अब तुलसी क़ा होइहै, नर क़े मनसबदार

-छत्तीसगढ़ शासन द्वारा 12 से 14 दिसम्बर को पुरखौती मुक्तांगन में प्रस्तावित 'रायपुर साहित्य महोत्सव' पर शेष-

राज्य बन जाने के बाद छत्तीसगढ़ का क्रेज हिन्दी पट्टी में भी बढ़ा है. इस बात को साबित करने के लिए एक वाकया काफी है. हुआ यूं कि एक बार, देश के सर्वोच्च आलोचक डॉ.नामवर सिंह राजकीय मंच से कहते हैं कि मैं ही आपका माधव राव सप्रे हूं. रियाया तालियॉं बजाती है, क्रांतिकारी हाथ मलते हैं, मनसबदारों के जी में जी आता है, कुल मिला कर बात यह कि, कार्यक्रम सफल होता है. आपने कभी सोंचा कि यह परकाया प्रवेश का चमत्कार कब होता है, तब, जब एक मुहफट आलोचक राजकीय अतिथि बनकर परम तृप्त होता है.

संतों! समय ऐसे कई उच्च साहित्यकारों के परकाया प्रवेश का समय आ रहा है. हॉं भाई, रायपुर साहित्य महोत्सव होने जा रहा है. इस पर राज्य में सुगबुगाहट है, खुसुरपुसूर हो रही है और साहित्य के कुछ संत छाती पीट रहे हैं. 

हमने भी रचनाकारों के प्रति राजकीय आस्था अनास्था के क्रम में कल ही कुम्भनदास को कोट किया था. लिख डालने के बाद याद आया कि, कुम्भनदास के समय में तुलसीदास नाम से भी एक कवि हुए थे. इधर अकबर के बुलावे पर कुम्भनदास अपनी पनही टोरते पैदल निकल पड़ते हैं सीकरी. उधर तुलसीदास बुलाने पर, बार बार बुलाने पर, बग्धी भेजे जाने पर, भी नहीं जाते. उनके दरबारी मित्र अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना रहीम का स्पेशल फोन भी आता है कि, मियॉं सीकरी में साहित्य महोत्सव करना है आकर चर्चा कर लेवें.

आगे की छोटी बातों को आप सब जानते हैं, बड़ी बात यह रही कि अकबर के बुलाने पर भी तुलसी नें दरबार में मत्था नहीं टेका वे रचते रहे, रचते रहे. आगे सत्य को समय नें सिद्ध किया और जहॉंगीर स्वयं तुलसी के दुआरे पहुंचे. साहित्य महोत्सव की रूपरेखा तय करने के लिए डायरी साथ लाए किन्तु तुलसीदास जी नें निर्विकार भाव से कहा कि मैं राज 'काज' में दखल नहीं दूंगा. वाह! धन्य हैं बाबा तुलसी, बाबा तुलसी की जय!

ऐसे मनसबदार कवि रहीम और जनझंडाबरदार कवि तुलसी, हर राज में हुए है. मनसबदार राजा को रचनाकारों और कलाकारों का लिस्ट सौंपते रहे हैं. कला और साहित्य के आयोजनों के प्रेमी राजा अकबर ऐसे मनसबदार कवि रहीम की अगुवाई में या पिछुवाई में कलाकारों और रचनाकारों को समय समय पर दरबार में 'नचनिया पेश किया जाए!' के तर्ज पर बुलाते भी रहे. वहीं राजा जहॉंगीर भी हुए जो तुलसी जैसे जनकवि के चौंखट में सलाम ठोंकरने स्वयं जाते भी रहे हैं. यही युग सत्य है, समय सापेक्ष है. 

आप रामचरित मानस लिखिए, जहॉंगीरों को आपके दुवारे आना पड़ेगा. बोलो सियाबर रामचंद्र की जय!!

किन्तु किस्सा अभी बाकी है मेरे दोस्त— ताजा रसोई से उठती खुशबू के साथ चर्चा यह भी आम रही कि, इतने बड़े आयोजन के पूर्व राज्य के साहित्यकारों और साहित्यिक समितियों से सलाह तो कम से कम ले लेना था. उनसे पूछा जाना चाहिए था कि आप किन्हें सुनना चाहते हो, देखना चाहते हो. बात में दम तो है, पूछने में हर्ज क्या था, एक सार्वजनिक प्रकाशन भर करना था. मानना नहीं मानना तो अकबरों की मर्जी है. आप अकबरबाजी छोड़कर जहॉंगीर की भूमिका निभा कर तो देखिए, हम मानते हैं कि हम तुलसी जैसे नहीं किन्तु राज्य में मानस रचयिता तुलसियों की कमी भी नहीं है.

सनद रहे कि हम जहाँगिरों को यह आस्वस्त भी करते हैं कि, हम सरकार की विफलताओं या नसबंदी कांड मे मृत महिलाओं का लेखा जोखा नहीँ पूछेंगे. सरकारी पोंगा से विरोध का गान नहीं गायेंगे किन्तु इतने बड़े आयोजन के सम्बन्ध में हमें पूछ तो लेते. हमें यह केवल्य ज्ञान हैं कि, समय हर जख्म को भुला देता है, हर गाला भर देता है. वैसे भी हमारा मगज तो सरकारी विज्ञापनों और अनुदानो के बिला पर गिरवी रखा है.

तमंचा रायपुरी
(बचा खुचा अपच का वमन)

संतन को कहाँ सीकरी सों काम ?

