राजीव रंजन जी के उपन्यास का अंश - लौहंडीगुडा गोलीकांड पर आधारित

बस्‍तर हालात बत्‍तर, बदतर और  बदतर ! हॉं आप सही पढ़ रहे हैं, भारत के छोटे से राज्‍य छत्‍तीसगढ़ के संपूर्ण बस्‍तर क्षेत्र में अब बारूदों की गंध छाई है। विष्‍फोट और गोलियों की आवाजें आम है, घोटुल सूना है, धनकुल नि:शव्‍द है, करमा के मांदर की थापों में कुत्‍तों के रोने की आवाजें निकलती हैं। अनहोनी का नाद जैसे हर तरफ छाया है, ऐसा तो नहीं था यह .....। इतिहास के परतों को उधेड़ते हुए बस्‍तर के रूपहले परदे को मेरे सामने लाला जगदलपुरी, हीरालाल शुक्‍ल, निरंजन महावर, वेरियर एल्विन आदि नें तथ्‍यात्‍मक रूप से तो गुलशेर अहमद 'शानी' और मेहरून्निशा परवेज नें कथात्‍मक रूप में प्रस्‍तुत किया है। इसके अतिरिक्‍त बहुतों के हाट बस्‍तर पर बहुत कुछ लिखा जो कुछ याद है कुछ याद नहीं है। इंटरनेट के हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत में व्‍यथित बस्‍तर के दर्द को बांटते मेरे साथियों में राजीव रंजन जी का नाम अहम है। राजीव जी नें अपने ब्‍लॉग सफर राजीव रंजन प्रसाद में नक्‍सल मसले पर बेबाक लेखन किया है, राजीव जी  साहित्‍य शिल्‍पी  के संपादक हैं और बस्‍तरिहा हैं। सुदूर दिल्‍ली (वर्तमान में देहरादून) में भी बैठकर इनका दिल बस्‍तर के लिए धड़कता है, बस्‍तर के हर स्‍पंदन में इनका भावुक मन रोता है। बस्तर में जारी नक्सलवाद के समर्थकों के खिलाफ जब राजीव जी  हजार पच्यासीवें का बाप लिखते है तब उसमें इनका मुखर विरोध और बस्‍तर के प्रति इनका स्‍नेह शव्‍दों में प्रदर्शित होता है। राजीव जी “बस्तर का हूँ इस लिये चुप रहूँ” जैसे आलेख श्रंखला में इन्‍होंनें  नक्सलवाद और महाराज प्रबीर चंद भंजदेव की हत्या: थोडा आज, कुछ इतिहास व नक्सलवादी या उनके समर्थक - सुकारू के हत्यारे कौन? एवं बस्तर का हूँ इस लिये चुप रहूँ  जैसे संस्मरण के साथ ही बस्तर भारत का हिस्सा नहीं है? जैसा संवेदनशील आलेख लिखते है। कविताओं के अतिरिक्‍त बस्तर के आदिवासी महिलाओं के शोषण की दास्तां पर उनकी भावनाप्रद कहानी  ढीली गाँठ ब्‍लॉग जगत में काफी चर्चित रही है। इन्‍होंनें बस्‍तर में रूदाली रोते मानवाधिकार वादियों का भी स्‍पष्‍ट रूप से विरोध किया है और हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत में जहां भी बस्‍तर नक्‍सल मसले पर पोस्‍ट प्रकाशित हुई है, वहां नक्‍सलियों व नक्‍सल समर्थित मानवाधिकारवादियों के समर्थन पर अपना दमदार विरोध प्रकट किया है।
राजीव रंजन प्रसाद अपने परिचय में लिखते हैं कि इनको कविता विरासत में मिली है. इनके शैशवकाल में ही पिता का देहांत हो गया था. उनका मानना है कि पिता की लेखनी ही उनमें जीवंत है। इनका जन्म बिहार के सुलतानगंज में २७.०५.१९७२ में हुआ, किन्तु बचपन व प्रारंभिक शिक्षा छत्तीसगढ राज्य के अति पिछडे जिले बस्तर (बचेली-दंतेवाडा) में हुई. विद्यालय के दिनों में ही उन्होनें एक अनियतकालीन-अव्यावसायिक पत्रिका "प्रतिध्वनि" निकाली....ईप्टा से जुड कर उनकी नाटक के क्षेत्र में रुचि बढी और नाटक लेखन व निर्देशन उनके स्नातक काल से ही अभिरुचि व जीवन का हिस्सा बने. आकाशवाणी जगदलपुर से नियमित उनकी कवितायें प्रसारित होती रही थी तथा वे समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकशित भी हुए किन्तु अपनी रचनाओं को संकलित कर प्रकाशित करनें का प्रयास उन्होनें कभी नहीं किया. राजीव जी नें स्नात्कोत्तर की परीक्षा भोपाल से उत्तीर्ण की और उन दिनों वे भोपाल शहर की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भी सक्रिय हिस्सा लेते रहे. इन दिनों वे एक प्रमुख सरकारी उपक्रम "राष्ट्रीय जलविद्युत निगम" में सहा. प्रबंधक (पर्यावरण)के पद पर कार्यरत हैं. अभी उनका स्‍थानांतरण देहरादून हो गया है। राजीव जी लम्‍बे समय से अपने इस उपन्‍यास को पूरा करने में जुटे हैं, उनके पास साहित्‍य शिल्‍पी के निरंतर प्रकाशन का बहुत बड़ा दायित्‍व है। नौकरी और परिवार के बीच सामन्‍जस्‍य बिठाते हुए इन्‍होंनें बहुत मेहनत से बस्‍तर पर आधारित अपने पहले  उपन्‍यास को पूरा किया है, यह उपन्‍यास शीघ्र ही आने वाली है।
बस्‍तर के बारूदी हालात पर अपनी एक कविता में वे लिखते हैं - देखो बिखरी है भूख वहाँ, परती हैं खेत बारूद भरे/ हर लाश है मेरी, कत्ल हुई / मेरे ही नयना झरे झरे। इन्‍हें मलाल है कि रोजी रोटी नें इन्‍हें बस्‍तर से दूर कर दिया है किन्‍तु वे निरंतर स्‍वयं को बस्‍तर से अलग नहीं कर पाते, वे लिखते हैं - मैं अब हूँ दूर जंगल से, बहुत वह दौर भी बदला / मेरे साथी वो दंडक वन के, कुछ टीचर तो कुछ बाबू / मुझे मिलते हैं, जब जाता हूँ, बेहद गर्मजोशी से.. / वो यादें याद आती हैं, वो बैठक फिर सताती है / मगर जंगल न जानें की हिदायत दे दी जाती है / यहाँ अब शेर भालू कम हैं, बताया मुझको जाता है / कि भीतर हैं तमंचे, गोलियाँ, बम हैं, डराया मुझको जाता है / तुम्हारा दोस्त “सुकारू” पुलिस में हो गया था / मगर अब याद ज़िन्दा है...

