अमेरिकी विली बाबा की लास्ट विल-मुझे छत्तीसगढ़ में ही दफनाना

विश्रामपुर में दशकों रहकर 1967 में अमेरिका लौटे थे विलियम विटकम, यहीं दफन करने की अंतिम इच्छा, बेटी तथा परिजन लाए अंतिम अवशेष

दैनिक भास्‍कर के लिए रिपोर्टिंग : परिष्‍ठ पत्रकार जॉन राजेश पॉल


रायपुर, विलियम कैथ विटकम (विली बाबा) ...जन्म 1924 (अमेरिका)... बचपन में ही परिवार के साथ रायपुर से 65 किमी दूर विश्रामपुर आ गए। विटकम चार दशक यहां रहने के बाद 1968 में वापस यूएस लौटे, लेकिन भारत जेहन में ही रहा। बीमार हुए तो अंतिम इच्छा जाहिर की कि विश्रामपुर में ही दफ्न किया जाए। परिजनों ने ऐसा ही किया। विली बाबा की अस्थियां और भस्म अब भारत माता की गोद में हैं। छत्तीसगढ़ के विश्रामपुर में विटकम और उनका परिवार लंबे अरसे तक रहा।

इस कस्बे के पुराने लोग अब भी विली बाबा को भूल नहीं पाए हैं। यही वजह थी कि विटकम की अंतिम यात्रा भी यहां ऐतिहासिक हो गई। अमेरिका में जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तो परिजनों ने इच्छा के अनुरूप छत्तीसगढ़ में दफ्न करने की सरकारी प्रक्रिया शुरू कर दी। छत्तीसगढ़ डायसिस ने यहां का जिम्मा संभाला। विटकम की बेटी कैथ, दामाद और डेढ़ दर्जन रिश्तेदार खूबसूरत काफिन में उनकी अस्थियां व भस्म लेकर आए। पहले वे मुंगेली गए, वहां से डॉ. हैनरी के नेतृत्व में विश्रामपुर पहुंचे। छत्तीसगढ़ के कोने-कोने से मसीही समुदाय के लोग विली बाबा को अंतिम सलामी देने के लिए पहुंचे। अंतिम संस्कार की विधि में शामिल पादरी प्रणय टोप्पो के मुताबिक अंतिम संस्कार के समय हजारों आंखें अश्रुपूरित हो गई थीं। गौरतलब है कि विली बाबा की मृत्यु 17 जनवरी 2015 को हुई थी।
मीठी छत्तीसगढ़ी बोलते थे विटकम : विटकम हर किसी की मदद के लिए तत्पर रहते थे। शादी-ब्याह या समारोह में जाते तो सबके साथ पंगत में बैठकर पत्तल में खाना खाते। वे उस जमाने में बेबी शो किया करते थे। जिसमें चाइल्ड केयर का संदेश होता था। उनके साथ काम कर चुके रंजीत फिलिप (75वर्ष ) ने बताया कि विटकम और उनका परिवार हिंदी और छत्तीसगढ़ी बहुत मीठी बोलते थे। आठ साल पहले आए, तब मिलते ही बोले - कइसे, मोला चिन्हथस? फिलिप के अनुसार विटकम ने गांव के कुछ बच्चों को पढ़ने के लिए विदेश भी भेजा। उनकी सोच उत्थान की थी। उनके समय में विश्रामपुर में कई लघु उद्योग चलते थे।
इस कस्बे के पुराने लोग अब भी विली बाबा को भूल नहीं पाए हैं। यही वजह थी कि विटकम की अंतिम यात्रा भी यहां ऐतिहासिक हो गई। अमेरिका में जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तो परिजनों ने इच्छा के अनुरूप छत्तीसगढ़ में दफ्न करने की सरकारी प्रक्रिया शुरू कर दी। छत्तीसगढ़ डायसिस ने यहां का जिम्मा संभाला। विटकम की बेटी कैथ, दामाद और डेढ़ दर्जन रिश्तेदार खूबसूरत काफिन में उनकी अस्थियां व भस्म लेकर आए। पहले वे मुंगेली गए, वहां से डॉ. हैनरी के नेतृत्व में विश्रामपुर पहुंचे। छत्तीसगढ़ के कोने-कोने से मसीही समुदाय के लोग विली बाबा को अंतिम सलामी देने के लिए पहुंचे। अंतिम संस्कार की विधि में शामिल पादरी प्रणय टोप्पो के मुताबिक अंतिम संस्कार के समय हजारों आंखें अश्रुपूरित हो गई थीं। गौरतलब है कि विली बाबा की मृत्यु 17 जनवरी 2015 को हुई थी। 

मीठी छत्तीसगढ़ी बोलते थे विटकम
विटकम हर किसी की मदद के लिए तत्पर रहते थे। शादी-ब्याह या समारोह में जाते तो सबके साथ पंगत में बैठकर पत्तल में खाना खाते। वे उस जमाने में बेबी शो किया करते थे। जिसमें चाइल्ड केयर का संदेश होता था। उनके साथ काम कर चुके रंजीत फिलिप (75वर्ष) ने बताया कि विटकम और उनका परिवार हिंदी और छत्तीसगढ़ी बहुत मीठी बोलते थे। आठ साल पहले आए, तब मिलते ही बोले - कइसे, मोला चिन्हथस? फिलिप के अनुसार विटकम ने गांव के कुछ बच्चों को पढ़ने के लिए विदेश भी भेजा। उनकी सोच उत्थान की थी। उनके समय में विश्रामपुर में कई लघु उद्योग चलते थे।

बेटी का आभार छत्तीसगढ़ी में
विटकम की बेटी ने ठेठ छत्तीसगढ़ी में लोगों का आभार जताया। उन्होंने कहा- सब्बो भाई-बहिनी मन ला जोहार। मोर पिता अमेरिका में 29 नवंबर 1924 को जन्म भले ले रिहिस, लेकिन ओला यहां से जाएके बाद भी वो सांति नहीं मिलिस जो यहां वो पात रिहिस। आप मन ओकर सेवा मा जो सहयोग करे हवव ओकर सेति म ह आप सब्बो झन ला गाडा-गाडा धनबाद देत हवं।

मानव जाति को समर्पित
सेंट इम्मानुएल चर्च की सचिव स्मृता निहाला और दिलीप दास ने विटकम फैमिली के साथ बिताए दिनों को याद किया और बताया कि पूरा परिवार मानव जाति को समर्पित था। शायद इसीलिए विटकम को 2007 में फिर विश्रामपुर आने का मौका मिला। तब उन्होंने उस बंगले का जीर्णोद्वार के बाद लोकापर्ण किया था, जिसमें वे रहा करते थे। विटकम और उनकी पत्नी के साथ नर्स के रूप में सेवाएं देने वाली लिली अमोन वानी (83) के अनुसार वे सुपरमैन की तरह थे।

विनोबा भावे से प्रभावित
विटकम के पिता तिल्दा अस्पताल में डाॅक्टर थे, लेकिन उन्होंने कृषि पर काम किया। गांव के पुराने लोग बताते हैं कि उन्होंने पूरा जीवन लोगों के जीवन स्तर ऊपर उठाने पर बिता दिया। विटकम विनोबा भावे से प्रभावित थे। सेंट इम्मानुएल चर्च विश्रामपुर की जुबली में उनके बुलावे पर भावे आए थे तथा कार्यक्रम को संबोधित भी किया था। उनके स्वदेश लौटने के पहले 1967 में भयंकर अकाल पड़ा, तब उन्होंने किसानों और गरीबों की बड़ी सेवा की थी।

उन्होंने धान बीजा किसानों को मुफ्त में बंटवाया। विदेश से तेल, गेहूं, मक्के का आटा, दूध पाउडर, दलिया, बिंस आदि मंगवाकर बंटवाए। इसके बाद उस जमाने में उन्होंने काम क बदले अनाज योजना शुरू की।

दैनिक भास्‍कर से साभार : दस्‍तावेजीकरण के उद्देश्‍य से

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Mayank verma ,balodabazar

लघु कथा : जूता निकालो



सुबह की दिनचर्या में दादाजी अपने लाडले छोटे पोते को रोज घर के नजदीक स्कूल पैदल छोडने जाया करते। स्कूल से लौटने के बाद दादाजी अखबार पढते, चाय पीते फिर घर में मरम्मत करवाए जा रहे, कमरों, दालानों को घूम-घूमकर मुयायना करते थे।

एक दिन स्कूल जाते समय पोते ने अचानक जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। उसके रोने के घरवाले भी बाहर निकल आये। बच्चो रोते-रोते अपनी पैर की ओर इशारा करके बता रहा था। घरवालों ने सोचा कि पैर में शायद दर्द हो रहा होगा।

तुरंत बच्चे को डॉक्टर के पास ले जाया गया। डॉक्टर ने देख-परखा और दर्द के लिए इंजेक्शन और पेन किलर दवा दिया। फिर भी दर्द कम नहीं हुआ। तब कुछ देर बाद डॉक्टर ने बच्चे के पैर से जूता जब निकाला तो जूते के अंदर एक कंकड पाया गया, जिसके कारण बच्चे की उंगलियों में चुभन हो रही थी। पैर से जूता निकालने के बाद ही दर्द कम हुआ और बच्चे ने रोना बंद किया।

दादाजी अपनी मित्र मंडली के संग शाम को अपने घर में पोते के बारे में चर्चा करने के बाद टी.व्ही. पर एक आतंकवादी घटना से संबंधित समाचार देख रहे थे। समाचार के अंत में दादाजी बोल पडे कि- ' आतंकवाद भी इसी तरह इस देश के जूते में एक कंकड की तरह घुसा हुआ है।' एक मित्र ने प्रत्युत्तर में कहा कि जब तक कंकड नहीं निकलेगा चुभन होती ही रहेगी। दूसरे मित्र ने सहज भाव से कहा कि जूता तो निकालो।

