उदंती.com मासिक पत्रिका वर्ष 1, अंक 6, जनवरी 2009


अनकही : जनता की आशाओं का कमल फिर खिला

यात्रा कथा / वादियां :ऊष्मा से भर देने वाला सतपुड़ा - गोविंद मिश्र

राजनीति / छत्तीसगढ़ : विकास की धमक और चावल की महक - परितोष चक्रवर्ती

बातचीत / महेश भट्ट : पैसा कमाना फिल्म की बुनियादी शर्त है - मधु अरोड़ा

 गजलें : नया साल हमसे दगा न करे - देवमणि पांडेय

कला / चित्रकार : रंग मुझे अपनी ओर बुलाते हैं : सुनीता वर्मा - उदंती फीचर्स

पर्यावरण / ग्लोबल वार्मिंग : संकट के भूरे बादल - प्रो. राधाकांत चतुर्वेदी

यादें / पुण्य तिथि : जब गुलाब के फूल देख कर कमलेश्वर गदगद हुए - महावीर अग्रवाल

लघुकथाएं 1. थप्पड़ 2. सार्थक चर्चा - आलोक सातपुते

नोबेल पुरस्कार / साहित्य : भारतीय संस्कृति के उपासक क्लेजिओ - पी. एस. राठौर

अंतरिक्ष / बढ़ते कदम : आओ तुम्हें चांद पे ले जाएं - प्रवीण कुमार

क्या खूब कही : एक फोन से पूरी ..., बूढ़े बिल्ले ने पहने...

अभियान / मुझे भी आता है गुस्सा :  इन्हें क्यों नहीं आती शर्म ? - वी. एन. किशोर

 इस अंक के रचनाकार

आपके पत्र / मेल बॉक्स

रंग बिरंगी दुनिया - 1. सोलर कार में... 2. अनोखा क्लब 3. खोई अंगूठी का मिलना
 

मुक्तिबोध की मशाल जलती रहे

प्रसिद्ध आलोचक चिंतक डा. नामवर सिंह ने इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ रायपुर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित बारहवें मुक्तिबोध नाट्य समारोह एवं कला उत्सव में १० जनवरी को चित्रकार स्व. आसिफ की कला प्रदर्शनी का उद्घाटन किया । इसी क्रम में मंच पर दीप प्रज्वलित कर नौ दिवसीय नाट्य समारोह का शुभारंभ करते हुए कहा, ''असल चीज है नाटक । भरत वाक्य के रूप में भाषण होना चाहिए, इसलिए दिल पर पत्थर रखकर आपका आदेश स्वीकार करता हूँ । मैं अपने आपको धन्य मानता हूँ कि मुक्तिबोध जी की स्मृति में हो रहे इस समारोह को देखने के लिए जिंदा हूँ । इप्टा और प्रलेसं के साथ मुक्तिबोध को छत्तीसगढ़ की राजधानी ने जिंदा रखा है । मुक्तिबोध ने `अंधेरे में' कविता लिखी । अंधेरा आज और गहरा हो गया है, इस अंधेरे के कई रूप हैं । यह सब कुछ मुक्तिबोध ने पहले देख लिया था। जो बारात अंधेरे में दिखती थी वह अब दिन दहाड़े दिखती है । यह दूर द्यिष्ट जिस कहानीकार या कवि में मिल सकती है वह मुक्तिबोध है । अंधेरा गहरा होता जा रहा है, जिस अंधेरे का जिक्र उन्होंने अपनी रचनाओं में किया था, उस लड़ाई से संघर्ष की ताकत और जीतने का विश्वास मुक्तिबोध से मिल सकता है । मुक्तिबोध से ही मशाल जलाए रख सकने की हिम्मत मिल सकती है । इप्टा सही दिशा में आगे बढ़ रहा है । हरावल दस्ता है हमारा छत्तीसगढ़ इप्टा । न बुझे मुक्तिबोध की मशाल, जलती रहे ।`` कार्यक्रम का संचालन अरूण काठोटे व युवा आलोचक जयप्रकाश द्वारा किया गया । मंच पर रमेश मुक्तिबोध, दिवाकर मुक्तिबोध सहित कहानीकार काशीनाथ सिंह, ख्यातिलब्ध कवि राजेश जोशी, प्रलेसं के महासचिव प्रभाकर चौबे, इप्टा के अध्यक्ष मिनहाज असद, राजेश श्रीवास्तव, आनंद हर्षुल, आलोक वर्मा, रवीन्द्र शाह और संयोजक सुभाष मिश्रा उपस्थित थे ।