-छत्तीसगढ़ शासन द्वारा 12 से 14 दिसम्बर को पुरखौती मुक्तांगन में प्रस्तावित 'रायपुर साहित्य महोत्सव' पर शेष-
अब न कुम्भनदास रहे न अकबर बादशाह न फतेहपुर सीकरी। अब के कुम्भनदासों को हर पल अगोरा रहता है कि कब सीकरी से बुलावा आए और वे दौड़ पड़े। बिना अपने पनही के टूटने या घिसने की परवाह किए। इसमें शर्त बस इत्ती सी है कि, सीकरी तक आने जाने के लिए पुष्पक और असमान्य सम्मानजनक मानदेय। फ़ोकट में तो कोई भिस्ती भी न जाय। अब रही बात अब के रियाया और दरबारियों की, तो वे भी तभी इन कुम्भंदासों के आह में ताली बजाने आयेंगे जब कोई चतुर सेनापति बौद्धिक रणनीति अपनाएगा।

मौजूदा हालत में कुम्भंदासों की टीम और रियाया दोनों, सीकरी के आयोजन के प्रति उत्सुक हैं। सीकरी के चाहरदीवारी में रहने वाले बौद्धिक जो रियाया और दरबारी की परिभाषा से अपने आप को, परे समझते हैं उनके लिये ये समय मंथन का है। सरकारी है तो क्या ये असरकारी होगा? असरकारी होता तो क्या प्रभावकारी होगा? इन प्रश्नों की गठरी बांधने के बजाय, इस सरकारी साहित्यिक आयोजन को हम फैंटेसी मान लें।

भक्तजनों! साहित्य की दुनिया में आयोजनों का बड़ा क्रेज रहा है। आपको तो मालूम ही है कि, आयोजनो के चकाचौंध में लेखन गौड़ हो जाता है लेखक महत्वपूर्ण हो जाता है। आयोजनों की आंच दूर तक जाती है जिसमें कई कई परत के पूर्वाग्रह पकते हैं। इन्ही बातों को ध्यान में रखते हुए साहित्यकार बोधित्सव नें फेसबुक मे एक बार लिखा कि, लोकार्पण शब्द कभी कभी तर्पण की तरह सुनाई देता है.. और विमोचन लुंचन की तरह .. पुरस्कार तिरस्कार की तरह और .. बडा कवि सड़ा कवि ध्वनित करता है। ऐसे समय में जब एक जिम्मेदार साहित्यकार ये कहता है तब साहित्य का छद्म अनावृत हो जाता है, इनके कथनी और करनी में फ्रिक्शन नजर आने लगता है। राज्य का ताजा इतिहास गवाह है कि, सेनापति के खून सने हांथो से नेवता नई झोकेंगे कहने वालों की भीड़ सेनापति को सलाम ठोकते नजर आते हैं और हमारे जैसे दू दत्ता बछवा को चूतिया बनाते है। इसीलिए कलम की जनपक्षधरता में संदेह होने लगता है। छद्म जनपक्षधर कलमकारों और संदेह का लाभ उठाने वाले साहित्यकारों की पहचान तय करना आवश्यक हो जाता है। ऐसे कलमकारों, साहित्यकारों और जन पैरोकारों से साक्षात्कार के लिए हमें आयोजन को बढ़ावा देना चाहिए।

रही बात आयोजन में राज्य के दखल की तो, प्लेटो, अरस्तु और सुकरात के समय मे भी राजाओं का अस्तित्व दखलकारी रहा। किंग एडिबस रैक्स का फितूर कलम पर हावी रहा। साहित्य का वैचारिक पक्ष जहर के प्यालों में उबलता रहा। ऐसे ही समय मे सुकरात ने अपनी बात बड़ी दृढ़ता से रखी, उन्होंने कहा अपनी मूर्खता का जिसे ज्ञान है वही बुद्धिमान है। इसीलिए मै अपनी सर्वोच्च मुर्खता का भान और मान रखते हुए इस साहित्य उत्सव का स्वागत करता हूँ।

तमंचा रायपुरी
(अपच बौद्धिकता का रायता बिखराते हुए)

सरगुजिहा बोली और संस्कृति के पर्याय : डॉ.सुधीर पाठक

छत्तीसगढ़ के दो उपेक्षित क्षेत्रो में एक बस्तर की संस्कृति पर, अंग्रेजी अध्येताओं व हीरालाल शुक्ल से लेकर राजीव रंजन प्रसाद जैसे लेखकोँ नें प्रकाश डाला है किंतु छत्तीसगढ़ का सरगुजा क्षेत्र हमेशा से उपेक्षित रहा है. सरगुजा क्षेत्र की संस्कृति के संबंध मे अंग्रेज अध्येताओं नें भी विश्वसनीय जानकारी सामने नही लाई है. अंग्रेज अध्येताओं के अध्यन जमीनी सत्यता से कोसों दूर हैं. 


सरगुजा क्षेत्र की लोक कला एवं लोक गीतों पर विभिन्न शोध  कार्य हुए हैं. भाषाविज्ञान की दृष्टि से सरगुजिहा बोली पर शोधात्मक कार्य लगभग 40 वर्ष पहले डॉ.कांति कुमार जैन नें किया था. उसके बाद डॉ. साधना जैन नें उस शोध की कड़ी को विस्तार दिया. इसके उपरांत लम्बे समय तक सरगुजिहा बोली पर अकादमिक शोध कार्य नहीं हुए. लम्बे अंतराल के बाद डॉ. सुधीर पाठक नें इस पर कार्य किया. उनके शोध का विषय था, सरगुजिया बोली व छत्तीसगढी भाषा के व्याकरण का तुलनात्मक अध्ययन. इस शोध नें डॉ.कांति कुमार जैन एवं डॉ.साधना जैन के भाषावैज्ञानिक शोध में नये अध्याय जोड़े जो छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास में एक मील का पत्थर बना. हालांकि यह शोध ग्रंथ विश्वविद्यालय तक ही सीमित है, इसका लोक प्रकाशन नहीं हुआ है. 

छत्तीसगढी भाषा की समृद्धि के लिए डॉ.सुधीर पाठक के इस शोध ग्रंथ का प्रकाशन आवश्यक है. यह शोध भाषा सुधी अध्येताओं एवं शोधार्थियों के लिए सरगुजिहा बोली एवं छत्तीसगढ़ी भाषा के अंतर्संबंधों को समझनें में महत्वपूर्ण ग्रंथ सिद्ध होगी. डॉ. सुधीर पाठक से हुई चर्चा के अनुसार उन्होंनें इस शोध ग्रंथ के प्रकाशन के लिए संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ शासन से सहायता की मांग की है. देखिए संस्कृति विभाग अपनी ही संस्कृति के एक धरोहर के प्रकाशन के लिए सहयोग करती है कि नहीं.

पिछले लगभग बीस वर्षों से छत्तीसगढ़ के सरगुजा क्षेत्र की संस्कृति के संबंध मेँ कोई भी तथ्यपरक जानकारी यदि आप तक पहुंची है, तो यह तय मानें कि वह किसी न किसी रुप मेँ डॉ. सुधीर पाठक के माध्यम से ही आप तक पहुंची है. डॉ.सुधीर पाठक सरगुजा की बोली, साहित्य, संस्कृति और परम्परा के जीते जागते कोष हैं. यदि हम यह कहे तो, अतिश्योक्ति नहीं होगी.

