श्रीलाल शुक्‍ल की यादें ....

पिछले दिनों हमने यहॉं छत्‍तीसगढ़ के चर्चित साहित्‍यकार श्री विनोद साव जी का एक आलेख प्रकाशित किया था, जब श्रीलाल शुक्‍ल जी एवं अमरकांत जी को ज्ञानपीठ पुरस्‍कार देने की घोषणा हुई थी। उपन्‍यासकार, व्‍यंग्‍यकार व कथाकार श्री विनोद साव जी के श्रीलाल शुक्‍ल जी से अंतरंग संबंध रहे हैं, उन्‍होंनें श्रीलाल जी से अपनी पहली मुलाकात और पहला पड़ाव से संबंधित कुछ जानकारी उस आलेख में लिखा था। आज श्रीलाल शुक्‍ल जी के निधन के समाचार प्राप्‍त होने पर मन द्रवित हो गया, विगत दिनों श्री विनोद साव जी नें हमें श्रीलाल शुक्‍ल जी के घर में खींची गई तीन तस्‍वीर भी भेजी थी किन्‍तु हम उन्‍हें प्रकाशित नहीं कर पाए थे, आज हम श्रीलाल शुक्‍ल जी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कृतज्ञ छत्‍तीसगढ़ की ओर से तीनों चित्र एवं श्री विनोद साव जी के आलेख का वह अंश पुन: प्रकाशित कर रहे हैं- 


यह वर्ष 1994 की बात है जब लखनऊ में ‘रागदरबारी’ जैसे कालयजी उपन्यास के लेखक श्रीलाल शुक्ल जी से भेंट हुई। मुझे उन्हीं के हाथों लखनऊ में व्यंग्य के लिए दिया जाने वाला अट्टहास सम्मान भी प्राप्त हुआ था। आयोजन के बाद मैंने उनसे कहा था ‘मैं आपसे मिलने आना चाहता हूं। ' 
‘जरुर..’ फिर उन्होंने अपने घर आने का नक्शा बताया। तब उनसे साढ़े तीन घण्टों तक बातचीत का लम्बा सिलसिला चला था जिसे जारी रखने के लिए कॉफी के दौर चलते रहे।

पहला पड़ाव और छत्तीसगढ़ः

श्रीलाल शुक्ल का एक उपन्यास है ‘पहला पड़ाव’। इस उपन्यास में छत्तीसगढ़ से उत्तरप्रदेश कमाने खाने आए मजदूरों की कथा केन्द्र में है। श्रीलाल शुक्ल कहते हैं कि ‘मैं इस उपन्यास का दूसरा भाग लिखना चाहता था... पर इसके लिए कुछ तैयारी करनी थी। छत्तीसगढ़ क्षेत्र का अध्ययन करना था। सैकड़ों वर्षों पहले वहॉं महात्मा घासीदास हुए थे जिन्होंने उस क्षेत्र के सम्पूर्ण वर्ग को संगठित करके उनके द्वारा जो अनेक पारम्परिक कार्य कराये जाते थे उनसे उन्हें विलग कराया। परिणाम स्वरुप वहॉं के भूमिघरों ने उन्हें अपने खेतों से निकाल दिया और वे काम की तलाश में उत्तरप्रदेश, दिल्ली, पंजाब तक फैले। तब भी गॉंव में उनकी जड़े बनीं रहीं। उसी पुराने आंदोलन के कारण इनमें आज भी शराब खोरी आदि की आदतें बहुत कम हैं। सचमुच विस्थापितों का यह अत्यंत आश्चर्य जनक समुदाय है। इस पर यदि कथा रचनी है जाहिर है कुछ बुनियादी तैयारियॉं करनी होंगी। अध्ययन, शोध की जरुरत होगी, जो मैं नहीं कर सका।’

छत्तीसगढ़ के सौंदर्य का चित्रणः

‘पहला पड़ाव’ की नायिका जसोदा है जो छत्तीसगढ़ से गई है, उसके आकर्षक व्यक्तित्व के कारण उपन्यास के अन्य पात्र उसे ‘मेमसाहब’ कहते हैं। इस नायिका की सुन्दरता का चित्रण श्रीलाल शुक्ल ने बड़े सौन्दर्य बोध के साथ किया है इस तरह ‘‘मेमसाहब का दिल ही मुलायम नहीं था उनमें और भी बहुत कुछ था। उनकी ऑंखें बड़ी बड़ी और बेझिझक थीं, भौंहें बिलकुल वैसी, जैसी फैशनेबुल लड़कियॉं बड़ी मेहनत से बाल प्लक करके और पेंसिल की मदद लेकर तैयार करती थीं। रंग गोरा, गाल देखने में चिकने - छूने में न जाने और कितने चिकने होंगे, कद औसत से उंचा, पीठ तनी हुई, और दॉंत जो मुझे ख़ास तौर से अच्छे लगते, उजले और सुडौल। उनके बाल कुछ भूरे थे। मेमसाहब की उपाधि उन्हें अच्छी बातचीत के हाकिमाना अंदाज से नहीं, गोरे चेहरे और इन लंबे-घने-भूरे बालों के कारण मिली थी।’


श्रीलाल शुक्‍ल जी एवं श्रीमती गिरिजा शुक्‍ल

श्रीमती गिरिजा शुक्‍ल जी एवं श्री विनोद साव, यह चित्र श्री श्रीलाल शुक्‍ल जी नें खींची थी

श्री श्रीलाल शुक्‍ल जी एवं श्री विनोद साव जी, यह चित्र श्रीमती गिरिजा शुक्‍ल जी नें खींची थी


आलेख एवं चित्र :- विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़ 491001. मो. 9407984014.

श्रीलाल शुक्‍ल जी को अश्रुपूरित श्रद्धांजली सहित .....