नाट्य समारोह के पहले दिन विजयदान देथा की कहानी
`दुविधा'का मंचन किया गया । कथा गायन वाचन की लुप्त होती हुई शैली द्वारा अजय कुमार ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया ।  कहानी के प्रमुख पात्रों में  मायापति सेठ, सेठानी, दूल्हा-दुल्हन, भूत, गड़रिया, भली स्त्रियों सहित गाँव के सामूहिक विचार को भी अजय कुमार ने अपनी विलक्षण अभिनय क्षमता द्वारा अकेले ही साकार कर दिखाया । अनिल मिश्रा और सुशील शर्मा के सुर और ताल से सजी यह प्रस्तुति स्त्री की इच्छा और उसकी भावनाओं तथा सामाजिक मर्यादा के द्वंद्व की कथा है । अजय कुमार ने अपनी भाव भंगिमाओं के साथ पैर में बंधे घुंघरुओं का प्रयोग इतने अनूठे तरीके से किया कि समूची की समूची कथा मन को उद्वेलित करती हुई, आल्हादित करती हुई आँखों के जरिए भीतर उतरती चली गई ।

दूसरे दिन अपने व्याख्यान में नामवर सिंह ने कहा, `राम की शक्ति पूजा' के ऐसे समर्थ पाठ के बाद भाषण, कयामत नहीं हिमाकत है । `संस्कृति और राजनीति' का अर्थ वह नहीं है जो शब्दकोश में लिखा है । अर्थ वह होता है जो लोक में प्रचलित होता है । मुंबई जैसी घटनाओं के बाद संस्कृति शब्द सुनते ही भय का बोध होता है, निर्माण का नहीं । नरेन्द्र देव जी से सुना था,`संस्कृति चित्त भूमि की खेती है ।' संस्कृति वह खेती है जो चित्त की भूमि पर की जाती है । राजनीति का अर्थ लोक जीवन में वह नहीं रह गया है । एक तरह की कुर्सी दौड़ राजनीति हो गई है । मैं मेथड पर चर्चा अधिक करना चाहता हूँ । अस्सी के चौराहे पर `व्यवस्था' भंग के लिए और `कार्यक्रम' शब्द का प्रयोग शराब के लिए किया जाता है । कूट भाषाओं के बीच से हम देखें । संस्कृति मंत्रालय लगभग टूरिज्म जैसे व्यवसाय में बदल गया है । गल्ला बेचने वाले चित्तभूमि की खेती कैसे करेंगे ? तक्षशिला और सारनाथ की खुदाई अंग्रजी राज में हुई । अपनी संास्कृतिक धरोहर को पहचाने और उसकी रक्षा करें । उसकी उपेक्षा करने से अप संस्कृति अधिक विकसित हुई है । अध्यक्षीय आसंदी से विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी कविताओं का पाठ किया । `कविता विमर्श' के अन्तर्गत रामकुमार तिवारी, हरिओम राजोरिया, एकांत श्रीवास्तव, बद्रीनारायण, नवल शुक्ल और राजेश जोशी ने अपनी अपनी चुनी हुई कविताएँ सुनाइ । 
सम्पादक `सापेक्षए. १४ आदर्श नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़) ४९१००३ दूरभाष (०७८८) २२१०२३४

(आगे इस आयोजन के संबंध में नाट्य समीक्षा एवं अन्‍य जानकारी हम यहां देने का प्रयास करेंगें )  