राम पटवा
एन-3, साकेत, बसंत पार्क कॉलोनी
महावीर नगर, न्यू पुरैना, रायपुर-6




छत्‍तीसगढ़ी शब्दकोशों की दशा

सामान्यत: कोश किसी न किसी रूप में भण्डार, ढेर या खजाने को सूचित करने वाला शब्द है। संस्कृत हिन्दी शब्दकोश में 'शब्दकोश' को शब्दार्थ संग्रह कहा गया है, तो अशोक मानक हिन्दी-हिन्दी शब्दकोशकार ने अंग्रेजी के 'डिक्शनरी' के पर्याय के रूप में परिभाषित करते हुए लिखा है कि 'वह ग्रंथ जिसमें किसी विशेष क्रम से शब्द और उनके अलग-अलग अर्थ का पर्याय हो।' कुछ इसी तरह की मिलती-जुलती बात भार्गव आदर्श हिन्दी शब्दकोश में भी कही गई है। देखिए- अकारादि क्रम में लिखी हुई पुस्तक जिसमें शब्दों के अर्थ दिए हों। बोली के शब्दकोश के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए रामहृदय तिवारी कहते हैं कि 'लगभग तीन हजार भाषाओं वाले इस सभ्य संसार में अनगिनत बोलियां हैं। इन बोलियों के अलग-अलग रंग हैं पर गंध सबकी एक है- माटी की गंध। माटी चाहे किसी भी देश या अंचल की हो, उनकी आत्मा में एक ही तडप होती है-फूल बन कर खिलने की, हरियाली बनकर लहलहाने की। सारी सीमाओं के पार माटी की यह मासूम तडप, बोलियों की शक्ति है और माधुर्य भी, जिन्हें अर्थ के आयाम देते हैं शब्द| शब्द ज्ञान जगत की अद्भुत उपलब्धि है। ऐसी प्राणवान परम्परा जो अज्ञान अंतरिक्ष के द्वार खोलती है। सनातन मूल्यों को वहन करती हैं इस प्रणम्य परम्परा का-संरक्षण और संवर्धन के गंभीर दायित्व है, जिसकी निपुणता से निर्वहन करता है- शब्दकोश।
सुविख्यात भाषाविद श्रद्धेय डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा के शब्दों में कहें तो- अच्छे कोश किसी भाषा के लिए पौष्टिक भोजन के समान है।
छत्तीसगढी भाषा के लिए उपलब्ध शब्दकोशों में पौष्टिकता पर्याप्त मात्रा में नहीं है। इसलिए इस भाषा में कुपोषण का खतरा उत्पन्न हो गया है। छत्‍तीसगढ़ राज्य बनने के पहले छत्तीसगढ़़ी भाषा का अध्ययन एवं वर्गीकरण भाषा शास्त्रीय आधार पर किया जाता रहा है। लेकिन कोश के निर्माण में तेजी राज्य गठन के बाद आई । तेजी इतनी कि लगभग होड्-सी मच गई । किसी को प्रथम आने की तो किसी को शब्द भण्डार बढाने की। इस आपाधापी का परिणाम यह हुआ कि छत्तीसगढी भाषा के अनेक शब्द कहीं-कहीं अपने स्वाभाविक अर्थ को ही खो बैठे। मसलन-कमचिल, मुहलेडी, मुरहा, उपला, खुरहोरी या खुरेरी इत्यादि। यह सच है कि जैसा कि पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलपति कौशल प्रसाद चौबे छत्तीसगढी-शब्दकोश के आमुख में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि 'शब्दकोशों के प्रकाशन के बिना किसी भाषा या बोली का व्यापक विकास संभव नहीं है; बल्कि उसके मानक रूप के निर्धारण में उनका व्याकरणों के समान ही महत्वपूर्ण योगदान रहता है। अंग्रेजी में बीसियों छोटे-बडे शब्दकोशों को देखकर उसकी सम्पन्नता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।' लेकिन यह भी सच है कि मात्रा के साथ-साथ उसके गुणवत्ता को भी बनाए रखना आवश्यक है। उपलब्ध कोशों को देखने के बाद हमें लगा कि उनमें अर्थ की प्रमाणिकता की दृष्टि से सुधार की काफी गुंजाइश है, याने गुणवत्ता की कमी।

अब हम चर्चा करना चाहेंगे उपलब्ध कोशों में दिए गए अर्थों की। हमें यह देखकर दुखद आश्चर्य हुआ कि छत्तीसगढ़़ी के शब्द प्रचलन में होने के बाद भी छत्तीसगढ़़ी शब्दकोशों में हिन्दी या संस्कृत के शब्द अनावश्यक क्यों हुए हैं? यह बात छत्तीसगढ़़ी भाषा के लिए चिन्तनीय हैं। देखिए- कालाजाम-छत्तीसगढ़़ी हिन्दी शब्दकोश-सम्पादक- डॉ.पालेश्वर शर्मा पृष्ठ 54 - इसे काला बडा व मीठा जामुन कहा गया है। छत्तीसगढ़़ी में इसके लिए रायजाम शब्द प्रचलन में है। इस लिए कालाजाम शब्द गढने की आवश्यकता हमें समझ में नहीं आई । मजेदार बात तो यह है कि इस शब्द का प्रयोग किसी छत्तीसगढि़या को करते नहीं पाएंगे उपला की भी यही स्थिति है। छत्तीसगढ़़ी शब्दकोशों में इसे सूखा गोबर बताया गया है। उपला मूलत: संस्कृत का शब्द है सूखा गोबर को छत्तीसगढ़़ी में खर्सी कहते हैं। जो प्राय: खेतों में पड्डा मिल जाता है, जिसे गांव में बच्चे और विशेष कर महिलाएं बिनकर (चुनकर) लाती हैं। वाक्य देखिए- 'चल खर्सी बिने बर जाबो।' उपला के जब छोटे-छोटे टुकडे कर दिए जाते हैं या हो जाता है, तब उसे भी खर्सी कहा जाता है। उदाहरण- 'बइला हा छेना ल रडंद के खर्सी बना दिहिस। वास्तव में छत्तीसगढ़़ी में उपला को छेना कहा जाता है; जिसे गोबर में धान का भूसा, पैरा या पेरोसी ( धान मिंजाई/मिसाई के कारण पैरा के छोटे- छोटे तुकडे) को मिलाकर थाप (पाथ) कर बनाया जाता है। हिन्दी में इसे कण्डा कहा जाता है, और छत्तीसगढ़़ी भाषा के वृहद कोश का दंभ भरने वाले छत्तीसगढ़़ी शब्दकोश-लेखक- चन्द्रकुमार चन्द्राकर, ने भी उपला को सूखा गोबर बताया है, वस्तुत: उपला का प्रयोग आम छत्तीसगढ़़ी में नहीं होता। इस कोश में वृहद के फेर में अनगढ, हास्यास्पद, बेतुके छत्तीसगढ़़ी संस्कृति के विपरीत स्वनिर्मित शब्द हुए बहुतायत में मिल जाएंगे। यथा- अंखियउनी-आंख से संकेत करने या आंख मारने का पारिश्रमिक भोजनोपरान्त हाथ-मुंह धुलाने का पारिश्रमिक। भोजनोपरान्त हाथ-मुंह धुलाना। छत्तीसगढ़़ में पवित्र कार्य याने मेहमाननवाजी का एक शिष्ट परम्परा माना जाता है। मात्र इस कार्य के लिए

पारिश्रमिक अर्थ को कोई भी छत्तीसगढिया स्वीकारने को तैयार नहीं होगा। इसी तरह से अंचवाल भोजनोपरान्त हाथ-मुंह धुलाया हुआ। वास्तव में शब्द तभी शब्द है जब उनमें पद बनने की क्षमता हो या वाक्य के तौर पर उनका प्रचलन हो। अंचवाल शब्द का प्रयोग अब तक मुझे कहीं भी देखने या सुनने को नहीं मिला। इस कोश में ऐसे शब्दों की लम्बी सूची है। अत: हम केवल और एक-दो उदाहरण देकर काम चलाना चाहेंगे। देखिए-उलरडनी, उलराल-असंतुलन, कंझाल- अधिक विलाप कराने या अधिक परेशान करने का खर्च या पारिश्रमिक | चखङनी, चखवङडनी, चखौनी, चखाल-अनुभूति करने या कराने का खर्च या पारितोषिक। चखने का काम पकती सब्जी में नमक का अंदाजा लगाने के लिए किया जाता है। उदाहरण-साग ल चिख के देख ले निमक हा बरोबर (ठीक) हावे के नहीं । कबियउनी, कबियाल-दोनों बांहें फैला कर पकडने का खर्च या पारिश्रमिक इत्यादि। निश्चित ही इस प्रकार की प्रवृत्ति से भाषा की पौष्टिकता में कमी आती ही है और वह यदि बोली हो तब उसकी गंध और तड्प का प्रभावित होना स्वाभाविक है। जैसा कि रामहृदय तिवारी ने शब्दकोश के निर्माण को गंभीर दायित्व कहा है । मुझे लगता है कि इस दायित्व को बडी गंभीरता के साथ ही निभाया जाना चाहिए था; पर ऐसा नहीं हो सका। छत्तीसगढी के प्रारंभिक कोश विशेष रूप से 'छत्तीसगढ ज्ञानकोष ' लेखक जाने-माने रचनाकार हैं-हीरालाल शुक्ल। प्रकाशक-मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी में दिए शब्दार्थ को देखकर एक छत्तीसगढिया का मन निश्चित ही विद्रूपता से भर जाएगा। इसी विद्रूपता ने हमें लिखने को बाध्य किया। इस कोश से सम्पादक श्री शुक्ल के अनुसार रेवरेण्ड ई.डब्लू मेंजेल, बिसरामपुर 1939 है। यदि हमें संशोधन नहीं किया गया है तो अर्थदोष को स्वाभाविक ही कहा जा सकता है। क्योंकि छत्तीसगढी के जानकार से ऐसी गलती की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसी अद्भुत स्थिति चाहे और कहीं देखने-सुनने को मिले या न मिले पर छत्तीसगढी में अवश्य देखने को मिल जाएगा कि लोग शब्दकोश पढने के बाद कहते हैं-घिरिया ला या/जामुन ला छत्तीसगढी में का कथे जानथस ? नहीं ? घररख्वा/ कालाजाम। दरअसल छत्तीसगढी शब्दकोशों में घररख्वा का अर्थ छिपकली दिया गया है। वास्तव में छत्तीसगढी में इसके लिए ज्यादा प्रचलित शब्द 'घिरिया' है। घिरिया के दो प्रकार होते हैं, एक-भूरी खुरदुरी और दूसरा-चिकनी तैलीय। चिकनी तैलीय को यहां चिकनी घिरिया कहते हैं। चन्द्रकुमार चन्द्राकर को छोड अन्य कोशों में छिपकली को छिपकली ही बताया गया है। चन्द्राकर ने घररख्वा शब्द का प्रयोग किया है; पर यह नहीं बताया कि घररख्खा भूरी खुरदुरी छिपकली है या चिकनी तैलीय । इतना सच है कि छत्तीसगढ के कुछ भागों में इस शब्द का प्रयोग कभी-कभार ही होता है । घररख्वा शब्द का प्रयोग कभी-कभार क्यों होता है ? इसका उत्तर भाषा विज्ञान में सहजता से मिल जाएगा। वास्तव में भाषा सहजता को स्वीकार करती है और क्लिष्टता से अपना पल्ला झाडने लगती है। घिरिया शब्द घररख्वा की अपेक्षा ज्यादा सरल, सहज एवं बोलने में सुविधाजनक है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से कहें तो इसमें मुखसुख का गुण है। यही गुण शब्दों को बहुप्रयोगी ही नहीं बनाता; अपितु उसे जीवित रखने में भी सहायता करता है। अतएव होना यह चाहिए था कि-छिपकली का अर्थ घररख्वा के साथ घिरिया भी बता देते या लिख देते तो अर्थ में भी सहजता का गुण आ जाता। कालाजाम के संबंध में चर्चा हो चुकी है इसलिए उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