कातिक महीना धरम के माया मोर

धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ प्रदेश के लोक जीवन में परम्परा और उत्सवधर्मिता का सीधा संबंध कृषि से है। कृषि प्रधान इस राज्य की जनता सदियों से, धान की बुवाई से लेकर मिजाई तक काम के साथ ही उत्साह व उमंग के बहाने स्वमेव ही ढूंढते रही है, जिसे परम्पराओं नें त्यौहार का नाम दिया है। हम हरेली तिहार से आरंभ करते हुए फसलचक्र के अनुसार खेतों में काम से किंचित विश्राम की अवधि को अपनी सुविधानुसार आठे कन्हैंया, तीजा-पोरा, जस-जेंवारा आदि त्यौहार के रूप में मनाते रहे हैं। ऐसे ही कार्तिक माह में धान के फसल के पकने की अवधि में छत्तीसगढि़या अच्छा और ज्यादा फसल की कामना करता हैं और संपूर्ण कार्तिक मास में पूजा आराधना करते हुए माता लक्ष्मी से अपनी परिश्रम का फल मांगता हैं। छत्तीसगढ में कातिक महीने का महत्व महिलाओं के लिए विशेष होता है पूरे कार्तिक माह भर यहां की महिलायें सूर्योदय के पूर्व नदी नहाने जाती हैं एवं मंदिरों में पूजन करती हैं जिसे कातिक नहाना कहा जाता है। मान्यता है कि कार्तिक माह में प्रात: स्नान के बाद शिवजी में जल चढ़ाने से कुवारी कन्याओं को मनपसंद वर मिलता है। पारंपरिक छत्तीसगढ़ी बारहमासी गीतों और किवदंतियों में कार्तिक माह को धरम का माह कहा गया है जिसमें रातें उजली है एवं इस माह में स्वर्ग से लगातार आर्शिवाद बरसते हैं।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भी कार्तिक मास सनातन धर्मी लोगों के लिए महत्वपूर्ण मास है जो क्‍वांर के बाद आता है, क्‍वांर को आश्विन मास भी कहा जाता है, आश्विन आरोग्य के देवता अश्विनीकुमारों का प्रतीक मास है। यह मास किसानों के कृषि कार्य से थकित शरीर में नव उर्जा का संचार करता है। कार्तिक में धान गभोट की स्थिति में होता है इस समय में धान के दाने पड़ते हैं और धान की बालियां परिपक्व होती है। इस मास की इन्ही विशेषताओं को देखते हुए मान्‍यता है कि शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है। संपूर्ण देश की परम्परा के अनुसार छत्तीसगढ़ में भी शरद पुर्णिमा के दिन शाम को खीर (तसमई), पुरी बनाकर भगवान को भोग लगाए जाते हैं एवं खीर को छत पर रख कर चंद्रमा से अमृत वर्षा की कामना की जाती है। अश्विनीकुमार आरोग्य के दाता हैं और पूर्ण चंद्रमा अमृत का स्रोत। यही कारण है कि ऐसा माना जाता है कि इस पूर्णिमा को आसमान से अमृत की वर्षा होती है। छत्तीसगढ़ में इस दिन आंवला के वृक्ष के नीचे सुस्वादु भोजन बनाकर परिवार को खिलाया जाता है जो आधुनिक पिकनिक का आनंद देता है।

शरद् पूर्णिमा के बाद से आने वाले इस मास में दीपावली और देवउठनी एकादशी (छोटी दीपावली, तुलसी विवाह) आते हैं, इसी मास के अंत में कार्तिक पूर्णिमा को छत्‍तीसगढ़ के विभिन्‍न देवस्‍थानों में मेला भरता है। पून्‍नी मेला मेरे गांव के समीप शिवनाथ व खारून के संगम पर स्थित सोमनाथ में भी भरता है। कुल मिलाकर यह मास धार्मिक आस्‍था से परिपूर्ण मास होता है। गांवों में कार्तिक माह का उत्‍साह देखते बनता है, सूर्योदय के पहले महिलायें, किशोरियॉं और बालिकायें उठ जाती हैं और नदी या तालाब में नहाने जाती हैं, नदी-तालाबों के किनारे स्थित शिव के मंदिर में वे गीले कपड़े पहने ही जल चढ़ाती है और गीले कपड़े पहने ही घर आती हैं। सुबह के धुंधलके में वे प्राय: झुंड में रहती हैं और स्‍वभावानुसार बोलते रहती हैं जो प्रात: की नीरवता को दूर-दूर तक तोड़ती है। जब मैं गांव में रहता था तब इनकी बातों से नींद खुलती थी। गांव में समय के पहचान के लिए प्रात: 'सुकुवा' के उगने से लेकर 'पहट ढि़लाते' तक के समय में 'कातिक नहईया टूरी मन के उठती' जैसे शब्‍दों का भी प्रयोग होता रहा है।

प्रहर के इस अंतराल के पार होने के बाद 'पंगपगांने' पर ही मैं बिस्‍तर छोड़ता था और कातिक के 'रवनिया' का आनंद लेते हुए नदी की ओर निकल पड़ता था। छत्‍तीसगढ़ के गांवों में सामाजिक व्‍यावहारिकता के चलते 'डउकी घठौंधा' और 'डउका घठौंधा' होता है जहॉं पुरूष और महिलायें अलग अलग स्‍नान करती हैं। हम इन दोनों घाटों को पीछे छोड़ते हुए दूर शिवनाथ और खारून के गहरे संगम की ओर बढ़ चलते थे इससे हमारा प्रात: भ्रमण भी हो जाता था। तब 'डउकी घठौंधा' से गुजरते हुए महिलाओं को लंहगे से या छोटी घोती से 'छाती बांध' कर नहाते देखता था। कार्तिक में बरसात के बाद आने वाली दीपावली के पूर्व गॉंव में घरों के 'ओदर' गए 'भिथिया' को 'छाबनें' एवं 'लीप-पोत-औंठिया' के घर के कपड़ों की सफाई के लिए महिलाओं को बड़ी बाल्‍टी या डेचकी भर कपड़ों को 'कांचते' भी देखता था।

कभी इस बिम्‍ब का विस्‍तार और चिंतन दिमाग नें नहीं किया था, पिछले दिनों छत्‍तीसगढ़ी गीतों के जनगीतकार मुकुन्‍द कौशल जी से छत्‍तीसगढ़ी गज़लों के संबंध में लम्‍बी बातचीत हुई तो उन्‍होंनें अपना एक गज़ल सुनाया तब लगा कि कवि नें इस बिम्‍ब को किस तरह से भावमय विस्‍तार दिया आप भी देखें -

जम्‍मो साध चुरोना बोरेंव, एक साध के कारन मैं 
एक दिसा के उड़त परेवना, ठींया ला अमरा लेथें.

'माटी राख' डाल के 'बड़का बंगोनिया' में पानी के साथ गंदे कपड़े को आग में पकाने की क्रिया को 'चुरोना बोरना' कहा जाता है, अब गज़लकार कसी एक साध के कारण जम्‍मो साध का चुरोना डुबाने की बात कहता है क्‍योंकि गॉंव की महिला जानती है कि उसकी अनंत इच्‍छायें तो पूरी नहीं हो सकती कोई एक इच्‍छा ही पूरी हो जाए। उसने जो अपना कोई एक लक्ष्‍य रखा है कम से कम वही तो पूरा हो जाए (एक दिशा में उड़ते हुए कबूतर को उसका ठिकाना तो मिल जाए)।

हालांकि इस पोस्‍ट में नदी के किनारे से गुजरते हुए इस गज़ल के मूल अर्थ का कोई सामन्‍जस्‍य नहीं बैठता किन्‍तु विषयांतर से ग्रामीण जीवन की झलक को डालने का प्रयास कर रहा हूँ। नदी के किनारे के पेंड, पत्‍थर और घाट को विघ्‍नसंतोषी बताते हुए गज़लकार महिलाओं को अपने मन की बात ना कहने की ताकीद देता है। जो साथी गांव के जीवन को जानते हैं उन्‍हें ज्ञात है कि महिलायें नदी में नहाते हुए घर से गांव और संसार की बातें करती हैं, अपने साथ साथ नहाती महिलाओं से हृदय की बातें भी कहती हैं, इसी भाव को गज़लकार शब्‍द देता है-

अनदेखना हें अमली-बम्‍हरी नदिया के पथरा पचरी
सबके आघू मन के कच्‍चा लुगरा झन फरियाए कर.

