भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक 2012 एक स्वागतेय प्रयास

लोकसभा नें भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक 2012 पास कर दिया. यह एक स्वागतेय शुरूआत है, 119 वर्ष पुराने कानून का आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक था. केन्द्र सरकार नें ड्राफ्ट बिल को प्रस्तुत करते हुए बहुविध प्रचारित किया कि इसमें किसानों के हितों का पूर्ण संरक्षण किया गया है, किन्तु पास हुए बिल में कुछ कमी रह गई है. इस पर विस्तृत चर्चा बिल के राजपत्र में प्रकाशन के बाद ही की जा सकती है. छत्तीसगढ़ में मौजूदा कानून के तहत निचले न्यायालयों में लंबित अर्जन प्रकरणों में बतौर अधिवक्ता मेरे पास लगभग दो सौ एकड़ रकबे के प्रकरण है, यह पूरे प्रदेश में रकबे के अनुपात में सर्वाधिक है. इसलिये मुझे इस बिल में इसके निर्माण के सुगबुगाहट के समय से ही रूचि रही है. इस रूचि के अनुसार तात्कालिक रूप से नये बिल में पास की गई जो बातें उभर कर आ रही है एवं बिल के ड्राफ्ट रूप में जो बदलाव किए गए हैं उन पर कुछ चर्चा करते हैं.

यह स्पष्ट है कि भूमि संविधान के समवर्ती सूची में होने के कारण राज्य सरकार का विषय है, राज्य सरकारों को भूमि के संबंध में कानून बनाने की स्वतंत्रता है किन्तु भूमि अधिग्रहण के मामलों में इस बिल को बनानें वाली समिति नें यह स्पष्ट किया था कि इस बिल के प्रावधानों को स्वी‍कारते हुए ही राज्यो सरकारें अपने स्वयं का कानून बना सकेंगीं. यानी यह बिल राज्य सरकार के लिए एक प्रकार का दिशा निर्देश है, उसे इस बिल के मानदंडो के अंतर्गत ही फैसले लेनें होंगें, उन्हें भूमि मालिकों के हितों को अनदेखा करने की व्यापक स्वतंत्रता नहीं होगी.

बिल के ड्राफ्ट में ही यह स्पष्ट था कि पुराने कानून की धारा 17 के प्रावधानों को समाप्त किया जा रहा है. पुराने कानून के इस धारा की आड़ में राज्य सरकार आवश्यकता की परिभाषा स्वमेव गढ़ते हुए किसानों की जमीन दादागिरी करके छीन लेती थी. इस नये बिल में अब सरकार ऐसा नहीं कर सकेगी, अब सिर्फ दो स्थितियों पर अनिवार्य भूमि अर्जन हो सकेगा एक तो राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित आवश्यकता और दूसरी प्राकृतिक आपदा से निर्मित आवश्यकता पर. सरकारें अग्रेजी के 'डोमेन' शब्द का लब्बोलुआब प्रस्तुत करते हुए कहती थी कि 'सबै भूमि सरकार की', हमें आवश्यकता है तुम तो सिर्फ नामधारी हो असल मालिक तो हम हैं और किसान हाथ मलते रह जाता था. संभावित अधिग्रहण क्षेत्र का किसान कानूनी विरोध करने के बावजूद हमेशा डरते रहते थे कि कलेक्टर उसकी भूमि को धारा 17 के दायरे में ना ले ले. अब इस कानून के आने से किसानों को अनिवार्य अर्जन के डर से मुक्ति मिलेगी.

बिल में यह प्रावधान है कि पीपीपी परियोजनाओं और निजी कम्पेनियों के लिए अधिग्रहण प्रस्ताव के पूर्व सरकार को ग्रामीण क्षेत्र में ग्राम पंचायतों के माध्यम से अस्सी प्रतिशत एवं शहरी क्षेत्रों में स्थानीय अधिकरणों के माध्यम से सत्तर प्रतिशत भूमि स्वामियों की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक होगा. यह प्रावधान भूमि स्वामियों को अधिग्रहण के पूर्व सुने जाने का बेहतर अवसर प्रदान करता है. मौजूदा कानून में भूमि स्वामी को अपनी भूमि के छिन जाने का भान तब होता है जब धारा 4, 6 या धारा 17 का प्रकाशन होता था. कई कई बार तो भू स्वामी को इस प्रकाशन के संबंध में भी जानकारी ही नहीं हो पाती थी और उसकी जमीन छीन ली जाती थी. इस नये कानून के बाद किसानों को राहत मिलेगी और वे अपनी भूमि को देने या नहीं देने के संबंध में आकलन समिति के समक्ष अपना मन बना पायेंगें या अपना प्राथमिक विरोध दर्ज कर पायेंगें.

यह प्रश्न भी अभी उभर रहे हैं कि वर्तमान में भूमि अर्जन से संबंधित अन्य बहुत सारे केन्द्रीय अधिनियम भी प्रभावी हैं ऐसे में इस बिल के प्रभावी होने पर कानूनी अड़चने आयेंगी. राज्य सरकारें दूसरे अधिनियम का सहारा लेते हुए अधिग्रहण करेंगीं और यह बिल निष्प्रभावी हो जायेगा. इस संभावना से मुकरा नहीं जा सकता किन्तु केन्द्र सरकार का कहना है कि शीघ्र ही इन सभी अधिनियमों में संशोधन कर, वर्तमान बिल को केन्द्रीय प्रभाव में लाया जावेगा. यदि ऐसा होगा तभी पूरी तरह से इस बिल के प्रावधानों पर सफलता समझी जावेगी.

इस बिल के संबंध में आशान्वित लोगों का कहना था कि ग्रामीण क्षेत्र में भूमि का चार गुना और शहरी क्षेत्र में दो गुना मुआवजा प्राप्त होगा. केन्द्र सरकार भी इसके लिए प्रतिबद्ध नजर आ रही थी, डुगडुगी भी बजा रही थी किन्तु पास बिल के प्रावधान के अनुसार जिस प्रकार से इस मसले को राज्य सरकार के झोले में डाला गया है वह चिंतनीय है. ड्राफ्ट बिल के अनुसार मुआवजा आंकलन का संपूर्ण अधिकार कलेक्टर को दे दिये गए है जो व्यवहारिक नहीं हैं, भूमि के बाजार दर के निर्धारण के लिए ड्राफ्ट बिल में दिए गए प्रावधानों का कलेक्टरों के द्वारा सही अर्थान्वयन किया जायेगा यह संदेह में है. सरकार के पक्षपाती कलेक्टरों के द्वारा बाजार दर का जानबूझकर कम आंकलन किया जायेगा. यदि कलेक्टर स्वविवेक से किसानों की हितों की झंडाबरदारी करते भी हैं तो मुआवजा आंकलन समिति में जो दो अशासकीय सदस्य होगें वे सरकार की तरफदारी में, दर का कम आकलन ही करेंगें क्योंकि उनकी नियुक्ति सरकार के इशारे पर होगी. दो और चार गुना मुआवजे का अनुपात एक सुझाव के तौर पर कानून में प्रस्तुत है इसे पूरी तरह से मानना या नहीं मानना राज्य सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जिसमें पक्षपात निश्चत तौर पर होगीं और किसानों को मिलने वाले वाजिब मुआवजे पर राज्य सरकारें डंडी मारेंगीं.

इस अधिनियम पर आस लगाए लोग यह जानना चाहते होंगें कि यह कब से प्रभावी होगी. देश भर के कई किसान आस लगाए बैठे हैं कि उन्हें इस बिल से अत्यधिक फायदा पहुचेगा. इस बिल में इसके प्रभावी होने के संबंध में स्पष्ट उल्लेख है कि यह बिल उन सभी प्रकरणों में लागू होगा जिनका मुआवजा तय नहीं किया गया है. इस संबंध में जयराम नरेश नें कहा है कि ऐसे मामलों में जहां अर्जन पांच साल पहले हुआ था किन्तु मुआवजा नहीं दिया गया है या कब्जार नहीं लिया गया है तो यह कानून स्व मेव प्रभावी हो जायेगा. इस प्रावधान के चलते कई प्रदेशों में पुराने कानून के तहत लंबित प्रकरण की प्रक्रिया समाप्त हो जावेगी और इस नये कानून के तहत प्रक्रिया पुन: आरंभ की जावेगी. वैसे भी जब यह कानून प्रभावी होगा तो अधिग्रहण चाहने वाली संस्था को किसानों की भूमि का मुआवजा उनके पूर्व आकलन से लगभग चार गुना ज्यादा देना होगा और इससे उनका निर्धारित परियोजना समय व बजट निश्चित तौर पर बढ़ जावेगा. इसके कारण संभावना यह भी बनेगी कि अधिग्रहण चाहने वाली संस्थानओं के द्वारा किसानों की जमीनों के अधिग्रहण का प्रस्ताव छोड़ दे.

अन्य प्रावधानों में खाद्य सुरक्षा के रक्षोपाय के लिए जो उपबंध किये गए हैं कि सिंचित कृषि भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जायेगा उसमें आंशिक संशोधन करते हुए इसका अधिकार राज्यए सरकारों को दे दिया गया है. इसके अतिरिक्त अर्जन के विवादों के त्वरित निपटान हेतु पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन प्राधिकरण की स्थापना भी न्यायालयीन समय को कम करने का उचित प्रावधान है. अन्य सभी प्रावधानों की चर्चा सीमित रूप से करना एक आलेख में संभव नहीं है फिर भी मोटे तौर पर उपर लिखे तथ्य ही इस नये बिल के सार हैं जो बरसों पहले बने भूमि छीनने के कानून के विरूद्ध अधिग्रहण के माध्यम से किसानों पर हो रहे अन्याय को समाप्त करने का व्यापक जन हित में एक सराहनीय प्रयास है. यह पुराने कानून के प्रभावों को सहानुभूतिपूर्वक समझकर उसे विस्तृत करते हुए इसे अर्जन के साथ ही पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन तक विस्तारित किया गया है जो भूमि खोने वाले किसानों की पीड़ा का समुचित इलाज है.