वैसे शब्दों के अर्थों को समझाने और समझने की क्रिया आसान नहीं है। जब तक कि शब्दों के इर्द-गिर्द के शब्दरूपों या भावभंगिमाओं, क्षेत्रविशेष की परम्परा और प्रचलन से पूरी तरह से परिचय प्राप्त नहीं कर लेते तब तक उनके सही-सही पर्यायवाची शब्द दे देना जल्दबाजी होगा। मसलन कमचिल को ही लें। वास्तव में बांस का टुकडा यदि लगभग सीधा और थोडा कम से कम 1 फीट लम्बा हो तो उसे डंडा कहते हैं।यही अर्थ हिन्दी कोशों में भी है, और यदि डंडा 3 से 6 फीट के आस-पास है तब उसे लाठी- छत्तीसगढी में लडठी और मोटा हुआ तो ठेंगा कहते हैं। अशोक मानक हिन्दी कोश में लाठी को बडा डंडा कहा गया है। अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है, जैसा कि मुझसे भी पूछा गया था कि आप ही बताइए कमचिल को क्या कहेंगे? दर-असल कमचिल, कमचिल है । जैसा कि प्राय: शब्दों के पर्यायवाची नहीं होते ठीक वैसे ही छत्तीसगढ़़ी में भी कमचिल के पर्यायवाची नहीं है। लेकिन इसका आशय यह भी नहीं है कि इसे समझाया नहीं जा सकता। वास्तव में शब्दकोश में शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए उसके निकटतम के ऐसे शब्द को प्रस्तुत किया जाता है, जो लगभग उसका पर्याय हो। इसे समझने के लिए छत्तीसगढ़़ी के तुमा एक अच्छा उदाहरण हो सकता है। छत्तीसगढ़़ी शब्दकोशों में तुमा को लौकी कहा गया है।

सामान्यत: सब्जी के रूप में पकाकर खाया जाने वाला फल लौकी छत्तीसगढ में विभिन्न आकार-प्रकार में पाई जाती है- 1. नीचे मोटा ऊपर पतला 2. छोटे कद्दू के आकार की गोल 3. लम्बा पतला मुगदर के आकार का 4. लम्बा पतला 5. लंबा गला बीच फूला हुआ और अंतिम सिरा पतला-सूखने पर इसका बीन बनाया जाता है।
प्रथम प्रकार के आकार वाली, मगर उससे छोटी जो प्राय: कडुवी होती है उसे तुम्बी कहते हैं।यह तुमा का छठा प्रकार है।इसका उपयोग सूखने पर बीज को निकाल कर तथा ऊपरी भाग में छेद कर उसे पीने के लिए पानी भरने के काम में लाया जाता है। अति प्राचीनकाल से आज तक सुदूर गांवों में इसका प्रयोग वाटर बैग के रूप में ही किया जाता रहा है।
प्राचीन भारतीय कथाओं में इसका यही प्रयोग मिलता है। श्रवण को राजा दशरथ द्वारा शब्द-भेदी बाण मारने की कथा का संबंध इसी से जुडा हुआ है। द्वितीय आकार वाले फल को सूखने पर छत्तीसगढी के गायन पंडवानी का प्रसिद्ध वाद्य- यंत्र तमूरा (इकतारा) बनाया जाता है। यद्यपि छत्तीसगढी में लौकी शब्द का प्रचलन लम्बा पतला आकार वाले फल के आगमन के साथ हुआ, जो उक्त प्रकार वाले फल (तुमा) से बहुत बाद का है। लेकिन इसने शब्द स्तर पर अन्य आकार- प्रकार के फलों को यहां से लगभग निगल चुका है। इसलिए तुमा के लिए लौकी अर्थ एकदम उपयुक्त है।

जब तक कि मैं कमचिल शब्द के इर्द-गिर्द के शब्दरूपों का भाव-रूपों से पूरी तरह से परिचय प्राप्त नहीं किया था, तब पूछने वालों को कह दिया करता था- बांस या बांस का वह टुकडा जो दो या दो से अधिक भागों में विभक्त हो कमचिल कहलाता है, पर जब अध्ययन के दौरान विविध लोगों से संपर्क करते रहा, तब मुझे ज्ञात हुआ कि-खडे बांस या बिना टुकडा किए बांस को फाड कर अलग किया जाता है, उसे कलमी कहते हैं। जिसे प्राय: कच्चे घरों के सज्जा; जिस पर खपरा ( खपरैल) छाया जाता है, के लिए प्रयोग में लाया जाता है और जब उसका टुकडा कर दिया जाता है या हो जाता है, तो उसे कमचिल कहते हैं। कहीं-कहीं कलमी के लिए भी कमचिल शब्द का प्रयोग किया जाता है । छत्तीसगढ ज्ञानकोश पृष्ठ क्रमांक 360 में कमचिल के स्थान पर कलमी शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ बांस का हिस्सा बताया गया है। निष्कर्ष के तौर पर कहें तो कलमी हर हालत में कमचिल से लम्बा होता है, जबकि कमचिल खडे बांस सा बांस के टुकडे से निर्मित हो सकता है ? इसलिए कमचिल को कलमी का टुकडा कहना बेहतर होगा। बांस के कितने भी टुकडे कर दिए जाएं उसका आकार गोल ही रहेगा और वह जब तक गोल रहेगा कलमी या कमचिल नहीं कहलाता । चाहें तो उसे डंडा या लडठी कह सकते हैं।

शब्दों के सटीक पर्यायवाची शब्द तलाशना तब और कठिन हो जाता है जब एक ही शब्द के अलग-अलग कोशों में भिन्न- भिन्न पर्यायवाची दिए गए हों । हमें भी ऐसे अनेक शब्दों से गुजरना पड्म । हमें लगता है कि यहां पर एक-दो शब्दों के उदाहरण देने मात्र से हमारा अभीष्ट सिद्ध हो जायेगा। सो- 1.आंतर- 1.-दही का थक्का। छत्तीसगढी शब्दकोश-चन्द्रकुमार चन्द्राकर (पृष्ठ 40) 2.-जुताई से छूट गई भूमि छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश-डॉ.पालेश्वर शर्मा (पृष्ठ 19) 2. खोर- 1.- मकान के सामने की जगह, प्रवेश द्वार- छत्तीसगढी शब्दकोश (पृष्ठ 131) 2. दरवाजे के आगे की जगह घर के पास का रास्ता, या गली, पौर छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश (पृष्ठ 79) छत्तीसगढी में खोर गली को कहते हैं। यहां टोटका के रूप में व्यक्तियों के नाम खोरबाहरा, खोरबाहरिन रखा जाता है। कामचोर गली में घूमने वाले पुत्रों को मां-पिता या बडे बुजुर्ग अक्सर डांटते हुए कहते हैं-बस । खोरे-खोर घूम, कोई काम-धाम नई हे ? हिन्दी में इसके लिए गली शब्द का प्रयोग किया जाता है । वाक्य होगा गली-गली घूम; कोई काम-धाम नहीं है ?
ऐसे शब्द भी कम परेशानी पैदा नहीं करते जिनका प्रयोग एक कोश में तो होता है पर दूसरा उसे छोड देता है, मुंहलेडी, खर्सी ऐसे ही शब्द हैं। मुंहलेडी छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश में है, जहां उसका अर्थ चूहे की लेडी, मुसलेड्डी बताया गया है । मुस का अर्थ चूहा तो समझ में आता है, पर चूहा के लिए मुंह का प्रयोग समझ से परे हैं । वास्तव में मुंहलेडी यहां अजगर की प्रजाति का एक सुस्त सांप को कहते हैं। 