कार्तिक पूर्णिमा पर किसी पत्रिका के लिए मैंनें इसे लिखा था आगे आलेखों की कड़ी थी भूमिका में पहला दो पैरा लिखा गया था। आज ड्राफ्ट में पड़े इसे देखकर इस पर चंद लाईना जोड़कर पब्लिश कर दिया। धरम के मास कार्तिक से लेकर श्री मुकुन्‍द कौशल जी की छत्‍तीसगढ़ी गज़ल तक लोक जीवन के इस जीवंतता का शहर में बैठकर सिर्फ कल्‍पना किया जा सकता है, हृदय में गॉंव बार-बार सोरिया रहा है फिर भी जीवन की व्‍यस्‍तता गॉंव के पुकार को अनसुना कर रही है।

संजीव तिवारी

नोट : छत्‍तीसगढ़ी के शब्‍दों पर माउस ले जाने से उसके हिन्‍दी अर्थ छोटे बक्‍से में वहीं दिखने लगेंगें. 

कविता संग्रह : समुद्र, चॉंद और मैं

गूगल बुक्‍स में छत्‍तीसगढ़ के रचनाकारों के उपलब्‍ध पुस्‍तकों को मित्रों के नजर में लाने के उद्देश्‍य से हमने पूर्व में  'खुला पुस्‍तकालय' के नाम से ब्‍लॉग बनाया था। जिसमें दर्जनों कहानी संग्रह, आदिम लोक जीवन, थियेटर व नाटक प्रस्‍तुत किया गया है। लेखकों में  मुक्तिबोध, प.प.ला.बख्‍शी, विनोद कुमार शुक्‍ल सहित छत्‍तीसगढ़ के अन्‍य रचनाकारों की कृतियां गूगल बुक से साभार यहां प्रस्‍तुत है। 

पिछले दिनों हमने छत्‍तीसगढ़ के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी के छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास आवा को ब्‍लॉग के रूप में प्रस्‍तुत किया और उसके संबंध में यहॉं एक परिचय पोस्‍ट लिखा। पाठकों में श्री रविशंकर श्रीवास्‍तव जी की टिप्‍पणी आई कि छत्‍तीसगढ़ के साहित्‍यकारों की रचनाओं को आनलाईन प्रस्‍तुत करने के लिए अलग-अलग ब्‍लॉग बनाने के बजाए किसी एक ही जगह पर इन्‍हे प्रस्‍तुत किया जाए ताकि पाठकों को एक ही जगह पर छत्‍तीसगढ़ के रचनाकारों की रचनांए सुलभ हो सके। हमने 'खुला पुस्‍तकालय' ब्‍लॉग को गूगल बुक्‍स में उपलब्‍ध छत्‍तीसगढ़ के रचनाकारों की पुस्‍तकों को एक जगह प्रस्‍तुत करने के उद्देश्‍य से बनाया था, रवि भाई के सुझाव नें हमें बल दिया और अब हम इसे आपके लिये पुन: नियमित रूप से प्रस्‍तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। इसमें हम क्रमिक रूप से छत्‍तीसगढ़ के साहित्‍य को टैक्‍स्‍ट रूप में प्रकाशित करेंगें। आज पहली कड़ी में प्रदेश के वरिष्‍ठ कवि श्री अशोक सिंघई जी की कविता संग्रह समुद्र, चॉंद और मैं की पहली कविता प्रस्‍तुत कर रहे हैं। अशोक जी की एक कविता संग्रह सुन रही हो ना को हम पूर्व में आनलाईन यहॉं प्रस्‍तुत कर चुके हैं। .... आप सबसे अनुरोध, एक क्लिक अवश्‍य करें ..  'खुला पुस्‍तकालय'  आपके लिये...  

संजीव तिवारी 

कापी टू अन्‍ना हजारे, रालेगन सिद्धी

आज दोपहर बाद नगर पालिक निगम, भिलाई के भवन अनुज्ञा शाखा कुछ काम से जाना हुआ। कार्यपालन अभियंता सह भवन अधिकारी महोदय के पास बैठा ही था कि एक व्‍यक्ति अंदर आया और अपना परिचय भवन अधिकारी को दिया। भवन अधिकारी और आगंतुक के बीच हो रही चर्चा से यह ज्ञात हुआ कि आगंतुक के भवन में अवैध निर्माण के संबंध में तीन शिकायत निगम को मिला था। आगंतुक नें अधिकारी से कहा कि उसके भवन में कुछ भी अवैध निर्माण नहीं हो रहा है, जो निर्माण हो रहा है उसकी अनुज्ञा प्राप्‍त है जिसे मैं साथ लाया हूँ। आगंतुक नें आगे कहा कि फिर भी आप अपने अभियंता से जांच करवा लीजिये, मेरे भवन में चार किरायेदार हैं जो मेरे दुकान पर कब्‍जा कर लिये हैं ना किराया दे रहे हैं ना दुकान खाली कर रहे हैं और समय बेसमय सूचना के अधिकार के तहत कभी इनकम टैक्‍स से तो कभी सेल्‍स टैक्‍स से और कभी निगम से मेरे व्‍यवसाय की फाईल की कापी मांगते रहते हैं, मैं छोटा सा व्‍यवसायी हूँ साहब परेशान हो गया हूं, मेहनत के पैसे से छ: दुकान बनवाया हूं। भवन अधिकारी उसके अनुरोध पर एक अभियंता को आगंतुक के साथ उस भवन में भेज दिया। मेरे बैठे-बैठे ही लगभग पंद्रह मिनट में अभियंता और आगंतुक वापस आ गए, अभियंता नें बतलाया कि अवैध निर्माण नहीं हो रहा है बल्कि अनुज्ञा प्राप्‍त तल में टाईल्‍स लगाया जा रहा है। 

आगंतुक नें भवन अधिकारी से अनुरोध किया कि महोदय, मुझे उस फर्जी शिकायत को दिखाया जाय। अधिकारी ने फाईल मंगवाया, और आगंतुक वह पत्र देखने लगा जो पंजीकृत डाक से भवन अधिकारी को प्राप्‍त हुआ था जिसमें आगंतुक के द्वारा अवैध निर्माण के संबंध में कहानी गढ़े गए थे। मैं आगंतुक के बाजू में बैठा था इस कारण वह पत्र मैं भी सुविधाजनक रूप से पढ़ पा रहा था। आवेदन के अंत में लिखे शब्‍द नें मेरी उत्‍सुकता बढ़ा दी, वहां लिखा था 'कापी टू श्रीमान अन्‍ना हजारे, रालेगन सिद्धी, म.रा.' । मेरे चेहरे में फैलती मुस्‍कान अब हसी में बदल गई और आगंतुक सहित कार्यालय में बैठे सभी लोग हसने लगे थे।

शिकायतकर्ता का जो नाम और पता लिखा था वह पूर्णतया फर्जी था, क्‍यूंकि जिस परिसर का पता दिया गया था उस परिसर में इस नाम का कोई व्‍यक्ति नहीं है यह मैं जानता था। शिकायतकर्ता द्वारा यह शिकायत क्‍यूं प्रेषित किया गया था यह समझ में नहीं आया किन्‍तु कापी टू अन्‍ना हजारे को देखकर होठ बार बार बुदबुदाते रहे 'कापी टू ......' 

