इस आम में क्‍या खास है भाई .... ?

सुबह से ही आरंभ हो जाने वाले नवतपा के भीषण गर्मी का जायका लेने के लिए आज मैं अपने घर के चाहरदीवारी में चहलकदमी कर रहा था जहां कुछ फूल, आम और फलों से भरपूर अमरूद के पेड हैं। वैसे ही मुझे ध्‍यान आया कि यहां लगे कुछ पेडों में से आम के एक पेड पर दो आम भी फले हैं। मैंनें आम के दस फुटिये पेंड पर नजरें घुमाई तो देखा दो बडे आम महोदय पेंड में लटके मुस्‍कुरा रहे थे। हमने उन्‍हें कैमरे में कैद कर लिया, कैमरे की फ्लैश चमकते देखकर बाजू वाले पंडित जी नें पूछ ही लिया कि आम में क्‍या खास है जो फोटो खींच रहे हो ?

दरअसल इस आम में खास बात यह थी कि इस बैगनपली आम को हमने सात साल पहले कम्‍पनी से अलाटेड 'हाउस' में लगाया था, और पिछले चार साल से इसके फलने की राह देख रहे थे। सात साल बाद जब इसमें बौर आया और जब यह मेरी श्रीमती के नजरों में आया तो वह क्षण उसके लिए खास ही था। मुझे याद है पिछले मार्च में उसने इसे देखने के तुरंत बाद मुझे फोन किया था, मैं उस समय कार्यालयीन आवश्‍यक मीटिंग में, मीटिंग हाल में था और मेरा मोबाईल बाहर मेरे एक सहायक के हाथ में था, फोन में उधर से मैडम कह रही थी कि आवश्‍यक है बात कराओ तो सेवक मीटिंग हाल में लाकर फोन मुझे दिया, मैंनें झुंझलाते हुए पूछा था कि क्‍या आवश्‍यक काम है, श्रीमती जी ने कहा कि हमारे आम में दो बौर आया है .....। मीटिंग में फोन सुनकर अपने चेहरे को मैं संयत कर रहा था पर साथ बैठे लोग उसे खुली किताब की भांति पढ लेना चाह रहे थे। मैंनें फोन बंद कर जेब में रखा तो सभी समवेत स्‍वर में पूछने लगे कि क्‍या हुआ। और जब मैनें इस आवश्‍यक समाचार को वहां सुनाया तो सभी हंस पडे थे। मीटिंग में ऐसी बातें आम नहीं होती कहते और झेंपते हुए मैंनें बात खत्‍म कर दी पर यह चर्चा कई दिनों तक आम रहा।

दो बौरों में छोटे छोटे कई आम के फल लगे किन्‍तु दो को छोड बाकी सब झड गये, अब घर के इन दोनों आम के पकने का इंतजार है, बचपन में गांव में ऐसे बीसियों आमों की अमरैया में भरी दोपहरी पके आम के टपकने का इंतजार करते गुजरे कई कई दिन अब लद गये हैं। भाग दौड और काम ही काम से भरे शहरी जिन्‍दगी में हम अपने घर के पेड में फले कुल जमा दो आम से अत्‍यंत संतुष्‍ट और प्रसन्‍न हैं जिसकी कीमत पैसों में दस रूपये से ज्‍यादा नहीं है।

संजीव तिवारी

प्रेम साइमन के बहाने - विनोद साव

पिछले पोस्‍ट में प्रेम साईमन जी को अर्पित हमारी श्रद्धांजली  एवं बडे भाई शरद कोकाश जी के अनुरोध को पढकर ख्‍यात व्‍यंगकार, उपन्‍यासकार आदरणीय विनोद साव जी नें भी प्रेम साइमन जी को याद किया और हमें यह लेख प्रेषित किया - 

मैंने प्रेम साइमन का कोई नाटक नहीं देखा। मेरी लेखकीय विधाओं में नाट्य लेखन कभी शामिल नहीं हो पाया। मैंने व्यंग्य, उपन्यास और कहानियाँ लिखीं, आजकल यात्रा वृतांत लिख रहा हूं। कुछ टीवी धारावाहिक भी लिखे। पर रंगकर्मी मित्रों के दबाव के बावजूद मैंने नाटक लिखने की कोई कोशिश नहीं की। उसका एक बचकाना कारण यह भी बताया जा सकता है कि दुर्ग-भिलाई में नाटकों के मंचन का केन्द्र प्रमुखतः नेहरु सांस्कृतिक सदन रहा। एक दुर्ग रहवासी होने के कारण यह स्थान मेरे घर से बारह किलोमीटर दूर रहा है। अपने आलसी स्वभाव के कारण बार बार नाटकों को देखने के लिए इतनी दूर आना मेरे लिए संभव नहीं हो पाया। यद्यपि मैंने दिल्ली मुम्बई प्रवास पर एन.एस.डी. और पृथ्वी थियेटर्स में कुछ नाटक देखे हैं। कुछ हास्य टीवी धारावाहिकों को लिखा भी है। पर नाटक लिखने से पहले यह जरुरी था कि मैं स्थानीय रंगकर्मियों द्वारा खेले जा रहे नाटकों को देखता। मैं यह भी नहीं जान पाया कि नेहरु सांस्कृतिक सदन में प्रेम साइमन के नाटक कितनी बार खेले गए हैं। हां, एक लम्बे अरसे से अखबारों में प्रेम साइमन के ’मुर्गीवाला’ को बहुत खेले जाने का हल्ला सुनता पढ़ता रहा था। इन्हीं में उनके कुछ नाटक - घर कहॉं है?, हम क्यों नहीं गाते? अरण्य गाथा और विरोध आदि के बारे में रंगकर्मियों से सुनता रहा हूं। विशेषकर संतोष जैन से, जो उनके बड़े प्रशंसक रहे हैं और जिन्होंने उनके साथ खूब काम किया था।

