रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 4 (कहानी : संजीव तिवारी)

रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 1
रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 2
रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 3

इसके बाद लगभग हर दो तीन दिनों के अंतराल में कतमा अपनी टीम के साथ रात में टोला आता और माडो के साथ रात बिताता और चला जाता था। अब टोले में सभी जानने लगे थे कि माडो कतमा कमांडर की है। पुलिस सालों से इधर नहीं आई थी, कोई बाहरी आदमी भी बरसों से इधर नहीं आया था। टोले के लोग एक अलग ही दुनियां में जी रहे थे जिसे पढे लिखे लोग आदिम दुनिया कहते हैं। पर यह क्रम ज्यादा दिन तक नहीं चल सका, टोले के बाजू टोले वाले कुछ लोगों नें पुलिस तक यह बात पहुचा दी कि दलम अब नदी पार के टोलों में फिर सक्रिय हो गई है और यदि इन्हें नहीं रोका गया तो ट्रेनिंग कैम्प फिर खुल जायेंगें। फिर क्या था पुलिस की टीम आई लोग जानवरों की तरह पीटे गये और टोले की जनसंख्या फिर कम हो गई। अब पुलिस हर तीसरे दिन आने लगी उनके साथ कुछ अपने लोगों के कद काठी वाले लडके भी सादी वर्दी में बंदूक थामे आने लगे और टोले में रूककर मुर्गी भात का दावत उडाने लगे। जब पुलिस जाती तब दलम के लोग आ धमकते और जिसके घर में पुलिस नें दावत उडाई थी उसे धमकाते पीटते। लोगों को दोनों तरफ का खौफ था, एक तरफ कुंआ दूसरी तरफ खाई।
ऐसे ही दुविधा की स्थितियों में कई दिनों तक, माडो टोले में आये दलम के हर सदस्यों से बार बार पूछती कि कतमा कहां है पर कोई उसे संतुष्टिजनक जवाब नहीं मिल पा रहा था। वह कतमा के लिए तड़फ रही थी, एक दिन माडो नें एक महिला दलम सदस्या को कतमा के संबंध में फिर पूछा। बंदूक को कंधे से उतार कर जमीन में टिकाते हुए वह माडो को उपर से नीचे तक देखने लगी। ‘. . . तो तुम ही हो . . .’ माडो महिला दलम के सदस्या की बात को समझ नहीं पाई, प्रश्नवाचक निगाहों से माडो उस महिला को ताकने लगी। ‘तुम्हारी दीवानगी नें कतमा को पागल बना दिया था, रोज रोज बहाना बनाकर यहां आ जाता था और अपने साथियों को भी खतरे में डालता था। मौत से डरने लगा था कतमा ..., जीने का बहाना ढूंढने लगा था, पिछले माह दलम नें एक सभा में मुक्ति दे दी।‘ माडो नें सुना तो उसे काठ मार गया, घंटों वह वहां खडी रही, दलम के लोग आगे बढ गए, जंगल के बीच उनके बूटों से रौंदे गए घांसों में दूर तक एक लकीर सी खिंच गई थी।
XXX                   XXX                                           XXX
इस बात को महीनों बीत गए हैं, माडो नें कतमा के संबंध में सोंचना नहीं छोडा है। खबर गर्म है कि पास के गांव में सप्ताह में एक दिन लगने वाला हाट पुलिस और दलम के रोज रोज के झूमाझटकी व फायरिंग के कारण बंद करवा दिया गया है। अब न चार-चिरौंजी बिकते हैं न नमक तेल मिलता है, टोले के लोग महीनों में एकाध बार नदी पार करके आंध्र पंदेश की सीमा में जाकर वहां से नमक तेल और अन्य आवश्यक सामाग्री खरीद कर लाते और जंगल से एकत्रित हर्रा बहेरा बेहद कम भाव में बेंचते हैं। बाकी का दैनिक जीवन चिडियों, खरगोशों व मछलियों के शिकार से व कुछेक जमीन में कोदो कुटकी की उपज से चल रहा है। पुलिस की टीम जब टोले में आती है तब टोले के निवासी भागकर जंगल में छुप जाते है यदि वे ऐसा नहीं करते तो बेवजह पुलिस से मार खाते हैं। पुलिस उनसे दलम के लोगों के संबंध में पूछती, नहीं बताने या बताने दोनों पर यातनायें देती जिससे बचने का एकमात्र उपाय जंगल में जाकर छुप जाना था। जल, जंगल और जमीन की यह तथाकथित लडाई व्यक्तिगत लडाई बन रही थी। दलम में या पुलिस के एसपीओ दल में शामिल होने वाले अधिकांश स्थानीय निवासी, पुलिस व दलम के मुडभेडों में या उनसे संबंधित पूछताछ या फिर शक की वजह से मार दिये गये, चारो तरफ अपने परिजनों की मृत्यु का बदला लेने या फिर किसी अत्याचार व बलात्कार का बदला लेने की जीजीविषा लिये लोग ही थे। दोनों तरफ के मनुष्यों में नफरत किसी हिंसक जानवरों की तरह सुलग रही थी।
जंगल में अब दिन बदल रहा है और अब पुलिस उनके ही लोगों में से कुछ युवकों को विशेष पुलिस का दर्जा देकर, बंदूकें देकर जंगल में धीरे-धीरे पैठ बढाने लगी है। ये रंगरूट जंगल और यहां की परम्पराओं से वाकिफ इसी जंगल में पैदा हुए और पले बढे थे। सरकार नें उन्हें सामाजिक दर्जे के साथ ही दो हजार मासिक वेतन भी तय कर लिया था इसलिए अधिकाधिक जवान एसपीओ बन रहे थे और दलम के कब्जे वाले क्षेत्रों को पुलिस इन एसपीओ की मदद से लगातार ध्वस्त करती जा रही थी। पुलिस और दलम के बीच वैमनुष्यता से उपजे खीझ का असर गावों और टोलों के निरीह निवासियों पर पड रहा था। हाट-बाजार बंद होने से इनकी आर्थिक स्थिति चरमरा गई थी, झोपडी में इकत्रित जंगली उत्पाद सड रहे थे और इन्हें सीमित संसाधनों पर गुजारा करना पड रहा था।
माडो नें यह भी सुना था कि दलम के लोगों की सोंच में अब बदलाव आ गया है और वे बेवजह गांव-टोले वालों को मारने लगे हैं। इस हिंसा के विरोध में कुछ गांव टोले अब उठ खडे हुए हैं। दमन के विरोध में गांव टोले के लोग जुडूम का अलख जगा रहे हैं, सब एकजुट होकर किसी एक जगह रहने लगे हैं, गांव के गांव खाली कराए जा रहे हैं। जो नहीं जा रहे हैं उनपर जोर जबरदस्ती की जा रही है। वह सोंचती है, क्यूं नहीं जा रहे हैं लोग या क्यूं जा रहे हैं लोग। एसपीओ बनगए उसके मंद का पुराना ग्राहक बतलाता है कि शिविर में मुफ्त चांवल बंटता है, छप्पर छाने के लिए सामान मिलता है और रोजी मंजूरी भी मिलती है। कभी वह सोंचती क्यूं कोई मुफ्त में ये सब दे रहा है। एसपीओ बतलाता कि शासन दे रही है, कौन है यह शासन, इतने दिनो तक कहां थी यह शासन, आज कहां से आ गई यह, क्यूं आ गई, हम तो जैसे तैसे जी ही रहे थे। बहुत प्रयास करने के बाद भी माडो को ये बातें पल्ले नहीं पडती।
दस घर के उसके टोले में पांच पुरूष और बारह महिलायें व सात बच्चे ही बचे थे। उस एसपीओ नें उस दिन सभी को समझाया उसके साथ आस-पास के टोलों के बहुत से लोग थे। इस टोले को छोडकर शिविर में चले जाओ, पर नदी के किनारे मरने और दफन होने की इच्छा के चलते लोग नहीं जाना चाहते, नदी किनारे उनकी कई पीढियां मृत्यु के बाद कलकल करती नदी के तट में अनंत शांति में विश्राम कर रहे हैं वहीं उनको भी समा जाना है उनकी और कोई अभिलाषा नहीं है। बरसों से कतमा के इंतजार में पथराई माडो की आंखें भी नदी के उस पार ताक रही है, उसे कतमा का यहीं इंतजार करना है, ना जाने कब कतमा आ जाए। ‘... पर वह तो मर चुका है।‘ मांडो के अंदर से आवाज उठती है। ‘नहीं ! मैं नहीं जाने वाली, वह जरूर आयेगा’ माडो पूरे आत्मअविश्वास से चीखती है। टोले वालों के जिद के बावजूद कुछ दिनों बाद उन्हें हांक कर पास के ही जुडुम शिविर में पहुचा दिया जाता है, उनका टोला सदा-सदा के लिए वीरान हो जाता है।
XXX                   XXX                                           XXX
यहां शिविर में एक नई जिन्दगी बिखरी है जैसे स्वच्छंद उडते परिंदे को पकडकर बडे से पिंजरे में कैद कर दिया गया हो। सहमी सी माडो अपने जीवन में पहली बार इतने सारे लोगों को एक ही जगह रहते देख कर आश्चर्यचकित है। इसके पहले वह हाट-बाजार में लोगों की भीड देखती थी यहां तो कई-कई हाट-बाजार लगा हुआ सा प्रतीत होता है। ऐसे लोगों की भीड जो अपनी झोपडी, खेत, बकरी, गाय-बैल, नांव, जाल सब को छोडकर यहां कीडे मकोडे की तरह सिगबिगा रहे हैं। माडो की सांसें फूल रही है, अजीब सी छटपटाहट और बेचैनी हो रही है उसे। अंधेरा हो चला है और वह आंखें बंद कर बैठी है, कानों में अपने झोपडी के पीछे बहती नदी का कलकल सुनना चाह रही है पर लोगों के शोर शराबे, बच्चों की रोने की आवाजें, अजब कोलाहल में कलकल का स्वर दब सा गया है। कान में सांय-सांय की आवाजे आ रही है। वह अपने कानों को दोनों हाथों से दबा लेती है, सांय-सांय की आवाजें और बढ जाती है। वह फिर से हाथ को कानों से हटाती है, अब दूर से कतमा के अपने दलम के साथियों से बतियाने और फिर उसके अट्टहास की आवाजें उसके कानों में गूंजती है। वह चौंक जाती है, दूर जंगलों की ओर आंखें गडा कर आवाजों की दिशा में देखने का प्रयत्न करती है .... पर वहां तो कुछ भी नहीं है। गहन अंधकार शिविर के तेज हायलोजन की रौशनी से युद्ध करती प्रतीत होती है। यहां कृत्तिम रौशनी में आदिम जिन्दगी चिडियाघरों की भांति नहा रही है और वहां गहन अंधकार में बंदूकें गरज रही हैं, कतमा और पुलिस की। इन दोनों की लडाई में लुप्त प्राय दुर्लभ प्राणी इन शिविरों में कृत्तिम गर्भाधान तरीकों से प्रजाति को बचाने के मानवीय संवेदनाओं के भरोसे जी रही है।
माडो के दिमाग में अजब सी झंझावात चल रही है जिसे वह समझ नहीं पा रही है। वह उठती है अपने पैरों में शक्ति संचित करती है और पूरे वेग से पागलों की तरह अंधकार की दिशा में दौंड पडती है। शायद अंधेरे और उजाले के मेल में शिविर की सुरक्षा के लिए लगाए गए कांटे की बाड को माडो नहीं देख पा रही है। ‘धडाम’ की आवाज के साथ वह पीठ के बल तारों से उलझकर गिरती है। मचान में बैठे पुलिस वालों को लगता है जैसे वहां हमला हुआ है, कोई बाड के इस पार कूद गया है। अगले ही पल दर्जनों बंदूकों से निकली गोलियां माडो के जिस्म पर समा जाती है। खून से लतपथ आदिम जिन्दगी दूधिया रौशनी में पल भर के लिए कसमसाती है और हमेशा हमेशा के लिए शांत हो जाती है।

