपटे नाग स्वमेव ही दूर नदी में चले गए । राजा नें उथले तट में डूबे उस शिला को बाहर निकाला तो सभी उस दिव्य शिला की आभा से चकरा गए । उस शिला के निकालते ही आकाशवाणी हुई ‘राजन मैं महामाया हूं, आपके प्रजाप्रियता से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं, मुझे मंदिर निर्माण कर स्थापित करें ताकि आपके राज्य की प्रजा मेरा नित्य ध्यान पूजन कर सकें ।‘
राजा मोरध्वज नें पूर्ण विधिविधान से नदी तट से कुछ दूर एक मंदिर का निर्माण करा कर देवी की उस दिव्य प्रतिमा को स्थापित किया जहां वे प्रत्येक शारदीय नवरात्रि में स्वयं उपस्थित होकर पूजन करने का मॉं को आश्वासन देकर प्रजा की सेवा एवं राज्य काज हेतु अपनी राजधानी चले गए एवं अपने जीवनकाल में राजा मोरध्वज प्रत्येक शारदीय नवरात्रि को मॉं महामाया के पूजन हेतु उस मंदिर में आते रहे । किवदंती यह है कि आज भी शारदीय नवरात्रि में राजा मोरध्वज वायु रूप में मॉं महामाया की पूजन हेतु उपस्थित रहते हैं ।
राजा मोरध्वज द्वारा स्थापित यह मंदिर वर्तमान में रायपुर की मॉं महामाया के रूप में प्रसिद्ध है एवं छत्तीसगढ के शक्तिपीठ के रूप में जानी जाती है ।
क्यो कहा जाता है कि अमली (इमली) के वृक्ष मे भूत रहते है?
3. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए : कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास?
- पंकज अवधिया
इस सप्ताह का विषय
क्यो कहा जाता है कि अमली (इमली) के वृक्ष मे भूत रहते है?
आम तौर पर यह माना जाता है कि इमली के पेड मे भूत होते है और विशेषकर रात के समय इसके पास नही जाना चाहिये। इस मान्यता को अन्ध-विश्वास माना जाता है और आम लोगो से इस पर विश्वास न करने की बात कही जाती है। चलिये आज इसका ही विश्लेषण करने का प्रयास करे।
प्राचीन ग्रंथो मे एक रोचक कथा मिलती है। दक्षिण के एक वैद्य अपने शिष्य को बनारस भेजते है। वे बनारस के वैद्य की परीक्षा लेना चाहते है। अब पहले तो पैदल यात्रा होती थी और महिनो लम्बी यात्रा होती थी। दक्षिण के वैद्य ने शिष्य से कहा कि दिन मे जो खाना या करना है, करना पर रात को इमली के पेड के नीचे सोते हुये जाना। हर रात इमली के नीचे सोना- वह तैयार हो गया। कई महिनो बाद जब वह बनारस पहुँचा तो उसके सारे शरीर मे नाना प्रकार के रोग हो गये। चेहरे की काँति चली गयी और वह बीमार हो गया। बनारस के वैद्य समझ गये कि उनकी परीक्षा ली जा रही है। उन्होने उसे जब वापस दक्षिण भेजा तो कहा कि दिन मे जो खाना या करना है, करना पर हर रात नीम के पेड के नीचे सोना। और जैसा आप सोच रहे है वैसा ही हुआ। दक्षिण पहुँचते तक शिष्य फिर से ठीक हो गया।