हबीब का योग्‍य शिष्‍य : अनूप रंजन पांडेय

छत्‍तीसगढी लोक नाट्य विधा तारे नारे के संरक्षक
छत्‍तीसगढ के ठेठ जडों से भव्‍य नागरी रंगमंचों तक सफर तय करने वाले रंगमंच के ऋषि हबीब तनवीर को कौन नहीं जानता उन्‍होंनें न केवल छत्‍तीसढी संस्‍कृति और लोक शैलियों को आधुनिक नाटकों के रूप में संपूर्ण विश्‍व में फैलाया वरण एक पारस की भांति अपने संपर्क में आने वाले सभी को दमकता सोना बना दिया । इन्‍हीं में से माटी से जुडा एक नाम है अनूप रंजन पाण्‍डेय जिन्‍होंने 'नया थियेटर` के साथ ही 'पृथ्वी थियेटर` मुंबई, 'सूत्रधार` भोपाल, 'रंगकर्मी` कोलकता, जैसी नाटय संस्थाओं और पदम भूषण हबीब तनवीर, ब.व.कारन्त, रतन थियम, के.एन.पन्निकर, मारिया मूलर, बी.के.मुकर्जी, उषा गांगुली, तापस सेन, बी.एम.शाह जैसे विभूतियों से जुड़कर नाटक के क्षेत्र में नित नये प्रयोग किए और रंगमंचीय अभिनय को अपनी प्रतिभा और मंजे हुए अभिनय से नई उंचाइयां दी ।
रंगमंच और अभिनय अनूप के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। जन्मजात प्रतिभा से युत श्री पांडेय विद्यार्थी जीवन में ही छत्तीसगढ़ी लोक नाटय 'नाचा` में जीवंत अभिनय कर अपनी योग्यता से स्‍थानीय कला जगत को परिचित करा दिया था इन प्रदर्शनों से इन्‍हें सराहना मिलने लगा था । प्रोत्‍साहन नें इन्‍हें इस क्षेत्र में और बेहतर कार्य करने हेतु प्रेरित किया और छुटपुट नाट्य प्रदर्शनों में ये सक्रिय हो गए । आपकी प्रतिभा में निखार एवं प्रदर्शन कला में उत्‍कृष्‍टता प्रसिद्व रंककर्मी हबीब तनवीर के 'नया थियेटर` से जुड़नें पर आई और इसके बाद लगातार प्रसिद्ध व लोकप्रिय नाटकों की सफल प्रस्तुति का निरंतर दौर चल पडा। देश के लगभग सभी मुख्य मंचों और आयोजनों के साथ-साथ दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपनी अभिनय क्षमता का परचम फहराते हुए 'जिन लाहौर नई देख्या`, मुद्राराक्षस, वेणीसंहारम, मिड समर नाईटस् ड्रीम, चरणदास चोर, आगरा बाजार, देख रहे हैं नैन, ससुराल, राजरक्त, हिरमा की अमर कहानी, सड़क, मृच्छकटिकम जैसे नाटक में इनका अभिनय जिस तरह से जीवंत हुआ है वह किसी भी दर्शक के लिए अविस्मरणीय रहा है। इनके द्वारा अभिनीत भूमिकाओं को दर्शकों के साथ-साथ नाटय सुधियों, निर्देशकों और समीक्षकों द्वारा लगातार सराहना मिलती रही है।
बहुआयामी व्‍यक्तित्‍व के धनी अनूप रंजन जी का नाटकों में अभिनय के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी पकड़ और उपलब्धियों की लंबी फेहरिस्त है, जिसमें निर्देशन, संयोजन, संगीत, गाथा और नाटय-सांस्कृतिक परम्परा आदि क्षेत्र में इनके द्वारा किए गए कार्य विशेष रूप से सराहनीय रहे हैं । देश और विश्व की लम्बी यात्राएं और प्रवास ने आपकी दृष्टि को व्यापक और उदार बनाया है।