प्रस्‍तुत है राजीव जी के उपन्‍यास का एक अंश

उपन्यास अंश - लौहंडीगुडा गोलीकांड पर आधारित
“हमारी आवाज कैसे नहीं सुनी जायेगी, ये अंग्रेज का राज नहीं है” भीड में से एक उत्तेजित ग्रामीण की आवाज थी। थाने पर लगातार भीड बढती जा रही थी और एसा प्रतीत होता था मानों गामीणों नें चारो ओर से थाने को घेर रखा हो। भीड से सौ मीटर की दूरी पर ही पुलिस जीप खडी थी जिसपर लाउडस्पीकर लगाया गया था। रह रह कर घोषणा की जा रही थी “सरकार द्वारा विजय चंद्र भंजदेव को बस्तर का महाराजा घोषित किया गया है, अब वे ही आप सब के महाराजा है”
“हमारे महाराजा प्रबीरचंद ही हमारे सरकार हैं हम और कोई सरकार नहीं जानते” एक युवक लगभग चीखते हुए बोला।
“महाराज प्रबीर चंद को आज यहाँ लाया जाना था? कहाँ हैं हमारे महाराज?”
लाउडस्पीकर से फिर घोषणा हुई “ पीछे हट जायें। भीड इक्ट्ठी करना गैर कानूनी है। सरकार द्वारा विजय चंद्र भंजदेव को बस्तर का महाराजा घोषित किया गया है, अब वे ही आप सब के महाराजा है”
“हमारा राजा सिर्फ हम तय कर सकते हैं”। भीड में से एक आवाज आयी। भीड लगातार बढती जा रही थी।
“राव साहब नें मुझसे कहा था कि आज महाराजा साहब को लौहण्डीगुडा लाया जायेगा। हम कुछ नहीं चाहते अपने महाराज का हाल जानना चाहते हैं” यह आवाज अजाम्बर की थी। लगभग बीस हजार आदिवासियों के हुजूम को चीरता हुआ वह एक नेता की तरह आगे आया।
“पीछे हटें, थाने की ओर भीड न लगाये। प्रबीर चंद्र भंजदेव इस समय नरसिंहपुर में हैं जो यहाँ से 800 मील दूर हैं उन्हे तत्काल यहाँ नहीं लाया जा सकता।“
”क्यों नहीं लाया जा सकता? बात हुई है हमसे। हमसे कलेक्टर साब नें खुद कहा था कि महाराज साब यहाँ मिलेंगे। विजय चंद्र को हम राजा नहीं मानते” अजाम्बर को अपनी बात करने के लिये लगभग चीखना पड रहा था। साथ ही साथ उसके दिमाग में किसी अनहोनी की आशंका भी घिरने लगी थी। भीड के लिये यहाँ कई समस्याये थीं। हिन्दी आधी अधूरी समझी जा रही थी और उसके अपने अपने मायने निकाल कर लोग उद्वेलित हो रहे थे। आदिवासियों को चीखते, सिर पटकते यहाँ तक कि दहाड मार कर रोते भी देखा जा सकता था। अपने शासक को अधिकार दिलाने की यह कोशिश भर नहीं थी, उनके प्रति अपर श्रद्धा का विशाल प्रदर्शन था।
भीड का अपना व्यवहार शास्त्र होता है। यह भीड आंदिलित नहीं उद्वेलित थी। इस भीड की कहीं आग लगाने की या तोड फोड करने की मंशा नहीं थी। यह भीड केवल अपने महाराजा प्रबीर चंद भंजदेव के लिये इकट्ठी हुई थी विशेष कर उनका कुशलक्षेम जानने। आदिमों की इस भीड के साथ उनकी परंपरा भी थी, बाजार का दिन होने के कारण युवक युवतियों का सामान्य दिन से अधिक साज सज्जा के साथ पहुँचना उतना ही स्वाभाविक था जितना टंगिया, फरसा, तीर-कमान और लाठी का इस हुजूम से साथ होना।
इस भीड की तकलीफ़ और उत्तेजना का बडा कारण विजयचंद भंजदेव का लौहण्डीगुडा थाने में उपस्थित होना भी था।
“सरकारी राजा हमें मान्य नहीं हैं” बार बार भीड से उठती इस आवाज से विजयचंद्र अपना संयम खो बैठते। आजाद भारत के इस अधिकार विहीन, केवल नाम के राजा की महत्वाकांक्षा ही थी कि वह अपने खिलाफ़ इस जनाक्रोश को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। भीड जिसे शांत कराने की चेष्टा वे करने में लगे थे वह उन्हे देखते ही उनकी ओर मुखातिब हो कर प्रतिवाद में उतारू हो जाती। इंस्पेक्टर जनरल पुलिस, पुलिस अधीक्षक, कलेक्टर, सरकार द्वारा नव-नियुक्त राजा विजयचंद्र भंजदेव के अतिरिक्त अनेकों उच्चाधिकारी लौहण्डीगुडा थाने के पास मौजूद थे। इन सभी के भीतर की बेचैनी चेहरे से ही पढी जा सकती थी विशेष कर विजय चंद भंजदेव रह रह कर टहलने लगते। आजाद भारत सरकार के द्वारा प्रदत्त इस अधिकारविहीन पद की प्राप्ति के साथ ही विजयचंद “महाराजा” हो जाने वाली प्रवृत्ति से ग्रसित हो उठे थे। उन्हे यकीन था कि बस्तर की भोली-भाली आवाम उन्हें अपने हृदय में मान्यता देगी।
बस्तर की रिआया भोली भाली अवश्य है किंतु उसे नादान समझने की भूल प्रशासन से हो गयी थी। जनता आजाद भारत में भी अब तक रिआया ही थी और उनके हृदय साम्राज्य के स्वामि थे प्रबीरचंद भंजदेव।
“साब! अंग्रेज लोग भी आप से बेहतर हमारी बात समझते थे। हमारी इच्छा के खिलाफ हमारा राजा कैसे हो सकता है? इस बार अजाम्बर सीधे कलेक्टर से मुखातिब था। इस प्रश्न के जवाब में खामोशी ही रही लेकिन विजयचंद्र का तमतमाया हुआ चेहरा देखा जा सकता था।
“आप लोग शांति बना कर रखें। आपके महाराजा विजचंद्र आप से बात करेंगे” एक उच्चाधिकारी संवाद बनाने की स्थिति देख आगे आये।
“विजयचंद्र हमारा राजा नहीं है” एक पैनी सी आवाज आयी और फिर शोर उमडने लगा। कई आदिवासी पीछे मुड कर अपने ही साथियों को थाने की ओर बढने से रोकने में भी लगे थे।
“आप हमारी एक उंगली तोड कर उसकी जगह पर दूसरी उंगली कैसे लगा सकते हो? महाराज के रहते विजय राजा नहीं बन सकते” अजाम्बर नें थोडी तल्खी दिखायी।
“क्या चाहते हो आप लोग” विजयचंद्र लगभग आक्रामक मुद्रा में आगे आया। इस आक्रामकता का कोई प्रभाव उस भीड पर नहीं था। बल्कि विजय चंद्र का ही कोई प्रभाव बस्तर की रिआया पर नहीं था। वह जानती थी, तो केवल अपने महाराजा प्रबीरचंद्र को जो इस समय नरसिंहपुर जेल में कैद कर लिये गये थे। माहौल उग्र तो नहीं कहा जा सकता था किंतु पूरी तरह शांत भी नहीं। रह रह कर गूंजता स्वर “दंतेश्वरी माई की जय” दहशत भरता था।
यह सब कुछ अचानक आरंभ नहीं हुआ था। प्रवीरचंद की गिरफ्तारी के साथ ही नागरिक स्वत: प्रेरित स्थान स्थान पर एकत्रित होने लगे थे। सिरिस गुडा की देवगुडी में तथा बड़ांजी में बडी बडी सभायें हुई थी जिसमें हजारों आदिवासियों ने हिस्सा लिया था। कलेक्टर आर. एस. राव के हवाले से खबर थी कि महाराज प्रबीरचंद 31 मार्च को लौहण्डीगुडा लाये जायेंगे। बडांजी की सभा को संबोधित करते हुए अजाम्बर नें बेनियापाल मैदान में सब को एकत्रित होने की गुजारिश की थी। बस्तर के आदिवासी समुदाय से अधिक जागरुक कौम कम ही दृष्टिगोचर होगी; यह आह्वाहन फैलता गया जैसे जंगल की आग फैल जाती है। और आज यह दावानल बन कर प्रशासन को चुनौती देने तत्पर थी कि हमारे कौन तुम? जंगल हमारा, जमीन हमारी, पानी हमारा, पंछी हमारे और राजा भी हमारा ही होगा। अगर आजादी है तो हम भी आजाद हैं। अगर लोकतंत्र है तो शासक भी हमारा ही हो फिर किस अधिकार से विजयचंद्र?
चित्रकोट की ओर आने वाली सडक एक दिन पहले ही किसी गडबडी या विरोध की आशंका से बंद कर दी गयी थी। प्रसाशन नें भीड न जुटने देने के यथासंभव प्रयत्न किये थे लेकिन कारवाँ कब रुका है, धुन को कौन हरा सका है? जगह जगह घोषणाये भी होती रहीं लेकिन शोर में या तो उन्हे सुनना असंभव था या हिन्दी अधिकांश के लिये समझना मुश्किल। विभिन्न दिशाओं से उमडता जन सैलान और बहुत से समूहों में जोश भरती मांदर की थाप सुबह से ही बेनियापाल के मैदान में जुटने लगी थी। बाजार भी लगा और सल्फी भी साधी गयी लेकिन हर पल प्रतीक्षा कि महाराज लाये जा रहे होंगे। महाराज की तबीयत ठीक नहीं है। उन्हे यातनायें दी जा रही हैं। जितने मुँह उतनी ही बातें।
एसा भी नहीं था कि विजयचंद्र को समर्थन नहीं मिला। प्रशासन तो उनके साथ था ही, कुछ जगहों पर कोशिश भी हुई कि माहौल सरकारी राजा के पक्ष में बनाया जाये। “सरकारी राजा” यह संबोधन आम हो गया था और वितृष्णा से आदिवासियों द्वारा लिया जाता रहा। विजयचंद्र के पक्ष में जो इक्कादुक्का सभायें हुई भी लेकिन विरोध वहाँ भी रहा। आदिवासियों नें एसे आयोजनों के खिलाफ न केवल मोर्चा खोला बल्कि आयोजकों को दंडित करने को भी तत्पर हो गये थे। जगदलपुर के पास ही गाँव नारायण पाल में एसी ही एक सभा सूर्यपाल तिवारी नें भी आयोजित की थी। सिर मुडाते ही ओले पड गये। यह बस्तर के महाराज के पतन का समारोह बोहरानी कहा जा रहा था। हुजूम उमड पडा, पंडाल उखाड फेंके गये और आदिम युवक सूर्यपाल तिवारी को घर घर तलाश कर रहे थे। महाराज प्रवीरचंद का पतन एक कार्यक्रम से और दो चार घोषणाओं से हो पाता तो फिर बात क्या थी? सूर्यपाल तिवारी का ही पतन हो गया। सर पर पाँव रख कर वे कहाँ नदारद हुए कोई नहीं जान सका।
राजा का पद ही समाप्त कर दिया जाता तो यहाँ एक सोच हो सकती थी लेकिन नये राष्ट्र में नयी नीति नें बहुत जल्द राज करना सीख लिया था। अकर्मण्य और अयोग्य व्यक्ति बस्तर में तभी वास्तव में सत्तासीन हो सकते हैं जब योग्य विकल्प ही न रहे अर्थात प्रबीर को कुचल दिया जाना आवश्यक था। प्रबीर एक व्यक्ति नहीं एक सोच थे और उन्हे कुचलने के लिये निश्चित ही बहुत सी राजनीतिक सोच नें गटबंधन कर लिया था। कितनी जल्द अंग्रेजों की राजनीति से हिन्दोस्तान नें सबक ले लिया यह देखने लायक था। आजाद भारत की नियति को फिर भेडियों और गिद्धों नें लिखना आरंभ कर दिया, क्या इससे बडा दुर्भाग्य हो सकता था? विजयचंद को सरकार द्वारा राजा बनाये जाने की जो घोषणा की गयी थी वह साजिश तो थी लेकिन आजादी और स्वच्छंदता के बीच की बारीख रेखा जिसे अनुभवहीन राजनीति नहीं समझ सकी उसे भावावेश भरी जनता क्या समझती? यह भी एक सत्यता थी कि बस्तर की राजनीति न भोपाल से संभव थी न दिल्ली से। आजादी से पहले अंग्रेजों का शासन अवश्य रहा लेकिन क्षेत्रीय कानून और शासन जगदलपुर में ही बने और यहीं से संचालित होते रहे। कैसा दुर्भाग्य कि बस्तर के आदिम अब केवल समस्या की तरह देखे जा रहे थे जब कि समाधान यही था कि राजनीति की नयी मुख्यधारा यह समझती कि अनेकों संस्कृतियों से समृद्ध इस देश की जड को पानी चाहिये न कि पत्तियों को दवा का छिडकाव। बस्तर अपनी आवाज निरंतर खोता जा रहा था और शायद यही कुंठा आदिवासियों को अपनी आवाज प्रतीत होते प्रवीरचंद भंजदेव के पक्ष में लामबंद करती थी। 11 फरवरी 1961 को प्रबीर गिरफ्तार हुए थे और 12 फरवरी 1961 को उन्हे महाराजा की पदवी से अपदस्थ कर दिया गया था। प्रजातांत्रिक देश में राजा भी क्या राजा और उसपर आश्चर्यजनक यह कि सरकार ही राजा घोषित भी करे, तो कैसी लोक शाही थी यह? चुनाव नहीं हुए थे, लोकचर्चा नहीं की गयी थी, आदिवासी नेताओं को विश्वास में नहीं लिया गया था और केवल एक ‘सोच’ के दमन के लिये तुगलकी फरमान यह सोचने को अवश्य मजबूर करता था कि सही मायनों में अभी आजादी आयी नहीं है। अब सत्ता पर काले अंग्रेज काबिज हो गये हैं शेष क्या बदला है?
मानने वालों की कमी नहीं कि सत्ता बंदूख की गोली से निकलती है। जिस तेजी से प्रशासन का विरोध आरंभ हुआ उसी तीव्रता से दमन भी। तोकापाल में एक सभा चल रही थी। तीन चार सौ आदिवासियों की बैठक। चैतू बहुत जोश में भाषण दे रहा था।
“हमारे महाराज के खिलाफ साजिश हो रही है। हम इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते।“
पेडों की छाँव में तितर-बितर बैठे आदिवासी चिंतित नजर आ रहे थे। महाराजा के लिये कुछ न कर पाने की पीडा चैतू के भाषण में भी थी और उसे सुन रही भीड के चेहरे पर भी। अचानक ही पुलिस वैन मैदान से लगे मुख्य सडक पर रुकी। दन-दन कर सिपाही उतरने लगे और भीड पर टूट पडे जैसे उन्हे पता हो करना क्या है, किसी आदेश की आवश्यकता ही नहीं थी। चैतू के बाल पकड कर खींचता हुआ एक सिपाही वैन तक ले आया। अंदर बैठे अधिकारी से उसे मौन सहमति मिली हुई थी। केवल लट्ठ ही नहीं लात घूंसे और थप्पड भी। चैतू का कोई प्रतिरोध नहीं था वह मार खाता रहा, दर्द से बिलबिलाता रहा।...। अब चैतू सुन नहीं पाता।
बहरा तो प्रशासन भी हो गया था। उसका दमन जारी था, लेकिन इसके पीछे जुनूनी होती एकता की आहट उसे सुनायी नहीं पडी और स्थिति विस्फोटक हो गयी। चैतुओं की कोई कमी नहीं थी अपने महाराज के लिये जान देने को तत्पर हजारो मुरिया-माडिया इशारे भर में तैयार थे। पुलिसिया सितम जोरों पर था और इससे इंकलाब ही परवान चढने लगा। लॉरियों में भर भर आदिवासी थाने लाये जाते। जानवरों की तरह उन्हे पीटा जाता। कमोवेश पूरे बस्तर में एसा ही माहौल हो गया था। इसी माहौल से स्वप्रेरित हुआ हुजूम जिसनें लौहण्डीगुडा थाने को घेर रखा था बिगुल था कि अब खुला आंदोलन होगा। आर या पार।
धैर्य जवाब देने लगा था। विजयचंद्र का भी और उपस्थित प्रसाशनिक अधिकारियों का भी। सोचो तो लगता है जनरल डायर किस मानसिकता का रहा होगा जिसकी निहत्थों पर गोलियाँ चलवाते हुए आवाज न काँपी। यह मानसिकता क्या सत्ता के नशे से पनपती है? इस मानसिकता के पीछे क्या स्वयं को लोगों का भाग्य-विधाता समझने की खुशफ़हमी होती है? लेकिन यह मानसिकता बारह साल के हो चुके लोकतंत्र में भी? आश्चर्य तो यही था। प्रश्न तो उठता ही है कि कौन था इन आदिमों का माई-बाप - क्या प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू? क्या मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू? या कलेक्टर या फिर कमिश्नर या कि सरकार द्वारा घोषित महाराजा ऑफ बस्तर विजयचंद्र भंजदेव?
लाउडस्पीकर की अब उपयोगिता नहीं रह गयी थी। बीस हजार से अधिक की भीड को एक लाउडस्पीकर से संबोधित नहीं किया जा सकता था वह भी तब जब भीड में उत्तेजना भी हो; कई कई लोग एक साथ बोल रहे हों लेकिन सुनने को कोई तैयार न हो। कैसी अनूठी थी यह भीड। कई युवक तीर-कमान लादे थे तो कई फरसे और कुल्हाडी के साथ थे, पर ये सारे अस्त्र-शस्त्र केवल आभूषण भर ही रहे। यह भीड यदि असंयमित हो जाती तो मुट्ठी भर सिपाही उनका मुकाबला नहीं कर पाते। लेकिन “हमारे महाराज को उपस्थित करो” की एक सूत्रीय माँग के साथ खडी यह भीड किसी भी समय अराजक नहीं हुई थी। यहाँ तक कि जब जब उत्तेजना की लहर भी फैली तो आदिवासी नेताओं ने खुद भीड को पीछे धकेलने का काम भी किया। इन्हीं आदिवासी नेताओं में जोगा भी थे। पारापुर गाँव से आये जोगा को सामाजिक कार्यकर्ता कहना अधिक उचित होगा। जोगा जागरुक आदिवासी थे और अपनी राजनीतिक चेतना के लिये जाने भी जाते थे। भीड को नियंत्रित कर आदिवासी नेंता दल बना कर प्रशासनिक प्रतिनिधियों से मिलने अग्रसर हुए लेकिन तब तक एक भयंकर निर्णय ले लिया गया था। जोगा नें देखा कि अजाम्बर का हाँथ पकड कर उसे थाने के भीतर ले जाया जा रहा है, उसने महसूस किया कि सिपाही भीड को सुरक्षित दूरी से घेरने का यत्न कर रहे हैं, उसने पाया कि माहौल में उत्साह की फिर भी कोई कमी नहीं है, कहीं कोई डर नहीं है। जोगा को लग गया था कि जल्द ही भीड पर लाठी चलायी जायेगी और उन्हे तितर-बितर करने का प्रयास किया जायेगा। वह आगे आया और विजयचंद्र के सम्मुख आ खडा हुआ। जोगा अपनी बात कह देना चाहता था।
“महाराज के साथ तुम लोग क्या कर रहे हो?” जोगा नें यह प्रश्न विजयचंद्र से आँख मिला कर किया।
यह जोगा का अंतिम-वाक्य था। एक गोली उसका सिर खोलते हुए गुजर गयी। पीठ के बल जोगा जमीन पर गिरा, दो-एक बार जमीन पर पैर रगडे फिर शांत हो गया। एक पल की शांति के बाद हाहाकार मच गया। मोर्चे पर तैनात सिपाहियों नें अचानक गोली चलाना आरंभ कर दिया था। यह आजाद भारत में विरोध का बदला था। यह जनतंत्र की तानाशाही थी। भगदड मच गयी थी। औरते और बच्चे कुचले गये, बुजुर्ग चोटिल हो रहे थे, किसे परवाह? कुम्हली गाँव का भगतू कश्यप एकदम से भागा नहीं। शायद वह स्थिति का पूरा आँकलन नहीं कर सका था। जब तक समझता एक गोली उसके सीने के पार हो गयी थी।
बीस हजार की भीड को छटने में भी समय लगता, अनायास हुए इस हमले से अफरातफरी ही होनी थी और इसलिये चोटिल और घायलों की तादाद का अनुमान लगाना भी कठिन ही होगा। आंजर गाँव से आया आयतु अचानक हुई इस अराजकता में भी बिना संयम खोये मानों एक कोशिश कर लेना चाहता था। उसने गोली चलाते एक सिपाही की ओर हाँथ उठा कर रुकने का अनुरोध किया और रायफल उसकी ओर घूम गयी। निशाना लगा कर उसके गुप्तांग पर गोली मारी गयी थी।
गोली लगातार चल रही थी। अगर भीड को हटाना ही मक्सद था तो हवाई फायर या पैरों पर गोली मारने से भी स्थिति पर नियंत्रण पाया जा सकता था लेकिन गोलियाँ बरसती रहीं, लाशें बिछती रहीं। सोनधर, टांगरू, हडमा, अंतू, ठुरलू, रयतु, सुकदेव; हर मौत के साथ लौहण्डीगुडा का बेनियापाल मैदान खाली होता गया। घायलों की कराहों और लाशों को स्तब्ध नजरों से निहारता प्रसाशन अब अपनी करनी के निशान मिटाने में जुट गया था। “विजय चंद्र भंजदेव महाराजा ऑफ बस्तर” खामोशी खिलखिला कर हँस रही थी; आओ महाराज शासन करो यह लाशों की बस्ती तुम्हारी ही रियासत है।

