यदि मैना बिल्कुल सामने दिखे तो क्या चोर-डाकुओ से धन की हानि होती है?

14. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?


- पंकज अवधिया

प्रस्तावना यहाँ पढे


इस सप्ताह का विषय


यदि मैना बिल्कुल सामने दिखे तो क्या चोर-डाकुओ से धन की हानि होती है?


पक्षियो और जानवरो से सम्बन्धित ऐसी कई तरह की बाते प्राचीन ग्रंथो मे मिलती है। जैसे दशहरे के दिन नीलकंठ को देखना शुभ माना जाता है। देश के मध्य भाग मे मैना को देखने पर तरह-तरह की बाते की जाती है। उनमे से एक है मैना के दिखने पर चोर-डाकुओ से धन हानि की बात। इन बातो का कोई वैज्ञानिक आधार नजर नही आता है। आजकल जो तंत्र-मंत्र की नयी पुस्तके आ रही है उसमे इस तरह की बातो को प्रकाशित किया जा रहा है।


जब मैने प्राचीन ग्रंथो को खंगाला तो मुझे मैना और अन्य पक्षियो से जुडी ऐसी सैकडो बाते पता चली। इन्हे पढकर यह बात भी मन मे आती है कि कही इसके गहरे मायने तो नही है। हो सकता है हमारे बुजुर्गो के पास इसके कारण रहे हो और पीढी दर पीढी बाते तो आती रही पर राज नही आ पाये। मै यह बात इसीलिये भी कह पा रहा हूँ क्योकि बिल्ली के रास्ता काटने पर उस ओर न जाने की व्याख्या मैने हाल ही मे सुनी है। जब भी अन्ध-विश्वास पर व्याख्यान होते है तो बिल्ली के रास्ता काटने वाला उदाहरण बडे जोर-शोर से दिया जाता है।


जंगलो मे रहने वाले लोग बताते है कि कोई भी हिंसक जानवर यदि हडबडी मे सामने से गुजरता है तो लोग थोडे समय तक रुक जाते है। क्योकि हडबडी का मतलब है कि या तो हिसक जानवर किसी जानवर का पीछा कर रहा है या कोई जानवर उसके पीछे है। दोनो ही परिस्थितियो मे खलल उस रास्ते पर जाने के लिये जानलेवा हो सकता है। यही बात बिल्ली के साथ भी पहले होती रही होगी। आपने देखा ही होगा कि बिल्ली आपका प्यारा पक्षी दबोचने के बाद खूँखार हो जाती है और आप कितना भी जोर लगाये वो गुर्रा कर नाराजगी जताती है।


अब आज हम कांक्रीट के जंगलो मे रहते है। बिल्ली कई बार हमारे सामने से गुजरती है। जरुरी नही है कि वह हडबडी मे हो। यही कारण है कि आज के जमाने मे यह बात उतनी महत्वपूर्ण नही लगती है। पर फिर भी आवारा कुत्तो या बिल्लियो के झगडे मे दूर रहना आज भी समझदारी भरा कदम है।


आज मै मैना के सम्बन्ध मे लिखी गयी बातो की व्याख्या करने मे सक्षम नही हूँ। इस तरह की बातो से किसी को नुकसान नही हो रहा है इसलिये मै इनके प्रकाशन पर आपत्ति नही करुंगा। हाँ, आप सभी से यह अनुरोध जरुर करुंगा कि यदि आप के पास व्याख्या हो तो प्रस्तुत करे ताकि हमारी यह पीढी बुजुर्गो की कही बातो को वैज्ञानिक आधार प्रदान कर सके।


अगले सप्ताह का विषय


क्या घर के सामने निर्गुण्डी का पौधा लगाने से बुरी आत्मा से रक्षा होती है?

शव्दो आधारित विज्ञापन : गूगल कंटेंट और लिंक एड सेंस (Google Ad 1)

कंटेंट एड मूलत: शव्‍द आधारित विज्ञापन है जो समय समय पर चित्र एवं शव्‍दों का विकल्‍प चुननेपर चित्र रूप में भी प्रस्‍तुत होते हैं । कंटेंट एड को क्लिक करने पर क्लिकर सीधे विज्ञापनदाता के वेबसाइट या पेज तक पहुंचता है । यदि आप इसमें सिर्फ शव्‍दों का विकल्‍प चुनना चाहते हैं तो ऐसा विकल्‍प भी वहां मौजूद है । मेरा मानना है कि यहां सिर्फ शव्‍द आधारित विकल्‍प ही चुने क्‍योंकि चित्र आधारित विकल्‍प के लिए गूगल बाबा नें विशेष रूप से रिफरल एवं वीडिओ एड बनाया है जिसके संबंध में हम बाद में चर्चा करेंगें । इसके अतिरिक्‍त कंटेंट एड में पांच विज्ञापन तक के विकल्‍प मौजूद हैं यानी क्लिक होने की संभावनाओं की संख्‍या में वृद्धि । यहां अर्न मनी पर क्लिक के द्वारा बूंद बूद से आपका घडा भरना आरंभ होगा ।

लिंक एड गूगल सर्च के विभिन्‍न खोज परिणामों तक पहुचाता है जहां एक विंडो में एक विषय के कई वेब साईट या पेज की जानकारी दी गई होती है जिसे क्लिक करने पर विज्ञापन प्रदाता के वांछित विषय तक पहुचा जाता है ।

इन दोनों एड के लिए जो महत्‍वपूर्ण सूत्र है वह है ‘चैनल’ । अपने द्वारा इच्छित विषय के विज्ञापन प्राप्‍त करने के लिए चैनल का चयन करना पडता है । चैनल के निर्माण के लिए गूगल एड सेंस में विकल्‍प मौजूद है आप मैनेज चैनल से चैनल मैनेज कर सकते हैं एवं नये प्रभावी चैनल का निर्माण भी कर सकते हैं । चैनल छोटे शव्‍दों में मूल विषय हो तो ज्‍यादा अच्‍छा या फिर छोटे शव्‍द समूह जैसे आनलाईल पैसा कमायें, पार्ट टाईम जाब का चैनल बना सकते हैं । अभी गूगल के पास हिन्‍दी के विज्ञापन नहीं के बराबर है इस कारण हमें चैनल अंग्रेजी में ही बनाने पड रहे हैं । हिन्‍दी में मैनें छत्‍तीसगढ का चैनल बनाया है पर उससे संबंधित विज्ञापन नहीं होने के कारण छत्‍तीसगढ शव्‍द से संबंधित विज्ञापन कम ही आते हैं अत: अपने विवेककानुसार सहीं शव्‍दों का चैनल निर्माण करें । एक विज्ञापन में गूगल बाबा 5 चैनलों तक चयन विकल्‍प प्रदान करता है फिर इन्‍ही चैनलों से संबंधित गूगल में उपलब्‍ध विज्ञापन आपके ब्‍लाग पर प्रदर्शित होगा । यहां यह स्‍पष्‍ट करना आवश्‍यक है कि आप अपने चैनल का चयन अपने ब्‍लाग से संबंधित विषय का करें तब पाठक को उस विज्ञापन में रूचि जगेगी । दूसरा चयन का आधार सर्च में आपके ब्‍लाग की विषय वस्‍तु । इसके लिए सबसे कारगर उपाय है अपने हिट कांउटर से यह पता लगावें कि सर्च इंजन के द्वारा आपके ब्‍लाग में पाठक किस शव्‍द को खोजते ज्‍यादा आते है, वही शव्‍द आपका अर्निंग चैनल है ।