संजीव तिवारी

रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 3 (कहानी : संजीव तिवारी)

रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 1
रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 2

अपनी जिन्दगी की अधिकाश राते वह अपनी झोपडी में अकेले ही गुजारती थी, छोटे से तुम्बी में अपने हाथों से उतारे मंद को भरकर पिया, रूखी-सूखी खाया और लम्बी तान कर सो जाती थी। उसकी जिन्दगी में दिन और रात के मायने मंद उतारना-बेंचना और सो जाना था। उसका दिन नदी के किनारे से निकलते सूरज के साथ शुरू होता और डोंगरी पहाड में उसके छिपने तक भागदौड में बीतता था, महुआ के दिनों में वह सुबह मरसूल पकडकर महुआ बीनने जाती, वापस आकर उन्हें सुखाती फिर सडे महुओं को हाथों से मसल कर आग जलाती और मंद की भट्ठी तैयार करती। मंद आसवित होकर मिट्टी के बरतन में इकट्ठा होते रहता और वह चिनता नदी से नहा कर बडे तूम्बे में पानी भरकर आती। खाना बनाती और खा कर बाहर परछी में मचिया डाल कर बैठ जाती। तब तक आस-पास के गांव-टोलों से मंदहा लोगों का आना शुरू हो जाता था और उसका धंधा चल पडता था। बीच-बीच में सूखे महुए को बेंचने आये महिलाओं से वह महुआ खरीदती और पियक्कड पुरूषों को ले जाने उनकी पत्नियों के बडबडाते आने पर उनसे रार करती। ‘अपने पति को पल्लू में बांध कर रखो, मैंने नहीं बुलाया है, ये खुद आये हैं।‘ बातें कभी कभी काफी बढ जाती पर वह सब पर भारी पडती थी।
युवाओं की भीड माडो की झोपडी पर लगती रही, इन्हीं दिनों नदी के उस पार से कुछ अनजान चेहरों की आमद भी टोले में होने लगी थी। वे टोले के युवकों से मिलते, घंटो कुछ फुसफुसाते और नदी पार कर वापस चले जाते। इनके आने जाने के बाद से टोले और आस-पास के टोलों से युवकों का उसके झोपडी में आना कम होने लगा। उन्हीं युवा लडकों में से कुछ युवा लडके हरी वर्दी और बंदूकों के साथ कभी-कभी नदी पार कर दल के दल आते टोलों में रहने वाले सभी को बुलाते और उनका सुख-दुख पूछते। माडो से मंद का धंधा बंद करने को कहते, टोले में जंगली उत्पाद खरीदने आने वाले कोचिया को उचित भाव पर सामान बेंचने व उसके द्वारा लोगों को ठगने या टोले के किसी व्यक्ति के अन्याय करने के विरूद्ध शिकायत मिलने पर उसे डंडे व लात से सब के सामने बेदम पीटते। सरकार के द्वारा षडयंत्रपूर्वक खदानों के लिए गांव टोलों को उजाडने के किस्से सुनाते। शहर हो आए लोगों को वे शक की निगाह से देखते थे, वे सभी को शहर जाने और किसी अजनबी से मेल-मिलाप बढाने पर भी दंड देते थे। उनके मित्रवत व्यवहारों नें सबका मन मोह लिया था, धीरे-धीरे सारा टोला उनकी उंगलियों पर नाचने लगा था।
इसके साथ ही दो-दो चार-चार करते-करते उनके दस-बारह झोपडियों के टोले में चालीस-पचास झोपडियां तन गई थी और दलम के लोगों का ट्रेनिंग कैम्प नदी के उस पार से इस पार चालू हो गया था। गबरू जंगल के जवानों के साथ-साथ बारह-पंद्रह साल के किशोर और मोटियारी लडकियां भी हरे ड्रेस के साथ यहां आने लगी थी जो लाल सलाम, इंकलाब जिन्दाबाद के नारों के साथ कदम ताल करते और कंधों में टंगे बंदूकों से निशाना लगाना सीखते थे। यह स्थान प्राकृतिक रूप से दलम के लिए एकदम सुरक्षित था, तीन तरफ पहाड और एक तरफ नदी के बीच लगभग दो किलोमीटर के व्यास वाले कुछ पठारी जगह में यह टोला स्थित था जिसके कारण पुलिस का यहां पहुंच पाना आसान नहीं था।
माडो और टोले वालों की जिन्दगी पटरी पर थी, वे दिन भर अपने लिये मछली मारते, शिकार करते एवं छोटी-छोटी डोलियों में खेती से कुटकी आदि लगाकर उसमें मेहनत करते थे। ऐसे समय में ही एक रात माडो के घर में पिंडली में गोली का चोट लिए कतमा नें प्रवेश किया था और माडो को झकझोरते हुए सुबह सुकुवा के उगते ही चिनता नदी के पार खो गया था। वह कई दिनों तक स्मृतियों में कतमा के चेहरे को चिमनी की रोशनी में दमकते हुए देखती रही, फिर वह एक रात पुन: आ धमका था ... स्‍वप्‍न की ही तरह। जब भी कतमा, माडो के स्वप्नों में आता एक अपूर्व आनंद उसके हृदय में छा जाता था। माडो बार-बार इसे महसूस करती और अपने अंतरतम से बातें करती, कि क्या वह फिर कभी आयेगा? क्यों वह बार-बार उसकी स्मृतियों में आता है? माडो के जीवन में किसी पुरूष का स्थाई महत्व नहीं था, किसी की भी याद में उसका दिल इस तरह नहीं धडकता था जिस तरह कतमा के याद में धडकता है। माडो अपने मन को कतमा की ओर से ध्यान हटाने को कहती पर उसका मन बार बार कतमा की याद में खो जाता।
उस दिन टोले में उत्स‍व सा माहौल था, सांगा देव को सजाया जा रहा था, दियारी मंत्र बुदबुदा रहा था। टोले के लोग नये कपडे पहन कर सांगा देव का गुणगान गा रहे थे। देवता दियारी के कंधे में पहुच कर मचल रहा था, कारी भंवारी और कारी कुकरी का रक्त चढाया जा रहा था। उसी समय गुडदुम के धुनों में थिरकते पुरूषों के बीच कतमा और उसके दस साथी कंधे में बंदूक लटकाये आकर खडे हो गए। दूर से ही पहचान गई माडो, कतमा को। वही सूरत जो उसने चिमनी के लाल रौशनी में देखा था, वही चेहरा जो पिछले दो माह से उसके स्वप्नों में लगातार छाया हुआ था। कतमा ने अपने साथ लाए सात मुडी चोंखी कुकरी को कटारी से पूज कर देव की पूजा अर्चना की और अपने नेतृत्व में टोले के लोगों के साथ सांगा देव को मडकम मडई तक ले गया। सभी लोग उसके पीछे चलते हुए मडकम मडई पहुच गये जहां आस-पास के गांव-टोलों से विभिन्न देवताओं को लाया गया था। मडई में अच्छी खासी भीड थी साथ ही कतमा जैसे कमांडर और हजारों वर्दी वाले बंदूक थामें दलम के लोग भी थे। सभी देवताओं की पूजा अर्चना पारंपरिक रिवाजों के अनुसार किया गया। पारंपरिक नृत्यों की प्रस्तुति होती रही। कतमा दलम और देवताओं व दियारी लोगों की सेवा में ही लगा रहा पर माडो हर पल उसे दूर से निहारती रही।
रात होते होते सांगा देव को सकुशल टोला ले आया गया, टोले की महिलायें एवं पुरूष आनंद उत्सव में छककर ताडी और मंद पी चुके थे, मडई में तुतनी बधिया और बकरा-मुर्गा भात मुफ्त में बट रहा था जिसकी व्यवस्था संभवत: दलम वालों नें की थी। सभी नशे में चूर थे, कतमा के साथ आये लोग भी नशे में थे वे टोले के पास ही एक महुआ पेड के नीचे ओट में जाकर सो गये पर कतमा उठ कर लडखडाते कदमों से माडो की झोपडी की ओर बढ गया। दरवाजे पर पहुंच कर उसने दरवाजा थपथपाया, माडो भी मंद के नशे एवं मडई घूमने की थकावट के कारण जल्दी ही अपनी माची में लुडक गई थी। थपथपाहट सुनकर उसने लडखडाते हुए फैरका को खोला। ढिबरी की रौशनी दरवाजे पर खडे कतमा के चेहरे पर पडी, खुशी के अतिरेक में माडो का सारा नशा काफूर हो गया। सामने वही चेहरा दमक रहा था। कतमा बिना कुछ बोले अंदर आकर माची में बैठ गया, माडो नें फैरका भेड दिया। लोटे में पानी लाकर उसके सामने रखा, कतमा कंधे में टंगे बंदूक को उतारकर झोपडी में लकडी से बनाये गये खूंटी में टांगा और जूता खोलकर बाहर हाथ-मुह धोने चला गया। उसके वापस आते तक माडो नें मडई से लाये पेपर में बंधे जलेबी को खोलकर जर्मन के प्लेटनुमा थाली में रख दिया, कतमा के आते ही उसे उसकी ओर सरका दिया।
‘आखिर तुम्हें मेरी याद आई?’ माडो नें अपने चितपरिचित अंदाज में कहा। वह अक्सर पुरूषों से ऐसा प्रश्न करती थी जिसका उत्तर वे दे नहीं पाते थे और इधर उधर की बातें करते थे फलत: माडो के सामने कमजोर साबित होते थे। माडो ऐसे प्रश्नों को किसी हथियार की भांति प्रयोग करती थी। ‘सांगा देव की कृपा से इसी टोले में मेरे टांग के चोट पर उचित समय में ही दवा लग पाई थी, इसलिए बदना था, सांगा देव के बुलावे में आया था। तुमसे भी मिलकर धन्यवाद कहना था।‘ कतमा नें कहा था। माडो की आंखों से खुशी छलक रही थी। ‘लो जलेबी खाओ, माडो के घर में मंद के सिवा और क्या मिल सकता है।‘ माडो नें जलेबी का प्लेट उसकी ओर सरकाते हुए कहा। ‘बहुत नाम सुने हैं तेरा, तेरे मंद के दो-चार चहेते नदी उस पार के कैम्पों में हैं वे तेरी बहुत गुन गाते हैं। उस दिन तो चोट के दर्द में रात गुजर गई थी और सुबह जल्दी जाना था क्योंकि हमें पता था कि पुलिस जल्दी ही हमारे पीछे-पीछे आ जायेगी इसलिए चला गया था। तेरा मंद नहीं पी पाया था।‘ कतमा ने अर्थपूर्ण निगाहों से माडो की ओर देखते हुए कहा, माडो शरमा गई थी।
‘तो आज पीने आ ही गए ?’ माडो नें भी अर्थपूर्ण भाव से कतमा को देखते हुए कहा। माडो नें उस रात कतमा को छककर मंद पिलाया, तम्बाकू खिलाया और उसके विशाल बाहों में सुबह होते तक लिपटे रही। उस रात उसका स्वप्न साकार हो चला था, वह कतमा के बाहों में थी और ढिबरी के मद्धिम रौशनी में वह बार बार उसका दमकता चेहरा निहारती थी। वह आश्वस्त होती थी कि यह स्वप्न नहीं हकीकत है। सुबह होने के पहले ही कतमा उठकर चला गया, माडो देर तक सोती रही। जब उठी तब कतमा को न पाकर वहां तक बदहवास दौड गई जहां उसके साथी रात में सोये थे। किन्तु सब जा चुके थे। वह दिन माडो के लिए उमंगों का दिन था, वह अपने आप को हवा में उडते हुए, लहरों में खेलते हुए महसूस कर रही थी। उसकी सांसों में कतमा का नशा था, एतराब के सबसे ताकतवर व्यक्ति का नशा।