बावजूद इन सबके मुझे कभी नहीं लगा कि मैं प्रेम साइमन की लेखकीय प्रगल्भता से वाकिफ नहीं हूं। मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि साइमन और उनकी रचनात्मकता सक्रियता हरदम मेरे आसपास ही रही है। उनसे बहुत कम हुई मुलाकातों के बावजूद उनके नाम की तरह का ’प्रेम’ हमारे बीच हमेशा बना रहा। कभी किसी भीड़ में देखकर मुझे ’विनोद’ कह कर अपने आत्मीय स्वर में पुकारने से वे अपने को रोक नहीं पाते थे। वे जब भी मिलते तब ऐसा कभी नहीं लगता था कि हमारे बीच कोई दूरी है! शायद उनकी ऐसी अंतरंगता दूसरों को भी मयस्सर होती रही होगी। आखिरकार वे एक हर दिल अजीज इन्सान लगा करते थे।

मुझे कुछ समय कवि सम्मेलनों में शरद जोशी की परम्परा में गद्य व्यंग्य रचनाओं के पाठ करने का अवसर मिला था। रिसाली में ऐसे ही एक कार्यक्रम में मैंने अपनी एक रचना पढ़ी थी ’धान हमारा कटोरा उनका’। इस व्यंग्य रचना का अंतिम वाक्य मार्मिक था जिसमें मूल निवासियों के अपने ही घर में छले जाने की पीड़ा थी। मेरे बाद अपनी रचना पढ़ने के लिए जब माइक पर प्रेम साइमन आए तब मैंने पहली बार उन्हें पास से देखा था। अपनी रचना पढ़ने से पहले उन्होंने भाव विभोर होकर मेरी रचना पर कुछ टिप्पणी की थी। वे इतने भावुक हो गए थे कि लगभग उनकी आवाज में एक रुदन झलक रहा था और उन्हें ऐसा लग रहा था कि उनका नाटक ’घर कहॉं है?’ की भाव भूमि से मेरी रचना ’धान हमारा कटोरा उनका’ में कितना साम्य है। श्याम वर्ण लेकिन हरदम श्वेत वस्‍त्रधारी साइमन उस दिन किसी मसीहा की तरह लग रहे थे। वे सच्चे अर्थों में मसीही भाई थे।

भिलाई इस्पात संयंत्र की अपनी दीर्घकालीन सेवाओं के तहत कुछ स्थानांतरण होते रहे हैं। इन्हीं में जब मैं संयंत्र के कोक ओवन के कार्मिक विभाग में स्थानांतरित हुआ था तब तीन महीने के उस अल्प प्रवास में मुझे प्रेम साइमन का सान्निध्य प्राप्त हुआ था। वे लम्बे समय से कोक ओवन बैटरी में ही कार्यरत रहे। वहीं से उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृति ली थी। उनकी पर्सनल फाइल हमारे कार्मिक विभाग में थी। अपने व्यक्तिगत आवेदनों के कारण हमारे विभाग में उनका आना जाना लगा रहता था। तब हम दोनों कोक ओवन की कैंटीन में चले जाते जहां हम चाय पीते हुए लम्बे समय तक साहित्य की चर्चा करते। विचारों की दुनियॉं में विचरते थे।

कैंटीन में चाय पीते समय हमारी बातचीत अक्सर उनके द्वारा लिखे जा रहे धारावाहिकों पर होती। कथानक की अगली कड़ी का पूरा खाका उनके मस्तिष्क में होता था। वे इस पर वैसे ही बातें करते मानों उनके सामने पूरी स्क्रिप्ट पड़ी हो। इसका चित्रण वे जिस तरह करते थे वैसा ही अगले एपीसोड में प्रसारित होता था। सुनने वाले के सामने वे दृष्य खड़ा कर देते थे। इस मायने में वे प्रतिष्ठित पटकथा और संवाद लेखक की तरह विलक्षण लगते थे।
वे मुझे भी धारावाहिकों में संवाद लेखन के लिए उत्साहित किया करते थे। उन्होंने मेरे कुछ व्यंग्य संग्रह मुझसे मंगवाकर पढ़े थे। जिस दिन वे मेरी कोई किताब ले जाते, उसे उसी रात में पढ़ लिया करते थे और दूसरे दिन उस पर विस्तार से बातें कर लिया करते थे। उनका मानना था कि मेरी व्यंग्य रचनाओं में अच्छे संवाद भरे पड़े हैं जिनका अन्यत्र भी उपयोग किया जा सकता है। अपनी किताब को एक रात में ही पढ़ लेने वाले बौद्धिक पाठकों में मैंने दूसरे किसी शख्स को जाना था तो वे हैं दुर्ग के कवि अरुण यादव। उन्होंने मेरी दो किताबों की समीक्षा भी उसी रात को लिख मारी थी जिस पहली रात को उन्होंने किताब को पढा था।

