हरिभूमि चौपाल, रंग छत्‍तीसगढ़ के और संपादकीय हिन्‍दी

कहते है कि लेखन में कोई बड़ा छोटा नहीं होता। रचनाकार की परिपक्वता को रचना से पहचान मिलती है। उसकी आयु या दर्जनों प्रकाशित पुस्तके गौड़ हो जाती है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए मैं आज का चौपाल पढ़ने लगा। शीर्षक 'अतिथि संपादक की कलम ले' के नीचे सुदर्शन व्यक्तित्व के ओजस्वी व्यक्ति का चित्र था, नाम था मोहन अग्रहरि। इनका नाम अपरिचित नहीं था, साहित्य के क्षेत्र में प्रदेश में इनका अच्छा खासा नाम है। यद्यपि मुझे इनकी रचनाओं को पढ़ने का, या कहें गंभीरता से पढ़ने का, अवसर नहीं मिला था। चौपाल जैसी पत्रिका, के संपादन का अवसर जिन्हें मिल रहा है, निश्चित तौर पर वे छत्तीसगढ़ के वरिष्ठतम साहित्यकार है और उन्‍हें छत्‍तीसगढ़ के कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति का विशेष ज्ञान है। इस लिहाज से अग्रहरि जी के संपादकीय को गंभीरता से पढ़ना जरुरी हो गया। अग्रहरी जी ने हिंदी में बढ़िया संपादकीय लिखा है। चौपाल में छत्तीसगढ़ी मे संपादकीय लिखने की परंपरा रही है। शीर्षक शब्द 'अतिथि संपादक की कलम ले' से भी भान होता है कि आगे छतीसगढ़ी में बातें कही जाएँगी। किंतु इसमें हिंदी में भी संपादकीय लिखा जाता रहा है। इस लिहाज से भी अग्रहरि जी ने हिन्दी में संपादकीय लिखा है।

अक्सर हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों नाव में पांव रखने के चक्कर में मैं ना छत्तीसगढ़ी ठीक से लिख पाता हूँ ना हिन्दी। इसे पढ़ने के बाद हिन्दी के कुछ शब्दों के प्रयोग के सम्बन्ध में मेरे मन में स्थापित धारणा बदली? अग्रहरि साहब ने संपादकीय में लिखा है 'समाज आज भी रूढ़ियों से "जुझ" रहा है।' ज में छोटी उ की मात्रा लगना चाहिए कि बड़ी? यह सिद्ध हुआ कि 'जूझ' नहीं 'जुझ' लिखा जाना चाहिए?

इसी तरह 'हमारे साथ-साथ छत्तीसगढ़ के प्रत्येक नागरिक को इस पर गर्व है, यह कहते हुए अनुभव करता है कि-' लिखते हुए उन्होंने 'अनुभव करते हुए गर्व करना' और 'गर्व का अनुभव करना' जैसे शब्दों के प्रयोग का नया रुप प्रस्तुत किया है। काव्य में जिस तरह से बिम्बो का प्रयोग होता है उसी तरह इन्होनें 'छत्तीसगढ़ अपने इतिहास की संस्कृति बनाए हुए है।' में 'संस्कृति के (का) इतिहास' के उलट अच्छा प्रयोग किया है? आगे '...अपनी बातों "को" आदान प्रदान करते हैं।' लिखते हुए मेरे मगज में स्थापित '...अपनी बातों "का" आदान प्रदान करते हैं।' वाक्यांश को भी गलत ठहरा दिया? धन्यवाद चौपाल।
-तमंचा रायपुरी

गूगल डॉक्स में आनलाईन बोल कर टाईप करने की सुविधा

रविशंकर श्रीवास्‍तव जी नें अपने ब्‍लॉग में जब गूगल डॉक्स में बोल कर हिंदी लिखने की उम्दा सुविधा उपलब्ध नाम से पोस्‍ट पब्लिश किया था तब से मित्रों के द्वारा लगातार इसके प्रयोग विधि के संबंध में मुझसे जानकारी मागी जा रही थी। किन्‍तु समयाभाव के कारण मित्रों के लिए इसे क्रमिक रूप से प्रस्‍तुत नहीं कर पा रहा था। लिजिये प्रस्‍तुत है, लैपटाप में बोलकर टाईप करने का तरीका -

गूगल डाक्‍स में लाग ईन होवें.
नया डाकूमेंट तैयार करने के लिए + को क्लिक करें.

