आयोजन : ‘समाजरत्न’ पतिराम साव सम्मान समारोह संपन्न

समाजसेवी गेंदलाल देशमुख और कवि मुकुंद कौशल सम्मानित



दुर्ग. ‘वह लेखक हमेशा जीवित रहता है जो अपने युग और समय पर हस्तक्षेप करता चलता है. पतिराम साव आज भी हमारे बीच जीवित हैं क्योंकि वे अपने समय के प्रति सतर्क थे. वे ‘साहू सन्देश’ के संपादकीय में अपने युग में हो रहे परिवर्तनों पर निरंतर हस्तक्षेप कर रहे थे. वे केवल कविता के ही नहीं हिंदी गद्य के भी सशक्त कलमकार थे. इसलिए हम आज भी उनके विचारों का स्मरण करते हैं और उनसे सीख ग्रहण करते हैं.’ उक्त विचार पतिराम साव सम्मान समारोह में पधारे मुख्य अतिथि, कल्याण महाविद्यालय, भिलाई के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ.सुधीर शर्मा ने व्यक्त किये. अध्यक्षता करते हुए अनुसूचित जाति जनजाति विभाग, रायपुर के सहायक संचालक डॉ.बी.आर.साहू ने कहा कि ‘मैं पतिराम साव जी के बड़े पुत्र अपने समय के यशस्वी शिक्षाविद अर्जुन सिंह साव का शिष्य रहा हूँ इसलिए भी सावजी के समाजसेवी संस्कारों को उनके परिजनों में निकट से देखने का अवसर पाता रहा हूँ.’

इस वर्ष वृक्षारोपण के जरिये पर्यावरण सरंक्षण करने वाले ग्राम हनोदा-कोडिया के निवासी गेंदलाल देशमुख को समाजसेवा के लिए तथा दुर्ग के प्रसिद्ध कवि मुकुंद कौशल को ‘समाजरत्न पतिराम साव सम्मान से अलंकृत किया गया. अतिथियों द्वारा उन्हें शाल श्रीफल और अभिन्दन पत्र भेंट किया गया. सम्मान ग्रहण करने के बाद गेंदलाल देशमुख ने अपने छत्तीसगढ़ी उद्बोधन में वृक्षों की महत्ता बताते हुए कहा कि ‘में मर जहूं त भूत बनके भी पेड़ लगाये बर आहूं.’ कवि मुकुंद कौशल ने कहा कि ‘शिक्षक नगर दुर्ग के तिलक स्कूल में तब पतिराम साव जी अध्यापक थे और मैं उनका शिष्य था. जिन हाथों ने मुझे कलम पकड़ना सिखाया आज उन्हीं के नाम से सम्मान ग्रहण करते हुए मैं भाव विभोर हो रहा हूँ.’ कौशल ने अपनी हिंदी छत्तीसगढ़ी कविताओं का पाठ कर उपस्थित जनों को आनंदित किया.
साहू सदन, दुर्ग में विगत २२ मार्च को संपन्न इस समारोह में युवा कवि राजाराम रसिक की पत्रिका का भी अतिथियों ने विमोचन किया. आरंभ में अभिनन्दन पत्र का वाचन राजनेत्री द्वय नीलू ठाकुर और हेमलता साहू ने किया, स्वागत भाषण प्रो.ललित कुमार साव ने दिया तथा संचालन सुबोध साव ने व आभार प्रदर्शन दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति के अध्यक्ष डॉ.संजय दानी ने किया. अतिथियों का स्वागत साहित्यकार अशोक सिंघई, मुमताज़, नासिर अहमद सिकंदर, परमेश्वर वैष्णव, प्रदीप भट्टाचार्य, रजनीश उमरे, कृष्णमूर्ति दीवाना तथा अन्यों ने किया. समारोह में भारी संख्या में प्रबुद्ध जन उपस्थित थे.

प्रस्तुति : विनोद साव
मोब. ९४०७९८४०१४


समीक्षा : समकालीन स्त्री-विमर्श को डाॅ. विनय कुमार पाठक का प्रदेय

(डाॅ. दादू लाल जोशी के शोध प्रब्रध की समीक्षा)

इस शोध प्रबंध की समीक्षा, समालोचना अथवा आलोचना में कुछ लिखने अथवा कहने से पहले हमें ध्यान देना होगा कि इस ग्रंथ की चौदह पृष्ठों की विस्तृत और विद्वतापूर्ण भूमिका के अलावा दोनों फ्लैफ में भी, दो अलग-अलग विद्वानों की अमृत वाणियाँ (मीठे वचन को संत कवियों ने अमृत के समान ही माना है।) दी गई हैं। इस तरह की सामग्रियाँ वस्तुतः प्रस्तुत कृति की समीक्षाएँ ही होती है। फिर भी मान्य समीक्षकों की समीक्षाएँ अलग महत्व रखती हैं और अधिक मूल्यवान होती हैं, अतः समीक्षाओं और आलोचनाओं की और भी निर्झरणियाँ विभिन्न स्रोतों से निकलनी चाहिए, निकलकर बहनी भी चाहिए, यह हमारी साहित्यिक परंपरा के अनुकूल भी है और आवश्यकता भी।

कहा गया है -
’’सूर, सूर, तुलसी शशि, उड़ुगण केशवदास।
बांकी सब खद्योत सम, जँह-तँह करत प्रकाश।’’
यह समीक्षा कुबेर जी के ब्‍लॉग में यहॉं भी पढ़ी जा सकती है. 