वैसे भी प्रेम साइमन को मैंने एक अच्छे स्क्रिप्ट राइटर के रुप में ही सबसे पहले जाना था। तब लोकमंच के क्षेत्र में रामचंद्र देशमुख की तूती बोल रही थी। देशमुखजी लोक कला के क्षेत्र में वैसे ही पारखी व्यक्ति थे जैसे बम्बई की फिल्मी दुनियॉं में राजकपूर। उनके बैनर आर.के.फिल्मस ने जिन कलाकारों और तकनीशियनों को काम दिया था वे सारे हुनरमंद अपने अपने क्षेत्र में स्थापित हो गए थे। ठीक उसी तरह ’चंदैनी गोंदा’ और ’कारी’ के लोकमंच पर दाउ देशमुखजी ने जिन प्रतिभाओं को उतारा वे सारे इस कदर मुखरित हुए कि वादन, गायन, निर्देषन और लेखन के हर क्षेत्र में वे सभी कलाकार प्रतिष्ठा अर्जित कर गए। इनमें खुमान साव, लक्ष्मण मस्तूरिहा, भैयालाल हेड़उ, संगीता चैबे और रामहृदय तिवारी जैसे कई नाम हैं। इसी पंक्ति में प्रेम साइमन खड़े थे। देशमुखजी ने साइमन से ’कारी’ की स्क्रिप्ट लिखवाई थी और साइमन ने अपने धारदार संवादों से कारी के पात्रों को जीवन्त अभिव्यक्ति दी थी। तब जहां कहीं भी ’कारी’ की प्रस्तुति होती थी वहां किसी फिल्मी पोस्टर की तरह कारी का भी पोस्टर लगा होता था जिसमें प्रेम साइमन का नाम किसी हिट फिल्म के पटकथा लेखक की तरह लिखा होता था। रिसाली में ही एक बार ’कारी’ के महत्वपूर्ण अंशों का प्रदर्शन हुआ था। देशमुखजी मुझे कुछ मंचों पर ले जाते थे और उसकी रिपोर्टिग करने को कहते थे। वे मुझे मंच पर अन्य कलाकारों के साथ नहीं बैठने देते थे, कहते थे कि ’तुम एक दर्शक की तरह भीड़ में बैठकर देखो।’ हां.. इतना वे जरुर करते थे कि आयोजकों को बोलकर मेरे लिए एक कुर्सी जमीन पर बैठे दर्शक दीर्घा के बीच में लगवा दिया करते थे। ऐसे ही एक आयोजन में मैंने प्रेम साइमन के मार्मिक संवादों के छू लेने वाले प्रभाव को दर्शकों में देखा था।

अपने अंतिम समय तक प्रेम साइमन बेहद सक्रिय थे। वे अपने लेखन के उत्कर्ष पर थे। वे एक साथ हिंदी और छत्तीसगढ़ी नाटकों पर काम कर रहे थे। टेलीविजन के लिए धारावाहिक लिख रहे थे। फिर इस नये राज्य में छत्तीसगढ़ी फिल्मों के निर्माण के लिए भी खूब भागमभाग चल रही थी। तब वे छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट और संवाद लेखन में भिड़े हुए थे। कुछ सरकारी उपक्रमों के शिक्षाप्रद वृत्त फिल्मों के लिए भी वे लिख रहे थे। जाहिर है कि वे बेहद व्यस्त थे और छत्तीसगढ़ की इलेक्ट्रानिक मीडिया का वे अच्छा दोहन कर रहे थे।

यह माना जा सकता है कि आज के साहित्य के सामने उसे पढ़े जाने का संकट अगर है तो वह प्रिंट मीडिया में है और इस पाठक वर्ग को जोड़ा जा सकता है इलेक्ट्रानिक मीडिया के दृश्‍य माध्यम से। जहां पाठक दर्शक में तब्दील हो जाता है और दर्शक.. पाठक की तरह रचना और उसके संदेशों से जुड़ रहा होता है। ऐसा कर पाने में सफलता पाई प्रेम साइमन ने। उनका यह नवलेखन इस नव राज्य के लेखकों के बीच इलेक्ट्रानिक मीडिया में सबसे ज्यादा महत्ता के साथ स्थान पा गया था। वे एक बड़ी प्रतिभा थे और छत्तीसगढ़ से बाहर भी स्थान बना सकते थे। पर यह एक मानी हुई बात है कि कला या राजनीति का कोई भी मंच हो छत्तीसगढ़ अपने राज्य से बाहर अब तक अपना कोई ’गॉड फादर’ तय नहीं कर पाया है और इसलिए प्रतिभा की संभावनाओं के द्वार भी खुल नहीं पाते है। इन सबके बावजूद प्रेम साइमन हमारे बीच सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया लेखक थे।

विनोद साव
मुक्तनगर, दुर्ग 491001
मो. 09907196626
ब्‍लाग - रचना
email : Vinod.Sao1955@gmail.com

श्रद्धांजली : पटकथा लेखक प्रेम साइमन एक विराट व्‍यक्तित्‍व

छत्‍तीसगढ को संपूर्ण देश के पटल पर दूरदर्शन एवं नाटकों के माध्‍यम से परिचित कराने में मुख्‍य भूमिका निभाने वाले चर्चित पटकथा लेखक प्रेम साइमन का विगत दिनों 64 वर्ष की उम्र में देहावसान हो गया। छत्‍तीसगढ के शेक्‍सपियर कहे जाने वाले प्रेम सायमन फक्‍कड किस्‍म के जिन्‍दादिल इंशान थे । जो उन्‍हें जानते हैं उन्‍हें पता है कि जिन्‍दादिल प्रेम साइमन छत्‍तीसगढ के प्रत्‍येक कला आयोजनों को जीवंत करते नेपथ्‍य में नजर आते थे। उनका माटी के प्रति प्रेम, छत्‍तीसगढी संस्‍कृति, बोली पर गहरी पकड, बेहद संवेदनशीलता और दर्शकों के मन को मथने की अभूतपूर्व क्षमता के साथ ही सहज और सरल बने रहने वाला व्‍यक्तित्‍व आसमान की बुलंदियों पर बैठा ऐसा सितारा था जो आम आदमी के पहुच के भीतर था, सच्‍चे अर्थों में माटीपुत्र।