अपनी अपनी संतुष्टि - कहानी

उसने टेबल से उठते हुए एक बड़ी पैग हलक में उतारी, प्लेट में कुछ शेष बच गए काजू के तुकडों को मुट्ठी में उठाते हुए बार से बाहर निकल गया। लडखडाते कदमों से बाहर खडे बाईक के इग्नीशन में चाबी डालते हुए वह ठिठक गया।
‘चाबी अंदर भूल गये क्या सर ? ‘ बाहर खडे रौबदार मूंछों वाले गार्ड नें उससे पूछा।
उसे पता था कि चाबी तो उसके हाथ में ही है, उसने गार्ड के प्रश्न का उत्तर दिये बगैर कमीज के उपरी जेब और पैंट के चारो जेबों को बारी बारी से टटोला, सब चीज अपने स्थान में था। उसने अपने सिर के पिछले भाग को खुजलाते हुए महसूस किया कि उसका दिमाग उसके खोपडी से गायब है। शायद वह टेबल में छूट गई है, उसने बाईक को पुन: साईड स्टैंड लगा कर खड़ी कर दिया और उससे उतर गया।
‘मैं देखता हूं सर !’ गार्ड बार के अंदर जाने को उद्धत हुआ।
’अरे .. क्या खाक देखोगे तुम........., चुप रहो! चाबी मेरे पास में ही है।‘ उसने चाबी व की रिंग को हिलाकर गार्ड को दिखलाते हुए कहा।
‘तो क्या भूल गए सर !’ गार्ड नें पुन: मुंह खोला, अब उसका दिमाग खराब हो गया और उसे याद आ गया कि खराब दिमाग तो उसके खोपडी में ही है। वह वापस लौटकर बाईक में बैठ गया और बाईक स्टार्ट कर फुर्र हो गया।
‘सर को आज ज्यादा चढ गया था लगता है।‘ मूंछे वाले गार्ड नें बार के गेट में सटे पानठेले वाले से कहा।
‘हॉं लगता है, आज उसने सिगरेट भी नहीं ली।‘ पानठेले वाले नें मायूसी से कहा। ’पिछले दो महीनों से आ रहे हैं ये साहब, जानते हो कहॉं काम करते हैं।‘ गार्ड नें पानठेले वाले से बातें बढाई। ’कोई सरकारी अफसर लगता है, क्लासिक सिगरेट पीता है।‘ पानठेले वाले नें सिगरेट से उसके औकात का अनुमान लगाते हुए कहा।
‘अरे वो वंदना स्पात में पर्सनल मनिजर है, सेठ का खास है, पूरे कारखाने में इसकी तूती बजती है, मालिक के बाद इसी की तो चलती है वहाँ।‘ गार्ड नें तम्बाखू मलते हुए कहा। ’ऐसा क्या, तो.... वो चउबे साहब येही हैं क्या ?’ पानठेले वाले नें मुंह में पान भरते हुए कहा। ’अरे हां, हॉं बिलकुल सही पहचाना तुमने। मेरे भानजे को गांव से बुला कर इन्हीं को बोलकर वहां उसकी नौकरी लगवाया था मैंनें‘ गार्ड नें खुश होते हुए कहा।
बार में आने जाने वालों की भीड बढ रही थी, पानठेले पर भी पान-सिगरेट लेने वाले खडे हो रहे थे पर गार्ड एवं पानठेले वाले की बातें जारी थी।
‘बहुत सज्जन आदमी हैं, कारखाने में बहुत मिहनत करता है बिचारा, सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक कारखाना, सरकारी आफिसों अउर बैंकन में दउडते भागते रहता है।‘
‘फिन एक बात बतायें..... साहब आजकल बहुत परेशान लग रहें हैं, हमारे भांजें नें बतलाया है कि साहब की मेहरारू घर छोड कर अपने माइके चली गई है दूई महीने से, तब से पी रहे हैं, पहले कभी दारू का छींटा भी नहीं लगाते थे।‘
‘दूनों के बीच में खटर-पटर बहुतै दिनों से चल रही थी ....’
अब गार्ड की बातें पानठेले वाले को कुछ बोर करने लगी थी और उसने बात को दूसरी ओर मोड दे दिया था, उसकी बातें वहीं समाप्त हो गई थी, कल तक के लिये जबतक वह पुन: रात को आफिस से लौटते हुए बार ना आ जाए।

उसने बाहर वाले मेन गेट को बाईक में चढे-चढे ही खोला और बाईक को चालू हालत में ही अंदर पोर्च में लाकर स्टैंड कर दिया। घर के अंदर के दरवाजे का ताला खोलकर सोफे पर आकर बैठ गया और मोजे खोलने लगा।
‘जल्दी मोजे खोलो, आलसी से मत बैठे रहो..... अभी एक घंटे नहाने में लगाओगे, भूख के मारे हमारा बुरा हाल है।‘
अपनी पत्नी की कर्कस वाणी को सुनकर उसका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ गया। वह बोलना चाहता था कि मैं भी तो सुबह नव बजे से खाकर गया हूं, मुझे भी तो भूख लग रही होगी, पर घर आकर चंद मिनट सोफे पर टेक नहीं लगा सकता .... और भी बहुत कुछ। उसे किताबों में पढी गई और फिल्मों मे देखी गई बातें याद आती है कि कैसे पति के काम से वापस घर आने पर पत्नियॉं आते ही मुस्कुराते हुए पानी का गिलास लेकर जब पति के हाथ में देतीं हैं तो उस पानी से शरीर की सारी तृष्णा और उस मुस्कान से दिन भर का सारा श्रम दूर चला जाता है। पर यहां ऐसा अपेक्षा करना एवं बोलना व्यर्थ था, यह लगभग रोज का नाटक था। नाहक रार को बढाना था इसलिये वह जल्दी-जल्दी पैंट शर्ट उतार कर टायलेट में घुस गया।
ठंडे पानी के सिर पर पडते ही उसे खयाल आया कि वह तो स्वप्न देख रहा था उसकी पत्नी तो दो महीने से इस घर में नहीं है। वह ठंडे पानी के शावर को और तेज चलाते हुए जोर जोर से हंसने लगा।
‘आज दारू कुछ ज्यादा चढ गई है लगता है ...’ वह अपने आप में बुदबुदाने लगा और मुस्कुराने लगा। मुस्कुराते हुए वह नहा कर निकला और झटपट खाना बनाने किचन में घुस गया, चार पराटे और दो आलू की सब्जी बनाकर चटकारे लेते हुए खाने लगा, उसे सचमुच में बडी जोर की भूख लगी थी। यह सब करते हुए उसे अब ग्यारह बज गए थे।
‘ओअमम’ वह संतुष्टि का डकार लेते हुए टीवी चालूकर बेड पर बैठ गया।
‘सब बकवास सीरियल हैं साले, चारित्रिक पतन और महानगरीय संस्कृति को बढावा दे रहे हैं, अच्छी खासी सांस्कारिक महिलाओं को बिगाड रहे है .......’ भद्दी गाली बकते हुए वह रिमोट से चैनल पे चैनल बदलने लगा। उसे याद आ गया कि कैसे वह अपनी पत्नी के हाथ से रिमोट हथियाता था और बटन दबाते हुए चैनल पे चैनल ऐसे बदलता था जैसे संपूर्ण विश्व का कन्ट्रोल उसके हाथ में है, जबकि वह जानता था कि उसके हाथ में तो उसके घर का भी कंट्रोल नहीं है। आंखें मूंद सी जाती है।
‘दिन भर घर में अकेले बैठे-बैठे पागल जैसे लगता है टीवी न देखें तो क्या करें, तुम्हे तो पिक्चर दिखाने और घुमाने फिराने की फुरसत ही नहीं।‘ और अगले ही पल पत्नी रिमोट अपने हाथ में ले लेती है। वह मुस्कुराते हुए अपने सिर को झटका देता है और उस खयाल को भगाता है, अभी तो रिमोट मेरे पास है, वह फिर टीवी स्क्रीन पर आंखें गडा लेता है। दयालदास को नारी विमर्श पर लेखन के कारण साहित्य पुरस्कार मिलने के समाचार पर उसकी रिमोट पर दबती उंगलिंया ठहर जाती है। समाचार चैनल पर देश के सर्वोच्‍च साहित्य पुरस्कार प्राप्त करने वाले दयालदास का इंटरव्यू चल रहा है।
टीवी पर नारी विमर्श पर चर्चा करते हुए दयालदास बेहद प्रभावशाली नजर आ रहे हैं। आंखों में आत्मविश्वास और नारियों के प्रति श्रद्धा की दलीले पेश करते हुए दयालदास के साथ उसकी प्रशंसक महिलायें मुस्कुराते हुए उंगलियों से वी का चिन्ह दिखा रहीं हैं। टीवी एंकर दयालदास के विशाल प्रशंसक समुदाय की दुहाई दे रहा है और दयालदास किसी चकलाघर से संतुष्ट होकर निकलते हुए से मुस्कुरा रहा है।
‘नहीं देखनी है मुझे इसकी दुष्ट मुस्कान को .........’ वह अपनी आंखें बंद कर करते हुए बुदबुदाता है।
‘पर आंखें बंद कर लेने से तो बेहतर है चैनल बदल लो !’ उसके अंदर से आवाज आती है। ’नहीं मैं टीवी ही बंद कर दिये देता हूं, इस कम्बख्त टीवी के कारण भी मेरी पत्नी से बीसियों बार लडाई हुई है और हमने महीनों एक घर में रहकर भी बेगानों से रहे हैं। ..... फोड देता हूं इस टीवी को ....।‘ वह फिर बुदबुदाता है।
वह टीवी बंद कर देता है और लाईट बुझा कर सोने का प्रयत्न करने लगता है। उसकी स्मृतियों में उसकी पत्नी छाने लगती है। कभी मुंह फुलाये हुए तो कभी प्यार से बाहें फैलाये हुए, बहुत सारे वाकये चलचित्र की मानिंद उसके जेहन में घुमडने लगते हैं।
कुल जमा दस साल के वैवाहिक जीवन में शुरूआती पांच साल बच्चे पैदा करने एवं सम्हालने, घर, मॉं-बाप बनाम सास-ससुर से एडजेस्ट करने व करवाने एवं दुनिया-दारी में बीत गया था और बाकी के पांच साल को आर्थिक तंगी के साथ शुरू हुए खटपट और मत भिन्नता नें बरबाद कर दिया था।
थोडे से पैसे के लिये जी तोड मेहनत करना उसे कतई रास नहीं आता था पर जब वह परिवार एवं अपने दोनों बेटों के भविष्य के संबंध में सोंचता था तो फिर हल में जुते बैल की तरह सामंजस्य से बढते जिन्दगी के हल को दूसरी ओर के हील-ढील के बावजूद खींचे जा रहा था।
इस बीच उसने नारी विमर्श की कई-कई किताबें, कहानिंया व संग्रह घोंट कर पी गया था पर वह अपनी पत्नी के मन के थाह को नहीं जान पाया था। अपने एक सीनियर महिला मित्र जो साइकोलाजिस्ट भी है से उसने इस संबंध में लम्बी चर्चा भी की थी और उसके सुझावों को अक्षरश: अमल में भी लाया था पर सब बेकार था।
’आखिर चाहती क्या है ...., क्या भरा है इसके मन में ......’ वह आंखें बंद किये हुए ही बुदबुदाता है। नारी, नारी, नारी !, क्या उसकी ही भावनायें सर्वोपरि है, पुरूष की भावनाओं और समर्पण का कोई मान नहीं, क्या उसे अपने परम्परागत पुरूष समाज के संस्कार के कारण समय बे समय प्रकट हो गए भावों को भी मन के अतल गहराईयों में दफ्न करने का दर्द नहीं सालता होगा।
वह जानता था यह स्वप्न उसके स्वयं का है इस कारण वह इसमें अपनी बातें दृढता से रख सकता है और अपने पक्षों को सुदृढ कर अपनी पत्नी को दोष देकर संतुष्ट होकर सो जाता है।
सुबह दूध वाले के बेल से उसकी आंखें खुलती है, वह अनमने से दरवाजा खोलता है दूध का डिब्बा अंदर लेता है और दरवाजा पुन: बंद कर बेड पर लेट जाता है। उसके मन में रात की जीत मुस्कुरा रही है। कुछ देर ऐसे ही लेटे रहने के बाद उसे आभास होता है कि उसकी पत्नी उसके पैर के अंगूठे को हौले से खींचते हुए कह रही है ‘उठो ना जी ! चाय लाई हूं’ वह उठ जाता है और वहां चाय और पत्नी दोनों को ना पाकर किचन में चाय बनाने चला जाता है। चाय के कप के साथ दरवाजे में पडे अखबारों को समेटकर बेडरूम तक आता है और बेड में बैठकर चाय के चुस्कियों के साथ अखबारों में खो जाता है। आंखों के सामने से शव्द ओझल हो जाते हैं और उसे नजर आने लगता है उसकी पत्नी जो उसके साथ ही बेड में बैठकर अखबार पढ रही है, अरे हॉं वह अपना पसंदीदा अखबार हिन्दुस्तान पढ रही है, और मैं नवभारत टाईम्स।
‘हमारी औकात दो दो पेपर मंगाने की नहीं है, और ..... इसकी आवश्यकता भी तो नहीं है एक ही समाचार को दो-दो पेपर में पढना।‘ उसने एक दिन कहा था जिसके जवाब में उसकी पत्नी नें मुंह बनाते हुए कहा था कि हिन्दूस्तान मैं बचपन से पढते आ रही हूं, मैं नहीं छोड सकती इसे, ... और नवभारत टाईम्स में आपके आर्टिकल्स जो छपते हैं इसलिये उसे भी बंधाया है। उसकी दृढता के आगे कोई भी दलील नाकारा साबित होती थी सो चुपचाप समाचारों को या एडीटोरियल को पढने में ध्यान एकाग्र करना ज्यादा जरूरी होता था और वह शव्दों में डूब जाता था। पेपर पढते-पढते समय भागता था तो झटपट उठकर वह फ्रेश होता था और साढे आठ बजे तैयार होकर खाने की मेज पर बैठने के पूर्व किचन को झांकता था पर वहां पत्नी और खाना दोनों नदारद। उसकी पत्नी अब हिन्दूस्तान निबटाकर नवभारत टाईम्स पढ रही है। वह चाहता है कि पेपर उसके हाथ से छीन ले और उसे समय का ध्यान दिलाए पर वह ऐसा नहीं कर पाता क्योंकि उसे पता है ऐसा कहने भर से घर में अशांति छा जायेगी। वह पुन अपना रटा-रटाया जवाब देगी कि दिनभर घर में बोर होती हूं यही तो एक सहारा है मनोरंजन का, उसे भी मन से पढने नहीं देते। वह आश्चर्य से उसकी आंखों की ओर देखेगा मानों कह रहा हो कि अभी यह मनोरंजन आवश्यक है या मेरा भूखे पेट आफिस जाना ? उसके बाद खटपट और बेवजह मनमुटाव का दौर महीनों तक चलेगा।
यादों को दिमाग के गहराईयों में डुबोते हुए वह फिर समाचारों में वापस आ जाता है, अब उसे शव्द नजर आ रहे हैं। झटपट दोनों समाचार पत्र पढता है और कुकर में खाना चढाकर टायलेट में घुस जाता है।