ग्रामीण बैंक मेँ अधिकारी डॉ.सुधीर पाठक सरगुजा के मूल निवासी हैं. वे बैंक में सेवा करते हुए क्षेत्र के दूरस्थ ग्रामों में पदस्थ रहे हैं. अभी भी वे जहॉं पदस्थ हैं वहाँ आवागमन और संचार के माध्यमो की अल्पता है. वे इन दूरस्थ गाँवों में सरगुजा की मूल और 'आरुग' संस्कृति का साक्षात्कार करते हैं. अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण वे लोक बोली और परंपराओं का गहरा अध्ययन निरंतर करते रहते हैं. अपनी ही इसी प्रवृत्ति को वे समय समय पर शब्दो के माध्यम से विभिन्न आलेखों के माध्यम से या पत्रिका 'गागर' मेँ प्रस्तुत करते हैं. 'गागर' सरगुजिहा बोली की पहली पत्रिका है, जिसका प्रकाशन संपादन डॉ. सुधीर पाठक द्वारा सन 2003 में शुरू की गई जो आज तक अनवरत प्रकाशित है. इस पत्रिका के साथ ही डॉ.सुधीर पाठक भारतेंदु साहित्य कला समिति के माध्यम से लोक कलाओं का संवर्धन एवम लोक साहित्य के प्रकाशन का कार्य निरंतर कर रहे हैं.

डॉ. सुधीर पाठक द्वारा संपादित पत्रिका 'गागर' के दो अंक मेरे हाथो में है, जिसमें से एक मेँ सरगुजिहा लोककथा संग्रहित है ओर दूसरी नियमित अंक है. अभी मैनें लोक कथा अंक को पढ़ना आरंभ किया है. सरगुजिया लोक कथाओं पर फिर कभी, अभी डॉ. सुधीर पाठक को सरगुजिया बोली, भाषा व संस्कृति पर उनके प्रदेय के लिए कोटिश: आभार.
यदि आप चाहें तो उनसे 08959909048 पर संपर्क कर सकते हैं 

-संजीव तिवारी
Sarguja, Sargujiha Boli, Dr.Sudhir Pathak

एक मोबाईल नम्बर से चल रहे व्हाट्स एप्प को किसी दूसरे मोबाईल फोन से कैसे चलावें



मित्रों हममे से अधिकतम लोग दो मोबाईल नम्बर का प्रयोग करते हैं. एक का प्रयोग हम बातें करने के लिए करते हैं जो बहुत दिनों से हमारे पास है एवं जिसका नम्बर हमारे परिचितों को ज्ञात है.. और दूसरे का प्रयोग मोबाइल में इंटरनेट चलाने के लिए रखते हैं, इसे हम टेरिफ रेट के अनुसार समय समय पर बदलते रहते हैं. हमसे जुड़े लोगों को हमारा जो नम्बर पता है वे उसी में व्हाट्स एप्प की खोज पहले करते हैं इसलिए व्यवहारिक रूप में उसी नम्बर पर व्हाट्स एप्प चलाना चाहिए. यदि हम इन दोनों नम्बरों को दो सिम वाले मोबाइल फोन में उपयोग करते हैं तो उन दोनों में से किसी भी एक नम्बर पर व्हाट्स एप्प चला सकते हैं. उस नम्बर पर भी जिसमें इंटरनेट सुविधा ना हो. दो सिम वाले मोबाईल सेटों में ऐसा करने से मोबाईल की बैटरी बहुत जल्दी खत्म हो जाती है. बैटरी की समस्या का निदान पावर बैंक है किन्तु उसे ढोना अच्छा नहीं लगता. इससे अच्छा दो सिम वाले मोबाईल सेट में भी सिंगल सिम उपयोग करें, यानी दो फोन सेट प्रयोग करें. 




अब यदि आपके सार्वजनिक नम्बर में इंटरनेट की सुविधा ना हो और व्हाट्स एप्प भी आप उसी नम्बर पर चलाना चाहते हैं, तो यह संभव है. जिस दूसरे android मोबाईल सेट और नम्बर में इंटरनेट है उसमें आप अपने सार्वजनिक नम्बर का व्हाट्स एप्प उपयोग कर सकते हैं.



कैसे - अपने उस android मोबाईल फोन में नये सिरे से व्हाट्स एप्प इंस्टाल करें जिसमें इंटरनेट की सुविधा है. व्हाट्स एप्प को कानफिगर करने के क्रम में वहॉं अपना सार्वजनिक फोन नम्बर डालें. वहॉं फोन नम्बर मैच नहीं करेगा, व्हाट्स एप्प आपसे अप्रूवल के लिए दो विकल्प देगा, एक एसएमए से दूसरा फोन काल के द्वारा. आप दोनों में से कोई भी विकल्प चुन लें, आपके सार्वजनिक नम्बर में व्हाट्स एप्प से एक कोड प्राप्त होगा, उसे व्हाट्स एप्प में टाईप कर आगे बढ़ें. काम हो गया. अब आपके उस दूसरे नम्बर पर व्हाट्स एप्प चलेगा.

संजीव तिवारी 

ब्‍लॉगर्स के लिए आवश्‍यक सूचना : साहित्यिक पत्रिका हंस की पुरानी वेबसाईट लिंक तत्‍काल बदल लें



आज सुबह अरूण कुमार निगम जी का फोन आया कि, आपके छत्‍तीसगढ़ ब्‍लॉगर्स चौपाल में कुछ गड़बड है. तो मैं इस बात को बहुत ही सामान्‍य लेते हुए कहा कि देख लेता हूं. किन्‍तु अरूण भईया नें कहा कि समस्‍या गंभीर किस्‍म की है, कोशिस करें कि जल्‍दी उसका हल करें.. तो मैं चकराया, कारण पूछा तो उन्‍होंनें बताया कि, मेरे ब्‍लॉग एग्रीगेटर छत्‍तीसगढ़ ब्‍लॉगर्स चौपाल ब्‍लॉग में हिंदी की सबसे प्रतिष्ठित 'हंस' पत्रिका का जो लिंक लगा है उसे क्लिक करने पर पोर्न साईट खुल रहा है.