डिवाईस को क्लिक करें, एक पाप अप खुलेगा जिसमें से वाणी लेखन को क्लिक करें.

ऐसा करने पर माईक का आईकान उस पेज पर आ जायेगा. इस आईकान को क्लिक करें, और बोलते जायें जो टाईप करना है -

फिर डाकूमेंट आनलाईन सेव कर लें.

संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढ़ी की अभिव्यक्ति क्षमता : सोनाखान के आगी

छत्‍तीसगढ़ी के जनप्रिय कवि लक्ष्मण मस्तुरिया की कालजयी कृति 'सोनाखान के आगी' के संबंध में आप सब नें सुना होगा। इस खण्‍ड काव्‍य की पंक्तियों को आपने जब जब याद किया है आपमें अद्भुत जोश और उत्‍साह का संचार अवश्‍य हुआ होगा। पाठकों की सहोलियत एवं छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य के दस्‍तावेजीकरण के उद्देश्‍य से हम इस खण्‍ड काव्‍य को गुरतुर गोठ में यहॉं संग्रहित कर रहे हैं, जहां से आप संपूर्ण खण्‍ड काव्‍य पढ़ सकते हैं। यहॉं हम 'सोनाखान के आगी' पर छत्‍तीसगढ़ के दो महान साहित्‍यकारों का विचार प्रस्‍तुत कर रहे हैं  -

छत्‍तीसगढ़ी की अभिव्यक्ति क्षमता : सोनाखान के आगी

श्री लक्ष्मण मस्तुरिया प्रबल हस्ताक्षर के रूप में छत्‍तीसगढ़ी के आकाश में रेखांकित हैं। इनकी वाणी में इनकी रचनाओं को सुन पाना एक अनूठा आनंद का अनुभव करना है। प्रथम बार उनके खण्ड काव्य 'सोनाखान के आगी' को आज सुनने का अवसर मिला। छत्‍तीसगढ़ी की कोमलकान्त पदावली में वीररस के परिपूर्ण कथा काव्य को प्रस्तुत करते समय श्री मस्तुरिया स्वयं भाव-विभोर तो होते ही हैं, अपने श्रोता समाज को भी उस ओजस्वनी धारा में बहा ले जाने की क्षमता रखते हैं।

शहीद वीर नारायण सिह की वीरगाथा छत्‍तीसगढ़ी का आल्हाखण्ड है। उसे उसी छन्द में प्रस्तुत कर कवि ने छत्‍तीसगढ़ी की अभिव्यक्ति क्षमता को उजागर किया है। प्रवहूमान शैली सामान्य बोलचाल की भाषा और अति उन्नत भाव इस त्रिवेणी में अवगाहन का सुख वर्णनातित है। वीर नारायण सिंह के बलिदान की कहानी हमारे सन् सन्‍तावन के प्रथम स्वातंत्र युद्ध की कहानी है। छत्‍तीसगढी का यह भू-भाग उस महायज्ञ में आहुति देने से वंचित नहीं था, इसका परिचय इस खण्ड काव्य से भली- भांति हो जाता है। कुछ-कुछ पंक्तियों ने तो मुझे बांध ही लिया- 'अन्यायी कट कचरा होथे, न्यायी खपके सोन समान।'

वीरगति पाने वाले सपूत की सच्ची श्रद्धांजलि है-

'खटिया धरके कायर मरथे
रन चढ़ मरथे बागी पूत'

प्रत्येक युवक के लिए उसी प्रकार से जागृति का गीत है, जैसे-

'जब जब जुलमी मूड़ उठाथे
तब तब बारुद फुटे हे' वाली पंक्ति।

अन्त में कवि ने सभी के लिये सन्देश दिया है कि अन्याय को सिर झुकाकर स्वीकार न करो, यदि मरने और मारने की सामर्थ्‍य न हो तो फुफकारने और गरजने से तो वंचित ना रहो-

'अरे नाग, तैं काट नहीं त जी भर के फुफकार तो रे।
अरे बाघ, हैं मार नहीं त गरज गरज के धुतकार तो रे।