रात के नौ बजकर पचास मिनट हो गए है बार का मुच्छड गार्ड बेचैन है, लगभग दस बार पानठेले वाले से पूछ चुका है कि साहब बार में आ गये क्या। पानठेले वाले नें प्रत्येक बार उसे नहीं में जवाब दिया है । ’क्यों इतने उतावले होते हो यार, आये या ना आये हमें क्या ।‘ पानठेले वाले नें कहा
‘नहीं भाई पता नहीं क्यूं, उसे देखकर ऐसा लगता है कि जैसे वो मेरा कोई नाते रिश्तेदार हो, इन दो महीनों में उसे जिस दिन भी नहीं देखता मन में कुछ कुछ होने लगता है।‘ गार्ड नें संजीदगी से कहा पानवाला हंसनें लगा यूं जताते हुए कि यह सब बकवास बातें हैं, उसका तुम्हारा क्या संबंध कैसी नातेदारी। उनके बातों के बीच ही वंदना स्पात का एक प्यून बार से दारू के नशे में चूर बाहर निकला और पानठेले वाले से सिगरेट मांगने लगा। ’कौन सी सिगरेट ?’ पानठेले वाले नें पूछा ’क्लासिक ‘ प्यून नें नसे से लडखडाते जुबान से कहा, गार्ड की नजरें प्यून पर जम गई।
‘तुम... तुम तो चउबे साहब के आपिस में काम करते हो ना ?’ गार्ड नें प्यून के पास आकर पूछा, प्यून नें हॉं में जवाब दिया।
‘कहॉं है साहब आज आये नहीं ?’ गार्ड नें पुन: पूछा। ’अरे..... वाह! ...... तो वह दारू भी पीता है ? ...... वाह !’ प्यून नें नशे भरी आंखों को गोल घुमाते हुए कहा और सिगरेट की गहरी कश को छोडते हुए मुस्कुराने लगा। गार्ड और पानठेले वाले को उसके बात में छुपे राज को जानने की कुलबुलाहट बढ गई। ’आफिस में तो सती सबित्री बनता है’
‘तो क्या साहब बदचन है .... ?’ गार्ड को सहसा विश्वास नहीं हुआ। ’अरे नहीं नहीं बदचलन नहीं, दारू के संबंध में कह रहा हूं, आफिस में तो ऐसा दिखाता बताता है कि दारू को हाथ भी नहीं लगाता और हिंया रोजे आता है, हा... हा... हा .... !’ प्यून अब अट्टहास करने लगा था।
‘ओके मेहरारू आई गईन का ?’
‘क्या लडाई थी इसके और इसके पत्नी के बीच में ?’ गार्ड और पानठेले वाले नें एक साथ प्रश्न किया।
‘बहुत चालू चीज है भाई ये चउबे, बहुतै हरामी है, आफिस में सब को परेशान करता है, इसे बस काम चाहिये, चाम से इसे कउनो मतलब नहीं, मरते हो तो मर जाओ पर उसके काम को पूरा करो नहीं तो पेमेंट काट देगा या नउकरी से भगा देगा, भाग गई होगी इसकी मेहरारू इसके किचकिच से, हा... हा... हा .... !’ प्यून नें अपनी भडास निकाली और हंसने लगा।
’नहीं .... आदमी तो ऐसा नहीं लगता, सज्जन आदमी है !’ गार्ड नें अपने विश्वास को बिना डिगाये कहा।
’मैं उसी के आपिस में चपरासी हू पिछले दस साल से, मैं ज्यादा जानूंगा कि तुम !’
‘हां भईया तुम ज्यादा जानोगे, पर ये तो बतलाओ कि आज वे आये क्यूं नहीं ?’ गार्ड नें पूछा। ’आज आपिस में उसके बडे भाई आये थे उसके दोनों छोटे बेटों को लेकर, मैं चाय-पानी लेकर गया था तो उनकी बातें सुन रहा था। उसके भाई नें उसे बहुत समझाया और बच्चों के परेम नें उसे पिघला दिया। उसके बाद वे आपिस से छुट्टी लेकर अपनी फटफटिया कारखानें में छोडा अउर अपने बडे भाई के कार में ही अपनी मेहरारू को लेने चला गया। अब दूई-चार दिन आराम रहेगा ......‘ प्यून चउबे साहब की बुराई और बतलाना चाहता था उसको नंगा करना चाहता था पर गार्ड को अब उसके बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह संतुष्ट था कि साहब अपने मेहरारू को लेने चला गया है।
संजीव तिवारी

(इस कहानी को लगभग छ: माह पूर्व कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन हेतु वापसी के टिकट लगे लिफाफे के साथ भेजा था, कहानी वापस नहीं आई और ना ही प्रकाशन का कोई संदेशा आया (कहीं प्रकाशित हुई हो तो सूचित करियेगा) सो समुचित समय उपरांत यहॉं प्रकाशित कर रहा हॅूं।  आपके आलोचनात्‍मक टिप्‍पणियों का इंतजार है)

'नक्सल हिंसा,लोकतंत्र और मीडिया' विषय पर राष्ट्रीय परिचर्चा

छत्‍तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के सिविल लाइन स्थित न्यू सर्किट हाउस में रविवार को "नक्सल हिंसा, लोकतंत्र और मीडिया" पर राष्ट्रीय परिचर्चा का आयोजन किया गया। इस अवसर पर मीडियाकर्मी, समाजसेवी, साहित्यकार, नक्सली वार्ताकारों ने हिस्सा लिया। परिचर्चा के विषय पर उन्होंने बेतकल्लुफी से अपने विचार रखें।
नक्सल मामलों के विशेषज्ञ प्रकाश सिंह ने भी कहा कि प्रशासन की विफलता के कारण नक्सली समस्या पैदा हुई है। शांतिवार्ता के लिए नक्सलियों के साथ कभी भी कोई गंभीर पहल नहीं की गई। इस समय वार्ता नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि यह कैसा लोकतंत्र है जहां अपराधी और करोड़पति ही सांसद के रूप में चुने जा रहे हैं। भ्रष्टाचार एक सीमा तक ही बर्दाश्त किया जा सकता है। विकास का यह पैमाना दोषपूर्ण है। असमान विकास को कारण बतलाते हुए इंडियन ब्रोडकास्ट एसोसिएशन के महासचिव एनके सिंह ने कहा कि मीडिया के लिए मानक और कायदे बनाने की दिशा में काम हो रहा है। बड़े मुद्दों पर चर्चा करने की परंपरा समाप्त हो गई है। मध्यवर्ग डांस इंडिया डांस देखने में मस्त है। सार्थक मुद्दों पर चर्चा की परंपरा बंद हो गई है। हमारे देश में विकास का गलत मॉडल चल रहा है। लगभग 84 करोड़ लोग 20 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से अपना गुजारा करते हैं, वहीं 25 हजार लोग ऐसे भी हैं जिनके पास 2 करोड़ की गाड़ियाँ हैं। इस तरह के असमान विकास से नक्सली समस्या पैदा होना लाजिमी है।
साहित्यकार रमेश नैयर ने कहा कि आदिवासी अंचलों का शोषण पहले पुलिस व फॉरेस्ट रेंजरों ने किया अब नक्सली उन्हें लूट रहे है। यह व्यवस्था बदलनी होगी। हमें विकास का कोई दूसरा उपाय ढूँढ़ने की जरूरत है। मीडिया की बेबाकी ही उसकी सफलता और लोकतंत्र की सेवा है। स्वामी अग्निवेश ने लिंकन की परिभाषा बाई दी पीपुल, फॉर दी पीपुल, आफ दी पीपुल के बाई दी रिप्रजेंटेटिव, फॉर दी रिप्रजेंटेटिव और आफ दी रिप्रजेंटेटिव में परिवर्तित होने पर जानकारी दी। नक्सल वार्ताकर स्वामी अग्निवेश ने नक्सलियों से बातचीत का समर्थन किया। उन्होंने कहा केन्द्र सरकार व नक्सली बातचीत करने के पक्ष में है। इसके लिए माहौल नहीं बन पा रहे हैं। दुनिया की हर समस्या बात से ही सुलझी है, गोली चलाने से किसी भी समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता है। इससे केवल हिंसा की प्रवृति बढ़ती है। आनंद प्रधान ने हिंसा के सवाल पर राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक ढांचे में होने वाली हिंसा को समझने की जरूरत पर बल दिया। गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने कहा कि मीडिया मध्यस्थता की भूमिका निभा सकता है। नक्सलवाद केवल प्रदेश की नहीं, वरन् पूरे देश की समस्या है।
नंद कुमार साय ने पुलिस को नक्सलवाद का जनक बताते हुए कहा कि पुलिस, पब्लिक और प्रशासन को एक लाइन में खड़ा करने से आदिवासियों में विश्वास पैदा होगा। अरविंद मोहन ने आदिवासियों के साथ हिंसा के इतिहास को लंबा बताते हुए कहा कि विकास के मॉडल और हिंसा पर लंबी चर्चा होनी चाहिए। छापामार लड़ाई से प्रदेश या देश पर काबिज करने की बात बेमानी है। लोकतंत्र सशक्त माध्यम है।
इस अवसर पर आईबीएन 7 के एमडी आशुतोष ने कहा कि नक्सली समर्थक कभी किसी के हितैषी नहीं हो सकते। इतिहास गवाह है कि उन्होंने अपने परिवार के लोगों को ही नहीं बख्शा, तो देश का क्या भला करेंगे। उन्‍होंनें कहा समाज की सोच परिवर्तन में मीडिया की अहम भूमिका है, जनता मीडिया से इन्सपार हो समाज की कुरीतियों को खत्म करने के अभियान में संलग्न हैं। देश के लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के बाद भी यदि गरीबी है, तो सोचना होगा कि यह क्यों है। उन्‍होंनें आगे कहा कि आज देश अपने पैरों पर खड़ा है और इसका भविष्य अत्यंत उज्ज्वल है। लोकतंत्र की विफलता और स्टेट की विफलता को सिरे से खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि हमें भारत को पश्चिमी संस्कृति के हिसाब से देखना बंद करना चाहिए। अमर उजाला के संपादक अरविंद मोहन ने कहा कि मीडिया से लोग काफी अपेक्षा रखते हैं, लेकिन नक्सली या सरकार मीडिया से दोहरा व्यवहार करते हैं। युद्ध क्षेत्र में सेना बल अपनी कस्टडी में पत्रकारों को लेकर जाते हैं। वे वही छपवाते हैं, जो चाहते हैं। उस पर कोई सवालिया निशान खड़ा नहीं करता, लेकिन यदि नक्सली पत्रकारों को अपने साथ ले जाते हैं और पत्रकार कुछ लिखता है तो उसके चरित्र व मंशा पर सवाल खड़े किए जाते हैं। इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि पत्रकार खुद जाकर सच जाने या पत्रकार पर आरोप लगाना बंद करें। आनंद प्रधान ने हिंसा के सवाल पर राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक ढांचे में होने वाली हिंसा को समझने की जरूरत पर बल दिया। समाज में 30 करोड़ लोग भूखे हैं, आर्थिक विषमता की खाई गहरी हो गई है। नक्सलवाद को रोग का लक्षण बताते हुए इसे राज सत्ता की विफलता का परिणाम बताया। हरिवंश ने समस्या के समाधान के लिए राजनीतिक पहल न होने को समस्या का कारण बताया। पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनी और राजनीतिक कार्यकर्ता पेड वर्कर बन गए हैं। मीडिया इस समस्या को समाप्त नहीं कर सकता। पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने कहा कि भारतीय संस्कृति पाश्चात्य देशों से अलग है, इसकी तुलना नहीं होनी चाहिए। स्कूलों, पुलों और सड़कों को उड़ाना कौन सी विचारधारा है। सात राज्यों की सीमाओं से घिरे होने के कारण छत्तीसगढ़ में नक्सली समस्या अधिक है। कार्यक्रम में मंच संचालन पत्रकार राजकुमार सोनी ने किया। इस कार्यक्रम में ब्‍लॉगर ललित शर्मा जी भी विशेष रूप से उपस्थित थे ।
साधना न्यूज चैनल की इस परिचर्चा में सांसद नंद कुमार साय, गृहमंत्री ननकीराम कंवर, लोक निर्माण मंत्री बृजमोहन अग्रवाल, बीएसफ के पूर्व डीजी और पद्मश्री प्रकाश सिंह, प्रभात खबर के समूह संपादक हरिवंश, सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश, आईबीएन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष, अमर उजाला के वरिष्ठ संपादक अरविंद मोहन, इंडियन ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन के महासचिव एनके सिंह, आईआईएमसी (दिल्ली) के प्रोफेसर आनंद प्रधान सहित सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने हिस्सा लिया।

रिपोर्टिंग - बड्डे बड्डे.... लोगों के पीछे पीलर के आड़ में बैठा 3जी धारी गुमनाम रिपोर्टर


स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी लक्ष्मण प्रसाद दुबे

शिक्षकीय कर्तव्य को अपनी साधना मानने वाले लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी का संपूर्ण जीवन एक शिक्षक के रूप में बीता, जिसके कारण उन्हें गुरूजी के रूप में जाना जाता रहा है। इन्होंनें अपने जीवन में कईयों को पढा कर उनके मन में देशभक्ति का जजबा को जागृत किया वहीं कई लोगों को शिक्षक बनने हेतु प्रेरित भी किया। नारी स्वतंत्रता एवं नारी शिक्षा के पक्षधर इस कर्मयोगी का जन्म छत्‍तीसगढ़ स्थित दुर्ग जिले के दाढी गांव में 9 जून 1909 को हुआ। वे गांव में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद बेमेतरा से उच्‍चतर माध्यमिक व शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर शिक्षकीय कार्य में जुट गये । इनकी पहली नियमित पदस्थापना सन् 1929 में भिलाई के माध्यमिक स्कूल में हुई उस समय दुर्ग में स्वतंत्रता आंदोलन का ओज फैला हुआ था।
भिलाई में शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए इनका संपर्क जिले के वरिष्ठ सत्याग्रही नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी से हुआ। उस समय किशोर व युवजन के अग्रवाल जी आदर्श थे। उनके मार्गदर्शन व आदेश से लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी भिलाई में अपने साथियों एवं छात्रों के साथ मिलकर मद्य निषेध आंदोलन व विदेशी वस्त्र आंदोलन को हवा देने लगे। उसी समय उन्होंनें भिलाई में विदेशी वस्तुओं के साथ जार्ज पंचम का चित्र भी जलाया। बढते आंदोलन की भनक से अक्टूबर 1929 में भिलाई का मिडिल स्कूल बंद कर दिया गया और इनका स्थानांतरण बालोद मिडिल स्कूंल में कर दिया गया । इन्हें अपने नेता के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हो गया क्‍योंकि अग्रवाल जी बालोद के मूल निवासी थे। बालोद के ग्राम पोडी में हुए जंगल सत्यांग्रह की पूरी रूपरेखा एवं दस्तावेजी कार्य नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी नें इन्हें सौंप दिया था। इन दस्ता‍वेजों को दुर्ग पुलिस एवं गुप्तचरों से बचाते हुए जंगल सत्याग्रही व अन्य क्रियाकलापों का विवरण वे एक रजिस्टर में दर्ज करते रहे। अग्रवाल जी के जेल जाने के बाद भी इनके द्वारा जंगल सत्याग्रह को नेतृत्व प्रदान करते हुए कायम रखा गया, वे बतलाते थे कि उस समय सत्याग्रह रैली व सभाओं में 8-10 महिलायें भी आती थी जो चरखा लेकर आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती थीं।
उन्हीं दिनों सन् 1930 में बालोद के सर्किल आफीसर नायडू से से इनकी बहस हो गई तब अग्रवाल परिवार की मध्यंस्थता से इनका स्थानांतरण धमधा कर दिया गया। अब इनकी दौड बालोद-दुर्ग, धमधा दाढी तक होती रही। वे विश्व्नाथ तामस्कर, रघुनंदन प्रसाद सिंगरौल, लक्ष्मण प्रसाद बैद के साथ सत्याग्रह आंदोलन के क्रियाकलापों से जुडे रहे। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल के इस क्षेत्र में दौरे का प्रभार लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के पास ही होता था। सन् 1932 में अग्रवाल जी के दाढी के दौरे में वे रास्ते भर सक्रिय रहे। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल युवा सत्याग्रहियों को हमेशा समझाया करते थे कि जोश के साथ होश मत खोना। क्योंकि जोश के कारण सभी बडे नेता सरकार के हिट लिस्ट में आ गये थे जिसके कारण उनकी गिरफ्तारी होती रहती थी। स्वतंत्रता आंदोलन को जीवंत रखने के लिए द्वितीय पंक्ति के सत्याग्रहियों को अपना दायित्व निभाना था अत: वे अपने गांधीवादी नरम रवैये से शिक्षकीय कार्य करते रहे ।
सन् 1942 में इनका स्थानांतरण डौंडी लोहारा कर दिया गया। जंगल सत्याग्रह की रणनीति में माहिर लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के लिए यह स्थान बालोद जैसा ही रहा क्योंकि यह स्थान जंगलों के बीच है अत: वे वहां अपने मूल कार्य के साथ पैदल गांव-गांव का दौरा कर सत्याग्रह का पाठ पढाते रहे। इस बीच उनको मार्गदर्शन नरसिंह प्रसाद अग्रवाल से मिलता रहा। 1942 में ही जमुना प्रसाद अग्रवाल अपने बडे भाई नरसिंह प्रसाद का संदेश लेकर लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के पास आये और उन्हें सचेत किया कि आपकी भी गिरफ्तारी हो सकती है। यहां से वापस लौटते ही जमुना प्रसाद अग्रवाल को बालोद में गिरफ्तार कर लिया गया और उसी रात लक्ष्मण प्रसाद दुबे को भी गिरफ्तार करने का आदेश डौंडी में जारी कर दिया गया जिसे लाल खान सिपाही नें तामील करने के पहले ही लीक कर दिया और लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी स्कूल का त्यागपत्र मित्रों के हांथ सौंपकर फरार हो गये एवं बालोद आ गये जहां से वे भूमिगत हो गए। रायपुर के प्रमुख सक्रिय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व.श्री मोतीलाल जी त्रिपाठी से पारिवारिक संबंधों का लाभ इन्हें मिलता रहा और लक्ष्मंण प्रसाद दुबे जी घुर जंगल क्षेत्र में स्वतंत्रता आन्दोलन की लौ जलाते रहे।
1942 से 1947 तक ये खानाबदोश जीवन व्यतीत करते रहे। दुर्ग जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में पैदल घूम घूम कर सत्या‍ग्रह-शिक्षा का अलख जगाने के कारण ये गिरफ्तारी से बचे रहे। ज्योतिष के विद्वान लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी नें यूनानी चिकित्सा व वैद विशारद की परिक्षा भी पास की एवं शिक्षा के साथ चिकित्सा कार्य भी किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे जनपद पंचायत स्कूल में प्रधान पाठक रहे। अवकाश प्राप्त के बाद सक्रिय राजनीति में जनपद पंचायत बेमेतरा के सदस्य भी रहे। इन्होंने दुर्ग जिला कांग्रेस की सदस्यता 1930 में ग्रहण की थी, 1942 से 1947 तक जिला कांग्रेस के कार्यकारिणी सदस्य के रूप में इन्होंनें कार्य किया अपने मृत्यु 23 जुलाई 1993 तक ये जिला कांग्रेस के सक्रिय सदस्य रहे ।
संजीव तिवारी 