अनूप रंजन पांडेय का जन्म एवं प्रारंभिक शिक्षा बिलासपुर में हुई और बिलासपुर से ही वाणिज्य के अलावा सामाजिक कार्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। रायपुर से पत्रकारिता में स्नातक तथा भोपाल से पी.जी.डिप्लोमा (सतत्शिक्षा) और इंदिरा कला एवं संगीत विद्यालय खैरागढ़ से लोक संगीत में डिप्लोमा की। अनूप रंजन जी साक्षरता के यज्ञ में राज्य संसाधन केन्द्र, भोपाल से जुड़े और लगभग ५० से अधिक नवपाठक साहित्य का संपादन किया जिसमें हिन्दी के अलावा गोंड़ी, भतरी, हल्वी, दोरली, छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रकाशित सामग्री उल्लेखनीय है। कला और संस्कृति, विशेषकर, रंगमंच, आपकी गहरी रूचि और सुदीर्घ-गहन सम्बद्धता का क्षेत्र रहा है। अपने क्षेत्र में देश की सर्वोच्च संस्था, संगीत नाटक अकादेमी, नई दिल्ली के लिए आप छत्तीसगढ़ राज्य के नामित प्रतिनिधि है। संस्था की बैठकों और गतिविधियों में शामिल होकर जहां एक ओर आपने छत्तीसगढ़ में संगीत नाटक के क्रियाकलाप को गतिशील किया है, राज्य की संगीत नाटक प्रतिभाओं के समुचित सम्मान के लिए पहल की है वहीं राष्ट्रीय स्तर पर इस क्षेत्र की परम्परा और नवाचार पर अपने चिन्तन और विचारों को प्रभावी रूप में क्रियान्‍वयित कर संगीत नाटक के क्षेत्र को लाभान्वित किया है।
छत्‍तीसगढ के प्रति उत्‍कट प्रेम एवं लगाव व नाटक के संगीत पक्ष और वाद्यों की गहरी समझ रखने वाले अनूप ने छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में घूमकर पारम्परिक लोकवाद्यों का अध्ययन और संग्रह किया। इनका यह संग्रह छत्‍तीसगढ का पहला संग्रह रहा है, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल द्वारा भिलाई में आयोजित राष्ट्रीय कार्यशाला-सह- प्रदर्शनी 'चिन्हारी` में आपका यह प्रयास रेखांकित हुआ और कला जगत के पारखियों नें इसे बहुत सराहा । इस आयोजन में आपके संग्रहित वाद्ययंत्रों की प्रदर्शनी लगाई गई जिसके माध्यम से पहली बार छत्तीसगढ़ की समृद्ध लोक सांगीतिक परम्परा और वाद्यों से विशेषज्ञों और आम जन का परिचय हुआ। इनकी उदारता देखिये कि इन्‍होंनें बडे श्रम से लुप्‍तप्राय वाद्ययंत्रों का सेग्रह किया पर अपना यह संग्रह स्वेच्छा से छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग के संग्रहालय को प्रदर्शन के लिए स्थायी रूप से दे दिया ताकि यहां आने वाली जनता छत्‍तीसगढ की संस्‍कृतिक परंपरा के अहम रहे इन वाद्ययंत्रों का जीवंत स्‍वरूप यहां देख सकें ।
सांस्‍कृतिक छत्‍तीसगढ के आदिम लोक परंपराओं को हृदय में बसाये हुए अनूप रंजन नें छत्‍तीसगढ के अनेक लोक नाट्य विधाओं पर कार्य किया एवं धुर गांवों में दबी छिपी इन विधाओं का प्रदर्शन नागर नाट्य मंचों पर प्रस्‍तुत किया । छत्तीसगढ़ की एक विशिष्ट और लुप्तप्राय नाटय विधा ''तारे-नारे`` को पुनर्जीवित करने का इन्‍होंने बीड़ा उठाया है एवं इसके विकास में ये लगातार संघर्षशील हैं । ''तारे-नारे`` या ''घोड़ा नाच`` नाटय विधा छत्तीसगढ़ की विशिष्ट निजता और पारम्परिकता से सम्पन्न है, जिसका कथ्य ''आल्हा`` गाथा पर आधारित है। इन्‍होंनें लुप्तप्राय इस नाटय विधा का संयोजन तथा निर्देशन किया, जिसका प्रदर्शन छत्तीसगढ़ राज्योत्सवों में किया गया। ''तारे-नारे`` के संरक्षण संवर्धन और