श्री लक्ष्मण मस्‍तुरिया की यह ध्वनि बहुत दिनों तक कानों में बजती रहेगी।

सरयूकान्त झा
प्राचार्य
छत्‍तीसगढ़ स्नातकोत्तर महाविद्यालय
रायपुर

गौरव की रक्षा ममत्व का अधिकार

रविशंकर विश्वविद्यालय छत्‍तीसगढ़ी कवियों को पाठ्य ग्रंथ के रूप में संकलन क्रमांक 17 और 18 में संकलित कराया था जिसका संपादन क्रमश : हुकुमचंद गौरहा एवं पालेश्वर शर्मा ने किया था। जिस कवि की चर्चा करने मैं जा रहा हूं वे संग्रह क्रमांक 18 में संग्रहित किये गये हैं। प्रो. सरयूकान्त झा के अनुसार- 'लक्ष्मण मस्तुरिया प्रबल हस्‍ताक्षर के रूप में छत्‍तीसगढ़ी के आकाश में रेखांकित है।' मैं 'सोनाखान के आगी' तक अपने को सीमित सखूंगा।

एक बार प्रात: स्मरणीय स्व. लोचन प्रसाद पांडेय ने मुझे कहा था कि छत्‍तीसगढ़ के ऐतिहासिक कथाओं को कल्पना एवं लोककथाओं का पुट देते हुए रोचक काव्य की रचना करो जैसा कन्हैयालाल मुन्सी करते हैं अपने उपन्यासों में। पांडेय जी की मंशा का किसी सीमा तक निर्वाह मैं इस पुस्तक में पाता हूँ । यह ऐतिहासिक तथ्‍य है-

अठरा सौ सत्तावन म, तारीख उन्तीस फागुन मास
बन्दी बना बीर नारायेन के, अंगरेज बइरी ले लिन प्रान।

किंवदन्ती या कल्पना का सम्मिश्रण देखिए-

डेरा डारिन नारायेन सिंग, साजा कउहा के बंजर म
तथा देवरी के जमींदार दोगला, बहनोई बीर नरायेन के
दगा दिहिस बाढ़े विपत म, काम करिस कुकटायन के

इस पुस्तक में दूसरी विशेषता मुझे जो नजर आई. यह इस प्रकार है- कभी स्व. पदुमलाल पुन्नालाल बख्‍शी ने लिखा था- "स्नेह की सेवा, स्वामीभक्ति की दृढ़ता, निवास की सरलता, वचन की गौरव-रक्षा और ममत्व का अधिकार, इसी में तो छत्‍तीसगढ़ की आत्मा है। तभी तो दरिद्रता के अभिशाप के साथ-साथ अज्ञान से ग्रस्त होने पर भी छत्‍तीसगढ़ के जनजीवन में चरित्र की ऐसी उज्‍वलता, को शब्‍दबद्ध करना है तो छत्‍तीसगढ़ी लोकभाषा का आँचल पकड़ना होगा।"

जाहिर है इस कवि ने लोकभाषा के आंचल को न केवल पकडा है, बल्कि काफी दूर तक उसमें घुलने मिलने की कोशिश में प्रयत्नशील दृष्टिगत होता है, जिसे एक शुभ लक्षण ही माना जावेगा। स्रन् 1973 में मैंने 'स्वातंत्र्योत्तर छत्‍तीसगढ़ी साहित्य : एक सीमांकन' शीर्षक लेख में इस कवि की चर्चा करते हुए लिखा था, ' . . . और लक्ष्मण मस्तुरिया छत्‍तीसगढी के कवियों के बीच उम्र में सबसे छोटे और नये माने जायेंगें, परन्तु उनकी कविता की लोकप्रियता देखकर एकदम भौचक हो जाना पड़ता है।' और एक दशक के बाद जब मैं इस कवि को पढ़ता हूं तो इसके काव्यगत विकास को देखकर अपने को सन्तुष्ट पाता हूं, पर अभी यह कवि निर्माण के पथ पर है, अस्तु उस पर अभी अघिक चर्चा करना उचित नहीं। हमें उसके आगामी पडाव की प्रतीक्षा है तथा उसके उत्तरोत्तर विकास का विश्वास. .. बस ।