उस पत्र को देखने के बाद से मैं सोंच रहा हूँ कि  1. क्‍या लोग अन्‍ना पर भरोसा करते हैं, 2. क्‍या लोग अन्‍ना को मजाक समझते हैं या 3. क्‍या लोग अन्‍ना के नाम पर सरकारी कर्मचारियों को डराते हैं या रौब गांठते हैं। या 4. क्‍या अन्‍ना और सूचना के अधिकार कानून के नाम पर ब्‍लैकमेलिंग चालू हो गई है। 

जो भी हो अब मैंनें भी सीख लिया है कोई सरकारी विभाग में शिकायती पत्र लिखना है तो नीचे लिखा जाए 'कापी टू अन्‍ना हजारे' भले भेजें कि मत भेजें।


संजीव तिवारी   

रविशंकर विश्‍वविद्यालय के पाठ्यक्रम में सम्मिलित छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास आवा अब नेट में उपलब्‍ध

पिछले वर्षों से मेरे ब्‍लॉग साथियों की लगातार शिकायत रही है कि मैं इस ब्‍लॉग में नियमित नहीं लिख रहा हॅूं। कई पुराने ब्‍लॉगर साथियों का ये कहना था कि आपने अभी तक अपने पोस्‍टों के अर्धशतक, शतक, पंचशतक आदि इत्‍यादि पुर जाने पर धमाकेदार पोस्‍ट भी नहीं ठेला है। मित्रों के इन बातों से मैं थोड़ा उत्‍साहित होता हूं, क्‍यूंकि मैं पोस्‍ट ठेलने के आंकड़ों का रोकड़-बही रखूं तो लगभग दो महीने में पांच सौ पोस्‍टों का आंकड़ा यूंही पूरा हो जाता है, किन्‍तु इस आंकड़े में अधिक संख्‍या मेरे द्वारा छत्‍तीसगढ़ के लेखकों के लिए उनके नाम से बनाए गए ब्‍लॉगपोस्‍टों में पब्लिश पोस्‍टों के ही होते हैं, इसी कारण मैं आंकड़ों की मार्केटिंग नहीं कर पाता। 

मेरे अजीज़ इस बिना ब्‍लॉग हलचल के किये जा रहे कार्यों को जानते हैं, और मुझे इसके लिये निरंतर प्रोत्‍साहन देते रहते हैं, इसी कारण मैं अपना समय व श्रम इसमें लगा पाता हॅूं। अब्‍लॉगी लोगों का कहना होता है यदि रचना की सीड़ी दे दी है तो ब्‍लॉग में पब्लिश करने में क्‍या समय व श्रम लगेगा, किन्‍तु यह तो ब्‍लॉगर से ही पूछो कितना समय लगता है। अब्‍लॉगर भाईयों के लिये मैं इस प्रक्रिया को संक्षिप्‍त में ही सही स्‍पष्‍ट कर दूं, ताकि उन्‍हें पता चल सके कि सीडी मिलने के बाद से वह नेट में पब्लिश होने तक किन किन प्रक्रियाओं से गुजरता है। 

कोई भी अब्‍लॉगर अपनी कृति के प्रकाशन के बाद पुस्‍तक प्रकाशक से कृति की सीडी मांगता है। प्रकाशक के द्वारा तैयार सीड़ी गैरयूनिकोडित होती है। एक्‍सपी के आने और विण्‍डोज 2008 के जाने के बाद आजकल ज्‍यादातर प्रकाशक श्रीलिपि और चाणक्‍य को छोड़कर अलग-अलग फोंटों में सामाग्री तैयार करते हैं। पुस्‍तक को सुन्‍दर बनाने के लिये वे एक ही पेज में अलग-अलग करेक्‍टर मैपिंग के अलग अलग फोंटों का भी प्रयोग करते हैं। यद्धपि नेट पर बहुत सारे आनलाईन व आफलाईन यूनिकोड परिवर्तक हैं इसके बाद भी अलग अलग फोंट के कारण रचना पूरी तरह परिवर्तित नहीं हो पाती। दूसरी बात यह है कि कई ऐसे फोंट हैं जिसके परिर्वर्तक मुफ्त में उपलब्‍ध भी नहीं है। यदि मुफ्त में उपलब्‍ध परिवर्तक से यूनिकोड परिवर्तित कर भी दिया गया तो कई शव्‍द हैं जो पूरी तरह परिर्वर्तित नहीं होते, तो पूरी फाईल के उन शब्‍दों को मैनवली ठीक करना पड़ता है। 

प्रकाशकों की सीडी में सबसे बड़ी समस्‍या यह होती है कि वे या तो क्‍वार्क या पेजमेकर में बनी होती है, प्रकाशक अपनी सुविधा के लिए एक कागज में चार पेज छापता है फिर उसे काटकर पुस्‍तक के रूप बाइंड करता है इसके कारण वह एक पेज में क्रमिक रूप से पेज नम्‍बर डालने के बजाए अलग अलग पेज छापता है। अब आप जब अपने कम्‍यूटर में उसे खोलते हो तो वह गारबेज दिखता है अब खोजो पेज नम्‍बर और जमाओ क्रम से ....। इसके लिये मुझ रवि श्रीवास्‍तव भईया ने जो सुझाव दिया था उसका प्रयोग मैं करता हूं, मैं पूरे फाईल का एचटीएमएल कनवर्सन करता हूं फिर उसे यूनिकोड परिवर्तित कर देता हूं पर इससे पेज नम्‍बर पता नहीं चल पाता क्‍योंकि प्रकाशक पेज नम्‍बर या तो अंग्रेजी में डालता है या किसी दूसरे फोंट से, और यह जब परिवर्तित होता है तो गारबेज दिखने लगता है। इसलिये आपको प्रिंटेड पुस्‍तक पकड़ कर एक एक पेज को जमाना पड़ता है, फिर तैयार हो पाता है यूनिकोडित पुस्‍तक की पाण्‍डुलिपि। 

अब इसे ब्‍लॉग में पब्लिश करना चुटकियों का खेल है, यद्धपि इसके बावजूद कई बार कुछ मात्राओं और शब्‍द बिखर जाते हैं जिन्‍हें एडिट पोस्‍ट से बाद में सुधारना होता है। तो इस तरह पाठकों के लिए किसी पूरे पुस्‍तक को परोसना संभव हो पाता है। इसी तरह की प्रक्रियाओं से गुजरते हुए ब्‍लॉग आकर लेता है जिसमें किसी कोने पर अपना नाम और अपने आरंभ ब्‍लॉग का लिंक डालकर मैं खिसक लेता हूं। पिछले माह से मैंनें डॉ.परदेशीराम वर्मा जी की पत्रिका अगासदिया के कुछ अंक व अन्‍य साहित्‍यकारों की कृतियों को ड्राफ्ट करके रखा हूं, जिन्‍हें कुछ दिनों में पब्लिश कर दूंगा। 