संजीव तिवारी

लायब्रेरी पर कमीश्नरी हावी : दुर्ग संभायुक्त कार्यालय हिन्दी भवन में


आज के समाचार पत्रों में दो अलग अलग खबरों पर राहुल सिंह जी नें ध्यान दिलाया. जिसमें से एक रायपुर के 110 साल पुरानी लाईब्रेरी के रख रखाव की खबर थी तो दूसरे समाचार में दुर्ग में आगामी 5 सितम्बर से आरंभ होने वाले संभागायुक्त कार्यालय हेतु दुर्ग के लाईब्रेरी को चुनने के संबंध में समाचार था. दुर्ग में जिस जगह पर संभागायुक्त कार्यालय खुलना प्रस्तावित है, उस भवन का नाम हिन्दी भवन है, इस भवन के उपरी हिस्से पर बरसों से नगर पालिक निगम की लायब्रेरी संचालित होती रही है. लायब्रेरी के संचालन के कारण ही हिन्दी भवन में 'सार्वजनिक वाचनालय' लिखा गया था. वैसे पिछले कुछ वर्षों से इस भवन से लाईब्रेरी को नव निर्मित भवन 'सेंट्रल लाईब्रेरी' में स्थानांतरित कर दिया गया था, जिसमें नगर पालिक निगम द्वारा संचालित यह लाईब्रेरी अब संचालित हो रही है. वैसे लायब्रेरी पर कमीश्नरी हावी होने का किस्सा अकेले दुर्ग का नहीं है, यह दंश बरसों पहले बिलासपुर भी झेल चुका है. बरसों से लोगों के मन में हिन्दी भवन की छवि एक सार्वजनिक वाचनालाय के रूप में ही रही है इस कारण जब संभागायुक्त कार्यालय के रूप में इस भवन का चयन किया गया तो लोगों के मन में सहज रूप से इस निर्णय के विरोध का भाव आया.


अब इसी बहाने दुर्ग के 'हिन्दी भवन' एवं दुर्ग नगर पर कुछ चर्चा कर लेते हैं. इस भवन का निर्माण सन् 1911 में अंग्रेजों के द्वारा किया गया था, जिसका नाम एडवर्ड हाल रखा गया था. इस भवन के उपरी हिस्से में सन् 1915 से सार्वजनिक वाचनालय का संचालन आरंभ हुआ था जो अभी कुछ वर्षों पहले तक सतत संचालित था. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस भवन का उपयोग साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यों के लिए किया जाने लगा इसीलिए इसका नाम 'हिन्दी भवन' पड़ा. हिन्दी भवन नाम होने के बावजूद नगर के साहित्यकारों को यह भवन साहित्यिक कार्यक्रमों के लिए आसानी से कभी नहीं मिल पाया. यह भवन मात्र दिखावे के लिए हिन्दी भवन बना रहा.


गांव, गढ़, तहसील फिर जिला और उसके बाद संभाग बनने के सफर को दुर्ग के इतिहास के पन्नों में टटोलें तो दुर्ग को गढ़ रूप में स्थापित करने के पीछे जगपाल या जगतपाल नाम के एक गढ़ पति का नाम सामने आता है. अस्पष्ट सूत्रों के अनुसार यह कलचुरी वंश के पृथ्वी देव द्वितीय के सेनापति थे. कहीं कहीं जगपाल को मिर्जापुर के बाघल देश का निवासी बताते हैं जो कलचुरियों का कोषाधिकारी था. कलचुरी नरेश नें किसी बात से प्रसन्न होकर जगपाल को दुर्ग सहित 700 गांव इनाम में दे दिए तब जगपाल नें यहां गढ़ स्थापित किया. मौर्य, सातवाहन, राजर्षि, शरभपुरीय, सोमवंश, नल, महिष्मति, कलचुरी, मराठा शासकों मौर्य, सातवाहन, राजर्षि, शरभपुरीय, सोमवंश, नल, महिष्मति, कलचुरी, मराठा शासकों का शासन इस नगर में रहा. गजेटियरों में इस नगर को सन् 1818 से 1947 तक द्रुग लिखा जाता रहा है. सन् 1860 से सन् 1947 तक यह मध्य प्रांत व सन् 1947 से सन् 1956 तक सीपी एण्ड बरार सेन्ट्रल प्राविंस में शामिल था उसके बाद यह 1 नवम्बर सन् 1956 से मध्य प्रदेश, फिर 1 नवम्बर 2000 से छत्तीसगढ़ राज्य में है. दुर्ग को जिला सन् 1906 में बनाया गया था तब इसमें दुर्ग, राजनांदगांव, कवर्धा, मुगेली, धमतरी के कुछ हिस्से व सिमगा के कुछ हिस्से शामिल थे. तब इस जिले में परपोड़ी, गंडई, ठाकुरटोला, सिल्हाटी, बरबसपुर, सहसपुर लोहारा, गुण्डरदेही, खुज्जी, डौडीलोहारा, अम्बागढ़ चौकी, पानाबरस, कोरचा व औंधी जमीदारियां शामिल थी. इस प्रकार से तब एक बहुत बड़ा भू भाग दुर्ग जिले में शामिल था.


दुर्ग को सन् 1906 में ही नगर पालिका बनाया गया जिसके पहले अध्यक्ष पं.द्वारिका प्रसाद तिवारी थे, 1 अप्रैल 1981 को इसे नगर पालिक निगम बनाया गया जिसके पहले महापौर सुच्चा सिंह ढ़िल्लो मनोनीत किए गए. दुर्ग जिले के वर्तमान जिलाधीश कार्यालय भवन का निर्माण सन् 1907 में हुआ उस समय के इस जिले के प्रथम जिलाधीश एस.एम.चिटनवीस थे. ..... ये सब कथा कहानी से ईब क्या होगा, संभाग बना है तो बनाने का श्रेय लेने के लिए चौक चौराहों पर बड़े बड़े होर्डिंग्स लग गए है, इतिहास गाथा तो वही कहेंगें ना.

संजीव तिवारी

मुकुन्द कौशल के छत्तीसगढ़ी उपन्यास 'केरवस' के विमोचन अवसर पर सरला शर्मा का आधार पाठ

उपन्यास कहानी का वृहत रूप है और जीवन की गाथा है. समाज, साहित्य, संस्कृति और समय ये चार आधार स्तंभ होते हैं उपन्यास के. छत्तीसगढ़ी उपन्यास भी इससे अछूता या अलग नहीं है. अब तक लगभग 28 उपन्यासों का प्रकाशन हो चुका है, निश्चित ही उनमें से कुछ उपन्यास छोटे, मंझोले, आकार में छोटे हैं वो बाद की बात है. अभी हम शुरू करते हैं अपनी बात हीरू की कहिनी से, हीरू की कहिनी के बाद एक लम्बा अंतराल रहा और तब 1969 में दियना के अंजोर श्री शिवशंकर शुक्ल जी का उपन्यास आया और उसके बाद एक और उपन्यास आया चंदा अमरित बरसाईस जिसके लेखक हैं, लखन लाल गुप्त. इस बीच और भी उपन्यास आते रहे परन्तु इन दोनों उपन्यासों नें छत्तीसगढ़ी उपन्यासों में मार्गदर्शन का कार्य किया और फिर उपन्यास की यात्रा चलती रही. हम देखते हैं कि इस यात्रा में से घर के लाज से लेकर समय के बलिहारी तक चार उपन्यास प्रकाशित होकर आए है, क्योंकि ये चारों उपन्यास एक स्वप्नदृष्टा देशप्रेमी समाज सुधारक केयूर भूषण के स्वप्न भंग के दस्तावेज हैं. इसके बाद उपन्यास की दुनिया में डॉ.परदेशीराम वर्मा का उपन्यास आवा आया. आवा में गुरू घासीदास और महात्मा गांधी के दर्शन के समुचित सटीक विश्लेषण के साथ ही साथ बदलते हुए घटनाओं का देश परिवेश का सफलतापूर्वक चित्रण इस उपन्यास में किया गया है. आवा 2003 में रविशंकर विश्वविद्यालय के एम ए हिन्दी पूर्व के पाठ्यक्रम में रखा गया.

स्वतंत्र भारत के साथ साथ उसके विकास योजनाओं के और बदलते राजनैतिक परिवेश, सर्वशिक्षा अभियान उन्नत कृषि योजनायें, आदि के साथ साथ प्राचीन मूल्यों परम्पराओं संयुक्त परिवार स्नेह सौहाद्र को लेकर जो उपन्यास आपके हाथो में है उस उपन्यास का नाम है माटी के मितान, सही अर्थों में यह माटी का मितान है. इसमें पाचीन सांस्कृतिक केन्द्र रतनपुर, मल्हार की गाथा है तो इतर प्रांतों से आए हुए देवार, डंगचघहा, सबरिया आदि जातियों का आगमन उनका निवास उनका सामान्जस्य छत्तीसगढ़िया संस्कृति में आपको इस उपन्यास में मिलेगा मल्हार, रतनपुर की पुरातात्विक, सांस्कृतिक विशेषता भी वर्णिंत है. यह उपन्यास के चारों आधार स्तंभों में सुदृढता पूर्वक टिका हुआ है, इस उपन्यास की लेखिका हैं सरला शर्मा.