बात सचमुच गंभीर थी, हमारे कई पाठक जिन्‍हें आनलाईन साहित्यिक पत्रिका पढ़ना होता है वे मेरे इस ब्‍लॉग से इन लिंकों के सहारे वे, उन आनलाईन पत्रिकाओं में पहुचते थे. किन्‍तु हमारे सहित हजारों लोगों नें हंस पत्रिका की यही लिंक अपने ब्‍लॉग या वेबसाईटों में लगा रखी है इस कारण विश्‍वास नहीं हो रहा था. जब उस लिंक को क्लिक किया तो सचमुच में थाई भाषा की कोई पोर्न वेबसाईट इस लिंक से खुल रही थी. लिंक बिना रिडायरेक्‍ट हुए उसी डोमेन नाम से खुल रहा था. यह स्‍पष्‍ट है कि 'हंस' के इस पुराने वेब साईट के डोमेन की अवधि समाप्‍त हो गई होगी. इसके साथ ही इसकी लोकप्रियता एवं हजारों साहित्‍य प्रेमियों के ब्‍लॉग एवं वेब में लगे लिंकों, सर्च इंजन में तगड़े धमक के कारण किसी सिरफिरे नें इसे खरीद लिया एवं इसे मलेशियाई संतरागाच्‍छी बना दिया.

हिंदी की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका इसी 'हंस' में जब रामशरण जोशी का, छत्‍तीसगढ़ बालाओं का जुगुप्‍ता उपजाने वाला अमर्यादित लंबा वृतांत, दो किश्‍तों में छपा था, तब से हमें तो, यह लगने ही लगा था कि इस पत्रिका के डोमेन पर भरोसा करना, ज्‍यादा भरोसे के लायक नहीं है. उसके बाद के कुमार-कुमारियों के किस्‍सों की जानकारी आप सब को है. इन सबके वावजूद पत्रिका का स्‍तर राजेन्‍द्र यादव जी के रहते तक कायम भी रहा है. पिछले दिनों फेसबुक में एक वरष्ठि साहित्‍यकार नें ताजा अंक के संबंध में टिप्‍पणियां की थी जिसके यह ज्ञात होता था कि हंस का स्‍तर राजेन्‍द्र जी के जाने के बाद कुछ कम हुआ है. 

स्‍तर के आकलन की न तो हमारी योग्‍यता है ना ही हमारी कोई बौद्धिक जिम्‍मेदारी किन्‍तु वेब साईट में हंस के नाम पर फैले पोर्न वेब साईट को हटाने की अपील करने की जिम्‍मेदारी अवश्‍य है. तो मित्रों उन सभी ब्‍लॉगों एवं वेब साईटों में जहॉं 'हंस' पत्रिका के लिंक लगे हैं उन्‍हें बदल ले एवं पत्रिका का नया वेब साईट का लिंक लगा लें. हंस का वर्तमान वेबसाईट यह http://hansmagazine.in है. आगे इस डोमेन में भी साहित्‍य के बजाए कुछ और दिखाने लगे तो तत्‍काल सूचना दें.    

संजीव तिवारी

Android मोबाईल में हिन्दी टायपिंग

हमने कुछ वर्ष पहले विन्डोज एक्पी में हिन्दी टूलकिट के प्रयोग के संबंध में एक पोस्ट इस ब्लॉग में डाली है जिसके प्रतिदिन के क्लिक से यह ज्ञात होता है कि अब भी लोग कम्प्यूटर व मोबाईल जैसे साधनों में हिन्दी का प्रयोग नहीं कर पाते। इसे देखते हुए हमने Android मोबाईल में हिन्दी टायपिंग कैसे की जा सकती है इस पर जानकारी देना चाहते हैं। मित्रों इस विषय के संबंध में इंटरनेट में ढ़ेरों पोस्ट और ट्यूटोरियल्स हैं। इसके बावजूद अभी तक हमारे बहुत से मित्र इसका प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। लीजिए प्रस्तुत है क्रमिक चित्रमय जानकारी —

अपने मोबाईल से गूगल प्ले स्टोर में जायें.
बायनाकुलर सर्च टच कर Google Hindi Input लिखें.
सर्च से प्राप्त Google हिंदी इनपुट में आयें.
इंस्टाल करें. प्रक्रिया पूर्ण होने पर गूगल एप्स से बाहर आ जायें.

मोबाइल के सेटिंग में जायें - भाषा और इनपुट खोलें, “कीबोर्ड और इनपुट विधियां” अनुभाग के अंतर्गत, Google हिन्दी इनपुट को चेक कर लें.



आपका हिन्दी की बोर्ड इंस्टाल हो गया. इसके सहारे आप अंग्रेजी की को पुश कर देवनागरी हिन्दी शब्द टाईप कर सकते हैं या फिर हिन्दी के अक्षरों वाले की बोर्ड के सहारे देवनागरी हिन्दी टाईप कर सकते हैं. मैं अपनी सहूलियत के अनुसार अंग्रेजी की पुश कर हिन्दी प्राप्त करता हूं यथा - hamara - हमारा. 


अब जहां आपको देवनागरी हिन्दी में टाईप करना है वहां जायें, लिखने के लिए उस स्थान को टच करें, कीबोर्ड प्रकट हो जायेगा. इसमें लिप्यंतरण मोड चालू/बंद करने के लिए अंग्रेज़ी कीबोर्ड पर बटन “a-अ” आ गया है, इसे टॉगल करें. लिप्यंतरण मोड में आप अंग्रेज़ी वर्णों में हिन्दी शब्द लिख सकते हैं और एप्लिकेशन उन्हें हिन्दी में रूपांतरित कर देगा. उदाहरण के लिए “hindi” लिखें और फिर आपको सूची से शब्द 'हिंदी' प्राप्त होगा.

शब्दों को टाइप करते समय यह ध्यान रखें कि अंग्रेजी की से मिले शब्द कभी कभी सहीं नहीं होते किन्तु गूगल संभावित शब्दों को की के उपर बताता है. यदि आप इसे टच करेंगें तो सही शब्द चुन लिया जाता है. जैसे उपर के चित्र में जोहार के स्थान पर जोहर लिखा रहा है. इस स्थिति में जोहार को टच कर दें. यदि की के उपर में सही शब्द ना दिखे तो उसी लाइन में दिए गए बिलो एरो को टच करें. यहां अतिरिक्त मिलते जुलते शब्द होंगें, आप इनमें से सही शब्द चुन सकते हैं. फिर वापस एरो को टच कर वापस की बोर्ड में आ सकते हैं. आपको शुरूआती समय में हिन्दी शब्दों के उच्चारण एवं उसके अंग्रेजी शब्दों पर ध्यान देना होगा. धीरे धीरे आप अंग्रेजी की से सटीक हिन्दी शब्द पा जायेंगें. 


