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मानसून

मानसून के स्‍वागत में
मानसून शब्द मूलतः अरबी भाषा के ‘मौसिम’ से बना है, जिसका अर्थ मोटे तौर पर मौसम या ऋतु निकाला जा सकता है। मानसूनी हवाएं साल के छः माह हिन्द महासागर से भारत की ओर तथा साल के बाकी छः माह में इससे ठीक विपरीत चलती है, जिसका लाभ अरब सागर में पालदार नौकाओं से चलने वाले उन व्यापारियों को होता था, जिन्होंने इसका नामकरण किया था पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में मानसून सिर्फ समुद्री हवा का झोंका भर नहीं, यह पानी की वह कहानी है जिससे हमारी जिन्दगानी का शायद ही कोई पहलू अछूता हो।

मानसून का नामकरण यद्यपि अरबों ने किया पर इसकी खोज ईस्वी सन् 48 में हिप्पोलस ने की थी। यूनानियों को सम्भवतः इससे पहले भी मानसूनी हवाओं की दिशा व समय की जानकारी थी। प्रायद्वीपी भारत के बंदरगाह नगरों में ईस्वी पूर्व की यूनानी मुद्राएं भी बड़ी संख्या में मिली है, जिससे लगता है कि उस समय भी भारत-यूनान के बीच अच्छा खासा व्यापार हो रहा था जो मानसूनी हवाओं की सहायता से ही सम्भव था। ईस्वी पूर्व 326 में सिकन्दर ने भारत से वापस लौटते हुए अपने मित्र व सेनापति नियार्कस को सिन्धु नदी के मुहाने से दजला-फरात नदी तक जलमार्ग से भेजा था ताकि मानसूनी हवाओं व फारस की खाड़ी का भौगोलिक सर्वेक्षण किया जा सके। ईस्वी प्रथम शताब्दी में लिखी टॉलेमी की ‘ज्योग्रफी’ प्लिनी की ‘नेचुरल हिस्टोरिको’ तथा इसके कुछ बाद में एक अज्ञात नाविक द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘द पेरीप्लस आफ द एरीथ्रियन सी’ में मानसून का विवरण मिलता है। हिन्द महासागर में चलने वाले किसी भी नाविक के लिए मानसून का ज्ञान अनिवार्य रहा है।
पानी को संग्रहित करने की इसी परम्परा ने शायद हम में धन के संग्रहण की भी आदत डाली और इसी कारण हम भारतीयों में बचत दर दुनिया में सर्वाधिक है। मैं ऐसा इसीलिए भी कह रहा हूं क्योंकि हम भारतीय पानी व धन दोनों के लिए द्रव्य शब्द का ही इस्तेमाल करते हैं।
मानसूनी हवाओं के चलने का भौगोलिक कारण भारत में पड़ने वाली प्रचण्ड गर्मी है। मकर संक्रांति के पश्चात् सूर्य उत्तरायण होकर कर्क रेखा की ओर बढ़ने लगता है जिससे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के तापमान में दिन प्रतिदिन वृद्धि होने लगती है, मई तक कई स्थानों पर पारा 45 डिग्री से. पार कर जाता है, जिससे हवाएं गर्म होकर ऊपर उठने लगती है और उत्तर पश्चिमी व पूर्वी जेट हवाओं के चलने से निम्न दाब का केन्द्र निर्मित होने लगता है। इस खाली जगह को भरने के लिए हिन्द महासागर से जलवाष्प से भरी हवाएं आगे बढ़ती है पर जैसे-जैसे ये वायुमण्डल में उपर उठती है इनका तापमान गिरने लगता है और नमी बूंदों के रुप में संघनित होकर वर्षा होती है।

अरब सागर से आने वाले मानसून को दक्षिण-पश्चिम मानसून भी कहा जाता है जो सामान्यतः केरल के तट पर जून के पहले सप्ताह में पहुंचता है। भारत में होने वाली अधिकांश वर्षा इसी दक्षिण-पश्चिम मानसून से होती है। लगभग इसी समय बंगाल की खाड़ी से आने वाला उत्तर-पूर्वी मानसून भी पूर्वी व पूर्वोत्तर भारत में वर्षा करता है। छत्तीसगढ़ के ऊपर ये दोनों मानसून आपस में मिलते है यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में औसत से अधिक वर्षा होती है।

मानसून सितम्बर में उत्तर भारत से लौटना प्रारंभ कर देता है। यह लौटता हुआ मानसून नवम्बर में तमिलनाडु में थोड़ी बारिश करता है, जो वहां ऊगायी जाने वाली तम्बाकू की फसल के लिए उपयोगी होता है। दिसम्बर में सूर्य दक्षिणायण हो जाता है और निम्न दाब का केन्द्र भी खिसककर बंगाल की खाड़ी पर आ जाता है। जिस कारण पूर्वी तट पर भयंकर चक्रवात के साथ वर्षा होती है। मानसून के आने से पहले मई में पूरे दक्षिण भारत में हल्की वर्षा होती है जिसे ‘मैंगोशावर’ कहते हैं क्योंकि इससे आम जल्दी तैयार होता है।

मानसूनी वर्षा की मात्रा व वितरण कई स्थानीय तत्वों जैसे समुद्र से दूरी, जंगल व पर्वत जैसे प्राकृतिक अवरोधो पर भी निर्भर कहते है। इसीलिए पश्चिमी घाट व पूर्वोत्तर भारत में उत्तर भारत की अपेक्षा अधिक वर्षा होती है। चूंकि देश के विभिन्न क्षेत्रों में वर्षा का वितरण असमान होता है। जिस कारण विभिन्न क्षेत्रों की वनस्पतियों और उस पर पनपने वाले जैव मण्डल में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है। भारत में इतनी अधिक जैव विविधता होने का बड़ा कारण मानूसन है। मानसूनी वन न सिर्फ मूल्यवान होते हैं बल्कि ये ग्रीष्म में पानी की बचत करने के लिए अपनी पत्तियां भी गिरा देते है। लाखों सालों से होने वाली इस प्रक्रिया के फलस्वरुप पत्तियों के सड़ने से भूमि बेहद उपजाऊ हो गयी है जो आज करोड़ों भारतीयों का पेट भरने में सक्षम है।

मानसून की पहुचने की तारीख
मानसूनी वर्षा का न सिर्फ वितरण असमान होता है, बल्कि इसकी मात्रा भी हर वर्ष अलग-अलग हो सकती है। इसलिए भारतीय कृषि को ‘मानसून का जुआ’ भी कहा जाता है। यह मानसून की अनिश्चितता ही है जिसने भारतीयों को भाग्यवादी बना दिया, पर मानसून ने भारतीयों को सिर्फ भाग्यवादी ही नहीं बनाया बल्कि यह भी सिखाया कि कैसे अधिकता के मौसम में संसाधनों को संभालकर रखा जाय, ताकि कठिनता के समय पर वे उपलब्ध रहे। चूंकि मानसून के लौट जाने के पश्चात् हिमालय से निकलने वाली नदियों को छोड़कर पानी का कोई और स्रोत उपलब्ध नहीं रहता, इसलिए मानसून के पानी को संग्रहित करने के लिए पूरे भारत में तालाब बनवाने की परम्परा रही है। पानी को संग्रहित करने की इसी परम्परा ने शायद हम में धन के संग्रहण की भी आदत डाली और इसी कारण हम भारतीयों में बचत दर दुनिया में सर्वाधिक है। मैं ऐसा इसीलिए भी कह रहा हूं क्योंकि हम भारतीय पानी व धन दोनों के लिए द्रव्य शब्द का ही इस्तेमाल करते हैं।

मानसून भारत के फसल-चक्र को भी निर्धारित करता है। मानसून के आगमन के साथ जून-जुलाई में बुआई करके अक्टूबर तक काट ली जाने वाली फसल ‘खरीफ की फसल’ कहलाती है। इसमें चावल, कपास, जूट, मूंगफली इत्यादि अधिक पानी लेने वाली जिन्से बोयी जाती है। जबकि अक्टूबर में बोयी जाने वाली रबी की फसल में गेहूं चना, मटर सरसों इत्यादि होते है जिसमें पानी कम लगता है। भारत आने वाले यूनानी इतिहासकारों ने साल में दो बार होने वाली इस फसलों पर आश्चर्य वक्त किया है, खासकर मिट्टी की नमी के सहारे होने वाली रबी की फसल उनके लिए कौतुहल का विषय रही। इसी प्रकार का कौतूहल बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में भी व्यक्त किया है।