प्रेम साइमन कारी, लोरिक चंदा, मुर्गीवाला, हम क्‍यों नहीं गाते, भविष्‍य, अस्‍सी के दशक में सर्वाधिक चर्चित नाटक विरोध, झडीराम सर्वहारा, अरण्‍यगाथा, दशमत कैना, राजा जिन्‍दा है, भूख के सौदागर, गौरव गाथा, प्‍लेटफार्म नं. 4, 20 सदी का सिद्धार्थ, माईकल की पुकार, मैं छत्‍तीसगढी हूं जैसे कालजयी नाटकों के पटकथा लेखक व छत्‍तीसगढी फीचर फिल्‍मों के दूसरे दौर के आरंभ के सुपर हिट फिल्‍म - मोर छईहां भुंईया, व मया दे दे मया ले ले, परदेशी के मया के पटकथा लेखक, दूरदर्शन में राष्‍ट्रीय स्‍तर पर बहुचर्चित टीवी फिल्‍म ‘हरेली’, बहादुर कलारिन सहित सौ से अधिक टेलीफिल्‍मों के लेखक थे। लोकगाथा भर्तहरि पर रायपुर आकाशवाणी के लिए उनके द्वारा लिखित रेडियो ड्रामा नें आल इंडिया रेडियो ड्रामा काम्‍पीटिशन में पहला स्‍थान प्राप्‍त किया था। इसके अतिरिक्‍त इन्‍होंनें हजारों रेडियो रूपकों एवं अन्‍य कार्यक्रमों की प्रस्‍तुति दी हैं। प्रेम साइमन नाटक विधा में पारंगत थे, चाहे फिल्‍मी पटकथा हो या लाईट एण्‍ड साउंड शो का आधुनिक रूप। वे नाटक के हर रूप को उतने ही अधिकार से लिखते थे, जितने कि परंपरागत नाटकों या लोकनाट्य को लिखते थे। इनकी कार्यों की फेहरिश्‍त काफी लंबी है जिसे एक लेख में समाहित करना संभव भी नहीं।

साइमन के लिखे नाटक 'मुर्गीवाला' का एक हजार मंचन किया गया था। साइमन के नाटक में आम आदमी की आवाज होती थी, व्यंग्य होता था। उनके लिखे संवाद सीधे वार करते थे। उनके नाटक 'मुर्गीवाला' को देश भर में कई लोगों ने खेला। जाने-माने फिल्म अभिनेता व निर्देशक अमोल पालेकर ने भी। साइमन को लोग नाटक व फिल्म लेखक के रुप में जानते हैं। उनका एक पक्ष छुपा रहा। वे कविताएं भी लिखते थे। प्रेम साइमन मूलत: कवि थे, वरिष्‍ठ पीढी के रंगकर्मी स्‍व. मदन सिंह एवं तदुपरांत स्‍व. जी.पी.शर्मा की प्रेरणा से उन्‍होंनें पटकथा लेखन के क्षेत्र में कदम रखा। साइमन के लिखे संवाद इतने सशक्त होते थे कि नाटक में अभिनय गौण हो जाता था। संवादों के बल पर ही पूरे नाटक की नैया पार लग जाती थी। साइमन के लेखन में सुप्रसिध्द व्यंग्यकार स्व. हरिशंकर परसाई जी जैसी धार थी। वे बीमार थे पर लिखना नहीं छूटा था। उन्हें न खाने का मोह था न पहनने का। बस लिखने की धून थी। वे उन लेखकों में से भी नहीं थे जो अखबारों में छपवाने के लिए जेब में फोटो रखकर घूमते हैं। वास्तविकता यह है कि साइमन को लेखन जगत में जो सम्मान मिलना था वह नहीं मिला। सन् 1984 में उन्होंने छत्तीसगढ़ी नाचा पर आकाशवाणी के लिए एक स्क्रीप्ट लिखी थी। जो राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत हुई। उनका लिखा नाटक 'घर कहां है' आज भी याद किया जाता है।

इतने विशाल उपलब्धियों के कैनवास के बाद भी उन्‍हें कभी भी पैसे और नाम की चाहत नहीं रही। उनके इस फक्‍कडपन पर छत्‍तीसगढ के फिल्‍मकार प्रेम चंद्राकर बतलाते हैं कि उनकी सहजता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे मंच के सामने बैठकर अपने ही नाटक का मंचन देखते थे, लेकिन उन्‍हें आयोजनकर्ता, नाटक खेलने वाले कलाकार और दर्शक नहीं पहचान पाते थे। मुंबईया फिल्‍मों के दैदीप्‍यमान नक्षत्र निदेशक अनुराग बसु और उनके पिता सुब्रत बसु के बारंबार अनुरोध व हिन्‍दी फीचर फिल्‍मों के पटकथा लेखकों की उंचाईयों पर आहे भरने के बावजूद वे भिलाई छोडने को राजी नहीं हुये।