वृक्षो के विषय मे गूढ ज्ञान को जहाँ अपने देश मे पीढीयो से जाना जाता है वही पश्चिम अब इसे जान और मान पा रहा है और लाभकारी गुणो व छाँव वाले वृक्षो पर आधारित ‘ट्री शेड थेरेपी’ के प्रचार-प्रसार मे लगा है।
आप प्राचीन और आधुनिक चिकित्सा साहित्य पढेंगे तो आपको इमली की छाँव के दोषो के बारे मे जानकारी मिलेगी। आयुर्वेद मे तो यह कहा गया है कि इसकी छाँव शरीर मे जकडन पैदा करती है और उसे सुस्त कर देती है। प्रसूता को तो इससे दूर ही रहना चाहिये। यह भी लिखा है कि उष्णकाल मे इसके हानिकारक प्रभाव कुछ कम हो जाते है। आम लोग यदि इसी बात को कहे तो उन्हे शायद घुडक दिया जाये पर जब आयुर्वेद मे यह लिखा है तो इसकी सत्यता पर प्रश्न नही किये जा सकते। आयुर्वेद की तूती पूरी दुनिया मे बोलती है।
इमली ही नही बल्कि बहुत से वृक्षो की छाँव को हानिकारक माना जाता है। छत्तीसगढ की ही बात करे। यहाँ पडरी नामक वृक्ष मिलता है जिसकी छाँव के विषय मे कहा जाता है कि यह जोडो मे दर्द पैदा कर देता है। राजनाँदगाँव क्षेत्र के किसान बताते है कि खेतो की मेड पर वे इसे नही उगने देते है।
भूत का अस्तित्व है या नही इस पर उस विषय के विशेषज्ञ विचार करेंगे पर यह कडवा सच है कि भूत शब्द सुनते ही हम डर जाते है और उन स्थानो से परहेज करते है जहाँ इनकी उपस्थिति बतायी जाती है। यदि इमली मे भूत के विश्वास को यदि इस दृष्टिकोण से देखे कि हमारे जानकार पूर्वजो ने इमली के दोषो की बात को जानते हुये उससे भूत को जोड दिया हो ताकि आम जन उससे दूर रहे तो ऐसे विश्वास से भला समाज को क्या नुकसान?
शहरो मे मेरी इस व्याख्या पर कई बार लोग कहते है कि चलो हम बहुत देर तक इमली के नीचे बैठ जाते है। देखना हमे कुछ नही होगा। ऐसे प्रश्न तो आपको आधुनिक विज्ञान सम्मेलनो मे भी मिलेंगे जहाँ कैसर विशेषज्ञ के व्याख्यान के बाद लोग पूछ बैठते है कि मै तो सिगरेट पीता हूँ। मुझे कैसर क्यो नही हो रहा? आधुनिक हो या पारम्परिक दोनो ही विज्ञान अपने लम्बे शोध निष्कर्षो के आधार पर अपनी बात कहते है। जरूरी नही है कि सभी व्यक्तियो पर यह एक समान ढंग से लागू हो।
यदि आपकी कुछ और व्याख्या हो तो बताये ताकि आम लोगो के इस विश्वास की अच्छे ढंग से व्याख्या की जा सके।
अगले सप्ताह का विषय
हरेली (हरियाली अमावस्या) मे नीम की डाल घरो मे लगाना अन्ध-विश्वास है या नही?