समय के साथ-साथ प्राय: परम्परा एवं रीति-रिवाजों में भी बदलाव आता रहता है। कुछ परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों, पहनाओं आदि के साथ-साथ पारम्परिक पकवान तक में भी बदलाव आ जाता है। इनमें प्राय: कुछ नई जुड जाती है और कुछ लुप्त हो जाती है । लुप्त होती परम्पराएं, रीति-रिवाजों और पकवानों को कुछ वर्षों के बाद उनके ठीक- ठीक पहचान करने में कठिनाई उत्पन्न होने लगती है । ददा-दाई, आजा-आजी, ठेठरी-खुरमी, तस्मई ऐसे ही शब्द हैं। कोश ऐसे शब्दों की पहचान कराने में सहायक होता है। लेकिन  कल्पना कीजिए कि कोश ही गलत अर्थों से युक्त हो तब क्या होगा? हमें लगता है कि यहां पर संक्षिप्त उदाहरण ही पर्याप्त होगा। आजा-आजी, ददा-दाई जैसे अनेक शब्द नए आगत शब्दों के कारण अपना अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ऐसे में शब्दकोश में दिए गलत अर्थ बाद में परेशानी का कारण बनेगा-देखिए आजा-दादा, बाबा।
आजी-दादी। छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश पालेश्वर शर्मा (पृष्ठ 20) ।
छत्तीसगढ का निवासी अच्छी तरह से जानता है कि आजा का पर्याय-नाना और आजी का पर्याय-नानी है, दादा या दादी नहीं। तसमई जिसका जिक्र आगे किया गया है, इसे हमारे कथन के प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है।

यदि भाषा भावों की संवाहिका है तो शब्द अर्थों का वाहक और कोश उसका आईना । यदि आईना ही दाग-धब्बों से भरा हो, तब भाषा का साफ एवं स्पष्ट चेहरा नहीं देखा जा सकता तथा अस्पष्टता के कारण समाज को कितना नुकसान होगा या समाज में कैसी विकृति फैल सकती है, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। शब्दकोशों में कमचिल के गलत बयानी का ही परिणाम है कि आज छत्तीसगढ का नवयुवक सिद्धान्त याने किताबी या प्रतियोगिता पास करने के लिए कमचिल को बांस का टुकडा लिखता है और आम जीवन में कलमी के टुकडे का प्रयोग करता है। मैंने बांस के टुकडे और कलमी के टुकडे का अलग-अलग ढेरी बनाया और लोगों से कमचिल लाने को कहा हर बार सब ने कलमी के टुकडे को ही लाया। पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर के एमए हिन्दी की वार्षिक परीक्षा में इसका पर्याय लिखने को कहा गया था। जिन परीक्षार्थियों ने इसका उत्तर
लिखा था उनमें से सभी ने बांस का टुकडा लिखा था। विश्वविद्यालय के पाठ्य-पुस्तक में भी यही छपा है। दूसरों को छोडिए जो प्राध्यापक छत्तीसगढ का रहवासी है वह कमचिल के लिए कलमी का तो प्रयोग करता है, लेकिन पढाने और मूल्यांकन करने में बांस के टुकडे का। भाषा के साथ ऐसी विडंबना और कहीं देखने को मिले न मिले छत्तीसगढी में प्राय: देखने को मिल जाएगा इसका एक बडा कारण जो हमें लगता है वह है प्रमाणित शब्दकोश का अभाव या पाठ्यपुस्तक तैयार करने वालों में छत्तीसगढी शब्दों के साथ रचे-बसे होने का अभाव। निश्चित ही यह छत्तीसगढी के जानकारों के लिए अत्यधिक सोचनीय और चिन्तनीय है। छत्तीसगढ के विश्वविद्यालयों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

खैर... दूसरा उदाहरण भी दिलचस्प ही नहीं, व्यापक छान-बीन और चर्चा का मोहताज है। वह है तसमई-जिसे खीर कहा गया है। चर्चा के दौरान एक महिला ने मुझे बताया कि शिक्षाकर्मी की पिछली परीक्षा में यह प्रश्न पूछा गया था। सही उत्तर किसे दिया गया होगा ? इसका और बाद में उसके परिणाम का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है । हमने इसका सही अर्थ जानने के लिए कई दिनों तक कई भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों से संपर्क किया। हिन्दी से लेकर छत्तीसगढी सभी शब्दकोशों में इसे खीर कहा गया है । छत्तीसगढ के लुप्त प्राय: व्यंजन होने के कारण से आज कुछ लोगों में भ्रम की स्थित बनी हुई है। जब मैं लोगों से जानना चाहा कि यह व्यंजन दूध से बनाई जाती है या मही (मट्ठा) से ? तब एक मत कभी भी नहीं बन सका। साधारण लोगों को छोडिए दिवाली मिलन के अवसर पर महाजन बाडी राजनांदगांव में उपस्थित साहित्यकारों और चिन्तकों के सामने भी जब तसमई का अर्थ जानना चाहा तब उनमें एक मत बनाने में काफी जद्दोजहरद करनी पडी, पर स्वीकारोक्ति में भी संशय और हिचकिचाहट बरकरार रही । मरकाटोला जिला राजनांदगांव के एक संभ्रान्त बुजुर्ग प्यारेलाल सिन्हा ने इसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए बताया कि मही घर में रहता तब पिताजी मां से कहते थे- ' महीं राखे हे घर में तमसई बना ले। तसमई चाहे दूध से बने या मट्ठा से उसे बगैर सब्जी के भी खाया जाता है। आशय हुआ खीर दूध से बनाई जाती है जो मीठा होता है तो तसमई मही से जिसमें नमक डला होता है। वैसे छत्तीसगढ में मही से खीर की तरह शक्कर नहीं नमक डाल कर जो व्यंजन बनाया जाता है उसको महेरी कहते हैं । चन्द्रकुमार चन्द्राकर के कोश को छोड कर हिन्दी से लेकर छत्तीसगढी के कोशकारों ने महेरी का आशय या तो छोड दिया है या पत्नी बताया है। जबकि चन्द्राकर ने इसे खट्टी खीर कहा है, जो कि समीचीन है। हिन्दी कोशों में मुझे खट्ठी खीर का कहीं उल्लेख नहीं मिला। जबकि खट्टी खीर तब भी बनता रहा होगा ? कुछ लोगों ने खट्टी खीर के समर्थन में यहां तक कहा कि-तसमई, तसमइही का ही बिगडा रूप है। व्यापक चर्चा न हो पाने तथा पूर्ण निष्कर्ष प्राप्त नहीं कर सकने के कारण हम यहां पर पुराने अर्थ को ही स्वीकार कर रहे हैं। जैसे विशेष रूप से क्रिकेट में संदेह का लाभ प्राय: बल्लेबाज को मिल जाता है, कुछ उसी तरह से हमने भी संदेह का लाभ पुराने अर्थ को दे दिया है- (इसके लिए पाठक हमें क्षमा करें)। छत्तीसगढी के कोशकारों ने यदि व्यापक चर्चा कर कोश को तैयार किए होते तो शायद अर्थ को लेकर इतना विरोधाभास नहीं होता।
प्राय: शब्दों में कई-कई अर्थ चिपके होते हैं। व्याकरण में इसे अनेकार्थी शब्द कहा जाता है। छत्तीसगढी के कोशों में ऐसे अनेक शब्द देखने को मिल जायेंगे । जिनके अन्य अर्थ सामान्य बोलचाल में व्यवहृत है; पर उन्हें शब्दकोशों में स्थान नहीं मिल सका है । हम यहां एक-दो उदाहरण देकर ही अपनी बात की पुष्टि करना चाहेंगे। यथा- 1. चिला- चावल आटे से बनाई जाने वाली दोसा जैसे एक पतली रोटी । जल में उत्पन्न होने वाली एक घास । 2. चिकट- विवाह की एक रस्म । 3. चिटहा, चिटहिन- उम्र के आधार पर शारीरिक रूप से छोटा। 4. चिटकी-चुटकी 5. पखार-माड्युक्त भात, ऊंची भूमि, खेत का ऊंचा भाग।

उपर्युक्त उदाहरणों में चिला के साथ अलसी की मिसाई के बाद का कुचला डंठल, चिकट के साथ मिट्टी का एक प्रकार, लारदार या फिसलने वाली वस्तुएं जैसे कोचई आदि। चिटहा चिटहिन के साथ गंदा, चीटयुक्त ग्रीस या बैलगाडी का काला तेल लगा शरीर या कपड्र। इसी तरह से चिटकी के साथ थोडी-सी । उदाहरण-मनटोरा चिटकी तेल दे तो, हमर घर में तेल का खतम हो गेहे । लाहूं त दे देहूं । पखार के साथ- पार, तरफ मेंड का किनारा । उदाहरण- तेंहा ए पखार ला देख में हा ओ पखार ल देखत हों ( पखारे पखार जाबे) । क्रिया- धोना, उदाहरण-भांचा ह आय हे ओकर पांव पखार ले पुन्न मिलही (पांव पखारना) जैसे अर्थों को भी लिखा जाना चाहिए था।
शब्दों के अर्थ को परखने या समझाने का एक अच्छा तरीका वाक्य प्रयोग, कविता, कहानी या मुहावरा आदि भी हो सकता है। जैसाकि अनेक प्रतिष्ठित कोशकार करते आ रहे हैं। आक्सफोर्ड उनमें से एक है। छत्तीसगढी शब्दकोश में भी इसका अधिक से अधिक प्रयोग होना चाहिए था। छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश, तथा छत्तीसगढी शब्दकोश में कुछेक प्रयोग हुआ है, पर पर्याप्त नहीं है। हम यहां पर एक ही उदाहरण देकर बताना चाहेंगे कि कैसे शब्दकोश में दिए गलत अर्थ को सही अर्थ में प्रस्तुत किया जा सकता है । अर्थ की वास्तविकता को प्रकट करने के लिए हम यहां पर लोकगीत की पंक्तियों को प्रस्तुत करना चाहेंगे। चन्द्रकुमार चन्द्राकर के छत्तीसगढी शब्दकोश के पृष्ठ 418 में बेर ढरकना को दोपहर होना तथा बेर ढरकाना को दोपहर करना कहा गया है; जबकि छत्तीसगढी लोकगीत की पंक्ति- बेरा ढरकगे नांगर ढिलागे, होगे बियारी के बेरा हो संगी होगे बियारी के बेरा । परबुधिया सजन नहीं आइस जाने कोन जनम क फेरा जाने कोन जनम के फेरा । से साफ जाहिर हो रहा है कि बेर ढरकना को दोपहर होना तथा बेर ढरकाना दोपहर करना या कराना नहीं कहा गया है । वास्तव में बियारी का अर्थ रात्रि का भोजन होता है। प्राप्त सभी कोशों में यही अर्थ दिया भी गया है । गांव में बेरा को दो भागों में बांटा गया है, जैसा कि हिन्दी में भी होता है- पूर्वान्ह और अपरान्ह याने बेरा और उतरती या ढरकती बेरा । अर्थात लोक गीत के उपर्युक्त पंक्ति के आधार पर भी बेर ढरकना या बेरा ढरकाना का अर्थ आसानी से-समय बिताना या सांझ होना या कर देना, लगाया जा सकता है।