आचार्य महेशचंद्र शर्मा नें उनके विगत दिनों आयोजित ‘स्‍मृतियॉं प्रेम साइमन’ के आयोजन में अपने भावाद्गार प्रकट करते हुए कहा था ‘भौतिक वाद के युग में असुरक्षा से घिरा मानव, परिवार एवं समाज से लेना और सिर्फ लेना ही जानता है किन्‍तु बिरले लोग ऐसे होते हैं जो हर किसी को हमेशा देते रहते हैं। प्रेम सायमन भी ऐसे ही शख्शियत थे, उन्‍होंनें बिना किसी आकांक्षा मोह या स्‍वार्थ के हर पल अपना ज्ञान, अपना लेखन और अपना अनुभव चाहने वालों के बीच बांटा।‘

प्रेम साइमन के साथ विगत चार दशकों से कार्य कर रहे उनके मित्र लाल राम कुमार सिंह नें उनके निधन के दिन ही दैनिक छत्‍तीसगढ में उनपर लिखते हुए ‘क्‍यू परीशां है ना मालूम ये जीने वाले’ में कहा ‘कौन कहता है ‘प्रेम सायमन’ नहीं रहे, प्रेम सायमन तो छत्‍तीसगढ की आत्‍मा है, और आत्‍मा तो नित्‍य है, शाश्‍वत है, अजर है, अमर है। वो सदैव एक निश्‍च्‍छल भोला, छत्‍तीसगढिया की तरह हमारे बीच विद्यमान है।‘

(संदर्भ- विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं से साभार, मेरा र्दुभाग्‍य रहा कि कई बार उनके करीब होने के बावजूद मैं ब्‍यक्तिगत रूप से उनसे नहीं मिल सका, आज-कल करते करते मैंनें उनसे मिलने का सौभाग्‍य खो दिया )
संजीव तिवारी

गुलाब लच्‍छी : छत्‍तीसगढिया नारी को समर्पित कहानी संग्रह

छत्‍तीसगढ में हिन्‍दी कथाकारों के साथ ही छत्‍तीसगढी कथाकारों नें भी उत्‍कृष्‍ट कहानियों का सृजन किया है और सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक मूल्‍यों की स्‍थापना हेतु प्रतिबद्ध होते हुए धान के इस कटोरे में कहानियों का ‘बाढे सरा’ बार बार छलकाया है। छत्‍तीसगढी कहानियों के इस भंडार को निरंतर भरने का यत्‍न करने वाले आधुनिक कथाकारों में डॉ.मंगत रविन्‍द्र का स्‍थान अहम है। अभी हाल ही में आई उनकी छत्‍तीसगढी कहानी संग्रह ‘गुलाब लच्‍छी’ उनकी चुनिंदा बाईस कहानियों का संग्रह है। यह संग्रह इंटरनेट पत्रिका ‘गुरतुर गोठ.com’ में भी उपलब्‍ध है।

छत्‍तीसगढी भाषा में कथा कहानियों की गठरी सदियों से डोकरी दाई की धरोहर रही है। पारंपरिक रूप से कहानियां पीढी दर पीढी परिवार के बुजुर्ग महिलाओं के द्वारा सुनाई जाती रही है। डोकरी दाई की कहानियों में रहस्‍य और रोमांच के मिथकीय रूप के साथ ही सामाजिक यथार्थ का चित्रण व सामाजिक शिक्षा का स्‍वरूप प्रस्‍तुत होता था । समाज के विकास के साथ ही कहानियों की भाषा, स्‍वरूप व शैली में भी विकास होता गया और परम्‍परागत कहानियों के साथ साथ यहां के लेखकों नें अपनी भाषा में कहानी के इस रचना संसार को समृद्ध किया । टोकरी भर मिट्टी जैसी पहली कहानी को सृजित करने वाली यहां की परिस्थिति व परम्‍पराओं नें व्‍यक्ति के भावनात्‍मक उदगार को सदैव शब्‍द दिया है और इसी प्रवाह नें छत्‍तीसगढ के कथाकारों का, साहित्‍य जगत में सदैव मान सम्‍मान बढाया है। इस पर स्‍वयं डॉ. मंगत रवीन्‍द्र जी अपने ‘दू आखर’ में कहते हैं ‘किस्‍सा कहे अउ सुने के कई उदेस हे जइसे – गियान लेना, मनोरंजन, समझौता, मया पुरोना, रिसाये लइका ल भुलवारना, खुद कथइक बने के सउंक ..... । किस्‍सा कहइया के सान घलो बाढथे।‘

संग्रहित सभी कहानियों में सामाजिक दायित्‍व, स्‍त्री विमर्श व दलित चेतना का पुट स्‍पष्‍ट झलकता है। कहानी के केन्‍द्रीय पात्र अपने बोल-चाल व व्‍यवहार से छत्‍तीसगढ के लोक परम्‍पराओं का सजीव चित्रण खींचते हैं। छत्‍तीसगढी कहानियों में गीत व मुहावरों का बेजोड प्रयोग करने में रविन्‍द्र जी सिद्धस्‍त हैं। उनकी कहानियां कथ्‍य व शिल्‍प में सुन्‍दर पिरोए गए हार की भांति प्रतीत हीती है। छत्‍तीसगढी राजभाषा आयोग के अघ्‍यक्ष श्‍यामलाल चतुर्वेदी जी मंगत जी के कहानीयों की भाषा के संबंध में कहते हैं ‘एकर लिखे ला पढके लगथे जइसे मैं कलिंदर खावत हंव।‘ सचमुच में रविन्‍द्र जी की भाषा छत्‍तीसगढ के गांवों की भाषा है जिसमें बिलासपुरिहा पुट उसे द्विगुणित कर और भी मीठा बना देती है ।