त्रिलोचन : किवदन्ती पुरूष
सापेक्ष
संपादक : महावीर अग्रवाल
श्री प्रकाशन
ए 14, आदर्शनगर
दुर्ग (छ.ग.) 491003
फोन : 0788 2210234
प्रथम संस्करण : 1998
पृष्ट संख्या : 760
मूल्य : 502 रू. (हिन्दी ब्लागर्स के लिए विशेष मूल्य : 100 रू + 30 रू. डाक व्यय )
हिन्दी ब्लाग एवं अन्य साईटों में विस्तृत त्रिलोचन :
अनहद नाद में , चंद्रभूषण के पहलू में , सृजनगाथा में , एओएल हिन्दी में , भास्कर में , अनुभूति में , अभिव्यक्ति में , डा. मान्धाता सिंह के चिंतन में , काकेश की कतरने में , डा.शंकर सोनाले के चौपाल में
, सारथी में , साहित्य समाचार में , कृत्या में , डॉ.कविता के ब्लाग में , सुरभित रचना में , शालिनी जोशी बीबीसी पर , अनुभूति कलश में , हमारा देश तुम्हारा देश में , समकालीन जनमत में , कही अनकही में , इष्ट देव सांकृत्यायन के इयता में , उदय प्रकाश में
पुरस्कार हेतु नामित संभावित नये हिन्दी ब्लागर्स के नाम खत
परमआदरणीय प्रत्यासियों,
आप सभी जानते हैं कि तरकश स्वर्ण कलम पुरस्कार के लिए नामांकन की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है यह पुरस्कार सर्वाधिक नामांकन व मतदान के आधार पर दिया जाने वाला है इसलिए ब्लागर्स सक्रिय हो गए हैं । अब हमें इंतजार है सवार्धिक नामांकन प्राप्त 10-10 महिला-पुरूष प्रत्यासियों का क्योंकि हमें आशा ही नहीं वरन विश्वास है कि हमारा ब्लाग सर्वाधिक को छू भी नहीं पायेगा । इस मतदान प्रक्रिया में एक तरफ बहुत दिनों से ब्लागर्स के ब्लागों में जो गुट एवं गुटबाजी की बात चल रही थी वह इस समय अपनी अहम भूमिका निभायेगी जहां उसका अस्तित्व यदि है तो वह सामने आयेगा । दूसरी तरफ हिन्दी ब्लाग जगत को स्तरीय बनाने के लिए प्रयासरत ब्लागर्स एवं पाठकों के समूह के द्वारा निश्चित ही कसौटी में खरे ब्लागों को मत दिया जायेगा ।
मित्रों यदि आपको लगता है कि आपका ब्लाग इन दोनों ही स्थितियों में कम मत से मात खा सकता है तो हम चुनाव प्रबंधन के नये प्रयोग के रूप में मित्रों के सहयोग के लिए लगातार प्रयासरत हैं । हमने लोकतंत्र में मत के प्रति सजग होने के कारण 100 निजी जीमेल आई डी और इतने ही हिन्दी ब्लाग बनाये हैं जिसमें दो चार पोस्ट लगा कर वोटर आईडी कार्ड ले लिया है । अब मतदान के लिए हमारे पास 100 मत हैं इसलिए हमारे मतों का महत्व अहम है और बहुत दिनों से निद्रा में सोये हुए ब्लागर्स को भी चेतना का इंजेक्शन देने में सक्षम है ।
हमने सुना है कि हमारा यह प्लान लीक हो गया है और कई हिन्दी ब्लागर्स साथी भी ऐसा ही कर रहे हैं अत: यदि आप एक ब्लागर्स से एक साथ 100-100 मत प्राप्त करना चाहते हैं तो नियमित रूप से सभी हिन्दी ब्लाग के पोस्टों को तल्लीनता से पढें एवं प्रत्येक पोस्टों में सार्थक टिप्पणी करें, ना जाने किसके पास 100-100 मत हो और हो सकता है कि इन मतों से आपको स्वर्ण कलम प्राप्त हो जाए ।
आपका
हिन्दी ब्लाग मतदाता
पीलिया झाडना या उतारना : कितना सही कितना गलत?