मानसून ने कई बार इतिहास की धारा को भी मोड़ा है। सिकंदर और पोरस के बीच जब युद्ध चल रहा था, तभी मानसून आ पहुंचा और पोरस के धनुर्धरों के आदमकद धनुष, जिन्हें जमीन पर पैर के अंगूठे से दबाकर स्थिर रखा जाता था, कीचड़ में फिसलने लगे और बाण अपने निशाने चूक गये। यूनानी सैनिकों के कवच को भेद डालने वाले इन शक्तिशाली धनुषों की नाकामी ही पोरस की हार का प्रमुख कारण बनी। पर मानसून के आ जाने से नदियां चढ़ गयी और यूनानी सेना को सिंधु के तट पर ही रुकना पड़ा। इसी बीच उन्हें पाटलीपुत्र के शक्तिशाली नंदों के विषय में जानकारी हुई जो इसी तरह के धनुषों का इस्तेमाल करते थे, इसके बाद तो यूनानी सेना सिकंदर के लाख कोशिशों के बाद भी टस से मस होने का तैयार नहीं हुई और उसे मजबूरन वापस लौटना पड़ा। मानसून ने मोहम्मद गजनी के सोमनाथ धावे को भी अस्त-व्यस्त किया था। दरअसल सोमनाथ की लूट से क्षुब्ध धार का राजा भोज उसकी वापसी के सभी रास्तों को बंद करके खड़ा हो गया। मजबूरी में गजनी मानसून की आस लिए कच्छ के रण में जा घुसा पर उस साल मानसून देरी से आया और उसकी अधिकांश सेना व लूट का माल कच्छ का रन निगल गया। आखिर में वह इस तरह मानसून के हाथों बुरी तरह पिटकर वापस लौट पाया।

चित्रकोट जलप्रपात, जगदलपुर4
मानसून का भारतीय धर्म पर भी गहरा प्रभाव है। मानसून के चार महीने-चतुर्मास का विशेष महत्व है। वैदिक धर्म में वरुण को जल व दिशा का स्वामी माना गया है। वैदिक साहित्य में वरुण ही एकमात्र ऐसे देव है जिन्हें असुर कहा गया है। यह इस तथ्य की ओर इशारा है कि आर्य स्थानीय कृषि प्रधान समाज से तालमेल बैठा रहे थे और पशुपालन से कृषि की ओर आ रहे थे, जिसमें मानसून या वर्षा का बहुत महत्व था। वरुण की ही तरह आर्यों के एक अन्य देव इन्द्र भी थे, पर उन्हें विद्युत व चक्रवात का स्वामी माना गया है। इन्द्र की बेटी है काजल, जिनकी पूजा दक्षिण की ओर मुंह करके की जाती है जो मानसून के आने की दिशा है। उत्तर भारत में वर्षा ऋतु में गायी जाने वाली कजरी भी इन्हीं से सम्बंधित है। वैसे भारतीय शास्त्रीय संगीत में भी वर्षा ऋतु के लिए कई राग है, पर इनमें राग ‘मेघ मल्हार’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जिसमें गायक के निमंत्रण पर मेघ वर्षा करते है। पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है पर कहते हैं कि कई गायकों ने इसे साबित करके भी दिखाया है। जो भी हो पर यह तो वैज्ञानिकों ने साबित कर ही दिया है कि उत्तर अमेरीका में प्रवास पर निकलने वाली मोनार्क तितलियों का सम्बंध दक्षिण चीन सागर से उठने वाले बादलों से है और हमारे मानसून का दक्षिण अमेरीका की ‘अलनीनो’ जल धारा से, वैसे मेरा मानना है कि पूरा विश्व समग्रता में एक इकाई है जिसकी सभी चीजें परस्पर अंतःसंबंधित है। तो फिर राग मेघ मल्हार गाने वाले गायक का सम्बंध मेघों से क्यों नहीं।

मेघों से ध्यान आया ‘मेघदूत’ का, जिसमें महाकवि कालीदास ने इन्हीं मानसूनी बादलों से अपनी प्रेयसी को संदेश भेजा था। मैं बात कर रहा था मानव व प्रकृति के अंतःसंबंधों की, तो इस संबंध में प्रकृति को धन्यवाद ज्ञापित करने का समय हमारे लिए उत्सव बन जाता है। हमारे अधिकांश त्यौहार प्रकृति को दिये जाने वाले धन्यवाद ज्ञापन ही तो है। छत्तीसगढ़ में अच्छे मानसून के लिए प्रकृति को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए ‘हरेली’ त्यौहार मनाया जाता है।

मानसून पर्यावरण के नाजुक संतुलन पर टिका हुआ है जिसे ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते प्रभाव से गंभीर खतरा है। पृथ्वी के तापमान वृद्धि से मानसून की अनिश्चितता भी बढ़ जायेगी और देश के विभिन्न क्षेत्रों में बाढ़ व सूखे के हालात एक समय में ही पैदा होने लगेंगे। पृथ्वी का बढ़ता हुआ तापमान एक वैश्विक समस्या है जिस पर हाल ही में ‘क्योटो’ सम्मेलन तो हुआ लेकिन विकसित देशों की हठधर्मिता के कारण कोई सकारात्मक निर्णय नहीं हो पाया। इस पर आगे क्या होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है पर फिलहाल तो मानसून पूरे देश में वर्षा कर रहा है। यह हमारे लिए उत्सव का, अधिकता का समय है और संग्रह का भी।
विवेक राज सिंह



विवेक राज सिंह 
समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 

इस ब्‍लॉग में विवेक राज सिंह जी के पूर्व आलेख -

सभी चित्र गूगल खोज से साभार

अंकों का इतिहास

अलग अलग गणना चिन्‍ह
विश्व के विभिन्न स्थानों पर स्वतंत्र रुप से अलग-अलग तरह के गणना-चिन्हों (अंकों) व गणना पद्धतियों का विकास हुआ, जिसमें भारतीय, रोमन, मिस्री व क्रीट द्वीप के जनजातियों की गणना पद्धतियां विशेष रुप से उल्लेखनीय है, पर इन सभी में भारतीय गणना पद्धति सबसे सरल, व्यवहारिक व सटीक थी, जिस कारण उसने अन्य सभी को प्रचलन से बाहर करके सारे विश्व में अपना एकछत्र अधिपत्य कायम किया। दरअसल भारतीय अंक व गणना पद्धति भारतीय मस्तिष्क के उन कुछ महान आविष्कारों में से एक है, जिसके सामने किसी का भी टिकना लगभग असम्भव है।

हम अंकों और उस पर आधारित गणना पद्धति के इतिहास की बात करें तो विश्व के अधिकांश जगहों पर पर गणना पद्धति का प्रारम्भिक आधार दस ही रहा है और भारतीय गणना पद्धति को तो दशमिक गणना पद्धति भी कहा जाता है। इसमें एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि विश्व के अलग-अलग हिस्सों में स्वतंत्र रुप से विकसित इस गणना पद्धतियों में दस का आधार ही क्यों लिया गया? जबकि बारह अंकों वाला आधार वैज्ञानिक रुप से अधिक उपयुक्त होता क्योंकि यह आधे तिहाई व चौथाई हिस्से तक पूर्णांकों में विभक्त हो जाता। इसका जवाब देते हुए नृतत्व शास्त्री कहते हैं कि चूंकि गणना के प्रारंभिक लोग अपनी हाथों की अंगुलियों का इस्तेमाल किया करते थे। (जैसा छोटे बच्चे अब भी करते है) और हाथों में दस अंगुलियां ही होती है इसी से विश्व के अधिकांश गणना पद्धतियों में दस अंकों का आधार विकसित हुआ।

शून्‍य का पहला अभिलेखीय प्रमाण
भारतीय गणना पद्धति में ‘‘शून्य’’ वह अनुपम गणना चिन्ह (अंक) है जो इसे विश्व के अन्य किसी भी गणना पद्धति से अधिक सरल व श्रेष्ठ बनाता है। शून्य के कारण ही इसे सुव्यवस्थित सिद्धांत में पिरोया जा सका, पर शून्य कब और कैसे प्रचलन में आया इस पर एकमत नहीं है। शायद इसका आधार दर्शन रहा होगा, चूंकि भारतीय गणना पद्धति के अनुसार शून्य का मान कुछ नहीं और अनंत दोनों होता है और भारतीय दार्शनिक मान्यता है कि अनंत हमेशा जहां कुछ न हो अर्थात् शून्य में ही प्रगट होता है। इसलिए बहुत सम्भव है कि गणित में शून्य की अवधारणा दर्शन से आयी हो। हां इस बात पर सभी इतिहासकार एकमत है कि शून्य का पहला अभिलेखीय प्रमाण ग्वालियर के विष्णु मंदिर से 870 ई. में मिलता हालांकि शून्य सहित अन्य अंक इससे शताब्दियों पूर्व प्रचलन में आ चुके थे, पर अभिलेखीय प्रमाणों के अभाव में यह सुनिश्चित करना भी बेहद कठिन है कि इनका कब, किसने आविष्कार किया और कैसे इसे एक सुनिश्चित सिद्धांत में पिरोया, इसका कारण शायद भारतीयों की वह विशिष्ट पृवृति है जो विज्ञान व कला का मूल स्त्रोत ब्रह्मा को बताकर अपना कंधा विद्धता के बोझ से मुक्त कर लेते है। फिर भी ज्ञात ऐतिहासिक स्त्रोत हमें आचार्य कुंदकुंद तक लेकर जाते है। इस पद्धति को ईसा के प्रथम शताब्दी के आचार्य वसुमित्र ने भी उपयोग में लाया है जिससे इतना तो तय हो ही जाता है कि यह ईसा के प्रथम शताब्दी में ही पूर्ण विकसित हो चुकी थी, वैसे पौराणिक ग्रन्थ महाभारत के वन-पर्व में भी पद्धति से गणना की बात मिलती है।