प्रदर्शन के प्रति निष्ठा और इनके कार्य से प्रभावित होकर दक्षिण मध्य सांस्कृतिक केन्द्र नागपुर नें इनका नाम भारत सरकार के ''गुरू शिष्य`` परंपरा योजना के तहत गुरू के रूप में आपको सम्मान दिया । अत्यंत श्रमसाध्य तथा लगभग असंभव जान पड़ने वाले कार्य की चुनौती को हाथ में लेकर इन्‍होंनें रंगमंच, कला-परम्परा और संस्कृति के प्रति अपनी निष्ठा, समर्पण और गहन सम्बद्धता को प्रमाणित करते हुए ‘तारे नारे’ के विकास में निरंतर लगे हुए हैं ।
छत्‍तीसगढ के बस्‍तर के बिसरते पारंपरिक समस्‍त नृत्‍यों को एकाकार कर एक ही मंच में मूल परंपराओं को उसके मूल रूप में ही भव्‍य रंगमंच में प्रस्‍तुत करने की योजना पर इनका कार्य अभी चल रहा है । बस्‍तर के सभी पारंपरिक नृत्‍यों को जोडकर इन्‍होंनें ‘बस्‍तर बैंड’ की स्‍थापना की है । ‘बस्‍तर बैंड’ बस्‍तर के सांस्‍कृतिक पहलुओं का जीवंत चित्रण है जिसमें मूल वाद्ययंत्रों के साथ घोटुल व जगार का परिदृश्‍य है तो धनकुल के गूंज के साथ करमा का थिरकन है । अनूप नें अपने बेहतर निर्देशन व अभिनय कला से इसे सींचा है एवं अपने अनुभवों से इसे कसा है । भविष्‍य में अनूप की यह प्रस्‍तुति अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर लोकप्रिय होने के योग्‍य है ।
इन कार्यों के अतिरिक्‍त अनूप रंजन अपने आप को निरंतर निखारने एवं लोगों तक अपनी प्रतिभा बांटने हेतु अभिनय, रंगमंच और संगीत की महत्वपूर्ण कार्यशालाओं में लगातार शिकत करते रहे हैं । इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय संग्रहालय, भोपाल, संस्कृति विभाग, रायपुर, संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली, संस्कृति विभाग, सिक्किम आदि के कार्यक्रमों एवं कार्यशालाओं में भी निरंतर सहभागी रहे हैं । एसोसिएशन ऑफ इंडियन युनीवर्सिटीस्, दिल्ली तथा नेहरू युवा केन्द्र (खेल एवं युवा मंत्रालय) भारत सरकार के युवा उत्सव आयोजन में विशेषज्ञ एवं जूरी सदस्य के रूप में भी इन्‍होंनें युवाओं को प्रोत्साहित किया है व विभिन्न संस्थाओं- बालरंग, बिलासा कला मंच, चित्रोत्पला लोककला परिषद्, चिन्हारी, जन शिक्षा एवं संस्कृति समिति, अभिव्यक्ति भोपाल आदि से सम्बद्ध रह कर नाटय कला गतिविधियों में आज तक सतत् संलग्न हैं।
नाटय कला के विभिन्न पक्षों-अभिनय, संगीत, वैचारिक चिन्तन, संगठन, प्रशिक्षण के साथ परम्परा और प्रयोग का संतुलित समन्वय आपकी सुदीर्घ कला साधना में परिलक्षित होता है। कला-संस्कृति के ऐसे तपस्वी को अनेक सम्मान,व पुरस्‍कार प्राप्‍त हुए हैं । अनूप रंजन जी मानते हैं कि उनको इस आयाम तक पहुचाने में हबीब तनवीर जी का अहम योगदान है, आज वे जो भी हैं वह हबीब जी के कारण ही हैं । अनूप रंजन के हबीब तनवीर के प्रति सच्‍ची श्रद्धा एवं सर्मपण के भाव एवं उनकी उर्जा, छत्‍तीसगढ की माटी के प्रति लगाव को देखते हुए मन को सुकून मिलता है कि अनूप रंजन जी सचमुच में हबीब तनवीर के सच्‍चे शिष्‍य है और छत्‍तीसगढ में उनकी परम्‍परा को जीवंत रखने वाले योग्‍य ध्‍वजवाहक ।