यूँ तो देश के विभिन्न हिस्सो मे अलग-अलग प्रकार की विधियो का प्रयोग किया जाता है पर आम तौर पर जब कोई रोगी आता है तो उसे दूधिया पानी से भरे पात्र मे खडे होने के लिये कहा जाता है। उसके बाद उपचार करने वाला कुछ मंत्र पढकर रोगी के शरीर पर हाथ फेरता है। उसके बाद जब उसके सिर से पानी उडेला जाता है तो वह नीचे पात्र के दूधिया पानी से मिलकर गहरा पीला रंग पैदा करता है। रोगी को कहा जाता है कि अब उसका पीलिया (जाँडिस) ठीक हो गया है। रोगी जब पीले रंग को देखता है तो समझता है कि सचमुच मंत्र शक्ति या जडी-बूटी के उपचार से उसका पीलिया ठीक हो गया। यह प्रयोग बडा सरल है।
आधुनिक चिकित्सा ग्रंथो मे इसे फेथ हीलिंग अर्थात विश्वास आधारित उपचार का एक अंग माना गया है। मानसिक रोगो के उपचार मे इसका काफी उपयोग होता है। इस प्लेसिबो ट्रीटमेंट (यानि दवा रहित गोलियो या इसी तरह का उपचार) का प्रयोग आधुनिक शोधो मे भी होता है। आधुनिक चिकित्सा पद्ध्तियो मे ऐसी गोलियाँ सफलतापूर्वक उपयोग की जाती है। यह बडे ही आश्चर्य की बात है कि कैसे बिना दवा के रोगी ठीक हो जाता है या उसे लाभ पहुँचता है। इसका मतलब यह हुआ कि उसका अपना ‘विश्वास’ बहुत बडा काम करता है। आपने इसी ‘विश्वास’ के असर की झलक मुन्ना भाई एमबीबीएस मे भी देखी होगी। कहा भी गया है कि विश्वासम फलदायकम।
बतौर सदस्य अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति, रायपुर मुझे कुछ वर्षो पहले छत्तीसगढ मे सरायपाली के भूथिया गाँव जाने का अवसर मिला। वहाँ ऐसे ही पीलिया झाडने वाले के पास बडी संख्या मे लोग जमा थे। हमेशा की तरह समिति ने इसे अन्ध-विश्वास ठहराया। बाद मे अखबारो मे इस दौरे की खबर सुर्खियो मे छपी और हमने खूब वाह-वाही लूटी। पर आज भी यह उपचार उसी रूप मे भूथिया मे जारी है। लौटते वक्त समिति के संस्थापक सदस्य माननीय चन्द्रशेखर व्यास जी से मैने चर्चा की और इसके विज्ञान को जानने की कोशिश की। मै यह जानने व्यग्र था कि यदि यह ठगी है तो सब कुछ जानकर भी सभी तरह के लोग क्यो इतनी बडी संख्या मे आ रहे थे और लाभांवित होने की बात कह रहे थे।
हमारे देश मे पीलिया का इस तरह से उपचार करने वालो को रोकने के लिये एक कानून है जिसका हवाला देकर हम अपने अभियानो मे गाँव वालो को डराया करते थे। एक बार बेमेतरा मे जब मै अभियान के दौरान आम लोगो से बात कर रहा था तो एक वयोवृद्ध सज्जन ने कहा कि यह देश हमारा है और हमारे लिये ही कानून बना है। यदि देश के बहुसंख्यक इसमे सुधार करना चाहते है तो यह भी सम्भव है। संजीव जी इस पर कुछ प्रकाश डाल सकते है।