वर्तमान ब्‍लॉगिया परिपाटी में जताने की परम्‍परा को कायम रखते हुए मैंनें अब सोंचा है कि ऐसे प्रत्‍येक कार्यों के बाद एक पोस्‍ट अवश्‍य ठेला जाए ताकि लोगों को पता चल सके कि हम असक्रिय नहीं है। पिछले दिनों हमने पं.रविशंकर विश्‍वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल 225 पेज के संपूर्ण छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास आवा को ब्‍लॉग के रूप में उपलब्‍ध कराया है। आप चित्र को क्लिक करके आवा ब्‍लॉग में जा सकते हैं, जी चाहे तो वापस आकर यहॉं मुझे टिपिया सकते हैं।  

संजीव तिवारी 

अंग्रेजी विज्ञान उपन्यास “ब्रेव मनटोरा” का हिन्‍दी अनुवाद

हमारे पाठकों को याद होगा कि वर्ष 2008 में छत्‍तीसगढ़ के प्रसिद्ध वनस्‍पति विज्ञानी डॉ.पंकज अवधिया जी के आलेखों को हम नियमित रूप से अपने इस ब्‍लॉग में प्रकाशित कर रहे थे। पंकज जी 'आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास और अंधविश्‍वास' पर प्रत्‍येक सप्‍ताह एक आलेख आरंभ में प्रस्‍तुत करते थे, 'आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास और अंधविश्‍वास' की 19 कडिंया आप इस ब्‍लॉग में देख सकते हैं। पंकज जी, शोध आलेखों के साथ ही उपन्‍यास भी लिखते हैं यह हमें विगत दिनो ज्ञात हुआ जब इनके अप्रकाशित अंग्रेजी उपन्‍यास ब्रेब मनटोरा (Brave Mantora) का हिन्‍दी अनुवाद इतवारी अखबार में क्रमश: प्रकाशित हुआ है। हमारे अनुरोध पर पंकज जी नें इस उपन्‍यास के कुछ अंशों को आरंभ में प्रकाशित करने की सहमति दी है। ब्रेव मनटोरा के पॉंचवे अध्‍याय के कुछ अंश क्रमश: प्रस्‍तुत हैं :-


जैसे ही हेलीकाप्टर का शोर गाँव मे सुनायी दिया बच्चे बाहर भागे। कुछ देर मे उन्होने एक बडे से हेलीकाप्टर को गाँव के ऊपर मँडराते देखा। गाँव वाले समझ गये कि कोई बडी मुसीबत आ गयी है। वे भी बाहर आ गये। गाँव के बाहर एक खाली जगह पर हेलीकाप्टर उतर गया। चारो ओर धूल का बवंडर उठ रहा था और कानफोडू शोर हो रहा था। गाँव की शांति भंग हो चुकी थी। हेलीकाप्टर का दरवाजा खुला तो सैनिको की तरह वेशभूषा वाले कुछ लोग नीचे उतरे और सीधे ही भीड तक पहुँच गये। “मनटोरा, कहाँ है? हमे मिलना है तुरंत।“

दूर जंगल मे हेलीकाप्टर की आवाज मनटोरा ने भी सुनी थी और उसके बैगा बबा ने भी। दोनो घने जंगल मे एक मौसमी झरने से निर्मल जल एकत्र कर थे। बैगा बबा इस जल को अपने रोगियो को देने वाले थे। मनटोरा हमेशा की तरह उनके साथ थी। हेलीकाप्टर की तेज आवाज सुनकर उसके मन मे आया कि क्या आवाजविहीन हेलीकाप्टर नही बनाया जा सकता? या ऐसा हो कि हेलीकाप्टर कही और चले और आवाज कही और सुनायी दे? या फिर हेलीकाप्टर की आवाज एक बक्से मे कैद हो जाये और वापस जाकर बक्से को खोलकर आवाज को छोड दिया जाये।

मनटोरा छत्तीसगढ की बेटी है और छत्तीसगढ जितना मनुष्यो का घर है उससे ज्यादा वनस्पतियो और जीव-जंतुओ का घर है। इंसानी गतिविधियो के कारण किसी भी तरह के शोर से मनटोरा विचलित हो उठती है। उसे लगता है कि पता नही नन्हे पक्षियो पर क्या गुजर रही होगी? हमारी तरह उनके पास हाथ जो नही है जिससे वे कानो को बन्द कर ले और तेज आवाज से बच जाये।

“मनटोरा, ओ मनटोरा।” दूर से आती इस पुकार ने मनटोरा को आभासी दुनिया से वास्तविक दुनिया मे ला दिया। हेलीकाप्टर दूर जा चुका था। जंगल फिर से अपनी आवाज मे शांति का शोर कर रहा था। धीरे-धीरे पुकारने की आवाज पास आती गयी। अब तो आवाज लगाने वाले दिखने भी लगे थे। सात-आठ लोग तेजी से मनटोरा की ओर ही आ रहे थे। उन लोगो की वेशभूषा को देखकर उसे यह समझने मे जरा ही देर नही लगी कि वे कौन लोग है और हेलीकाप्टर क्यो आया है?

“हैलो, मनटोरा, मै भरत हूँ और हमे शर्मा जी ने भेजा है। तुमसे जरुरी बाते करनी है। अभी, तुरंत।“यह कहकर भरत ने सब को पास की चट्टान मे बैठने को कहा। “मनटोरा, राजधानी मे आतंकवादी हमला हो गया है अस्सी से अधिक महत्वपूर्ण लोगो को बन्धक बना लिया गया है। बडी संख्या मे आतंकवादी है और कुछ भी कर गुजरने की तैयारी से आये है। सेना ने इमारत को चारो ओर से घेर लिया है। आतंकवादियो ने तीन बन्धको को मार दिया है। उनसे बात करने की कोशिश हो रही है पर उन्हे उलझाये रखना बहुत मुश्किल है। वे परम्परागत तरीको से बखूबी वाकिफ है। वे हमारी किसी भी चाल मे नही फँसना चाहते है। उन्हे पैसे चाहिये और साथ ही हमारी खदानो से निकाले गये हीरे।

उनकी दूसरी भी माँगे है। वे चाहते है कि अब तक सरकार द्वारा उनके विरुद्ध की गयी कार्यवाही के लिये सरकार का मुखिया कान पकडकर उठक-बैठक करे राष्ट्रीय समाचार चैनलो पर। पागलो की तरह उनकी बाते है और माँगे भी। बीच-बचाव की आस मे घुसे एक पूर्व आतंकवादी को भी उन्होने मार दिया। पूरे शहर मे दहशत है। शर्मा जी चाहते है कि मनटोरा की मदद ली जाये। इसलिये हम तुरंत आ गये।“ भरत ने एक साँस मे ही सब कुछ कह दिया। उसकी आँखो मे दहशत के चिन्ह साफ दिखते थे।