छत्तीसगढी के भी अनेक उप बोलियां हैं इसिलए एक ही वस्तु को अनेक नामों, अनेक रूपों में बोला जाता है । जैसे- टमाटर को सरगुजा में विलायती, बिलासपुर में पताल और राजनांदगांव में बंगाला कहा जाता है। टमाटर के संबंध में चर्चा करते हुए ललन कुमार प्रसाद ने नवनीत पत्रिका 1992 सेहत का खजाना टमाटर में इसके जन्म स्थान के संबंध में अपना अभिमत देते हुए लिखा है- चूंकि टमाटर का जन्म- स्थान दक्षिण अमेरिका है और आकृति में यह कुछ-कुछ गोल आकार वाले बैंगन से मिलता-जुलता है। इसलिए गांवों में किसान भाई इसे विलायती बैंगन के नाम से भी पुकारते हैं। इसी तरह से बिस्तर को कहीं दसना, डसना या रास्ता को रद्दा, रस्ता, रेंगना या रेंगान। ये तरफ, और तरफ को बिलासपुर में एलंग, ओलंग । रायपुर में येती, ओती या ये कोती, ओ कोती आदि कहते हैं। ऐसे शब्दों के कारण शब्द-संख्या तो बढती है, पर समस्या फिर भी अनुत्तरित रह जाती है कि किन उप बोलियों को प्रमुखता दी जाए ? इसे हल करना नामुमकिन न सही टेडी खीर अवश्य है। अभी तक छत्तीसगढी भाषा के जितने भी शब्दकोश निर्मित हुए हैं सभी में प्राय: रायपुर और बिलासपुर को केन्द्र में रखा गया है। अन्य क्षेत्र प्राय: या तो नजरअंदाज कर दिए गए हैं या फिर उनका एक अलग कोश ही बना दिया गया है। मसलन-गोंडी-हिन्दी शब्दकोश (त्रिलोचन पाण्डेय) |

हर जीवित भाषा परिवर्तनशील होता है । भाषा के बदलते स्वरूप को देख कर ही शायद कबीर दास को कहना पड्मा- भाखा बहता नीर। यदि अपने ही आलेख से शब्द उधार लूं तो कहना होगा- 'इस नीर में विविध भाषाओं के शब्द बह- बह शामिल होते रहते हैं।' हिन्दी भाषा के संदर्भ में हरिशंकर परसाई जी का भी यही मानते रहे हैं कि जो शब्द अंग्रेजी के आ गए हैं, आते जा रहे हैं, उन्हें हिन्दी बना लेना चाहिए। उन्हें अपनी व्याकरण में ढाल लो, लिंग वचन दे दो। लोग बोलते ही हैं ट्रेनें लेट आ रही हैं। अपढ आदमी भी बोलते हैं। वाइफ का अबार्सन हो गया। इन्हें कौन रोक सकता है।
इस बात को सभी भाषा विज्ञानी एक मत से स्वीकार करते हैं कि भाषा तभी तक जीवित रहती है जब तक उसमें बहाव अर्थात अपने आप को समय के अनुरूप बदलते रहने की क्षमता होती है ठीक बडी नदियों की तरह-जब तक भाषा रूपी नदी दूसरों से शब्द रूपी जल को आपने में समेट कर अपना आकार बढाता रहेगा तब तब उसकी पहचान बनी रहेगी। छत्तीसगढी को इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता है। विशेष रूप से वैज्ञानिक संसाधनों के विकास के जहां कई नए शब्द भाषा में जुड जाते हैं वहीं परम्परा के कुछ शब्द लुप्त भी हो जाते हैं। छत्तीसगढी के कनोजी, कुडेरा, ( कुंडेरा) केजा, कोरी, खड्पडी खासर, गोना, घिरनी, चपडा या चापड, धारन, पखरिया, बसनी, मेंडवार, मेंढिया, रास आदि लुप्तप्राय शब्द हैं तो गैस-गैस चुल्हा, कूकर, कूलर, पाना, पेंचिस, रेजा-कूली, मशीन ट्रेक्टर, मास्टर, डॉक्टर, ठेसन, गांठ या गांठ बाबू, गिराहक या गिराहेकी इत्यादि अनेकानेक शब्दों का प्रवेश छत्तीसगढी में अंग्रेजी से हो गया है। छत्तीसगढी में भी हिन्दी के आगत शब्दों की तरह कुछ को ज्यों के त्यों स्वीकार कर लिए गए हैं तो कुछ को अपना रंग दे दिया गया है, जैसे-गार्ड बाबू का गांठ बाबू (ट्रेन कंडक्टर) । इंस्पेक्टर का निस्पेक्टर, डॉक्टर का दाग्दर, ग्राहक का गिराहक या गिराहिक इत्यादि।

दुर्ग जिला के गुरुर के पास के गांव ढोकला के मोतिन बाई ने मुझे लुप्तप्राय एक वस्तु बसनी दी है। बसनी रुपए- पैसे रखने का धागे से बुना जालीदार समानान्तर लम्बी आकार वाली एक प्रकार की थैली है, जिसे विशेष रूप से महिलाएं कमर में बांधती हैं । दिया गया बसनी जो काफी गंदा हो चुका था, मैंने उसे साफ कर अपने पास रख लिया है।
जब छत्तीसगढ सरकार ने कोश का निर्माण कराया तब ऐसे आशा जगी थी कि यहां के विद्यार्थी और बुद्धिजीवियों को एक प्रमाणित कोश मिल जायेगा तथा अर्थ संबंधी विसंगतियों से निजात मिल जायेगी क्यों कि इसे बनाने के लिए न केवल बडी धनराशि खर्च की जा रही थी बल्कि छत्तीसगढी के जानकारों का एक बडा समूह इसे बनने में काम कर रहा था। लेकिन जब कोश छपकर आया तब आशा निराशा में बदल गई । मेरे निराश होने के कारणों की एक बानगी मेरे छत्तीसगढी आलेख- ' अरथ ल मत लोकाक्षर जनवरी-मार्च 2010 के अंक 56 में भी देखा जा सकता है। देखिए, उसी आलेक से सीथा-भात। कोस में वाक्य लिखे हे- तोर होंठ मा सीथा चटके हे, धो ले। वइसे भी चटके हे उपयुक्त नई लागे । काबर चटके हे केहे मे बलपूरवक चिपके के जादा करीब अरथ हे अइसन लागथे। होना चाही लटके हे । जे हा लटके रथे ओ हा अपने आप छुए भर ले गिर जथे, अउ चटके ल निकाले बर थोडुकुन बल लगाये या परयास करेबर परथे। छत्तीसगढी में बासी के अन्न दाना ल सीथा कहिथें। वाक्य हावय सीथा-सीथा ल खा लिहिस अउ पसिया ल छोड दिहिस। बासी या पेज में भात हा पानी में बूडे रथे उही दाना अरथात सोझहा अन्न के दाना न होके बासी अथवा पेज के अन्न के दाना ल सीथा कइथें।

वइसने हावे-अंगोछना-पोछना। कोस के वाक्य लिखे हे- नहाय के बाद सरीर ल बने अंगोछना चाही । नहाने के बाद सरीर ल सुख्वा कपडा ले पोछे जाथे अउ गीला कपडा में सुख्वा सरीर ल अंगोछे जाथे। जो लइका सियान नहाय के लइक नई हे तेला कपडा ल गीला करके अंगोछे जाथे। परचलित वाक्य हावे-(नाम कोई भी हो सकत हे) रमेसर ला बहुत बुखार हावे त ओला मत नहवा गरम पानी से सरीर ला बने अंगोछ दे।
एक ठन गडबडी अउ देखो-अंधना-चावल पकने का गर्म पानी । समझायेबर वाक्य लिखे हे- चांडर बर अंधना चढा दे। ये बात ह उहिच कोस में ही लिखे हे। सही में देखौ त अंधना गरम पानी नोहे । तब अरथ में चावल पकने का गर्म पानी काबर लिखिस होही। नई जाने तेमन ला लगही कि चावल पकाय बर कोई गरम पानी होवत होही । अट्डसन नईहे । चाडंर ल पकाय के टैम पहली साधारना पानी ल पकाये वाले भंड्वा में डार देथें। तेकर बाद चुल्हा आदि में आगी बारथें। जब धीरे-धीरे अंधना के पानी ह गरम होथे अड गरम होत- होत खडले के करीब आ जाथे तब ओमें सनसनाहट होथे। उही अवस्था ल कथें अंधना आगिस । वाक्य बनथे-देख अंधना आगिस का ? चांडर ल डार दे।
अन्त में हम डॉ. रमेशचन्द्र महरोत्रा के शब्दों से सहमति जताते हुए यही कह सकते हैं कि अच्छे कोश किसी भाषा के लिए पौष्टिक भोजन के समान है। अब आवश्यकता है उस पौष्टिकता को बनाए रखने की।

डॉ.पी.आर. कोसरिया
मिसियाबाडा, डोंगरगढ


जनजातियों को मुख्यधारा में नहीं उन्हें मुख्यधारा मानकर हो विकासः प्रो. शुक्ल

राजिम दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन
संगोष्ठी में 200 से अधिक शोध पत्र प्रस्तुत, विदेश से भी आया शोध पत्र