महान आर्यभट्ट

भारतीय अंक व गणना-पद्धति की विश्व विजयी यात्रा-पूर्व की ओर उन साहसी व्यापारियों व विजेताओं के साथ शुरु होती है जिन्होंने पूर्वी एशिया में अपने उपनिवेश स्थापित किये थे, कम्बोडिया के मंदिरों के अलावा सम्बौर का श्री विजय स्तम्भ अभिलेख, पलेबंग का मलय अभिलेख (मलेशिया) जावा (इंडोनेशिया) का दिनय संस्कृत अभिलेख के अतिरिक्त इस क्षेत्र के कई अभिलेखों में भारतीय गणना पद्धति का उपयोग किया गया है, ये अभिलेख चूंकि पद्यात्मक शैली में लिखे गये है, इसलिए इसमें अंकों के स्थान पर भूतसंख्यांओं का उपयोग किया गया है। भूत संख्याऐं वे शब्द है जिनसे गणना चिन्हों को व्यक्त किया जाता है। यथा -


0 - निर्वाण
1 - चन्द्रमा (जो अद्वितीय हो)
2 - नेत्र, कर्ण, बाहु (जो जोड़े में हो)
3 - राम (तीन प्रसिद्ध राम- परशुराम, बलराम, दशरथ पुत्र राम)
4 - वेद 
5 - बाण (कामदेव के प्रसिद्ध पांच बाण)
6 - रस
7 - स्वर
8 - सिद्धि
9 - निधि

इसी तरह विभिन्न अंकों के लिए अन्य शब्दों का प्रयोग हुआ है। चीन में भारतीय अंक बौद्ध धर्म के साथ पहुंचे वहां के सम्राटों को भारतीय ज्योतिष में बेहद आस्था थी। जिससे प्रेरित होकर उन्होंने बहुत से भारतीय ज्योतिष-गणित के ग्रन्थों का चीनी में अनुवाद कराया।

पश्चिम की ओर भारतीय अंकों की यात्रा का पहला पड़ाव ईरान था, जहां के पहलवी शासक शापूर ने भारतीय ज्योतिष-गणित के ग्रन्थों का बड़े पैमाने में फारसी अनुवाद कराया था। ऐसे अनेकों संकेत मिलते है कि पांचवी शताब्दी तक भारतीय अंक व्यापारियों के माध्यम से अलेक्जेfन्ड्रया के बाजारों तक पहुंच चूके थे। इसका सबसे विश्वस्त प्रमाण इस बात से मिलता है कि गणित के बहुत से भारतीय विद्वान उस समय यूनानी वाणिज्य दूत सेवरस के अतिथि रहे थे।

इस बीच इस्लाम के उदय ने भारतीयों का यूरोप से सम्पर्क को लगभग खत्म कर दिया। किन्तु इससे भारतीय अंकों की विजय यात्रा में कोई बाधा नहीं आयी, क्योंकि जब अरबों ने ईरान को विजित किया तो उन्हें वहां के खजानों के साथ-साथ फारसी में अनुवादित बहुत सी बहुमूल्य भारतीय पुस्तकें भी मिली जो गणित सहित अन्य कई विषयों से संबंधित थी। अरबों ने इनका यथायोचित सम्मान करते हुए, इनका अरबी में अनुवाद कराया। इस तरह भारतीय अंक अरबों तक पहुंचे जिन्होंने उसे अपने व्यापारिक साझीदार यूरोपियों तक पहुंचाया, यही कारण है कि भारतीय अंकों को यूरोपीय आज भी इन्डों-अरेबिक संख्याऐं कहते है।

अल ख्वारिज्म
इस्लामिक दुनिया के सिरमौर बगदाद के अब्बासी खलीफा ज्ञान के संरक्षक थे, जिन्होंने गणित वाणिज्य सहित अन्य कई विषयों के भारतीय ग्रन्थों को अरबी में अनुवादित कराया, जो उन्हें अब ईरान के अलावा भारत जाने वाले व्यापारियों व fसंध के अरब उपनिवेश के माध्यम से बड़ी संख्या में उपलब्ध हो रहे थे, इसके अतिरिक्त बहुत भारतीय ग्रन्थ बल्ख (उजबेगीस्तान) से होकर भी बागदाद पहुंचे, दरअसल रेशम मार्ग (सिल्क रुट) में स्थित बल्ख में नवसंधाराम नाम का बहुत बड़ा बौद्ध विहार था, जिसमें बड़ी संख्या में भारतीय ग्रन्थ संग्रहित थे। अरब इस नववहार तथा इसके अरहतों को परमक के बजाय बरमक कहा करते थे। सातवीं शताब्दी में उन्होंने इस विहार को नष्ट कर डाला और अरहतों को इस्लाम स्वीकारने को बाध्य किया, इन अरहतों को इनके ग्रन्थों सहित बगदाद ले जाया गया। बाद में इन्हीं अरहतों में से एक का पुत्र जिसका नाम खलिद इब्न बरमक था। खलीफा अल मंसूर का वजीर बना।

कई अरब विद्वानों ने स्वतंत्र रुप से भी भारतीस अंकों व गणना पद्धति पर भी पुस्तकें लिखी, जिनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई सन् 825 ई. में अल ख्वारिज्म की लिखी पुस्तक ‘‘किताब हिसाब अल अद्द् अल हिन्दी’’ इसमें उन्होंने सिद्ध किया कि भारतीय अंक व गणना पद्धति न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ है बल्कि सबसे सरल भी है। यह पुस्तक ‘‘लीबेर अलगोरिज्म डिन्युमरों इन्डोरम’’ (भारतीय संख्याओं पर अलगोरिज्म की पुस्तक) नाम से लैटिन में अनुवादित होकर यूरोप पहुंची और यूरोप अंकगणित से परिचित हुआ। यही कारण है कि यूरोपिय आज भी अंकगणित को अलगोरिज्म के नाम से ही पुकारते हैं। इसके अलावा अबु युसुफ अल किन्दी की ‘‘हिसाबुल हिन्दी’’ अलबरुनी की ‘‘अल अर्कम’’ महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। अल दिनवरी ने व्यापार संबंधी हिसाब में भारतीय पद्धति का प्रतिपादन किया। साहित्य प्रेमी बुखारा के रहने वाले और अपनी रुबाईयों के लिए मशहुर उम्मर खय्याम को जरुर जानते होंगे, दरअसल वो खगोलविद् थे और उन्होंने भी बड़े जतन से भारतीय गणना पद्धति को सीखा था। बुखारा के ही एक अन्य विद्वान इब्नसीना ने अपनी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्होंने भारतीय अंक व गणना पद्धति उन मिस्री उपदेशकों से सीखी थी जो धर्म प्रचार के लिए वहां आते थे। यह कथन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि इब्नसीना इस बात को न लिखते तो कोई स्वप्न में भी यह नहीं सोच सकता कि भारतीय अंक रुस में व्हाया मिस्र (अफ्रीका) दाखिल हुए।

पंचतंत्र का अरबी अनुवाद, एक दृश्‍य
बच्चों के लिए लिखी गयी भारतीय पुस्तक ‘‘पंचतंत्र’’ का भी यूरोप तक का सफर अंकों के सफर जैसा ही रोचक है। छठी शताब्दी में इसे फारसी में अनुवादित किया गया, जब ईरान पर अरबों का कब्जा हुआ तो यह उनके साथ उम्मैयद खलीफाओं की राजधानी दमिश्क चली आयी जहां इसका सिरियन में अनुवाद हुआ। बाद में अब्बासी खलीफाओं के समय हुआ, इसका अरबी अनुवाद बेहद लोकप्रिय हुआ, इसकी लोकप्रियता का अन्दाज आप इस बात से भी लगा सकते है कि इसके अरबी संस्करण में मुख्य पात्र किलील व दिमना (लोमड़िया) सहित कइ कहानियों को सचित्र दर्शाया गया जो किसी भी जीवित वस्तु के चित्रांकन न करने के इस्लामिक नियम के विपरीत है। इसके बाद पंचतंत्र का हिब्रु ग्रीक व लैटिन में अनुवाद हुआ और यह यूरोप जा पहुंची जहां इसको इटेलियन व स्पेनिश में अनुवादित किया गया। अतः इसे 1570 ई. में सर थामस नार्थ ने ‘‘दि मारल फिलासफी आफ डोनी’’ के नाम से ईटेलियन से अंग्रेजी में अनुवादित किया गया। इसी रास्ते यूरोप पहुंचने वाली भारतीय पुस्तकों में ‘‘वृहकत्था’’ व ‘‘सहत्ररजनी’’ चरित्र प्रमुख है। भारत में बच्चों के लिए गणित में भी कई पुस्तकें लिखी गई, जिनमें जैन आचार्य ऋषभदेव द्वारा अपनी पुत्री आनन्दी के लिए गयी ‘‘बाक्षिल पोथी’’ महत्वपूर्ण है। पर अधिक लोकप्रिय हुई भास्कराचार्य कृत ‘‘लीलावती’’ जिसे उन्होंने अपनी इसी नाम की बेटी को गणित सीखाने के लिए लिखी थी। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि गणित जैसा शुष्क विषय भी काव्य के सौन्दर्य व वात्सल्य के रस में भीगकर बिलकुल भी बोझिल नहीं लगता और इसमें आप वात्सल्य से भरे पिता के हृदय के स्पन्दन को साफ सुन सकते हैं।