यदि आपको इसके बाद अंग्रेज़ी में लिखना हो तो अंग्रेज़ी कीबोर्ड पर लिप्यंतरण मोड बंद करके (“a-अ” बटन दोबारा दबाकर), आप अंग्रेज़ी में लिख सकते हैं.

गूगल बाबा नें एक वीडियो खास आपके लिए बनाया है, इसे भी देख लें-



रवि शंकर श्रीावास्तव भाई नें अपने ब्लॉग पर अब अपने कंप्यूटर पर हिंदी में बोलकर सही-सही लिखें हिन्दी में एवं अंग्रजी में डाल कर इसे और सुविधाजनक बना दिया है. 



आशा है, इससे आप अपने मोबाइल को हिन्दी लिखने में सक्षम बना लिए होंगें. 

संजीव तिवारी

आंचलिक उपन्यास और डॉ.नामवर को न जानने का संतोष


फणिश्वर नाथ रेणु द्वारा 1954 में लिखे गए उपन्यास 'मैला आँचल' को आंचलिक उपन्यास माना गया है। अन्य आंचलिक उपन्यासों में नागार्जुन रचित मिथिला अंचल पर 'रतिनाथ की चाची', बरगद के पेड़ पर 'बाबा बटेश्वर नाथ', मछुवारो के कस्बे पर 'वरुण के बेटे' और तमका कोइली गाँव पर आधारित 'दुखमोचन' को माना जाता हैं।

रेणु के अन्य आंचलिक उपन्यासों में 'परती परिकथा' संयुक्त परिवार की कहानी, 'जुलुस' विभाजन के शरणार्थी लोगों की कथा और 'कितने चौराहे' अन्धविश्वास और नारी की स्थिति पर आधारित उपन्यास हैं। अन्य रचनाकारों में रांगेय राघव का 'काका' मथुरा के पुजारियों के सम्बन्ध में, उदय शंकर भट्ट द्वारा लिखित मुंबई महानगर के कस्बे वरसोवा का चित्रण करता उपन्यास 'सागर लहरें और मनुष्य' आदि हैं।

आंचलिक उपन्यास इन्हें क्यों कहा गया और आंचलिक उपन्यास की कसौटी क्या है यह जानने के लिए खुदाई शुरू करने पर पता चलाता है कि, रेणु ने स्वयं 'मैला आँचल' की भूमिका में लिखा “यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथांचल है पूर्णिया। पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला। ... मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गांव को पिछ्ड़े गांवों का प्रतीक मानकर इस किताब का कथाक्षेत्र बनाया है।” ऐसा भूमिका में लिख कर रेणु ने किसी उपन्यास के आंचलिक होने के लिए आवश्यक सूत्र गढ़ दिये और विवादों को विराम तक पंहुचा दिया था।

साहित्य में विवाद का विराम लगना संभव न था न ही लगना चाहिए क्योंकि यहाँ विवाद को विमर्श की तस्तरी में पेश किया जाता है, जिसमें से श्रेष्ठ पकवान आलोचना को माना जाता है। बीसवीं सदी के अंत और इक्कीसवी सदी के शुरुवात के लगभग आधे से भी अधिक सदी तक आलोचना के पर्याय के रूप में डॉ.नामवर सिंह स्थापित हैं अतः हम सहूलियत की दृष्टी से आलोचकों को नामवर कहते हैं।

बाद में इन्हीं नामवरों में से कुछ नें आंचलिक उपन्यासों के मानदंड रचे जिसके अनुसार किसी उपेक्षित अंचल विशेष का समग्र रूप प्रस्तुत करने वाले उपन्यास को आंचलिक माना। कुछ नें कहा कि आंचलिक उपन्यास का कथानक स्वरुप न तो पूरा गाँव होता और न पूरा शहर होता बल्कि वो क़स्बा जैसा कुछ होता है। (जो रवीस कुमार के कस्बे से जाहिर तौर पर अलग होता है) कुछ कहते हैं कि अंचल का सजीव चित्रण होना चाहिय यार, बस।

तो बिहार के पूर्णिया जिले के मेरीगंज गाँव को पिछड़े गाँव का प्रतीक मान कर रेणु ने 'मैला आँचल' लिखा जिसमें कोई सजीव नायक नहीं है। अन्य उपन्यासों में एक नायक अनिवार्य रूप से होता है जिसके इर्द गिर्द कथानक घूमता है। किन्तु आंचलिक उपन्यासों में चरित्र भले होते हैं पर वे नायक नहीं होते। ऐसे उपन्यास के नायक वह अंचल ही होता है, मने मेरीगंज गाँव ही नायक है। एक और बात जे कि, इसमें कथानक का विस्तार होता है पर इसकी कथा एक गाँव को छोड़कर बाहर नहीं जाती। अंचल को जिसने भी जिया है वो जानता है कि अंचल का विस्तार मने जीवन का समग्र मूल्यांकन, आंतरिक और बाह्य। वा भई, गजब!

हम सोंचते थे कि, आंचलिक का मतलब जानने की हमें का जरुरत है, हमें तो सब पता हइये है। ठीक वैसेइ जैसे हमने अपने एक वयोवृद्ध चचा जो साहित्यिक उपन्यासों के संग्रह और अध्ययन के शौक़ीन हैं उनसे जब पूछा कि 'चचा डॉ.नामवर सिंह को जानते हो?' तो उन्होंने असहमति जताई और जब हमने कहा कि डॉ.काशी नाथ सिंह के भाई हैं तो चचा ने बेफिक्री से कहा अरे हाँ वो! .. वो तो कवितायेँ लिखता था।'

© तमंचा रायपुरी

थूंक हलक में अटक गई है ..