छत्तीसगढ़ में रंग-परंपरा

27 मार्च विश्व रंगमंच दिवस। जब बात विश्व रंगमंच की हो तो भला छत्तीसगढ़ के रंग-परंपरा की चर्चा कैसे नहीं होगी। क्योंकि दुनिया में सबसे पुराना नाट्य शाला छत्तीसगढ़ में जो मिलता है। दुनिया के बड़े रंगकर्मी छत्तीसगढ़ में जन्म लेते हैं। अतभूद शैली वाले नाचा-गम्मत भी छत्तीसगढ़ में ही मिलता है। हम चर्चा कर रहे छत्तीसगढ़ की रंग परंपरा की ।
सरगुजा में दुनिया का प्राचीन नाट्य शाला-
छत्तीसगढ़...कला और संस्कृति का गढ़। एक ऐसा प्रदेश जहां की रंग-परंपरा दुनिया में सबसे पुराना माना जाता है। दुनिया का सबसे पुराना नाट्य शाला छत्तीसगढ़ के सरगुजा में रामगढ़ के पहाड़ी पर मिलता है। रामगढ़ की पहाड़ी पर स्थित सीताबोंगरा गुपा और जोगमारा गुफा में प्राचीन नाट्य शाला के प्रमाण मिले है। खैरागढ़ संगीत एवं कला विश्वविद्यालय में शिक्षक वरिष्ठ रंगकर्मी योगेन्द्र चौबे बताते है कि आधुनिक थियेटर की तरह सीताबोंगरा गुफा के भीतर मंच , बैठक व्यवस्था आदि के साथ शैल चित्र मिलते है। सीताबोंगरा गुफा को छत्तीसगढ़ में रंगकर्म की परंपरा का जीवंत प्रमाण के रुप में देखा जाता है।
छत्तीसगढ़ में नाचा-गम्मत -
रंग-परंपरा में छत्तीसगढ़ के नाचा-गम्मत शैली की परंपरा बेहद प्राचीन है। प्रदेश के गांव-गांव में नाचा-गम्मत की परंपरा देखने को मिलती है। नाचा-गम्मत एक ऐसा रंगकर्म जिसके कलाकारों को न मंच की जरुरत होती है, न विशेष साज-सस्जा, वेष-भूषा की, न प्रकाश की, न पर्दे की। कलाकार अपनी खास तरह के पहवाने जो साधरण होते हुए विशिष्ट लगते है में सज-धजे होते है। न कलाकारों के पास कोई स्क्रिप्ट होती है, न संवाद लिखित में होता है। न पहले से प्रस्तुति को लेकर किसी तरह का कोई खास अभ्यास किया जाता है। सबकुछ दर्शको के सामने जीवंत होता है। महौल के हिसाब, सम-सामयिक घटनाओं, हाना-मुहावरों से हास्य और व्यंग से सराबोर होता है नाचा-गम्मत। लेकिन नाचा के इस विशिष्ट शैली को और नाचा कलाकारों नए आधुनिक तरीके से रंगकर्म की तौर-तरीकों के साथ नए प्रयोग कर उसे दुनिया में पहचान दिलाने का काम किया हबीब तनवीर ने। रंगकर्म के मास्टर हबीब तनवीर काम जन्म रायपुर में हुआ था। उन्होने भोपाल में नया थियेटर की स्थापना की और नया थियेटर के जरिए पूरी दुनिया ने देखीं छत्तीसगढ़ की रंग-परंपरा, छत्तीसगढ़ के रंगकर्मियों की कलाकारी, ताकत। खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय में शिक्षक औऱ वरिष्ठ रंगकर्मी योगेदन्द्र चौबे कहते है कि छत्तीसगढ़ की रंग-परंपरा छत्तीसगढ़ी नाचा-गम्मत में जहां दाऊ मदराजी , रामचंद्र देशमुख का नाम लिया जा सकता है। वहीं नाचा-गम्मत को नाचा कलाकारों के साथ उसे विश्व विख्यात बनाने का श्रेय हबीब तनवीर को जाता है।
अतीत के पन्नो से ----
छत्तीसगढ़ में परंपरागत नाचा गम्मत से परे थियेटर के रुप में प्रदेश में रंगकर्म का इतिहास 20वीं शताब्दी से मानी जाती है। छत्तीसगढ़ में एक से बड़कर एक नाटकार पैदा हुए। सन् 1903 में जब हिन्दी नाटकों का कही जोर नहीं था तब छत्तीसगढ़ी भाषा में पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने कलिकाल नाम से छत्तीसगढ़ी नाटक की रचना की थी। इसके बाद कई लेखकों ने हिन्दी-छत्तीसगढ़ी में नाटक लेखन कार्य किया। इसमें प्रमुख रुप डॉ. शंकर शेष, विभू खरे, डॉ. प्रमोद वर्मा, प्रेम साइमन उल्खेनीय है। इनके नाटकों को जीवंत प्रस्तुति देने काम किया सत्यजीत दुबे, हबीब तनवीर जैसे रंगकर्मियों ने। हबीब तनवीर ने तो आगरा बजार, राजतिलक, मोर नाम दामाद गांव के ससुराल, चरणदास चोर से जैसे कई चर्चित नाटको का निर्देशन किया। ये वो नाटक थे जिसे छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ की कलाकारों की पहचान पूरा दुनिया में कराई। चरण दास चोर नाटक जो कि छत्तीसगढ़ी भाषा में थी इतना प्रसिद्ध हुआ कि पूरी दुनिया ने जाना की छत्तीसगढ़ की नाचा रंग परंपरा कितना विशिष्ट और समृद्ध है। चरण दास चोर ने रंगकर्मियों के बीच राजनांदगांव के नाचा कलाकार गोविंदराम निर्मलकर को एक बड़े मंचीय नायक के रुप में उभार दिया। वैसे प्रदेश में रंगकर्म का स्वर्ण युग 70-80 के दशक को माना जाता है। यह वह दौर था जब एक से बड़कर एक नाटक प्रदेश में होते थे। सप्रे स्कूल, आरडी तिवारी स्कूल और रंग मंदिर ऐसे स्थान जहां नाटक खेला जाता था। अमरीश पुरी , परेश रावल जैसे कई बड़ी हस्तियों ने छत्तीसगढ़ी में अपनी मंचीय प्रस्तुति दी है।

एक कमी जो आज भी खलती है----
संमृद्ध परंपरा वाले छत्तीसगढ़ में एक अदद रंग-भवन की कमी आज खलती है। सदियो पुराना रंगकर्म के इतिहास को समेटे छत्तीसगढ़ में प्रदेश के किसी भी हिस्सें में कोई सुविधायुक्त रंगभवन नहीं। अलग राज्य बने छत्तीसगढ़ को 15 साल पूरे हो गए लेकिन इस कमी अब तक पूरा नहीं किया जा सका है। जबकि इसी छत्तीसगढ़ में प्राचीन नाट्य शाला सदियों से मौजूद है। बावजूद इसके यह प्रदेश के रंगकर्मियों का दुर्भाग्य है कि उनके पास नाटक खेलने के लिए कोई सभागार या प्रेक्षागृह नहीं है।

सुविधाओं की कमी के बीच जारी है रंगकर्म ----
छत्तीसगढ़ में रंगकर्मियों के पास कोई खास सुविधा नहीं है। न ही रंगकर्मियों के पास कोई नाट्य मंचन से रोजगार का जरिया। आर्थिक अभाव रंगकर्मियों के बीच सबसे अधिकर है। इन सबके बावजूद राजधानी में प्रति वर्ष मुक्तिबोध स्मृति, शंकर शेष स्मृति , हबीब की यादें नाम से नाट्य समारोह का सिलसिला जारी है। छत्तीसगढ़ में आज अनुप रंजन पाण्डेय, योगेन्द्र चौबे, राजकमल नायक, सुभाष मिश्रा, मिर्जा मसूद , हीरामन मानिकपुरी, अजय आठले, उषा आठले ऐसे नाम है, जो रंगकर्म की कमान संभाले हुए हैं। उम्मींद कर सकते हैं कि प्रदेश की जीवंत रंग-परंपरा सदा इसी तरह कायम रहेगी। और रंगकर्मियों की मांग सरकार जल्द पूरा करेगी।
वैभव शिव पाण्‍डेय
(शोध छात्र एवं ईटीवी संवाददाता)

डॉ. नथमल झँवर की पांच कवितायें



डॉ. नथमल झँवर जी मेरे गृह नगर सिमगा में निवास करते हैं किन्‍तु उनकी रचनायें संपूर्ण हिन्‍दी विश्‍व में लगातार छपती है। झँवर जी मूलत: कवि हैं किन्‍तु वे कहानियॉं एवं व्‍यंग्‍य भी लिखते हैं। उनकी कहानियॉं विभिन्‍न राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं। उनकी दो कवितायें इस ब्‍लॉग में यहॉं प्रकाशित हैं, उनके कविताओं का एक संग्रह 'एक गीत तुम्‍हारे नाम' ब्‍लॉग प्‍लेटफार्म में यहॉं संग्रहित है। प्रस्‍तुत है उनकी पॉंच कवितायें -