रौशनी में आदिम जिन्दगी भाग 2 (कहानी : संजीव तिवारी)

रौशनी में आदिम जिन्दगी  भाग 1 (कहानी :  संजीव तिवारी) 

माडो इसी टोले में पैदा हुई थी पली बढी, बरसों पहले उसके दादा पास के गांव में रहते थे जो गांव से बाहर पेंदा खेती करने और मछली मारने के उद्देश्य से यहां टोले के पास झोपडी बनाकर रहने लगे थे। धीरे धीरे दस बारह लोग और आ गए थे, झोपडियां तन गई थी। गांव लगभग दस किलोमीटर दूर था व उनके टोले में तीन चार मोटियारिनें ही थी जिसके कारण घोटुल गये बिना ही बारह साल की उम्र में माडो की शादी इसी टोले में रहने वाले एक चेलिक से कर दी गई थी। दो माह तक उसे कली से फूल बनाने की भरसक प्रयत्न करते हुए उस किशोर नें उसे पत्नी होने का गर्व तो दिया पर एक दिन अचानक वह माडो को छोडकर किरूंदूल के खदानों में कमाने खाने चला गया फिर चार साल बाद लौट कर आया तो अपने साथ दूसरी बीबी और एक बच्चा भी साथ लाया। माडो नें फिर भी अपनी सौत और पति के साथ निभना चाहा पर वह नहीं निभ पाई, सौत के तानों और गालियों से तंग आकर वह पुन: अपने मां बाप के झोपडे में आ गई। दिन-दिन भर जंगल में घूम घूम कर चार चिरौंजी हर्रा बहेरा इकट्ठा करती और बीस किलोमीटर पैदल चलकर हाट में जाकर उसे बेंचती। देखते ही देखते गदराए जवान शरीर में गोदना का सौंदर्य उसे आस पास के टोले और गांवों में मशहूर कर दिया था। जवान लडके उसका साथ पाने को तरसने लगे, इसी समय जवान और पति से अलग रह रही माडो के कदम भी कुछ बहक गए। बेटी की लगातार बदनामी के किस्से को सुन सुन कर मां बाप नें अब उसे अपने पास रखने से मना कर दिया। यहां मिट्टी का कोई मोल नहीं था, सारी धरती माडो को पनाह देने आतुर थी। माडो नें पास में ही एक झोपडा बनाया और उसमें रहने लगी। उसने दो बकरियां भी पाल ली और उन्हें चराने जब जंगल जाती तब वहां से जंगल में पाये जाने वाले उत्पादों को इकत्रित भी करने लगी। स्वच्छंदता के कारण उसके झोपडे में एक दो पुरूष गपियाते मंद पीते बैठने लगे। ऐसे में मुफ्त में मंद पिलाने के बजाए माडो नें घरों घर सहज में उपलब्ध मंद को ऐसी व्यावसायिकता दी कि उसके झोपडे में आस पास के टोले के लोगों की रोज भीड लगने लगी। वह जंगल के उत्पादों के बदले मंद बेचने लगी और महीने में एक बार बाजार जाकर उसे बेंचने लगी, आर्थिक समृद्धि से ही उसका जीवन सहज रह सकता है वह जान गई थी।
माडो के मांसल शरीर में गुदनों का अद्भुत सौंदर्य उकेरा गया था, हाथों में हथेलियों के उपरी भाग से लेकर दोनों भुजाओं में फूल पत्तियां गुदे थे। पैरों में पिंडलियों से लेकर जांघों से भी भीतर जाती लम्बी बूटेदार फूल पत्तियों की श्रृंखला जब वह अपनी छोटी सा‍डी को समेटकर उखडू बैठती तो उसके काले किन्तु चमकदार देह में उभर आती थी। माडो अपनी सुन्दरता को समय रहते ही भुना लेना चाहती थी इस कारण उसने पास के गांव के एक कामदार के नाती के आतुर निगाहों का सम्मा‍न किया, कामदार का नाती उसे रख्खी बनाकर अपने गांव ले आया। माडो की झोपडी सूनी हो गई पर वह उस कामदार के नाती के गांव में बने एक झोपडी को आबाद करने लगी। कामदार के नाती के पहले से ही दो-दो बीबीयां थीं माडो तीसरी थी, दो बरस स्वदच्छंद व वाचाल हिरनी माडो नें उस कामदार के नाती को अपने पल्लू में बांधे रखा उसके बाद उस कामदार के नाती से खटपट होने लगी। मंद और मलेरिया नें कामदार के नाती को अंदर से खोखला कर दिया था सिर्फ पौरूषता का ढोंग बाकी था जो ज्यादा दिन तक न चल सका। एक दिन कामदार का नाती किसी बात पर गांव के चौक में माडो को मारने लगा, झूमा-झटकी में माडो के शरीर पर लिपटा इकलौता वस्त्र खुल गया और वह र्निवस्त्र हो गई। सारा गांव देखता रहा, किसी नें भी माडो को सहारा न दिया।
इसके बाद वह बिना कुछ बोले अपने टोले में आ गई। अपने उजडे झोपडी को फिर से तुना-ताना, गोबर से लीपा, मिट्टी-छूही से पोता और कुछ ही दिनों में अपने पुराने ढर्रे में लौट आई। अब उसने अपना जीवन अकेले ही बिताने को ठान लिया, वह अब भी जवान थी और उसकी उन्मुक्त दिनचर्या उसके देह की आवश्यकताओं को पूरी कर रही थी। मंद पीने आये युवा लोगों में से कभी अपनी स्वेच्छा से तो कभी उन युवा लोगों में से किसी आताताई से बेमन हमबिस्तर होना माडो का शगल हो गया था। मन और तन को सदैव अलग रख कर उसने नारी भावनाओं और भविष्य की चिंता को मार दिया था, और जंगल में पेंड-पौधों या फूलों की भांति जिये जा रही थी, जैसे प्रकृति नें उसे ऐसे ही जिन्दगी दी है जिसका उसे सम्मान करना है। उस फूल पर सैकडों भौंरों नें मकरंद बिखेरे पर ईश्वर नें उसे फल बनाने की शक्ति नहीं दी, शायद यही उसके जीवन में जीवटता को जीवंत रख पाई थी। समाज के लोक-लाज के भीतर ही उसकी दबंग छबि सबको भाती थी और कोई भी उस पर उंगली नहीं उठा पाता था।
दस बारह झोपडियों का यह टोला बीहड जंगल के बीच था, लगभग बीस-पच्चीस किलोमीटर की परिधि में कोई सडक या पहुच मार्ग नहीं था। परिवहन का साधन सिर्फ चिनता नदी थी जिसमें छोटी डोंगी या लकडी के लट्ठों से नदी के बहाव के समानांतर चलते हुए सडक तक या फिर गोदावरी तक पंहुचा जा सकता था। दूर-दूर तक धना जंगल फैला हुआ था, बडी-बडी पहाडियां, घुमावदार घाटियां क्षेत्र को दुर्गम बनाती थी।
महीनो में कोई गांव-टोले का आदमी पडरीपानी के सिरमिट पलांट या शहर की हवा खाकर यहां आता तो साथ में विकास के पहचान के रूप में प्लास्टिक के चप्पल जूते, कमीज पैंट या ट्रांजिस्टर लाता। लुंगी-साडी तो पास में भरने वाले हाट-बाजार में मिल जाते थे। हाट-बाजार में सामान तो बहुत कुछ होता था पर लोगों के पास इन्हें खरीदने लायक पैसे नहीं होते थे। यदि पैसे होते भी थे तो वे लालच/आकांक्षा के बावजूद आधुनिक सामानों को खरीदने में शर्म महसूस करते थे। माडो नें बुधवारी हाट से एक बार ब्रा और ब्लाउज खरीदा था, दुकानदार के बार-बार जिद करने एवं साथ में आई महिलाओं के उत्सुकता वश प्रोत्साहन देने के कारण माडो नें उन्हें खरीद तो लिया था पर झोपडे से बाहर उसे कभी पहन न सकी थी। हॉं रात में ढिबरी की मद्धिम रोशनी में उसने उसे कई बार पहना था और उसमें कसे अपने देह को धुंधले पड गए आइने से निहारा था फिर शरम से लाल होते हुए अगले ही पल उसे उतार कर टूटी संदूक में रख दिया था।

क्रमश: शेष अगली पोस्‍ट पर ....

रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 1 (कहानी : संजीव तिवारी)

धमाके की आवाज के साथ ही पुलिस डग्गे के परखच्चे उड गए। चीं sssss … ! की आवाज से पीछे चली आ रही चार जीपें सड़क के दायें बायें घिसटती हुई रूक गई। सामने निकल चुके एक डग्गे के पहिये भी कुछ मीटर के बाद थम गए। चारो जीपों और आगे चल रही गाडी से चीटियों की मानिंद पुलिस के जवान उतरे और जल्द ही लेटकर पोजीशन ले लिया। माहौल धमाके के बाद एकदम शांत हो गया, दूर पहाडियों से धमाके की आवाजे प्रतिध्वनित होती अब भी आ रही थी। डग्गे में सवार पांचों जवान मारे जा चुके थे, चारो तरफ गाडी के तुकडे खून और मांस के लोथडे इधर उधर बिखरे थे। अचानक दूर पश्चिम की ओर के जंगल में झुरमुटों के बीच हलचल हुई, पुलिस जवानों की बंदूकें उसी दिशा में गरज उठी।
लम्बे तारों से बैटरी का करंट दौडाकर विष्फोट करने वालों का दल, अचानक बडी फोर्स को अपनी तरफ गोली चलाते देखकर चकरा गया। मृत जवानों के हथियारों को लूटने का लोभ छोडकर, वे कवर फायर करते पीछे की ओर भागने लगे। वे कुल जमा दस लोग थे, दो-दो लोग बारी-बारी से कवर फायर करने लगे और समुचित दूरी बनाते हुए भागने लगे। पुलिस की टीम भी फायरिंग करते हुए आगे बढने लगी, पुलिस के कुछ अधिकारी विष्फोट स्थल में ही रह कर मुख्यालय संपर्क साधने के प्रयास में लग गए।
कतमा उन दस लोगों के दल में था जिसने इस विष्फोट को अंजाम दिया था। उसके दल नें पिछले साल के बरसात में अपनी दुर्दशा पर स्वयं ही रोते इस रोड को खोदकर लगभग चालीस बम लगाया था और वहां से तार निकाल कर झाडियों के बीच मिटटी में दबा दिया था। इन्हीं में से एक का विष्फोट उन्होंनें आज किया था, पर जवानों से भरी लारी के निकल जाने के बाद विष्फोट हुआ था। जीवित बचे पोजीशन ले चुके जवान उनसे संख्या में ज्यादा थे इसलिए कतमा का दल पीछे भागने लगा था। कतमा और साथी भागते भागते इधर-उधर बिखर गए थे, घने जंगलों के बीच छोटी-छोडी पगडंडियों का उन्हें बेहतर ज्ञान था उस पर वे सरपट भाग रहे थे। गोलियां आगे-पीछे, दायें-बायें बरस रही थी। वह बिना रूके अकेले ही नदी की ओर जाने वाली पगडंडियों में दौड रहा था, उसके कंधे पर एसाल्ट गन और पीठ में अन्य सामान लदा था। दौडते दौडते अब वह काफी थक गया था, पुलिस की गोलियों की आवाजें अब बंद हो गई थी, संभवत: पुलिस वापस सडक की ओर लौट रही थी। कतमा सुस्ताने के लिए उंचे साल के पेड के नीचे कुछ पल के लिए रूककर दोनों हाथों से अपने घुटनों को पकड कर लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा।
जंगल के बीच जानवरों के खुरों से बनी पगडंडियों की भूल-भुलइया का उसे बेहतर ज्ञान था। उसे पता था कि अगले आधे घंटे के दौड के बाद टेकरी पहाड और उसके पार चिनता नदी, उसे पार करते ही उसका इलाका। हॉं इलाका ही तो है वह, वहां दलम का राज है, पुलिस, शासन, प्रशासन सब की पहुच से दूर, वहां सूरज भी कमांडरों की हुक्म से उगता है। कुछ पल सुस्ताने के बाद कतमा ने फिर दौड लगा दी, पर भागते हुए उसके पैरों नें अचानक राह बदल ली। वह टेकरी पहाड में चढने के बजाए उसके दायें तलहटी के साथ साथ भागने लगा, दूर एक दस-पंद्रह झोपडियों का टोला नजर आने लगा था, झोपडियों से उठते धुए काफी उंचाई तक पहाडों से होड लगा रहे थे। सांझ हो चली थी, चिडियों के झुंड पेडों में रात्रि विश्राम के पूर्व इकत्रित होकर कलरव कर रहे थे। उसने उंचाई से सभी झोपडियों पर और आस-पास नजर घुमाई, संतुष्ट होकर वह धीरे-धीरे चलते हुए टोले में आ गया। अंधेरा छा गया था, टोले के कुछ बुजुर्गों ने उसके बंदूक लटकाये कद-काठी वाले साये को सलाम किया जिसका उत्तर उसने हाथ हिलाकर दिया। वह चुपचाप सीधे उत्तर छोर पर देवगुडी के पास अलग थलग बने बांस, लकडी व मिट्टी के फूस वाले झोपडी के सामने आकर रूका। बांस की पतली टहनिंयों और काटों से घेर कर बनाये बखरी के छोटे रांचर को खोलकर उसने अंदर प्रवेश किया।
झोपडी में ढिबरी जल रही थी, दरवाजे के बाजू में चूल्हा जल रहा था जिसमें मिट्टी के बरतन में कुछ पक रहा था। वह सीधे झोपडी के अंदर घुस गया, अंदर धान रखने के बडे से कोसरे के बाजू में छोटी खटिया बिछी थी, सामने आले में ढिबरी टिमटिमा रही थी, शायद नीम के तेल से उसे जलाया जा रहा था जिसकी गंध अंदर छाई थी। माडो सुतई से कच्चे आम को छील रही थी, अचानक कतमा को अंदर देखकर वह हडबडा कर उठ गई। ‘कौन . . .! कौन हो तुम ?’ उधर से कुछ उत्तर आता तब तक ढिबरी की रौशनी में वह कतमा को पहचान गई। कतमा बिना कुछ बोले मचिया में बैठ गया, माडो नें पुन: प्रश्न किया ‘दो साल बाद तुम्हें मेरी याद आई ?’ कतमा चुप ही रहा। माडो नें जर्मन के पिचके गंदे से लोटे मे पानी भरकर कतमा के सामने रखते हुए कहा ‘लो हाथ मुह धो लो ... !’ कतमा बाहर बखरी में रखे एक पत्थर पर खडे होकर वहां रखे मटके से पानी लेकर पैर और लोटे के पानी से मुंह हाथ धोकर अंदर आ गया। अब वह माची में लेट गया, मचिया उसके कद से बेहद छोटी थी, उसके पैर बाहर लटक रहे थे। ‘चार माह से ही डोंगरटोला में हूं, इसके पहले तो महाराष्ट्र सीमा इलाके में था। पिछले दो साल से बहुत व्यस्त हूं, भाग-दौड, ट्रेनिंग, जन-सभा में दिन और रात गुजर रहे हैं।‘ कतमा नें मचिया में बैठते हुए कहा। ‘तो आज कैसे याद आ गई मेरी।‘ माडो नें चूल्हे में अतिरिक्त लकडी डालते हुए कहा। ‘कई दिनों से नदी पार टारगेट करने के लिए जाने की आदेश मांग रहा था, पर उपर से मंजूरी नहीं मिल पा रही थी। इन दिनो रोज संतरी ड्यूटी नदी किनारे चितावर तक लगवाता था कि शायद तुम्हारी झलक नदी उस पार से दिख जावे, पर तुम तो नजर ही नहीं आती थी।‘ ‘तो..... ?’ माडो नें बात बीच ही में काट दिया। ‘तो क्या आज रामगढ रोड में बम उडाने और बंदूकें लूट लाने का आदेश हुआ तभी ठान लिया था कि जो भी हो वापसी में तुमसे मिलूंगा ही।‘ कतमा नें बात पूरी की।
कतमा नें धृणा से मुंह बनाते हुए पुलिस वालों को एक भद्दी गाली दी, और फिर हसने लगा। ‘अफशोस कोई बडी चोट नहीं दे पाये, हथियार भी कुछ हाथ नहीं आया, हम एक मिनट से चूक गये पहली गाडी निकल गई थी।‘ कतमा ने ऐसे कहा जैसे ये सब उसकी दिनचर्या की बात हो। इधर माडो की चिंता घनीभूत हो गई थी, वह जानती थी कि ऐसे हादसों के बाद पुलिस आस पास के जंगलों में सघन सर्च करती है और हो सकता है पुलिस कतमा को ढूंढते यहां भी आ जाए। उसे याद है दो साल पहले ही तो कतमा अपने दो साथियों के साथ, एक और विष्फोट के बाद उसके घर खून से लतफथ पांव लिए आया था, उसने माडो से आधी रात में चूल्हा जलवाकर पानी गरम करवाया था और पिंडली को चिरती निकल गई गोली के जख्मो को धोया था। अपने बैग में रखे दवाई को रूई के फाहे में डालकर स्‍वयं जख्म के अंदर ऐसा घुसाया था जैसे किसी निर्जीव शरीर में घुसा रहा हो, माडो उसके चेहरे को ढिबरी की रौशनी में देखती ही रह गई थी। शुकवा के उदय होते ही वह और उसके साथी झोपडी से निकल गए थे और टोले के छोटे नांव से नदी के उस पार चले गये थे। चूल्हे में रखे पात्र में उबाल आ गया और पानी उबलकर चूल्हे के आग को शांत करने लगी, ‘छननन ...’ माडो की तंद्रा भंग हो गई।
‘मतलब तुम फिर आज रात भर के लिए आये हो ?’ माडो बुदबुदाई। कतमा शायद उन शव्दों को सुन पा रहा था। ‘चिंता की कोई बात नहीं है माडो, तब और अब में काफी अंतर आ गया है, अब ये इलाका हमारा है, अब ये जल, जंगल और जमीन हमारे है। हम और तुम अब यहां बेखौफ रह सकते हैं‘ कतमा ने निश्चिंत भाव से कहा। कतमा के बात में दम था, चिनता नदी के आस पास के घने जंगलों में बसे गांव टोलों को पिछले दो सालों में दलम व पुलिस की लडाई के कारण अभिशप्त होकर वीरान होना पडा था। वहां के निवासी दूर जंगल में भाग गए थे, सडक के आस पास के कुछेक गांवों में पुलिस व सीआरपीएफ नें अपने कैम्प लगा लिए थे। बाकी के गांव टोले उजाड हो गए थे जिसमें नदी के आस पास के गांव टोलों में दलम के लोगों नें अपना कब्जा जमा लिया था, वहां दलम का समानांतर शासन था। माडो नें सहमति स्वरूप अपना सिर हिलाते हुए पुन: प्रश्न किया ‘.. पर कब तक .. ?’ कतमा खामोश रहा, वह अपने बंदूक को कपडे से चमकाने लगा। हंसी ठिठोली और द्विअर्थी हलबी-भथरी गीतों का दौर चलते रहा। लोकगीतों की तम्बाखू मांगने वाली पंक्तियां भी दुहराई गयी। इसके साथ ही कतमा और माडो नें साथ-साथ मंद पीया और बरबट्टी की सब्जी , आम के कुच्चे की चटनी और भात खाया। माडो को भान था बस्तर में प्रणय निवेदन के लिए प्रेमी प्रतीकात्मक रूप से प्रेमिका से तम्बाखू मांगता है और प्रेमिका का समर्पण चोंगी में समाकर, आग में जलकर प्रेमी के रगों में मादकता का संचार करता है। अपने संपूर्ण जीवन में माडो नें समझौता और समर्पण का नजदीकी अनुभव किया है फिर भी एकाकीपन का दुख उससे दूर नहीं हुआ है इसलिए वह प्रत्येक खुशी के कतरों का जी भर कर आनंद लेती थी। पूरे दो साल के अंतराल के बाद कतमा के बाहों में माडो रात भर सुलगती रही और अपूर्व आनंद के साथ अपना सर्वस्व लुटाती रही।
क्रमश: ...