रायपुर-  राजिम के राजीव लोचन शासकीय महाविद्यालय में लोक साहित्य में जनजातीय संस्कृति व परंपरा पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन 7 जनवरी को हो गया। समापन मौके पर बतौर मुख्य अतिथि सासंद चंदूलाल साहू, अध्यक्षता छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष विनय कुमार पाठक, विशिष्ठ अतिथि प्राचार्या डॉ. आभा तिवारी और मुख्य वक्ता प्रोफेसर वीरेन्द्र मोहन शुक्ल रहें। 
समापन मौके पर सांसद चंदूलाल साहू ने कहा कि राजिम संस्कृति संगम की नगरी है। छत्तीसगढ़ के भीतर संस्कृति और परंपरा की आदिम इतिहास है। प्रदेश की जनजातियों के विकास के लिए सरकार बेहतर काम कर रही है। ये सच है कि उनके संस्कृति और परंपरा को बचाने निरंतर शोध होते रहना चाहिए साथ विकास के नाम पर उनकी संस्कृतियों को हनन ना हो यह भी देखना जरूरी है। वहीं अध्यक्षता कर रहे डॉ. विनय कुमार पाठक ने कहा कि लोक साहित्य में छत्तीसगढ़ का कोई तोड़ नहीं है। यहां कि वाचन परंपरा बहुत ही प्राचीन है। जनजातियों की संस्कृति और परंपरा में साहित्य के रस मिलते हैं। भले ही वह मौखिक तौर है। जरूरत है कि हमें इसे सहेजने की। लोक साहित्य में जनजातियों की संस्कृति और परंपरा पर अभी बहुत काम होना बाकी है। 
महाविद्यालय की प्राचार्या डॉ. आभा तिवारी ने कहा कि हमारी संस्कृति का आधार लोक ही है। आदिम सभ्यता से ही जनजातीय संस्कृति परंपरा में देखने को मिलता है। लोक संस्कृति उन्नत होगी तो लोक मजबूत होगा। अपनी लोक संस्कृति के लिए देश ही नहीं विदेश में रहने वाले लोग भी चिंतित है। लोक संस्कृति को समझने के लिये लोक समाज से जुड़ना होगा। 
बतौर मुख्य वक्ताप हरि सिंह गौर केंद्रीय वि.वि. के प्रोफेसर डॉ वीरेंद्र मोहन शुक्ल ने कहा कि भारत में हर 7वां आदमी आदिवासी और जनजातीय है। आर्यो के आने के पहले भी जो भी सभ्यता थी भारत की थी वो मूलनिवासी आदिवासियों की थी और बहुत विकसित थी। विकास के नाम , उन्नति के नाम पर , जंगल के नाम पर जनजातीय संस्कृति का विनास हुआ है। लुप्त होती जनजातियों को बचाना ही लोक साहित्य को बचाना होगा। औद्योगिक घरानों से जनजातीय संस्कृति को नुकसान हुआ है। जनजातियों को मुख्यधारा में नहीं बल्कि उन्हें मुख्यधारा मानकर विकास करना होगा। 
वहीं आयोजन के पहले दिन संगोष्ठी का शुभारंभ केरल से आए कालीकट विवि के प्रोफेसर बतौर मुख्य अतिथि डॉ आर सुरेन्द्रन ने किया था।  प्रो. आर. सुरेन्द्रन ने कहा कि लोक भाषा है तभी साहित्य। और लोक संस्कृति में ही साहित्य परंपरा निहित है। छत्तीसगढ़ पदुमपुन्नालाल बख्शी, गजानंद माधव मुक्तिबोध, मुकुटधर पाण्डेय, और माधव सप्रे जैसे हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों की भूमि है। ऐसे भूमि में आना मेरे लिए गौरव की बात है। हम जनजतीय संस्कृति से सीखते है वो हमसे नहीं। उनके संस्कृति और परंपरा को दूर कर हम उन्हें आधुनिक नहीं बना सकते। लोक साहित्य का विकास जनजातीय संस्कृति परंपरा से ही है। 
संगोष्ठी को प्रो. अल्का श्रीवास्ताव, डॉ. रीता यादव सहित अन्य कई विद्धानों ने भी संबोधित किया। संगोष्ठी में विभिन्न कॉलेज से आए 200 से अधिक प्रोफेसर और शोधार्थी छात्र-छात्राओं ने शोध पत्र प्रस्तुत किया। खास बात ये कि विदेशों से भी शोध पत्र संगोष्ठी में आये। कार्यक्रम का संचालन प्रोफेसर जी.पी. यदु और आभार गोवर्धन यदु ने किया।

छत्तीसगढ़ी उपन्यासों की सूची


1. हीरू के कहिनी 1926 पाण्डेय बंशीधर शर्मा
2. दियना के अंजोर 1964 शिवशंकर शुक्ल
3. मोंगरा 1964 शिवशंकर शुक्ल
4. चंदा अमरित बरसाइस 1965 लखन लाल गुप्त
5. फुटहा करम 1971 ठाकुर हृदय सिंह चौहान
6. कुल के मरजाद 1980 केयूर भूषण
7. छेरछेरा 1983 पं. कृष्ण कुमार शर्मा
8. उढरिया 1999 डॉ. जे.आर. सोनी


9. कहाँ बिलागे मोर धान के कटोरा 2000 केयूर भूषण
10. दिन बहुरिस 2001 अशोक सिंह ठाकुर
11. आवा 2002 डॉ. परदेशी राम वर्मा
12. लोक लाज 2002 केयूर भूषण
13. कका के घर 2003 रामनाथ साहू
14. चन्द्रकला 2005 डॉ. जे.आर.सोनी
15. भाग जबर करनी मा दिखाये 2005 संतोष कुमार चौबे
16. माटी के मितान 2006 सरला शर्मा
17. बनके चंदैनी 2007 सुधा वर्मा
18. भुइयॉं 2009 रामनाथ साहू
19. समे के बलिहारी 2009 से 2012 केयूर भूषण
20. मोर गाँव 2010 जनार्दन पाण्डेय
21. रजनीगंधा 2010 डॉ. बलदाऊ प्रसाद पाण्डेय पावन
22. विक्रम कोट के तिलिस्म 2010 डॉ. बलदाऊ प्रसाद पाण्डेय पावन
23. तुंहर जाए ले गियाँ 2012 कामेश्वर पाण्डेय
24. जुराव 2014 कामेश्वर पाण्डेय
25. करौंदा 2015 परमानंद वर्मा राम
26. पुरखा के भुइयॉं 2014 डॉ.मणी महेश्‍वर 'ध्‍येय'
27. डिंगई 2015 लोक बाबू
28. केरवंछ 2013 मुकुन्द कौशल
29. पठौनी अप्रकाशित ठाकुर बलदेव सिंह चौहान
30. हाथ भर चूरी अप्रकाशित ठाकुर बलदेव सिंह चौहान
31. बीता भर पेट अप्रकाशित ठाकुर बलदेव सिंह चौहान
32. सुहागी अप्रकाशित शिव शंकर शुक्ल
33. परबतिया अप्रकाशित हेमनाथ यदु
34. चंदा चंदैनी अप्रकाशित हेमनाथ यदु
35. मानवता के कछेरी मा अप्रकाशित ठाकुर बलदेव सिंह चौहान
36. केंवट-कुन्दरा अप्रकाशित दुर्गा प्रसाद पारकर
37. कुल के अंजोर अप्रकाशित अशोक सेमसन
38. इन्दरावती के बेटी अप्रकाशित सुधा वर्मा
39. बनपांखी अप्रकाशित शकुन्तला तरार

  उपर लिखे उपन्‍यासों में आठ उपन्‍यास आनलाईन उपलब्‍ध है हैं जिन्‍हें उपन्‍यास के नाम को क्लिक करके पढ़ा जा सकता है। छत्‍तीसगढ़ी के कुछ उपन्‍यासों पर मेरे विचार आप गुरतुर गोठ में यहॉं भी पढ़ सकते हैं। इसके अतिरिक्‍त किसी और छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास की जानकारी आपको हो तो कृपया बतावें.
chhattisgarhi upanyas