संपर्क : Anup Ranjan Pandey Chinhari ART Village Vidyanagar Bilaspur 9425501514,  anupranjanpandey@indiatimes.com

`सापेक्ष' के सपने सच होने लगे हैं (Sapeksh)

संपादक महावीर अग्रवाल से संजीव तिवारी की बातचीत
हिन्दी की साहित्तिक लघु पत्रिकाओं में शीर्षस्थ ‘पहल’ के साथ-साथ साहित्यकारों एवं पाठकों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करते हुए ‘सापेक्ष’ नें एक लम्बी‍ यात्रा तय की है, जिसमें अनेक लब्धतप्रतिष्ठित साहित्यकारो पर केन्द्रित अंकों के साथ ही दर्शन, विधा एवं वाद पर केन्द्रित सराहनीय अंक ‘सापेक्ष’ के प्रकाशित हुए हैं । अब तक के प्रकाशित 50 अंकों में से प्रत्ये,क अंक संग्रहणीय हैं । वर्तमान में ‘सापेक्ष’ का पचासवां अंक प्रकाशित हुआ है जो आलोचना एवं आलोचक पर केन्द्रित एतिहासिक व महत्वपूर्ण विशोषांक है, इसमें हिन्दी साहित्य के 50 आलोचकों एवं साहित्यकारों पर सामाग्री संग्रहित है । इसका अवलोकन करने के उपरांत हमने ‘सापेक्ष’ के संपादक श्री महावीर अग्रवाल जी से एक मुलाकात की, मुलाकात के समय हुए संक्षिप्ते चर्चा सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत है -

संजीव तिवारी
- किसी भी लघु पत्रिका के 50 अंक छपना एक बड़ी घटना है । सापेक्ष का 50 वां अंक छपकर आया है । आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?
महावीर अग्रवाल - अभी `सापेक्ष' 49 `विज्ञान का दर्शन : फ्रेडरिक एंगेल्स का योगदान` पर राजेश्वर सक्सेना की पुस्तक के रूप में चार माह पहले ही छपकर आया है । हिन्दी में विज्ञान के दर्शन पर इस तरह का यह पहला और अनूठा काम है । सक्सेना जी का कहना है, `विज्ञान का दर्शन एक स्वतंत्र अनुशासन है जो बहुत समृद्ध है । यूरोप और अमेरिका में प्राकृतिक विज्ञान और सामाजिक विज्ञान की विरासत को खंगालने का काम रुका नहीं है बल्कि और तेज हुआ है ।' मार्क्सवाद की द्वन्द्ववादी पद्धति पर नाना प्रकार के सवाल उठाए जा रहे हैं । सक्सेना जी ने इन सारी बातों का जवाब पुस्तक में दिया है । यह पुस्तक हमें बताती है कि इक्कीसवीं शताब्दी में विज्ञान की नई चुनौतियों को समझने के लिए एंगेल्स के विज्ञान संबंधी विचारों की प्रासंगिकता आज भी कितनी अधिक है ।

संजीव तिवारी - अपनी 25 वर्षों की यात्रा के संबंध में कुछ बताइए ?
महावीर अग्रवाल - लघु पत्रिकाओं की स्थिति और उसके भीतरी बाहरी संघर्ष को पूरा साहित्य समाज जानता है । सापेक्ष का प्रवेशांक 1984 में छपा था । इस तरह 25 वर्षों में यह पचासवाँ अंक छपकर आया है । इसमें हमारे साथी रमाकांत श्रीवास्तव,जीवन यदु, गोरेलाल चंदेल और जमुनाप्रसाद कसार का सहयोग मिलता रहता है । संरक्षक दिनेश जुगरान हमेशा हिम्मत बढ़ाते हैं । साहित्य जगत में हिन्दी आलोचना पर केन्द्रित इस विशेषांक को व्यापक स्वीकृति मिल रही है । मन में बहुत सुकून है और संतोष का अनुभव कर रहा हूँ । 1987 से 1990 तक सापेक्ष का कोई अंक हम नहीं छाप सके । अवसाद और निराशा के चक्रव्यूह में मैं बार-बार घिरता रहा हूँ । बीच-बीच में भी कई बार दो-दो वर्षों तक पत्रिका छापना संभव नहीं हुआ । घनघोर आर्थिक संकटों से जूझते हुए किसी तरह यह यात्रा जारी रही है । `सापेक्ष' के 50 अंक छप गए, यह बात मुझे पुलक से भर देती है ।