श्री के. सी. दुबे के पुस्तक में उपरोक्त संदभो पर बिन्द्रानवागढ़ के गांव देबनाई का नागा गोंड का उदाहरण दिया है जो कि शेर के रूप में आकर 08 लोगो को नुकसान पंहुचा चुुका है। और जिसे वर्ष 38 या 39 में ब्रिटिश शासन ने गिरफ्तार किया था। जादू टोना का गहन जानकार और वेश बदलने में माहिर था । और इस बात की प्रमाण तत्कालीन ब्रिटिश शासन के रिकॉर्ड में दर्ज़ भी है। तत्कालीन जॉइंट सेक्रेटरी गृह मंत्रालय भारत शासन श्री जी. जगत्पति ने भी 27/7/1966 को इस पुस्तक मे लिखा था की भिलाई स्टील प्लांट जैसे आधुनिक तीर्थ से 15 मील के भीतर के गावो तक में लोग बुरी आत्माओ की उपस्थिति को आज भी मानते है। जानकारी यहॉं पढ़ें
डोंगरगढ की मॉं बगलामुखी-बमलेश्वरी
संपूर्ण भारत में देवी-देवताओं के मंदिर स्थापना एवं इससे जुडे कई अन्य मिथक कथाए किवदंतियों के रूप में व्याप्त हैं जिसमें एक ही भाव व कथानक प्राय: हर स्थान पर देखी जाती है, स्थान व पात्र बदल जाते हैं पर हमारी आस्था किसी प्रमाण की कसौटी में खरी उतरने का यत्न किये बिना उसे सहज रूप से स्वीकार करती है क्योंकि यही सनातन परंपरा हमें विरासत में मिली है और इन्हीं कथानकों के एक पात्र के रूप में आराध्य के सम्मुख प्रस्तुत मनुष्य के मन की श्रद्धा आराध्य को जागृत बनाती है । छत्तीसगढ के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से डोंगरगढ की बमलेश्वरी माता प्रसिद्ध है हम यहां उससे जुडी हुई दो जनश्रुतियां प्रस्तुत कर रहे हैं ।
छठी शताब्दि के अंत में कोसल क्षेत्र में छोटे छोटे पहाडों से घिरी एक समृद्ध नगरी कामाख्या थी जो राजा वीरसेन की राजधानी थी । राजा संतानहीन था राज्य के पंडितों नें राजा को सुझाव दिया कि महिष्मति क्षेत्र शैव प्रभावयुत जाग्रत क्षेत्र है वहां जाकर शिव आराधना करने पर आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी ।
राजा वीरसेन अपनी रानी के साथ महिष्मति की ओर प्रस्थान किया वहां जाकर राजा नें शिव आराधना की एवं उसी स्थान पर एक भव्य शिव मंदिर का निर्माण कराया । राजा की पूजा-आराधना से शिव प्रसन्न हुए, राजा–रानी को वरदान प्राप्त हुआ ।
वरदान प्राप्ति के बाद राजा-रानी अपनी राजधानी कामाख्या आये वहां रानी गर्भवती हुई और एक पुत्र को जन्म दिया । रानी नें शिव प्रसाद स्वरूप पुत्र प्राप्ति के कारण अपनी राजधानी के डोंगरी में माता पार्वती के मंदिर का निर्माण कराया । निर्माण में लगे श्रमिकों के द्वारा लगभग 1000 फीट उंची पहाडी में निर्माण सामाग्री चढाते समय बल व उत्साह कायम रखने के लिए जयघोस स्वरूप ‘बम-बम’ बोला जाता रहा फलस्वरूप माता पार्वती को मॉं बमलेश्वरी कहा जाने लगा ।
इसी राज्य में राजा वीरसेन के वंशज मदनसेन का पुत्र कामसेन जब राज्य कर रहा था उस समय की कथा भी डोंगरगढ में प्रचलित है जिसका उल्लेख भी सामयिक है ।
राजा गोविंदचंद की राजनगरी बिल्हारी (वर्तमान जबलपुर के समीप) थी वहां शंकरदास नाम का राजपुरोहित था । शंकरदास का पुत्र माधवनल बडा गुणी, विद्वान एवं संगीत में निपुण था, वीणा वादन में भी वह सिद्धस्थ था । बिल्हारी में उसकी वीणा के स्वरलहरियों को सुन-सुन कर रानी उस पर मोहित हो गई । राजा को इस संबंध में जानकारी हुई तो वह माधवनल को अपने राज्य से निकाल दिया । माधवनल तत्कालीन वैभवनगरी एवं माँ बमलेश्वरी के कारण प्रसिद्ध नगरी कामाख्या की ओर कूच कर गया ।