उपन्यास की यात्रा चलती रही और अभी कामेश्वर पाण्डेय का उपन्यास तुहर जाए ले गियां पाठको तक पहुचा, इस उपन्यास की भाषा को गुरतुर बोली भाखा कहने को विवश होना पड़ता है. और इस उपन्यास में खनिज संपदा का नैतिक अनैतिक दोहन, भूमि अधिग्रहण, कृषि योग्य भूमियों का कारखानों में समाते जाना और औद्यौगीकरण की विभीषिका झेलता हुआ किसान, तेजी से बदलते सामाजिक मानदंडों के साथ साथ भूमि अधिग्रहण के मुआवजे की रकम पाने के लिए दर दर भटकता किसान अथवा भूमि अधिग्रहण के बदले नौकरी की आस में निर्धारित आयु सीमा को पार करता हुआ युवक, निराशा के अंधेरे में खोने लगा है. धान के कटोरे छत्तीसगढ़ के पर्यावरण पर भी कामेश्वर पाण्डेय जी नें अपनी लेखनी चलाइ है और यह उपन्यास तुंहर जाए ले गिंया छत्तीसगढ़ी उपन्यासों में अपना एक स्थान निश्चत रूप से रखता है.

विद्वतजन आज जिस उपन्यास का विमोचन हुआ है उसके लेखक हैं लब्ध प्रतिष्ठि साहित्यकार श्री मुकुन्द कौशल. वे परिचय के मोहताज नहीं हैं क्यों, क्योंकि उनकी सारस्वत साधना विगत पचास वर्षों से जारी है. बहुत पहले एक लालटेन जली थी जो अब तक जल रही है आैर जलती रहेगी. छत्तीसगढ़ी काव्य में उन्होंनें गज़ल को एक नया मुकाम दिया है.

इस बार वे साहित्यानुरागियों के समक्ष केरवस उपन्यास लेकर उपस्थित हैं, आशा है आप सब उनकी पूर्व कृतियों की तरह ही इस उपन्यास का स्वागत करेंगें. कोस कोस पर बदले पानी और चार कोस पर बानी, इस बात का आशय आप सब लोग जानते ही हैं. और सब मानते भी हैं. इसी परिपेछ्य में मैं विनम्रतापूर्वक आप लोगों से कहना चाहूंगी कि छत्तीसगढ़ में कालिख अथवा धुये की कालिमा को कहीं केरवछ कहते हैं और कहीं कहीं केरवंस कहा जाता है. अभी तक छत्तीसगढ़ी में प्रकाशित उपन्यासों को ध्यान से पढ़ने पर यह बात स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि हिन्दी गद्य के विधाओं को छत्तीसगढ़ी में भी ज्यों का त्यों अपनाया गया है. मेरा इशारा है कि उपन्यास के तत्व हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान है, इस दृष्टि से केरवस को देखते हैं, सबसे पहले हमारा ध्यान आकर्षित होता है संकलन त्रय की ओर,  गांव के ग्रामीण संस्कृति पर विकास धारा का प्रभाव, वर्णित घटनायें काल्पनिक नहीं लगती. जब इस उपन्यास को पढेंगें तो पायेंगें कि इसका 80 प्रतिशत घटनायें सत्य हैं, मात्र 20 प्रतिशत कल्पना है, यह इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत है. इसके मध्य है नवनिर्माण की समग्र प्रक्रिया जिसका संदेश अनुगूंजित होता है व्यक्ति की इच्छाशक्ति अर्थात वयक्तिक इच्छाशक्ति अगर सामूहिक इच्छाशक्ति में दब्दील हो जावे परिवर्तित हो जावे तो वो जो उद्देश्य है वह महत्वपूर्ण हो जाता है और तब असंभव शब्द बौना लगने लगता है. ये मध्य है केरवस का.

अब उपन्यास का उद्देश्य देखिए किसी भी गांव के विकास के लिए जागरूकता जरूरी है और वह भी किसान युवा और महिला. तीनों वर्गो में अगर जागरूकता समान रूप से आयेगी एक साथ आयेगी बर्शते प्रशासन का सहयोग मिलेगा, बेल छांनी में तभी चढ़ेगी. आधुनिक क्रातिकारी विचारों के साथ अपनी सांस्कृतिक परम्परा और रीति रिवाजों की रक्षा करते हुए जो विकास किया जाता है सच कहें तो संपूर्ण विकास उसी को कहते हैं. मानवीय मूल्यों की अवहेलना करके न समाज, न व्यक्ति और ना ही स्थान किसी भी प्रकार की उन्नति कर सकता है ना कर पायेगा. सत्ताधारी वर्ग का सहयोग और आर्थिक अवलंबन यदि मिल जाए तो छत्तीसगढ़ के गांव समूचे देश के लिए प्रगतिशील गांवों के मिसाल बन जायेंगें. यह कहते हैं मुकुन्द कौशल अपने उपन्यास केरवस के माध्यम से.

अगला तत्व है कथोपकथन, संक्षिप्त, सारयुक्त, सहज भाषा में कथोपकथन किसी भी कथानक को आगे बढ़ाने में विशेष भूमिका निभाते हैं तो दूसरी विशेषता केरवस उपन्यास के श्रृंगार युक्त कथोपकथन भी गरिमामय है. अंतरंग कथोपकथनों में भी कहीं किसी भी जगह मर्यादा का उलंघन नहीं मिलता. यह किसी उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता होती है. कि वह मर्यादा में रह कर श्रृंगार को सिर्फ इशारे से कह दे. छत्तीसगढ़ी भाषा के शब्दों को प्रोत्साहन देने वाले कथोपकथन लेखक के भाषा प्रेम की दुंदुभी बजाते दिखाई देते हैं. किसी भी कृति का कथोपकथन पात्रों के द्वारा हम तक पहुंचता है तो वह अविश्मरणीय हो जाता है. उसमें यह मैदानी इलाके की भाषा है, या उपर राज की भाषा है या खाल्हे राज की भाषा है या उपर नीचे खाल्हे का भेद मिट जाता है. और तब हम कहते हैं कि वो भाषा संवेदनाओं का अनुभूतियों का सिर्फ माध्यम नहीं है. और यह विशेषता हमको कौशल जी की भाषा में मिलती है.

मित्रों किसी भी कृति का मेरूदण्ड होती है उसकी भाषा, यहां भी व्यतिक्रम नहीं हुआ है, लेखक मुकुन्द कौशल उपन्यास की भाषा के प्रति सजग हैं. तो पात्रानुसार भाषा का प्रयोग उनकी निजी विशेषता है. लेकिन प्रयुक्त भाषा रायपुर दुर्ग राजनांदगांव में व्यवहरित छत्तीसगढ़ी है, लेखक नें माना है कि भाषा छत्तीसगढ़िया प्रवृत्ति और प्रकृति का प्रतिनिधित्व करती है. इसीलिए कौशल जी नें गांव के साधारण किसान, सुखीराम भजनहा. सामान्य से किसान के द्वारा छत्तीसगढ़ी की प्रसिद्ध गीत की पंक्तियां गवाइ है, वो पंक्तियां जो आपको सत्तर के दसक में लेजायेंगी. 'मोर भाखा संग दया मया के सुघ्घर हवय मिलाप रे अइसन छत्तीसगढ़िया भाखा कउनो संग झन नाप रे'. यह स्मरणीय है. एक बात और है कि यही वह गीत है जो युवक विशाल का हृदय परिवर्तन करता है और वो प्रतिज्ञा करता है कि वह चिट्ठी भी लिखेगा तो छत्तीसगढ़ी में लिखेगा. अन्यान्य गीतों का उद्धरण दिया गया है और तब ऐसा लगता है कि इन गीतों नें उपन्यास को नगीनों से जड़ दिया है. याद आता है, आप लोगों को भी याद आता होगा खासकर यह अगस्त का महीना है कि बंकिम चंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास आनंद मठ में एक गीत गाया गया था वंदेमातरम. वो वंदेमातरम जो नाभी से ब्रम्हताल की यात्रा कर नाद ब्रम्ह का स्वरूप ग्रहणकर ता है और आज हमारा वो राष्ट्र गीत है. किसी उपन्यास में किसी विशेष गीत को जागरण गीत के द्वारा जागरण गीत बना देना है.

अभी एक नये दिशा की ओर आपको लिए चलते हैं उपन्यास के पात्र एवं उनका चरित्र चित्रण, तो पात्रों के चरित्र चित्रण में हम यह पाते हैं कि उनके पास समस्यायें हैं, पर उनके पास समाधान भी हैं इसीलिये तो एक अंधियारपुर नाम का गांव आज उजियारपुर के नाम से जाना जाता है. यही तो कौशल जी के पात्रों की विशेषता है. उनका प्रमुख पात्र है किसान. बहुत सारे करीब करीब दो दर्जन के आसपास पात्र हैं इसमें परन्तु समस्याओं का समाधान इतने ही से तो नहीं हो गया. कभी अकाल पनिहा तो कभी सूखा, क्या करें किसान तब समाधान खोजा गया क्या, अतिरिक्त आमदनी के लिए सब्जी भाजी की खेती की जाए, फूलों की खेती की जाए अतिरिक्त आमदनी होगी घर खुशहाल होगा. जैसे ही यह बात ध्यान में आई तो एक किसान जोर से गा उठा 'धर ले रे कुदारी गा किसान आज डिपरा ला खन के डबरा पाट देबो रे'. और जब डिपरा को खन के डबरा पाट दिये तो उस डबरा में फूलों की महक आपको मिलने लगी . ध्यान दीजिये आजकल दुर्ग जिले के इधर उधर आसपास फूलों की कितनी खेती हो रही है, सब्जियॉं उग रही हैं.

मालगुजार इस उपन्यास का एक प्रमुख पात्र है, जो शोषक वर्ग का प्रतिनिधि है, सत्ता का हस्तांतरण वह नहीं चाहता. विकास की धारा से जुड़ने में उसकी हेठी होती है, मालगुजारी का दंभ और आतंक बरकरार रखने के लिए वह नैतिक और अनैतिक का भेद भूल जाता है. उपन्यास के अंत में यह दर्शाया गया है कि मालगुजार मरा नहीं है, आम उपन्यासों में आप यह पाते हैं कि जो विलन होता है वो मर जाता है, जेल चला जाता है आदि. कौशल जी कहते हैं, यही कौशल जी की कुशलता है कि उन्होंनें उस पात्र को मरने नहीं दिया. वो पात्र कहीं चला गया है, क्यूं. भावी पीढ़ी सर्तक रहो ये शोषक वर्ग का प्रतिनिधि ये सामंती प्रवृत्ति फिर वापस आ सकती है कभी भी किसी क्षण. और आपको उसका सामना करना पड़ेगा. क्यों क्योंकि भस्मासुर हो या रक्तबीज हर युग में रूप बदलकर आते रहे हैं आते रहेंगें.