नत्था का स्वप्नलोक और मायानगरी : अरुण काठोटे

छत्तीसगढ़ के लोक कलाकार ओंकारदास मानिकपुरी ने इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर तहलका मचा दिया है। आमिर खान की हालिया रीलीज फिल्म पीपली लाइव में नत्था की भूमिका निभाने वाला यह कलाकार समूचे देश में ही नत्था के नाम से ही मशहूर हो गया। जैसा ओंकारदास का कहना है कि फिल्म का यह चरित्र उनके व्यक्तिगत जीवन से भी मेल खाता है। संभवतया यही बात फिल्म की निर्देशक अनुषा रिजवी ने भी महसूस की होगी, लिहाजा फिल्म में भी उन्होंने नत्था के साथ मानिकपुरी को संलग्न रखा है।
ओंकारदास के रातोरात स्टार बनने की वास्तविकता भी कम रोचक नहीं है। खुद ओंकारदास भी इसे किसी सपने के साकार होने जैसा ही मानते हैं। लेकिन यह इस भोलेभाले अदाकार की सहज अनुभूति है। बहुत कम लोग जानते हैं कि नत्था की स्क्रीनिंग के लिए भोपाल में उपस्थित 90 कलाकारों में उनका चयन हुआ है। लिहाजा इसे सिर्फ किस्मत कहकर दरकिनार नहीं किया जा सकता। यह जरूर कह सकते हैं कि नत्था ने इस सफलता की अपेक्षा नहीं की थी जैसी कि इन दिनों उन्हें बॉलीवुड से लेकर छालीवुड तक नसीब हो रही है। यह ओंकारदास की स्वभावगत सहजता ही है कि वे अब भी अपनी छोटी-छोटी तमन्नाओं की आपूर्ति में ही मस्त हैं। अकस्मात मिली छप्परफाड़ सफलता और पूछ-परख से जमीन से जुड़ा यह कलाकार अभिभूत हो उठा है। वह न तो चांद तारों की आशा रखता है, न ही थिएटर को भूल पाया है। रंगकर्म में अब भी वह स्व. हबीब तनवीर को ही महान मानता है।
जहां तक बात छत्तीसगढ़ी प्रतिभाओं की है, इसमें दो मत नहीं कि सभी सांस्कृतिक विधाओं में यहां दूरदराज प्रतिभाएं फैली पड़ी हैं। चाहे बस्तर का टेराकोटा हो या बेल मेटल शिल्प, या संगीत, रंगकर्म सभी क्षेत्रों में अद्भुत प्रतिभाएं यहां मौजूद हैं। रही बात अवसरों की तो निश्चित रूप से पृथक राज्य बनने के बाद इन्हें कुछ मौके तो मिले हैं। गाहे-बगाहे ऐसा ही मौका ओंकारदास के हाथों लगा और आज वह राष्ट्रीय कीर्ति का अभिनेता बन गया। इसका कुछ श्रेय नया थिएटर को भी देना चाहिए। इसके संस्थापक स्व. हबीब तनवीर ने न केवल तीजनबाई, फिदाबाई, गोंविदराम निर्मलकर, रामचरण निर्मलकर आदि कलाकारों को वैश्विक पटल पर स्थापित किया, वरन इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित भी किया। नया थिएटर ही संभवतया एकमात्र ऐसा रंगदल है जिसके तीन-चार कलाकारों को पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया है। स्मरण रहे कि पंडवानी की मशहूर गायिका तीजनबाई प्रारंभ में नया थिएटर की कलाकार रही हैं। बॉलीवुड में करीब ढ़ाई दशक पूर्व रचना के रंगकर्मी सोमेश अग्रवाल ने कदम रखे थे। वर्तमान में अनेक स्थानीय कलाकार यहां अपनी किस्मत की आजमाइश मुंबई में इन दिनों कर रहे हैं। इनमें जयंत देशमुख ने विगत एक दशक में बतौर आर्ट डायरेक्टर बॉलीवुड में अपनी छाप भी छोड़ी है। अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, सलमान खान जैसे स्टार अभिनेताओं की फिल्मों का वे कला निर्देशन कर रहे हैं। इनमें प्रमुख तौर पर दीवार, नमस्ते लंदन, आंखें, सिंग इज किंग आदि प्रमुख फिल्में हैं। इसके अलावा अनेक धारावाहिकों में भी उन्होंने कला निर्देशन का काम बखूबी संभाला है। 
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि जयंत ने अपनी यात्रा भोपाल स्थित भारत भवन के रंगमंडल से प्रारंभ की। यहां से मायानगरी में उन्होंने बैंडिट क्वीन के जरिए प्रवेश किया। उनके अलावा संजय बत्रा, शहनवाज खान, शंकर सचदेव भी अभिनय के क्षेत्र में जद्दोजहद कर रहे हैं। रेकॉर्डिंग जैसे तकनीकी क्षेत्र में रायपुर की जगदीशर् घई ने अब अपना खुद का स्टूडियो निर्मित कर लिया है। लेखन के क्षेत्र में राजेंद्र मिश्र के छोटे भाई अशोक मिश्र भी मुंबई का जाना पहचाना नाम है। विनोदशंकर शुक्ल के सुपुत्र अपराजित शुक्ल भी इस समय मुंबई में एनिमेशन फिल्मों में अपना कैरियर बना रहे हैं। जाहिर तौर पर मुंबई में वहीं प्रतिभाएं टिकती हैं जिनमें नयापन करने का जबा होता है। लगभग डेढ़ दशकों से मुंबई में संघर्षरत छत्तीसगढ़ के इन सभी संस्कृतिकर्मियों ने मायानगरी में यह साबित कर दिखाया है कि प्रतिभाएं कहीं से भी पनप सकती हैं। 
इसी कड़ी में अब ओंकारदास मानिकपुरी भी शामिल हो रहे हैं। बेहद सरल स्वभाव के नत्था को थिएटर से ही यह मुकाम हासिल हुआ है। नया थिएटर ने न केवल नत्था बल्कि पीपली के अनेक कलाकारों का दर्शकों से परिचय कराया है। निश्चित रूप से मल्टीस्टारर फिल्मों के बीच इन अंजान चेहरों की विस्फोटक एंट्री ने समूचे फिल्म दिग्गजों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। जैसे ओंकार हैं वैसी ही उनकी तमन्नाएं भी, सीधी-सच्ची। बिना किसी लाग लपेट के वे इनका बखान भी करते हैं। रजतपट पर अपने पहले ही प्रवेश में अनेक सितारों से रूबरू होने वाले नत्था का अपने स्वप्नलोक से निकलकर जब हकीकत में मायानगरी से साक्षात्कार होगा तब उन्हें यहां के यथार्थ से भी दो-चार होना पड़ेगा। जाहिर है संघर्ष के रास्ते अभी खुले हैं, लड़ाई अभी शेष है। इस पथरीली राह पर अनेक अनुभवों से उन्हें गुजरना है। फिलहाल तो वे पीपली की सफलता में मशगूल हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब तक की असल जिंदगी में नत्था का चरित्र निभाने वाला यह कलाकार रचनात्मकता के स्तर पर भी आ रहे बदलावों से परिचित होगा और बॉलीवुड में लंबे समय तक अपने अभिनय की उम्दा पारी खेलेगा।
अरूण काठोटे
(लेखक इप्टा (भारतीय जन नाट्य संघ) की रायपुर इकाई के महासचिव हैं)

तोर बिन सजनी नींदे नई आवय, कईसे गुजारंव रात .....