देवी प्रसाद वर्मा
बच्‍चू-जंजगीरी

द्रोपदी जेसवानी की ‘अंतःप्रेरणा’

अभी हाल ही में द्रोपदी जेसवानी की एक कविता संग्रह ‘अंत: प्रेरणा’ आई है। संग्रह की भूमिका डॉ. बलराम नें लिखी है, जिसमें द्रोपदी जेसवानी की संवेदशील प्रवृत्ति के संबंध में बताते हुए वे लिखते हैं कि उनकी रचनाओं में वेदना और संवेदना के छायावादी चित्र झलकते हैं। डॉ. बलराम लिखते हैं कि रचनाओं में सत्य की झलक है और कुछ में चुनौतियाँ भी हैं। भूमिका में डॉ. बलराम नें चंद शब्दों में ही पूर्ण दक्षता के साथ कवियित्री की संवेदना एवं उनकी कविताओं से हमारा परिचय करा दिया है।

कवियित्री नें इस संग्रह को अपने आराध्य भगवान शिव को अर्पित किया है। साथ ही अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बड़े पिताजी व पारिवारिक सदस्यों को और शुभचिंतकों को समर्पित किया है। ऐसे समय में जब परिवार नाम की ईकाई के अस्तित्व पर संकट हैं, प्रेम का छद्मावरण लड़कियों के मुह में स्कार्फ की भांति सड़कों में आम है। किसी रचना संग्रह को अपने परिवार जनों को समर्पित करना एक रचनाकार के संवेदनशीलता को प्रदर्शित करता है।

'फिर भी कुछ रह गया' में इस संग्रह के प्रति दो शब्द लिखते हुए कवियित्री अपने अंतरतम अनुभूति का उल्लेख करते हुए लिखती हैं कि, शब्दों का समुचित आवरण ओढ़कर मेरी भावनाएँ इस संग्रह में प्रदर्शित हुई है। उनका मानना है कि कविता, सत्य को जीने और व्यक्त करने का एक सहज माध्यम है। कविताओं के माध्यम से से खुद को पहचानने और जानने का रास्ता बताती कवियित्री कहती है कि कविता, खुद को जानने का रास्ता है। इसीलिए तो उनकी कविता कहती है कि, जो चल सकते हो मेरे साथ तो चलो।

इस संग्रह की कविताओं में संवेदना का बेहतर प्रवाह है। सहज शब्दों में पिरोते हुए प्रतीकों का सटीक और सुन्दर प्रयोग किया गया है। इस संग्रह में भारतीय आध्यात्म दर्शन को कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत करने में द्रोपदी जेसवानी सफल रही है। इस संग्रह की कवितायें हमें बार बार चिंतन की उस स्थिति पर ले जाती है जहाँ भारतीय आध्यात्म और दर्शन की गहरी जड़ें हैं।

उनकी कविताओं के साथ आगे चलते-चलने पर कवियित्री बालसुलभ सहजता से गंभीर बात कहती है कि, ऐसा कोई शब्द नहीं है जो मुझे व्यक्त कर सके। शब्‍दों में उनकी यही सहजता गंभीर बातों को भी सरल बनाती हैं और उनकी भावनाओं को अभिव्यक्त भी करती है। बार-बार आकुल मन की पुकार उनके शब्दों में मुखर होती है, उनका नि:शब्द निवेदन कि मुझे सुनो, मेरी बात सुनों। कवियित्री चाहती है कि समाज में खोए हुए मानवीय मूल्य स्थापित हो, समाज में आपसी संवाद हो सके। किन्तु संवाद एकतरफा है, कोलाहल है संभवत: इसीलिए कवियित्री स्वयं अपने आप से संवाद करती है, अपने अंतर्मन से संवाद करती है, जो इस संग्रह के रूप से आप सबके सामने है।