बाते चल ही रही थी कि बैगा बबा ने झरने से एकत्र किया हुआ पानी सबसे सामने रखा और पीने को कहा। भरत ने तो खुशी-खुशी पानी पी लिया पर उसके साथ आये लोगो ने अपनी जेबो से मिनरल वाटर की बोतले निकालकर दिखायी और कहा कि हमे प्यास नही लगी है। पर जब बैगा बबा ने बहुत आग्रह किया तो वे धीरे से बोले कि कही बाहर का पानी पीने से हमारा स्वास्थ्य तो नही बिगड जायेगा। पता नही कहाँ से यह पानी बहकर आ रहा होगा। भरत ने स्थिति को सम्भाला और कहा कि पी लो ऐसा पानी कही नही मिलेगा।

उसके साथी पानी पीने लगे। थोडा रुककर और पानी माँगा। फिर और। यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक कि पानी खत्म नही हो गया। “हमने तो पहली बार ऐसा कुछ पीया है।“ वे बोले तो सब हँस पडे। बैगा बबा ने उनसे बोतल वाला पानी माँगा और फिर बोतल खोलकर सूँघने लगे। उन्होने गहरी साँस अन्दर ली फिर निराश होकर बोले कि इसमे पानी के कोई भी लक्षण नही है। यह पहले पानी हुआ करता होगा पर अब इसकी मृत्यु हो चुकी है।

“मनटोरा, आप मोबाइल क्यो नही रखती है? आपकी सीधी बात शर्मा जी से हो जाती।“ भरत के एक साथी मनोज ने पूछा। “क्या यहाँ टावर नही है?“ मनटोरा ने कहा कि ये मोबाइल तरंगे मेरे गाँव, मेरे जंगल के लिये अभिशाप बनी हुयी है। मधुमख्खियाँ परेशान है, जंगली फलो को खाकर इतराने वाले चमगादड परेशान है, वे नाराज होकर दूर भटक रहे है। उनके न आने से जंगली पेड परागण के लिये तरस रहे है। गाँव मे बडी संख्या मे प्रवासी पक्षी आते थे। मोबाइल टावर के आने के बाद से उन्होने आना बन्द कर दिया है। यह सब देखकर मैने ठान लिया कि बहुत हो गया। अब और नही। मुझे मोबाइल नही चाहिये। मेरी देखा-देखी गाँव वालो ने भी यही किया और मोबाइल टावर उखाड दिया गया। शेष दुनिया से सम्पर्क टूट गया। पर हमारे अपनो से फिर से सम्पर्क जुड गया। सारा जंगल एक बार फिर से साँस लेने लगा। अब चलिये, राजधानी चलने की तैयारी करते है। आप मुझे कुछ समय के लिये बैगा बबा के साथ छोड दीजिये। कुछ वनस्पतियाँ एकत्र करनी है। आप लोग गाँव मे हमारा इंतजार करिये।

भरत और उसके साथी वापस गाँव की ओर चल पडे। अचानक ही उनके सामने से दो हिरण कुलाँचे मारते हुये निकल गये। मनोज का हाथ अनायस ही पिस्टल पर चला गया। उसने सोचा कि एक भी मिल जाये तो जंगल मे मंगल वाली बात हो जायेगी। इसे खाकर ही राजधानी की ओर चलेंगे। साथ चल रहे ग्रामीणो ने मनोज का इरादा भाँप लिया। उन्होने पुष्टि के लिये मनोज की आँखो मे झाँका तो उन्हे वहाँ एक लालची शिकारी बैठा नजर आया। वे झट से बोले, “साहब, ऐसा सोचना भी नही। ये रिश्तेदार है।“ “रिश्तेदार, किसके रिश्तेदार?” मनोज चौक पडा। “ये मनटोरा के रिश्तेदार है। इन्हे कोई नही मार सकता।“ मनोज का सारा उत्साह ठन्डा पड गया। आँखो से पकते हुये गोश्त का चित्र गायब हो गया। उस चित्र के स्थान मे मनटोरा दिखने लगी। गुस्से से भरी मनटोरा। वह तेज कदमो से अपने साथियो के साथ गाँव की ओर लौट गया।

भरत और उनके साथियो के गाँव पहुँचने के कुछ समय बाद ही दूर से मनटोरा तेज कदमो से आती दिखी। उसके पास एक बडी से गठरी थी। लगता था कि आनन-फानन मे उसने ढेरो वनस्प्तियाँ एकत्र कर ली थी। उसके पीछे कुछ दूरी पर बैगा बबा आते दिख रहे थे। बैगा बबा और गाँव के सियानो से आर्शीवाद लेकर मनटोरा हेलीकाप्टर मे बैठ गयी और कुछ ही पलो मे हेलीकाप्टर उड चला।  
क्रमश: ....

पंकज अवधिया

उड़ने को बेताब है यह नया मेहमान


पिछले दिनों मैंनें एक पक्षी के संबंध में एक पोस्‍ट लिखा था और उसके चित्र व वीडियो पब्लिश किया था। वह पक्षी तब छोटा था, धीरे धीरे उसका विकास होता गया और वह अब उड़ने की तैयार कर रहा है। उस पोस्‍ट के पब्लिश करने के बाद टिप्‍पणी में इंडियन विलेज़ नें कहा कि यह कोयल नहीं 'महोक' है, जबकि अभय तिवारी जी नें बज में कहा कि ' इसके भूरे पंख देखकर ऐसा लग रहा है कि कहीं यह ग्रेटर कोकल का बच्चा तो नहीं?' उन्‍होंनें आगे कहा 'आँख उनकी भी लाल ही होती है.. किन्‍तु इसकी आंख काली है, लाल नहीं है। 



अभय भाई नें आगे कहा कि यह लिंक देखें: फ्लिकर , एक सज्जन के अनुसार कोयल का बच्चे की तस्वीर यहाँ देखें: ब्‍लाग पोस्‍ट, फोटो और यहाँ: जे बर्ड्स । जो भी हो, हम इसके अभी के चित्र यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं, आप देखें और बतावें कि यह कौन सा पक्षी है।


साथ ही यह भी बतावें कि क्‍या हम इसे इसके प्राकृतिक वातावरण में पुन: छोड़ सकेंगें या इसे इसी तरह अपने 'कोला बारी' में शरण देना पड़ेगा, किन्‍तु यदि यह अपने प्रकृतिक वातावरण में नहीं गया तो कालोनी में कुत्‍ते व बिल्लियां इसे मार डालेंगीं। साथ ही यह मनुष्‍य से अब इतना घुल मिल गया है कि मनुष्‍य से डरता नहीं ऐसे में यदि यह किसी शरारती व्‍यक्ति के पास प्‍यार से भी आयेगा तो वह उसे नुकसान पहुचायेगा और यह चुपचाप शरद कोकास जी की कविता में लिखे भाग्‍य सा सब स्‍वीकारता जायेगा - 
कोयल चुप है 
गाँव की अमराई में कूकती है कोयल 
चुप हो जाती है अचानक कूकते हुए