पीपली लाईव क हीरो ओंकार दास उर्फ नत्‍था,  फिल्‍म के प्रमोशन के बाद भिलाई वापस आने पर अपनी पत्‍नी से फिल्‍मी स्‍टाईल में मिलते हुए.

निवेदन : शीर्षक को पढने के बाद .... रघुवीर यादव का डायलाग याद मत करिए . 

चित्र http://zaraidharbhi.blogspot.com से साभार 

ओंकार ..... नत्‍था ..... पीपली लाईव .... और एड्स से मौत

पिछले पंद्रह दिनों से मीडिया में चिल्‍ल पों चालू आहे, ओंकार .... नत्‍था ....... पीपली लाईव ....... आमीर खान ....... अनुष्‍का रिजवी। यहां छत्‍तीसगढ़ भी इस मीडिया संक्रामित वायरल के प्रकोप में है। रोज समाचार पत्रों में ओंकार से जुडे समाचार कहीं ना कहीं किसी ना किसी रूप में प्रकाशित हो रहे हैं। हमें भी मीडिया से जुडे साथियों के फोन आ रहे हैं कि नत्‍था पर कुछ लिखो, फीचर पेज के लिए नत्‍था पर सामाग्री चाहिए। ....... पर अपुन तो ठहरे मांग और शव्‍द संख्‍या के परिधि से परे कलम घसीटी करने वाले ....... सो लिखने से मना कर दिया है। ... पर लिखना जरूर है सो कैमरा बैग में डालकर पिछले सात दिनों से आफिस जा रहे हैं, शायद समय मिल जाए तो ओंकार के घर जाकर उसके परिवार का फोटो ले लें।

 ओंकार का घर मेरे सुपेला कार्यालय से बमुश्‍कल एक किलोमीटर दूर होगा, पर मुझे पांच मिनट के लिए भी समय नहीं मिल पा रहा है। ओंकार स्‍वयं एवं उसके दोस्‍त यार भी व्‍यस्‍त हैं मेल-मुलाकात चालू है इस कारण उसका मोबाईल नम्‍बर भी नहीं मिल पा रहा है। बात दरअसल यह है कि पीपली लाईव के पहले खस्‍ताहाल ओंकार का मोबाईल नम्‍बर रखने की हमने कभी आवश्‍यकता ही नहीं समझी, बल्कि उसे हमारा नम्‍बर अपने गंदे से फटे डायरी में सम्‍हालनी पड़ती थी और हम उसके नचइया गवईया किसी दोस्‍त को हांका देकर बुलवा लेते थे। .... खैर वक्‍त वक्‍त की बात है। हबीब साहब के दिनों में नया थियेटर की प्रस्‍तुतियों में भी ओंकार का ऐसा कोई धांसू रोल नहीं होता था कि प्रदर्शन देखने के बाद ग्रीन रूम में जाकर ओंकार को उठाकर गले से लगा लें ...  हाथ तक मिलाने का खयाल नहीं आता था क्‍योंकि हबीब साहब के सभी हीरे नायाब होते थे। वह 'महराज पाय लगी ....' कहते हुए स्‍वयं हमसे मिलता था।
कल रविवार डाट काम में रामकुमार तिवारी का पीपली पर एक आलेख पढ़ा तो लगा यहां ओंकार के लिए वही लिखा गया है जो मैं महसूस करता हूं। नत्‍था के इस ग्‍लैमर को ओंकार को बरकरार रखना होगा, उसे और मेहनत करनी होगी। नत्‍था आमीर के प्रोडक्‍ट को बाजार में हिट कराने का एक साधान मात्र था, अब ओंकार को अपने जन्‍मजात नत्‍थेपन को सिद्ध करना होगा। यदि ओंकार पर नत्‍था हावी हुआ तो उसके जीवन के अन्‍य  पीपली लाईवों में वह लाईव नहीं रह पायेगा क्‍योंकि उसकी मांग उसके सामान्‍य होने में ही है। जैसा कि कुछ पत्रकार मित्रों नें कहा कि नत्‍था के तेवर कुछ बदले हुए से हैं, खुदा करे ऐसा ना हो। पिछले दिनों ओंकार के भिलाई वापस आने के पहले मैनें अपने सहयोगी जो ओंकार के पुत्र का मित्र है को ओंकार के घर भेजा कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं वे मुझसे मिलने को समय देंगें क्‍या, पर ओंकार की पत्‍नी नें झुझलाते हुए कहा कि 'हलाकान होगेन दाई ..................'
अब ओंकार से अपने संबंधों को कुरेदने लगा हूं, कड़ी पे कड़ी जोडने लगा हूं यह बताने जताने के लिए कि नत्‍था से मेरा परिचय किस कदर लगोंटिया रहा है। पर पीपली लाईव को देखते हुए दूर मानस में राजू दुबे का नाम भी उभर रहा है, अभी पिछले दिनों ही तो मैं उसके भयंकर रूप से बीमार होने की खबर पर उसे देखने गया था और खबर यह है कि अभी कुछ दिन पहले ही उसकी भी मौत हो गई। कोई मीडिया नहीं, कोई सरकारी कर्मचारी नहीं, कोई नेता नहीं। एक खामोश मौत जैसे पीपली लाईव में उस मिट्टी खोदने वाले की हुई थी। ऐसी मौत तो हजारों हो रही है पर ये खिटिर-पिटिर क्‍यूं, मन कहता है, ... तो नत्‍था के मौत से इतना बवाल क्‍यूं ... मन फिर कहता है, वो आमीर के फिल्‍म में नत्‍था की मौत है ..... हॉं ....  बेमेतरा से कवर्धा जाने वाली रोड के किनारे स्थित एक गांव उमरिया में राजू दुबे की एड्स से मौत हुई है जो मेरा रिश्‍तेदार था। हॉं ठीक है ... एड्स से मरा है तो चुप रहो ना, किसी से क्‍यू कहना कि मेरा रिश्‍तेदार एड्स  से मर गया, नाहक अपनी इज्‍जत की वाट लगा रहे हो। नत्‍था से रिश्‍तेदारी की बात करो राजू दुबे को भल जाओ।
राजू दुबे को भूलना संभव नहीं क्‍योंकि राजू दुबे सचमुच मेरा रिश्‍तेदार था, उसके मां बाप बेहद गरीब हैं वह एक ट्रक ड्राईवर था, लाईन में उसे ये बीमारी लगी और उसने अपने उस बीमारी को अपनी पत्‍नी ... और संभत: अगली पीढ़ी में रोप गया और यही भूल पाना मुश्किल हो रहा है जिन्‍दा लाशों को देखकर। उसकी मौत तो हो गई अब पीढि़यों को उसके पाप को बोझा ढोना है, एक कम उम्र की पतिव्रता  पत्‍नी को छिनाल पति के विश्‍वास के मुर्दे को गाढ़ कर .......  जब तक सांसे हैं .....  जिन्‍दा रखना है। पिछली मुलाकात में राजू दुबे की मॉं ने बहुत खोदने पर अपना विश्‍वास प्रस्‍तुत किया था कि गांव के डाक्‍टर नें सुई नहीं बदला और फलाना का रोग इसे हो गया। मैं इसे स्‍वीकारने को तैयार नहीं हूं, राजू दुबे की प्रवृत्ति उत्‍श्रंखल थी, चाहे एक बार भी हो उसको वह रोग असुरक्षित शारिरिक संपर्कों से ही हुआ होगा, किन्‍तु मॉं को उसने जो विश्‍वास दिलाया है उसे वो कायम रखे हुए है, उसके मरने बाद भी और संभवत: अपने मृत्‍यु पर्यंत, क्‍योंकि वह मॉं है।

साथियों राजू दुबे की पत्‍नी एचआईवी पाजेटिव पाई गई है, उसका बच्‍चा सुरक्षित है किन्‍तु उसकी पत्‍नी को वर्तमान में टीबी है और गांव में इलाज चल रहा है, बच्‍चे का भविष्‍य असुरक्षित है। एड्स के क्षेत्र में कोई एनजीओ यदि छत्‍तीसगढ़ में कार्य कर रही हो तो मुझे बतलांए कि उस पीडित परिवार तक कैसे और किस हद तक सहायता पहुचाई जा सकती है।
राजू दुबे की मृत्‍यु के बाद मैं उस गांव में गया जहां के डाक्‍टर के सूई पर आरोप थे, लोगों से चर्चा भी किया तो लोगों नें कहा कि सरकारी आकड़ों की बात ना करें तो यहां इस गांव में दस बीस एड्स के मरीज होगें और लगभग इतने ही इस गांव के मूल निवासी भी एड्स मरीज होगें जो वर्तमान में अन्‍यत्र रहते हैं। इतनी बड़ी संख्‍या में एक गांव में एड्स के मरीज पर शासन प्रशासन चुप है, उसे पता ही नहीं है राजू दुबे जैसे कई एड्स संक्रमित उस गांव में हैं, जानकारी लेने पर यह भी ज्ञात हुआ कि वहां ड्राईवरों की संख्‍या भी बहुत है। अब ऐसे में एड्स पर काम करने वाले एनजीओ और स्‍वास्‍थ्‍य विभाग कान में रूई डाले क्‍यू बैठी है समझ में नहीं आता। क्षेत्रीय मीडिया को भी इसकी जानकारी नहीं है क्‍योंकि यह बाईट नत्‍था के मौत की नहीं है राजू दुबे की मौत की है।