माधवनल जब कामाख्या पहुचा तब राजदरबार में उस समय की प्रसिद्व नृत्यांगना कामकंदला नृत्य प्रस्तुत कर रही थी, मधुर वाद्यों से संगत देते वादक व गायक सप्त सुरो से संगीत प्रस्तुत कर रहे थे । माधवनल राजदरबार में प्रवेश करना चाहता था किन्तु द्वारपालों नें उसे रोक दिया, व्यथित माधवनल नें द्वारापालों से कहा कि ‘वाह रे संगीतप्रेमी राजा एवं सभासद बेसुरे संगीत पर वाह-वाह कह रहे हैं । नृत्य कर रही नर्तकी के बायें पैर में बंधे घुघरूओं में से एक घुंघरू में कंकड नहीं है एवं मृदंग बजा रहे वादक के दाहिने हांथ का एक अंगूठा असली नहीं है इसी कारण ताल बेताल हो रहा है । ऐसे अल्पज्ञानियों के दरबार में मुझे जाना भी नहीं है ‘ और वह वहां से जाने लगा । द्वारपालों नें जाकर राजा को संदेश दिया , राजा नें सत्यता को परखा, तुरत माधवनल को राजदरबार में बुलाया । उसे उचित आसन देकर राजा नें अपने गले में पडे मोतियों की कीमती माला को सम्मान स्वरूप उसे प्रदान किया ।
नृत्य-संगीत माधवनल के वीणा के संगत के साथ पुन: प्रारंभ हुआ । अपने कीर्ति के अनुरूप कामकंदला नें नृत्य का बेहतर प्रदर्शन किया, माधवनल नृत्य को देखकर मुग्ध हो गया, आनंदातिरेक में अपने गले में पडे मोतियों की माला को कामकंदला के गले में डाल दिया । राजा के द्वारा दिये गए पुरस्कार की अवहेलना को देख राजा क्रोधित हो गए एवं उसे अपने राज्य से बाहर निकल जाने का आदेश दे दिया ।
माधवनल, कामकंदला से प्रथम दृष्टि में ही मोहित हो गया था एवं कामकंदला भी योग्य वीणावादक को पहचान गई थी । माधवनल, कामाख्या से अन्यत्र नहीं गया बल्कि पहाडी कंदराओं में जाकर रहने लगा । कामकंदला छुप-छुप कर रात्रि के तीसरे पहर में उससे मिलने जाने लगी, प्रेम परवान चढने लगा ।
राजभवन में राजकुमार मदनादित्य भी कामकंदला के रूप पर मोहित था । कामकंदला राजकुमार की इच्छा के विरूद्ध हो राजदंड नहीं पाना चाहती थी इसलिए उससे भी प्रेम का स्वांग करती थी । माधवनल के आने के दिन से राजकुमार को कामकंदला के प्रेम में कुछ अंतर नजर आने लगा था । राजकुमार को पिछले कई दिनों से रात्रि में पहाडियों की ओर से वीणा की मधुर स्वर लहरियॉं सुनाई देती थी, उसके मन में संशय नें जन्म लिया और वह अंतत: जान लिया कि कामकंदला उससे प्रेम का स्वांग रचती है व किसी और से प्रेम करती है फलत: उसने कामकंदला को कारागार में डाल दिया एवं माधवनल के पीछे सैनिक भेज दिया ।
माधवनल के मन में कामाख्या के राजा व राजकुमार के प्रति शत्रुता भर गई वह कामकंदला को अविलंब प्राप्त करने के साथ ही मदनादित्य को सबक सिखाना चाहता था । इसके लिए वह उज्जैनी के प्रतापी राजा विक्रमादित्य के पास गया वहां उसने वीणा वादन कर महाराज को प्रसन्न किया एवं अपनी व्यथा बताई ।