भावों के प्रवाह में बहकर हम अपनी मूल धारा से दूर आ गये, चलिये वापस लौटते है। फ्रांस में जन्मे गेरबर्ट नामक व्यक्ति ने स्पेन जाकर भारतीय अंक व गणना पद्धति संबंधित ज्ञान अर्जित किया। वह इस पद्धति से इतना प्रभावित हुआ कि जब वह ‘‘सिल्वेस्टर द्वितीय’’ के नाम से पोप बना तो उसने पूरे यूरोप में भारतीय अंकों व गणना पद्धति के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

चौदहवी शताब्दी में यूनानी पादरी मैक्समस प्लेनुडेस द्वारा ग्रीक में लिखी पुस्तक ‘‘भारतीय अंक गणित जो महान है’’ इस बात का प्रमाण है कि इस समय तक पूरे ईसाई व मुस्लिम जगत में भारतीय अंक व गणना पद्धति प्रचलित हो चुके थे। यद्यपि इसमें कुछ बाधायें भी आयी। सन् 1299 में फ्लोरेन्स की नगर परिषद ने वाणिज्य लेखों के लिए भारतीय अंकों पर प्रतिबद्ध लगा दिया था पर युरोप के विभिन्न विश्व विद्यालयों जिनमें आक्सफोर्ड, पेरिस, पेदुआ व नेपल्स प्रमुख थे। भारतीय अंकों व गणना पद्धति पर अध्ययन-अध्यापन जारी रहा। अतः युरोप में प्रचलित होने के बाद ये अंक यूरोपियों के साथ अमेरिका पहुंचे और भारतीय अंकों का विश्व विजय अभियान पूर्ण हुआ।

विश्व को भारत की सबसे महान देने में पहला बौद्ध धर्म का एशिया में प्रसार है जबकि दाशमिक अंक प्रणाली को दुनिया भर में स्वीकार्यता मिलना भारतीय मस्तिष्क की दुसरी बड़ी विजय है। इनमें से एक क्षेत्र पारलौकिक ज्ञान है तो दुसरे का क्षेत्र लौकिक विज्ञान।





विवेक राज सिंह 
समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 

इस ब्‍लॉग में विवेक राज सिंह जी के पूर्व आलेख -

सभी चित्र गूगल खोज से साभार

समय की यात्रा

एक थी युवा सुन्दरी
प्रकाश से भी तीव्र थी उसकी गति
कर गयी वह एक दिन सापेक्षता से प्रस्थान
और आयी जब लौटकर वह
जाने से पहले दिन का हुआ था अवसान।
A Brief History of Time (Stephen Hawking)


  H.G. वेल्स
हम अपने संसार को तीन आयामों में देखते और समझते है हैं, जिन्हें हम लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई (गहराई) के नाम से पुकारते है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने समय को भी एक आयाम मान लिया है। अब सवाल ये है कि जिस तरह हम किसी लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई में एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक आ जा सकते हैं क्या वैसा समय के साथ भी सम्भव है यानि क्या वर्तमान से निकलकर भूत या भविष्यकाल में जाना सम्भव है।

यह बड़ा ही दिलचस्प विषय है जो बहुत सी सम्भावनाओं के द्वार भी खोलता है। प्रसिद्ध विज्ञान कथालेखक H.G. वेल्स ने अपनी पुस्तक ‘द टाईम मशीन’ में इसका बहुत ही रोमांचक वर्णन किया, बहुत से अन्य लेखकों व फिल्मकारों ने भी ऐसी मशीन की कल्पना की है जिसके माध्यम से भूत या भविष्य में जाया जा सकता था। वैसे ऐसी बहुत विज्ञान कथायें या फंतासियां हु ब हु हकीकत में बदली भी है जिसमें चन्द्रमा की यात्रा और पनडुब्बी का आविष्कार उल्लेखनीय है। यद्यपि समय की यात्रा थोड़ा जटिल मामला है परन्तु वैज्ञानिक सैद्धांतिक रुप से इस बात पर सहमत है कि समय की यात्रा करना सम्भव है।


अल्वर्ट आईनस्टाईन
इस विषय पर अल्वर्ट आईनस्टाईन के विचारों ने बड़ा क्रांतिकारी बदलाव लाया। सापेक्षता के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए उन्होंने समय की तुलना नदी से की है जो न सिर्फ कई जगहों पर तुड़ी-भुड़ी होती है वरन् समय की गति भी नदी की ही तरह अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न होती है। थियेटर में फिल्म देखते हुए बिताये गये तीन घंटे परीक्षा हाल में बिताये गये तीन घंटों से छोटा होता है। यह सिर्फ एक मानसिक स्थिति नहीं वरन् वैज्ञानिक सच्चाई भी है कि समय की गति स्थान के सापेक्ष कम या अधिक होती है। जैसे समय की गति अंतरिक्ष के मुकाबले पृथ्वी पर धीमी होती है। इसका प्रमाण अंतरिक्ष में घुमते उन 31 उपग्रहों से मिलता है जिनसे हमारे G.P.S. सिस्टम काम करते है। इन उपग्रहों में समय की एकदम सटीक गणना करने वाली एटामिक घड़ियां लगी हुई है और ऐसी ही घड़िया इनके कमांड सेन्टर में भी है। पर रोज उपग्रह में लगी घड़ियां पृथ्वी की घड़ियों के मुकाबले 1 सेकंड के खरबवें हिस्से के बराबर आगे बढ़ जाती है। ये G.P.S. के संदर्भ में काफी बड़ा मामला है क्योंकि इससे पूरे सिस्टम में 10 कि.मी. तक का फर्क आ सकता है और ऐसा होता है पृथ्वी के द्रव्यमान के कारण जो समय की चाल को सुस्त बना देती है।

समय पर बुद्ध की व्याख्या भी बहुत हद तक आईनस्टाईन से मिलती है। पर बुद्ध की व्याख्या दाशनिक है जबकि आईनस्टाईन विज्ञान की ठोस धरातल पर खड़े है, मैं चड्डी पहनकर फूल (कमल) खिलाने वालों में से नहीं हूं, पर प्राचीन कणाद् ऋषि के विचारों का आधुनिक क्वांटम फिजिक्स भी समर्थन करता है। जिसकी नवीनतम खोज है वर्महोल- यह ऐसी महीन सुरंग या रास्ता है जो समय या स्थान के बिन्दुओं को आपस में जोड़ने में सक्षम है यदि इसे बड़ा बना लिया जाय तो एक सिरा वर्तमान में होगा तो दुसरा दसवीं शताब्दी, दुसरी शताब्दी या फिर डायनासोटसों के युग में हो सकता है। बस इससे गुजरिये और वहां पहुंच जाईये। परन्तु वर्महोल स्थायी नहीं रह पाते ये सेकंड के खरबवें हिस्से में बनते व रेडियेन से नष्ट हो जाते है।

समय की यात्रा का एक रास्ता गति भी खोलती है। आईनस्टाईन का सिद्धांत कहता है कि जैसे-जैसे हम प्रकाश की गति के समीप पहुंचने लगते हैं वैसे-वैसे समय अपनी गति धीमी करने लगता है। समझने के लिए आप मान ले कि आप प्रका की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान से अंतरिक्ष यात्रा पर गये और हफ्ते भर की यात्रा कर वापस लौट आये तो आप पायेंगे कि इस बीच पृथ्वी पर पांच साल गुजर गये चूंकि यान की रफ्तार अधिक थी इसलिए वहां समय ने अपनी रफ्तार धीमी कर ली थी। इससे भी आश्‍यचर्यजनक तथ्य यह है कि यदि आपका यान प्रका की गति से अधिक पर उड़ पाता तो समय उल्टा चलने लगता यानि आपकी अतीत की यात्रा प्रारम्भ हो जाती पर ऐसा अब तक सम्भव नहीं हो पाया है क्योंकि मानव निर्मित आज तक का सबसे तेज यान अपोलो-10 था जिसकी अधिकतम गति 40000 कि.मी. प्रति घंटा थी। यानि प्रकाश की गति से 2000 गुनी कम इसके अलावा भौतिकी के नियम भी प्रका की गति से अधिक गति पर जाने पर रोक लगाते है। वैज्ञानिकों ने इसका भी हल खोज निकाला है। यान को प्रकाश की गति पर ले जाने के बजाय उसे ऐसी जगह पर क्यों न उड़ाया जाए जहां पर प्रकाश की ही गति कम हो और ऐसी जगह आपको ब्लैक होल के इर्दगिर्द मिल सकती है। क्योंकि अपने भारी भरकम द्रव्यमान के कारण ब्लैक होल प्रकाश व समय की गति को धीमा कर देते है। यदि कोई अंतरिक्ष यान प्रकाश की वास्तविक गति से कम गति पर भी इनकी परिक्रमा करे तो वह अतीत में प्रवेश पा सकता है। इस तरह शायद ब्लैक होल ही समय की यात्रा के प्रवेश द्वार बने।