-संजीव तिवारी

सामयिक प्रश्‍न: कोजन का होही

धर्मेंद्र निर्मल छत्तीसगढ़ी भाषा के साहित्य मे एक जाना पहचाना युवा नाम है। धर्मेंद्र निर्मल आजकल व्यंग, कहानी, कविता और छत्तीसगढ़ी के अन्यान्य विधाओं पर लगातार लेखन कार्य कर रहे है। उन्होंनें लेखनी की शुरुआत छत्तीसगढ़ी सीडी एल्बमों मे गाना लेखन के साथ आरंभ किया था। बाद में उन्‍होंनें नुक्कड़ नाटक एवं टेली फिल्मों में मे भी कार्य किया और स्क्रिप्ट रायटिंग में भी हाथ आजमाया। संभवत: रचनात्मकता के इन राहों नें उन्हें साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र का सहज ज्ञान उपलब्ध कराया। छत्तीसगढ़ी साहित्य में कुछ गिने चुने युवा सार्थक व गंभीर लेखन कर रहे हैं उसमें से धर्मेंद्र निर्मल अहम हैं। धर्मेंद्र निर्मल सिर्फ छत्तीसगढ़ी में ही नहीं, हिन्दी के सभी विधाओं में निरंतर लेखन कर रहे हैं। उनकी लेखनी में हिन्दी साहित्य संस्कार का दर्शन होता है। जिससे यह प्रतीत होता है कि वे स्वयं बेहतर पाठक है और हिन्दी के साहित्य का लगातार अध्ययन करते रहते हैं। उन्हें साहित्य की नई विधाओं, आलोचना के बिन्दु और नवाचार का ज्ञान है। वे हिन्दी के नवाचारों का प्रयोग छत्तीसगढ़ी लेखन में करते नजर आते हैं। मैं उनकी व्यंग लेखनी का कायल रहा हूँ और मेरी अभी अभी प्रकाशित छत्तीसगढ़ी व्यंग के सिद्धांत और आलोचना से संबंधित किताब में मैंनें उस पर काफी कुछ लिखा भी है।

अभी हाल ही में उनकी एक छत्तीसगढ़ी गजल संग्रह ‘कोजन का होही’ प्रकाशित हुई है। इस किताब की भूमिका लिखते हुए गजल कार डॉ. संजय दानी नें लिखा है कि ‘... उनकी सारी कविताओं के चेहरे गजल का मुखौटा लगाए हुए हैं, वैसे तो काफियों और रदीफों की उन्हें अच्छी समझ है फिर भी रचनाएँ पूर्णरुपेण गजलों का भेष धारण नहीं कर पाये हैं।‘ डॉ.संजय दानी नें इस संग्रह में संग्रहित रचनाओं की प्रशंसा करते हुए इसे काव्‍य संग्रह स्‍वीकार किया है। इस लिहाज से इस काव्य संग्रह के संबंध में मैं कुछ बातेँ करना चाहूंगा।

आजकल लोक भाषा छत्तीसगढ़ी में दना-दन गजल सग्रह छप रहे हैं और उस्ताद इन संग्रहों को गजल की कसौटी से परे बता रहे हैं। अब पाठकों के लिए उहापोह की स्थिति है कि इन संग्रहों को गजल मानें या ना माने। धर्मेंन्द्र के इस संग्रह को भी गजल मानें कि ना मानें यह एक अलग मुद्दा है किन्तु इस संग्रह में संग्रहित काव्य की पूर्णता को आप नकार नहीं सकते। कवि हम सब के बीच उपस्थित इसी प्रकार के सार्वभौम दुविधा की स्थिति को पकड़ रहा है। सही मायनों में यही अभिव्यक्ति की चिंता है, यह समय और समाज की भी चिंता है। वर्तमान मे जो वि‍कृत समाज है वह विद्रूपों से भरा हुआ है। लगातार बद से बदतर होती परिस्थितियों में हर कोई कह उठेगा कि, ‘..पता नही क्या होने वाला है।‘ (‘..कोजन का होही..’) अभिव्यक्ति कैसे होने वाली है, समाज किस दिशा मे जाने वाला है, या यह जो स्थिति है वह और कितना विभत्स , दुखमय और असह होने वाला है। यह चिंता और प्रश्न ही इस किताब का मूल है।