सरकारें, अपराध करने या अपराध को प्रश्रय देने के लिए हमारे द्वारा ही चुनी जाती हैं। लोकतंत्र के सिक्का उछाल पर मोदी का पट कभी कभार आता हैं। छत्तीसगढ़ में हुए नसबंदी कांड में अब तक 10 महिलाओं की मौत हो चुकी है। जतायें या ना बतायें किन्तु यह सत्य है कि रमन सरकार चित है। राजीतिक ड्रामेबाजी चल रही है और बेतुके बयान समाचारों में चर्चित हो रहे हैं। सोशल नेटवर्किंग साईटों में भी इस अपराध पर सरकार की जमकर धुनाई हो रही है। अब तक जो भाजपा के कार्यों के समर्थन में मंगलाचरण पढ़ रहे थे वे भी कीलक पढ़ रहे हैं। जनता के पास आह! करने के सिवा कुछ भी नहीं है। सरकार या सरकार के नुमाइंदों का तो मुह सूख गया है, थूंक हलक में अटक गई है 'आह!' कहना भी अब मुश्किल है। ऐसे समय में फेसबुक में सक्रिय देवेन्द्र दुबे कहते हैं 'मुझ जैसे मोदी समर्थक को आज ये देखकर दुःख हो रहा है कि- छ.ग. में बीजेपी ठीक आज उसी भूमिका में है जिस प्रकार कांग्रेस यूपीए 2 में थी... जमीनी हकीकत से कोसों दूर.... जनता से जुड़ाव ख़तम.... चापलूसों और अटपटे बयानबाजों की अधिकता... गली गली अवैध शराब की बिक्री... 10 क्विंटल चावल की खरीदी.... अब ये नसबंदी काण्ड..... 15 साल बहुत होते है.... आने वाले स्थानीय चुनावों में रमण सिंह जी और बीजेपी को इसकी धमक जरुर सुनाई देगी.... बस इन्तजार कीजिये ....मै जमीनी हकीकत बयां कर रहा हूं।'

फेसबुक में ही सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार गिरीश पंकज जी कहते हैं 'बिलासपुर के पास सरकारी शिविर में नसबंदी के बाद सात युवतियां मर गयी, 53 की हालत गभीर है.ये किस तरह के शिविर है? क्या छोलाछाप डाक्टर कर रहे थे आपरेशन? इन लोगो की सजा केवल उम्र कैद ही हो सकती है, अपने कर्तव्य को ठीक से न करना भी अपराध है. और ऐसा अपराध जिसमे 7 औरतो की जान चली जाये? ये नसबंदी आपरेशन था या ''सांसबंदी' आपरेशन? दोषी लोगो के निलंबन से भी बात नहीं बनेगी, इनको फ़ौरन गिरफ्तार किया जाना चाहिए, और इन मुकदमा चलना चाहिए।'

गिरीश भईया, पूरी सिस्टम दोषी है। अंखफोड़वा कांड में जिसनें दवाईयॉं सप्लाई की थी उसे ही फिर से ठेका क्यूं और किसकी सिफारिश से दिलवाया गया। जनता की आंख फोड़ने के बाद सरकार क्यों सोई रही।

ईटीवी के पत्रकार पं.वैभव पाण्डेय इस घटना पर अपना दुख कविता के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। इस पर भी लोग राजनीति करने से बाज नहीं आते, लोग उनकी कविता अपने नाम से अपने वाल एवं व्हाट्स एप्प में ठेलते जा रहे हैं। ऐसे लोगों के लिए विरोध के स्वर उधार में लेने का समय है, उनके पास भी शब्द नहीं है। इस कांड में हुई लापरवाही पर सरकार की निंदा करने के साथ ही हम उन उधारी लेने वाले नेताओं की भी निंदा करते हैं। यह है वैभव पाण्डेय की कविता —

छत्तीसगढ़ म मउत "अमर" हे
कोनो मरत हे त का कसूर हमर हे
आंखी फूटिस, गरभ फूटिस
उल्टी-दस्त म परान ह छूटिस
पीलिया-डायरिया म मरगे झारा-झारा
बता भला का जिम्मेदारी हमर हे
छत्तीसगढ़ म मउत "अमर" हे
कोनो मरत हे त कसूर हमर हे
मै थोड़ेव मांगे रहेव सीएम ले पूछ
स्वास्थ बिभाग म होवय चाहे कुछ
न डाक्टर, न डाक्टरी, मै सिरिफ मंतरी
बता भला येमा का दोस हमर हे
छत्तीसगढ़ म मउत "अमर" हे
कोनो मरत हे त कसूर हमर हे
मोला न दुख न गम हे
मोला का के भला सरम हे
सीएम करथे मोर बचाव
गुड़ाकू हमार धरम हे
मउत म घलोक हांस परथव
जेन मन आथे तेन कहिथव
काबर
काबर इहां चलथे मरजी हमर हे
छत्तीसगढ़ म मउत "अमर" हे
कोनो मरत हे त का कसूर हमर हे
-पं.वैभव "बेमेतरिहा"

बहरहाल.. छत्तीसगढ़ के पत्रकार र्मच्यूरी में होते हुए भी लगातार समाचार की तह पर जा रहे हैं एवं समाचार हम तक पहुचा रहे हैं। सरकार अपनी बेबसी पर अंदर से रो रही है किन्तु दीदावर छत्तीसगढ़ को अंर्तराष्ट्रीय बना रहे हैं।

संजीव तिवारी


रविन्द्र गिन्नौरे : सहज सरल व्यक्तित्व

पिछले दिनो मेरी मुलाकात छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार रविन्द्र गिन्नौरे जी से हुई, मैं उनसे कभी मिला नहीं था। रविंद्र गिन्नोरे जी के नाम से मेरा आरंभिक परिचय दैनिक भास्कर के परिशिष्ट सबरंग के साहित्य संपादक के रूप में था। बाद में उनका नामोल्लेख साहित्यिक और पत्रकारिता मंचों में ससम्मान होते पढ़ते सुनते रहा हूॅं। मेरी सर्वोत्तम जानकारी के अनुसार रविंद्र गिन्नौरी जी छत्तीसगढ़ के एसे वरिष्ठ पत्रकार हैं जिंहोने छत्तीसगढ़ के बहुत सारे समाचार पत्रों मे बतौर संपादक कार्य किया है। छत्तीसगढ़ के सन्दर्भ लेखन में उनका बड़ा योगदान है और उनकी किताबें छत्तीसगढ़ को असल रूप में प्रतिबिंबित करती हैं। लेखन और पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी ग्लेमराइज्ड छवि मेरे जेहन में बसी थी। भाटापारा में जब सहज और बेहद सरल रविन्द्र गन्नौरे जी से मुलाकात हुई तो एकबारगी मुझे विश्वास नहीं हुआ। जब उन्होंने आत्मीयता से मुझे स्नेह दिया और अपने घर चलने का निमंत्रण दिया तो समय की कमी के बावजूद मैं उनके साथ उनके साथ हो लिया। उनके साथ बात करते हुए उनके संबंध में जो कुछ मैं जान सका वह उनके व्यक्तित्व का एक छोटा सा पहलू है, फिर भी मैं उसे मित्रों से बाटना चाहता हूं।