स्वीट्जरलैंड में चल रहे महाप्रयोग


स्वीट्जरलैंड में इस समय जो महाप्रयोग चल रहे हैं उनसे अब तक तो यह साबित हो चुका है कि किसी भी कण को अधिकतम प्रकाश की गति के 99.99% तक ही गति दी जा सकती है और ज्यों-ज्यों वह कण प्रकाश की गति के नजदीक पहुंचता है त्यों-त्यों उसके लिए समय की रफ्तार कम होने लगती है। इसी का लाभ लेकर वैज्ञानिक ‘पाई मेशन’ व अन्य ईश्वरीय कणों के रहस्य से पर्दा उठने तथा वर्म होल की जीवन अवधि बढ़ाने का प्रयास में है। इन प्रयासों से छोटे-छोटे ब्लैक होल भी पैदा किये जा सकते है। यह बहुत सम्भव है कि इन्हें नियंत्रित कर आगे टाईम मशीन बनाने में उपयोग किया जाए। इस महाप्रयोग में बहुत सी सम्भावनाएं है। शायद इसके सफल होने पर हमें अपने विज्ञान के बहुत से सिद्धांतों को पुनः समायोजित करना पड़े और इतिहास को भी क्योंकि इतिहासकारों के गप्प की कलाई जो खुलने वाली है। 

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लालए गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो।

उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की॥
नजीर अकबराबादी

होली की शुभकामनाओं सहित।

- विवेकराज सिंह 
अकलतरा
समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 
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श्रीलंका- विलुप्त हुए चीते

वेल्‍लूपिल्‍लई प्रभाकरन
जनश्रुतियां व लोक साहित्य किस तरह से इतिहास को पुष्ट करती हैं, इसका बेहतरीन उदाहरण मलिक मोहम्मद जायसी के 'पद्मावत' में देखा जा सकता है। इस ग्रंथ के आरंभ में सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के लिए मेवाड़ के गोहिल राजा रतन सिंह की सिंहलद्वीप (श्रीलंका) की यात्रा का रोचक विवरण है। यह जनश्रुति (वस्तुतः यह जनश्रुति ही है जिसका पद्मावत में उपयोग कर लिया गया है), उस इतिहास पर भारी पड़ गयी जिसके अनुसार यह माना जाता रहा कि श्रीलंका को तमिलों ने आबाद किया, क्योंकि भाषाशास्त्रियों व नृतत्वशास्त्रियों ने ऐसे ढेरों प्रमाण दिये जिससे स्‍पष्‍ट होता है कि प्रारम्भिक श्रीलंकाई विशेषकर सिंहली, तमिलों के बजाय गुजरात के काठियावाड़ व राजस्थान के मेवाड़ के लोगों से अधिक नजदीक है, जो सदियों पहले व्यापार के लिए, साहसिक अभियानों में यहां आए। सिंहली और तमिल समाज का यही नस्ली विभाजन वहां चले गृहयुद्ध का प्रमुख कारण भी था।

स्पष्टतः श्रीलंका अपने प्रारम्भिक काल से ही भारत से जुड़ा रहा है। पौराणिक काल की रामायण हो या चेरों व चोलों का ऐतिहासिक विवरण, सभी में श्रीलंका का उल्लेख है। श्रीलंका के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ संघमित्रा व महेन्द्र के वहां पहुंचने के बाद आया। जब पूरा देश उनके उपदेशों से प्रभावित होकर धम्म के मार्ग पर चलने को राजी हो गया। तब बहुत से बौद्ध विद्वान भी अपने धार्मिक ग्रंथों के साथ यहां आये। इन ग्रन्थों को कैण्डी के प्रसिद्ध दंत मंदिर में बहुत ही श्रद्धापूर्वक सहेज कर रखा गया, जहां वे उन मुस्लिम आक्रांताओं से भी सुरक्षित थे जो उस समय उत्तर भारत में उत्पात मचा रहे थे। कालांतर में इन्हीं धर्मग्रन्थों में से दीपवंश व महावंश, भारतीय इतिहास में तिथि निर्धारण व पुनर्रचना के लिए महत्वपूर्ण साबित हुए। श्रीलंका के इतिहास में और भी बहुत से रोचक तथ्य है पर उनकी चर्चा फिर कभी। फिलहाल उस युद्ध की चर्चा, जिसे वेल्लु पिल्‍लई प्रभाकरन व उनके तमिल चीतों ने दशकों तक लड़ा।

तमिल, यद्यपि श्रीलंका में बहुत पहले से थे, पर औपनिवेशिक शासन के दौरान उन्हें मजदूरों के रुप में बड़ी संख्‍या में लाया गया। 1948 में श्रीलंका की आजादी तक, उनकी संख्‍या बढ़कर, कुल जनसंख्‍या का 17% तक हो गया। आजादी के बाद आयी सिंहली सरकार ने तमिलों के साथ धार्मिक व नस्ली आधार पर भेदभाव किया व विरोध करने पर उसे बर्बरता से कुचला, जिसके प्रतिरोध में तमिल उग्रवादी आन्दोलन का जन्म हुआ। प्रारंभ में ऐसे कई संगठन थे, जो हथियारों के दम पर राजनैतिक सुधारों के लिए लड़ रहे थे, किन्तु प्रभाकरन ने जाफना के मेयर की हत्या करके जिस नये संगठन एलटीटीई-लिट्टे (लिबरेशन टाईगर ऑफ तमिल ईलम) की नींव रखी, वह अपने पूर्वगामियों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली व खूंखार था तथा जिसने स्वतंत्र तमिल राष्ट्र को लक्ष्य बनाकर श्रीलंकाई सरकार के खिलाफ यु़द्ध ही छोड़ दिया।

एलटीटीई एयर विंग के लड़ाके

सिंहली प्रताड़ना से त्रस्त तमिल जनता को प्रभाकरन उद्धारक की तरह नजर आया और जाफना से शुरु हुआ यह विद्रोह धीरे-धीरे समस्त उत्तर-पूर्वी श्रीलंका में फैल गया तथा इन क्षेत्रों का नियंत्रण श्रीलंका की सरकार के हाथों से निकलकर लिट्टे के पास आ गया। लिट्टे की इस चमत्कारिक सफलता के पीछे भारतीय खुफिया ऐजेन्सी 'रा' (RAW) का भी महत्वपूर्ण योगदान था, जो उसे सैन्य प्रशिक्षण, हथियार व खुफिया सूचनाएं उपलब्ध करा रही थी। भारत में प्रशिक्षित लिट्टे के पहले दस्ते में (जिन्हें हिमाचल व उत्तराखण्ड में प्रशिक्षण दिया गया था), वे लोग भी शामिल थे जिन्होंने बाद में पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
दरअसल तत्कालीन भारतीय सरकार श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के सख्‍त खिलाफ थी और उनको वाजिब अधिकार दिलाना चाहती थी। इसीलिए जब श्रीलंकाई सरकार ने लिट्टे द्वारा अधिकृत किये गये क्षेत्रों की आर्थिक नाकेबंदी कर दी, तब तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भारतीय वायुसेना की मदद से यहां खाद्यान्न, दवाईयां, ईधन व अन्य जरूरी वस्तुएं भिजवाईं, जिन्हें ले जा रहे मालवाही विमानों के साथ युद्धक विमान भी थे। लिट्टे को भारत सरकार के इस खुले समर्थन से श्रीलंकाई सरकार न सिर्फ घबराई, वरन् खीझते हुए उसने तमिलों को समान नागरिक अधिकार व स्वायत्त राज्य देने को सहमत हो गयी, बशर्ते तमिल अपना सशस्त्र संघर्ष त्याग दें। भारत सरकार की मध्यस्थता में एक समझौता भी हुआ जिसमें राजीव गांधी, प्रेमदास व प्रभाकरन के हस्ताक्षर थे (ये तीन ही इस युद्ध के भेट चढ़े), परन्तु वापस जाफना लौटते ही प्रभाकरन, दिल्ली के अशोका होटल में हुए अपने अपमान को आधार बनाकर इस समझौते से मुकर गया और युद्ध पुनः शुरु हो गया। अब भारत सरकार के सामने विचित्र स्थिति थी क्योंकि वह इस समझौते की मध्यस्थ व गारंटर थी। अतः उसे वहां शांति स्थापित करने के लिए सेना भेजनी पड़ी, जिसे श्रीलंकाई सरकार के उचित सहयोग न मिल पाने की वजह से बिना किसी खास उपलब्धि के वापस लौटना पड़ा। प्रमाकरन इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ उसने 1991 में श्री पेराम्बदूर की चुनावी जनसभा में राजीव गांधी की हत्या करा दी। इसी तरह 1993 में एक आत्मघाती हमले में प्रेमदास को भी मार डाला गया।