शुभदा मिश्र कहानी : दृष्टि दोष


घर के सामने हाते में बैठी थी वह।
ठण्ड की दुपहरी। हल्की गुनगुनी धूप। महकती बगिया का छोटा सा आहाता। चारों ओर बेल और गुलाब की खिलती कलियां। सबसे सामने गुलदाउदी के श्वेत फूल। फाटक पर बसंत मालती की छिटकी बेल। उसकी मेहनत के फूल हैं ये। बहुत मेहनत करती है वह अपने नन्हे से बगीचे में। वैसे बगल का हाता भी सुन्दर है। वहां श्रीमती बोस बैठी हुई हैै, कुछेक महिलाओं के साथ। धूप सेंकतीं, स्वेटर बुनतीं, सब बड़ी मीठी, सब बड़ी व्यवहार कुशल। मगर सब की सब एक से बढ़कर एक शातिर। घाघ। भुगत चुकी है इन सबको। इसी से अकेले ही बैठती हैं वह अपने हाते में। पढ़ती है या स्वेटर बुनती है। डरती भी हैं, कहीं कोई पड़ोसिन न आकर बैठ जाए।
उसके घर से लगे घर से लगातार आवाजें आ रही है- जनानी और मर्दानी। कभी फुसफुसाहट, कभी दबे-दबे कहकहे। कभी कुछ उठा-पटक सी। कभी रोमांचित से करते ठहाके। लगता है, आज दिनेशजी ऑफिस नहीं गए हैं। घर में ही हनीमून मना रहे हैं। बेटियां गई हैं पिकनिक मनाने। नौकर गया है अपने गांव। भरपूर एकांत है।
सचमुच किस्मत भी कोई चीज होती है, वर्ना दिनेशजी ऐसी मोटी भैंस जैसी पत्नी पर इस कदर दीवाने होते। स्वयं कितने खूबसूरत हैं। वे गोरा जगमगाता रंग, ऊंचे-पूरे, उम्दा नौकरी। घर से सीधे ऑफिस जाते हैं, ऑफिस से सीधे घर। चरित्र, आचरण में एकदम खरे। मगर अफसोस, जैसा खुद का चरित्र आचरण बेदाग है, वैसा ही पत्नी का भी समझ बैठे हैं। तभी तो बीबी और भी बर्हिबंड हुई जा रही है। उधर दिनेशजी आफिस के लिए रवाना हो रहे हैं, इधर बीवी चली मुहल्ले भर में निंदाखोरी की महफिल जमाने। या फिर जिस दिन इनके हरीश जी आ जाऐं तो...। छि: छि: यह भी कोई उम्र है इश्क लडऩे की। बेटियां जवान होने को आईं। मुहल्ले की औरतें फिक्-फिक् हंसती रहती हैं- अजी दिनेशजी सिर्फ दिखने के खूबसूरत हैं। भीतर से तो हैं एकदम खोखले। क्या करें बिचारी मिसेज दिनेश। हरीशजी न मिलें तो पगला जाएं। चालीस के बाद औरतों की डिमांड जो बढ़ जाती है।
मौका मिलते ही श्रीमती दिनेश भी नहले पर दहला बार करती हैं- क्यों आप, लोगों को जलन हो रही है। असल में आशिमाजी के वह लाल गाड़ी वाले आजकल नहीं न आ रहे हैं, उनकी गाड़ी लगता है, पंक्चर हो गई है। अब जब तक सुधरेगी नहीं, आशिमाजी ऐसे ही खौंखियाती रहेंगी। लेकिन नीरा देवी, आको तो ओवर डोज मिल रहा है, फिर क्यों इतना जली मरी जा रही हैं।
शुरु में इन अभिजात्य सी दिखने वाली महिलाओं के छलकते प्रेम को देखकर वह भी शर्मिंदा हो गई थीं उनके बीच। उसके पहुंचते ही वे सब गिद्धों सी झूम पड़ी थी उस पर। बमुश्किल ही निकल पाई थी उनके चंगुल से। उसे ये महिलाएं समझ में नहीं आती थीं। जो भी वे एक-दूसरे के बारे में बोलती थीं, क्या वह सब सही है? फिर इनके पति क्यों ऐसे उदार बने हुए हैं? वे सब गाफिल हैं या बेगैरत? दोपहर भर गुलछर्रे उड़ाने के बाद ये शाम को परम पतिव्रता नारी की तरह अपने पतियों के साथ घूमने जाती हैं। सज धज कर। गाड़ी में बैठकर। वह अपने घर की खिड़की से टुकुर-टुकुर उन्हें ताकती रहती है। एक आह सी निकलती है- आज दुनिया ऐसी ही लीलाबतियों की है। वह सोचती रहती है- एक ये लोग हैं... एक वह हैं। एक इनके पति हैं- एक उसका पति है। हर समय शक-संदेह में व्याकुल रहता है। अगर वह सजी धजी बैठी है तो क्यों? किसके लिए? खास व्यंजन बनाए बैठी है, तो किसके लिए? घूमने जाना चाहती है, तो क्यों? कोई मिलने-जुलने आया है, तो क्यों? वह किसी भी बात को सहज सरल भाव से ले ही नहीं सकता था। उसके अनुसार ये घर आने वाली औरतें निश्चित रूप से उसकी मूर्ख पत्नी को बिगाड़ देंगी... और पुरुष तो पक्के लम्पट होते ही हैं। वे उसकी पत्नी को भगाकर ले जायेंगे। नौकरी करने वाली औरतें फकत आवारागर्दी करती हैं। और ये दुनिया भर के कोर्स करने वाली औरतें... अपने निकम्मेपन पर आवरण डालती रहती हैं।... वर्ना कोई बताए, ये रंगोली का कोर्स करने का क्या मतलब? कुकिंग कोर्स का क्या मतलब? यह सब तो लड़कियों को घर में ही सीखना चाहिए। और ये ड्रेस डिजाइनिंग? वाहियात। चीथड़े पहने, झोंटा बिखराए ,दांत निपोरे, टोनही की तरह उचकती फिर रही हैं। देखो इनकी डे्रस, देखो इनका...।
पति के इस असह्य रवैये की चर्चा की थी उसने- अपने मायके में, अपनी अंतरंग सहेलियों से। सबका लगभग एक सा ही जवाब था। जब पुरुष ऐसे ही होते हैं। उनके जेहन में ऐसे ही फितूर आते रहते हैं। एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो। गृहस्थी चलाने के लिए औरतों को बहुत कुछ करना पड़ता है। तुम्हें तो सिर्फ बात ही सुननी है। सुनो ही मत। बकने दो। लाखों में एक है। देखने में सुन्दर है। इतना कमाता है। बाल-बच्चे हो जायेंगे, तो देखना, एकदम ठीक हो जायेगा।
लेकिन बाल-बच्चे हुए नहीं और पति के संदेह की बीमारी बढ़ती गई।
इधर कुछ दिनों से जिन्दगी और भी नरक हो गई थी। गांव से उसका एक देवर आ गया था। पति का चचेरा भाई। इसी शहर में नौकरी लगी थी। कभी-कभी उन लोगों से मिलने आ जाता। हंसमुख, बातूनी, मजाकिया। उसे बहुत अच्छा लगता। मगर पति को बहुत बुरा लगता। उसके जाते ही भड़कने लगता-एकदम पुरुषों को प्रोत्साहित करने वाली हंसी थी तुम्हारी। वह तो मैं वहां था, वर्ना पता नहीं क्या इरादे थे तुम्हारे...।
मगर यही पति अपने भाई के सामने अत्यंत मधुर व्यवहार करता। बिल्कुल स्नेहिल बड़े भाई की तरह-खाना खाकर जाना प्रबोध। किसी चीज की जरूरत हो तो अपनी भाभी से ले लेना तुम्हारा ही घर है।
फलत: प्रबोध भी अक्सर आने लगा था। संयोगवश वह जब आता, पति घर में न होते। कई बार सोचती, उसे मना कर दे। मगर प्रबोध का निश्छल चेहरा देखते ही वह पानी-पानी हो जाती। मनाती रहती-या तो प्रबोध पति के रहते आए, या उनके आने के पहले चला जाए। मगर पूरी सतर्कता के बावजूद पति सूंघ ही लेता। फिर सारे दिन जहर उगलता रहता- मुझे तो पहले दिन ही लग गया था कि यारी बढ़ेगी। इस लड़के का इतिहास मुझे नहीं मालूम क्या? इसके बाप का इतिहास मालूम है। कोई दाई, नौकरानी नहीं छोड़ी थी, उस डिबॉच ने इसकी मां कम थी? दिन भर रत्तू चाचाजी के साथ...।
तुम अपना इलाज करवाओ... उस दिन उसने रोते-रोते चिल्लाकर कहा-मैं यह सब नहीं सुन सकती।
तू अपना इलाज करा, पति गरजा-सही बात कहता हूं तो यकीन नहीं करती। अपनी ही मूर्ख दुनिया में रहती है। जब वह तुझ पर हाथ डालेगा, तो तू क्या करेगी।
- कैसे डालेगा हाथ? मजाल है?... वह चीखी।
मजाल?... पति के चेहरे पर विद्रूप हंसी फैल गई थी... औरतें तो इसी क्षण का इंतजार ही करती रहती हैं।
और वह दीवार पर दनादन सिर पटकने लगी थी... इतना ही शक है तो मेरा पिंड छोड़ो।
उसे सिर फोडऩे से बचाते-बचाते पति एकदम व्याकुल हो उठा था-पिंड छोड़ दो, यानी तुम किसी और से शादी करोगी? किससे?... किससे?
दिन-रात शक में सुलगते पति और गृहस्थी बचाने की सीख के बीच उसकी छोटी सी बुद्धि ने जीने का कोई रास्ता निकाल ही लिया था। वह दिन भर खटती-पूरा घर सजा संवार कर, चमका कर रखती। पति के पंसद के व्यंजन बनाती, टीवी में प्रसारित होने वाले ज्ञानवर्धक और मनोरंजक कार्यक्रम देखती। ठण्ड की दोपहर में घर के सामने बगिया से महकते हाते में बैठकर स्वेटर बुनती, पति के लिए... और ख्यालों मे खो जाती जब वह नन्ही तितली की तरह बचपन में अपनी गली, मुहल्ले में उड़ती फिरती थी... जब वह कॉलेज की ब्यूटी क्वीन कहलाती थी... जब लोग कहते थे। बड़ा भाग्यवान होगा वह युवक, जिससे तेरी शादी होगी।
पति के ऑफिस से लौटने के पहले ही वह घर के भीतर आ जाती। आज भी वह भीतर आ चुकी थी।
पति आया ऑफिस से, जूते चर्र मर्र करता। आंखों में एक विशेष ही चमक। चेहरे पर विर्षली मारक हंसी। 
-बोला-देखा? 
-वह चकित... क्या?
-क्या, क्या... सारे दिन तुम घर में रहती हो। तुम्हें कुछ खबर ही नहीं रहती। ये सामने वाले दिनेश महाशय आज सुबह से दौरे पर गए हुए हैं और उनकी श्रीमतीजी अपने यार हरीश के साथ...। वाकई दिनेश नंबरी बेवकूफ है...।
-क्या?... वह भौंचक्की रह गई- तो सारी दुपहरी वह जो रंगरेलियां सुन रही थी वह...
-देख लो, पति खिड़की के सामने आकर खड़ा हो गया था। कमर में दोनों हाथ रखे। प्रसन्न मुद्रा में कांपते कदमों से वह भी पास जाकर खड़ी हो गई। सामने दिनेश जी का फाटक खोलकर हरीश महोदय जा रहे थे। ऊंचे पूरे, नीग्रो की तरह काले, सेक्सी। चरम प्रसन्नमुद्रा में मस्त हाथी की तरह झूम-झूम कर चलते, जैसे भारी मैदान मार लिया हो।
वह हतप्रभ सी अपने आततायी पति का मुंह ही देखती रह गई।
-क्या देख रही हो?.... पति के चेहरे पर क्रूर हास्य नाच रहा था।
-देख रही हूं.... उसके मुंह से निकल गया। तुम्हें हमेशा यही सब चीजें दिखती हैं। कोई अच्छी, कोई सुन्दर चीज तुम्हेंं नहीं दिखतीं।
-कहां है कोई अच्छी, कोई सुन्दर चीज... पति की उपहास भरी दृष्टि भेदक हो चली थी... मैंने तो आज तक नहीं देखी। क्यों, कोई सच्चरित्र नारी, सारा घर सजाए, स्वादिष्ट व्यंजन बनाए, अपने पति के लिए स्वेटर बुनती, अकेली बैठी इंतजार कर रही हो, घंटों... यह दिखता तुम्हें?
-पति की दृष्टि संकुचित हो उठी-कहां है... कहां है ऐसी सच्चरित्र नारी?
वह मुस्कुराने लगी।
पति बौखलाने लगा-कहां है... कहां है ऐसी सच्चरित्र नारी... सच में मैंने आत तक नहीं देखा बताती क्यों नहीं कहां है...?
वह अपने खड़े-खड़े बालों को बुरी तरह नोचने लगा।
उसकी मुस्कान धारदार हो चली थी।
शुभदा मिश्र
14, पटेल वार्ड, डोंगरगढ़