रविन्द्र जी का घर एक जीवंत पुस्तकालय है, दुर्लभ किताबों के साथ ही उनके पास सभी विधा के नये पुराने लेखकों की किताबें, साहित्य, कला, संस्कृति व सामयिक पत्रिकायें हैं। वे अपने घर आने वालों को हमेशा किताबें भेंट स्वरूप देते हैं। किताबों के बीच उनके द्वारा लिखे जा रहे अलग अलग विषयों के फाइलें भी ढेरों व्यवस्थित रखे हैं।

रविन्द्र जी नें लेखन का आरम्भ व्यंग्य कालम लेखन से किया फिर वे फीचर लेखन के साथ ही फ्रंट लाइन पत्रकारिता में आ गए। इस बीच उन्होंने पुरातत्व, साहित्य, इतिहास, नृतित्व शास्त्र, पर्यावरण और विज्ञान पर लगातार लेखन किया। बहुआयामी लेखन करते हुए वे वर्तमान मे पर्यावरण उर्जा टाइम्स के संपादक हैं एवं छत्तीसगढ की लोक कथाओं और छत्तीसगढ़ के शक्ति स्थलों पर किताब लिख रहें हैं।

इन किताबों के संबंध में चर्चा करते हुए रविन्द्र गिन्नोरे जी बताते हैं कि, उन्हें छत्तीसगढ के शक्ति स्थल के सम्बन्ध में खोज करते हुए अनेक रोचक और चौकाने वाले तथ्य मिले। पूजन पदधति एवं परंपरा, मान्यता और किवदंतियों के संकलन में कहीं एतिहसिक कड़ियाँ जुडी तो कहीं कपोल कल्पना नजर आयी। छत्तीसगढ़ के शक्ति स्थलों पर उनके द्वारा लिखी जा रही किताब पर जब मेरी चर्चा हुई तो उन्होंने विस्तत चर्चा की और कुछ विशेष खुलासे किए।

उन्होंने छत्तीसगढ़ मे एक योनी पीठ होने के सम्बन्ध में बताया, भग्नावस्था में उपलब्ध इस योनि प्रतिकृति का आकर लगभग 2 बाई 2 है। कल्पना कीजिये यदि यह मूर्ति अपने वास्तविक आकार में होती तो यह कितनी विशाल होती। आगे वे बस्तर की एक देवी मंदिर का उल्लेख करते हैं जो साल मे सिर्फ एक दिन ही खुलता है जहाँ पुत्र प्राप्ति के लिए कामना की जाती है। मान्यता है कि यहाँ के आशीर्वाद से महिलाओं की गोद अवश्य भरती है। लोक मान्यता पर विशेष बल देने के प्रश्न पर वे कहते हैं कि, लोक मान्यता तथ्यों की समीक्षा नहीं करती वो तो अपने आस पास के जीवन व वाचिक परम्परा का अनुसरण करती है। इसका उदाहरण देते हुए वे छत्तीसगढ़ मे प्रचलित बहादुर कलारिन का उल्लेख करते हैं कि बहादुर कलारिन की मूर्ति मूलतः अष्टभुजी दुर्गा की मूर्ति है। लोक मान्यता के आधार पर इसे बहादुर कलारिन के रुप मे पूजा जाता है।

बातों बातों में वे दंतेश्वरी माता और संत घासीदास के सम्बन्ध में एक लोक प्रचलित कथा का उल्लेख करते हैं। जिसमे माता दंतेश्वरी के मंदिर मेँ धर्म ध्वजा फहराते घूमते घासीदास जी को बलि के लिए पकड़ कर लाया गया। बलि के पूर्व जब संत घासीदास की ईश्वरीय शक्ति का भान माता दंतेश्वरी को हुआ तब दंतेश्वरी माता ने उनकी बलि स्वीकारने से मना कर दिया। बलि की पूरी तयारी हो चुकी थी, ऐसी स्थिति मेँ वहाँ विराजमान भैरव ने विरोध जताया। भैरव के विरोध पर दंतेश्वरी माता क्रोधित हो गई। भैरव फिर भी नहीँ माना तब दंतेश्वरी माता ने भैरव को लात मारा। भैरव दूर नदी के उस पार जा गिरा। इसी समय से भैरव नदी के उस पार स्थित है।

छत्तीसगढ़ के बस्तर व मैदानी इलाके के लगभग 160 शक्ति स्थलों पर स्वयं जाकर सामाग्री इकत्रित करने व उनका विश्लेषण करने का काम वे अब तक कर चुके हैं एवं यह क्रम निरंतर जारी है। रविन्द्र जी देश के अनेक प्रतिष्ठित साहित्य पुरस्कारों के जूरी मेम्बर भी हैं। पुरातत्व पर उनकी एक महत्वपूर्ण किताब बहुचर्चित हुई। पुरातत्व पर इनके कइ शोध पत्र देश विदेश के शोध पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। पर्यावरण विषयों पर विभिन्न पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित हुए हैं, मुनिस्‍पल एण्‍ड हास्पीटल वेस्ट मैनेजमैंट पर उनकी एक अंग्रेजी में किताब आई है। इनकी लिखी एक किताब बाटनी पर कुछ महाविद्यालयों के पाठयक्रम में पढ़ाई जाती है। छत्तीसगढ़ के वनोपज एवं औषधीय वनस्पतियों पर भी उन्होंनें लेखन किया है। वर्तमान में वे जंगलों में रहने वाले पारम्परिक वैद व गुनियॉं लोगों से प्राप्त ज्ञान व वैज्ञानिक शोध के उपरांत स्वयं औषधीय वनस्पतियों के द्वारा विभिन्न बीमारियों का अचूक इलाज कर रहे हैं।

क्रमश:

संजीव तिवारी

FB Comments -
Dulari Chandrakar - mahan sahitykar se roobroo karane k liye dhanyvad sir....