1.जाने क्यों डरते हैं

कैसी दुनिया है मनुष्य होने का दम भरते हैं
बेटी के पैदा होने से, जाने क्यों डरते हैं
बेटी के होने पर क्यों है शोक मनाया जाता
नव कन्या को देख, बाप का चेहरा क्यों मुरझाता
बेटी की किलकारी सुन, क्यों दुखी हुआ जाता है
बेटी औ’ बेटे में अन्तर, समझ नहीं आता है
कैसी दुनिया है ये कैसा भेद किया करते है
बेटी के पैदा होने पर, जाने क्यों डरते है
बेटे को अपना, बेटी को कहें पराया धन है
समझ नही आता मानव का कैसा ये चिन्तन है
उसी कोख में बेटा - बेटी दोनों को पाला है
बेटी के पैदा होते मुख में लगता ताला है
नन्ही गुड़िया देख, हमारे आँसू क्यों झरते है
बेटी के पैदा होने पर, जाने क्यों डरते हैं
अरे । आज वह जन्मी है, कल लेगी वही बिदाई
बेटे के रहने से, अब तक कौन हुआ सुखदाई
बेटे अपने माता के आँचल में जब सोती है
लक्ष्मी जी की कृपा दृष्टि तब उसी समय होती है
स्वर्ग तभी बन जाता घर, औ’ सारे दुख हरते है
बेटी के पैदा होने पर, जाने क्यो डरते हैं
देख दुखी माँ - बाप, कलेजा उसका मुँह आता है
जीवनभर रखती है केवल, बेटी ही नाता है
बेटा तो पत्नि को ले, अब अपना किया बसेरा
वही पराया आज हुआ, जिसको समझा था मेरा
तन्हाई में मात-पिताके, आँसू जब झरते हैं
बेटी के पैदा होने पर, जाने क्यों डरते है
इसे फरेब कहें या कह दें दुनिया की सच्चाई
देख समझकर भी जाने क्यों समझ नही है आई
बेटी की महिमा को अबतक समझ नही हम पाए
जिस सपूत को जाया, हो जाते हैं वही पराए
फिर भी बेटा- बेटा कह, उस पर ही हम मरते है
बेटा के पैदा होने पर, जाने क्यों डरते हैं
जहाँ झूलती बेटी पलना, वह घर वृन्दावन है
जिस घर में बेटी पलती, जाने नंदन कानन है
बेटी ही राधा, कान्हा को आना ही पड़ता है
उस घर में ही प्राण समझ लें, बाकी सब जड़ता है
उस निवास में केशव हरदम वास किया करते है
बेटी के पैदा होने पर, जाने क्यों डरते है

2.कर्तव्य बोध

ओ माँ !
याद है मुझे
आज भी वह दिन
जब तुम मुझे
हाथ पकड़कर
ले जाती थीं घुमाने
नींद नहीं आने पर
देती थी थपकियाँ
सुनाती थीं
राजा और रानी की
कहानियाँ
ओ माँ !
याद है मुझे
आज भी वह बचपन
जब तुम मुझे
बिठा लेती थीं
अपने कंधो पर
खेलती थीं
मेरे साथ
आँख - मिचौनी
हर पल
हर क्षण
केवल मेरा ही
ध्यान रखती थीं
अब, जब -
मुझे ध्यान रखने का
वक्त आया
तब तुम
विदा हो गई
इस संसार से
हमेशा - हमेशा के लिये
ओ माँ !
कैसे उऋण कर पाऊँगा
अपने आपको
कैसे समझा पाऊँगा
अपनी आत्मा को
कुछ तो बता दो
ओ माँ !

3.चाह

माँगने से
क्या कभी मिला है ?
चाहने से
क्या कभी हुआ है?
क्यों माँगने हो किसी से सहयोग
क्यों पसारते हो किसी के आगे हाथ
इस दुनिया में ऐसा कोई नहीं
जो निःस्वार्थ किसी को सहयोग करे
बिना कारण
कोई तक करे
इस बात को गाँठ बाँध लो
तुम्हें चलना है -
एकाकी
अकेले
तुम अपने आप में सक्षम हो !
मानते हैं
चाह मनुष्य का स्वभाव है
लेकिन वह भी मर्यादित हो
लक्ष्मण रेखा है
उसकी भी
क्यों पालते हो ऐसी चाह?
जिसकी पूर्ति हो न सके
चाहो
लेकिन अपने आपको
तौलकर !

4.व्यथा बीज की

लहलहाता हुआ धान का बीज
सोचता है मन ही मन
कुछ दिनों बाद मैं पक जाऊंगा
बालियां ऊग आयेंगी मुझमें
और तब
बेच दिया जाऊंगा, किसी
मंडी में या मिल में
वहाँ बदल जायेगा
मेरा स्वरूप
नहीं पहचान पायेगा कोई
और फिर
बिछुड़ भी तो जाऊँगा
उन हाथों से
निहारा रात - दिन
बिछोह का दुःख
सता रहा था उस बीज को
दुनिया की यही तो रीति है
जिनने समर्पित कर दिया
अपना सारा जीवन
निःसवार्थ भाव से
हमारी, सिर्फ हमारी खातिर
उन्हें ही
अलग कर देते है
छोड़ देते है हम उन्हें -
उनके भाग्य पर,
कितने निष्ठुर हैं हम
कभी झाँककर देखा है हमने
अपने अंदर ?
सहा है हमने कभी
किसी पीड़ा को ?
विलग होने की पीड़ा ?
बंधुवर !
विछोह का दुःख
उस त्यागी आत्मा को होती है
हम को नहीं
काश!
हमें भी उसकी
अनुभूति हो पाती
लेकिन ऐसा नहीं होता
नहीं होता ऐसा
कितने स्वार्थी हैं हम
निर्मोही ! निर्मम !!
तब फिर
कहाँ शेष हैं हममें मानवता
आदर्श, बडप्पन ?
कहाँ शेष है ? कहाँ शेष है ??

5. डूबता कोई सितारा

अब अमावस रात जैसा
हो गया है मन हमारा
क्षितिज के उस पार
जैसे डूबता कोई सितारा
नयन कोरों से छिले हैं
आँसुओं के पाँव जैसे
और पलाकों में न जाने
आ गया ठहराव कैसे

जिंदगी की नाव को
मिलता नहीं कोई किनारा
छिप गया है आज कोई
बादलों में चाँद जैसे
नयन से ओझल हुए हैं
तब करूं फरियाद कैसे
शुष्‍क है वह मन
जहा पर थी अलौकिक प्रेम धारा

दिवस सूना रात सुनी
हो गई है भार जैसे
खुशनुमा यह जिंदगी अब
हो गई उधार जैसे
सोचता हूँ आज तक
यह जिंगदी कैसे गुजारा

डॉ नथमल झँवर सिमगा
09479107245

जिला न्‍यायालयों के महत्‍वपूर्ण निर्णय

भारतीय न्यायपालिका में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के कार्यान्वयन के लिए भारत के सवोच्‍च न्यायालय द्वारा ई- न्यायालय परियोजना 2005 के तहत् न्‍याय निर्णयों को सुलभ बनाने के लिए ई-कोर्ट वेबसाईट बनाया गया है जिसमें जिला एवं ताल्‍लुका न्‍यायालयों के न्‍याय निर्णय भी अब पीडीएफ फारमेट में तत्‍काल प्राप्‍त हो जा रहे हैं। इसके पूर्व सिर्फ सवोच्‍च न्‍यायालय एवं उच्‍च न्‍यायालयों के न्‍याय निर्णय ही इंटरनेट के माध्‍यम से प्राप्‍त हो पाते थे, अब ई-कोर्ट के कारण भारत के प्रत्‍येक जिला एवं ताल्‍लुका न्‍यायालयों के न्‍याय निर्णय कुछ क्लिक में उपलब्‍ध हो पा रहे हैं।

हमने ई-कोर्ट में उपलब्‍ध, छत्‍तीसगढ़ के जिला एवं ताल्‍लुका न्‍यायालयों के कुछ विशेष न्‍याय निर्णयों को एक ब्‍लॉग बनाकर प्रस्‍तुत करने का प्रयास किया है। जिसका लिंक यहॉं है, अभी कुछ दिन पहले छत्‍तीसगढ़ के गैंगेस्‍टरों के बीच हुए महादेव हत्‍याकाण्‍ड का फैसला दुर्ग न्‍यायालय के द्वारा दिया गया उसे भी इस ब्‍लॉग में शामिल किया गया है। हम प्रयास करेंगें कि नियमित रूप से महत्‍वपूर्ण एवं आवश्‍यक स्‍थानीय न्‍याय निर्णयों को उक्‍त ब्‍लॉग में प्रस्‍तुत करें।

सूचनार्थ ..