विज्ञापन लगाने का अपना अपना नजरिया है, आपका विज्ञापन वही देखेगा या क्लिक करेगा जो आपका पाठक है या सर्च के द्वारा आपके ब्‍लाग तक आता है । आपके पाठक कौन हैं एवं सर्च के द्वारा किस प्रकार के पाठक आपके ब्‍लाग तक आते हैं इससे आप अपने ब्‍लाग की विषय सामाग्री तय कर सकते हैं एवं इसी से संबंधित विज्ञापन भी । यह आपको स्‍वयं समझना पडेगा, आपके आफ्रीका में हिन्‍दी पाठक हैं और आप आफ्रीका को टारगेट करते हुए आफ्रीकन मेट्रोमोनीयल एड अपने ब्‍लाग में लगायेंगें तो भी आपका विज्ञापन क्लिक नहीं होगा वहां इंडियन मेट्रोमोनियल एड ही क्लिक होगा ।

क्रमश:

यह समस्‍त जानकारी गूगल एड सेंस की सामान्‍य जानकारी है । मुझे इसमें कोई महारत हासिल नहीं है ना ही मुझे कोई उल्‍लेखनीय कमाई एड सेंसों से हो रही है किन्‍तु पाठकों के व्‍यक्तिगत मेलों का जवाब न देकर मैं इसे पोस्‍ट रूप में प्रस्‍तुत कर रहा हूं । यदि आप गलतियों को टिप्‍पणी के द्वारा बतलायेंगें तो पाठकों को भी सुविधा होगी ।

संजीव तिवारी

का तै मोला मोहनी डार दिये गोंदा फूल: छत्ती सगढ में फाग (Fagun on Chhattisgarh)

छत्‍तीसगढ में फाग 2

संजीव तिवारी

छत्तीसगढ में धडतके नगाडे और मांदर के थापों की बीच उल्लास का नाम है फाग । भारत के अलग-अलग हिस्सों में फाग अपने अनुपम उत्साह के साथ गाया जाता है जिसमें छत्तीसगढ का फाग निराला है । फाग का गायन बसंत पंचमी से लेकर होली तक गांव के गुडी चौपाल या किसी सार्वजनिक स्थान पर होता है जिसमें पुरूष ही फाग गायन करते हैं ।

कृषि प्रधान इस प्रदेश में फागुन में खेती का संपूर्ण कार्य समाप्‍त हो जाता है, परसा (टेसू) के गहरे लाल फूलों के खिलने के साथ ही किसान मस्त हो जाते हैं, बाग-बगीचे में आमों में बौर के आने से कोयली कूकने लगती है, पारंपरिक गीतों में फाग की स्वर लहरियां गूंजने लगती हैं । गीतों में प्रथम पूज्य गजानन का आवाहन कर फाग मुखरित होता है –

गनपति को मनाउं, गनपति को मनाउं
प्रथम चरण गणपति को ।

समूचे भारत में कृष्ण को होली का आदर्श माना जाता है, फाग का सृजन राधा कृष्ण प्रेम के गीतों से हुआ है । छत्तीसगढ में भी फाग गान की विषय वस्तु राधा कृष्ण का प्रेम प्रसंग ही होता है । गणपति वंदना के बाद कृष्ण को फाग गाने एवं होरी खेलने हेतु आमंत्रित किया जाता है –


दे दे बुलौवा राधे को गोरी ओ,
दे दे बुलौवा राधे को
कुंजन में होरी होय,
गोरी ओ दे दे बुलौवा राधे को ।

कृष्ण के शरारती प्रसंगों को गीतों में पिरो कर छत्तीसगढ का फाग जब नगाडे से सुर मिलाता है तो बाल-युवा-वृद्ध जोश के साथ होरी है ....होरी है.... कहते हुए नाचने लगते हैं, रंगों की बरसात शुरू हो जाती है -

छोटे से श्याम कन्हैया हो,
छोटे से श्याम कन्हैया मुख मुरली बजाए,
मुख मुरली बजाए छोटे से श्याम कन्हैया !
छोटे मोटे रूखवा कदंब के, डारा लहसे जाए डारा लहसे जाए
ता उपर चढके कन्हैंया, मुख मुरली बजाए मुख मुरली बजाए
छोटे से श्याम कन्हैया ।
सांकूर खोर गोकुल के, राधा पनिया जाए राधा पनिया जाए
बीचे में मिलगे कन्हैया, गले लियो लपटाए तन लियो लपटाए
छोटे से श्याम कन्हैया ।

आजादी की लडाई, गांधी जी के सत्‍याग्रह, आल्‍हा उदल की लडाई के साथ समसामयिक विषयों का भी समावेश समयानुसार फाग में होता है –


अरे खाडा पखाडो दू दल में, आल्हा खाडा पखाडो
दू दल में
उदल के रचे रे बिहाव, आल्हा खाडा पखाडो
दू दल में ।


रेलगाडी मजा उडा ले टेसन में
तोर धुआं उडय रे अकास,
रेलगाडी मजा उडा ले टेसन में ।

बीच बीच में अरे रे रे ..... सुन ले मोर कबीर से शुरु कबीर के दोहों को उच्च स्वर में गाया जाता है एवं पद के अंतिम शव्दों को दोंहों में शामिल कर फाग अपने तीव्र उन्माद में फिर से आ जाता है । कभी कभी राधा-कृष्ण के रास प्रसंग तो कभी प्रेम छंद भी कबीर के रूप में गाए जाते हैं । प्रेम में चुहलबाजी है

का तै मोला मोहनी डार दिये गोंदा फूल
का तै मोला मोहनी डार दिये ना
रूपे के रूखवा म चढि गये तैं हा
मन के मोर मदरस ला झार दिये गोंदा फूल
का तै मोला मोहनी डार दिये ना ।

होली की रात, होली जलने पर गांव के होलवार में होले डांड तक यानी होलिका की सीमा तक, अश्लील फाग भी गाया जाता है यह अश्लील गीत होलिका के प्रति विरोध का प्रतीक है, होलिका को गाली देने के लिए सामूहिक स्वर में नारे लगाए जाते हैं इसीलिए यहां किसी को गंदी गंदी गाली देने पर ‘होले पढत हस’ कहा जाता है । होलिका के जलने से लेकर सुबह तक ये गीत चलते हैं फिर होलिका के राख को एक दूसरे पर उडाते हुए फाग गाते हुए गांव तक आते हैं गांव में आते ही इसकी अश्‍लीलता समाप्त हो जाती है । ‘गोरी ओ तोर बिछौना पैरा के’ साथ
कुछ चुहलपन साथ रहती है –

मेछा वाले रे जवान, पागा वाला रे जवान
मारत हे अंखियां कच ले बान
कहंवा ले लानबोन लुगरा पोलका,
कहंवा ले लाबो पान
रईपुर ले लानबोन लुगरा पोलका,
दुरुग ले पान
कहंवा ले लानबोन किसबिन,
कहंवा के रे जवान कहंवा के जवान
मारत हे अंखियां कच ले बान ।