Kamlesh Verma - हमू ल मिले के मउका मिलही त जरुर मिलबोन भैया़

सूर्यकांत गुप्ता - बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री गिन्नोरे जी के बारे में पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा...साथ ही आपके द्वारा प्रस्तुत उनके द्वारा लिखी किताब से उद्धृत अंश पढ़कर आनंद आ गया....उन्हे सादर नमन ...भाई संजीव को सादर धन्यवाद...

Kaushal Mishra - बहुत खूब

Birendra Saral - vah bhai vah ginnoure ji ki lekhni ko naman

Rahul Singh - गिन्‍नौरे जी के लेखन की गंभीरता और विश्‍वसनीयता यानि जिम्‍मेदार लेखन की झलक सदैव मिलती है.

Ramakant Singh - सादर

Kavi Sushil Bhole - रवीन्द्र गिन्नौरे जी को शुभकामनाएं..और आपको भी बधाई कि एेसे प्रतिष्ठत लेखकों का परिचय हमसे करवाते रहते हैं..

Sanjeet Tripathi - ravindra bhaiya ke sath kam karne par kafi kuchh sikhne ko mila.

रपट: जमुना प्रसाद कसार स्मृति व्याख्यान एवं पुस्तक विमोचन


दुर्ग के वरिष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं यशश्वी साहित्यकार जमुना प्रसाद कसार एक चिंतक और मानस मर्मज्ञ विचारक थे। उन्होंनें अपने साहित्य में अपने आस पास के परिवेश को लिखा। राम काव्य के उन पहलुओं और पात्रों के संबंध में लिखा, जिसके संबंध में हमें पता तो था, किन्तु जिस तरह से उन्होंनें उनकी नई व्याख्या की उससे उन चरित्रों की गहराईयों से हमारा साक्षात्कार हुआ। किसी रचनाकार के संपूर्ण रचना प्रक्रिया का मूल्यांयकन करना है तो यह देखा जाना चाहिए कि उसने क्याा कहा है। किन्तु एक चिंतक और विचारक की रचनाओं का मूल्यांकन करना है तो यह देखा जाना चाहिए कि, उसने उसे कैसे कहा है। कैसे कहा है इसे जानने के लिए आपको उसे गहराई से पढ़ना होता है। कसार जी की रचनाओं को आप जितनी बार पढ़ते हैं उसमें से नित नये अर्थ का सृजन होता है। कसार जी की पुण्य तिथि 30 अक्टूाबर को दुर्ग में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। प्रस्तुत है उसकी रिपोर्टिंग - 

दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति के द्वारा आयोजित वरिष्ठ साहित्यकार एवम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जमुना प्रसाद कसार जी की पुण्य तिथि पर स्मृति व्याख्यान एवं पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम 30 अक्टूजबर को दुर्ग मे संपन्न हुआ। कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रुप मे वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर, अध्यक्ष के रूप में पूर्व चुनाव आयुक्त एवं साहित्यकार डॉ सुशील त्रिवेदी एवं मुख्य वक्ता के रुप मे वरिष्ठ कथाकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी उपस्थित थे। कार्यक्रम को संबोधित करते हुए मुख्य वक्ता परदेशीराम वर्मा ने जमुना प्रसाद कसार जी के अंतरंग जीवन यात्रा और रचना यात्रा का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया। उन्होंनें स्वतंत्रता संग्राम के समय से अपने जीवन के अंतिम काल तक निरंतर सृजनशील जमुना प्रसाद कसार जी की लेखन जिजीविषा एवं सामाजिक संघर्षों पर प्रमुख रुप से प्रकाश डाला। उन्होंनें कसार जी के स्वनतंत्रता आन्दोलन के काल में किए गए विरोध प्रदर्शनों और सजा का रोचक ढ़ग से उल्लेख किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत तत्कालीन कलेक्टर से अंग्रेजी साहित्य पढ़ने के लिए साग्रह सहायता मागने एवं उसे लौटाने के वाकये का भी उन्‍होंनें कथात्‍मक झंग से उल्लेख किया। 

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि रमेश नैयर नें शेरों के माध्यम से कसार जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को रेखांकित किया। अध्यक्षता कर रहे डॉ.सुशील त्रिवेदी ने जमुना प्रसाद कसार जी के जीवन संघर्षों एवं उनके भावी पीढ़ी को दिए गए संस्कारों की प्रसंशा की। जमुना प्रसाद कसार जी की धर्म पत्नी श्रीमती शकुन्‍तला कसार एवं पुत्र अरूण कसार नें जमुना प्रसाद जी के अंतिम दिनों को याद करते हुए रूंधे गले से हिन्‍दी साहित्‍य समिति एवं झॉंपी पत्रिका के साहित्य यात्रा को निरंतर रखने का आहवान किया। 

कार्यक्रम में कसार जी की दो किताबें 'आजादी के सिपाही' का द्वितीय संस्‍करण एवं झाँपी के पद्मश्री अंक का विमोचन हुआ। आजादी के सिपाही में दुर्ग जिले के 65 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की कहानियां है एवं झाँपी का अंक छत्तीसगढ़ के 17 पद्मश्री पर केन्द्रित है।

कार्यक्रम का संचालन रवि श्रीवास्तव एवं स्वागत भाषण दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति के अध्यक्ष डॉ संजय दानी ने दिया, आभार प्रदर्शन अरूण कसार नें किया। कार्यक्रम मे महावीर अग्रवाल, अशोक सिंघइ, मुकुंद कौशल, गुलबीर सिंह भाटिया, आचार्य महेश चंद्र शर्मा, रघुवीर अग्रवाल पथिक, डा.निर्वाण तिवारी, डी.एन.शर्मा, शरद कोकाश, प्रभा गुप्ता, नीता काम्बोज, प्रदीप वर्मा, डा.नौशाद सिद्धकी, संध्या श्रीवास्तव, तुंगभद्र राठौर, अजहर कुरैशी आदि दुर्ग भिलाई के वरिष्ठ साहित्यकार, चिंतक एवम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उपस्थित थे। 

लेबल

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