राजीव गांधी की हत्या ने पूरे संघर्ष की दिशा ही बदल दी। यह बदलाव धीरे-धीरे पर निर्णायक हुआ। 1991 में सत्ता में आयी पीवी नरसिंहराव की सरकार ने यद्यपि लिट्टे के खिलाफ कोई कठोर कार्यवाही तो नहीं की, पर लिट्टे को मिलने वाला भारतीय समर्थन खत्म कर दिया। हालांकि लिट्टे पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि उसने अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा व मलेशिया इत्यादि देशों में रहने वाले तमिलों के माध्यम से धन व हथियारों का इंतजाम कर लिया, परन्तु जब 2005 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए सत्ता में आयी तो उसने न सिर्फ हिन्द महासागर से लिट्टे के लिए होने वाली हथियारों की आपूर्ति पर रोक लगाना शुरु किया वरन् श्रीलंकाई सरकार को भी लिट्टे के दमन के लिए आवश्‍यक हथियारों की खरीद करने की छूट दे दी, जिसका परिणाम हुआ कि लिट्टे के नियंत्रण क्षेत्र का दायरा धीरे-धीरे सिमटने लगा। बढ़ते दबाव से लिट्टे में भी फूट पड़ गयी और एक समूह जनरल करुणा ने नेतृत्व में अलग हो गया। लगभग इसी समय यह तय हो गया कि अब प्रभाकरण के पास गिनती के ही दिन बचे है और अंततः वह 18/05/09 को वन्नी के पास हुई मुठभेड़ के बाद अपने साथी पोट्टू अम्मोन व पुत्र चार्ल्स एंटोनी के साथ मृत पाया गया। शायद पराजय सुनिश्‍िचत जानकर सभी ने आत्महत्या कर ली।
मृत प्रभाकरन 

लिट्टे अब तक सभी आतंकवादी संगठनों में सबसे अधिक दुर्दान्त था। इसकी मारक क्षमता के आगे अल कायदा, हमास, पीएलए, तलिबान या आईआरए सभी बौने पड़ते हैं। यह एकमात्र ऐसा आतंकवादी संगठन था जिसके पास अपनी नौसेना व वायुसेना भी थी। इसकी वायुसेना ने कोलम्बो तक पर सफलतापूर्वक हवाई हमला किया और नौसेना ने श्रीलंका से सैकड़ों समुद्री नाटीकल मील दूर मालदीव पर हमला कर उस पर कब्जा करने की कोशिश की। गनीमत कि सही समय पर भारतीय नौसेना वहां पहुंच गयी, अगर कुछ घंटों की देरी होती तो मालद्वीप के राष्ट्रपति सहित पूरा देश लिट्टे के कब्जे में होता। इसके अलावा आत्मघाती हमलों की शुरुआत भी लिट्टे ने की थी। इसका कैडर इतना समर्पित था कि ये पकड़े जाने की स्थिति में सायनाइड की कैप्सूल खाकर आत्महत्या कर लेते। यद्‌यपि तमिल दिलेरी से लड़े पर उनका शीर्ष नेतृत्व अपनी सैनिक सफलता को राजनैतिक सफलता में बदलने में न सिर्फ असफल रहा वरन कई मौकों पर गजब की राजनैतिक मूर्खता भी दिखाई।
कैंडी का दंतस्‍तूप 
दरअसल सभी पृथकतावादी आन्दोलनों में शस्त्र उठाने का प्रमुख उद्‌देश्‍य अपनी ताकत प्रदर्शित करना भर होता है, ताकि विरोधी पक्ष को समझौते की मेज तक ला कर अपनी मांगे मनवायी जा सकें। फिलिस्तिनी मुक्ति मोर्चा के यासिर अराफात इसके सटीक उदाहरण हैं जिन्होंने आपेक्षाकृत कम खून बहाया और इजराईल-अमेरिका जैसे अधिक शक्तिशाली देशों से आखिरकार स्वतंत्र फिलिस्तीन ले ही लिया। अगर प्रभाकरन भी दिल्ली समझौते के अनुरूप स्वायत्त राज्य के लिए सहमत हो जाते तो उन्हें भारत का समर्थन भी मिलता रहता और स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का विकल्प भी खुला रहता है। पर उन्होंने एक समुदाय के अधिकारों की लड़ाई को अपने व्यक्तिगत अहंकार की लड़ाई में बदलकर तमिलों का जो अहित किया, उसे तमिल सदियों तक न भूल सकेंगे। 

अब चूंकि श्रीलंकाई सरकार यह युध्द जीत चुकी है तब उसे चाहिए कि उदार मन से तमिलों को समान नागरिक अधिकार देते हुए उनकी न्यायोचित मांगो को पूरा कर उन कारणों को ही खत्म कर दे जिसके चलते लिट्टे का जन्म हुआ था ताकि शांति स्थायी हो सके। 




समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 
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बांग्लादेश : शतरंज का खेल

शतरंज की बिसात पर कैसे देश व जनता का भाग्य तय होता है, इसे सत्यजीत रे ने अपनी फिल्म शतरंज के खिलाड़ी में सुन्दर ढंग से चित्रित किया है। कुछ ऐसी ही बिसात हकीकत में कूचबिहार के राजा और रंगपुर के नवाब के बीच भी बिछा करती थी, जिसमें अक्सर गांव दांव पर लगाये जाते थे ऐसी बाजियों में कूचबिहार के राजा द्वारा जीते गये कई गांव रंगपुर राज्य के भीतर थे जबकि नवाब द्वारा जीते गये कई गांव कूचबिहार रियासत से घिरे थे। देश जब आजाद हुआ तो कूचबिहार भारत में और रंगपुर पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में शामिल हो गया। ऐसे में चारो ओर से दूसरे देश से घिरे इन गांव में पानी, बिजली, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी पहुंचाना किसी भी देश के लिए कठिन हो गया, और ये क्षेत्र विकास से अछूते ही रह गये। राजा व नवाब का शौक न सिर्फ इन ग्रामवासियों पर भारी पड़ा वरन् ये क्षेत्र दोनों देशों के लिए भी 60 सालों तक सिरदर्द बने रहे, जिसे हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बांग्लादेश यात्रा में सुलझाया जा सका।

बांग्लादेश ऐतिहासिक-सांस्कृतिक रूप से भारत का अभिन्न अंग है। बंगाल के पाल षासकों ने पूरे भारतवर्ष पर शासन किया और 1906 ई. में खिलजियों के आने के बाद सत्ता पर मुस्लिमों का प्रभुत्व रहा। मेरे विचार से बंगाल का इतिहास राजनैतिक या धार्मिक आधार पर नहीं वरन् सांस्कृतिक आधार पर लिखना उपयुक्त होगा, क्योंकि यह उस क्षेत्र व समाज का सबसे प्रबल तत्व है। यह बंगलाभाषियों की विषिष्टता है जिसने पूरे इतिहास में समाज को एक सांस्कृतिक इकाई के रुप में एकजुट बनाए रखा और जब भी दिल्ली की सत्ता कमजोर हुई इसने अपने को सांस्कृतिक ईकाई से स्वतंत्र राजनैतिक इकाई बनाने में देर नहीं की।

बंगाल के इतिहास में बैरों-भुईयां (बारह जमींदार) मुझे सबसे दिलचस्प लगता है। यह छोटे शासकों का सैनिक संगठन था जिसने अपनी स्वतंत्रता व सम्प्रभुता के लिए धर्म व जाति से ऊपर उठकर सदियों तक विषाल मुगल साम्राज्य से लोहा लिया। उनकी स्वाधीनता की लालसा व वीरता अपने समकालीन चित्तौड़ के महाराणा प्रताप की ही तरह प्रबल थी जिस कारण वे जननायक के रूप में स्थापित हुए।

सुन्दर वन का रायल बंगाल टाइगर 
अंग्रेजों ने अपने आर्थिक स्वार्थ के लिए कई तरह से बंगाल की सांस्कृतिक एकता को खण्डित करने को कोषिष की, सन् 1905 में जब बंगाल को धार्मिक आधार पर बांटा गया तो भारतीयों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी, पर अंग्रेज जाते-जाते, देष को धार्मिक आधार पर बांट ही गये। यह विचित्र स्थिति थी, क्योंकि सदियों से यह देष अपने तमाम अन्तर्विरोधों के बाद भी एक सामाजिक, आर्थिक इकाई के रुप में सफलतापूर्वक कार्य कर रहा था। पाकिस्तान की स्थिति तो और भी बदतर थी। उसे भारत के दोनों सिरों में दो अलग-अलग भू-खण्ड मिले थे। जिनमें सिवाए धर्म के और कुछ भी समान नहीं था। पर यह विभाजन जमीन का था, दिलों का नहीं। आज भी भारतीय अपने हिस्से के बंगाल को पष्चिम बंगाल कहते हैं जो कि भारत का पूर्वी हिस्सा है और बंगलादेषियों ने भी जब आजादी पाई तो गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के गीत को ही अपना राष्ट्रगान बनाया जिन्होंने भारत का भी राष्ट्रगान लिखा था। वे बंगलादेषी ही थे जिन्होंने कालान्तर में यह साबित किया कि देष के विभाजन का धार्मिक आधार कितना खोखला था।