 साथियों मेरा सौभाग्‍य है कि  स्व.श्री लक्ष्‍मण प्रसाद दुबे जी मेरे श्‍वसुर हैं ! 

नवागंतुक ब्‍लॉगर शिरीष डामरे का आलेख : मार ! महंगाई की किसपे ?

शिरीष डामरे जी, जी न्यूज छत्तीसगढ़ के बिलासपुर संवाददाता हैं। इलैक्ट्रानिक्स मीडिया से इनका संबंध लगभग पंद्रह सालों से रहा है। शिरीष जी नें विभिन्न टीवी चैनलों में स्थानीय रिपोर्टर के रूप में काम किया है। वाईल्ड लाईफ शूटिंग व फोटोग्राफी में रूचि के कारण इन्होंनें अचानकमार टाईगर रिजर्व से संबंधित कई चर्चित डाकूमेंट्री बनाई है। शिरीष भाई इलैक्ट्रानिक्स मीडिया से जुड़े हैं वे तथ्य, घटना, संवेदना व समाचारों को दिखाना बखूबी जानते हैं। हिन्दी ब्लॉग बनाने और लेखन करने के मेरे आग्रह पर वे स्पष्ट कहते हैं कि इलैक्ट्रानिक्स मीडिया में होने के कारण प्रिंट मीडिया के पत्रकारों की तरह वे नहीं लिख पाते। किन्तु मेरा मानना है कि आप जो कहना चाहते हैं वह यदि स्पष्ट हो रहा हो तो शव्द सामर्थ्य व वाक्य विन्यास के बिना भी आलेख पठनीय होता है। हमारे आग्रह पर शिरीष भाई नें दो ब्लॉग उठा पटक और बिलासपुर टाईम्‍स बनाया है और लिखने का प्रयास किया है। हम महगाई पर उनका एक आलेख यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
मार ! महंगाई की किसपे ?
महंगाई को लेकर भारत के हर एक शहर व गाँव के कोने-कोने में विगत दिनों विपक्ष ने विरोध प्रदर्शन कर भारत बंद किया, बंद को मीडिया नें भी बहुप्रचारित किया, प्रत्यक्ष प्रदर्शन में महंगाई के बोझ तले दबी सामान्य जनता भले ही सामने नहीं आई लेकिन हकीकत में जनता इस कमरतोड़ महगाई के तले दबी है . इस महगाई नें धनकुबेरों को छोड़कर सभी के जीवन को बेहद प्रभावित किया है. कृषि प्रधान इस देश में अन्न उपजाने वाले किसानो को भी बीज, खाद, मजदूरी के दर में अत्‍यधिक बढ़ोतरी और कृषि उत्पानदों में कमी का सामना करना पड़ रहा है और वे कृषि के लिए कर्ज पे कर्ज लेते जा रहे हैं। जिसके चलते किसानों के कर्ज के बोझ तले आत्महत्या करने के कई मामले सामने आये हैं। महंगाई के सुरसामुख के वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए अब ये दिन भी देखने पड़ेगे की शहर व गावं में लोग बढती महगाई के चलते आत्म- हत्या ना करलें ?
हकीकत में देखा जाये तो इस बढती महगाई का असर किसपे नहीं पड़ा होगा ....हर कोई हाय महंगाई - हाय महंगाई करता दिख रहा है जनता बेचारी बस इस तमाशे को रोज न्यूज़ पेपर और टीवी पे देख रही है . शायद जनता रोज बढे हुए सब्जी के दाम, खाने -पीने की वस्तुओ के आसमान छूते कीमतों से अकेले को प्रभावित ना होते देख राहत भले ही महसूस करे लेकिन सोने से पहले और जागने के बाद रोजाना सरकार को कोसने के आलावा कुछ नहीं कर सकती.
लेकिन फ़िल्मकार, कलाकार इस महगाई को भी मिडिया के माद्यम से भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे है . मिडिया की सुर्खियों में ‘मोर सैयां तो खूब ही कमात है, महगाई डायन खाय जात है .’ गीत धूम मचा रही है। वर्तमान परिवेश में यह गीत समसामयिक है. आम जनता से जुडी महंगाई से परेशान लोगों के दिल की बात को एक ग्रामीण कलाकार ने इस गीत में इतनी खूबी से प्रस्तुत किया है की कलाकार आमिर खान प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके और अपनी पिक्चर पिपली लाइव में इस गाने को रख सुर्खियाँ बटोरी .
मिडिया भी इस महगाई को रोज बेच रही है टीवी कलाकार हो या नेता रोज टीवी पे इसे बेचते नजर आते है लाखो कमाने वाले टीवी कलाकार महगाई का रोना रोज - रोते टीवी पे दिख जाते है, इन्हें आम जनता के दुःख दर्द से कोई लेना देना भले ना हो लकिन वे मुद्दे भुनाना नहीं छोड सकते हकीकत चाहे जो भी हो, भुगतना तो आम आदमी को ही है .
देश में कहें या शहर में शराब ५० रु में मिल जायेगी लेकिन सब्जी ५० रु से जायदा महगी है, टमाटर भी ५० रु पार हो गए है हालाकि ये तो सब जानते है की हालात क्या है, फिर भी शहरों का यह आलम है तो सुविधाविहीन गावों का क्या हाल होगा ? बिलासपुर जिले की लगभग २० लाख संपूर्ण आबादी में से नरेगा के १० लाख मजदुर है तो आप सोच ही सकते है बाकी के हालात कैसे होगे ? शायद आकडे आपको विचलित कर सकते है गरीबो को सरकार २-३ रु किलो चावल दे रही है केद्र सरकार मजदूरो को १०० घंटे रोजगार गारंटी के रूप में काम दे रही है.
मजदूर भले ही सब्जी ना खा सके लेकिन लेकिन उसे शराब ५० रु में जरुर मिल जायेगी और क्यों ना मिले दाल तो १०० रु है सब्जी को तो मत ही पूछिए जिले में २०१० में शराब का ठेका ११९ करोड़ ६७ लाख का है जो की ५ साल पहले की बिक्री देखे तो तो लगभग ४५ करोड़ था तो आप ही सोचे महगाई कहां से आई, भले ही मेरी बात थोड़ी अजीब लगे लेकीन मै आपको बता दू की शहरों में जितनी शराब बिकती है उतनी ही गावं में, अगर केंद्र सरकार की योजना नरेगा की बात करे तो जिले में सालाना १५० करोड़ के काम रोजगार गारंटी के तहत हुये है ६०-४० की मात्र में किये गए काम का सालाना ६५ करोड़ की मजदूरी का भुगतान हुआ वही ४५ करोड़ की शराब बिकी है ! तो आप ही सोचे महंगाई डायन खाय जात है .
जिले में पलायन करने वाले मजदूरों के सरकारी आकडे देखे जाये तो इन आकड़ो में भी प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है? कलेक्ट्रेट में रोज देश के कई हिस्सों में, जिले के मजदूरो के बंधवा मजदूरी की शिकायत करने वाले परिजनों की भीड़ दिखाई देती है ....इन शिकायतों की बात की जाये तो संबधित थाने से पूर्व में सैकड़ो मजदूरो को छुड़ा कर लाया जा चुका है. कई हजारो मजदूर प्रदेश से बाहर अभी भी बंधवा मजदूरी करने को मजबूर है, देश की एक बड़ी आबादी ग्रामीण क्षेत्रो में है जिले के लगभग १ लाख परिवार प्रदेश से बाहर मजदूरी के लिए जाते है ! महगाई का रोना रोने वाले सितारे रोज टीवी पर गला फाड़ - फाड़ के चिल्लाते है . दो वक्त की रोटी की तलाश में भटकते इन लोगो के ऊपर महंगाई की मार, क्या किसी को दिखाई नहीं देती, सच ही कहा है किसी ने जो दिखता है वही बिकता है .
शिरीष डामरे

