
इतिहास बताता है कि गंगा से गोदावरी के मध्य भाग को कौशल क्षेत्र कहा जाता था । इन दोनों नदियों के बीच विन्ध्याचल पर्वत स्थित है । विन्ध्याचल के उपरी (उत्तरी) क्षेत्र को उत्तर कौशल और नीचे दक्षिणी क्षेत्र को दक्षिण कौशल कहा गया । हमारा छत्तीसगढ़ दक्षिण क्षेत्र में आता है । श्री राम की वन यात्रा में दक्षिण कौशल को दण्डकवन कहा गया है । अब यह भी प्रमाणित हो गया है कि इस दण्डकारण्य में शिवरीनारायण (बिलासपुर) में ही शबरी का आश्रम था ।
शिवरीनारायण में महानदी, शिवनाथ और जोंक नदियों का संगम है । इस संगम के तट पर ही शबरी के गुरू महर्षि मंतग का आश्रम था । ऋषि मतंग के बाद शबरी इस आश्रम की आचार्या बनीं । बाद में गोस्वामी तुलसी दास ने रामचरित मानस में शबरी कथा का मधुर और भावपूर्ण चित्रण किया है । छत्तीसगढ़ का नामकरण उन्नीसवीं सदी में हुआ किन्तु दक्षिण कौशल नाम उस समय प्रसिद्ध था । इसका प्रमाण यह है कि यहां की बेटी (आरंग नरेश भानुमन्त की पुत्री) कौशल्या से राजा दशरथ का विवाह हुआ था । कौशल्या नाम कौशल क्षेत्र की कन्या होने के कारण पड़ा, जैसे कैकयसे कैकई । कौशल्या दशरथ की बड़ी रानी थी जिनके गर्भ से श्रीराम का जन्म हुआ । श्रीराम छत्तीसगढ़ की बेटी कौशल्या के पुत्र थे ।
रामायण और रामचरित मानस में श्रीराम की वनयात्रा में शबरी प्रसंग सर्वाधिक भावपूर्ण है । भक्त और भगवान के मिलन की इस कथा को गाते सुनाते बड़े-बड़े पंडित और विद्वान भाव विभोर हो जाते है । शबरी का त्याग और संघर्ष पूर्ण जीवन, नि:स्वार्थ सेवा, निष्काम भक्ति और गुरू तथा श्रीराम के प्रति पूर्ण समर्पण दूसरी जगह देखने में नहीं आता । इसलिए शबरी आज भी जीवंत है । शबरी की सेवा से मुग्ध मतंग मुनि जब प्राण त्यागने लगे तब दुखी शबरी उनके साथ जाने की जिद करने लगी । मतंग मुनि ने कहा शबरी, मेरी भक्ति अधूरी रह गई । मुझे श्री राम के दर्शन नहीं हो पायेंगे किन्तु तेरी भक्ति पूर्ण होगी । श्रीराम तुम्हे दर्शन देगें, वे तुमसे मिलने जरूर आयेगें । तुम श्रद्धा और धीरज रखकर उनकी प्रतीक्षा करना । शबरी ने भक्ति और संयम के साथ प्रभु की प्रतीक्षा की । श्रीराम ने शबरी से वर मांगने कहा तो शबरी ने जनम जनम भगवान की भक्ति ही मांगी । भगवान जब जाने लगे तो शबरी ने भाव विव्हल होकर उन्हें विदाई दी । प्रभु चले गये तो शबरी ने स्वयं योग अग्नि पैदा कर अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया । शबरी अमर हो गई ।
शबरी और श्रीराम का मिलन दक्षिण कौशल (अब छत्तीसगढ़) के धार्मिक इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना है । इसलिये आज भी लोग इस कथा को पूरी श्रद्धा से गाते और सुनते हैं । शबरी कथा वर्णन रामायण और रामचरित मानस में ही नहीं अनेक प्राचीन ग्रन्थों में है । महर्षि वेद व्यास ने शबरी का वर्णन पद्म पुराण में किया है । बाद में अनेक संतो, भक्तों और कवियों ने शबरी का वर्णन किया है किन्तु शबरी पर स्वतंत्र पुस्तक अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है । गीता प्रेस गोरखपुर की अनेक किताबों और भक्ति ग्रन्थों मे शबरी को सम्मान जनक स्थान सदा मिलता रहा है । शबरी का जीवन त्याग, तप, सेवा, सद्भाव, साधना सिद्धि, श्रद्धा और भक्ति से परिपूर्ण है । धर्म के उक्त मानदण्डों पर शबरी का जीवन खरा उतरता है । इसका प्रमाण यह है कि स्वयं श्रीराम उससे मिलने आये और उसे इतना प्रेम और सम्मान दिया । शबरी का व्यक्तित्व छत्तीसगढ़ की धरोहर है ।
सच कहा जाय तो दस लाख वर्ष पहले शबरी ने छत्तीसगढ़ के संस्कारों को जन्म दिया था । शबरी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है किन्तु शबरी सदा से उपेक्षित है । वाल्मीकि और तुलसी ने महाग्रन्थों में इन्हें संक्षिप्त स्थान दिया । इसके लिए हम उनके ऋणी हैं किन्तु बाद में शबरी पर विशेष काम नहीं हुआ । समाज और सरकारों ने भी इसे ध्यान नहीं दिया । अधिक आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारे कलमकार भी इस ओर उदासीन रहे ।
आज जब छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ियों की सरकार बन गई है तब शबरी की ओर ध्यान दिया जाना चाहिये । छत्तीसगढ़ का सर्वोच्च पुरस्कार शबरी के नाम पर होना चाहिये । जगह जगह शबरी सेवा केन्द्र होना चाहिये । शबरी के नाम पर शोध पीठ होना चाहिए । इतना ही नहीं जगह जगह शबरी और श्रीराम का मन्दिर बनना चाहिये । सबसे अधिक आश्चर्य तो मुझे इस बात का है कि हमारे आदिवासी समाज के लोग शबरी की ओर ध्यान नहीं देते । शबरी इस धरती की प्रथम आदिवासी नारी है जिसने भगवान को प्राप्त कर लिया । शबरी दलित चेतना का सूर्य है ।
यह आलेख 'अगासदिया' के मातृ अंक से साभार लिया गया है. इस आलेख के लेखक पं. सरोज द्विवेदी ज्योतिष के आचार्य, सुपरिचित साहित्यकार और कुशल प्रवचनकर्ता हैं ।