चंदेल गुरूजी जैसे स्वप्नदृष्टा आज भी हैं जो समाज के लिए जीते हैं. उनकी शुभाकांक्षी दृष्टि अपने पराये से परे है ऐसे परिपक्व मानसिकता वाले पात्रों की आवश्यकता हमारे समाज को, हमारे छत्तीसगढ़ को आज भी है जो छत्तीसगढ़ की विकास की धारा को आगे बढाये. यहां का युवा वर्ग प्रगति करेगा आगे बढ़ेगा.

बिलसिया वो महिला पात्र है जिसके जन्म का इतिहास उसके धाय मां को भी नहीं मालूम परन्तु अपनी ममता बिखेरती वो पालनहारिणी धाय मां कब माता का रूप ग्रहण कर लेती है उसे खुद नहीं मालूम. बिलसिया के संवेदनाओं के चित्रण में लेखक को बड़ी सफलता मिली है. बड़ी अच्छी बात उन्होंने लिखी है कि आर्कषण प्रकृति प्रदत्त गुण है जिससे स्त्री और पुरूष समान रूप से प्रभावित होते हैं यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. किन्तु हाँ हम मर्यादा का उलंघन चाहे जिस पक्ष से हो वह कदाचार की संज्ञा से ही अभिहित होगा. केजइ दूसरी महिला पात्र है जिसे दैहिक भौतिक एश्वर्य की कोई लालसा नहीं है. वो परिस्थिति से समझौता करके जीना जानती है. चाहे वह मालगुजार का घर हो या सामान्य किसान का. इस पात्र के मनोविश्लेषण में लेखक को समुचित विस्तार देना था. क्योंकि इस पात्र के मनोविश्लेषण के विस्तार के साथ ही एक स्वस्थ सहज नैसर्गिक जीजिविषा को भाषा मिल जाती. थोड़ी सी ये कमी हमें अखरती है. उतश्रृंखलता को प्रश्रय ना तो केजई ने दिया है और ना ही सर ने, ना ही मोंगरा ने. संबंधों की पारदर्शिता का निर्वाह जिस पारदर्शिता के साथ यहां किया गया है वो आगे आने वाले उपन्यासकारों के लिए एक मिसाल कायम करेगा. ऐसा मुझे विश्वास है.

उपन्यास का उपसंहार बहुत आकर्षक है जो किसी भी रचना को पूर्णता के साथ साथ भव्यता भी प्रदान करता है. मुख्य केन्द्र तो चार ही हैं वंचित, वंचक, शोषित, शोषक, प्रकृति, पुरूष, संपन्न व विपन्न. वस्तुत: मानव समाज के विभाजन का मूल आधार भी यही है परन्तु कर्मप्रधान विश्व करि राखा. आज के सामाजिक आर्थिक उत्थान का मूलमंत्र हे, पुश्तैनी धंधो के दिन लद गए. आज कोई भी व्यक्ति अपनी रूचि और परिस्थिति के अनुसार आजीविका का संसाधन जुटाने लगा है. और यह परिवर्तन स्वागतेय है. विकास की गाथा तब तक अधूरी है जब तक आम आदमी की रोजी रोटी का बंदोबस्त ना हो जाए. और आम आदमी तथा श्रमिक वर्ग नें शिक्षा के महत्व को समझा है. और ना सिर्फ समझा है बल्कि शिक्षा को अपने रोजी रोटी जुटाने के साधन के रूप में अंगीकार कर लिया है. केरवस उपन्यास गावों को देश की विकास की मुख्य धारा से जोड़नें का एक नजरिया, एक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है. क्यों गांव ही क्यों, क्योंकि जब भी यह प्रश्न उठता है, इसका उत्तर मिलता है, 'अपना हिन्दुस्तान कहाँ, वो बसा हमारे गांवों में.' तो गांवो को ही विकास की धारा से जोड़ना आवश्यक है.

उपन्यास लेखक के रूप में मुकुन्द कौशल जी का अभिनंदन है, स्वागत है, आशा है साहित्य जगत में 'केरवस' को प्रतिष्ठापूर्ण स्थान मिलेगा. साहित्यकार की सारस्वत साधना अनवरत चलती रहे यह शुभकामना व्यक्त करती हूं.
धन्यवाद
सरला शर्मा

पुस्तक-समीक्षा: संघर्षाग्नि का ताप केरवस

छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य में उपन्‍यास लेखन की परम्‍परा नयी है, उंगलियों में गिने जा सकने वाले छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यासों की संख्‍या में अब धीरे धीरे वृद्धि हो रही है। पिछले दो तीन वर्षों में कुछ अच्‍छे पठनीय उपन्‍यास आये हैँ । इसी क्रम में अभी हाल ही में प्रकाशित छत्‍तीसगढ़ी, हिन्‍दी, उर्दू और गुजराती के स्‍थापित साहित्‍यकार मुकुन्‍द कौशल द्वारा लिखित छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास ‘केरवस’ भी प्रकाशित हुआ है। ‘केरवस’ सत्‍तर के दशक के छत्‍तीसगढ़ का चित्र प्रस्‍तुत करता है। ‘केरवस’ की कथा और काल उन परिस्थितियॉं को स्‍पष्‍ट करता है जिनके सहारे वर्तमान विकसित छत्‍तीसगढ़ का स्‍वरूप सामने आता है। विकासशील समय की अदृश्‍य छटपटाहट उपन्‍यास के पात्रों के चिंतन में जीवंत होती है। उपन्‍यास को पढ़ते हुए यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि यह उपन्‍यास लेखक का भोगा हुआ यथार्थ है। नवजागरण के उत्‍स का दस्‍तावेजीकरण करता यह उपन्‍यास सत्‍तर के दसक में उन्‍नति की ओर अग्रसर गॉंव की प्रसव पीड़ा की कहानी कहता है। अँधियारपुर से अँजोरपुर तक की यात्रा असल में सिर्फ छत्‍तीसगढ़ की ही नहीं अपितु गॉंवों के देश भारत की विकास यात्रा है। यह उभरते राज्‍य छत्‍तीसगढ़ के गॉंवों में आ रही वैचारिक क्रांति की कहानी है।

उपन्‍यास में शांत दिखते गॉंव अँधियारपुर में शोषण व अत्‍याचार से पीड़ितों की चीत्‍कारें दबी हुई हैँ , विरोध के स्‍वरों पर राख पड़ी हुई हैँ । सेवानिवृत चंदेल गुरूजी इसे वैचारिक हवा देते हैँ और नवजागरण का स्‍वप्‍न युवा पूरा करते हैँ । अलग अलग छोटी छोटी कहानियां की नदियॉं एक बड़ी नदी से मिलने के लिए साथ साथ चलती है और समग्र रूप से साथ मिलकर उपन्‍यास का रूप धरती है।

उपन्‍यास का कथानक अँजोरपुर के बड़े जलसे से आरंभ होता है जहॉं डीएसपी बिसाल साहू व उसकी पत्‍नी निर्मला गॉंव की ओर जीप से जा रहे हैँ । बिसाल साहू की यादों में उपन्‍यास आकार लेने लगता है। गॉंव के आयोजन में शामिल होने के लिए अन्‍य अधिकारियों के साथ ही अँधियारपुर निवासी स्‍टेनों फूलसिंह भी जा रहा है। वही जीप में बैठे अधिकारियों को अँधियारपुर से अँजोरपुर बनने का किस्‍सा बताता है। उपन्‍यास का कथानक वर्तमान और भूत के प्‍लेटफार्म को फलैशबैक रूप में प्रस्‍तुत करते हुए आगे बढ़ता है। अँधियारपुर के मालगुजार सोमसिंह, लालच में थुलथुल शरीर वाली कन्‍या केंवरा से अपने पुत्र मालिकराम का विवाह करवा देता है। मालिकराम रायपुर में वकालत की पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर गॉंव आकर रहने लगता है। गॉंव के गरीब किसानों को कर्ज देकर उनके जमीनों को अपने नाम कराने और शोषण व अत्‍याचार करने का उसका पारंपरिक कार्य आरंभ हो जाता है। मालिकराम सहकारी समितियों से कृषि कार्य के लिए खुद अपने नाम से एवं अपने कर्मचारियों के नाम से कर्ज लेता है पर उसे चुकाता नहीं। उसके दबदबे के कारण उससे कोई वसूली करने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाता। परेशान गॉंव में एसे ही किसी दिन एक समिति सेवक मोहन सोनी पहुँचता है और हिम्‍मत करके मालिकराम को समिति का मॉंग पत्र पकड़ा देता है। गॉंव में अदृश्‍य क्रांति का बिगुल उसी पल से फूँक दिया जाता है। समिति प्रबंधक के प्रयास से मालगुजार मालिकराम बैंक का कर्ज चुका देता है। सोनी बाबू समिति के लिए मेहनत करता है और कृषि विकास समिति को नया जीवन देता है। समिति सेवक जिसे गॉंव वाले बैंक बाबू या सोनी बाबू कहते हैँ वह परभू मंडल के घर में रहने लगता है। घर में केजई और उसकी बेटी मोंगरा भी रहते हैँ ।