मंगत जी कहानियों की विषय वस्‍तु के चयन एवं मानवीय संवेदनाओं के जीवंत चित्रण में सिद्धस्‍थ हैं। इनकी कहानिंया वर्तमान समय से सीधा संवाद करती प्रतीत होती हैं। संघर्षरत आम छत्‍तीसगढिया की पीडा का सजीव रेखांकन तथा शिक्षा के महत्‍व को प्रतिपादित करती हुई कहानी ‘नचकहार’ में नाच गा कर मेहनत मंजूरी कर जीवन यापन करने वाला पात्र नकुल कहानी के आरंभ में संकल्‍प लेता है ‘गवई बजई तो छूटै नहीं पर बाल बच्‍चा ल खूब पढाहूं लिखाहूं’ और बदतर सामाजिक जीवन से बेहतर सामाजिक जीवन की ओर अग्रसर परिवार की इस कहानी में नकुल के बच्‍चों के संबंध में कहानी के अंत में डॉ.मंगत लिखते हैं ‘असवा बेंग के मनेजर हे। मोती भाई सरहद म सिपाही हे अउ छोटे बाबू मनी... प्रायमरी स्‍कूल म लइका पढावत हे’ तब वही परिवार समाज के सामने कहानी के माध्‍यम से एक आदर्श के रूप में शिक्षा के महत्‍व का संदेशा बगराता है।

संग्रह में संकलित अधिकांश कहानियों में लेखक नारी की सामाजिक स्थिति को बेहतर बनाने हेतु छत्‍तीसगढ के वर्तमान परिवेश के अनुरूप संकल्पित नजर आते हैं। बच्‍चे के मोह के कारण अपनी छाती में पत्‍थर रखकर सौत को घर और पति के हृदय में स्‍थान दिलाने की परिस्थितियों पर विमर्श प्रस्‍तुत करती कहानी ‘दौना’, पति की मृत्‍यु के पश्‍चात गरीबी में अपने पांच-पांच बच्‍चे और विधुर जेठ का भार ढोती गुरबारा की कहानी ‘आंसू’, गरीबी के कारण विवशतावश अपने से बडे उम्र के अंधे से विवाह करने एवं पति के असमय मृत्‍यु होने पर नारी के दर्द को प्रदर्शित करती कहानी ‘दूनो फारी घुनहा’ आदि में कहानीकार स्‍त्री विमर्श को प्रस्‍तुत करने में समर्थ नजर आता है। लेखक के कहानियों को पढने से प्रतीत होता है कि लेखक के हृदय में मानवीय संवेदनाओं का अपार सागर लहराता है जिसे वह शव्‍द शिल्‍प से सार्थक स्‍वरूप में प्रस्‍तुत करता है। मंगत जी की कहानियों में कहीं-कहीं देह की भाषा भी मुखरित हो जाती है जिस पर कुछ लोग सीमाओं से परे चले जाने का भी सवाल उठाते हैं किन्‍तु छत्‍तीसगढ की वर्तमान परिस्थिति के अनुरूप जन मन में अलख जगाने हेतु किस विषय पर चिंतन आवश्‍यक है यह मंगत जी बखूबी जानते हैं। कहानी का विषय क्‍या हो इसे भी वे आगे स्‍पष्‍ट करते हैं ‘मैं हर समाज म देखें, होथे, होवत हे अउ होही तेन खेला – लीला घटना ल अपन किस्‍सा के बिसे आधार मान के कई ठन किस्‍सा ल लिखेंव।‘

डॉ.मंगत की कहानियां ठेठ गांव की कहानियां हैं जिसमें काल्‍पनिकता का एहसास बिल्‍कुल भी नहीं होता। कहानियां के शव्‍द शव्‍द में छत्‍तीसगढी परम्‍परा व संस्‍कृति की स्‍पष्‍ट झलक नजर आती हैं। इसीलिये छत्‍तीसगढी संस्‍कृति के मुखर लेखक डॉ.पालेश्‍वर शर्मा जी कहते हैं ‘लोक संस्‍कृति, ग्रामीण परम्‍परा से परिपूरित, अंचल के चरित्रों को जीवंत रूप देने का कार्य रविन्‍द्र जी कर रहे हैं। लेखक की कलम में सार्थकता है, समर्थता है।‘ हमें भी डॉ.मंगत रविन्‍द्र जी की कलम पर विश्‍वास है। आशा है आबाध गति से छत्‍तीसगढी के व्‍याकरण व भाषा एवं साहित्‍य सृजन में लीन मंगत जी की यह कृति छत्‍तीसगढी भाषा साहित्‍य के प्रेमियों को को बहुत पसंद आयेगी।


संजीव तिवारी

अपने करीबी देह संबंधों की कथा क्‍या सार्वजनिक की जानी चाहिए ?