कोयल की चुप्पी में आती है सुनाई 
बंजर खेतों की मिट्टी की सूखी सरसराहट 
किसी किसान की आखरी चीख 
खलिहानों के खालीपन का सन्नाटा 
चरागाहों के पीलेपन का बेबस उजाड़

बहुत देर की नहीं है यह चुप्पी फिर भी 
इसमें किसी मज़दूर के अपमान का सूनापन है 
एक आवाज़ है यातना की 
घुटन है इतिहास की गुफाओं से आती हुई

पेड़ के नीचे बैठा है एक बच्चा 
कोरी स्लेट पर लिखते हुए 
आम का “ आ “ 
वह जानता है 
अभी कुछ देर में उसका लिखा मिटा दिया जायेगा 
उसके हाथों से 
जो भाग्य के लिखे को अमिट समझता है।

- शरद कोकास


अपडेट्स : 
इस पोस्‍ट के बाद फोन, टिप्‍पणियों एवं मेल से प्राप्‍त अनुमानों के अनुसार चर्चित लेखक अभय तिवारी जी का कहना है कि यह महोक है। विज्ञान लेखक  अरविन्‍द मिश्रा जी का कहना है कि यह ब्राहिनी काईट - खेमकरी है, चर्चा में जो लक्षण मैंनें जो इस पक्षी के अरविन्‍द जी को बताये उसके अनुसार यह बाज प्रजाति के पक्षी ब्राहिनी काईट - खेमकरी से मिलते हैं। बांधवगण के प्रकृति प्रेमी, बाघ प्रेमी, वाईल्‍ड लाईफ फोटोग्राफर सत्‍येन्‍द्र तिवारी जी का कहना है कि यह कोकल है और यह अभी बाल्‍य-किशोरावस्‍था में है, इसके आंखों का रंग उम्र के साथ लाल हो जायेगी। प्ररातत्‍वविद व छत्‍तीसगढ़ के संस्‍कृति के चितेरे बड़े भाई राहुल सिंह जी का कहना है कि यह महोक (ग्रेटर कोकल) बन कुकरा है। ललित शर्मा जी के आम के पेड़ में भी यह पक्षी है पर वे इसका नाम नहीं जानते, वे चाहते हैं कि इस विमर्श से उन्‍हें भी इसके संबंध में जानकारी मिलेगी। अब हम नेट पर उपलब्‍ध महोक के कुछ लिंक व फोटो यहां लगा रहे हैं आप भी देखें -


वीकि में उपलब्‍ध पेज ग्रेटर कोकल.  चित्र - बर्डिंग डॉट इन में ग्रेटर कोकल.  


Brahminy Starling


Greater Coucal


Brahminy Kite



अंग्रेजी उपन्‍यास ब्रेब मनटोरा (Brave Mantora) का हिन्‍दी अनुवाद

हमारे पाठकों को याद होगा कि वर्ष 2008 में छत्‍तीसगढ़ के प्रसिद्ध वनस्‍पति विज्ञानी डॉ.पंकज अवधिया जी के आलेखों को हम नियमित रूप से अपने इस ब्‍लॉग में प्रकाशित कर रहे थे। पंकज जी 'आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास और अंधविश्‍वास' पर प्रत्‍येक सप्‍ताह एक आलेख आरंभ में प्रस्‍तुत करते थे, 'आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास और अंधविश्‍वास' की 19 कडिंया आप इस ब्‍लॉग में देख सकते हैं। 

पंकज जी वनस्‍पति विज्ञानी है और पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के खोज में देशभर में एवं छत्‍तीसगढ़ के वन ग्रामों में लगातार शोध यात्राएं करते रहते है और वहां से प्राप्‍त ज्ञान को इंटरनेट में दस्‍तावेजीकरण करने के लिए अपलोड भी करते रहते हैं। मधुमेह पर वैज्ञानिक रिपोर्ट लिखने के संबंध में पंकज जी का एक साक्षात्‍कार हिन्‍दी वेबसाईट पर यहां उपलब्‍ध है। वर्तमान में पंकज जी मधुमेह से संबंधित रपट अपने साईट में अपलोड कर रहे है वे पारंम्‍परिक चिकित्‍सा के संबंध में अपने वेबसाईट में १५ जीबी की सामग्री डाल चुके हैं, और अब एक दूसरी वेबसाईट में डायबीटीज की रपट अपलोड कर रहे हैं। इस साईट में अभी तक ३६ लाख से अधिक पन्ने अपलोड हो चुके हैं  यह हम सब के लिए गौरव की बात है कि पंकज जी के गहन शोध से प्राप्‍त यह सामाग्री और ज्ञान हमारे छत्तीसगढ़ का है। 

पंकज जी, शोध आलेखों के साथ ही उपन्‍यास भी लिखते हैं यह हमें विगत दिनो ज्ञात हुआ जब इनके अप्रकाशित अंग्रेजी उपन्‍यास ब्रेब मनटोरा (Brave Mantora) का हिन्‍दी अनुवाद इतवारी अखबार में क्रमश: प्रकाशित हुआ है। हमारे अनुरोध पर पंकज जी नें इस उपन्‍यास के कुछ अंशों को आरंभ में प्रकाशित करने की सहमति दी है। आगामी पोस्‍टों में हम पंकज अवधिया जी के इस उपन्‍यास का हिन्‍दी अनुवाद क्रमश: प्रस्‍तुत करेंगें।

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन

प्रकृति के चितेरे कवि महाकवि कालिदास नें एक पक्षी को एकाधिक बार 'विहंगेषु पंडित' लिखा और अँगरेजी के प्रसिद्ध कवि वर्ड्‌सवर्थ ने भी इसी पक्षी की आवाज से मोहित होकर कहा ', कुक्कु शेल आई कॉल दी बर्ड, ऑर, बट अ वान्डरिंग वॉयस? हॉं.. कोयल ही है यह पक्षी।  कोयल, कोकिल या कुक्कू इसका वैज्ञानिक नाम 'यूडाइनेमिस स्कोलोपेकस स्कोलोपेकस' है। गांव में और यहॉं शहर में भी रोज इससे दो-चार होते इसके शारिरिक बनावट से वाकिफ़ हूं। नर कोयल का रंग नीलापन लिए काला होता है, इसकी आंखें लाल व पंख पीछे की ओर लंबे होते हैं और मादा तीतर की तरह धब्बेदार चितकबरी भूरी चितली होती है। 


मेरे घर के आम पेड पर यह रोज कूकती है पर तब ये दिखाई नहीं देती, और मैं अंतर नहीं कर पाता मादा और नर कोयल के आवाज में। इनके आवाज में अंतर को स्‍पष्‍ट करने की लालसा इसलिये भी रही है कि सुभद्रा कुमारी चौहान कहती है कि 'कोयल यह मिठास क्या तुमने/ अपनी मां से पाई है? / मां ने ही क्या तुमको मीठी / बोली यह सिखलाई है?' छत्‍तीसगढ़ के कुछ लोकगीतों में कहा जाता है कि 'कोयली के गरतुर बोली ....'