देखें शिरीष भाई का ब्‍लॉग उठा पटक और बिलासपुर टाईम्‍स 

छत्तीसगढ़ी साहित्य व जातीय सहिष्णुता के पित्र पुरूष : पं. सुन्दर लाल शर्मा

महानदी के तट पर विशाल भीड़ दम साधे खड़ी थी, उन्नत माथे पर त्रिपुण्ड लगाए एक दर्जन पंडितो नें वेद व उपनिषदों के मंत्र व श्लोक की गांठ बांधे उस प्रखर युवा से प्रश्न पर प्रश्न कर रहे थे और वह अविकल भाव से संस्कृत धर्मग्रंथों से ही उनके प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे। बौखलाए धर्मध्वजा धारी त्रिपुण्डी पंडितो नें ऋग्वेद के पुरूष सूक्त के चित परिचित मंत्र का सामूहिक स्वर में उल्ले‍ख किया - ब्राह्मणोsस्य् मुखमासीद्वाहू राजन्य: कृत: । उरू तदस्य यद्वैश्य: पद्मच्य : शूद्रो अजायत:।। धवल वस्त्र धारी युवा नें कहा महात्मन इसका हिन्दी अनुवाद भी कह दें ताकि भीड़ इसे समझ सके। उनमें से एक नें अर्थ बतलाया - विराट पुरूष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। युवक तनिक मुस्कुराया और कहा हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, इस मंत्र का अर्थ आपने अपनी सुविधानुसार ऐसा कर लिया है, इसका अर्थ है उस विराट पुरूष अर्थात समाज के ब्राह्मण मुख सदृश हैं, क्षत्रिय उसकी भुजाए हैं, वैश्य जंघा है और शूद्र पैर, जिस प्रकार मनुष्य इन सभी अंगों में ही पूर्ण मनुष्य है उसी प्रकार समाज में इन वर्णों की भी आवश्यकता है। वर्ण और जाति जन्मंगत नहीं कर्मगत हैं इसीलिए तो यजुर्वेद कहता है – नमस्तवक्षभ्यो रथकारभ्यनश्चम वो नमो: कुलालेभ्य: कर्मरेभ्यश्च वो नमो । नमो निषादेभ्य: पुजिष्ठेभ्यश्च वो नमो नम: श्वनिभ्यों मृत्युभ्यश्च‍ वो नम: ।। बढ़ई को मेरा नमस्कार, रथ निर्माण करने वालों को मेरा नमस्कार, कुम्हारों को को मेरा नमस्कार, लोहारों को मेरा नमस्कार, मछुवारों को मेरा नमस्कार, व्याघ्रों को मेरा नमस्कार। आखिर हमारा वेद स्वयं इनको नमस्कार करता है तो हम आप कौन होते हैं इन्हें सामाजिक वर्ण व्यवस्था के आधार पर मंदिर में प्रवेश करने से रोकने वाले। पंडितों ने एक दूसरे के मुख को देखा, युवा पूर्ण आत्मविश्वास के साथ वैदिक उद्हरणों की अगली कड़ी खोलने को उद्धत खड़ा था। पंडितों नें देर तक चल रहे इस शास्त्रार्थ को यहीं विराम देना उचित समझा उन्हें भान हो गया था कि इस युवा के दलीलों का तोड़ उनके पास नहीं है। भीड़ हर्षोल्लास के साथ राजीव लोचन जी का जयघोष करते हुए उस युवा के साथ मंदिर में प्रवेश कर गई। 
23 नवम्बर 1925 को घटित इस घटना में जिस युवा के अकाट्य तर्कों से कट्टरपंथी पंडितों नें भीड़ को मंदिर प्रवेश की अनुमति दी वो युवा थे छत्तीसगढ़ के दैदीप्यमान नक्षत्र पं.सुन्द रलाल शर्मा। पं.सुन्दलरलाल शर्मा अपने बाल्याकाल से ही उंच-नीच, जाति-पाति, सामाजिक वर्ण व्यवस्था के आडंबरों के घोर विरोधी थे। तत्कालीन समाज में कतिपय उच्च वर्ग में जाति प्रथा कुछ इस प्रकार से घर कर गई थी कि दलितों को वे हेय दृष्टि से देखते थे, सुन्दर लाल जी को यह अटपटा लगता, वे कहते कि हमारे शरीर में टंगा यह यज्ञोपवीत ही हमें इनसे अलग करता है। सोलह संस्कारों में से यज्ञोपवीत के कारण ही यदि व्यक्ति श्रेष्ठ माना जाता है तो क्यो न इन दलितों को भी यज्ञोपवीत धारण करवाया जाए और उन्हें संस्कारित किया जाए। मानवता के आदर्श सिद्धांतों के वाहक गुरू घासीदास जी के अनुयायियों को उन्‍होंनें सन् 1917 में एक वृहद आयोजन के साथ यज्ञोपवीत धारण करवाया। एक योनी प्रसूतश्चन एक सावेन जायते के मंत्र को मानने वाले पं.सुन्दरलाल शर्मा अक्सर महाभारत के शांति पर्व के एक श्लोक का उल्लेख किया करते जिसका अर्थ कुछ इस प्रकार है – मनुष्य जन्म से शूद्र (अबोध बालक) उत्पन्न होता है, जब वह बढ़ता है और उसे मानवता के संस्कार मिलते हैं तब वह द्विज होता है, इस प्रकार सभी मानव जिनमें मानवीय गुण है वे द्विज हैं। अपने इस विचार को पुष्ट करते हुए वे हरिजनों के हृदय में बसे हीन भावना को दूर कर नवीन चेतना का संचार करते रहे। पं.सुन्दरलाल शर्मा जी के इस प्रोत्साहन से जहां एक तरफ दलितों व हरिजनों का उत्साह बढ़ा वहीं दूसरी तरफ कट्टरपंथी ब्राह्मणों नें पं.सुन्दसरलाल शर्मा की कटु आलोचना करनी शुरू कर दी, उन्हें सामाजिक बहिष्कार का दंश भी झेलना पड़ा। ‘सतनामी बाम्हन’ के ब्यंगोक्ति का सदैव सामना करना पड़ा किन्तु स्व़भाव से दृढ़निष्चयी पं.सुन्दरलाल शर्मा नें सामाजिक समरसता का डोर नहीं छोड़ा। कट्टरपंथियों के विरोध नें उनके विश्वास को और दृढ़ किया। गुरू घासीदास जी के मनखे मनखे ला जान भाई के समान को मानने वाले गुरूओं से उनका प्रगाढ संबंध हरिजनों से उन्हे और निकट लाता गया। वे मानते रहे कि समाज में द्विजेतर जातियों का सदैव शोषण होते आया है इसलिए उन्हें मुख्य धारा में लाने हेतु प्रभावी कार्य होने चाहिए, वे भी हमारे भाई हैं।
21 दिसम्बर, 1881 को राजिम के निकट महानदी के तट पर बसे ग्राम चंद्रसूर में कांकेर रियासत के सलाहकार और 18 गांव के मालगुजार पं.जयलाल तिवारी के घर में जन्में पं.सुन्दरलाल शर्मा को मानवीय संवेदना विरासत में मिली थी। पिता पं.जयलाल तिवारी अच्छें कवि एवं संगीतज्ञ थे, माता देवमति भी अध्ययनशील महिला थी। प्रगतिशील विचारों वाले इस परिवार में पले बढे पं.सुन्दरलाल शर्मा ने मिडिल तक की शिक्षा गांव के स्कूल में प्राप्त की, फिर उनके पिता नें उनकी उच्च शिक्षा की व्यवस्था करते हुए कांकेर रियासत के शिक्षकों को घर में बुला कर पं.सुन्दरलाल शर्मा को पढ़ाया। उन्होंनें संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला, उडिया, मराठी भाषा सहित धर्म, दर्शन, संगीत, ज्योतिष, इतिहास व साहित्य का गहन अध्ययन किया। लेखन में उनकी रूचि रही और पहली बार उनकी कविता 1898 में रसिक मित्र में प्रकाशित हुई। साहित्य के क्षेत्र में पं.सुन्दरलाल शर्मा जी  छत्तीगढ़ी पद्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। ‘दान लीला’ के प्रकाशन से यह सिद्ध हुआ कि छत्तीसगढ़ी जैसी ग्रामीण बोली पर भी साहित्य रचना हो सकती है और उस पर देशव्यापी साहित्तिक विमर्श भी हो सकता है। कहा जाता है कि "छत्तीसगढ़ी दानलीला" छत्तीसगढ़ी का प्रथम प्रबंध काव्य है।
साहित्य के क्षेत्र में उनका योगदान लगभग 22 ग्रंथ के रुप में है जिनमें 4 नाटक, 2 उपन्यास और काव्य रचनाएँ हैं। काव्य में श्री राजीव क्षेत्र महात्म्य, करुणा पचीसी, प्रलाप पदावली, स्फूट पद्य संग्रह, ध्रुव चरित्र आख्यान, स्वीकृति भजन संग्रह, ब्रह्मण गीतावली, सतनामी भजनमाला, काव्य दिवाकर, सदगुरु वाणी। खण्ड काव्य में श्री राजीव क्षेत्र महात्म्य, करुणा पचीसी, प्रलाप पदावली, स्फूट पद्य संग्रह, ध्रुव चरित्र आख्यान, स्वीकृति भजन संग्रह, ब्रह्मण गीतावली, सतनामी भजनमाला, काव्य दिवाकर, सदगुरु वाणी। महाकाव्य में श्री राजीव क्षेत्र महात्म, करुणा पचीसी, प्रलाप पदावली, स्फूट पद्य संग्रह, ध्रुव चरित्र आख्यान, स्वीकृति भजन संग्रह, ब्रह्मण गीतावली, सतनामी भजनमाला, काव्य दिवाकर, सदगुरु वाणी। इसके अतिरिक्ती नाटक प्रहलाद नाटक, पार्वती परिणय, सीता परिणय, विक्रम शशिकला। जीवनी विश्वनाथ पाठक की काव्यमय जीवनी, रघुराज सिंह गुण कीर्तन, विक्टोरिया वियोग, दुलरुवा, श्री राजीम प्रेम पीयुष व उपन्यास उल्लू उदार, सच्चा सरदार है।
पं. सुन्दपर लाल शर्मा जी अपने देश को पराधीन देखकर दुखी होते थे और चाहते थे कि स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी सहभागिता दूं। इसी उद्देश्य से वे सन् 1906 में सूरत कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने गए वहां से लौटकर स्वदेशी वस्तुओं को बढ़ावा देने के उद्देश्य से स्वदेशी वस्त्रों की दुकानें राजिम, धमतरी और रायपुर में खोली किन्तु आर्थिक हानि के चलते उन्हें यह दुकान 1911 में बंद करनी पड़ी। राष्ट्र प्रेम का जजबा पं.सुन्द्रलाल शर्मा एवं उनके मित्रों में हिलोरे मारती रही और वे छत्तीसगढ़ में स्‍वतंत्रता आन्दोलन को हवा देते रहे। छत्तीसगढ़ में इस आन्दोलन को तीव्र करने के उदृश्य‍ से कण्डेल सत्याग्रह को समर्थन देने के लिए पं.सुन्दंरलाल शर्मा नें सन् 1920 में पहली बार महात्मा‍ गांधी को छत्तीसगढ़ की धरती पर लाया।
बीच के वर्षों में उन्हें स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने के लिए जेल भी जाना पड़ा किन्तु‍ वे अपने हरिजन उद्धार व स्वतंत्रता आन्दोंलन के कार्यो को निरंतर बढ़ाते रहे। 1933 में गांधी जी जब हरिजन उद्धार यात्रा पर निकले उसके पहले से ही पं.सुन्दरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में व्याप्त रुढ़िवादिता, अंधविश्वास, अस्पृश्यता तथा कुरीतियों को दूर करने के लिए प्रयास में जुटे रहे । छत्तीसगढ़ में आपने सामाजिक चेतना का स्वर घर-घर पहुंचाने में अविस्मरणीय कार्य किया ।
जातिवाद के खिलाफ पं.सुन्दारलाल शर्मा जी का अभिमत गलत नहीं था, वे भारतीय समाज में जातिवाद को भयंकर खतरे के रूप में देखा करते थे, इसीलिए वे आजीवन जातिप्रथा के खिलाफ संघर्षरत रहे। वे जातिविहीन व शोषणविहीन समाज के हिमायती थे। भारत में दलित उत्थान एवं अछूतोद्धार के लिए महात्मा गांधी को याद किया जाता है किन्तु स्वयं महात्मा गांधी नें पं.सुन्दार लाल शर्मा को इसके लिये उन्हें अपना गुरू कहा और सार्वजनिक मंचों में स्वी‍कारा भी। स्वतंत्रता आन्दोलन एवं हरिजन उत्थान में पं. सुन्दरलाल शर्मा के योगदान के लिए उन्हें छत्तीसगढ़ का गांधी कहा गया।
जातिविहीन समरस समाज की कल्पना का शंखनाद करते हुए उंच-नीच के जातिगत आधारों में बंटते प्रदेश के सभी जातियों को उन्‍होंनें अपना पुत्र तुल्य स्नेह दिया। विभिन्नो जाति वर्ग को एक पिता का संतान मानते हुए सभी भाईयों को समानता का दर्जा दिया उनके इस योगदान नें ही उन्हें संपूर्ण छत्तींसगढ़ का पिता बना दिया. एक पिता को अपने सभी बेटों से प्रेम होता है उसी प्रकार से पं.सुन्दरलाल शर्मा जी छत्तीसगढ़ के प्रत्येक जन से बेटों सा प्रेम करते थे। अपने पुत्र के असमय मौत नें उन्हें व्यथित किया किन्तु वे शीध्र ही सम्हल गए और छत्तीसगढ़ के अपने अनगिनत बेटों के उत्थान में लग गए। कहते हैं आरंभ से आदर्श मानव समाज की सतत परिकल्पना में मनुष्य नें अपने रक्त आधारित संबंधों के आदर्श रूप में माता और पिता को सर्वोच्च स्थान दिया है। किन्तु रक्त आधारित संबंधों से परे मनुष्यता में समाजिक संबंधों का मान रखना छत्तीसगढि़यों का आदर्श है, पं. सुन्दर लाल शर्मा इन्हीं अर्थों में हम सबके पिता हैं। उनका स्मरण छत्तीसगढ़ की आत्मा‍ का स्मरण है, प्रत्येक छत्तीसगढी शरीर में पंडित जी की आत्मा का वास है।
संजीव तिवारी

(यह आलेख डॉ.परदेशीराम वर्मा जी की पत्रिका 'अगासदिया' के आगामी वृहद पितृ अंक के प्रकाशन के लिए मेरे द्वारा जल्‍दबाजी में लिखी गई है पं.सुन्‍दर लाल जी की वर्तमान पीढ़ी पर कुछ प्रकाश डालना शेष है जिसे आगामी पोस्‍ट के लिए रिजर्व रख रहा हूं)

बिस्‍वजीत बोरा की फिल्‍म : आदिवासी के दूत (Angel of the Aboriginals)



मुंबई के फिल्म निर्माता बिस्‍वजीत बोरा नें ब्रिटिश नृवंशविज्ञानी पद्म भूषण डॉ. वेरियर एल्विन पर एक वृत्तचित्र बनाया है। फिल्‍म में बतलाया गया है कि वेरियर एल्विन नें निस्वार्थ समर्पण के साथ इस देश के मूल निवासियों की सेवा की है. फिल्म की अवधि 45 मिनट है.इस फिल्‍म का प्रोमों छत्‍तीसगढ़ के अधोवस्‍त्र विहीन आदिवासी बालाओं के चित्रों के साथ इस प्रमोशनल वेब साईट में उपलब्‍ध है। इस फिल्‍म के संबंध में अतिरिक्‍त जानकारी यदि आपके पास हो तो कृपया हमें भी बतलांए।

बिना शीर्षक : राजकुमार सोनी के प्रथम कृति का प्रकाशन

माय डियर राजकुमार! साहित्यकार शरद कोकाश जी, राजकुमार सोनी जी को जब ऐसा संबोधित करते हैं तब उन दोनों के बीच की आत्मीयता पढ़ने व सुनने वालों को भी सुकून देती है कि आज इस द्वंद भरे जीवन में व्यक्तियों के बीच संबंधों में मिठास जीवित है।
हॉं मैं बिगुल ब्‍लॉग वाले धारदार शव्‍द बाण के धनुर्धर बड़े भाई राजकुमार सोनी जी के संबंध में बता रहा हूं।  राजकुमार सोनी जी से मेरा परिचय मेरे पसंदीदा नाटककार और थियेटर के पात्र के रूप में था , बिना मिले ही जिस प्रकार पात्रों से हमारा संबंध हो जाता है उसी तरह से मैं राजकुमार सोंनी जी से परिचित रहा हूं। तब भिलाई में राजकुमार सोनी और उनके मित्रों नें सुब्रत बोस की पीढी़ को सशक्‍त करते हुए नाटकों को जीवंत रखा था। मुझे कोरस, मोर्चा, घेरा, गुरिल्ला, तिलचट्टे जैसे नाटकों के लेखक निर्देशक राजकुमार सोनी को विभिन्न पात्रों में रम जाते देखना अच्छा लगता था, इनकी व इनके मित्रों की जीवंत नाट्य प्रस्तुति का मैं कायल था। राजकुमार सोनी की नाटकें मंचित होती रही, वे अपना जीवंत अभिनय की छटा व लेखनी की धार को निरंतर पैनी करते रहे। दुर्ग-भिलाई में रहते हुए साहित्तिक गोष्ठियों, कला व संस्कृति के छोटे से लेकर भव्य आयोजनों में राजकुमार सोनी की उपस्थिति का आभास हमें होता रहा। 
उन दिनों राजकुमार सोनी भाई से मेरी व्यक्तिगत मुलाकात स्टील टाईम्स में हुई थी, दुबले-पतले तेज तर्रार सफेद कमीज पहनने वाले इस पत्रकार की समाचार लेखनी से मैं तब रूबरू हुआ था। और तब से लेकर आज तक इनके लिखे खोजपरक समाचारों को व कालमों को पढ़ते रहा हूं। तब मैं संतरा बाड़ी, दुर्ग में एम.काम. कर रहा था और कथाकार कैलाश बनवासी का पड़ोसी था, उपन्यासकार मनोज रूपडा की मिठाई की दुकान में दही समोसे खाकर दिन भर के खाने के खर्च को बचाने का यत्न करता था तब राजकुमार सोनी की कविता कथरी को वहां जीवंत पाता था।
युवा राजकुमार सोनी की संवेदना मुझे उन दिनों दुर्ग-भिलाई के समाचार पत्रों में नजर आती थी। भिलाई में रहने के कारण यह स्वाभाविक है कि आज भी राजकुमार सोनी जी के बहुतेरे मित्र, मेरे भी मित्र हैं। सभी के मन में राजकुमार के प्रति प्रेम को मैं महसूस करता हूं जो उनकी संवेदनशीलता और मानवता को प्रदर्शित करता है। विगत लगभग पच्चीस वर्षो से राजकुमार सोनी जी की यही संवेदना उनके पत्रकार मन में दर्शित होती रही है, जो उनकी लेखनी में कभी जीवन के लिए संघर्षरत बहुसंख्यक लोगों की पीड़ा के रूप में उभरती है तो कभी व्यवस्था के प्रति विरोध के शव्द समाचारों में मुखर होते हैं। खोजी प्रवृत्ति व तह तक जाकर सच का सामना करने के कारण राजकुमार भाई की अनेक रिपोर्टिंग पुरस्कत हुई है और सराही गई है। रिपोर्टिग पर इन्हें स्व.के.पी.नारायण व उदयन शर्मा स्मृति पुरस्कार प्राप्त हुआ है और छत्तीसगढ़ शासन द्वारा बायोडीजल पर फैलोशिप भी प्राप्त हुआ है। पत्रकारिता के अतिरिक्‍त राजकुमार भाई का छत्तीसगढ़ में थियेटर, कला-संस्कृति व साहित्तिक गतिविधियों से भी सीधा जुड़ाव है। वे इन विषयों पर आधिकारिक रूप से हमेशा आलेख लिखते रहे हैं। 
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित राजकुमार सोनी जी के कालमों को भी यदि किताबों की शक्ल में छापा जाए तो पांच – सात किताबें प्रकाशित हो सकती हैं, किन्तु राजकुमार सोनी जी नें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी लेखनी को सहेजकर कभी नहीं रखा है। विगत कुछ दिनों से मित्रों के बार-बार अनुरोध पर उन्होंनें अपने कुछ आलेख सहेजे हैं जो इनकी पहली कृति के रूप में आज प्रकाशित हो रही है। राजकुमार सोनी जी नें इस किताब में जीवन में निरंतर संघर्ष करते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ते लोगों की कहानी लिखी है। पुस्तक का शीर्षक है ‘बिना शीर्षक’ जबकि इस किताब में वर्तमान के शीर्ष लोगों की कहानी है। ‘बिना शीर्षक’ के प्रकाशन पर भाई राजकुमार सोनी को बहुत बहुत बधाई, उनकी लेखनी अनवरत चलती रहे। ...... शुभकामनांए .