छत्तीसगढ़ के जनकवि :कोदूराम “दलित” भुलाहू झन गा भइया

५ मार्च को एक सौ पाँचवीं जयन्ती पर विशेष
{छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कहानीकार और वरिष्ठ साहित्यकार श्री परदेशीराम वर्मा जी की किताब – “अपने लोग” के प्रथम संस्करण २००१ से साभार संकलित}
छत्तीसगढ़ के जनकवि :कोदूराम “दलित”
भुलाहू झन गा भइया

पिछड़े और दलित जन अक्सर अन्चीन्हे रह जाते हैं | क्षेत्र, अंचल, जाति और संस्कृति तक पर यह सूत्र लागू है | पिछड़े क्षेत्र के लोग अपना वाजिब हक नहीं माँग पाते | हक पाने में अक्षम थे इसीलिये पिछड़ गये और जब पिछड़ गये तो भला हक पाने की पात्रता ही कहाँ रही |
हमारा छत्तीसगढ़ भी एक ऐसा क्षेत्र है जिसे हक्कोहुकूक की समझ ही नहीं थी | परम श्रद्धालु, परोपकारी, मेहमान-नवाज, सेवाभावी यह छत्तीसगढ़ इसी सब सत्कर्मों के निर्वाह में मगन रह कर सब कुछ भूल जाता है | “मैंने उन्हें प्रणाम किया” यह भाव ही उसे संतोष देता है | जबकि प्रणाम करवाने में माहिर लोग उसकी स्थिति पर तरस ही खाते हैं | छत्तीसगढ़ी तो अपनी उपेक्षा पर जी भर रोने का अवकाश भी नहीं पाता | जागृत लोग ही अपनी उपेक्षा से बच्चन की तरह व्यथित होते हैं ....
‘मेरे पूजन आराधन को
मेरे सम्पूर्ण समर्पण को,
जब मेरी कमजोरी कहकर
मेरा पूजित पाषाण हँसा,
तब रोक न पाया मैं आँसू’

हमारे ऐसे परबुधिया अंचल के अत्यंत भावप्रवण कवि हैं स्वर्गीय कोदूराम “दलित” | ५ मार्च १९१० को दुर्ग जिले के टिकरी गाँव में जन्मे स्व.कोदूराम “दलित” का निधन २८ सितम्बर १९६७ को हुआ | ये गाँव की विशेषता लेकर शहर आये | यहाँ उन्होंने शिक्षक का कार्य किया | अपने परिचय में वे कहते हैं....
‘लइका पढ़ई के सुघर, करत हववं मैं काम,
कोदूराम दलित हवय, मोर गवंइहा नाम |
मोर गवंइहा नाम, भुलाहू झन गा भइया
जन हित खातिर गढ़े हववं मैं ये कुण्डलिया,
शउक मुहू ला घलो हवय कविता गढ़ई के
करथवं काम दुरूग मा मैं लइका पढ़ई के’ |
कोदूराम “दलित” का यह उपनाम भी महत्वपूर्ण है | वे महसूस करते थे कि वे ही नहीं अंचल भी दलित है | छत्तीसगढ़ी का यह कवि हिन्दी और कवियों से जगमग लोकप्रिय काव्य मंचों पर अपनी विशेष ठसक और रचनात्मक धमक के कारण मंचों का सिरमौर रहा | अपने जीवन काल में ही दलित जी ने स्पृहणीय मुकाम पा लिया था मगर अतिशय विनम्र और संस्कारशील होने के कारण यथोचित महत्त्व न मिलने पर भी वे कभी नहीं तड़फड़ाये |
शोषण की चक्की में पिस रहे दलितों के पक्ष में कलम चलने वाले कवि ने आर्थिक सहयोग देने वाले राजनेता दाऊ घनश्याम सिंह गुप्त जी के सम्बन्ध में “सियानी गोठ” काव्य संग्रह में जो लिखा वह उनके चातुर्य और साहस को ही प्रदर्शित करता हऐ | “सियानी गोठ” के प्रकाशन के लिये दुर्ग के धान कुबेर दाऊ घनश्याम सिंह गुप्त ने उन्हें मात्र पचास रुपया दिया | सविनय राशि स्वीकारते हुये संग्रह में दाऊ जी के चित्र को ही उन्होंने नहीं छापा, बाकायदा यह वाक्य भी लिख दिया ....
“जानत हौ ये कोन ये
मनखे नोहय सोन ये”
यही दलित जी की विशेषता है |
“राजा मारय फूल म, त तरतर रोवासी आवय
ठुठवा मारय ठुस्स म, त गदगद हाँसी आवय”
यह कहावत है छत्तीसगढ़ में | कवि लेखक ठुठवा अर्थात कटे हाथों वाले लोग हैं |सत्ता, शक्ति से संचालित नहीं हैं लेखक के हाथ | इसीलिए वह ठुठवा है | और कमाल देखिये कि शक्ति संपन्न राजा जब फूल से भी मारता है तो मार भारी पड़ती है | मार खाने वाला बिलबिला कर रोने लगता है | लेकिन ठुठवा मारता है आहिस्ता और मार खाने वाला हँस पड़ता है क्योंकि चोट नहीं पड़ती | विरोध भी हो जाता है और सांघातिक चोट भी नहीं पड़ती | यह है कला की मार के सम्बन्ध में छत्तीसगढ़ का नजरिया | यह छत्तीसगढ़ी विशेषता है | दूसरे हमें फूल से छूते हैं तो हमें रोना आता है लेकिन हम दूसरों को मार भी दें तो वे आल्हादित होते हैं | यह प्रेम की जीत है | प्रेम का साधक किसी को मार ही नहीं सकता | छत्तीसगढ़ तो दूसरों को बचाता है स्वयं मिट कर | इसीलिए इसकी मार ऐसी होती है कि मार खाने वाले भी आनंद का अनुभव करते हैं |
छत्तीसगढ़ के लिए जो आंदोलन चला विगत पचीस बरस से, उसे आंदोलन के आदि पुरुष डॉ.खूब चंद बघेल ने अपने दम पर चलाया | छत्तीसगढ़ भातृ संघ के झंडे टेल संकल्प लेने वाले लाखों लोगों ने अपने खून से हस्ताक्षर कर उनके साथ जीने-मरने का संकल्प लिया | लेकिन छत्तीसगढ़ ने कभी तोड़-फोड़, मार -काट को नहीं अपनाया | जबकि दूसरे इलाकों में बात-बात में खून बह जाता है और लोग गर्वित भी होते हैं कि हमारे क्षेत्र में तो बात-बात में चल जाती है बन्दूक | हमें इस पर गर्व नहीं होता | हम तो गर्वित होते हैं कि हम सहिष्णु हैं | प्रेमी हैं | शांतिप्रिय और हितैषी हैं | इसीलिए कोदूराम दलित जैसा कवि हमारे बीच जन्म लेता है | और दान दाता धन कुबेर का सम्मान रखते हुए अपनी प्रतिपक्षी भूमिका भी पूरे गरिमा के साथ निभा ले जाता है …..
“जानत हौ ये कोन ये,
मनखे नोहे सोन ये”
यह मनुष्य नहीं सोना है | मनुष्य होता तो अरबों की संपत्ति का स्वामी साहित्य सेवक को मात्र पचास रुपया ही क्यों देता | व्यंग्य यह है | मगर पूरी मर्यादा के साथ |
दलित जी ने छत्तीसगढ़ी कविता को एक आयाम ही नहीं दिया , उसे वे जनता तक ले जाने में सफल हुए | वे छत्तीसगढ़ी कुंडलियों के रचनाकार के रूप में विख्यात हुए | बेहद प्रभावी और बहु आयामी कुंडलियों को लेकर वे मंच पर अवतरित हुए | आजादी मिली | जनतंत्र में कागज़ के पुर्जे से राजा बनाने की प्रक्रिया चुनाव के माध्यम से शुरू हुई | इसे दलित जी ने कुछ इस तरह वर्णित किया......