कोयल पर अनेक कवियों नें कवितायें लिखी, गद्यकारों नें कोयल को अपने प्रकृति चित्रण में शामिल किया और कोयल हमारे साहित्‍य में गहरे से पैठ गई। नीड़ परजीविता के कारण कोयल के व्‍यवहार को अच्‍छा नहीं समझा जाता कहते हैं कि ये अपना घोसला नहीं बनाती और कौओं के घोंसले के अंडों को गिरा कर अपना अंडा दे देती है, कौंए कोयल के बच्चों को अपना बच्‍चा समझकर पालते हैं।  जब कोयल का बच्‍चा उड़ने योग्य हो जाता हैं तो अचानक चकमा उड़ जाता है। कोयल के बच्‍चे के साथ उस घोंसले में यदि कौए के बच्‍चे रहे तो यह सामर्थ होते ही उसे घोंसले के नीचे गिरा डालते हैं। 

अभिज्ञान शाकुंतलम में दुष्यंत के द्वारा नारियों के बुद्वि विवेक के संबंध में चर्चा करते हुए कोयल की इस प्रवृत्ति का कवि के द्वारा उल्‍लेख करना भी हमेशा समझ से परे रहा है। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता कोयल नें मुझे और दिग्‍भ्रमित कर दिया है 'डाल-डाल पर उड़ना गाना/ जिसने तुम्हें सिखाया है/ सबसे मीठे-मीठे बोलो/ यह भी तुम्हें बताया है।/ बहुत भली हो तुमने मां की/ बात सदा ही है मानी/ इसीलिए तो तुम कहलाती/ हो सब चिड़ियों की रानी।' दुष्‍यंत और सुभ्रदा कुमारी चौहान नें इसकी बोली से परे प्रवृत्ति पर ऐसा कहा है पर लोक मानस में बैठी कोयल के बच्‍चे की धूर्त प्रवृत्ति और साथ वाले बच्‍चों के प्रति विद्वेष की भावना के संबंध में पढ़ते हुए कभी सोंचा नहीं था कि ऐसा भी हो जायेगा कि कोयल का अपरिपक्‍व बच्‍चा ही किसी घोंसले से गिर जायेगा।

पिछले दिनों तेज अंधड़ के साथ बारिश के शांत होने पर भिलाई स्थित मेरे जनकपुरी के एक बड़े जामुन के पेंड के नीचे तीन पक्षी का बच्‍चा दिखा। घर में किसी नें भी इसे विशेष नहीं लिया दूसरे दिन सुबह तीन में से दो बच्‍चे गायब थे और एक बच्‍चा बरसात में भींगा कांपता हुआ टूटे डंगालों बीच दिखा। अपनी दया और व्‍यस्‍तता को देखते हुए चिडि़ये का यह बच्‍चा मुझे दुर्ग स्‍थानांतरित तर दिया गया। जब यह घर में आया तब इसके आकार को देखते हुए हम अनुमान नहीं लगा पा रहे थे कि यह किस पक्षी का बच्‍चा होगा, कभी हमें लगता कि यह चील का बच्‍चा होगा, कभी लगा नीलकंठ का बच्‍चा होगा और कभी कौंआ तो कभी कोयल। अब यह बच्‍चा किसी का भी हो, हमारे आश्रय में आ गया था इस कारण इसकी देखभाल आरंभ हो गई।

ड्रापर में दूध पिलाने पर यह मजे से उसी प्रकार दूध पीने लगा जैसे इसकी मॉं चोंच से दाना खिला रही हो। दो चार दिन के बाद इसे कुछ गाढ़ा खाद्य पदार्थ दाल चांवल और दलिया दिया जाने लगा। हम लोगों के इसके पास जाने पर यह तीखी आवाज में चीं-चूीं करते हुए मुह खोलता और हम इसे एक ड्रापर दूध पिला देते। धीरे-धीरे इसके पंख आने लगे और यह स्‍पष्‍ट हो गया कि यह कोयल है। अब रोज सुबह इसे घर में उपस्थित पेंडों पर एक-आध घंटे पर चढ़ा दिया जाता है और इसे प्रकृति से संबंध बनाने का अभ्‍यास डाला जाता है किन्‍तु पता नहीं क्‍यों यह पेंड में बैठे हुए एक कदम भी नहीं चलता। घर में भी यह कुछ भी चहलकदमी नहीं करता जबकि अब इसके पंख भी पूरे आ गए हैं। हम इसे उडा़ने के लिए लकड़ी में बैठाकर अभ्‍यास भी कराते हैं फिर भी यह उड़ता नहीं बल्कि डरपोक जैसे जोर से लकड़ी को पकड़े रहता है।
रश्मि प्रभाजी सुबह आँख खुलते ही कोयल की आवाज सुनकर गुनगुना उठती हैं, कोयल उनकी स्‍मृतियों में कविता बन के उतरती है और वे कहती हैं - सुनती हूँ कोयल की कूक/ मुझे कोई अपना याद नहीं आता/ मैं तो बस कोयल की मिठास/ और उसके बदलते अंदाज में खो जाती हूँ. उनकी अगली पंक्तियों में कोयल की मीठी आवाज और एक डाली से दूसरे डाली के सफर से रश्मि जी का पूरा दिन मीठा हो जाता है। मैं भी इंतजार कर रहा हूं कि कब यह एक डाली से दूसरे डाली में फुदके और अपने कोयलपन को सिद्ध करते हुए कूके। और मैं गुनगुनाउं ''कोयल बोली दुनिया डोली समझो दिल की बोली.... ' पर कविवर  केदारनाथ अग्रवाल जी 'कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह/ पंचम स्वर में चढ़कर बोला सन्नाटे में नेह' कहते हुए हुए हमें देह, नेह और कोयल के कूक को आपस में मिला देती है। 

मैं सोंच रहा हूँ मेरे घर में बैठे इस कोयल का भी एक ब्‍लॉग बना दूं ताकि इसकी आवाजों को प्रतिदिन रिकार्ड कर पोस्‍ट किया करूंगा पर बार बार रहीम अंकल मना कर रहे हैं, उनका कहना है कि बना भले लो पर पब्लिश अभी मत करना। कारण पूछने पर वे कहते हैं कि परिस्थितियां ऐसी है कि - पावस देखि रहीम मनकोइल साधे मौन। अब दादुर वक्ता भएहम को पूछत कौन। कविवर रहीम नें कहा कि वर्षा ऋतु में कोयल मौन धारण कर लेती है क्योंकि उस समय मेंढक बोलते हैं, और टर्र टर्र की आवाज में कोयल की सुरीली आवाज को कौन सुनेगा?

चलो मान लेते हैं रहीम अंकल की बात को, तब तक इंतजार करें मेरे 1808 वें नये ब्‍लॉग का ......



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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...