छत्तीसगढ में फाग के लिए किसबिन यानी नर्तकी को बुलाया जाता था पूर्व में फागुन में नाच गान करने वाली किसबिनो का पूरा का पूरा मुहल्ला किसी किसी गांव में होता था जहां से किसबिन को निश्चित पारिश्रमिक पर लगा कर फाग वाले दिनो के लिए लाया जाता था । किसबिने मांदर की थाप पर नृत्य पेश करती थी और जवान उस पर रंग गुलाल उडाते थे । कालांतर में यह प्रथा कुछ कुत्सित रूप में सामने आने लगी थी अत: अब किसबिन नचाने की प्रथा लगभग समाप्त हो गई है ।

आधुनिक प्रयोगों में पुरूषों के साथ ही महिलाओं के द्वारा भी फाग गाया जा रहा है । सीडी-कैसेटों के इस दौर में फाग के ढेरों गीत बसंत पंचमी के साथ ही छत्‍तीसगढ में गूंजने लगा है मेरा मन भौंरा भी रून झुन नाचता गाता हुआ फाग में मदमस्त है ।

आलेख एवं प्रस्तुति :-
संजीव तिवारी

(यह आलेख दैनिक हरिभूमि के 22 मार्च होली विशेषांक में प्रकाशित हुआ है )

कहानी : नदी, मछली और वह (Kahani Vinod Sao)



विनोद साव

हम सबने कार से उतरकर जमीन पर पांव धरा तो पैरों को बड़ा सुकुन मिला और इसलिए मन को भी। लम्बी यात्रा के बाद जब कभी भी हम धरती पर पांव धरते हैं एकदम हल्के हो जाते हैं। सारी थकान मिट जाती है। जैसे खेल थककर आए बच्चे को मां की गोद मिल गई हो। मातृत्व का यह एहसास शायद उन्हें और अधिक होता है जिनकी मां असमय छिन गई होती हैं। मुझे हो रहा था।

`आइये.. जूते उतार लीजिए और पांव धो लीजिए पहले।` उस नारियल बेचने वाले युवक ने कहा था जैसे घर आए पहुने को कोई कहता हो।

`संगम किस तरफ है?` मैंने उतावलेपन से पूछा था।

`इस तरफ।` उसने अपनी बांयीं ओर ईशारा किया था।

`दूर है ?`

नहीं.. बस दो मिनट का रास्ता है?`

हम मंदिरों को छोड़कर नदी की ओर आ गए थे। मंदिर दर्शन की आस से कहीं ज्यादा नदी की प्यास थी। यह प्यास नदी के जल की नहीं थी बल्कि नदी के दर्शन की थी। ऐसा अक्सर लगता है कि इन मंदिरों का अस्तित्व तो नदियों के कारण है। अगर ये नदियां नहीं होतीं तो मंदिर भी नहीं होते। न कोई मेला यहां भरता न संस्कृति की कोई विरासत होती।

नदी के किनारे एक कतार में खड़े पेड़ों को देखकर लगा कि जैसे वे हमारी प्रतीक्षा में खड़े हों। वे अक्सर किसी साधक की मुद्रा में खड़े मिलते हैं। एक ही जगह खड़े होने की किसी दीर्घ साधना में लीन। जैसे उन्हें पहले से ही मालूम हो नदी से मिलने आने वालों की खबर। और केवल उन्हें ही मालूम रहता है कि किस नदी में कितना पानी बह चुका है।


हम झुरमुटों के बीच पगडंडी पर चल रहे थे। परिवार जब कभी घर से बाहर होता है तो भी अपने मुखिया से निर्देशित होता है। घर के भीतर का वरिष्ठता क्रम अक्सर बाहर भी बना होता है। सब मेरी ओर देखते रहते हैं कि मैं कब क्या निर्देश करता हूं जबकि मेरा ध्यान अपने जैविकीय परिवार से दूर नैसर्गिक परिवार की ओर है - जहां नदी, घाट, जंगल, पेड़, फूल और उनमें विचरण करने वाले जीव जन्तु हैं। मैं तेज कदम आगे बढ़ाता हूं।

`आपको तो हमेशा जल्दी रहती है।` यह चंदा की आवाज थी चिरपरिचित गृहणियों की तरह। उसके पीछे आभा थी और आभा के पीछे संतू था। आभा के पीछे संतू को ही होना था जिसने उसके पीछे फेरे लिए थे। विनी आगे दौड़ी जा रही थी किसी निर्मल और सुन्दर नदी की की तरह।

सदियों से खड़े पेड़ों की भुजंगाकार शाखाएं एक दूसरे से गहरे आलिंगन में आबद्ध थींं। उनके आलिंगन के बीच जो थोड़ी जगह बन गई थी वहां से आसमानी रंग झिलमिला रहा था। यह झिलमिलाहट नीचे थी। उपर सपाट आसमानी और नीचे झिलमिल।


हम पेड़ों के झुण्ड को पार कर किनारे पर आ गए थे। इस पार अपार जलराशि थी दो नदियों के संगम से। पेड़ों के बीच से जो झिलमिल आसमानी रंग दिख रहा था वह इस जलराशि का था। मैंने सूखी मिट्टी का हिस्सा जान अपना पैर एक किनारे पर रखा था जिसमें पैर जा धंसा था।

`आपको तो हड़बडी रहती है। बूढ़े हो गए हैं तब भी।` यह चंदा की दूसरी बार आवाज

थी जिसमें उसके चिरपरिचित चिंतामय वाक्य में एक और वाक्य जुड़ गया था।

नदी के उस पार डेरा था। मनुष्य और उसकी जिजीविषा का डेरा। नदी का वह पाट उंचा था किसी टीले के माफिक। टीले पर बसा डेरा था किसी पोट्रेट की तरह। जैसे किसी चित्रकार की कला के पात्र जीवन्त हो उठे हों और वे अपनी डोंगी में सवार होने के लिए जाल लेकर निकल पड़े हों ढलान की ओर।

`नाव तो किसी कागज की किश्ती की तरह दिख रही है।` यह विनी की भावभीनी आवाज थी। विनी ने उन दिनों को याद किया जब उसने आंगन के बरसाती पानी में कागज की नाव बनाकर छोड़ा था। नाव करीब आ रही थी किसी डिजीटल कैमरे पर क्रमश: इनलार्ज होते चित्र की तरह। नाव से आए कुछ लोगों ने जमीन पर पांव धरा तो लगा कि कैमरे में समाए हुए लोग बाहर आ गए हैंे।


`एक फोटो हो जाए।` संतू ने नाव देख कैमरा उठाकर आभा, चंदा और विनी से कहा `तुम लोगों के चित्र मैं अखबारों में छपवाउंगा। नदी, नाव और नारी के चित्रों की आजकल मीडिया में बहुत मांग है।`

`पता नहीं..नदी में ऐसा क्या है! कि इसे देखते हुए आंखें थकती नहीं। मन अघाता नहीं है।` मन भीतर ही भीतर बोल रहा था `बस देखते रहो जैसे एक बच्चा अपनी ममतामयी मां को देखता है। कोई नवजवान अपनी लावण्यमयी प्रेयसी को देखता है। कोई बूढ़ा इन्सान अपनी किलकारी भरती बेटी को देखता है। हर किसी को अपनी अलग छटा दिखाती है नदी.. एक सम्पूर्ण स्त्री की तरह। कभी स्त्री की तरह समर्पण..तो कभी स्त्री की तरह महामाया `शक्ति रुपेण संस्थिता:`