'अब जनता राजा बनिस करिस देश मा राज,
अउ तमाम राजा मनन बनगे जनता आज |
बनगे जनता आज, भूप मंत्री पद मांगे,
ये पद ला पाए बर, घर-घर जाय सवांगे
बनय सदस्य कहूँ जनता मन दया करिन तब
डारयँ कागद पेटी ले निकरय राजा अब ||

दलित जी आधुनिक चेतना संपन्न एक ऐसे कवि थे जिन्होंने विज्ञान के लाभकारी प्रभाव को अपनी कविता का विषय बनाया | उनके समकालीन कवियों में यह दृष्टि बहुत कम दीख पड़ती है …

तार मनन मा ताम के, बिजली रेंगत जाय
बुगुर बुगुर सुग्घर बरय,सब लट्टू मा आय
सब लट्टू मा आय ,चलावय इनजन मन ला
रंग-रंग के दे अँजोर ये हर सब झन ला
लेवय प्रान लगय झटका,जब एकर तन मा
बिजली रेंगत जाय, ताम के तार मनन मा ||
चाय, सिनेमा, घड़ी, नल, परिवार नियोजन, नशा, जुआ, पंचशील, अणु, विज्ञान, बम, पञ्चवर्षीय योजना, अल्प बचत योजना, चरखा, पंचायती राज आदि विषयों पर दलित जी ने कुंडलियों का सृजन किया है | अपनी धरती का मुग्ध भाव से उन्होंने यश गान किया ….


छत्तीसगढ़ पैदा करय, अड़बड़ चाँउर डार,
हवयँ लोग मन इहाँ के, सिधवा अऊ उदार
सिधवा अऊ उदार हवयँ दिनरात कमावयँ
दे दूसर ला मान, अपन मन बासी खावयँ
ठगथयँ ये बपुरा मन ला बंचक मन अड़बड़
पिछड़े हवय अतेक, इही कारण छत्तीसगढ़ |
पिछड़े छत्तीसगढ़ में भिलाई इस्पात संयंत्र के प्रादुर्भाव एवं उसके महत्त्व को कवि ने खूब रेखांकित किया है | वे एक चैतन्य कवि थे | उनकी चौकन्न आँखों ने अँधेरे उजले पक्षों को बखूबी देखा | भिलाई पर कवि की प्रतिक्रिया देखें …..
बनिस भिलाई हिन्द के, नवा तिरिथ अब एक
चरयँ गाय-गरुवा तिहाँ, बसगे लोग अनेक
बसगे लोग अनेक ,रोज आगी संग खेलें
लोहा ढलई के दुःख ला हँस-हँस के झेलें
रइथयँ मिल के रूसी- हिन्दी भाई-भाई
हमर देश के नवा तिरिथ अब बनिस भिलाई |

दलित जी अपने समकालीन कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय हुए | उनके सुयोग्य शिष्य के रूप में श्री दानेश्वर शर्मा आज उनकी परम्परा को और पुख्ता कर रहे हैं | श्री दानेश्वर शर्मा चौथी हिन्दी की कक्षा में उनके शिष्य थे | तब से ही लेखन और मंच के प्रति उनमें दलित जी ने संस्कार डालने का सफल यत्न किया | दलित जी छत्तीसगढ़ की परम्पराओं पर मुग्ध थे तो आधुनिक दुनिया के साथ कदम मिला कर चलने की कोशिश कर रहे छत्तीसगढ़ के प्रशंसक भी थे | उन्होंने राउत नाच इत्यादि के लिए भी अवसर आने पर दोहों का लेखन किया | यहाँ भी उनकी प्रतिबद्धता एवं दृष्टि का परिचय हमें मिलता है |

गांधी जी के छेरी भ इया दिन भर में नारियाय रे
ओखर दूध ला पी के भ इया, बुधुवा जवान हो जाय रे |
दलित जी परतंत्र भारत में जन्मे | उन्हें भारत की आजादी का जश्न देखने का अवसर लगा | भला उस यादगार दृश्य को वे क्योंकर न शब्दों में बाँधते ? उनका चित्रांकन जहाँ रंगारंग है वहीं अनोखेपन के कारण अविस्मरणीय भी ….............

आइस हमर लोक तंत्र के, बड़े तिहार देवारी
ओरी-ओरी दिया बार दे, नोनी के महतारी

विनोदी स्वभाव के दलित जी हास्य-व्यंग्य के अप्रतिम कवि सिद्ध हुए | भाषा और व्याकरण के जानकार दलित जी काव्यानुशासन को लेकर सतर्क रहते थे | जहाँ कहीं उन्हें रचना में अनुशासनहीनता दिखती वे सविनय रोकने से बाज नहीं आते | टोका-टोकी का उनका अंदाज अलबत्ता बहुत सुरुचिपूर्ण होता | टोके जाने पर भी व्यक्ति मुस्कुरा कर अपनी गलती स्वीकारता ही नहीं, सदा के लिए उनका मुरीद हो जाता | समाज में आर्थिक विषमता के कारण उत्पन्न कठिनाइयों का वर्णन उनकी रचनाओं में है | महत्वपूर्ण यह है कि वे अपनी रचनाओं के प्रतीक भी जीवनण और उससे जुड़ी अनिवार्य संगति से संदर्भित करते हुए उठाते हैं | इसीलिए दलित जी का व्यंग्य अपने अनोखेपन में उनके समकालीनों से एकदम अलग लगता है | यहाँ हम देख सकते हैं, उनकी विलक्षणता को.....