राजा विक्रमादित्य नें माधवनल का सहयोग करते हुए कामाख्या नगरी पर आक्रमण किया, तीन दिनों तक चले युद्ध में कामाख्या नगरी पूर्ण रूप से ध्वस्त हो गई । मदनादित्य परास्त हो गया, कामकंदला कारागार से मुक्त हो माधवनल को खोजने लगी । राजा विक्रमादित्य नें भावविह्वल कामकंदला से विनोद स्वरूप कह दिया कि माधवनल युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हो गया । कामकंदला इतना सुनते ही ताल में कूदकर आत्महत्या कर ली इधर माधवनल को जब ज्ञात हुआ तो वह भी अत्यंत दुख में अपने प्राण त्याग दिया ।
विक्रमादित्य प्रतापी व धर्मपरायण राजा थे वे अपने विनोद में ही किये गए इस भयंकर कृत्य के कारण अति आत्मग्लानी से भर गए एवं उपर पहाडी पर मॉं बमलेश्वरी के मंदिर में कठिन तप किये । मॉं प्रसन्न हुई, राजा को साक्षात दर्शन दिया और वरदान स्वरूप प्रेमी युगल माधवनल-कामकंदला को जीवित कर दिया ।
राजा वीरसेन द्वारा स्थापित एवं राजा विक्रमादित्य द्वारा पूजित देवी मॉं बमलेश्वरी, छत्तीसगढ के राजनांदगांव जिले की नगरी डोंगरगढ में विराजमान हैं । यह जागृत शक्तिपीठ तंत्र एवं एश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी बगुलामुखी के स्वरूप में मानी जाती है ।
(प्रचलित मौखिक एवं अप्रमाणित फुटपातिये पुस्तकों के आधार पर अपने शव्दों में पुर्नरचित)
संजीव तिवारी
डोंगरगढ के चित्र और अन्य जानकारी देखें : http://joshidc.googlepages.com/dongargadh
नियोग का श्राप : कलचुरी शासन का अंत
छत्तीसगढ के कलचुरियों का शासनकाल शनै: शनै: महाकोशल से कोसल तक सीमित हो गया, इनके राजाओं नें कोसलराज की सामरिक शक्ति के विकास के साथ ही आर्थिक और समाजिक उन्नति के लिए हर संभव प्रयास किया और राज्य के वैभव को बढाया इसीलिए प्रजाप्रिय हैहयवंशियों का राज्यकाल कोसल में स्वर्णयुग के रूप में देखा जाता है । इनके राज्य क्षेत्र में चहुओर उन्नति हुई, बेहतर प्रशासन के लिए संगठनात्मक ढांचे पर काम किया गया जिसके कारण ही छत्तीसगढ गढ, गढपतियों एवं रियासतों के मूल अस्तित्व को बनाए हुए अपना स्वरूप ग्रहण कर सका ।
शिक्षा एवं व्यापार-विनिमय में उन्नति के साथ ही प्रजा की स्वमेव उन्नति हुई । कृषि प्रधान इस राज में धान की पैदावार, खनिजों व प्राकृतिक स्त्रोतों से प्राप्त संसाधनों आदि का समुचित विनिमय हुआ एवं आर्थिक समृद्धि सर्वत्र दृष्टिगोचर हुई । श्रम को पूजने की परंपरा का विकास हुआ जिसमें रतनपुर, शिवरीनारायण, जांजगीर व चंद्रपुर के मंदिरों एवं अन्य स्थापत्य अवशेष इतिहास के साक्षी के रूप में आज भी उपस्थित हैं ।
कलचुरी राज के क्षरण के संबंध में रतनपुर-बिलासपुर से ज्ञात किवदंतियों को यदि आधार मानें, जिसका कुछेक इतिहासकारों नें उल्लेख भी किया है, तो एक कहानी सामने आती है । तखतपुर नगर के निर्माता राजा तखतसिंह के पुत्र राजसिंह के गद्दीनशीन होने की अवधि की एक महत्वपूर्ण घटना ही इसका सार है ।