`बीच में कितना गहरा है?` विनी ने पूछा।

`तीन बांस।` नाव किनारे लगाते लड़के ने बताया।

एक सामुदायिक भवन की तख्ती पर लिखा था `नहाने धोने का काम घाट पर करें। खतरे से बचें।`

`घाट कहां है?` आभा ने पूछा।

`थोडा आगे।` नाव को वापस ले जाते लड़कों ने जवाब दिया। वे लौट रहे थे अपने डेरे की ओर।

`तुम्हारे डेरे का कुछ नाम है?` चन्दा ने पूछा जो अक्सर कम बोलती है। उन लड़कों को देखकर शायद उसे पिछले बरस खोए अपने बेटे की याद आई।


`हां.. मांझी डेरा। लखना गांव का।` लड़के ने चप्पू चलाकर किनारे को छोड़ते हुए कहा था।

वे दिन में कई बार आते हैं इस पार ताकि फिर लौट सकें अपने डेरे की ओर। उस पार डेरा और बीच में दो नदियों के संगम की अथाह जलराशि। जिसको पार करना उनके रोजमर्रा का काम है। और इन्हीं रोजमर्रा के कामों के बीच है उनके जीवन की आशा।

`बोलो दुर्गा मैया की.. जय!` दूर कोई कोलाहल सुनाई दिया था। डेरे के नीचे रहने वालों का समूह दिखा था। वह विसर्जन का दृश्य था। मैने कहा `चाहे कुछ भी हो प्रकृति की सुन्दरता तभी तक है जब तक उसके केन्द्र में मनुष्य है।`

`हां..मनुष्य के बिना इन सबों का क्या मोल?` यह संतू की धीमी आवाज थी, जो बहुत कम अपनी असहमति व्यक्त करता है।

`देखो मछलियां!` विनी ने चहकते हुए दिखलाया। घाट के नीचे उसके पांव पानी में थोड़े डूबे हुए थे `मछलियों से पानी में गुदगुदी हो रही है।` उसका कमसीन चेहरा विभोर हो उठा था। हम सबने उसकी ओर देखा मानों नदी, पानी, मछली और वह सब एक हो उठे हों।

विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ ४९१००१

मो. ९३०११४८६२६

हसदो नदी के तीर में, कालेश्वरनाथ भगवान (Kalesharnath Shiv)

२६ मार्च को पीथमपुर में शिव बारात के अवसर पर,

प्रो. अश्विनी केशरवानी

छत्तीसगढ़ प्रांत में भी ऐसे अनेक ज्योतिर्लिंग सदृश्‍य काल कालेश्‍वर महादेव के मंदिर हैं जिनके दर्शन, पूजन और अभिशेक आदि करने से सब पापों का नाश हो जाता है। जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर जिला मुख्यालय से ११ कि.मी. और दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के चांपा जंक्शन से मात्र ८ कि.मी. की दूरी पर हसदेव नदी के दक्षिणी तट पर स्थित पीथमपुर का काले वरनाथ भी एक है। जांजगीर के कवि स्व. श्री तुलाराम गोपाल ने ''शिवरीनारायण और सात देवालय'' में पीथमपुर को पौराणिक नगर माना है। प्रचलित किंवदंति को आधार मानकर उन्होंने लिखा है कि पौराणिक काल में धर्म वंश के राजा अंगराज के दुराचारी पुत्र राजा बेन प्रजा के उग्र संघर्श में भागते हुए यहां आये और अंत में मारे गए। चंूकि राजा अंगराज बहुत ही सहिश्णु, दयालु और धार्मिक प्रवृत्ति के थे अत: उनके पवित्र वंश की रक्षा करने के लिए उनके दुराचारी पुत्र राजा बेन के मृत भारीर की ऋशि-मुनियों ने इसी स्थान पर मंथन किया। पहले उसकी जांघ से कुरूप बौने पुरूश का जन्म हुआ। बाद में भुजाओं के मंथन से नर-नारी का एक जोड़ा निकला जिन्हें पृथु और अर्चि नाम दिया गया। ऋशि-मुनियों ने पृथु और अर्चि को पति-पत्नी के रूप में मान्यता देकर विदा किया। इधर बौने कुरूप पुरूश महादेव की तपस्या करने लगा। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव उन्हें दर्शन देकर पार्थिव लिंग की स्थापना और पूजा-अर्चना का विधान बताकर अंतर्ध्यान हो गये। बौने कुरूप पुरूश ने जिस काले वर पार्थिव लिग की स्थापना कर पूजा-अर्चना करके मुक्ति पायी थी वह काल के गर्त में समाकर अदृ य हो गया था। वही कालान्तर में हीरासाय तेली को द र्शन देकर उन्हें न केवल पेट रोग से मुक्त किया बल्कि उसके वंशबेल को भी बढ़ाया। श्री तुलसीराम पटेल द्वारा सन १९५४ में प्रकाशित श्री कालेश्‍वर महात्म्य में हीरासाय के वंश का वर्णन हैं-


तेहिके पुत्र पांच हो भयऊ।

शिव सेवा में मन चित दियेऊ।।

प्रथम पुत्र टिकाराम पाये।

बोधसाय भागवत, सखाराम अरु बुद्धू कहाये।।

सो शिवसेवा में अति मन दिन्हा।

यात्रीगण को शिक्षा दिन्हा।।

यही विघि शिक्षा देते आवत।

सकल वंश शिवभक्त कहावत।।

कहना न होगा हीरासाय का पूरा वंश शिवभक्त हुआ और मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार पाया। श्री प्यारेलाल गुप्त ने भी 'प्राचीन छत्तीसगढ़' में हीरासाय को पीथमपुर के शिव मंदिर में पूजा-अर्चना कर पेट रोग से मुक्त होना बताया हैं। उन्होंने खरियार (उड़ीसा) के राजा को भी पेट रोग से मुक्त करने के लिए पीथमपुर यात्रा करना बताया हैं। बिलासपर वैभव और बिलासपुर जिला गजेटियर में भी इसका उल्लेख हैं। लेकिन जनश्रुति यह है कि पीथमपुर के कालेश्‍वरनाथ (अपभ्रंश कले वरनाथ) की फाल्गुन पूर्णिमा को पूजा-अर्चना और अभिशेक करने से वंश की अवश्‍य वृद़्धि होती है। खरियार (उड़ीसा) के जिस जमींदार को पेट रोग से मुक्ति पाने के लिए पीथमपुर की यात्रा करना बताया गया है वे वास्तव में अपने वंश की वृद्धि के लिए यहां आये थे। खरियार के युवराज और उड़ीसा के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. जे. पी. सिंहदेव ने मुझे बताया कि उनके दादा राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने अपने वंश की वृद्धि के लिए पीथमपुर गए थे। समय आने पर काले वरनाथ की कृपा से उनके दो पुत्र क्रमश: आरतातनदेव और विजयभैरवदेव तथा दो पुत्री कनक मंजरी देवी और भाोभज्ञा मंजरी देवी का जन्म हुआ। वंश वृद्धि होने पर उन्होंने पीथमपुर में एक मंदिर का निर्माण कराया लेकिन मंदिर में मूर्ति की स्थापना के पूर्व ३६ वर्श की अल्पायु में सन् १९१२ में उनका स्वर्गवास हो गया। बाद में मंदिर ट्रस्ट द्वारा उस मंदिर में गौरी (पार्वती) जी की मूर्ति स्थापित करायी गयी।