'मूषक वाहन बड़हर मन, हम ला
चपके हें मुसुवा साहीं
चूसीं रसा हमार अउर अब
हाड़ा -गोड़ा ला खाहीं |
हे गजानन ! दू गज भुइयाँ
नइ हे हमर करा
भुइयाँ देबो-देबो कहिथे हमला
कतको झन मिठलबरा

शोषण के कारण बेजार जन का ऐसा चित्रण वे ही कर सकते थे | अमीरों ने खून तो चूस लिया लेकिन अब वे हमारी हड्डियाँ भी चबाएँगे, यह भविष्य वाणी आजादी के पचास वर्षों में कितनी ठीक उतर गई इसे हम बेहतर समझ पा रहे हैं | वे हिन्दी में भी रचना करते रहे | एक लंबे समय से छत्तीसगढ़ में तरह-तरह के रचनाकारों की साधना चलाती आ रही है | एक वे जो यहाँ का हवा, पानी अन्न-जल ग्रहण करते हुए छत्तीसगढ़ी नहीं जानने के कारण हिन्दी में लिखने को मजबूर थे | दूसरी तरह के कलमकार वे हैं जिनके लिए छत्तीसगढ़ी दुदूदाई की बोली तो थी मगर वे उसमें रचना नहीं कर सके | उनका हिन्दीमय यशस्वी जीवन छत्तीसगढ़ी का कुछ भी भला नहीं कर सका | इसके अतिरिक्त ऐसे रचनाकार भी हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ में लेखन कर अपना स्थान बनाया और छत्तीसगढ़ी का गौरव भी बढ़ाया लेकिन सर्वाधिक कठिन साधना उनकी है जो हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों में ही सामान रूप से लिखने का जिम्मा सम्हाल रहे हैं | कोदूराम जी भी इसी परम्परा के कवि थे | यद्यपि सामान रूप से दोनों ही भाषाओं में या सभी विधाओं में महत्त्व प्राय: नहीं मिलता | दलित जी भी छत्तीसगढ़ी के कवि माने जाते हैं | चूंकि उनका काव्य वैभव छत्तीसगढ़ी में भी पूरे प्रभाव के साथ उपस्थित रहा | कल भी और आज भी उसका प्रभाव हमें दिखता है | इसीलिए उन्हें छत्तीसगढ़ी का संसार अपना प्रमुख कवि स्वीकारता है | लेकिन उनकी हिन्दी की रचनाएँ भी बहुत महत्वपूर्ण हैं |
काम और उससे उत्पन्न नाम ही महत्वपूर्ण है शेष काल के गाल में समा जाता है, इस भाव पर बहुत सारी रचनाएँ हम पढाते हैं | यहाँ देखें कुंडाली कुशल दलित जी का काव्य वैभव उनकी हिन्दी कविता के माध्यम से....
'रह जाना है नाम ही, इस दुनियाँ में यार
अत: सभी का कार भला, है इसमें ही सार
है इसमें ही सार, यार तू तज दे स्वार्थ
अमर रहेगा नाम, किया कर तू परमारथ
काया रूपी महल एक दिन ढह जाना है
किन्तु सुनाम सदा दुनियाँ में रह जाना है |

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इस होली में सारे कलुष धो लेना चाहता हूँ

इस सोसल मीडिया और इसके अस्त्र हिन्दी ब्लॉगिंग नें पिछले वर्षों से कुछ ऐसा छद्म और आभासी व्यक्तित्व का निर्माण कर दिया कि, लगने लगा कि मैं भी रचनाकार हूँ और मेरा एक अलग अस्तित्व निर्माण अब हो चुका है। हालाँकि हकीकत यह है कि ये पूर्ण आभासी है और जमीनी तौर पर मेरा लेखन घूरे के स्तर से उठ नहीं पाया है, किन्तु भरम तो भरम है। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकारों को सीट रिजर्वेशन लिस्ट में अपना नाम ढूंढते और झुंझलाते देखने पर कुछ ऐसा लगा कि, कम से कम मुझे तो अपने औकात में रहना चाहिए।
वर्तमान में छत्तीसगढ़ में लोकभाषा में लिखने वाले लगभग एक हजार लोग हैं। जिसमे से एक से ज्यादा किताबों के रचयिता भी पांच सौ से कम नहीं हैं। निश्चित तौर पर ऐसे रचनाकार वरिष्ठता की श्रेणी में आते हैं। इन पांच सौ रचनाकारों के सामने मेरा अस्तित्व कुछ भी नहीं। ये पांच सौ रचनाकार ऊपरी तौर पर भले न स्वीकारें किन्तु ये स्वयं निरंतर मंच की तलाश कर रहे हैं। व्यवहारिक तौर पर महिमा मंडनीय नियत मंचीय कुर्सियों की संख्या कम है। कुर्सियों के लिए पहले से ही जद्दोजहद है। ऐसी स्थिति में बिना प्रचुर लेखन किए, सीटों पर अपना नाम लिखा देखने के लोभ को मुझे छोड़ना होगा। अब लग रहा है कि, अपनी दक्षता क्षेत्र को छोड़ कर अन्यान्य विधाओं में भोथरे ज्ञान के साथ सेंध लगाने की जुगत मूर्खता के सिवा कुछ भी नहीं। अभी तो खड़ा होना सीखा हूँ, बहुत दूर तक चलना है, विश्वास भी है।
इस नए मीडिया के आभासी दुनिया में पांडित्य प्रदर्शन करते हुए यदि मैंने आपके सम्मान को चोट पहुचाया होगा तो मैं आपसे क्षमा मांगता हूँ।
-संजीव तिवारी (🔫 तमंचा रायपुरी)

आस्था और विश्वास के कवि- पं. विद्याभूषण मिश्र



जब कुछ पढ़ने लायक हुआ तब से छत्‍तीसगढ़ के दो कवि मेरे मन में बसे हैं एक स्‍व.नारायण लाल परमार और दूसरे विद्या भूषण मिश्र। दोनों से मैं पर्वों में शुभकामना संदेश के बहाने पत्राचार करते रहा हॅूं। बाद के वर्षों में मेरी बहन जांजगीर में व्‍याही और विद्याभूषण मिश्र जी के दर्शन के अवसर भी प्राप्‍त हुए किन्‍तु व्‍यक्तिगत संपर्क दर्शन मात्र के अतिरिक्‍त कुछ ना रहा। उनकी प्रकाशित रचनाओं के संबंध में पत्रों के माध्‍यम से ही मेरा जीवंत संपर्क बना रहा, मैं इस बात से संतुष्‍ट हो लेता था कि वे मेरी दीदी से मेरे संबंध में आर्शिवचन कहा करते थे। विगत कुछ वर्षो में अंतरालों के मध्‍य जांजगीर जाना हुआ, ‘पांव-पलौटी’ भी हुई किन्‍तु, भागम-भाग में उनसे उस तरह नहीं नहीं मिल पाया, जैसा मैं चाहता था। अलगी दफा मिलेंगें यही सोंचकर कई मुलाकातों को टालता रहा, अब यह अवसर कभी नहीं आयेगा। नमन.. मेरे प्रिय गीत कवि पं.विद्या भूषण मिश्र मैं आपके लाखों प्रशंसकों में से एक - संजीव ‘शरद’ (1993 के जमाने में मैं कवि हुआ करता था तब इसी नाम से मेरी कवितायें प्रकाशित होती थी)
    
पं. विद्याभूषण मिश्र को याद करते हुए, प्रस्‍तुत है संकल्‍परथ में प्रकाशित उनके संबंध में डॉ.देवेन्‍द्र आर्य का आलेख-  