गॉंव में अनेक कहानियॉं संग चलती हैं उनमें से कालीचरण की कहानी आकार लेती है। पत्‍नी की असमय मौत से विधुर हो गए कालीचरण नाई के छोटे बच्‍चे राधे को पालने का भार कालीचरण पर रहता है। कालीचरण मालिकराम जमीदार के घर में काम करता है इस कारण वह बच्‍चे की देखभाल नहीं कर पाता। एक दिन गॉंव के सब लोग उसके घर के सामने इकट्ठे हो जाते हें क्‍योंकि गॉंव वालों को खबर लगती है कि कालीचरण एक औरत को घर लेकर आया है। गॉंव वालों को कालीचरण बताता है कि वह दरभट्ठा के बस स्‍टैंड में होटल चलाने वाली चमेली यादव की बेटी है, चमेली को वह बस स्‍टैंड में ही मिली थी जब उस बच्‍ची को कोई वहॉं छोड़ दिया था। रूपवती बिलसिया अपने प्रेम व्‍यवहार से काली ठाकुर और उसके बच्‍चे का दिल जीत लेती है। गॉंव में उसके रूप यौवन की चर्चा रहती है वैसे ही उसके व्‍यवहार की भी चर्चा रहती है। कालीचरण के साथ ही बिलसिया भी मालिकराम के यहॉं काम करने जाने लगती है।

लेखक नें बिलसिया को मालगुजार मालिकराम के प्रति स्‍वयं ही आकर्षित होते हुए दिखाया है। यह बिलसिया जैसी रूपवती चिर नौयवना के हृदय में भविष्‍य के प्रति सुरक्षा के भाव को दर्शाता है। बिलसिया का अपने पति व मालिकराम के अतिरिक्‍त किसी अन्‍य के साथ दैहिक संबंधों का कोई उल्‍लेख उपन्‍यास में नहीं आता। मालिकराम और बिलसिया दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित रहते हैँ । मालगुजार को बिना दबाव के सहज ही बिलसिया की देह मिल जाता है। मालिकराम एक बिलसिया से ही संतुष्‍ट नहीं होता वह नित नये शिकार खोजता है इसी क्रम में वह बाड़े में काम करने वाले कासी की नवयौवना बेटी गोंदा का शिकार करता है। मालिकराम के कुत्सित प्रयासों से गोंदा को गर्भ ठहर जाता है। लेखक नें इस घटना को मालिकराम के चरित्र को प्रस्‍तुत करने के लिए बड़े रोचक ढ़ग से लिया है हालांकि गोंदा के गर्भ ठहरने पर मालिकराम की पत्‍नी का नारीगत विरोध के अतिरिक्‍त उपन्‍यास में आगे कोई प्रतिक्रया नहीं है। मालिकराम के द्वारा गॉंव की औरतों के शारिरिक शोषण के चित्र को स्‍पष्‍ट करने के लिए लेखक नें ‘खास खोली’ का चित्र उकेरा है जो मालिकराम के एशगाह को नित नये शोषण का साक्षी बनाती है। कथा के अंतिम पड़ाव पर इसी कुरिया में बिलसिया मालगुजार को अपनी देह सौंप कर अपने परिवार के प्रति निश्चिंत हो जाती है।

गॉंव में शहर से आई रमशीला देशमुख उर्फ रमा, स्‍कूल में शिक्षिका है वह स्‍वाभिमानी है व अपने कर्तव्‍यों के प्रति सजग है। मालिक राम चाहता है कि वह उसके द्वार पर हाजिरी लगाने आए किन्‍तु वह नहीं जाती। सुखीराम एक मेहनतकश किसान है जो अपनी पत्‍नी अमरबती और बेटी दुरपती के साथ गॉंव में रहता है। दुरपति गॉंव में ही पढ़ती है और शाम को सोनी बाबू के पास पढ़ने आती है। सुखीराम का एक बेटा है जो शहर में रह कर पढ़ाई कर रहा है, सुखीराम नें अपने बेटे कन्‍हैंया की पढ़ाई के लिए मालिकराम से कर्ज लिया है उसके लिए मालिकराम उसे बार बार तंग करता है। सुखीराम हाड़तोड़ मेहनत कर कुछ पैसे इकट्ठे करता है , उसके पास दुविधा है कि वह पैसों से बेटी के हाथ पीले करे या जमीदार का कर्ज लौटाये?

मनबोधी साहू किसान है और गॉंव में किराना एवं कपड़ा दुकान भी चलाता है, उसका बेटा बिसाल शहर से पढ़ कर गॉंव आता है। बिसाल और कन्‍हैया दोनों बचपन के दोस्‍त हैँ । बिसाल पढ़ाई के साथ ही संगीत में भी प्रवीण है, उसका गला अच्‍छा है। पड़ोस के गॉंव में एक बार रामायण गायन प्रतियोगिता आयोजित होती है जिसमें गॉंव वालों के साथ बिसाल भी भाग लेने जाता है। वहॉं उद् घोषिका निर्मला, उसे भा जाती है, दोनों परिवार की रजामंदी से उनका विवाह हो जाता है। सत्‍तर के दसक में छोटे से गॉंव में अपनी संस्‍कृति के प्रति प्रेम के बरक्‍स बच्‍चों को डॉक्‍टर इंजीनियर बनाने की होड़ को पीछे छोड़ती निर्मला नें संगीत में स्‍नातक किया है।

इधर नौकरी नहीं मिलने से कन्‍हैया गॉंव वापस आ जाता है। स्‍कूल शिक्षिका रमा से उसकी अंतरंगता बढ़ने लगती है। इस प्रेम के अंकुरण के साथ ही दमित शोषित समाज को मुख्‍यधारा में लाने का प्रयास दोनों के संयुक्‍त नेतृत्‍व से आरंभ हो जाता है। बिसाल एवं अन्‍य युवा इसमें सक्रिय योगदान करने जुट जाते हैँ ।

गॉंव में एक सेवानिवृत शिक्षक चंदेल भी रहते हैँ जो गॉंव में नवजागरण के स्‍वप्‍न सँजोए गॉंव वालों को जगाने के लिए निरंतर प्रयास करते रहते हैँ। वे समय समय पर गॉंव की उन्‍नति, मालगुजार के शोषण व अत्‍याचार से मुक्ति एवं पृथक छत्‍तीसगढ़ राज्‍य के लिए क्रांति करने को प्रेरित करते रहते हैँ । गॉंव में कन्‍हैया, बिसाल और रमा के आने से युवा लोगों का उत्‍साह बढ़ता है और वे चंदेल गुरूजी की बातों से प्रभावित होने लगते हैँ । युवाओं में विद्रोह की भावना प्रबल होने लगती है और मालगुजार इस विद्रोह को दबाने के लिए पुलिस से मदद पाने की जुगत भिड़ाता है, और एक नामी लठैत को घर में बुलवाता है।

गॉंव में दहशत फैलाने के उद्देश्‍य से मालिकराम लठैत के साथ घूमता है व अपने कर्ज में दिए गए पैसे की वसूली मार पीट कर करता है ऐसे ही दबावपूर्ण परिस्थितियों में एकदिन मालिकराम और गुंडों के द्वारा मारपीट करने से सुखीराम की मौत हो जाती है। कन्‍हैया के पिता की मौत से विद्रोह का शंखनाद हो जाता है। लेखक नें विद्रोह और उसके बाद की क्रमबद्धता को बहुत जल्‍द ही समेट दिया है कुछ ही पैराग्राफों के बाद जमीदार के घर में घुस आए युवक खाता बही और जबरदस्‍ती अंगूठा लगा लिए गए स्‍टैम्‍प पेपरों की होली जला देते हैँ और चुटकियों में रावण का अंत हो जाता है जैसे दशहरे में कृत्तिम रावण पल भर में जल जाता है।

ग्राम सेवक सोनी गॉंव में सांस्‍कृतिक चेतना जगाता है और अपने कर्तव्‍यों के उचित निर्वहन के साथ ही कृषि सहकारिता के विकास में अपना सक्रिय योगदान देता है। शहर से पढ़कर गॉंव आने वाला कन्‍हैया रमा से विवाह करके, गॉंव में ही बस जाता है और अपने गॉंव का सर्वांगीण विकास का सपना साकार करते हुए सरपंच चुना जाता है। गॉंव का अंधकार मिट जाता है और गॉंव में चारो ओर विकास, सुख व संतुष्टि का उजाला फैल जाता है। लेखक का प्रतिनायक उपन्‍यास के अंत में कहीं गायब हो जाता है, मरता नहीं। जैसे लेखक कहना चाह रहा हो कि शोषण और अत्‍याचार का अभी अंत नहीं हुआ है, उसे हमने अपने संयुक्‍त प्रयासों से दूर भले भगा दिया है वो फिर आयेगा रूप बदल कर, हमें सावधान रहना है।