यहां एक किंवदंति और प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार नागा साधु के आशीर्वाद से कुलीन परिवार की एक पुत्रवधू को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। इस घटना को जानकर अगले वर्श अनेक महिलाएं पुत्ररत्न की लालसा लिए यहां आई जिससे नागा साधुओं को बहुत परेशानी हुई और उनकी संख्या धीरे धीरे कम होने लगी। कदाचित् इसी कारण नागा साधुओं की संख्या कम हो गयी है। लेकिन यह सत्य है कि आज भी अनेक दंपत्ति पुत्र कामना लिए यहां आती हैं और मनोकामना पूरी होने पर अगले वर्श जमीन पर लोट मारते द र्शन करने यहां जाते हैं। पीथमपुर के काल काले वरनाथ की लीला अपरम्पार है। छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु कालीन कवि श्री वरणत सिंह चौहान ने 'शिवरीनारायण महात्म्य और पंचकोसी यात्रा' नामक पुस्तक में पीथमपुर की महत्ता का बखान किया है :-

हसदो नदी के तीर में, कले वरनाथ भगवान।

दर्शन तिनको जो करे, पावही पद निर्वाण।।

फाल्गुन मास की पूर्णिमा, होवत तहं स्नान।

काशी समान फल पावही, गावत वेद पुराण।।

बारह मास के पूर्णिमा, जो कोई कर स्नान।

सो जैईहैं बैकुंठ को, कहे वरणत सिंह चौहान।।


पीथमपुर के कालेश्‍वरनाथ मंदिर की दीवार में लगे शिलालेख के अनुसार श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार कच्छ कुम्भारीआ ने इस मंदिर का निर्माण कार्तिक सुदि २, संवत् १७५५ (सन् १६९८) को गोकुल धनजी मिस्त्री से कराया था। चांपा के पडित छविनाथ द्विवेदी ने सन् १८९७ में संस्कृत में ''कलि वर महात्म्य स्त्रोत्रम'' लिखकर प्रकाशित कराया था। इस ग्रंथ में उन्होंने काले वरनाथ का उद्भव चैत्र कृश्ण प्रतिपदा संवत् १९४० (अर्थात् सन् १८८३ ई.) को होना बताया है। मंदिर निर्माण संवत् १९४९ (सन् १८९२) में शुरू होकर संवत् १९५३ (सन् १८९६) में पूरा होने, इसी वर्श मूर्ति की प्रतिश्ठा हीरासाय तेली के हाथों कराये जाने तथा मेला लगने का उल्लेख है। इसी प्रकार पीथमपुर मठ के महंत स्वामी दयानंद भारती ने भी संस्कृत में ''पीथमपुर के श्री भांकर माहात्म्य'' लिखकर सन् १९५३ में प्रकाशित कराया था। ३६ भलोक में उन्होंने पीथमपुर के शिवजी को काल काले वर महादेव, पीथमपुर में चांपा के सनातन धर्म संस्कृत पाठशला की भाशखा खोले जाने, सन् १९५३ में ही तिलभांडे वर, काशी से चांदी के पंचमुखी शिवजी की मूर्ति बनवाकर लाने और उसी वर्श से पीथमपुर के मेले में शिवजी की शोभायात्रा निकलने की बातों का उल्लेख किया है। उन्होंने पीथमपुर में मंदिर की व्यवस्था के लिए एक मठ की स्थापना तथा उसके ५० वर्शों में दस महंतों के नामों का उल्लेख इस माहात्म्य में किया है। इस माहात्म्य को लिखने की प्रेरणा उन्हें पंडित शिवशंकर रचित और सन् १९१४ में जबलपुर से प्रकाशित ''पीथमपुर माहात्म्य'' को पढ़कर मिली। जन आकांक्षाओं के अनुरूप उन्होंने महात्म्य को संस्कृत में लिखा। इसके १९ वें भलोक में उन्होंने लिखा है कि वि.सं. १९४५, फाल्गुन पूर्णमासी याने होली के दिन से इस भांकर देव स्थान पीथमपुर की ख्याति हुई। इसी प्रकार श्री तुलसीराम पटेल ने पीथमपुर : श्री कालेश्‍वर महात्म्य में लिखा है कि तीर्थ पुरोहित पंडित काशीप्रसाद पाठक पीथमपुर निवासी के प्रपिता पंडित रामनारायण पाठक ने संवत् १९४५ को हीरासाय तेली को शिवलिंग स्थापित कराया था।


तथ्य चाहे जो भी हो, मंदिर अति प्राचीन है और यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि जब श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार ने संवत् १७५५ में मंदिर निर्माण कराया है तो अव य मूर्ति की स्थापना उसके पूर्व हो चुकी होगी। ...और किसी मंदिर को ध्वस्त होने के लिए १८५ वर्श का अंतराल पर्याप्त होता है। अत: यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि १८५ वर्श बाद उसका पुन: उद्भव संवत् १९४० में हुआ हो और मंदिर का निर्माण कराया गया होगा जिसमें मंदिर के पूर्व में निर्माण कराने वाले शिलालेख को पुन: दीवार में जड़ दिया गया होगा।


पीथमपुर में काल काले वरनाथ मंदिर के निर्माण के साथ ही मेला लगना भाुरू हो गया था। प्रारंभ में यहां का मेला फाल्गुन पूर्णिमा से चैत्र पंचमी तक ही लगता था, आगे चलकर मेले का विस्तार हुआ और इंपीरियल गजेटियर के अनुसार १० दिन तक मेला लगने लगा। इस मेले में नागा साधु इलाहाबाद, बनारस, हरिद्वार, ऋशिकेश, नासिक, उज्जैन, अमरकंटक और नेपाल आदि अनेक स्थानों से आने लगे। उनकी उपस्थिति मेले को जीवंत बना देती थी। मेले में पंचमी के दिन काल काले वर महादेव के बारात की शोभायात्रा निकाली जाती थी। कदाचित् शिव बारात के इस भाोभायात्रा को देखकर ही तुलसी के जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास ने उड़िया में शिवायन लिखा। शिवायन के अंत में छत्तीसगढ़ी में शिव बारात की कल्पना को साकार किया है।