जब पश्चिमी पाकिस्तान के हुक्मरानों ने पूरे देश में उर्दू थोपने की कोशिश की तो बांग्लाभाषी पूर्वी पाकिस्तान में इसके खिलाफ एक बड़ा जन आन्दोलन खड़ा हुआ। जिसे आधार बनाकर शेख मुजीब की आवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान की लगभग सभी संसदीय सीटों को जीतकर पाकिस्तानी नेशनल एसेम्बली में बहुमत प्राप्त कर लिया। यह स्थिति पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं को स्वीकार नहीं थी। शेख मुजीब को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए जुल्फिकार अली भुट्टो व जनरल याह्या खान ने देश में मार्शल लॉ लागू कर बंगालियों पर भीषण अत्याचार करने प्रारंभ कर दिये, जिससे डरकर बड़ी संख्या में शरणार्थी भारत आने लगे। जब स्थिति बेकाबू होती चली गयी तब भारत ने ‘‘मुक्ति वाहिनी’’ की अपील पर फौजी हस्तक्षेप किया। जिसकी अन्तिम परिणिति इतिहास का सबसे बड़ा आत्म समर्पण व नये राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश का उदय (दिसम्बर 1971) था।

बांग्लादेश आज स्वतंत्र राष्ट्र है किन्तु यह संसार के सबसे निर्धनतम राष्ट्रों में एक है। गंगा-ब्रह्मपुत्र के उपजाऊ दोआबे में बसा यह राष्ट्र अत्यधिक जनसंख्या से पीड़ित है। अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि और मछली पालन पर टिकी है और देश में खनिजों के अभाव के कारण औद्योगीकरण की संभावना लगभग नहीं है। यद्यपि जहाजों को तोड़कर उससे लोहा निकालने का काम यहाँ औद्योगिक स्तर पर होता है। बांग्लादेश के तटीय क्षेत्रों में हाल में गैस की विशाल भण्डारों की खोज हुई है, जो बांग्लादेश की अपनी ऊर्जा जरूरतों से काफी बड़ा है और जिसे बेचकर वह अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकता है।

नियाजी द्वारा पाकिस्तानी हार की लिखित स्वीकारोक्ति  
बांग्लादेश भारत के राजनैतिक संबंध अच्छे रहे हैं, पर इसमें जमाते इस्लामी लगातार रोड़े अटकाती रहती है। इस पार्टी में मुख्यतः कठमुल्ले में पुराने पाकिस्तानी निजाम के समर्थक है, जो 1971 में भारत से मिली करारी शिकस्त को अब तक भूल नहीं पाये हैं। तीनों ओर भारत से घिरा हुआ यह देश, भारत से दुश्मनी मोल लेकर कदापि प्रगति नहीं कर सकता न ही भारत से दुश्मनी रखने की कोई ठोस वजह ही है। यद्यपि विवाद के कुछ मुद्दे हैं पर उनमें भी बातचीत से हल तक पहुंचा जा सकता है।

भारत-बांग्लादेश में तिस्ता नदी के जल बंटवारे को लेकर विवाद है। बांग्लादेश को आपत्ति है कि भारत, वर्षा ऋतु में फरक्का बैराज को खोल देता है, जिससे उसके यहाँ बाढ़ आ जाती है। जबकि अन्य ऋतुओं में गेट बंद रखने से बांग्लादेश को जल आपूर्ति बाधित होती है। वहीं भारत का तर्क है कि फरक्का चूंकि बैराज है इसलिए उसमें बांधों की तरह बहुत अधिक मात्रा में जल भण्डारण संभव नहीं है अतः वर्षा ऋतु में इसे खोलना उसकी मजबूरी है। जबकि अन्य ऋतुओं में हावड़ा बंदरगाह से गाद साफ करने के लिए उसे अधिक मात्रा में जल की आवश्यकता होती है। इन सभी विवादों के बाद भी दोनों देश इस मुद्दे पर एक समाधान तक पहुँच गये हैं और प्रधानमंत्री के बांग्लादेश दौरे में इस पर समझौता भी हो जाना था पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की आपत्तियों के कारण इसे फिलहाल लम्बित ही रखा गया है।

इसके अलावा दोनों देशों के बीच समुद्र में नये बनने वाले द्वीप भी विवाद पैदा करते रहते हैं और भारत बांग्लादेश से चकमा आदिवासियों के विस्थापन व उत्तर पूर्व के आतंकवादी संगठनों को बांग्लादेश से मिल रही मदद पर चिंता जताता रहा है पर इन सभी मुद्दों का हल आपसी बातचीत से निकाला जा सकता है।

बांग्लादेश भारत के लिए खाद्यान्नों, वाहनों, इंजीनियरिंग सामान व अन्य उपभोक्ता वस्तुओं का अच्छा बाजार है। वह अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भी हमारा समर्थक रहा है। हाल ही में ब्रह्मपुत्र पर चीन द्वारा बनाये जा रहे बांधों की श्रृंखला का दोनों देश मिलकर विरोध कर रहे हैं क्योंकि इससे दोनों पर दुष्प्रभाव पड़ना तय है। खासकर बांग्लादेश पर इसका गंभीर असर होगा।
मो. युनुस नोबेल पुरस्कार प्राप्त समाज सेवी 

बांग्लादेश आर्थिक विकास क्षेत्र में भी भारत का साझेदार रहा है हाल ही में वहाँ जिन गैस भण्डारों की खोज हुई है उससे न सिर्फ बांग्लादेश वरन् भारत के बंगाल व उड़ीसा के तटीय क्षेत्रों में भी विकास को बल मिलेगा। बांग्लादेश कोलकाता बंदरगाह से मणिपुर व त्रिपुरा राज्य को जोड़ने के लिए कारीडोर देने के लिए सिद्धान्ततः सहमत हो गया है जिससे इन दोनों राज्यों के विकास में तेजी आयेगी।

दोनों देश एक दूसरे की मदद से अपने विकास में अभी और तीव्रता लाने की ओर अग्रसर हैं। बांग्लादेश का समृद्ध और मजबूत बनना भी भारत के हित में है पर इसके लिए उसे जमाते इस्लामी जैसी फिरकापरस्त पार्टी व हुजी जैसे आतंकवादी संगठनों से कड़ाई से निपटना होगा, जो दंगे-फसाद फैलाकर न सिर्फ देश के विकास को रोक रहे हैं वरन् अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बांग्लादेश की छवि को खराब कर रहे हैं।



विवेक राज सिंह
समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 
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चीन: ड्रैगन की दुम पर

चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस का प्रसिद्ध कथन है कि ‘‘दूसरों से वैसा व्यवहार न करें, जैसा आप स्वयं के लिए पसंद न करते हो’’ पर आजकल उनके देशवासी याद रखने योग्य सिर्फ कामरेड माओ की उक्तियों को ही मानते है। भारतीय तेल व गैस उत्खनन कम्पनी ओएनजीसी विदेश को वियतनाम के दक्षिण चीन सागर में खनन की मिली अनुमति को चीन के विदेश मंत्रालय ने चीन-वियतनाम के आपसी विवाद में भारत का बेवजह दखल करार दिया है। उनसे पूछा जाना चाहिए कि कि वैधानिक रूप भारत में शामिल पाक अधिकृत काश्मीर पर चीनी सैनिकों द्वारा बनाये जा रहे काराकोरम राजमार्ग पर उनकी क्या राय है। उनकी राय का पता नहीं, पर लगता है कि भारत ने ड्रैगन की दुम पर पैर रख दिया है और यह भारत सरकार का सोच-समझकर उठाया गया कदम है। 

चीन में बुद्ध
चीन-भारत के संबंध पिछले कुछ दशकों से तनावपूर्ण अवश्य है पर इतिहास के पन्नों पर ये काफी मधुर रहे हैं। भारतीय सिन्धु घाटी सभ्यता के ही समकालीन चीन की ह्वांग-हो घाटी की सभ्यता थी। भारत के उपगुप्त व अन्य कई बौद्ध भिक्षुकों ने चीन में धर्म प्रचार किया और बौद्ध धर्म सदियों तक चीन का राजकीय धर्म बना रहा। चीन के फाह्यान व हे्वनसांग जैसे बौद्ध भिक्षुकों ने बुद्ध के देश व बौद्ध धर्म के मूल तत्वों को जानने के लिए भारत भ्रमण किया। चीनी व्यापारिक जहाज भी सदियों तक भारतीय तटों पर आते रहे और भारतीयों ने सदैव उनका स्वागत किया। प्राचीन इतिहास में भारत-चीन के बीच सैनिक संघर्ष का कोई विवरण नहीं है, जिसका कारण शायद हिमालय की विशालता व ऊंचाई है जिसे पार करके सैनिक अभियान चलाना उस समय असंभव था।