मुकुन्‍द कौशल जी की विशेषता रही है कि, वे अपनी कविताओं में बहुत सहज और सरल रूप से पाठकों को तत्‍कालीन समाज की जटिलता से वाकिफ कराते है। इस उपन्‍यास में भी उनकी यह विशेषता कायम है, पात्रों का चयन, कथोपकथन, पात्रों के कार्य व्‍यवहार, घटनाक्रम का विवरण एवम् परिस्थितियों का चित्रण वे इस प्रकार करते हैँ कि उपन्‍यास के मूल संदेश के साथ छत्‍तीसगढ़ के ग्रामीण समाज को समझा जा सके। लेखक नें काली नाई की पत्‍नी बिलसिया के चरित्र के चित्रण में इसी प्रकार की विसंगतियों का चित्रण किया है, उपन्‍यास में उसे बिना मा बाप की अवैध संतान बताया है जिसे बस स्‍टैंड के होटल वाले पालते हैँ , लेखक नें उसकी खूबसूरती का भी बहुत सजीव चित्रण किया है, उसमें प्रेम दया के भाव कूटकूट कर भरे हैँ । कथा में वह अपने पति की पहली पत्‍नी के बेटे को उसी प्रकार स्‍नेह देती है जैसे वह उसका खुद का बेटा हो। वह अपने पति का ख्‍याल रखते हुए भी जमीदार को जीतने का ख्‍वाब रखती है और अपने रूप बल से उसे जीतती भी है। कथाक्रम में स्‍वयं की पत्‍नी और काली को, जमीदार मरवा देता है जिसे दुर्घटना का रूप दे दिया जाता है। बिलसिया अपने पति की मृत्‍यु के बावजूद जमीदार की सेज पर जाती है। लेखक नें उपन्‍यास में लिखा है - ‘बिलसिया ह आज अड़बड़ खुस हे, अउ काबर खुस नइ होही आज त ओकर मनौती अउ परन पूरा होवइया हे। अपन नवा रेसमइहा लुगरा ला बने डेरी खंधेला पहिर के चेहरा म चुपरिस पावडर, होठ म लगाइस लाली अउ गोड म रचाइस माहुर। अँगरी मन म नखपालिस रचा के पहिरिस तीनलड़िया हार। कान म झुमका अउ अँगरी म अरोइस मुँदरी। कपार म टिकली चटका के, सिंघोलिया ले चुटकी भर सेंदुर निकाल के भरिस अपन मॉंग, ते सुरता आगे राधे के ददा के।‘ यह दर्शाता है कि बिलसिया को अपने राधे की चिंता है, उपन्‍यास के अंत में लेखक नें राधे को सायकल में स्‍कूल जाते हुए दर्शाया है और बिलसिया को जमीदार के बाड़े में रहते हुए चित्रित किया है। सपाट अर्थों में इस वाकये को स्‍त्री स्‍वच्‍छंदता भले मान लिया जाए किन्‍तु उसके पीछे का गूढ़ार्थ नारी अस्मिता को भलीभांति स्‍थापित करता है। बिलसिया का द्वंद यह है कि मालिकराम उसके देह को छोड़ेगा नहीं और बिलसिया अपने पति और बच्‍चे को छोड़ेगी नहीं। इसका आसान सा हल मालिकराम के सम्‍मुख समर्पण के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं है।

लगभग तीन दर्जन पात्रों के साथ गुथे इस उपन्यास के अन्य पात्रों में बेरोजगारी का दंश झेलते कन्हैया, गॉंव में शिक्षा का लौ जलाती रमा, क्रांति का मशाल थामे शहर से पढ़कर गॉंव आने वाला बिसाल, सेवानिवृत प्रधानाध्यापक बदरी सिंह चंदेल, स्वामी भक्त और किंकर्तव्‍यविमूढ़ कालीचरण नाई, गॉंव में सहकारिता और विकास के ध्वज वाहक सोनी बाबू जैसे प्रमुख पात्रों नें उपन्यास में छत्तीसगढ़ की ग्रामीण जनता के असल चरित्र को व्यक्त किया है.

लेखक चंदैनी गोंदा, सोनहा बिहान एवं नवा बिहान जैसे छत्‍तीसगढ़ के भव्‍य व लोकप्रिय लोकनाट्य प्रस्‍तुतियों के गीतकार रहे हैँ । इन प्रस्‍तुतियों में वे पल पल साथ रहे हैँ इस कारण उन्‍हें पटकथा के गूढ़ तत्‍वों का ज्ञान है जिसको उन्‍होंनें उपन्‍यास में उतारा है। पढ़ते हुए ऐसे लगता है जैसे घटनायें ऑंखों के सामने घटित हो रही है, उपन्‍यास का कथोपकथन कानों में जीवंतता का एहसास कराता है। उपन्यासकार नें कथोपकथन के सहारे कथा को विस्तारित करते हुए सहज प्रचलित शब्दों का प्रयोग कर संवाद को प्रभावपूर्ण बनाया हैँ . एक संवाद में चंदेल गुरूजी गॉंव वालों के मन में ओज भरते हुए छत्तीसगढ़ की गौरव गाथा बहुत सहज ढ़ंग से कहते हैँ , जो पाठक के मन में भी माटी प्रेम का जज़बा भर देता है— ‘ये माटी अइसन’वइसन माटी नोहै रे बाबू हो, ये माटी बीर नरायन सिंह के, पं. सुन्‍दरलाल के, डाकुर प्यारेलाल सिंह अउ डॉ.खूबचंद बघेल के जनम देवईया महतारी ए। महानदी, अरपा, पैरी, खारून, इन्द्रावती अउ सिउनाथ असन छलछलावत नंदिया के कछार अउ फागुन, देवारी, हरेली, तीजा’पोरा असन हमर तिहार।‘ उपन्यास के नामकरण को स्पष्ट करता हुआ एक कथोपकथन उपन्यास में आता है जिसमें दुरपति और सहोद्रा बड़े दिनों के बाद मिलकर बातें कर रहे हैँ उनके बीच जो बातें हो रही है उसमें गूढ़ शब्दों का प्रयोग हो रहा है. शहर में व्याही सहोद्रा जब गॉंव में रहने वाली महिलाओं के जन जागरण में शामिल होने पर सवाल उठाती है तब दुरपति कहती है '... बटलोही के केरवस त धोवा जाथे बहिनी, फेर उही केंरवस कहूँ मन म जामे रहिगे तब कइसे करबे? लगही त लग जाए, फेर केंरवस ये बात के परमान रिही के इहॉं कभू आगी बरे रिहिस ...’ उपन्यासकार कितनी सहजता से अपने पात्र के मुख से दर्शन की बात कहलवाते हैँ . शोषण, अन्याय, अत्याचार की आग के विरूद्ध यदि संघर्ष करना है तो उसका रास्ता भी आग से ही होकर जाता है. संघर्ष करने वालों को इस आग से जलना भी है और जलन की निशानी को बरकरार भी रखना है क्योंकि यह निसानी इस बात को प्रमाणित करती है कि हमने अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष किया था. यह संदेश है उन सभी दमित और शोषित जन के लिए कि हमारे मन में लगा केरवस प्रमाण है, हमारे संघर्षशील प्रकृति का, चेतावनी है कि हमें कमजोर समझने की भूल मत करना.

लेखक की मूल विधा काव्‍य है, वे छत्‍तीसगढ़ के स्‍थापित जनकवि हैँ । गद्य की कसौटी को वे भली भंति समझते हैँ इसी कारण उन्‍होंनें इस उपन्‍यास में शब्‍दों का चयन और प्रयोग इस तरह से किया है कि संपूर्ण उपन्‍यास में काव्‍यात्‍मकता विद्यमान है। कथानक के घटनाक्रमों और बिम्‍बों का चित्रण लेखक इस प्रकार करते हैँ कि संपूर्ण उपन्‍यास एक लम्‍बी लोकगाथा सी लगती है जो काव्‍य तत्‍वों से भरपूर नजर आती है। छत्‍तीसगढ़ी के मैदानी स्‍वरूप में लिखी गई इस उपन्‍यास की भाषा बोधगम्‍य है। सहज रूप से गॉंवों में बोली जाने वाली भाषा का प्रयोग इस उपन्‍यास में हुआ है।

उपन्‍यास में प्रयुक्‍त कुछ शब्‍दों में ऐसे शब्‍द जिन्‍हें हम बोलचाल में अलग अलग करके प्रयोग करते हैँ उसे लेखक नें कई जगह युग्‍म रूप में प्रस्‍तुत किया है जो पठन प्रवाह को बाधित करता है। हो सकता है कि प्रदेश के ज्‍यादातर हिस्‍से में इस तरह के शब्‍द प्रयोग में आते हों। कुछ शब्‍दों का उदाहरण प्रस्‍तुत कर रहा हूं – बड़ेक्‍जन, सबोजिन, बिजरादीस, सिपचाके, लहुटगे, टूरामन, जवनहामन, गुथागै, लहुटके आदि। व्‍यवहार में हम अंतिम शब्‍द पर ज्‍यादा जोर डालते हैँ इस कारण अंतिम शब्‍दों को अलग कर देने से अंतिम शब्‍द पर जोर ज्‍यादा पड़ता है। लेखक ने उपन्‍यास में फड़तूसाई, बंहगरी जैसे कुछ नये शब्‍द भी गढ़े हैँ और व्‍यवहार में विलुप्‍त हो रहे शब्‍दों को संजोकर उन्‍हें प्रचलन में लाया है जैसे पंगपंगावत, पछौत, साहीं, कॉंता, मेढ़ा, बँधिया सिल्‍ली, कड़क’बुजुर, मेरखू आदि। उपन्‍यास में आए उल्‍लेखनीय वाक्‍यांशों की बानगी देखिए – उत्‍साह में कूदकर आकास छूने की बात को कहते हैँ ‘उदक के अगास अमर डारिस’। प्रकृति चित्रण में वे शब्‍द बिम्‍बों का सटीक संयोजन करते हैँ ‘मंझन के चघत घाम मेछराए लगिस’, ‘फागुन अवइया हे घाम ह मडि़या-मडि़या के रेंगत हे’, ‘सुरूज ह बुड़ती डहार अपन गोड़ लमा डारे रहै, सांझ ह घलो अपन लुगरा चारोकती फरिया दे रहिस ...’ आदि। बढ़ती उम्र में गरीब किशोरी के शारीरिक बदलाव को बड़ी चतुराई से शालीन शब्‍दों में कहते हैँ ‘बाढ़त टूरी के देंह बिजरादीस’ इसी तरह मालिकराम के दैहिक शोषण से गभर्वती हो गई किशोरी के गर्भ को प्रकट करने के लिए लेखक लिखते हैँ ‘तरी डाहर फूले पेट ह लगा दीस लिगरी’। इसी तरह मजाकिया लहजे में प्रतिनायक के चरित्र को स्‍पष्‍ट करते हुए लेखक लिखते हैँ ‘जब चालीस कुकुर मरथे त एक सूरा जनम धरथे अउ चालीस सूरा मरथे तब एक मालिकराम।‘ इसी तरह से संपूर्ण उपन्‍यास में हास परिहास, दुख सुख और घटनाक्रमों को लेखक नें बहुत सुन्‍दर ढ़ग से प्रस्‍तुत किया है।