आइगे बरात गांव तीर भोला बबा के,

देखे जाबे चला गियां संगी ल जगाव रे।

डारो टोपी मारो धोती पाय पायजामा कसि,

गल गलाबंद अंग कुरता लगाव रे।

हेरा पनही दौड़त बनही कहे नरसिंह दास,

एक बार हहा करि, सबे कहुं घिघियावा रे।

पहुंच गये सुक्खा भये देखि भूत प्रेत कहें,

नई बांचन दाई बबा प्रान ले भगावा रे।

कोऊ भूत चढ़े गदहा म, कोऊ कुकुर म चढ़े,

कोऊ कोलिहा म चढ़ि, चढ़ि आवत।

कोऊ बघुवा म चढ़ि, कोऊ बछुवा म चढ़ि,

कोऊ घुघुवा म चढ़ि, हांकत उड़ावत,

सर्र सर्र सांप करे, गर्र गर्र बाघ करे।

हांव हांव कुकुर करे, कोलिहा हुहुवावत,

कहे नरसिंहदास भांभू के बरात देखि।


इसी प्रकार पीथमपुर का मठ खरौद के समान भौव मठ था। खरौद के मठ के महंत गिरि गोस्वामी थे, उसी प्रकार पीथमपुर के इस भौव मठ के महंत भी गिरि गोस्वामी थे। पीथमपुर के आसपास खोखरा और धाराशिव आदि गांवों में गिरि गोस्वामियों का निवास था। खोखरा में गिरि गोस्वामी के शिव मंदिर के अवशेष हैं और धाराशिव उनकी मालगुजारी गांव है। इस मठ के पहले महंत श्री भांकर गिरि जी महाराज थे जो चार वर्ष तक इस मठ के महंत थे। उसके बाद श्री पुरूशोत्तम गिरि जी महाराज, श्री सोमवारपुरी जी महाराज, श्री लहरपुरी जी महाराज, श्री काशीपुरी जी महाराज, श्री शिवनारायण गिरि जी महाराज, श्री प्रागपुरि जी महाराज, स्वामी गिरिजानंद जी महाराज, स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज, और स्वामी दयानंद जी महाराज इस मठ के महंत हुए। मठ के महंत तिलभांडे वर मठ काशी से संबंधित थे। स्वामी दयानंद भारती जी को पीथमपुर मठ की व्यवस्था के लिए तिलभांडे वर मठ काशी के महंत स्वामी अच्युतानंद जी महाराज ने २०.०२.१९५३ को भेजा था। स्वामी गिरिजानंदजी महाराज पीथमपुर मठ के आठवें महंत हुए। उन्होंने ही चांपा को मुख्यालय बनाकर चांपा में एक 'सनातन धर्म संस्कृत पाठशाला' की स्थापना सन् १९२३ में की थी। इस संस्कृत पाठशाला से अनेक विद्यार्थी पढ़कर उच्च शिक्षा के लिए काशी गये थे। आगे चलकर पीथमपुर में भी इस संस्कृत पाठशाला की एक भाशखा खोली गयी थी। हांलाकि पीथमपुर में संस्कृत पाठशाला अधिक वर्शो तक नहीं चल सकी; लेकिन उस काल में संस्कृत में बोलना, लिखना और पढ़ना गर्व की बात थी। उस समय रायगढ़ और शिवरीनारायण में भी संस्कृत पाठशाला थी। अफरीद के पंडित देवीधर दीवान ने संस्कृत भाशा में विषेश रूचि होने के कारण अफरीद में एक संस्कृत ग्रंथालय की स्थापना की थी। आज इस ग्रंथालय में संस्कृत के दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह है जिसके संरक्षण की आव यकता है। उल्लेखनीय है कि यहां के दीवान परिवार का पीथमपुर से गहरा संबंध रहा है।


सम्प्रति पीथमपुर का मंदिर अच्छी स्थिति में है। समय समय पर चांपा जमींदार द्वारा निर्माण कार्य कराये जाने का उल्लेख शिलालेख में है। रानी साहिबा उपमान कुंवरि द्वारा फ र्श में संगमरमर लगवाया गया है। पीथमपुर के आसपास के लोगों द्वारा और क्षेत्रीय समाजों के द्वारा अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है। काले वरनाथ की महत्ता अपरम्पार है, तभी तो कवि तुलाराम गोपाल का मन गा उठता है :-


युगों युगों से चली आ रही यह पुनीत परिपाटी,

कलियुग में भी है प्रसिद्ध यह पीथमपुर की माटी।

जहां स्वप्न देकर भांकर जी पुर्नप्रकट हो आये,

यह मनुश्य का काम कि उससे पुरा लाभ उठाये।।

रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,

प्रो. अश्विनी केशरवानी

राघव, डागा कालोनी,

चांपा-४९५६७१ (छत्तीसगढ़)


गिरधर जी.बरनवा के हाइकू

कथ्‍य और शिल्‍प की दृष्टि से हाइकू गागर में सागर भरने की काव्‍य विधा है । हाइकू पांच, सात, पांच अर्थात सत्रह सत्रह अनुशासन में निबद्ध विलक्षण विधा है । जापान में बौद्धमत में आये विसंगतियों को उजागर कर दुरूस्‍त करने हेतु सूत्रों में, कम शव्‍दों में अपनी बात कहने के लिए इस विधा का उद्भव हुआ । हाइकू की विषयवस्‍तु है प्रकृति । सेनरेय की तकनीक (पांच, सात, पांच अर्थात सत्रह अक्षरानुशासन) ही हाइकू के विकास की पृष्‍टभूमि मानी जा सकती है । आज दुनिया में तमाम मुल्‍कों में विभिन्‍न भाषाओं में हाइकू लेखन जारी है । हिन्‍दी में अज्ञेय, डॉ.सुधा गुप्‍ता, डॉ.महावीर, शंभूशरण द्विवेदी, डॉ.भगवत शरण अग्रवाल, रामनिवास पंथी, मदन मोहन उपेन्‍द्र, उर्मिला कौल, सूर्य देव पराग, राजेन्‍द्र परदेशी, कु.नीलिमा शर्मा, सूर्यदेव पाठक आदि सशक्‍त हस्‍ताक्षर हैं । फिलहाल मनुष्‍य भी तो प्रकृति का अहम हिस्‍सा है उसके हाव-भाव, क्रिया कलाप अलग नहीं हैं और इसीलिये सेनरेय और हाइकू की स्‍पष्‍ट लकीर खींची नहीं जा सकती हो सकता है भावी लेखनी में दोनो अलग अलग रूप में साहित्‍य में अपना स्‍थान बना लें । इस पर मैं खुलकर बहस करना चाहता हूं आप यदि इस विधा पर मुझसे चर्चा करना चाहते हैं तो मुझसे मेरे मोबाईल नम्‍बर पर संपर्क कर सकते हैं क्‍योंकि इस विधा के विकास के लिए बहस की आवश्‍यकता है आप मेरे चंद हाइकू पढे और पसंद आये तो आर्शिवाद देवें -