सापेक्ष 50 में संग्रहित आलोचक और आलोचना - 
रामविलास शर्मा, त्रिलोचन, कमलेश्वर रामस्वरुप चतुर्वेदी, विष्णुकांत शास्त्री, बच्चन सिंह, नामवर सिंह, राममूर्ति त्रिपाठी, रमेश कुंतल मेघ, शिव कुमार मिश्र, कुंवर नारायण डा. निर्मला जैन, भवदेव पाण्डेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पाण्डेय, अशोक बाजपेई परमानंद श्रीवास्तव, धनंजय वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, वीरेन्द्र सिंह, विजेन्द्र नारायण सिंह, नंदकिशोर नवल, राजेश्वर सक्सेना मधुरेश, विजय बहादुर सिंह, प्रभाकर श्रोत्रिय खगेन्द्र ठाकुर, कमला प्रसाद, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, रमेश दवे, कुंवरपाल सिंह, प्रदीप सक्सेना, शंभुनाथ, विजय कुमार, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, अरुण कमल अनामिका, सुधीश पचौरी, अजय तिवारी मदन सोनी, अरविन्द त्रिपाठी, वीरेन्द्र यादव एकांत श्रीवास्तव, कृष्ण मोहन, सियाराम शर्मा प्रणय कृष्ण, सूरज पालीवाल, साधना अग्रवाल देवेन्द्र चौबे, रघुवंश मणी, बजरंग बिहारी तिवारी, बसंत त्रिपाठी, प्रियम अंकित, पंकज पराशर, व्योमेश शुक्ल, महावीर अग्रवाल

संजीव तिवारी - हिन्दी आलोचना पर केन्द्रित 850 पृष्ठों का यह विशेषांक एक ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह है । इसकी योजना आपने कैसे बनाई ?
महावीर अग्रवाल - दस वर्ष पहले रामविलास शर्मा जी का इन्टरव्यू दिल्ली में उनके घर पर कर रहा था । उन्होंने कहा महावीर जी आप बहुत मेहनत से सापेक्ष निकालते हैं । भविष्य में कभी हिन्दी आलोचना पर भी एक विशेषांक जरूर निकालें । मेरे मन में यह बात पहले ही अंकुरित हो चुकी थी । मुझे उनके कथन से बल मिला और मैं धीरे-धीरे काम करता रहा । विलंब बहुत हुआ, पर अंततोगत्वा आलोचना पर यह अंक छप गया । सुधी आलोचक ऐसा कहते हैं कि `सापेक्ष' अपनी वैचारिक यात्रा में आगे बढ़ता हुआ प्रतीत होता है । हिन्दी समाज के नामी गिरामी रचनाकारों के कथन से मुझे बहुत बल मिला है ।

संजीव तिवारी - शमशेर, त्रिलोचन,नागार्जुन के साथ कबीर विशेषांक को आज साहित्य समाज में सदर्भ ग्रंथ की तरह याद किया जात है । और कौन कौन से विशेषांक आपने छापे हैं ?
महावीर अग्रवाल - लोक संस्कृति विशेषांक और व्यंग्य सप्तक : एक और दो को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है । गजल विशेषांक और नाटक विशेषांक के साथ हबीब तनवीर पर केन्द्रित 'सापेक्ष` को भी याद किया जाता है । डा. राजेश्वर सक्सेना की एक 621 पृष्ठों की पुस्तक 'उत्तर आधुनिकता और द्वंद्ववाद` को भी हमने सापेक्ष 48 के रूप में छापा है । सुधी पाठकों ने इस अंक को हाथोंहाथ उठा लिया है ।