जब अर्जुन सिंह के सितारे सातवें आसमान पर दैदीप्‍यमान थे तब उनके दरबार में चारण-भाटों की कमी नहीं थी। पर अब तो वे दिन लद गए, अब अर्जुन सिंह अपने बीते दिनों को याद करने एवं लोगों को अपना रूतबा जताने के लिए इन चारण-भाटों में से एक से संस्‍मरण लिखा लाए। पत्रकार व साहित्‍यकार रामशरण जोशी नें ‘अर्जुन सिंह – एक सहयात्री इतिहास का’ लिखा इसे छापा देश के बहुत बडे प्रकाशन समूह राजकमल प्रकाशन नें। यह पुस्‍तक संपूर्ण भारत में जमकर बिकी (?) और इसी बहाने चर्चा में जोशी और अर्जुन छा गए (छाये तो वे पहले भी थे)। शायद कथा – कहानी – उपन्‍यास के पात्रों से अहम उसके लेखक की भूमिका होती है उसी तरह जोशी का लेखक व्‍यक्तित्‍व और दमक गया।

वर्तमान में यह पुस्‍तक छत्‍तीसगढ के किताब दुकानों में सर्वसुलभ नहीं हो पाई है इस कारण हमें इसके संबंध में जानकारी ‘इतवारी अखबार’ के संपादकीय से मिली। ‘इतवारी अखबार’‘दैनिक छत्‍तीसगढ’ के संपादक सुनील कुमार जी नें अपने कालम ‘असहमत’ में इस पर विस्‍तार से दो अंकों में लिखा तब ‘अर्जुन सिंह – एक सहयात्री इतिहास का’ के लेखक रामशरण जोशी के नेक इरादों व सोंच से हम वाकिफ हुए। सुनील कुमार जी नें 12 अप्रैल 2009 के अंक में लिखा ‘ ...... कुछ बरस पहले जब रामशरण जोशी नें छत्‍तीसगढ की किसी एक महिला के बारे में पर्याप्‍त इशारे करते हुए अपने करीबी देह संबंधों की कथा लिखी थी तब एक साहित्‍य पत्रिका में उसे पढकर मैं हक्‍का-बक्‍का रह गया था ....’ बात चिंतनीय थी। हो सकता है जब यह प्रकाशित हुई होगी तब अंचल के कलमनवीशों नें कुछ विरोध जाहिर भी किया होगा किन्‍तु तब हमारा भी सुनील कुमार जी की ही तरह साहित्‍य से कोई घरोबा नहीं था किन्‍तु ‘अर्जुन सिंह – एक सहयात्री इतिहास का’ के प्रकाशन के बाद पुन: रामशरण जोशी नें इस वाकये को जीवंत कर दिया तो इस पर ठंडा-ठंडा कूल-कूल तेल लगाने के बाद भी माथा का ठनकना कम नहीं हुआ।

सुनील कुमार जी नें पुन: इसी विषय पर 19 अप्रैल 2009 के अंक में लिखा ‘अभी शायद पिछले ही हप्‍ते मैंने इसी जगह हिन्‍दी के एक नामी-गिरामी पत्रकार-साहित्‍यकार के बारे में लिखा कि किस तरह उन्‍होंनें छत्‍तीसगढ की एक महिला को लेकर, उसके समर्पण को लेकर अपनी कलम से गंदगी बिखेरी थी। उसके बाद मुझे योरोप और अमेरिका के हमारे कुछ इंटरनेट पाठकों नें ईमेल से कुछ खबरें भेजीं। वहां पर वेश्‍याओं के बीच यह अंतर्द्वन्‍द्व चल रहा है कि वक्‍त आने पर क्‍या वे अपने ग्राहकों की शिनाख्‍त करें?’ उन्‍होंनें आगे लिखा ‘... अखबार के धंधे में तो खबरों के स्‍त्रोत बचाए रखने के लिए कहीं-कहीं पर अखबारनवीश जेल भी काट आते हैं। लेकिन अदालत को जानकारी नहीं देते। ऐसे में आत्‍म संस्‍मरण के नाम पर किसी के कपडे उतारने वालों को पेशेवर वेश्‍याओं की सोंच से कुछ सीखना चाहिए। जीवन का कोई भी संस्‍मरण यूं तो लिखा जा सकता है, लेकिन उस पर एक नैतिक रोक तब लगनी चाहिए जब वह किसी दूसरे की निजी, गोपनीय या अनछुई जिन्‍दगी को उजागर करके उसका नुकसान करने वाला हो। ....’

अजब खेला है यह भाई, लेखन क्षमता और ज्ञान की बीमारी इस कदर बढी कि रातो रात गांधी हो गए बडे सहज भाव से बतला दिया कि (बकौल सुनील कुमार जी के शब्‍दों में) ‘ ... जिस लेखक-साहित्‍यकार रामशरण जोशी की चर्चा से आज की बात शुरू हुई है उन्‍होंनें अर्जुन सिंह की स्‍तुति में लिखी एक जीवनी में लिखा है कि जब छत्‍तीसगढ की महिला के जिक्र वाला लेख छपा और उस पर बवंडर खडा हुआ तो अर्जुन सिंह नें उनसे कहा कि लिख दिया है तो उस पर कायम रहना, मुकर मत जाना। मध्‍यप्रदेश में संवेदनशील मुख्‍यमंत्री के नाम से बडी कोशिसों से प्रचारित अर्जुन सिंह नें क्‍या सचमुच यह कहा होगा कि अपने संस्‍करण में किसी महिला के कपडे ही उतार दिये हैं तो फिर उसे दुबारा पहनाने की गलती मत करना ?....’ (पूरा लेख यहां से पढें)