दाढ में खूंन
जनतंत्र में घुन
नेता के गुन ।

दिल दीवाना
ढाई आखर प्रेम
चल मस्तापना ।

जला रावण
साल में एक दिन
फिर अमर ।

आदमी तो है
आदमीयत नहीं
ढूढे हाइकू ।

खोना ही पाना
देखिये खोकर
अपने आप ।

बिकी कलायें
बिग-बी बेंचे तेल
पूंजी का खेल ।

रजनीगंधा
लुटी अंधियारे में
सुबह रोई ।

चंपा-चमेली
लिपटी वृक्ष तने
खुश नसीब ।

ओ रातरानी
महकाती रातभर
भोर उदास ।

ये ढूंठ पेड
फल, पुष्पे न छाया
ये अवधूत ।

जीवन परिचय

पूरा नाम : अनवर गिरधर सिंह बरनवा
लेखन नाम : गिरधर जी.बरनवा
जन्‍म तिथि : 9 अप्रैल, 1948
जन्‍म स्‍थान : कस्‍तूरी, जिला शहडोल, म.प्र.
शिक्षा : एम.ए. (राजनीतिशास्‍त्र, इतिहास), बी.एड. सागर विश्‍वविद्यालय
लेखन : प्राथमिक विद्यालय के मायूस विद्यार्थी से लेकर अबतक
विधायें : गीत, जनगीत, गजल, मुक्‍तक, दोहे, शेर, हाइकू,नुक्‍कड नाटक, ललित निबंध, लघु कथा, क्षणिकायें समीक्षा
आलोचना : विभिन्‍न रचनाओं व कृतियों की समीक्षायें प्रकाशित । रंगकर्म - निर्देशन : छत्‍तीसगढी फिल्‍म ‘शहीद वीर नारायण सिंह’, जनगीत, लोकगीत, नाटक, नुक्‍कड नाटक अभिनय : छत्‍तीसगढी फिल्‍मों, नाटकों एवं लोककला प्रदर्शन कार्यक्रमों में
प्रकाशन : देश के विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का अनवरत प्रकाशन, देश भर में कवि सम्‍मेलनों में शिरकत
संस्‍थागत : जनवादी लेखक संघ का संस्‍थापक सदस्‍य, छत्‍तीसगढ राज्‍य समिति का सदस्‍य
शीध्र प्रकाश्‍य कृतियांप्रेरण तुझे सलाम (जनगीत संग्रह), मधुमय है यह प्रीत की बानी (गजल संग्रह), ढूंढो वही पानी (आधुनिक कविता संग्रह), ले मशाल चले चलो ... (मुक्‍तक संग्रह), हाइकू मंगल (हाइकू)
संपर्क : फ्लैट नं. 4, रेड्डी बाडा, नवदुर्गा चौक, पुजारी स्‍कूल के पीछे, रविनगर, राजातालाब, रायपुर (छ.ग.) मोबाईल : 09425517501


एकता भेष
अनेकता में बसा
भारत देश ।

बोल री बोल
न सह जुल्म मौन
कहती मैना ।

पूजते शिला
हरि मिले पर्वत
पूजो कबीर ।

चिढाता मुंह
कैकटस के फूल
रेस्त्रां के बीच ।

दीप शिखा में
जल जायेगा शलभ
दीवाना पन ।

आम बौराया
बागों कूजे कोकिल
बसंत आया ।

मरा गरीब
दंगों में हरबार है
न अजीब ।

श्राद्ध दिवस
साल में एक दिन
बुलाते काक ।

कुत्ते का कद
आदमियों से भी उंचा
बुश की दृष्टि ।

गोली जाने
न राम-रहीम भक्त
चलती जब ।

बहती हवा
भूमें कंचन बौर
फागुन आया ।

फूलों के कान
कह आई तितली
भ्रमर आये ।

पीली सरसों
ले बासंती चूनर
ली अंगडाई ।

चुगती दाना
समझाये गौरया
माँ की ममता ।

उतारा पैंट
पहचान के बाद
मार दी गोली ।

लोक मंगल
निस्रित अविरल
सृजन जल ।

चले आंधियॉं
आशा के दीप जले
बुझ न पाये ।

दर्द दिल में
लेकर ‘गिरधर’
लिखे हाइकू ।

भर उजास
फूटे रवि किरणें
लघु प्रयास ।

गिरधर जी.बरनवा

क्या उल्लू का कपाल आपके दुश्मन का सर्वनाश कर सकता है?

13. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?


- पंकज अवधिया


प्रस्तावना यहाँ पढे


इस सप्ताह का विषय



क्या उल्लू का कपाल आपके दुश्मन का सर्वनाश कर सकता है?


तंत्र से सम्बन्धित ज्यादातर साहित्यो मे यह दावा किया जाता है कि विधि-विधान से उल्लू के कपाल के प्रयोग से दुश्मन का सर्वनाश किया जा सकता है। इस दावे के समर्थन मे देश भर मे लेख छपते रहते है। इस दावे की सत्यता जानने के लिये मै सैकडो तांत्रिको से मिला और उनसे इस दावे को प्रमाण सहित सिद्ध करने का अनुरोध किया पर जवाब मे मुझे बडी-बडी बाते ही सुनने को मिली। ज्यादातर तांत्रिक उल्लू के कपाल को बेचने की फिराक मे नजर आये।


समय-समय पर अपने हिन्दी लेखो के माध्यम से मै खुले रुप से इन्हे चुनौती देता रहा पर आज तक नतीजा सिफर ही रहा। अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति, रायपुर के संस्थापको मे से एक माननीय चन्द्रशेखर व्यास सदा ही से अपने व्याख्यानो मे इस दावे को चुनौती देते रहे है। वे कहते है कि यदि उल्लू के कपाल मे इतनी ही शक्ति है तो तांत्रिक देश सेवा के लिये आगे आये। सरकार उनकी एक बटालियन बना दे और सीमा पर भेज दे ताकि बिना खर्च के दुश्मन को धूल चटाई जा सके। पर हम जानते है कि इस दावे मे कोई दम नही है।


यह कडवा सच है कि प्रतिवर्ष ऐसे आधारविहीन दावो के नाम पर असंख्य उल्लूओ को मारा जाता है। उल्लू से जुडे अन्ध-विश्वास पर आधारित ममता जी की पोस्ट पर सागर नाहर जी ने खुलासा किया कि दीपावली के आस-पास उल्लू की बलि चढाई जाती है और रंग और प्रजाति के हिसाब से डेढ लाख मे एक उल्लू बेचा जाता है। यह सब उस देश मे हो रहा है जहाँ उल्लू के शिकार पर प्रतिबन्ध है और कडे कानून है।


वर्तमान पीढी के बहुत कम लोग यह जानते है कि उल्लू की हमारे पर्यावरण मे अहम भूमिका है। ये किसानो के मित्र है। ये कीट-पतंगो के साथ चूहो को खा जाते है। इस तरह प्रतिवर्ष करोडो का खाद्यान्न चूहो से बच जाता है। आज कीटनाशको के बढते उपयोग से इनकी आबादी कम होने लगी है। बढते ट्रेफिक के कारण भी ये गाडियो से टकराकर मरते जा रहे है। इन सबसे अधिक खतरा इन्हे उन मनुष्यो से है जो तंत्र के नाम पर इन्हे पकडकर मार देते है। उल्लू हमारे आस-पास से बहुत तेजी से घटे है। हाल ही मे खेतो मे आमतौर पर पाये जाने वाले बार्न आउल को जाँजगीर क्षेत्र के गाँवो मे गरुड समझकर पूजा जाने लगा। दैनिक छत्तीसग़ढ ने यह खबर प्रमुखता से प्रकाशित की। किसानो के मित्र कहे जाने वाले बार्न आउल को सम्भवत: इस पीढी के लोगो ने नही देखा था इसलिये वे इसे गरुड मान बैठे। यह छोटी सी घटना दर्शाती है कि कैसे तेजी से जीव हमारे आस-पास से गायब हो रहे है और हम इन्हे भूलते जा रहे है।


अपने स्तर पर कुछ जानकार लोग जागरुकता अभियान चला रहे है पर जिस तेजी से उल्लू विलुप्त हो रहे है उसे देखते हुये व्यापक स्तर पर अभियान चलाने की जरुरत है। हम सब को जागना होगा और दूसरो को भी जगाना होगा। सरकार पर दबाव बनाना होगा ताकि गलत दावे करने वालो के हौसले पस्त किये जा सके और उल्लू को मारने वालो को सलाखो के पीछे भेजा जा सके।


अगले सप्ताह का विषय


यदि मैना बिल्कुल सामने दिखे तो क्या चोर-डाकुओ से धन की हानि होती है?