सत्य को उद्घाटित करने वाली निडर पत्रकार आशा शुक्‍ला को वसुंधरा सम्मान

लगभग बीस वर्ष से भी पहले नवभारत रायपुर में तेज तर्रार महिला पत्रकार सुश्री आशा शुक्‍ला को रिपोर्टिंग करते देखकर और उनके रिपोर्टिंग को पढ़कर प्रदेश के गणमान्‍य एवं लेखनधर्मी आश्‍चर्यचकित हो जाते थे। तब छत्‍तीसगढ़ में पत्रकारिता के क्षेत्र में सुश्री आशा शुक्‍ला अकेली महिला पत्रकार थी। तत्‍कालीन परिस्थितियों में पुरूषों के प्रभुत्‍व वाले पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करते हुए सुश्री आशा शुक्‍ला नें प्रदेश में महिलाओं के लिए पत्रकारिता के पथ को प्रशस्‍त किया था। सुश्री आशा शुक्‍ला को देखकर ही प्रदेश में, उनके बाद की महिला पीढ़ी नें पत्रकारिता को अपनाया। जिसमें उदंती डाट काम की संपादिका डॉ.रत्‍ना वर्मा से लेकर संगीता गुप्‍ता तक की महिला पत्रकारों में पत्रकारिता क्षेत्र में रूचि जागी। मुझे सुश्री आशा शुक्‍ला के संबंध में पहली बार प्रदेश के ख्‍यात कहानीकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी के लेखों से जानकारी हुई। उसके बाद जब मैं ब्‍लॉग लिखने लगा और छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादकीय पन्‍नो को नियमित पढ़ने लगा तब सुश्री आशा शुक्‍ला के लेखन से मेरा साक्षात्‍कार हुआ।

मुझे याद आता है पिछले वर्ष, नक्‍सल प्रवक्‍ता गुड़सा और प्रदेश के पुलिस प्रमुख के बीच चल रहे आलेखों में सवाल जवाब, बात बेबात, बात निकलेगी तो बड़ी दूर तलक जाएगी जैसी बौद्धिक विमर्श छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र में प्रकाशित हो रही थी।  इसके ठीक बाद सुश्री आशा शुक्‍ला नें एक लम्‍बा आलेख छत्‍तीसगढ़ के लिए लिखा था जिसमें उन्‍होंनें दोनों के कार्यपद्धतियों, सिद्धांतों पर  सवाल दागते हुए पूछा था कि क्‍या बस्‍तर इससे खुशहाल हो पायेगा। इसके बाद तो उन्‍होंनें लगातार छत्‍तीसगढ़ के लिए आलेख लिखे, छत्‍तीसगढ़ के संपादक को बस्‍तर की परिस्थितियों पर मार्मिक पत्र लिखे। सुश्री आशा शुक्‍ला के लम्‍बे आलेखों में बस्‍तर के प्रति उनका अगाध स्‍नेह झलकता रहा है, जिसको पढ़कर मुझे, उनकी संवेदनशीलता को नमन करने का बार बार मन होता था। पिछले दिनों वसुन्‍धरा सम्‍मान के लिए प्राप्‍त आमंत्रण पत्र से ज्ञात हुआ कि वरिष्ठतम महिला पत्रकार सुश्री आशा शुक्ला को स्वर्गीय देवी प्रसाद चौबे की स्मृति में स्थापित वसुंधरा सम्मान प्रदान किया जाएगा। इसे पढ़कर खुशी हुई कि सुश्री शुक्‍ला से अब मुलाकात हो पायेगी।

भिलाई निवास में स्व. देवी प्रसाद चौबे की चौतीसवीं पुण्‍यतिथि पर आयोजित गरिमापूर्ण समारोह में वरिष्ठतम महिला पत्रकार सुश्री आशा शुक्ला को प्रदेश के मुख्‍यमंत्री डॉ.रमन सिंह नें वसुंधरा सम्मान प्रदान किया, उनके सम्मान में 21 हजार की सम्मान राशि व प्रशस्ति पत्र भेंट किया गया। इस अवसर पर समारोह को संबोधित करते हुए मुख्यामंत्री ने पत्रकार सुश्री आशा शुक्ला के कार्यो की सराहना करते हुए उम्मीद जताई कि सुश्री शुक्ला का नाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर होगा। वसुंधरा सम्मान आशा शुक्ला के कृतित्‍व और व्यक्तित्‍व की पहली सीढ़ी है। डॉ सिंह ने पत्रकारिता की चुनौतियों पर चर्चा करते हुए कहा कि कहा कि पत्रकार समाज व देश को दिशा देने वाला होता है। मौजूदा दौर में पत्रकारिता कठिन चुनौतियों से गुजर रही है लेकिन पत्रकारिता का मूल मकसद आज भी जिंदा है। मौजूदा दौर बेहद प्रतियोगी है और पू्ंजीवाद की वजह से पत्रकार को बेहद कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। बावजूद इसके पत्रकारिता का मूल मकसद आज भी समाज व देश को सही रास्ते पर ले जाने का है। उन्होंने नक्सलवाद पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि देश की आतंरिक व्यवस्था के लिए खतरनाक बन चुकी इस हिंसक लड़ाई में पत्रकारों की भूमिका भी निर्णायक है। आशा को शुभकामनाएं देते हुए डॉ. रमन ने कहा कि मैं पिछले 25 वर्षों से आशा को जानता हूं और कह सकता हूं कि वे सत्य को उद्घाटित करने वाली एक निडर पत्रकार हैं।

राजनीतिशास्‍त्र व लोकप्रशासन में स्‍नातकोत्‍तर व  पत्रकारिता में डिप्‍लोमा प्राप्‍त सुश्री शुक्‍ला नें लगभग 33 वर्षों तक देश व प्रदेश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में बतौर पत्रकार कार्य किया है। वर्तमान में वे विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्‍वतंत्र लेखन कर रही हैं। उन्‍होंनें मूल्‍यगत शिक्षा व सामाजिक सरोकार विषय पर एक महत्‍वपूर्ण पाठ्यक्रम का सृजन भी किया है जिसे अमल में लाते हुए विभिन्‍न गैर सरकारी संगठनों द्वारा कार्य किया जा रहा है। सुश्री शुक्‍ला नें 'एक नदी की मौत' नामक चर्चित डाकूमेन्‍ट्री फिल्‍म का निर्माण भी किया है। कवर्धा जिले की बैगा आदिवासी महिलाओं के स्‍वास्‍थ्‍य पर भी उन्‍होंनें एक डाकूमेन्‍ट्री फिल्‍म बनाया है। उन्‍हें दलित व आदिवासी महिलाओं के अधिकार पर पेनास (साउथ एशिया) एवं स्विसऐड की फेलोशिप भी प्राप्‍त हुई है। सुश्री आशा शुक्‍ला वर्तमान में स्‍वतंत्र पत्रकारिता करते हुए छत्‍तीसगढ़ के दक्षिण बस्‍तर जिले कांकेर व नारायणपुर के 40 गांवों में विकास के मुद्दे पर कार्यरत हैं।

आज़ादी ... आज़ादी ... आज़ादी

आज़ादी क्या तीन थके रंगों का नाम है?
जिसे एक पहिया ढोता है?
या इसका कोई और मतलब होता है?
सुदामा पांडे 'धूमिल'
स्‍वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनांए

'पीपली लाइव' में भिलाई का रियल हीरो

सचमुच वह रियल लाइफ का हीरो है जो कल से बड़े परदे पर भी नजर आ रहा है। "नत्था" यानी ओंकारदास मानिकपुरी की जमीनी हकीकत पीपली लाइव से कम नहीं है। यही वजह है कि वह अपने किरदार में इस कदर डूब पाया है कि पता ही नही चलता कि वह अभिनय कर रहा है। इस्पात नगरी भिलाई के वार्ड-१९ वृंदा नगर/अर्जुन नगर में रहने वाले ओंकार का  खपरैल वाला घर है, जहां कच्‍ची मिट्टी की दीवारें हैं, सुविधाओं का पूर्ण अभाव है। यूं कह लें कि ओंकारदार मानिकपुरी का घर किसी मुफलिस के झोपड़े की तरह है, लेकिन परिवार के सदस्यों का परस्पर स्नेह इतना ज्यादा है कि इस गरीबी का अहसास ही नहीं होने देता। पीपली लाइव के हीरो ओंकारदास मानिकपुरी दस साल से थिएटर से जुड़े हैं। पेंटिंग, ठेकेदारी, श्रमिक का कार्य करने के बाद भी उन्होंने अपने अभिनय के शौक को जीवंत रखा है। ओंकार नें पिछले दिनों बतलाया था कि नया थियेटर में हबीब तनवीर के साथ काम करते समय चरणदास चोर साहित आगरा बाजार, जिन्‍ह लाहौर नई वेख्‍या आदि में उन्‍होंनें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। फिल्म स्टार आमिर खान ने उनका एक शो देखा था और करीब तीन साल पहले ही उन्हें पीपली लाइव के लिए फाइनल किया था।

नत्था यानि ओंकारदार मानिकपुरी के तीन बच्चे हैं। बड़ी बेटी चुमेश्वरी (१८ वर्ष) बीए फर्स्ट ईयर में है। वहीं देवेन्द्र दास (१२ वर्ष) पांचवी तथा गीतांजलि (४ वर्ष) कक्षा पहली में पढ़ रहे हैं। पीपली फिल्म में देवेन्द्र ने भी अभिनय किया है। ओंकार से पेंटिंग के सिलसिले में,  लोकरंग व रिखी क्षत्रीय के कार्यक्रमों में मुलाकात होते रही है किन्‍तु तब हम उस हीरे को हीरो के रूप में पहचानते नहीं थे। ओंकार दास २ अगस्त से फिल्म के प्रमोशन के सिलसिले में मुंबई में है और रोज समाचार चैनल में नजर आ रहे हैं। इसके पूर्व भिलाइें में उससे मिलने वालों एवं पत्रकारों का तांता लगा हुआ था, लोगों नें छत्‍तीसगढ़ के पारंपरिक गहना चांदी का रूपिया खरीदकर ओंकार को दिया था कि इसे दीपिका पादुकोण को पहनाना, और हमने टीवी में देखा कि दीपिका नें उसे प्रेम से पहना।
कल रविन्‍द्र गोयल भाई के एक पोस्‍ट के बाद हमने दुर्ग-भिलाई में इस फिल्‍म के प्रदर्शन के संबंध में जानना चाहा तो जैसा कि एक दर्शक मित्र नें फिल्‍म देखने के बाद हमें बतलाया कि कल श्री मानिकपुरी के परिवार सहित इस्पात नगरी और सम्पूर्ण देश के लोगों नें  पीपली लाइव में छत्तीसगढ़ के इस माटी पुत्र को देखा। फिल्‍म में शहर के लोगों को "नत्था" याने ओंकारदास मानिकपुरी की अदाकारी भा गई। यहां व्यंक्टेश्वर टॉकीज के चारों शो हाउसफुल रहे। फिल्म देखने से पहले लोग रोमांचित थे और देखने के बाद "नत्था" की तारीफों के पुल बांधते नजर आए। फिल्म की टिकिट लेने के लिए सुबह से ही लोगों की भीड़ टाकीज के सामने नजर आई। भिलाई के कलाकार को बड़े पर्दे पर देखने के लिए दर्शक उत्साहित रहे। सबकी निगाहें शुरू से अंत तक ओंकार पर ही टिकीं रहीं। फिल्म देखने हर वर्ग के लोग टॉकीज पहुंचे थे। फिल्म में ओंकार का अभिनय दर्शकों को पसंद आया। पूरी फिल्म में ओंकार के अलावा रघुवीर यादव का काम दर्शकों को अच्छा लगा। पूरे समय फिल्म ने दर्शकों को बांधे रखा था। कहीं पर ठहराव की स्थिति नहीं बनी। कुल मिलाकर फिल्म अच्छी लगी। वैसे भी इस फिल्म में अपने शहर का कोई कलाकार है तो यह हमारे लिए गर्व की बात है। फिल्म में शासकीय सुविधाओं और मीडिया पर किए गए व्यंग्य बेहतरीन लगे। ओंकार और रघुवीर के अभिनय में ग्रामीण क्षेत्र का सजीव चित्रण दिखा। पूरे फिल्म में दोनों छाए रहे। फिल्म का क्लाइमेक्स भी अच्छा लगा। जिस उद्देश्य से फिल्म बनाई गई है, वह पूरा हो गया। लोगों नें कहा कि स्थानीय कलाकार ओंकार के रहने से फिल्म में चार चांद लग गए, ओंकार का पूरा परिवार फिल्म देखने आया था।