बहुत दिनों बाद नेट में वापस लौटा हूं, सर्च करते और रामशरण जोशी के संबंध में पढते-पढते अब ठंडा-ठंडा कूल-कूल तेल की पूरी शीशी सिर में उडेल चुका हूं, पर माथा का ठनकना कम नहीं हुआ है, तेल कंपनी पर मुकदमा ठोकने को जी चाह रहा है पर छत्‍तीसगढ से कोई भी रामशरण जोशी के विरोध में कुछ भी नहीं बोल रहा है, ना ही छत्‍तीसगढ के लोग दिल्‍ली में किसी ख्‍यातिलब्‍ध, महान, अंतर्राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार विजेता को ले जाकर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं और ना ही कोई गिरफ्तारी की मांग कर रहा हैं। अरे यह भी मानवाधिकार का मामला है मेरे भाई .... बेइज्‍जत हो रही स्‍त्री मानव है दानवाधिकार कार्यकर्ताओं से भरे प्रबुद्ध समाज में क्‍या स्‍त्री के दर्द पर भी बातें हो पायेंगी।

संजीव तिवारी

रांची के नए-नवेले टापर आई ए एस अफ़सर ने किया कमाल

छत्‍तीसगढ में इन दिनों भारतीय प्रशासनिक सेवा के दो युवा अधिकारियों की जनता तारीफ करते नहीं अघा रही है जिसमें से एक हैं रायपुर नगर पालिक निगम के आयुक्‍त अमित कटारिया एवं नगर पालिक निगम भिलाई के नवनियुक्‍त आई.ए.एस. आयुक्‍त राजेश सुकमार टोप्‍पो ।

छोटे प्रदेशों में शहरी आबादी में दिनो-दिन बेतहासा वृद्वि के साथ ही जनता को आवश्‍यक संसाधन उपलब्‍ध कराने, नगर के सुनियोजित विकास एवं स्‍थानीय प्रशासन का बहुत बडा जिम्‍मा अब नगर निगमों का हो गया है। ऐसे में इन स्‍थानीय प्रशासन के सवोच्‍च पदों में बैठे अधिकारियों की जिम्‍मेदारी एवं कुशल प्रशासनिक क्षमता की अग्नि परीक्षा लगातार हो रही है। रायपुर जैसे घनी बसाहट वाले नगर में अमित कटारिया नें जिस दम-खम से बरसों से सडकों पर अतिरिक्‍त निर्माण कर कब्‍जा जमाए लोगों के भवनों को बिना किसी राजनैतिक दबाव में आये, तुडवाया और सडकों को मुक्‍त कराया। वैसे ही‍ भिलाई के इस युवा आई.ए.एस. नें आते ही लचर कार्यालयीन प्रशासन को लगाम लगाया और नगर के सौंर्दयीकरण व सडकों के चौडीकरण की ओर अपना ध्‍यान लगाया।

भिलाई के भीड-भाड से भरे अवैध कब्‍जों वाले सडकों को कब्‍जेधारियों से मुक्‍त कराने का काम कई प्रशासनिक अधिकारी नहीं कर पाये थे और इन कब्‍जेधारियों के हौसले दिनो-दिन बढ रहे थे, चुनावी चंदों नें इन कब्‍जेधारियों के दर्प को कई-कई मंजिल उपर उठा दिया था। इन पर कार्यवाही करने से अधिकारी कतराते थे और अपनी जेबें भरकर इनकी फाईलें गायब करा देते थे। बहुत दिनों से नगर की जनता ऐसे अधिकारी की आश लगाए बैठी थी जो निष्‍पक्ष होकर नगर के हित में कार्य करे। ज्ञात हो कि राज्य शासन द्वारा टोप्पो के कार्यभार ग्रहण करने के दिनांक से नगर निगम भिलाई के असंवर्गीय पद को प्रतिष्ठा एवं जिम्मेदारी में भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ वेतनमान के संवर्गीय पद के समकक्ष घोषित किया गया है।

नवनियुक्‍त आयुक्‍त राजेश सुकुमार टोप्‍पो नें बरसों बाद भू-गत तल में संचालित एक बडे सेल को ताला लगाने के साथ ही अपनी क्षमता व जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्वता का परिचय देते हुए जनता के आश को पूरा करने का मंगलाचरण आरंभ किया। विगत एक सप्‍ताह से आयुक्‍त का अभियान नगर के मुख्‍य सडकों से अवैध एवं अतिरिक्‍त निर्माण कब्‍जे को हटाने का चल रहा है। इन अवैध कब्‍जे धारियों में बडे-बडे राजनैतिज्ञ व सत्‍ता में अपनी ढपली बजाने वाले लोग भी हैं, जिनका अभिमान, अवैध निर्माण के साथ निगम के बुलडोजरों से ध्‍वस्‍त हो रहे हैं। वे अपने मोबाईलों से अपने आकाओं से फोन कर मिन्‍नतें कर रहे हैं पर राजेश की सदृढता के आगे विशाल अवैध निर्माण टिक नहीं पा रहे हैं। बरसों से बेशकीमती सरकारी जमीन पर अपना घर व दुकान बनाकर नगर पालिक निगम का कालर नापते इन लोगों के घर बारी-बारी से नप रहें हैं और इनके सफेद कुरते-पाजामों के दाग जनता देख रही है। अवैध कब्‍जों के कारण गायब नालियों व संकरी होती सडकों में अब खुलकर सांस लेने की गुंजाईश हुई है। सडकों के किनारों की बंद नालियां खुल गई हैं जो गरीबों के लिए बरसाती तबाही लाने में अहम भूमिका निभाती थीं। दूर-दूर तक धराशाई भवनों के मलवे मुफ्खोरों के लाशों के मानिंद बिखरे पडे हैं और जनता अब उन सडकों पर विजय गीत गा रही है। ऐ परमेश्‍वर इस जजबे को मेरे इस आयुक्‍त में हमेशा बरकरार रखना।

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...