कलचुरी नरेश राजसिंह का कोई औलाद नहीं था वह एवं उसकी महारानी इसके लिए सदैव चिंतित रहते थे । मॉं बनने की स्वाभविक स्त्रियोचित गुण के कारण महारानी राजा की अनुमति के बगैर राज्य के विद्वान एवं सौंदर्य से परिपूर्ण ब्राह्मण दीवान से नियोग के द्वारा गर्भवती हो गई और एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नामकरण कुंवर विश्वनाथ हुआ, समयानुसार कुंवर का विवाह रीवां की राजकुमारी से किया गया ।
आगाता गच्छानुत्तरायुगानि यत्र जामय: कृणवन्नजामि । उपवृहि वृषभार्याबहुमन्यमिंच्छस्व सुभगे पतिमत् ।। (सत्यार्थ प्रकाश) 'विवाहोपरांत यदि ऐसा संकट का समय आ जाए कि विधवा स्त्री, पुत्र की कामना से अकुलवधु के काम करने पर उतारू हो जाए तो वह कुलवधु किसी समर्थ पुरूष का हाथ ग्रहण करके संतान उत्पन्न कर ले । ऐसी आज्ञा पति अपनी पत्नी को, नपुंसक होने पर दे दे।'
यह विषय विशद है, श्रुति-स्मृति व पुराणों में अनेकों उदाहरण हैं, तर्क-वितर्क एवं कुतर्क भी हैं ।
राजा राजसिंह को दासियों के द्वारा बहुत दिनो बाद ज्ञात हुआ कि विश्वनाथ नियोग से उत्पन्न ब्राह्मण दीवान का पुत्र है, तो राजा अपने आप को संयत नहीं रख सका । ब्राह्मण दीवान को सार्वजनिक रूप से इस कार्य के लिए दण्ड देने का मतलब था राजा की नपुंसकता को आम करना । नपुंसकता को स्वाभाविक तौर पर स्वीकार न कर पाने की पुरूषोचित द्वेष से जलते राजा राजसिंह नें युक्ति निकाली और ब्राह्मण पर राजद्रोह का आरोप लगा दिया, उसके घर को तोप से उडा दिया गया, ब्राह्मण भाग गया ।
दीवान जैसे महत्वपूर्ण ओहदे पर लगे कलंक पर कोसल में अशांति छा गई । ब्राह्मण दीवान एवं महारानी के प्रति राजा की वैमनुष्यता की भावना नें राजधानी में खूब तमाशा करवाया । इस पर गोपाल मिश्र नें एक किताब लिखा है जिसका शीर्षक भी ‘खूब तमाशा’ ही है । (हमें यत्न के बावजूद यह किताब प्राप्त नहीं हो पाई सो बुजुर्गों से कही-सुनी को ही आधार माना)
इस तमाशे से व्यथित कुंवर विश्वनाथ नें आत्महत्या कर ली, वृद्ध राजा राजसिंह की मृत्यु भी शीध्र हो गई । पुरातन मान्यताओं के अनुसार निरपराध/सापराध नियोग पर श्राप के फलस्वरूप इसके उपरांत रतनपुर से कलचुरियों का विनाश आरंभ हो गया । राजसिंह के बाद सभी कलचुरी राजा पुत्रविहीन रहे । रत्नपुर के कलचुरी वंश के अंतिम स्वतंत्र राजा रघुनाथ सिंह को भी असमय पुत्र-मृत्यु का दुसह दुख झेलना पडा और ऐसी ही परिस्थिति में कटक विजय हेतु निकले मराठा सेनापति भास्कर पंथ नें सामान्य प्रतिरोध के बाद छत्तीसगढ के राज को रत्नपुर में कब्जा कर, प्राप्त कर लिया । इसके बाद छत्तीसगढ में मराठा शासनकाल का युग आरंभ हुआ ।
छत्तीसगढ इतिहास के आईने में - 1
छत्तीसगढ इतिहास के आईने में - 2
(किवदंतियों व ऐतिहासिक लेखों-ग्रंथों के आधार पर)
संजीव तिवारी
लेबल
छत्तीसगढ़ की कला, साहित्य एवं संस्कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख
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