इन संपूर्ण विशेषताओं के बावजूद उपन्‍यास में कुछ छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों का प्रयोग व्‍यवहारगत कारणों से खटकता है किन्‍तु अभी छत्‍तीसगढ़ी भाषा का मानकीकृत रूप सामने नहीं आया है इसलिए मानकीकृत रूप में इसे स्‍वीकरना आवश्‍यक प्रतीत होता है। इसी तरह उपन्‍यास के शीर्षक के संबंध में मेरी धारणा या स्‍वीकृति ‘केंरवछ’ रही है जबकि उपन्‍यासकार नें इसे ‘केरवस’ कहा है। उपन्‍यास में दो तीन स्‍थान पर इस शब्‍द का प्रयोग हुआ है, उसमें संभवत: दो बार ‘केंरवस’ लिखा है। लेखक छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों के प्रति सजग हैँ इस कारण किंचित असहमति के बावजूद हम इसे स्‍वीकार करते हैँ और ‘केरवस’ को मानकीकृत रूप में स्‍वीकारते हैँ ।

छत्तीसगढ़ी की औपन्यासिक दुनिया बहुत छोटी है किन्तु इसमें मुकुन्द कौशल का 'केरवस' एक सार्थक हस्तक्षेप है. यह निर्विवाद सत्य है कि प्रबुद्ध पाठकों के अनुशीलन एवं कमियों के प्रति ध्यानाकर्षण से ही किसी साहित्य का समग्र अवलोकन हो पाता है. लेखक नें जिस उद्देश्य और संदेश के लिए यह उपन्यास लिखा है उसका विश्लेषण आगे आने वाले दिनों में पाठक और आलोचक अपने अपने अनुसार से करेंगें। किन्तु इसमें भी कोई संदेह नहीं कि आगे यह उपन्यास छत्तीसगढ़ी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान प्रस्तुत करेगा. छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी से प्रेम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह उपन्यास अनिवार्यता की सीमा तक आवश्‍यक प्रतीत होता है।

शताक्षी प्रकाशन, रायपुर से प्रकाशित इस उपन्यास का कलेवर आकर्षक है. 112 पष्टों के इस हार्डबाउंड उपन्यास की कीमत 250 रूपया है.

संजीव तिवारी

पुस्तक-समीक्षा: मन की भावनाओं की सरल और सशक्त अभिव्यक्ति "उजास भरा मन का आंगन"

दरोगा जी
रोगा जी !
देश के
शक्ल में हाथी
बन्दूक के साथी
तोंदिल दरोगा जी
तुम भर दुबले न हुए

गुलामी के हुकुमबरदार
अंधे क़ानून के तरफदार
अफसर के सिपहसालार
तुम भर आदमी नही हुए

तुम्हारी सुरक्षा में
गुंडा खिलखिलाता है,
सत्तासीनो की जायज संतान
दरोगा जी, तुम भर नही बदले

दरोगा जी जिनसे हम-आप सभी परिचित हैं युगों से वैसे ही है और युगों तक वैसे ही रहेंगे। यही कारण है कि किसी भी आयु का पाठक जब इन पंक्तियों को पढता है तो उसे लगता है कि यह उसके समय के लिए लिखी गयी है। दरोगा जी कितने भी अत्याधुनिक हथियार से लैस हों कवि की कलम के आगे सारे अस्त्र-शस्त्र बेकार साबित होते हैं। कवि पीढीयों से ऐसे ही समाज की आवाज बनता रहा है।

अक्सर हम कवि को उसकी अकादमिक और साहित्यिक उपलब्धियों से जानने और मानने का प्रयास करते हैं पर कवि की सही पहचान उसकी रचना, उसकी कृति से होती है। आप उसकी कोई भी रचना कहीं से भी लेकर पढ़ें आप बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के सब कुछ जान जायेंगे उसके विषय में।

"उजास भरा मन का आंगन" पढने के बाद मेरी इस सोच को और बल मिला। वैभव प्रकाशन (मो. ०९४२५३-५८७४८) , रायपुर द्वारा वर्ष २००९ में प्रकाशित इस काव्य-संग्रह में श्री बबनप्रसाद मिश्र की २५ कविताएँ हैं। वे लिखते हैं

विभ्रम की वह घटा छँट रही
स्मृतियों की किरणे बिखरी
उजास भरा मन का आंगन है
बोलो, कितना पावन है

जब मन की भावनाएं उद्दाम वेग से निकलती हैं तो फिर वह भाषा और लेखन के जटिल नियमों को मानने से इनकार कर देती है। जो इस वेग को रोकने का तनिक भी प्रयास नही करते हैं वे ही इस संसार को ऐसा कुछ दे जाते हैं जो पीढीयों तक प्रेरणा देता रहता हैं ।

मिश्र जी की कविताओं में तुकबन्दी कम ही मिलती है । यहाँ कवि "दर्द हिन्दुस्तानी" की ये पंक्तियाँ याद आती हैं

कवि वही जो न पड़े
तुकबन्दी के फेर में
कवि वही जो न बैठे
अनावश्यक शब्दों के ढेर में

आजकल की कविताओं के विपरीत मिश्र जी की कविताएँ अनावश्यक शब्दों का ढेर नही है। बेहद सरल और आसानी से समझ आने वाली कवितायें है। वे लिखते हैं

कवि ने कवि-भाव से पूछा
कौन हो तुम
कवित्व मुस्कुराया और बोला
तुम्हारी कविता हूँ मैं

मिश्र जी एक नियमित कवि नही हैं जिनकी प्रतिदिन कविता की रचना करने की किसी तरह की व्यवसायिक मजबूरी हो। यही कारण है कि इस काव्य-संग्रह में उनके सारे जीवन का निचोड दिखता है।

देश भर के प्रबुद्ध साहित्यकारों ने इस काव्य-संग्रह की समीक्षा की है पर मुझे लगता है कि इस तरह के प्रकाशन केवल साहित्य बिरादरी के लिए सीमित नही है। यह आम जनता का साहित्य है इसलिए साहित्य की मुख्य विधा से न जुडे मुझ जैसे आम लोग भी इसकी समीक्षा करें। मैं श्री संजीव तिवारी जी का आभारी हूँ जिनके ख्यातिलब्ध ब्लॉग के माध्यम से आप इस समीक्षा को पढ़ पा रहे हैं।

अपनी लेखनी को विराम मैं मिश्र जी की इन पंक्तियों के साथ देना चाहूंगा।

वक्त है बुरा तो पहचान लो
जरा झुककर इसे गुजार लो
रह गए गर जड़ तक जमे हुए
अरे, फिर खड़े हो जाओगे तन कर

पंकज अवधिया

पुस्तक-समीक्षा : निराशा से भरे आधुनिक जीवन में आशा की जोत जगाती पुस्तक "अंतरवार्ता"

अपनी परछाई पर
दूसरों को चलने दो
प्रकाश की देन
सबके लिए होती है।

आज के भाग दौड़ के जीवन में रोजमर्रा की आपाधापी में अक्सर जीवन के सूत्र खोजने के लिए हम पाश्चात्य जगत के ख्यातिलब्ध विद्वानों की अमर वाणियों का सहारा खोजते हैं पर यह भूल जाते हैं कि जीवन की सफलता के सूत्र हमारे आस-पास बिखरे हैं। हमारे आस-पास ऐसी महान विभूतियों की उपस्थिति है जिनसे हम जीवन दर्शन का गूढ़ रहस्य सरल शब्दों में जानकर अपने जीवन को तनावों और उलझनों से दूर कर सकते हैं। इस आलेख के आरम्भ में आपने जो सशक्त अभिव्यक्ति का रसास्वादन किया ये किसी विदेशी विद्वान के विचार नही है। जनसेवा में दशकों से निस्वार्थ मन से जुटे डा. कृष्णमूर्ती जनस्वामी की यह अभिव्यक्ति है जो उन्होंने अपनी पुस्तक अन्तरवार्ता के माध्यम से हम सब के सामने रखी है।

माँ के बाद
सबसे सम्मानित वृद्ध होते हैं
इसलिए नही कि वे असहाय हैं या
उनकी अपेक्षा की पूर्ति तुमसे न हो पा रही हो। नही ।
उनमे तुम अपना ही भविष्य आंक कर देखो,
जिसके निर्माण में तुम अपनी उम्र झोंक दे रहे हो।

इस पुस्तक के विषय में ज्यादा कुछ अब तक नही लिखा गया है जो आश्चर्य उत्पन्न करता है। वर्ष २०१२ में प्रकाशित इस पुस्तक में सफल जीवन के ३५० सूत्र हैं जो जनस्वामी जी के दीर्घ जीवन अनुभव पर आधारित हैं। इस पुस्तक में जीवन के सभी पहलुओं के बारे में यथार्थ से जुड़े जीवन सूत्र हैं जो युवाओं से लेकर वृद्धों सभी के लिए उपयोगी हैं। इस पुस्तक के अंशों को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सकता है।

उपलब्धियों का उपभोग
लक्ष्य से विमुखता है
तुम जहाँ थे
वहीं पहुँच जाओगे।

जनस्वामी जी के ऐसे उदगार के सामने आज के मैनजेमेंट गुरु धूल चाटते प्रतीत होते हैं। कम शब्दों में वे मानो सारा जीवन दर्शन दे जाते हैं।

जिसके पास ज्ञान है, उसे सिर्फ
उचित समय पर ही, बोलना चाहिए
और उचित समय वह है, जब सब भ्रमित अज्ञानी
थक चुके होते हों, समाधान करना तब आसान होता है।

एक और जीवन सूत्र

जल्दी उठो,
थोड़ा अकेले रहो, अपनी हर बात को सोचो
मन के विकास पर मनन करो।
जिस मार्ग से आपका मन गुजरेगा वह स्वयं
व्यापक व चौड़ा तथा ज्यादा जनोपयोगी होता चलेगा।