संजीव तिवारी

शताब्दी की चयनित कहानियों में डॉ. वर्मा की भी कहानी

साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा शताब्दी की कालजयी कहानियों का चयन किया गया है। चयनित कहानियां किताब घर प्रकाशन से ४ खण्डों में प्रकाशित हुई है। विगत सौ वर्षों से कथा लेखकों में छत्तीसगढ़ के गांव लिमतरा से निकले डॉ. परदेशीराम वर्मा के महत्व को साहित्य अकादमी ने आंका है। इस चयन में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित प्रथम कथा संग्रह "दिन प्रतिदिन" की प्रतिनिधि कहानी को डॉ. परदेशीराम वर्मा की कालजयी कहानी का सम्मान मिला है।
छत्तीसगढ़ में कथा-लेखन की समृद्ध परंपरा है। छत्तीसगढ़ में ही हिन्दी की पहली कहानी "टोकरी भर मिट्टी" यशस्वी कथाकार माधवराव सप्रे ने लिखी। छत्तीसगढ़ के गांव लिमतरा में जन्मे कथाकर डॉ. परदेशीराम वर्मा को मध्यप्रदेश शासन का सप्रे सम्मान मिला। उल्लेखनीय है कि डॉ. परदेशीराम वर्मा छत्तीसगढ़ और देश के विशिष्ट कथाकार हैं जिन्हें कृष्ण प्रताप कथा प्रतियोगिता में लगातार दो बार क्रमशः "लोहारबारी" एवं "पैंतरा" कहानियों के लेखन के लिए पुरस्कृत किया गया। अब तक २५० से अधिक कहानियां तथा अन्य विधाओं की रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। वे अंचल के विशिष्ट कथाकार हैं जो प्रायः सभी विधाओं में लेखन करते हैं। मूलरूप से ग्रामीण पृष्ठभूमि के गहरे जानकार डॉ. परदेशीराम वर्मा ने फौज में भी सेवा दी। वे भारतीय डाकघर विभाग तथा भिलाई इस्पात संयंत्र में भी सेवा दे चुके हैं। हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी में लिखित उनके उपन्यास बेहद चर्चित हैं। हिन्दी के उपन्यास "प्रस्थान" को जहां महंत अस्मिता सम्मान मिला वहीं छत्तीसगढ़ी उपन्यास "आवा" को एमए पूर्व के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया।
साप्ताहिक हिन्दुस्तान के सर्वभाषा कहानी विशेषांक में हिंदी के प्रतिनिधि के रूप में डॉ. परदेशीराम वर्मा को सम्मिलित किया गया था। उन्हें जीवनी "आरुग फूल" के लेखन के लिए मध्यप्रदेश शासन का सप्रे सम्मान मिल चुका है। २००३ में पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय ने उन्हें मानद डी. लिट की उपाधि दी। पांच हिंदी तथा एक छत्तीसगढ़ी के कथा संग्रह के लेखक डॉ. वर्मा की कहानियां बंगला, उड़िया, मलयालय, तमिल तथा तेलुगु में अनुदित होकर भिन्न-भिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। छत्तीसगढ़ शासन के शिक्षा विभाग के लिए त्रिभाषाई शब्दकोष निर्माण में डॉ. परदेशीराम वर्मा की उल्लेखनीय एवं प्रशंसनीय भूमिका रही। लेखन के साथ ही वे सांस्कृतिक संस्था अगासदिया की रचनात्मक गतिविधियों का संचालन भी करते हैं। विशिष्ट पत्रिका अगासदिया के अब तक ३८ विशेषांक भी निकल चुके हैं जिनका संपादन डॉ. परदेशीराम वर्मा ने किया है।

सुप्रसिद्ध साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की पत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का निधन

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में जनसंचार विभाग में रीडर एवं विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी जी नें अपने ब्‍लॉग चिंतन-शिविर में अभी कुछ समय पूर्व ही यह दुखद समाचार दिया है कि सुप्रसिद्ध साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की पत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का गुरुवार की रात रायपुर में निधन हो गया. 88 वर्ष की शांता मुक्तिबोध लंबे समय से अस्वस्थ चल रही थीं.
1939 में गजानन माधव मुक्तिबोध के साथ प्रेम विवाह करने वाली शांता जी ने मुक्तिबोध जी के हर सुख-दुख में साथ निभाया. गजानन माधव मुक्तिबोध के निधन के बाद उन्होंने अपने बच्चों का लालन-पालन और बेहतर शिक्षा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. शांता जी के बेटे दिवाकर मुक्तिबोध देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं, वहीं गिरीश मुक्तिबोध भी पत्रकारिता से संबद्ध हैं. रमेश मुक्तिबोध और दिलीप मुक्तिबोध ने गजानन माधव मुक्तिबोध की अप्रकाशित कृतियों का संपादन किया है।
गजानन माधव मुक्तिबोध जी की कविता के साथ श्रीमती शांता मुक्तिबोध को हमारी श्रद्धांजली.....

मृत्यु और कवि

घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर
व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर
है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती,
जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर
बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला,
वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला
"ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर" ।

ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर
जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल !
इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल
भ्रष्ट ना होने दो युग-युग की सतत साधना महाआराधना
इस क्षण-भर के दुख-भार से, रहो अविचिलित, रहो अचंचल
अंतरदीपक के प्रकाश में विणत-प्रणत आत्मस्य रहो तुम
जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का अर्थ कहो तुम ।

क्षण-भंगुरता के इस क्षण में जीवन की गति, जीवन का स्वर
दो सौ वर्ष आयु होती तो क्या अधिक सुखी होता नर?
इसी अमर धारा के आगे बहने के हित ये सब नश्वर,
सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ मरण-गीत तुम सुंदर
तुम कवि हो, यह फैल चले मृदु गीत निर्बल मानव के घर-घर
ज्योतित हों मुख नवम आशा से, जीवन की गति, जीवन का स्वर ।

छत्तीसगढ़ की संस्‍कृति से संबंधित महत्‍वपूर्ण लिंक

संस्‍कृति विभाग छत्‍तीसगढ़ की वेब साईट में पिछले कुछ महीनों से कुछ महत्‍वपूर्ण जानकारियॉं पुरातत्‍व एवं संस्‍कृति विभाग के उच्‍च अधिकारी व सिंहावलोकन ब्‍लॉग वाले आदरणीय बड़े भाई राहुल सिंह जी के निर्देशन में जोड़ा गया है. जोड़ी गई नवीन जानकारियों से संबंधित पेज के लिंक आपकी सुविधा के लिए यहां दिया जा रहा है-

सृजनगाथा के चौथे आयोजन में ब्‍लॉगर संजीत त्रिपाठी सम्मानित : रिपोर्ट

वेब पत्रिका सृजन गाथा डॉट काम एवं प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के द्वारा छत्‍तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के प्रेस क्‍लब में आयोजित एक गरिमामय व्याख्यान एवं सम्‍मान समारोह  में आज हिन्‍दी ब्‍लॉग लेखन में उल्‍लेखनीय योगदान के लिए प्रदेश के ब्‍लॉगर संजीत त्रिपाठी सहित साहित्‍यकार व पत्रकारों का सम्‍मान किया गया।
सृजन गाथा डॉटकाम का यह चौथा आयोजन था। व्याख्यान में कविता क्या, कविता क्यों विषय पर प्रमुख व्याख्यान देते हुए इलाहाबाद से आए कवि, लेखक एवं समीक्षक प्रकाश मिश्र ने अपने उद्बोधन में कहा कि यश व धन कविता के शत्रु नहीं है पर कविता को मनुष्यता पर आधारित होना चाहिए कविता को कुरूपता से बचना चाहिए व उसे सहज भी होना चाहिए कविता की शुरूआत से आज तक कई परिवर्तन आए है। छंद लय रस से लेकर गद्यात्मक कविता का दौर भी आया है। उन्होने कहा कि गद्यात्मक कविता के माध्यम से भी भाव की अभिव्यक्ति की जा सकती है केवल निरा छंद कौशल ही कविता नहीं है। जिसमें संवेदना,संस्कृति एवं जीवन में संसार का भाव हो वही कविता है।  
व्याख्यान कार्यक्रम के अध्यक्षीय उद्बोधन में गंगा प्रसाद बरसैया ने कहा कि कविता वेदों से शुरू होती है और मनुष्य जीवन में परिवर्तन के साथ चलती है। रस का संबंध मनुष्य की अनुभूति से है कविता में कड़ी शब्द साधना है। कविता धरती से दूर जाएगी तो वह समाप्त हो जाएगी। कविता सत्ता के भरोसे अधिक दिन तक जिंदा नही रह सकती है। जनता की बात हो वहीं कविता है, कविता लोगों की आंख खोलती है और आदमी को आदमी से जोड़ती है। आज कविता जमीन छोड़ दी है। धरती से दूर हो रही है। पाठक का संकट नही, कविता से आचरण का संबंध है। 
व्याख्यान पर अपनी टिप्पणी देते हुए छत्तीसगढ़ के पूर्व निर्वाचन आयुक्त सुशील त्रिवेदी ने कहा कि कविता लिखने का प्रयोजन आनंद है। वरिष्ठ पत्रकार एवं छत्तीसगढ़ ग्रंथ अकादमी के संचालक रमेश नैय्यर ने कहा कि जब तक इंसान व इंसानियत जिंदा है तब तक कवि को कविता करते रहना चाहिए। कविता रस संगीत से मुक्त नही हो सकती है। वरिष्ठ पत्रकार एवं दैनिक अमृत संदेश के प्रधान संपादक गोविंद लाल वोरा ने कहा कि कविता जोश पैदा करती है। मन से निकला भाव कविता है। जनसत्ता के संपादक अनिल विभाकर ने कहा कि कविता के लिए सर्वप्रथम पाठक होना जरूरी है। कविता का संबंध जीवन मूल्य से है और उसमें कमी आने के कारण पाठकों का संकट उत्पन्न हो गया है। 
कार्यक्रम के आरंभ में संस्था के संस्थापक वेब एवं इंटरनेट विशेषज्ञ तथा सृजनगाथा डॉट काम वेब पत्रिका के प्रधानसंपादक जयप्रकाश मानस ने अतिथियों का स्वागत किया। लघु कथा लेखक राम पटवा ने स्वागत भाषण में सृजनगाथा डॉट काम के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी दी।  कार्यक्रम के द्वितीय सत्र सम्मान समारोह में सनत चतुर्वेदी पत्रकारिता क्षेत्र में , अशोक शर्मा  वेब तकनीक के क्षेत्र में योगदान के लिए सम्मानित किए गए।  रेडियों रंगीला के संपादक संदीप अखिल, फोटों पत्रकारिता के लिए नरेंद्र बंगाले,  लघु पत्रिका क्षेत्र में दीपांशु पाल,  इलेक्ट्रानिक मीडिया से संतोष जैन, कथालेखक कैलाश वनवासी, हिंदी ब्‍लॉग लेखन में योगदान के लिए संजीत त्रिपाठी का सम्मान किया गया। कार्यक्रम का संचालन डॉ.सुधीर शर्मा ने किया व आभार प्रदर्शन वरिष्ठ पत्रकार आरएनएस के संपादक एचएस ठाकुर ने किया ।

डाली डाली उड उड करके खाए फल अनमोल वृक्षों को किसने उपजाया देख उसे दृग खोल : पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'

धन धन रे मोर किसान, धन धन रे मोर किसान! मैं तो तोला जानेव रे भईया, तैं अस भुंईया के भगवान ...... भैया लाल हेडाउ के सुमधुर स्‍वर में इस गीत को छत्‍तीसगढ़ी भाषा के प्रेमियों नें सुना होगा। इस गीत के गीतकार थे छत्‍तीसगढ़ी भाषा के सुप्रसिद्ध गीतकार द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'। ऐसे लोकप्रिय गीत के गीतकार विप्र जी नें तदसमय में छत्‍तीसगढ़ी भाषा को अभिजात्‍य वर्ग के बीच बोलचाल की भाषा का दर्जा दिलाया।
पं.द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' जी का जन्‍म छत्‍तीसगढ़ के संस्‍कारधानी बिलासपुर के एक मध्‍यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में 6 जुलाई सन् 1908 में हुआ. विप्र जी के पिता का नाम पं. नान्‍हूराम तिवारी और माता का नाम देवकी था। विप्र जी, दो भाई और दो बहनों में मंझले थे जिसके कारण वे मंझला महराज के नाम से भी जाने जाते थे। हाई स्‍कूल तक की शिक्षा इन्‍होंनें बिलासपुर में ही प्राप्‍त की फिर इम्‍पीरियल बैंक रायपुर एवं सहकारिता क्षेत्र में कार्य करते हुए सहकारी बैंक बिलासपुर में प्रबंधक नियुक्‍त हुए। सादा जीवन उच्‍च विचार से प्रेरित विप्र जी जन्‍मजात कवि थे, बात बात में गीत गढ़ते थे। ठेठ मिठास भरी बिलासपुरी छत्‍तीसगढ़ी बोलते उन्‍हें जिसने भी सुना है वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा है। कविताओं के साथ ही उन्‍हें संगीत से भी लगाव था वे सुमधुर सितार बजाते थे, हाथरस से प्रकाशित होने वाली संगीत की पत्रिका 'काव्‍य कलाधर' में सितार से सिद्ध की गई उनकी कवितांए मय नोटेसन के प्रकाशित होती थी, नोटेसन खुद विप्र जी तैयार करते थे।
छत्‍तीसगढ़ी लोकाक्षर के संपादक समालोचक व साहित्‍यकार नंदकिशोर तिवारी जी के संपादन में विप्र जी की संपूर्ण रचनाओं का 'विप्र रचनावली' के नाम से प्रकाशन किया गया है। नंदकिशोर तिवारी जी नें विप्र रचनावली में अपने लेख 'अकुंठित व्‍यक्तित्‍व के धनी पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'' में उनके व्‍यक्तित्‍व एवं रचना संसार के संबंध में लिखा हैं। भविष्‍य में विस्‍तार से विप्र जी के संबंध में जानकारी हम यहां प्रस्‍तुत करेंगें, विप्र जी को आज याद करते हुए उनकी कविताओं के कुछ अंश हम यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं -
छत्‍तीसगढ़ी -
हम गांव ला अपन बढ़ाबोन गा, हम गांव ला अपन बढ़ाबोन गा।
जइसन बनही तइसन ओला, सरग मा सोझ चढ़ाबोन गा।
खेत खार खुबिच कमाके, रंग-रंग अन्‍न उपजाबोन गा,
अपन देस के भूख मेटाबो, मूड़ी ला उंचा उठाबोन गा।
उपन देस के करब बढ़ोतरी, माई-पिल्‍ला कमाबोन गा,
चला रे भईया चली हमू मन, देस ला अपन बढ़ाबोन गा।
कई किसिम के खुलिस योजना, तेमा हाथ बटाबोन गा।
देश प्रेम -
हिन्‍द मेरा वतन, मैं हूँ उसका रतन
इस वतन के लिए जन्‍म पाया हूँ मैं
इसकी धूलि का कण, मेरा है आवरण
इसकी गोदी में हर क्षण समाया हूँ मैं.
भक्तिकालीन चेतना -
यह संसार बसेरा है सखि
विपदा विवश बसेरा है
बंधा कर्म जीवन में जाने
कितने दिनो का डेरा है।
xxx
डाली डाली उड उड करके
खाए फल अनमोल
वृक्षों को किसने उपजाया
देख उसे दृग खोल।