इस संग्रह की रचनाओं में धर्मेंद्र निर्मल गवई मिट्टी के फलेवर और संस्कृति से ओत प्रोत नजर आते हैं। जिसमें जन सामान्य को समाज में बेहतर स्थान दिलाने की जिजीविषा कूट कूट कर भर हुई है। धर्मेंद्र निर्मल की इस कविता संग्रह में 67 रचनाएँ समाहित है। इन रचनाओं में धर्मेंद्र लगातार एक आम आदमी की बातोँ को रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते नजर आते हैं उनकी अनेक रचनाओं में प्यार, श्रृंगार, दुख-दर्द और लोक आकांक्षाओं का विश्लेषण है। प्रत्येक रचनाकार संवेदनशील होता है। वह समाज के बीच ही आगे बढ़ता है और अपने आस-पास को ही रचता है परंतु अपनी विशिष्ठ संवेदना के कारण ही वह दूसरे रचनाकारोँ से अलग प्रतिष्ठित होता है। धर्मेन्द्र की यह संवेदना उसकी रचनाओं में नजर आती है। संग्रह को आप शीघ्र ही गुरतुर गोठ में पढ़ पायेंगें। धर्मेन्द्र निर्मल की कुछ हिन्दी कविताओं और कुछ छत्तीसगढ़ी गजलों को यहॉं प्रस्तु़त कर रहे हैं।

-संजीव तिवारी


धर्मेन्‍द्र निर्मल की हिन्‍दी कवितायें-

साहसी

तुम साहसी हो साहेब
लड़ते नहीं थकते
सोते - जागते
उठते - बैठते
खड़े हो - होकर
बैठने के लिए
समाज से, देश से , जिंदगी से
जिंदगी भर।

जिंदगी से जिंदगी भर
हम लड़ते हैं
बालिश्‍त पेट के लिए
सो जाते हैं
जब थकते हैं।

भीड़

ये भीड़ है बाबू, नासमझ भीड़
भीड़ जानती हैं
सिर्फ पत्थर को पूजना
पत्थर से मारना
पत्थर हो जाना
और, पत्थर पर नाम खुदवाना

चीखोगे, चिल्लाओगे नही सुनने वाले
समझाना चाहोगे नहीं बूझने वाले
चुपचाप चलोगे नहीं गुनने वाले
हाँ, पागल कहकर पत्थर जरूर मारेंगे

तुम चाहते हो
आदमी, आदमी बना रहे
मेरी मानो ! बैठ जाओ कहीं भी
पत्थर होकर।

माँ का जीवन

माँ का जीवन
रात सारी माँ की
आँखों में कटती है
जाने कब कंस
काली कोठरी मे आ धमके।

सुबह बच्चे को स्कूल भेजते वक्त
मुँह पे आ जाता है कलेजा
देखकर भयानक कलजुगी वाचाल चेहरा
गूंगे अखबारों का।

मन को मथते
माथे को कुरेदते
घुमड़ती रहती है पूरे दिन
चिंताओं की भीड़
कि मेरा नयनाभिराम
किसी से लड़ तो नहीं
रहा होगा ?
और मेरी कोमलांगी सीता ?
हाय राम !
पता नहीं कब कहाँ
क्या घट जाए
बढ़ रहे हैं दिन - ब - दिन
रक्तबीज से यहां
दशानन - दुशासन।
जैसे - तैसे आती है
ढलान पर शाम
सुनकर घण्टी की आवाज
जब दरवाजा खोलती है माँ
देखते ही
अपनी ऑखों के तारे को
सीने से लगा
पा लेती है गोद में
भरपूर सतयुग।

न जाने दिन भर में
इस तरह
कितने जुग जी लेती है माँ।

जंगल

बचपन में
जंगल का नाम सुनकर
कांपता था मैं।

किताबों में पढ़ी थी मैने
सुना भी था
जंगल में शेर, चीते, भालू रहते हैं
जो बड़े क्रूर और हिंसक होते है।

अब सिर्फ मैं ही नहीं
दुनिया कांपती है जंगल के नाम से
सुना है
शेर, चीते, भालू नहीं रहे अब
वहां इंसानों का डेरा है।

कहानी

एक राजा
एक रानी

एक का भाई मंत्री
एक का कोतवाल
खजाने का पूरा माल
काले से काला
लहू से लाल
जिनके रक्षक
यक्ष सवाल