आधुनिक चीन एक विशाल देश है जिसमें हान प्रमुख जातीय समूह है। इसके अतिरिक्त हुई मांचू, तिब्बती व उईधुर समूह भी है। जिसमें उईधुर मुस्लिम है जो पश्चिमी चीन में खानाबदोश ढ़ंग से रहते हैं। चीन का मांचू सम्राज्य 1911 में समाप्त कर दिया गया और गणतंत्र की स्थापना हुई, जिसमें कुओं मीन तंग (नेशनल पीपुल्स पार्टी) के डॉ. सनयात सेन राष्ट्राध्यक्ष बने। उन्होंने चीन का आधुनिकीकरण प्रारंभ किया, उनके उत्तराधिकारी च्यांगकाई शेक ने लौकिक कन्फ्यूशियसवाद पर देश चलाने की कोशिश की पर 1937 के जापानी आक्रमण को रोकने के लिए उन्हें जमीन पुनर्वितरण के मुद्दे पर ताकतवर होती, माओत्सेतुंग की साम्यवादी पार्टी से समझौता करना पड़ा। युद्ध के पश्चात सत्ता पर नियंत्रण को लेकर दोनों दल आपस में भिड़ गये और 1949 में माओत्सेतुंग ने मुख्य भूमि पर साम्यवादी सरकार की स्थापना की, जबकि च्यांगकाई शेक ने ताईवान जाकर गणतांत्रिक सरकार बनायी। चीन की नई साम्यवादी सरकार की फौजें 1950 में तिब्बत में घुस आयी और उसे अपना प्रांत घोषित कर दिया। 1958 में तिब्बतियों ने चीनी कब्जे के खिलाफ विद्रोह किया जिसे कुचल दिया गया और तिब्बती धर्मगुरु व प्रमुख नेता दलाईलामा अपने अनुयायी सहित भारत आ गये। भारत द्वारा दलाईलामा को शरण देना चीन को नागवार गुजरा और यही 1962 के भारत-चीन युद्ध का कारण बना। 


थियेनमेन चौंक का छात्र आन्‍दोलन
तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे के बाद भारत से सीमा विवाद प्रारंभ हो गया क्योंकि चीन मैकमोहन रेखा को मान्यता नहीं देता वह अरूणांचल प्रदेश को अपना हिस्सा तथा सिक्किम को स्वतंत्र राष्ट्र बताता रहा है। जबकि भारत 1962 के युद्ध में चीन के कब्जे में गये आक्साई चीन को वापस मंाग रहा है। इस विवादों के बाद भी 1962 के बाद भारत चीन में बड़ा सैनिक संघर्ष नहीं हुआ और हाल के तनाव का कारण भी मुख्यतः आर्थिक है।

दरअसल चीन व भारत दुनिया की तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएँ है, जिन्हें अपनी तीव्र आर्थिक विकास दर को बनाये रखने के लिए ऊर्जा संसाधनों व तैयार माल के लिए बाजार की जरूरत है, इसीलिए चीन पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को विकसित कर रहा है, ताकि खाड़ी देशों से तेल व गैस को पाईप लाईन से पाक अधिकृत काश्मीर होकर पश्चिमी चीन तक पहुंचाया जा सके और उसके जहाजों को हिन्द महासागर का चक्कर न लगाना पड़े जहां भारत मजबूत स्थिति में है। भारत ओएनजीसी तथा कोल इंडिया, विदेश के माध्यम से कई देशों में तेल व कोयले का खनन कर रहा है, जिसे वह निर्बाध रूप से नौ परिवहन कर भारत पहुचांना चाह रहा है। भारत गंगा-मैकांग परियोजना के तहत पूर्वी एशियाई देशों से अपने संबंध लगातार बढ़ा रहा है और आसियान समूह के देशों की अर्थव्यवस्था में भी अपना हिस्सा लगातार बढ़ा रहा है। अफ्रीकी व लैटिन अमेरिकी देशों के बाजारों पर दोनों ही देशों की नजर है। जैसे-जैसे दोनों अर्थव्यवस्थाएं फैलाती जायेंगी, यह आर्थिक टकराव भी बढ़ेगा, जो सैनिक संघर्ष में भी बदल सकता है। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह अपने अधिकतम आर्थिक हित वाले क्षेत्रों को रेखांकित कर अपनी सैनिक क्षमता को इतना बढ़ा ले कि अपने आर्थिक हितों को सुरक्षित रख सके। 

भारत और चीन के बीच एक तीसरा पक्ष अमेरिका भी है। चीन ने जिस दबावपूर्ण ढंग से हांगकांग (बिट्रेन) व मकाओं (पुर्तगाल) को वापस लिया है और पूर्वोत्तर एशिया में दखल देना प्रारंभ किया है, उससे अमेरिका आशंकित है क्योंकि उसके भी सैनिक-आर्थिक हित जापान, ताईवान, दक्षिण कोरिया व फिलीपिन्स तक फैले हैं। 

चीन की लाल सेना
हिन्द महासागर में चीन व भारत की सैनिक प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ रही है, क्योंकि ये दोनों देशों का प्रमुख व्यापारिक मार्ग है। चीन ग्वादर, श्रीलंका व वर्मा के कोको द्वीप में नौसैनिक अड्डे बनाकर भारत को घेरना चाह रहा है। जबकि भारत द्वारा अंडमान में संयुक्त कमान की स्थापना इस घेरेबंदी को तोड़ने के लिए ही है। ये रक्षा तैयारियां अन्य क्षेत्रों में भी चल रही हैं। भारत अपनी मिसाइलों की क्षमता बढ़ा रहा है 3500 कि.मी. मार करने वाली अग्नि-3 के बाद जल्द ही 5000 कि.मी. तक मार करने वाली ‘‘सूर्या’’ का परीक्षण करने वाला है, जिसकी जद में सभी प्रमुख चीनी शहर आ जायेंगे। 

चीन भी अपनी सेना व भारतीय सीमा से लगे चीनी क्षेत्र में राजमार्गों का नवीनीकरण कर रहा है। वह पाकिस्तान को मिसाइल व परमाणु बम बनाने की तकनीक देकर भारत से उलझना चाहता है। भारत भी शायद वियतनाम लाओस या फिलीपिन्स को मध्यम दूरी की मिसाइलों की तकनीक देकर चीन के खिलाफ खड़ा करना चाहे, पर फिलहाल वह चीन पर ही ध्यान केfन्द्रत किये हुए है और भारतीय रक्षा तैयारियां पहाड़ी युद्धों को ध्यान में रखकर की जा रही है। हाल के वर्षों में भारतीय सेना में माऊंटेन डिविजन लगातार बढ़ रही है। साथ ही दुर्गम क्षेत्रों में उतर कर युद्ध करने में सक्षम एयरबार्न यूनिट भी, जिनके लिए हाल ही में सी-13 हरकुलिस व 130 ग्लोबमास्टर जैसे मालवाही विमान खरीदे गये हैं। 

कारगिल युद्ध में बोफोर्स तोप
भारतीय वायु सेना भी तकनीकी रूप से चीनी वायु सेना से आगे है। चीनी वायु सेना में पुराने विमान ही बड़ी संख्या में है। उनका सुपर-7 विमान भी अमेरिका के एफ-16 की सस्ती नकल है। जो भारत के सुखोई 30-एमकेआई से तकनीकी रूप से बहुत पीछे है। भारतीय वायुसेना में जल्द ही सुखोई 50 तथा यूरोफाईटर शामिल हो जायेगे जो आकाश में भारत को निर्णायक बढ़त दिला देंगे। चीन आर्टलरी में भारत से आगे है पर पहाड़ी युद्धों में इनकी क्षमता सीमित होती है, परन्तु भारत की बोफोर्स व बह्योस जैसी लेजर आधारित शस्त्र प्रणालियां यहां भी कारगर होती हैं, क्योंकि पहाड़ों के पार ढलानों पर छिपे शत्रुओं पर सटीक निशाना लगा सकती हैं, जिसका चीन के पास कोई जवाब नहीं है।

चीन ने यदि 1962 की तरह इस बार फिर आक्रमण किया तो उसे युद्ध के पहले ही दौर में यह पता चल जायेगा कि इस बीच भारत कितना बदल गया है पर यह आर्थिक प्रतिस्पर्धा पूर्णकालिक युद्ध में बदलेगी भी, इसकी संभावना कम है क्योंकि दोनों देशों के पास परमाणु हथियार हैं व एक दूसरे के क्षेत्र में भीतर तक घुसकर मार करने की क्षमता भी, जो विनाश को और भी व्यापक बना देगा। चूंकि दोनों देशों का उद्देश्य आर्थिक विकास है सो अंततः समान क्षमता वाले प्रतिद्वंदी से भिड़कर कोई भी विनाश को निमंत्रित नहीं करेगा पर चीन जैसा धूर्त देश भारत को कमजोर करने के लिए पाकिस्तान का उपयोग करना चाहेगा, जबकि अमेरिका उसे रोकने के लिए भारत को मजबूत करेगा। ये कूटनीतियां अभी लगातार चलती रहेंगी और सीधे संघर्ष से बचते हुए दोनों देश अपने-अपने आर्थिक हितों को साधते रहेंगे। पर 1965 की तरह यदि हमने अपनी सैनिक तैयारियों में ढील दी तो हमें अपने महत्वपूर्ण सामरिक व आर्थिक हितों से हाथ धोना पड़ सकता है। हमें चौथी सदी ई.पू. के चीनी विचारक सुनत्सु की पुस्तक ‘‘आर्ट ऑफ वार’’ के कथन को ध्यान में रखना चाहिए कि ‘‘अपने शत्रु के हर कदम पर नजर रखो और उसकी विशेषताओं को कभी नजरअंदाज मत करो।’’

विवेक राज सिंह
समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 
इस ब्‍लॉग में विवेक राज सिंह जी के पूर्व आलेख - 
अन्तरिक्ष में मानव के पचास साल 
अफगानिस्तान - दिलेर लोगों की खूबसूरत जमीन
काश्मीर- जलते स्वर्ग की कथा
नेपाल एक प्रेम कहानी 

सभी चित्र गूगल सर्च से साभार

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