आस्था और विश्वास के कवि- पं. विद्याभूषण मिश्र

पं. विद्याभूषण मिश्र उस सहज, सरल और सास्विक व्यक्ति का नाम है जो अमृत महोत्सव के द्वार पर खड़। गीतों की अमृतमयी गंगा से स्वयं तो स्नान कर ही रहा है उसके आनन्द सीकरों से अन्‍यों को भी तृप्त कर रहा है । मैं भी स्वयं ऐसे सौमाग्यशाली व्यक्तियों में हूँ जो बरसते मेघ के फुहारों की छुअन से तृषा और तृप्ति का अनुभव कर चुका हूँ। मिश्रजी का उदार भाव कोई बंधन या सीमा नहीं मानता । परिचय मात्र काफी है । प्रगाढ़ता का रस वे स्वयं घोल लेते हैं । मिश्रजी से मेरा परिचय ऊपरी तौर पर कुछ ही महीनो का है पर गहराई और विस्तार समीय होकर भी निस्सीम है और निस्सीम है तो है । मेरा नया गीत संग्रह- 'मैं उगते सूरज का साथी' निकला, आशीर्वाद कं लिए बडे भाई राम अधीर को भेजा, उन्होंने 'संकल्प रथमें मन-भाव से समीक्षा प्रकाशित की और आदेश दिया कि संग्रह की एक प्रति मिश्रजी को भी भेज दो मैंने एक प्रति भेज दी और चुपचाप बैठ क्या। सप्ताह दस दिन बाद मिश्र जी का पत्र आया । बस यहां से परिचय और परिचय की प्रगाढ़ता शुरू हुई । मिश्रजी ने औघड दानी बनकर आशीर्वाद और शुभकामनाओं श्री वर्षा की पर मैं क्‍या करूं- अकिंचन की कथा ही छोटी पड़ गई । कभी मिश्रजी का पत्र आता है तो चारों ओर सुगन्धि फैल जाती है रसघार प्रवाहित होने लगती है- मैं तो बस मुग्ध भाव से देखता रहता हूँ ।

मिश्रजी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। है ऊपर से जितने सहज-सरल हैं भीतर से उतने ही संकल्पवान हैं । पिचहत्‍तर वसन्तो की खट्टी-मीठी सुधियों की धरोहर उनकें पास है जो खोने में पाने का सुख लेती हैं, एक घूंट पीकर सारा मन पनघट को है डालतें हैं। मेंने एक गीत में लिखा-एक प्रश्‍न उछाला था-

हैं बहुत तम के धुँधलके

और हम बैठें कहीँ पर मौन साधे

फिर कहो यह रोशनी जिससे कहेगी

कौन सूरज सा दहेगा ?

सूर ने लिखा है- 'यह दुविधा पारस नहि जानत, कंचन करत खरौं’ मिश्रजी पर यह बात बहुत ठीक बैठती है, वे पूरे संकल्प और विश्वास के साथ कहते हैं-

अंधियारे को साँपी मैंने

अपने तन-दियने की बाती

ब्‍याह रचाने को पीडा से

आते है संघर्ष बराती।"
- 'मन ने नहीं समर्पण माना'

संघर्ष मिश्रजी के जीवन की धुरी है संघर्ष की ज्‍वाला में तपकर ही व्यक्ति कुन्दन सा दमकता है । संसार में पग-पग पर काँच बिखरे है कटीली झाडि़यॉं और ऊँचे पर्वत राह में खडे हैं, अनन्त प्यास लिए मरूस्‍थल इस पर खड़ा है, संगतियों से ज्‍यादा विसंगतियां आकुल करती है लेकिन जो व्यक्ति नयनों की गंगा में अपने अन्तर को नहला लेता है दूसरों की पीड़ा के लिए हिम सा गल जाता है, वही सही अर्थों में जीवन को पहचान पाता है, वही व्यक्ति हिमालय सा तन कर ख खड़ा हो हैं कवि कहता है -

'कभी विसंगतियों के आगे, मन ने नहीं समर्पण माना
और
'ज्वाला मैं तप करके माटी, बन जाती पूजा का चन्दन

पूजा के चन्दन सी आस्था लिए कवि मानता है कि पतझर चाहे सारे पत्र बीन ले लेकिन-

पतझर में लुटने का स्वर ही

बन जाता जीवन का गुंजन ।

पतझर में जीवन के गुंजन की कल्पना/आस्था कवि की जिजीविषा का प्रतीक है। नित अभाव के गांव में स्वय झर जाना, फूल सा न खिल पाना मजबूरी नहीं है, समर्पण है, खिलने की अटूट इच्छा है, उत्कट अभिलाषा है, किसी विटप की छाँव में विरमने का भाव कवि के मन में नई स्‍फूर्ति की कल्पना है, आगे बढने का संकल्प है। कवि बिना मंजिल को जाने भी सीढि़यॉं लांघ रहा है क्यो ? क्योंकि उसे पता है कि सीढि़यां चाहे जितनी भी हो, उसके पार एक मंजिल मुस्करा रही है, इसलिये यह भविष्य की सुनहरी तस्वीर बना रहा है- पर जिसके लिए? शायद हर उस पथिक के लिए जिसमें मंजिल को पानें की उत्कट लालसा है, यदि कवि किसी एक व्यक्ति के लिए, किसी एक चिन्हित व्यक्ति के लिए तस्वीर बनाता तो उसका कैनवास सीमित हो जाता, पर उसकी कल्पना में तो अनन्त आकाश है, यह तो हर किसी की पीड़ा को, दुख-दर्द को रूपांकित करना चाहता है- कवि ससीम से निस्सीम हो जात्ता है और शायद इसीलिए उसके प्रेम के फूल सदा महकते रहते हैं- मुरझाना या खिलना तो सासों की सीमा है, विशेष बात है महकना। कवि का विश्वास देखिए-

अनुशासित मुस्कानों में अब भी अतीत आभा ।

विश्वासों के मौन क्षितिज में छाई अरूणाभा ।।
-'गीत के हैं पंछी चहके'

मिश्रजी की 'स्मृति पीड़ा से बल पाती’ है। यादों की बाती लेकर कवि का मन दीपक सा निरन्तर जलता रहता है । यादे है धरोहर है जो हर स्थिति में व्यक्ति के साथ रहती है । मेरा एक दोहा है-

घर छाँड़ा, छोड़ा शहर, छोडी जग पहचान।

पर सुधियों का क्‍या करूँ, बैठी बीच मकान ।।

मन-मकान के बीच बैठी सुविधा घर, शहर और जग-पहचान छोड़ने पर भी छूटती नहीं है और वस्तुत्त: सुधियों को कोई भूलकर भी भूलना नहीं चाहता क्योकि तिल-तिल जलना भी दे सुधियां मन-दीपक को नई गति, नई ऊर्जा प्रदान करती है । अभाव और पीड़ा जितनी अधिक होगी, दर्द की उम्र उतनी ही लम्बी हो जायेगी, कवि कहता है -

नित मुस्‍कान तुम्हारी अविरल, उर-आंगन में है अंकुराती।

कवि मानता है कि अगर सुधियों की थाती न होती तो यह माटी का तन माटी का ही बना रहता, यह तो तुम्हारी स्मृति है कि -

तुमसे ही तन की माटी को कंचन का उदयनान मिला है।

काँटों को सहने के कारण फूलों को सम्मान मिला है।
-‘स्‍मृति पीडा से बल पाती’