बच्चे!
बढ़कर एक एक से
बड़े कमाल के
कोई हमाल से
कोई दलाल से
नमक हलाल से

सबके सब
झखमार
बटमार
लठमार।।


धर्मेन्‍द्र निर्मल की छत्‍तीसगढ़ी गज़लें

कौड़ी घलो जादा हे मोल बोल हाँस के

कौड़ी घलो जादा हे मोल बोल हाँस के।
एकलउता चारा हे मनखे के फाँस के।।

टोर देथे सीत घलो पथरा के गरब ला।
बइठ के बिहिनिया ले फूल उपर हाँस के।।

सबे जगा काम नइ आय, सस्तर अउ सास्तर।
बिगर हाँक फूँक बड़े काम होथे हाँस के।।

हाँसी बिन जिनगी के, सान नहीं मान नहीं।
पेड़ जइसे बिरथा न फूलय फरय बाँस के।।

दुनिया म एकेच ठन चिन्हा बेवहार हँ।
घुनहा धन तन अउ भरोसा नइहे साँस के।।

कोन ल कहन अपन संगी

दुवारी के नाम पलेट कस, हाल हवय परमारथ के।
कोन ल कहि अपन संगी, संग हावय इहाँ सुवारथ के।।

छोटे बड़े दूनो ल चाही, अपन अपन बढ़वार ठसन।
अपने अपन बीच घलो, जंग हावय इहाँ सुवारथ के।।

भूखे पेट कमावत हे अउ पेट भरे मेछरावथे।।
एक पेट एक भूख कई, रंग हावय इहाँ सुवारथ के।।

सभयता संसकीरति के हम, गुनगान आगर करथन।
घिरलउ ओन्हा म घलो तन, नंग हवय इहाँ सुवारथ के।।

उप्पर जान हरू फूलपान, खाल्हे जान मान भारी।
उप्पर वाले घलो देख, दंग हवय इहाँ सुवारथ के।।

अब तो जग के करता धरता, बन बइठे हे रूपइया।
दया मया इमान धरम, चंग हावय इहाँ सुवारथ के।।

कहाँ गरीबन के पाँव उसल जाही

कहाँ गरीबन के पाँव उसल जाही।
पाँवे संग सरी छाँव उसल जाही।।

कोन हवय जीव ले जाँगर कमइया।
अमीर मन के तो नाँव उसल जाही।।

गाहीच कइसे कुहु कोइली सुछंद ।
जब कऊँवेच के काँव उसल जाही।।

कइसे के काला उछरही भुईंए हँ ।
जब कमइयेच के ठाँव उसल जाही।।

कते साहर कोन गाँव नइ बसे हे।
साहरे कहाँ जब गाँव उसल जाही।।

दुनिया म जम्मो पूरा ककरो

अपन रद्दा खुदे बनाथे खोजे मिलय नहीं किताब।
मया पीरा म हीरा पीरा के होवय नहीं हिसाब।।

नानुक जिनगी ल झगरा करके झन कर खुवार अइसे।
मया करे बर कभू समे दुबारा मिलय नही जनाब।।

लहुट नइ सकबे आके सुरता दूर गजब ले जाथे।
काकर संग गोठियाबे अकेल्ला मिलय नही जवाब।।

मया सींचे म मया पनपथे काम दगा हँ नइ आवय।
काँटा हे तभो बंबरी म कभू फूलय नही गुलाब।।

जतका हे ततके के खुसी म मजा हे जिनगानी के ।
जग म जम्मो कभू पूरा ककरो होवय नही खुवाब।।

कमाल होगे राजा

परजा के नारी ल छूवत मत्था ल ताड़ गे।
कमाल होगे राजा तोर हत्था हँ माड़ गे।।

पाँच साल के बिसरे आज घरोघर घुसरथस।
कमाल होगे राजा तोर नत्ता हँ बाड़ गे।।

अकाल म कोठी खुले बाढ़ म धोए बंगला।
कमाल होगे राजा तोर छत्ता हँ बाड़ गे।।

परजा के पिरा गे मुँहू फारे मँहगई ले।
कमाल होगे राजा तोर भत्ता हँ बाड़ गे।।

कुकुर खाय बिदेसी चारा परजा बर पैरा।
कमाल होगे राजा तोर सत्ता हँ बाड़ गे।।

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...