खेलूंगी कभी न होली, उससे जो नहीं हमजोली

खेलूंगी कभी न होली, उससे जो नहीं हमजोली

प्रो. अश्निनी केशरवानी


फागुन का त्योहार होली हंसी-ठिठोली और उल्लास का त्योहार है। रंग गुलाल इस त्योहार में केवल तन को ही नही रंगते बल्कि मन को भी रंगते हैं। प्रकृति की हरीतिमा, बासंती बहार, सुगंध फेलाती आमों के बौर और मन भावन टेसू के फूल होली के उत्साह को दोगुना कर देती है। प्रकृति के इस रूप को समेटने की जैसे कवियों में होड़ लग जाती है। देखिए कवि सुमित्रानंदन पंत की एक बानगी:

चंचल पग दीपि शिखा के घर

गृह भग वन में आया वसंत।

सुलगा फागुन का सूनापन

सौंदर्य शिखाओं में अनंत।

सैरभ की शीतल ज्वाला से

फैला उर उर में मधुर दाह

आया वसंत, भर पृथ्वी पर

स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह।


प्रकृति की इस मदमाती रूप को निराला जी कुछ इस प्रकार समेटने का प्रयास करते हैं :-

सखि वसंत आया

भरा हर्श वन के मन

नवोत्कर्श छाया।

किसलय बसना नव-वय लतिका

मिली मधुर प्रिय उर तरू पतिका

मधुप वृन्द बंदी पिक स्वर नभ सरसाया

लता मुकुल हार गंध मार भर

बही पवन बंद मंद मंदतर

जागी नयनों में वन

यौवनों की माया।

आवृत सरसी उर सरसिज उठे

केसर के केश कली के छूटे

स्वर्ण भास्य अंचल, पृथ्वी का लहराया।


मानव मन इच्छाओं का सागर है और पर्व उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम होते हैं। ये पर्व हमारी भावनाओं को प्रदर्शित करने में सहायक होते हैं। इसीलिए हमारी संस्कृति में शौर्य के लिए द शहरा, श्रद्धा के लिए दीपावली, और उल्लास के लिए होली को उपयुक्त माना गया है। यद्यपि हर्श हर पर्व और त्योहार में होता है मगर उन्मुक्त हंसी-ठिठोली और उमंग की अभिव्यक्ति होली में ही होती है। मस्ती में झूमते लोग फाग में कुछ इस तरह रस उड़ेलते हैं :-

फूटे हैं आमों में बौर

भौंर बन बन टूटे हैं।

होली मची ठौर ठौर

सभी बंधन छूटे हैं।

फागुन के रंग राग

बाग बन फाग मचा है।

भर गये मोती के झाग

जनों के मन लूटे हैं।

माथे अबीर से लाल

गाल सिंदूर से देखे

आंखें हुई गुलाल

गेरू के ढेले फूटे हैं।

ईसुरी अपने फाग गीतों में कुछ इस प्रकार रंगीन होते हैं :-

झूला झूलत स्याम उमंग में

कोऊ नई है संग में।

मन ही मन बतरात खिलत है

फूल गये अंग अंग में।

झोंका लगत उड़त और अंबर

रंगे हे केसर रंग में।

ईसुर कहे बता दो हम खां

रंगे कौन के रंग में।


ब्रज में होली की तैयारी सब जगह जोरों से हो रही है। सखियों की भारी भीड़ लिये प्यारी राधिका संग में है। वे गुलाल हाथ में लिए गिरधर के मुख में मलती है। गिरधर भी पिचकारी भरकर उनकी साड़ी पर छोड़ते हैं। देखो ईसुरी, पिचकारी के रंग के लगते ही उनकी साड़ी तर हो रही है। ब्रज की होली का अपना ढंग होता है। देखिए ईसुरी द्वारा लिखे दृश्‍य की एक बानगी

ब्रज में खेले फाग कन्हाई

राधे संग सुहाई

चलत अबीर रंग केसर को

नभ अरूनाई छाई

लाल लाल ब्रज लाल लाल बन

वोथिन कीच मचाई।

ईसुर नर नारिन के मन में

अति आनंद अधिकाई।

सूरदास भी भक्ति के रस में डूबकर अपने आत्मा-चक्षुओं से होली का आनंद लेते हुए कहते हैं :-

ब्रज में होरी मचाई

इतते आई सुघर राधिका

उतते कुंवर कन्हाई।

हिल मिल फाग परस्पर खेले

भाोभा बरनिन जाई

उड़त अबीर गुलाल कुमकुम

रह्यो सकल ब्रज छाई।

कवि पद्यमाकर की भी एक बानगी पेश है :-

फाग की भीढ़ में गोरी

गोविंद को भीतर ले गई

कृश्ण पर अबीर की झोली औंधी कर दी

पिताम्बर छिन लिया, गालों पर गुलाल मल दी।

और नयनों से हंसते हुए बाली-

लला फिर आइयो खेलन होली।


होली के अवसर पर लोग नशा करने के लिए भांग-धतुरा खाते हैं। ब्रज में भी लोग भांग-धतूरा खाकर होली खेल रहे हैं। ईसुरी की एक बानगी पेश है :-

भींजे फिर राधिका रंग में

मनमोहन के संग में

दब की धूमर धाम मचा दई

मजा उड़ावत मग में

कोऊ माजूम धतूरे फांके

कोऊ छका दई भंग में

तन कपड़ा गए उधर

ईसुरी, करो ढांक सब ढंग में।

तब बरबस राधिका जी के मुख से निकल पड़ता है :-

खेलूंगी कभी न होली

उससे नहीं जो हमजोली।

यहां आंख कहीं कुछ बोली

यह हुई श्‍याम की तोली

ऐसी भी रही ठिठोली।


यूं देश के प्रत्येक हिस्से में होली पूरे जोश-खरोश से मनाई जाती है। किंतु सीधे, सरल और सात्विक ढंग से जीने की इच्छा रखने वाले लागों को होली के हुड़दंग और उच्छृंखला से थोड़ी परेशानी भी होती है। फिर भी सब तरफ होली की धूम मचाते हुए हुरियारों की टोलियां जब गलियों और सड़कों से होते हुए घर-आंगन के भीतर भी रंगों से भरी पिचकारियां और अबीर गुलाल लेकर पहुंचते हैं, तब अच्छे से अच्छे लोग, बच्चे-बूढ़े सभी की तबियत होली खेलने के लिए मचल उठती है। लोग अपने परिवार जनों, मित्रों और यहां तक कि अपरिचितों से भी होली खेलने लगते हैं। इस दिन प्राय: जोर जबरदस्ती से रंग खेलने, फूहड़ हंसी मजाक और छेड़ छाड़ करने लगते हैं जिसे कुछ लोग नापसंद भी करते हैं। फिर भी 'बुरा न मानो होली है...` के स्वरों के कारण बुरा नहीं मानते। आज समूचा विश्‍व स्वीकार करता है कि होली वि व का एक अनूठा त्योहार है। यदि विवेक से काम लेकर होली को एक प्रमुख सामाजिक और धार्मिक अनुष्‍्ठान के रूप में शालीनता से मनाएं तो इस त्योहार की गरिमा अवश्‍य बढ़ेगी।

रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,

प्रो. अश्निनी केशरवानी

' राघव ` डागा कालोनी

चाम्पा-४९५६७१ ( छत्तीसगढ़ )

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...