ब्लॉगर संजीत त्रिपाठी को चौंथा सृजनगाथा सम्मान

संपूर्ण विश्‍व में हिन्‍दी ब्‍लॉगों की लोकप्रियता दिन ब दिन बढ़ती जा रही है. अन्‍य प्रदेशों की भांति छत्‍तीसगढ़ में भी हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग बहुत लोकप्रिय हो चुकी है. प्रदेश में सक्रिय ब्‍लॉग लेखकों एवं अब्‍लॉगर पाठकों की संख्‍या निरंतर बढ़ रही है। इस विधा को प्रोत्‍साहन देने के लिए छत्‍तीसगढ़ के प्रथम हिन्‍दी ब्‍लागर जयप्रकाश मानस द्वारा पिछले वर्षों से पुरस्‍कार व सम्‍मान प्रदान किया जा रहा है। 
जयप्रकाश मानस जी द्वारा संपादित राज्य की पहली वेब पत्रिका तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित, साहित्य, संस्कृति, विचार और भाषा की मासिक पोर्टल सृजनगाथा डॉट कॉम (www.srijangatha.com) के चार वर्ष पूर्ण होने पर चौंथे सृजनगाथा व्याख्यानमाला का आयोजन 6 जुलाई, 2010 दिन मंगलवार को स्थानीय प्रेस क्लब, रायपुर में दोपहर 3 बजे किया गया है । 
इस अवसर पर चौंथे सृजनगाथा डॉट कॉम सम्मान से श्री सनत चतुर्वेदी (पत्रकारिता), श्री नरेन्द्र बंगाले (फोटो पत्रकारिता), श्री संतोष जैन (इलेक्ट्रानिक मीडिया), श्री संदीप अखिल (रेडियो पत्रकारिता), श्री अशोक शर्मा (वेब-विशेषज्ञ), श्री संजीत त्रिपाठी (हिन्दी ब्लॉगिंग), श्री त्र्यम्बक शर्मा (कार्टून) और श्री कैलाश वनवासी, दुर्ग (कथा लेखन) श्री देवांशु पाल, बिलासपुर (लघुपत्रिका ) को सम्मानित किया जायेगा।
फरवरी 2007 से नियमित हिन्‍दी ब्‍लॉग में सक्रिय आवारा बंजारा वाले संजीत त्रिपाठी हिन्‍दी ब्‍लॉगरों के बीच जाना पहचाना नाम है। सहज सरल व्‍यक्तित्‍व के धनी संजीत त्रिपाठी अपने प्रोफाईल में स्‍वयं कहते हैं 'एक आम भारतीय, जिसकी योग्यता भी सिर्फ़ यही है कि वह एक आम भारतीय है जिसे यह नहीं मालूम कि आम से ख़ास बनने के लिए क्या किया जाए फ़िर भी वह आम से ख़ास बनने की कोशिश करता ही रहता है…।'

अपने एक पोस्‍ट में वे कहते हैं -

नाम मेरा संजीत त्रिपाठी है, जन्मा रायपुर, छत्तीसगढ़ मे। यहीं पला-बढ़ा,पढ़ा-लिखा और एक आम भारतीय की तरह जिस शहर में जन्मा और पला-बढ़ा वहीं ज़िन्दगी गुज़र रही है।

पैदा हुआ मैं एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार में, दादा व पिता जी दोनो ही स्वतंत्रता सेनानी थे, दादाजी को देखा भी नही पर राष्ट्र और राष्ट्रीयता की बातें एक तरह से मुझे घुट्टी में ही मिली। घर में पिता व बड़े भाई साहब को पढ़ने का शौक था सो किताबों से अपनी भी दोस्ती बचपन से ही हो गई। आज भी पढ़ना ही ज्यादा होता है, लिखना बहुत कम।

मेरे बारे मे जितना कुछ मैं कह सकता हूं उस से ज्यादा और सही तो मुझसे जुड़े लोग ही कह पायेंगे…समझ नही पाता कि अपने बारे में क्या कहूं क्योंकि अपने आप को जानने समझने की प्रक्रिया जारी ही है…निरंतर फ़िर भी…

भीड़ मे रहकर भी भीड़ से अलग रहना मुझे पसंद है……कभी-कभी सोचता हूं कि मैं जुदा हुं दुसरों से,पर मेरे आसपास का ताना-बाना जल्द ही मुझे इस बात का एहसास करवा देता है कि नहीं, मैं दुसरों से भिन्न नहीं बल्कि उनमें से ही एक हूं…!

और हां,अक्सर जब कभी अपने अंदर कुछ उमड़ता-घुमड़ता हुआ सा लगता है,लगता है कि अंदर दिलो-दिमाग में कुछ है जिसे बाहर आना चाहिए,तब पेन अपने-आप कागज़ पर चलने लगता है और यही बात मुझे एहसास दिलाती है कि मैं कभी-कभी कुछ लिख लेता हूं…

"शब्द और मैं"
शब्दों का परिचय,
जैसे आत्मपरिचय…
मेरे शब्द!
मात्र शब्द नही हूं,
उनमें मैं स्वयं विराजता हूं,
बसता हूं
मैं ही अपना शब्द हूं,
शब्द ही मैं हूं !
निःसन्देह !
मैं अपने शब्द का पर्याय हूं,
मेरे शब्दों की सार्थकता पर लगा प्रश्नचिन्ह,
मेरे अस्तित्व को नकारता है…
मेरे अस्तित्व की तलाश,
मानो अर्थ की ही खोज है॥

संजीत त्रिपाठी भाई को सृजन सम्‍मान के लिए 'काबा भर परेम अउ गाड़ा गाड़ा बधई.'

सप्रेम शुभकामनांए .......  

पंडवानी के नायक भीम और महाभारत के नायक अर्जुन

यह सर्वविदित तथ्य है कि छत्तीसगढ़ की लोकगाथा पंडवानी महाभारत कथाओं का लोक स्वरूप है। वैदिक महाभारत के नायक अर्जुन रहे हैं जबकि पंडवानी के नायक भीम हैं। पिछले पोस्ट में पंडवानी की तथाकथित शाखा और शैली के संबंध में हमने बतलाया था। जिसके निष्कर्ष स्वरूप आप यह न समझ बैंठें कि वेदमति शाखा के नायक अर्जुन और कापालिक शाखा के नायक भीम हैं। उपलब्ध जानकारियों के अनुसार छत्तीसगढ़ में प्रचलित दोनों शाखाओं के नायक भीम ही रहे हैं। इसे आप जनरंजन के रूप में भी स्वीकार सकते हैं। इसके मूल में क्या कारण रहे हैं इस संबंध में रामहृदय तिवारी जी नें अपने एक आलेख में लिखा है-
महाभारत के इतने विविध चरित्रों में पंडवानी गायकों नें भीम को ही इतनी प्रमुखता और महत्ता क्यों दी इसके अपने सूक्ष्‍म मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं। यह एक रोचक तथ्य है कि पंडवानी गायन परंपरा में संलग्न लगभग सभी कलाकार द्विजेतर जातियों के हैं। सदियों से उपेक्षित, तिरस्कृत और दबे कुचले इन जातियों के लोग अपने दमित आक्रोश की अभिव्यक्ति और संतुष्टि भीम के चरित्र में पाते हैं। भीम की अतुल शौर्यगाथा गाकर ये कलाकार अपने भीतर छुपे प्रतिशोध की चिरजीवी साध को संतुष्ट करते हैं, साथ ही अपने बीच भी किसी महान पराक्रमी भीम के अवतरण की मंशा संजोए कथा में डूबते उतराते रहते हैं। भीम के कथा प्रसंग को जिस तन्मयता और गौरव के साथ ये सिद्धस्थ कलाकार गाते हैं, उसमें उनकी जातिगत मौलिकता और आदिम लोक तत्व की उर्जा विद्यमान रहती है।
तिवारी जी के इस कथन से भीम को नायक के रूप में स्वीकार करने की धुंध कुछ छटती है। इस संबंध में आदिवासी लोक कला परिषद भोपाल व अन्यान्य देशों के आदिवासियों पर शोध कर रहे मनीषियों को शोध में सहायता करने वाले आदिवासी इन्साईक्लोपीडिया निरंजन महावर जी भी तिवारी जी के इन कथनों की हामी भरते हैं।

पंडवानी के रोचक तथ्य :- पंडवानी के प्रथम ज्ञात लोक गायक झाडूराम देवांगन थे। प्रथम महिला पंडवानी गायिका श्रीमती सुखिया बाई को माना जाता है। पंडवानी के आरंभिक काल में पंडवानी को पुरूषों की परंपरा मानने के कारण श्रीमती सुखिया बाई पुरूषों के वेश में मंचासीन होकर पंडवानी गाती थी। पारंपरिक रूढि़ को तोड़ते हुए महिला के वास्तविक रूप में श्रीमती लक्ष्मी बाई नें पहली बार पंडवानी गाना आरंभ किया। श्रीमती तीजन बाई को पंडवानी के रूप में लोक कला में अप्रतिम योगदान के लिए पद्मभूषण प्रदान किया गया। पद्मभूषण श्रीमती तीजन बाई द्वारा पंडवानी की प्रस्तुति लगभग संपूर्ण विश्व में दी जा चुकी है।
पंडवानी के ज्ञात लोक गायक/ गायिका :- झाडूराम देवांगन, पुनाराम निषाद, चेतन देवांगन, रावन झीपन वाले मांमा-भांजा, श्रीमती सुखिया बाई, श्रीमति लक्ष्मी बाई, पद्मभूषण श्रीमती तीजन बाई, श्रीमती शांतिबाई चेलक, श्रीमती मीना साहू, श्रीमती प्रमिला बाई, श्रीमती उषा बारले, श्रीमती सोमेशास्त्री , श्रीमती टोमिन बाई निषाद, श्रीमती रितु वर्मा, खूबलाल यादव, रामाधार सिन्हा, फूल सिंह साहू, श्रीमती प्रभा यादव, श्रीमती पुनिया बाई, श्रीमती जेना बाई.
पंडवानी का इतिहास :-
नायकों पर चर्चा करते हुए किंचित पंडवानी की शुरूआत पर कुछ नजर डाली जाए। निरंजन महावर जी परंपरा के इतिहास को खंगालते हुए पंडवानी गाने वाले पारंपरिक लोक की व्याख्या करते हुए जो कहते हैं उसे शव्दश: रामहृदय तिवारी जी स्वीकार करते हैं यथा – ‘छत्तीसगढ में गोडों की एक उपजाति परधान के नाम से जानी जाती है और दूसरी घुमन्तु जाति होती है – देवार । शोधकर्ता कहते हैं कि पंडवानी मूलत: इन्हीं दोनों जातियों की वंशानुगत गायन परंपरा है जो पंडवानी नाम धरकर समयानुसार विकसित होते होते वर्तमान स्वरूप तक पहुंची है।
एक आलेख में निरंजन महावर जी स्पष्ट। रूप से इंगिंत करते है कि आंध्र प्रदेश के बुर्रा कथा से पंडवानी का उद्भव हुआ है। आंध्र के बुर्रा कथा का प्रभाव छत्तीसगढ़ तक कैसे आया इस पर वे कहते हैं कि आंध्र प्रदेश के वैष्णव मथुरा-वृंदावन की धार्मिक यात्रा करते थे, छत्तीसगढ़ इस यात्रा पथ में आता है। वे आगे बुर्रा शव्द को तंबूरे से जोड़ते हुए कहते हैं कि कालांतर में ‘तं’ शव्द का लोप हुआ और बुरा कथा बुर्रा कथा हो गया। आंध्र के बुर्रा कथा में भी महाभारत की कहानियों को तम्बूरे के साथ प्रस्तुत किया जाता है।
महावर जी के इस कथन को ध्यान में रखते हुए हम प्राचीन लेखकों में इतिहासकार प्यारेलाल गुप्ता जी की पं.रविशंकर शुक्ल विद्यालय द्वारा प्रकाशित कृति ‘हमर छत्तीसगढ़’ को संदर्भित करना चाहते हैं जिसमें प्यारेलाल जी लोक कथाओं के विकास के काल को विभाजित करते हुए लिखते हैं कि छत्तीसगढ़ के पारंपरिक आदि गाथाओं का काल सन् 1100 से 1500 (आदि काल) तक रहा है (इसे हीरालाल शुक्‍ल, डॉ.दयाशंकर शुक्‍ल, डॉ.हनुमंत नायडू भी स्‍वीकारते हैं) जिसमें पंडवानी लोक गाथा गायन का भी विकास हुआ है। इस समय आंध्र के बुर्रा कथा की क्या स्थिति रही यह अध्ययन का विषय है। आदि पंडवानी लोक गायक सन् 1927 में जन्‍मे बासिन दुर्ग वाले झाडूराम देवांगन जी कहते थे कि वेदमति शाखा का आरंभ मेरे से ही हुआ है इस पर महावर जी का कहना है कि पंडवानी के वेदमति शैली का प्रारंभ बीसवी शताब्दि के आरंभिक काल से है। यदि पंडवानी के वेदमति शाखा को ही पंडवानी की शुरूआत के रूप में स्वीकार किया जाता है तो निरंजन महावर जी के कथनानुसार पंडवानी का आरंभ बीसवीं सदी के आरंभ में हुआ। प्यारेलाल जी और महावर जी के तथ्य विरोधाभाषी हैं। इस पर भी अध्‍ययन की आवश्यकता है।

संजीव तिवारी

इस आलेख के साथ अली सैयद भईया के ब्‍लॉग उम्मतें में अवश्‍य पढें - महाकाव्य की अंचल यात्रा : पंडवानी के नायक भीम कैसे ना होते ?

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...