जनकृति अंतर्राष्‍ट्रीय पत्रिका के लोकभाषा विशेषांक में छत्‍तीसगढ़ी


आप सब जानते हैं कि छत्तीसगढ़ी की उत्पत्ति अधर्मागधी - प्राकृत - अपभ्रंशों से हुई है। अर्ध मागधी के अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से इसका विकास हुआ है। यह पूर्वी हिन्दी का एक रूप है जिस पर अवधी का बहुत अधिक प्रभाव है। अवधी के प्रभाव के कारण ही छत्ती्सगढ़ी भाषा के साहित्य का भी उत्तरोत्तेर विकास हुआ है। छत्तीसगढ़ी भाषा का व्याकरण सन् 1885 में हीरालाल काव्यो पाध्याय के द्वारा लिखा गया था जो हिन्दी के व्याकरण के पहले सन् 1890 में अंग्रेजी के व्याकरणाचार्य सर जार्ज ग्रियर्सन के अनुवाद के साथ छत्तीसगढ़ी-अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुआ था। जो छत्तीसगढ़ी भाषा की भाषाई परिपूर्णता को स्वमेव सिद्ध करती है।
भाषा का सौंदर्य और उसकी सृजनात्मकता उसके वाचिक स्वरूप और विलक्षण मौखिक अभिव्यक्तियों में निहित है। छत्तीतसगढ़ी का वाचिक लोक साहित्य सदियों से लोक गाथाओं और गीतों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित हो रही है। लिखित-मुद्रित अभिव्यक्तियों और औपचारिक साहित्य में यही वाचिक साहित्य़ क्रमश: रूपांतरित भी हुई है और रचनाकारों नें अपनी अनुभूति को समय व परिस्थितियों के अनुसार अभिव्ययक्त किया है। यहॉं का लिखित साहित्य संवत 1520 से कबीर के शिष्‍य धनी धर्मदास से मिलता हैं इसके बाद से लगातार विपुल साहित्य लिखे गए जो समय-समय पर प्रकाशित भी हुए हैं।
छत्तीगसगढ़ी में साहित्य के लगभग प्रत्येक विधा में साहित्य लेखन हुआ जिसमें महाकाव्य, खण्डकाव्य, उपन्यास, कहानी और नई विधा यात्रा संस्मरण, रिपोतार्ज भी शामिल है। छत्तीगसगढ़ में साहित्यिक सृजन की परम्परा गाथा काल सन् 1000 से पुष्पित है जो सरस्वती के संपादक पदुमलाल पन्नासलाल बख्शी और छायावाद के प्रर्वतक पद्मश्री मुकुटघर पाण्डेतय जैसे रचनाकारों से होते हुए नई पीढ़ी के रचनाकारों तक विस्तृत है। आधुनिक युग के आरंभिक छत्तीासगढ़ी रचनाकारों में महाकवि पं.सुन्दरलाल शर्मा रचित दानलीला उल्लेखनीय है। लिखित छत्तीसगढ़ी साहित्य का विकास इनके बाद ही असल रूप में आरंभ हुआ। इन्होंने छत्तीसगढ़ी काव्य को स्थापित किया एवं लघुखण्ड काव्‍य का सृजन कर प्रवन्ध काव्य लिखने की परम्परा को विकसित किया। इसी क्रम में पद्य के साथ ही गद्य लेखन भी आरंभ हुआ जिसमें पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन का संस्थापक माना गया। इसके बाद सात्यिकारों की एक लम्बी श्रृंखला है जिसका उल्लेख करने से कई पन्ने  भर जायेंगें।
अपने माधुर्य गुणों के कारण अन्य भाषा-भाषियोँ को लुभाती छत्तीसगढ़ी भाषा में लोक जीवन के प्रेम, सौहार्द्र, पारस्परिकता, निश्छलता और सामाजिकता की मिठास भी बसी हुई है। इसके गीतों में इसकी छवि परिलक्षित होती है। छत्तीससगढ़ी गीतों में जहां रचनाकारों नें अपने इस पारंपरिक गुणों का बखान किया है वहीं समाज में व्याप्त  विद्रूपों पर तगड़ा प्रहार भी किया है। साहित्य में छत्तीसगढ़ी के लिए एक शब्द बहुधा प्रयोग में आता है 'गुरतुर-चुरपुर' जिसका अर्थ है मीठा और चरपरा। हमारे साहित्य में जहां माधुर्य है वहीं अन्याय और सामाजिक बुराईयों के प्रति तीखी प्रतिक्रिया भी है। आधुनिकीकरण, औद्यौगीकरण और भूमण्डलीकरण के दौर नें छत्तीसगढ़ी रचनाकारों को भी प्रभावित किया है और उन्होंनें इसके धमक को महसूस करते हुए उसके खतरों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है।
मैं विगत 2008 से इंटरनेट में छत्तीसगढ़ी भाषा की एकमात्र साहित्यिक और सांस्कृकतिक पत्रिका 'गुरतुर गोठ' का संपादन कर रहा हूं, जिसमें लगभग 7000 पन्नों का छत्ती्सगढ़ी साहित्य संग्रहित है। जिसमें साहित्य के सभी विधाओं की रचनायें संग्रहित है, पत्रिका की पृष्ट सीमा और पठनीय बोझिलता को ध्यान में रखते हुए हम साहित्य की कुछ प्रमुख विधाओं की रचनाओं को ही यहॉं इस पत्रिका में प्रस्तुत कर रहे हैं। जिसमें छत्तीसगढ़ी के कुछ चर्चित रचनाकारों के साथ ही नये युवा रचनाकारों की रचनायें शामिल है। इससे आप छत्तीसगढ़ी साहित्य से परिचित हो सकें।
आप सभी को ज्ञात है कि छत्ती्सगढ़ी भाषा की धमक, संपूर्ण विश्व में एडिनबरो नाट्य समारोह से लेकर पद्मश्री तीजन बाई के पंडवानी गीतों के रूप में गुंजायमान हो रही है। हमारी लोक कलायें व शिल्प का डंका संपूर्ण विश्व में बज रहा है ऐसे समय में हमारी लोक भाषा का साहित्य इस पत्रिका में स्थान पा रहा है यह हमारे लिये खुशी की बात है। वर्तमान समय में हमें हमारी लोक भाषा के साहित्य को विस्तारित करने के हर संभव प्रयास करने हैं। हम अपनी अस्मिता और स्वाभिमान के साथ अपनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में जुड़ने का बाट जोह रहे हैं। हमें विश्वास है कि हमारी समृद्ध भाषा भी अब शीघ्र ही अपने वांछित सम्मान को पा लेगी। जनकृति के लोकभाषा विशेषांक में छत्तीासगढ़ी को स्थात देनें से न केवल हमारी भाषा वरन हमारी अस्मिता को हिन्दी पट्टी के वैश्विक परिदृश्य पर सामने रखने की एक शुरुआत हुई है। पत्रिका के संपादक कुमार गौरव मिश्रा को धन्य्वाद सहित।
- संजीव तिवारी 

इस विशेषांक को आप यहॉं पढ़ सकते हैं.
इस अंक में आलेख छत्तीसगढ़ी साहित्य में काव्य शिल्प-छंद: रमेश कुमार सिंह चौहान, भाषा कइसना होना चही?: सुधा वर्मा, यात्रा वृतांत वैष्णव देवी के दरसन: अजय अमृतांशु, कहानी लहू के दीया: कामेश्वर, परसू लोहार: डॉ. पारदेशीराम वर्मा, नियाँव: डॉ. पीसीलाल यादव, दहकत गोरसी: जयंत साहू, आजंत आजंत कानी होगे: सुशील भोले, तारनहार: धर्मेन्द्र निर्मल, बेंगवा के टरर टरर: विट्ठल राम साहू‘निश्छल’, मिटठू मदरसा (रविंद्रनाथ टैगोर की कहानी का छत्तीसगढ़ी अनुवाद): किसान दीवान, व्यंग्य त महूँ बनेव समाज सुधारक: आनंद तिवारी पौराणिक, अपराधी आश्रम में कवि सम्मलेन: कांशीपुरी कुन्दन, छूही के ढूढा: बांके बिहारी शुक्ल, दुर्योधन काबर फेल होथे ? मूल लेखक- प्रभाकर चौबे (हिंदी): अनुवादक- दुरगा प्रसाद पारकर, आवव बियंग लिखन- संजीव तिवारी, आलेख/जीवनी युगप्रवर्तक: हीरालाल काव्योपाध्याय- डॉ. पीसीलाल यादव नाटक चित्रगुप्त के इस्तीफा: नरेंद्र वर्मा, अनुवाद विष्णु भगवान् के पदचिन्ह (Marks of Vishnu)- खुशवंत सिंह: अनुवादक: कुबेर, पद्य- कविता/गीत डॉ. विमल कुमार पाठक, डॉ. जीवन यदु, आचार्य सरोज द्विवेदी, डॉ. पीसीलाल यादव, मुकुंद कौशल, बलदाऊ राम साहू, छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल; मुकुंद कौशल, दोहा अरुण कुमार निगम, छत्तीसगढ़ी लोकगाथा अंश अहिमन कैना: संकलन- संजीव तिवारी, उपन्यास अंश आवा: डॉ. पारदेशीराम वर्मा संग्रहित हैं.  

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संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...