एक थी नारायणी - कहानी संग्रह : जीवन के यथार्थ की कहानियॉं

’एक थी नारायणी कथा संग्रह की तमाम कहानियॉं भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के बोध विचारों से इस प्रकार आधारित हैं कि इन्हें पढ़ता हुआ पाठक लयबद्ध हो कब अंत पर पहुच जाता है इसका अहसास ही नहीं होता, अंत में पहुचकर एक अद्भुत शांति की अनुभूति मिलती है जिस प्रकार किसी सर के पुलिन पर क्रोंचो और कलहंसों का स्वन कणीवंश इस प्रकार विस्ताररित करता है कि मसाकृपट हुए बिना नहीं रहता, उसी प्रकार श्रीमती सुषमा अवधिया की कहानियॉं मनोवेग को ताडि़त किए रहती हैं, बीच-बीच में झंकृत भी’’ यह शब्द हैं क्षेत्र के ख्यात पत्रकार व साहित्यकार, वर्तमान में पदुमलाल पन्ना लाल बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष श्री बबन प्रसाद मिश्र जी के जिन्होंनें इस संग्रह की भूमिका में उपरोक्‍त शव्‍द लिखा है, मिश्र जी नें लेखिका के कथा लेखन को सराहा है।
इस कहानी संग्रह में 16 कहानियॉं संग्रहित है, यह लेखिका की दूसरी प्रकाशित संग्रह है। लेखिका नें अपने श्रद्धेय ससुर श्री पुरसोत्तम लाल जी अवधिया को यह संग्रह समर्पित किया है एवं अपने श्रद्धा प्रसून में आदरणीय अवधिया जी के जीवन के आदर्शों का विवरण लिखा है। संग्रह में लेखिका श्रीमती सुषमा अवधिया का जीवन परिचय बहुत ही स्नेह व श्रद्धा से उनके पुत्र श्री उमेश अवधिया जी नें लिखा है। लेखिका की सहेली और उनसे एक कक्षा नीचे पढ़ने वाली डॉ.शीला गोयल नें लेखिका के भोले और संस्कारी मन के संबंध में ‘छिटक गई सुषमा बनकर’ में विस्तृत चित्र खींचा है। लेखिका नें स्वयं अपने आत्‍म कथ्य ‘मन की बात’ में कथा लेखन की परिस्थितियों का उल्लेख करते हुए संग्रह के प्रकाशन के लिए आभार व्यक्त किया हैं।
संग्रह की कहानियॉं जन सामान्य की कहानियॉं हैं जिसमें लेखिका नें धटनाओं को पल-पल उकेरा हैं, कहानियों को पढ़ते हुए यह भान हो जाता है कि लेखिका कहानी को अपने मानस पटल में चलचित्रों की भांति अनुभव करती रही है तभी शव्‍दों में प्रत्येक दृश्य को जीवंत करते चलती हैं। सैनिक छावनी की महक व प्रखर की निच्छनल प्रेम कथा, मैं पापिन में नायिका की हृदय विदारक फ्लैश बैक विवरण व वर्तमान के साथ उसका तालमेल व क्लाईमेक्स में नायिका की मृत्यु, पढ़ते हुए झकझोर के रख देते हैं। संस्कार में सामाजिक मर्यादाओं एवं संस्‍कार की शिक्षा देते हुए लेखिका नें नायिका को जीवन के अनुभवों से ही शिक्षित करती है। लम्बी कहानी वैदेही में लेखिका नें तत्कालीन राजे रजवाडे की परिस्थितियों का सुन्दर चित्रण किया है। कथा में राजा की पत्नी और पत्नी की मृत्यु पश्या‍त मिली अनाथ पुत्री के प्रेम का मर्मस्प‍र्शी चित्रण किया गया है। मूल कहानी एक थी नारायणी में छत्‍तीसगढ़ के गांव का सजीव चित्रण है, दुख, प्रेम, आर्थिक विपन्नता, संस्कार व विवाह नें कहानी में रोचकता भर दी है। इस संग्रह की कुछ कहानियों में कथानक कुछ ज्‍यादा लम्‍बा खिंचता है जो लगता है कि अनावश्‍यक खिंचाव है किन्‍तु कहानी की शास्‍त्रीयता से परे लेखिका नें अपने अनुभवों को इसमें पिरोया है इस कारण सभी कहानियों में पठनीयता विद्यमान है।
इस संग्रह की लेखिका श्रीमती सुषमा अवधिया का जन्म 15 सितम्बर 1946 को जबलपुर मध्य प्रदेश में हुआ,  छत्तीसगढ़ के धुर गांव में इनका विवाह हुआ। इन्होंनें महाविद्यालयीन स्तर में बी.एस सी. तक पढ़ाई की और साथ ही संस्कृत में कोविद् व पेंटिंग में डिप्लोमा किया। बचपन से ही इन्हें लेखन का शौक रहा, भाषण, वादविवाद, निबंध, कविता, नाटकों में इन्होंनें लगातार सहभागिता दी। तत्कालीन मध्य प्रदेश में प्रदेश स्‍तर की खो-खो खिलाड़ी रही और अनेक शहरों में बास्केंटबाल खिलाड़ी के रूप में रानी दुर्गावती विश्वदविद्यालय का प्रतिनिधित्व भी किया। इनकी पहली कहानी चिता और मिलन थी, जिसे महाविद्यालय में प्रथम पुरस्का‍र मिला जबकि लेखिका नें इसे तब लिखा था जब वो आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। एक थी नारायणी के पूर्व लेखिका की कृति सहमे-सहमे दर्द प्रकाशित हो चुकी है। इन्हें इनके लेखन के लिए अनेक सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हुए है, इन्हें महाकौशल कला सृजन सम्मानन 2004 प्राप्त हुआ है एवं छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् द्वारा भी इन्‍हें सम्मानित किया गया है। श्रीमती सुषमा अवधिया आकाशवाणी रायपुर में नियमित हिन्दी और छत्तीसगढ़ी की नाट्य कलाकार हैं व आकाशवाणी के लिए नियमित आलेख लेखन करती रहती हैं। इनके आलेख व कहानियां अखबारों में प्रकाशित होते रहते हैं। श्रीमती सुषमा अवधिया, छत्‍तीसगढ़ के ख्‍यात वनस्‍पति शास्‍त्री व ब्‍लॉगर दर्द हिन्‍दुस्‍तानी डॉ. पंकज अवधिया की माता हैं।

मित्रों विगत महीनों में छत्‍तीसगढ़ के लेखकों की प्रकाशित कुछ और पुस्‍तकें लेखकों के द्वारा मुझे स्‍नेह से प्रेषित की गई हैं, जिनके संबंध में प्रिंट मीडिया के लिए संक्षिप्‍ती लिखना शेष है, समयाभाव के कारण यह हो नहीं पा रहा है। फिर भी प्रयास करूंगा कि शीघ्र ही पुस्‍तकों का परिचय प्रस्‍तुत करूं। अगली कड़ी में आदरणीय प्रो.अश्विनी केशरवानी जी की पुस्‍तक 'बच्‍चों की हरकतें' पर कुछ लिखने का प्रयास करूंगा।  

लेह .... अब यादें ही शेष है

लेह बाजार के स्‍वागत द्वार में मित्र ऋषि तिवारी

खारदुंगला रोड में थम से गए झरने पर मेरे मित्र

हजारों किलोमीटर दूर, दुनिया के सबसे उंचे मोटरेबल रोड पर काम करते मजदूरों के मुह से गुरतुर गोठ छत्‍तीसगढ़ी सुनना कितना सुखद लगता था ............ आज छत्‍तीसगढ़ में हरेली तिहार से त्‍यौहारों का आरंभ हो रहा है ..... आकुल आंखें कमाने खाने गए बेटों का इंतजार कर रही है ......
लेह में उन छत्‍तीसगढि़या मजदूरों के साथ ही दैवीय आपदा के शिकार सभी व्‍यक्तियों को हम श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।

ब्‍लॉग से दूर रहने में कोई आनंद नहीं है प्‍यारे

मित्रों,  पिछले सप्‍ताह कुछ दिनों के लिए ब्‍लॉग सक्रियता से अवकाश लेकर हम अपने काशी काबा  में धूनी रमाये बैठे रहे। इस धूनी यज्ञ में हम इस कदर व्‍यस्‍त रहे कि मित्र अजय झा एवं राजीव तनेजा जी के स्‍नेह निमंत्रण व , अनुज मिथिलेश व नीशू के मेरठ से दिल्‍ली आकर मिलने के अधिकार का भी हम मान नहीं रख सके। हम प्रतीक्षारत हैं कि धूनी की राख कुछ शांत हो और हम वापस ब्‍लॉग पर आयें और हमारी अगली यात्रा भी शीध्र हो ......

लेबल

संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...