मिश्रजी संवेदनशील कवि हैं, जग भर की पीड़ा को अपना बना लेने की उत्कट आकांक्षा उनमें है। आज जबकि स्वार्थ के झंझानल से सारा परिवेश कम्पित है, पूरा का पूरा देश किरणों की जगह तम पीने को अभिशप्‍त है, नाव चाहे नई हो पर पतवार तो टुटी और जर्जर है, मझघार दुर्निवार है और मांझी निरूपाय है, हम जाति-धर्म की संकीर्णताआँ में फंसकर एक दूसरे की गर्दनें नापने को तैयार हैं, विजयरण में बढ़ने की जगह हम हार की ओर बढ़ रहे हैं, सब जानते-समझते हुए भी - यह यया हो गया है मेरी पीढी को? क्या हमारे सुख-सौभाग्य की दुलहिन कहारों की पालकी पर बैठकर कभी मंगल गीत नहीं गा पाएगी! नहीं! नहीं!! ऐसा नहीं है कवि जागृत है उसकी चेतना हजार-हजार कंठों से प्रेम-रागिनी गाना चाहती है, वह बहुत ही आशा-विश्वास के साथ, पूरी निष्ठा और आस्था के साथ अपने स्वर को बुलन्दी देता है-

"रोपें बिरवे चलो प्रेम के, जीवन उपवन में।

नए-नए अंकुर उग आएं, माटी के तन में।

श्रम के फूल खिलें मस्तक पर

मौसम लहराए।

सपनों कें चरवाहे गावें

बंशी धुन छाये।

उमड़े प्यार धरा पर क्षण-क्षण, अभिनव गुंजन में ।

रोपें बिरवे चली प्रेम के, जीवन उपवन में।"
-’कंपित सारा परिवेश’

आस्था/विश्वास वडी चीज है पर केवल विश्वास ही सब कुछ नहीं है जव तक कि उसमें कर्म का भाव न हो अगर हाथ में संकल्प और आँखों में नए सपने हो तो - (मेरे एक गीत की कुछ पंक्तियां हैं)

'हाथ में संकल्‍प, आंखों में नए सपने
आँधियाँ बन का चलो तो वक्‍त रूकवा दें।"

मिश्रजी का कवि मन भी यही कहता है-

अंतर की गंगा में सारे कडुए कलुष चलो हम धोलें ।

बँधी हुई दुस्तर गाँठों को, सुलझे चिन्तन से हम खोलें ।
सस्ता की आरती मिले तो देब बनें मत हम पाषाणी ।

वही कल्‍पना सही कहाती जो धरती के लिए शिवानी ।

सुविधाओं कें भुजपाशों का, बंधन सभी पहरूवे छोडे़
-कड़ुए कलुष चलो हम धोलें’

यह विडम्बना ही है जिन्हें पूरे विश्वास के साथ हम सत्ता की आरती सौंपते हैं, कुर्सी पाकर वे बढ़ते जाते हैं, फूल पाषाण बन भूल जाते हैं, सत्ता की पीनक में वे अपने स्वार्थ के अलावा सब कुछ भूल जाते हैं; पर कवि की चेतावनी है कि उन ‘पहरूओं’ को सुविधा के भुजपाश छोड़ने ही होंगें।

मिश्रजी आशा और आस्था के कवि हैं । वे मन का अमृत देकर जन जन को सुखी बना देना चाहते हैं -

अनफूलीं हर टहनी फूल से हिले।

अँजुरी भर गंध पवन पीकर मचले।

लीपे हर आँगन को रोशनी यहाँ

जागे हर गलियारा प्राण का जहाँ।

नित सुख के मंत्र जगें पीड़ा के द्वार

दुखियों को हर मौसम बाँटे नित प्यार।

गीतों का नेह भरा घट सदा ढले।

उम्र घटे चिंता की हो दुख की हार।

मन की साधें मत बीमार हों कभी

संतापित पीढ़ी के हों क्षण उससे।"

मिश्रजी के पास एक बड़। सा आईना है जिसमें वे निष्‍ठुर  समाज को उसका सही रूप दिखा देना चाहते हैं । पढ़-लिखकर भी हम स्वार्थ के दानव के हाथों अपना अस्तित्व बेंच देते है आदमी आदमी न रहकर लाशों का व्यापारी बन गया है। परिणय भी उसके लिए व्यापार है । लाचार दुलहिन को या निष्‍ठुर समाज दहेज की धधकती आग में झोंक देता है । अपना सर्वस्व सौंप देने पर भी नारी की विडम्बना देखिए-

संचित निधि अपने जीवन की लुटा धन्य होती नारी।

थी सुहाग की रात नूपुरों

ने स्वागत के गान रचे

मौन मांग की थी बिंदिया अरू

झुमके दोनों नचे-नचे।

दावानल ने झुलसायी थी, क्षण भर में सुषमा सारी ।

निरपराध नारी का शोषण

जिस समाज में है होता

यहाँ सर्वदा दुर्लभ अमृत-फल

जहॉ मनुज विष है बोता ।

हम बडे गर्व से कहते हैं, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्रदेवत्ता: लेकिन कहॉं पूजी गई नारी, कहॉं रह गए देवता ? सबको दहेज का राक्षस निगल गया, दावानल में सब झुलस गया । कवि की पीड़ा का अन्त नहीं है । हाय रे निष्‍ठुर समाज। तू अपने आंगन की कली को ही मसलने लगा, अरे तू तो उसका जीवन साथी बना था, तूने तो सात फेरे लेकर जीवन भर साथ चलने का प्रण लिया था क्‍या हुआ उसका – तू खुद लुटेरा हो गया! धिक्‍कार है तुझे! याद रख मनुज! जिस परिणय को तू व्‍यापार बनाना चाहता है, तेरे घर कभी अमृत-फल नहीं लगेंगे, विष-वेल उगेगी तेरे यहा-विषवेल! कवि की तड़फ शब्दों में नहीं समा पा रही है, काश! कोई उसे देख पाता! 

मिश्रजी मानव मन के बहुत बडे़ पारखी है । जीवन के लम्बे सफर में उन्होंने अनेक खट्टे-मीठे स्वाद चखें है । उनके पास वे गहरी आखें है जो मानव-मन से उतर कर उसकी सारी सच्चाई को उजागर कर देती है। कवि कहता है-

आज खुशामदखोर अहं के गरल उगलते हैं

करते हैं बाहर से सौदा भीतर बिकते है।

रिश्‍ते-नाते हुए खोखले मुँह देखा व्यवहार।

उल्लू सीधा यने वालों की है आज कतार।

पल-पल डींगें हांकते अपना यश दुहराते हैं।

चमचे स्वारथ के रस पीने शीश झुकाते है।

किन्तु असंभव है खोटे सिककों का चल पाना।

सबसे कठिन आदमी को है, आज समझ पाना।।
-"दर्पण में दोष नहीं"

व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी पं. विद्याभूषण मिश्र ऐसे सम्पूर्ण कवि हैं जो स्वयं जलकर भी समाज को रौशनी प्रदान करते हैं, स्वयं गरल पीकर संसार को अमृत का दान देते हैं, स्वयं सारी पीड़ा झेलकर सबकी सुख कामना करते हैं- इस पथ ने वे न कभी थकते हैं न कभी निराश होते हैं- ऐसे विराट चेतन को मेरा शत्-शत् प्रणाम ...।

डॉ.देवेन्‍द्र आर्य
वाणी सदन, बी-६८, सूर्यनगर, गाजियाबाद-201011.
(संकल्प रथ : जनवरी-फरवरी 2005)


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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...