यह पुस्तक हमेशा अपने पास रखने योग्य है। जाने कब मन निराशा की खाई में गोते लगाने लगे और हमारा जीवन मार्ग अवरुद्ध हो जाए।
जे. एफ. प्रकाशन, बूढापारा, रायपुर द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य है केवल १०० रूपये। अधिक जानकारी के लिए आप लेखक से उनके मोबाइल पर संपर्क कर सकते हैं ०९४२५५-०१९३५

मेरी बड़ी इच्छा है कि इस पुस्तक के कुछ अंशों को लेखक के स्वर में इस वेबसाईट के माध्यम से प्रस्तुत किया जाए।

भारतीय शास्‍त्रीय संगीत में छत्‍तीसगढ़ी बंदिशें

भारतीय शास्‍त्रीय संगीत के जानकारों का कहना है कि शास्‍त्रीय संगीत की बंदिशों में गाए जाने वाले अधिकतम गीत ब्रज के हैं, दूसरी भाषाओं की बंदिशें भारतीय शास्‍त्रीय रागों में बहुत कम देखी गई है। छत्‍तीसगढ़ी को भाषा के रूप में संवैधानिक दर्जा देनें के प्रयासों के बावजूद शास्‍त्रीय रागों में इस भाषा का अंशमात्र योगदान नहीं है। छत्‍तीसगढ़ी लोकगायन की परम्‍परा तो बहुत पुरानी है किन्‍तु शास्‍त्रीय गायन में छत्‍तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग अभी तक आरंभ नहीं हो पाया है। इस प्रयोग को सर्वप्रथम देश के बड़े संगीत मंचों में भिलाई के कृष्‍णा पाटिल नें आरंभ किया है। कृष्‍णा पाटिल भिलाई स्‍पात संयंत्र के कर्मचारी हैं एवं संगीत शिक्षक हैं। कृष्‍णा नें गुरू शिष्‍य परम्‍परा में शास्‍त्रीय गायन अपने गुरू से सीखा है(गुरू का नाम हम सुन नहीं पाये, ज्ञात होने पर अपडेट करेंगें) । वर्षों की लम्‍बी साधना, निरंतर रियाज, संगीत कार्यक्रमों में देश भर में प्रस्‍तुति, विभिन्‍न ख्‍यात संगीतज्ञों के साथ संगत देनें के बावजूद बेहद सहज व्‍यक्तित्‍व के धनी कृष्‍णा नें अपनी भाषा को शास्‍त्रीय रागों में बांधा है। उनका कहना है कि वे दुखी होते हैं जब लोग उन्‍हें कहते हें कि छत्‍तीसगढ़ी गीतों में फूहड़ता छा रही है और अब कर्णप्रिय गीतों का अभाव सा हो गया है। इसीलिए वे कहते हैं कि छत्‍तीसगढ़ में संगीतकारों और गीतकारों को अपनी भाषा के प्रति और संवेदशील होने की आवश्‍यकता है। छत्‍तीसगढ़ी गीतों के इस शास्‍त्रीय गायक कृष्‍णा पाटिल से हमारी मुलाकात सरला शर्मा जी के निवास पद्मनाभपुर, दुर्ग के आवास में हुई। विदित हो कि हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढ़ी में समान अधिकार से निरंतर साहित्‍य रचने वाली विदूषी लेखिका सरला शर्मा वरिष्‍ठ साहित्‍यकार स्‍व.पं.शेषनाथ शर्मा 'शील' जी की पुत्री हैं। सरला शर्मा के निवास में विगत 4 अगस्‍त को एक आत्‍मीय पारिवारिक गोष्‍ठी का आयोजन श्रीमती शशि दुबे की योरोप यात्रा का संस्‍मरण सुनने के लिए हुआ था।

शशि दुबे नें अपनी पंद्रह दिवसीय योरोप यात्रा का सजीव चित्रण किया। दर्शनीय स्‍थलों की विशेषताओं, यात्रा में रखी जाने वाली सावधानियों, यात्रा आयोजकों के द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं, स्‍थानीय निवासियों, प्राकृतिक वातावरण व परिस्थितियों का उन्‍होंनें सुन्‍दर चित्रण किया। उन्‍होंनें अपना संस्‍मरण लगभग पंद्रह-बीस पन्‍नों में लिख कर लाया था जिसे वे पढ़ कर सुना रहीं थी, बीच बीच में प्रश्‍नों का उत्‍तर भी दे रहीं थीं। उनके इस संस्‍मरण का प्रकाशन यदि किसी पत्र-पत्रिका में हो तो योरोप यात्रा में जाने वालों के लिए यह बहुत काम का होगा।

कार्यक्रम के अंतिम पड़ाव में कवि गोष्‍ठी का भी आयोजन किया गया जिसमें अर्चना पाण्‍डेय, डॉ.हंसा शुक्‍ला, डॉ.संजय दानी, प्रभा सरस, डॉ.नरेन्‍द्र देवांगन, विद्या गुप्‍ता, प्रदीप वर्मा, आशा झा, डॉ.निर्वाण तिवारी, दुर्गा पाठक, नरेश विश्‍वकर्मा, मुकुन्‍द कौशल और मैंनें भी अपनी कवितायें पढ़ी। कार्यक्रम में छत्‍तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्‍यक्ष पं.दानेश्‍वर शर्मा, सचिव पद्मश्री डॉ.सुरेन्‍द्र दुबे व डॉ.निरूपमा शर्मा भी उपस्थित थे।

कार्यक्रम में कृष्‍णा पटेल की संगीत प्रस्‍तुति के बाद डॉ.निर्वाण तिवारी नें रहस्‍योत्‍घाटन किया कि गोष्‍ठी में बैठे युगान्‍तर स्‍कूल के संगीत शिक्षक सुयोग पाठक भी अपनी संगीतमय प्रस्‍तुति थियेटर के माध्‍यम से जबलपुर के थियेटर ग्रुप के साथ देते रहते हैं, जिसमें वे गीतों व कविताओं को नाट्य रूप में संगी व दृश्‍य माध्‍यमों से प्रस्‍तुत करते हैं। उपस्थित लोगों नें सुयोग से अनुरोध किया तो सुयोग पाठक नें बीते दिनों कलकत्‍ता में हुए नाट्य महोत्‍सव का वाकया सुनाया जिसमें उनके ग्रुप को गुलज़ार के किसी एक गीत की नाट्य प्रस्‍तुति देनें को कहा गया। कार्यक्रम में गुलज़ार बतौर अतिथि उपस्थित रहने वाले थे, आयोजकों नें गुलज़ार के गीतों की एक संग्रह टीम को पकड़ाया जिसमें से लगभग प्रत्‍येक गाने फिल्‍माए जा चुके थे ऐसे में उनकी गीतों को मौलिकता के साथ पुन: संगीतबद्ध करना एक चुनौती थी किन्‍तु सुयोग और टीम नें प्रयास किया। चल छैंया छैया गीत को प्रस्‍तुत करने के बाद स्‍वयं गुलज़ार नें सुयोग की पीठ थपथपाई और आर्शिवाद दिया। सुयोग नें बिना किसी वाद्य संगीत के इस गीत को नये सुर में हमें सुनाया।

बात जिससे आरंभ किया था उसके संबंध में कुछ और बातें आपसे साझा करना चाहूंगा। कृष्‍णा पाटिल से परिचय कराते हुए कवि मुकुन्‍द कौशल नें बतलाया कि कृष्‍णा हारमोनियम के सर्वश्रेष्‍ठ वादक हैं। कृष्‍णा के द्वारा हारमोनियम में बजाए जाने वाले लहर की कोई सानी नहीं है। हारमोनियम का उल्‍लेख करते हुए कृष्‍णा नें कहा कि संगीत के शास्‍त्रीय गुरूओं का कहना है कि हारमोनियम शास्‍त्रीय गायन के लिए योग्‍य वाद्य नहीं है, यह हमारा पारंपरिक वाद्य नहीं है, यह फ्रांस से भारत में आया है। शास्‍त्रीय संगीत का असल आनंद तारों से बने हुए यंत्र से ही मिलता हैं। छत्‍तीसगढ़ी भाषा के शास्‍त्रीय संगीत पर संगत के संबंध में मुकुन्‍द कौशल नें बतलाया कि कुछ बरस पहले पं.गुणवंत व्‍यास के द्वारा इस पर प्रयास किये गए थे। उस समय छत्‍तीसगढ़ी के कुछ स्‍थापित कवियों के गीतों को शास्‍त्रीय रागों में सुरबद्ध करके 'गुरतुर गा ले गीत' नाम से एक एलबम निकाला गया था। इस एलबम नें यह सिद्ध कर दिया था कि छत्‍तीसगढ़ी बंदिशें शास्‍त्रीय संगीत में भी गायी जा सकती हैं।

कार्यक्रम के गायन को मैं अपने मोबाईल में रिकार्ड किया, जो सहीं ढंग से रिकार्ड नहीं हो पाया है, फिर भी पाठकों के लिए इसे मैं प्रस्‍तुत कर रहा हूँ :-

कृष्‍णा पाटिल : राग गुजरी तोड़ी - सरसती दाई तोर पॉंव परत हौँ



कृष्‍णा पाटिल : राग यमन - जय जय छत्‍तीसगढ़ दाई


कृष्‍णा पाटिल : राग.... - मन माते सहीँ लागत हे फागुन आगे रे


कृष्‍णा पाटिल : राग.... - मोर छत्‍तीसगढ़ महतारी के पँइयॉं लागँव


सुयोग पाठक : चल छंइयॉं छंइयॉं


मुकुन्‍द कौशल : गीत>


कार्यक्रम का चित्र प्रदीप वर्मा जी के कैमरे से लिया गया जिसका इंतजार है.

संजीव तिवारी

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