संजीव तिवारी - `सापेक्ष' के सामान्य अंक अब नहीं आ रहे हैं । भविष्य में पत्रिका को किस रूप में छापने की योजनाए है ?
महावीर अग्रवाल - कवि, उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल पर एक शानदार विशेषांक अपने अंतिम चरण पर है । आगामी विशंषांकों में आलोचक नामवर सिंह और कथाशिल्पी कमलेश्वर के रचना संसार पर छापने की तैयारी में साहित्य समाज का सहयोग निरन्तर मिल रहा है है । विशेषांकों की इस ऋंखला में गीत विशेषांक, पत्र विशेषांक और यात्रा संस्मरण विशेषांक की योजना पर बहुत दूर तक हम काम कर चुके हैं सापंक्ष के बड़े बड़े और महत्वपूर्ण विशेषांक छापने के स्वप्न को साकार करने में लगा हुआ हूँ । धीरे-धीरे ही सही मुझे विश्वास हो चला है कि योजनानुसार आने वाले पांच वर्ष में `सापेक्ष' के सभी प्रस्तावित विशेषांक आपके हाथों में होंगे ।

संजीव तिवारी- कागज के मूल्य लगातार बढ़ रहे हैं । मीडिया के प्रभाव में पाठकों की संख्या में कमी आई है । अपसंस्कृति के इस कठिन दौर में लघु पत्रिकाओं का भविष्य आपको कैसा नजर आता है ?
महावीर अग्रवाल - इक्कीसवीं सदी में लघु पत्रिकाएँ अधिक संख्या में निकल रही हैं । गुणवत्ता और छपाई की दृष्टि  से भी पत्रिकाओं नें बहुत विकास किया है । पिछले 10 वर्षों में कम से कम 20 नई पत्रिकाएँ निकल चुकी हैं । इनमें से चार-पांच लघु पत्रिका ने अपनी महत्ता और उपयोगिता लगातार सिद्ध की है । `सापेक्ष' के 50 अंकों की इस यात्रा ने मेरे विश्वास को सुदृढ किया है । कठिनाई और समस्याएँ तो लघु पत्रिकाओं के सामने पहाड़ जैसी हैं । इनसे लगातार टकराना और जूझना तो हमारी नियति है । मैं पहले भी कहता रहा हूँ , 'यह लड़ाई है दिए और तूफान की '।

सापेक्ष के उपलब्‍ध अंकों के संबंध में जानकारी यहां से प्राप्‍त की जा सकती है - सापेक्ष 
संजीव तिवारी

तुकबंदी व्‍यक्ति को कवि न सहीं भावनात्‍मक तो बनाती ही है

आरकुट में मेरे नगर के मित्र हैं एक्‍साईज इंसपेक्‍टर श्री सूर्यकांत गुप्‍ता जी, जब से इनसे आरकुट में मुलाकात हुई है तब से, गुप्‍ता जी बराबर मुझे तुकबंदी में ही स्‍क्रैप भेज रहे हैं, भेजे गये स्‍क्रैपों में ‘कविता जैसा कुछ’ विद्यमान रहता है इस कारण उसे पढने में आनंद आता है और तुकबंदी में मिश्रित हास्‍य का पुट गुदगुदाता है ।
गुप्‍ता जी यदि ऐसे ही स्‍क्रैप लिखते रहे तो निश्चित है एक दिन वे कवि हो जायेंगें । आप यूं ही अगर मुझसे मिलते रहें ..... की तर्ज पर । हमारी शुभकामनायें, मित्र हमारी बिरादरी में शीध्र ही आयें, ताकि हिन्‍दी ब्‍लागजगत हिन्‍दी दस्‍तावेजों से समृद्व हो, इन्‍हीं शुभकामनाओं सहित ।

आप भी गुप्‍ता जी द्वारा मुझे भेजे गये स्‍क्रैपों का आनंद लेवें -

महराज पाय लगी.
कैसे हस जी तय संगवारी
नाव हे तोर संजय तिवारी
इसने रहिबो बिन बात चीत के
तौ कैसे चलही दोस्ती यारी
कम से कम आवव तो हमर दुआरी

0000

आ रहा है नया साल
सबको रखे खुशहाल
जश्न भी हो जोश भी हो
उत्साह हो उमंग
तत्पर हों लड़ने को जीवन में हर जंग (किसी भी समस्या से जूझने को)
भूलें बीती बातों को
प्रभु की दी हुई सौगातों को
संजो के रखें भाई
देता हूँ आप सबको नव वर्ष की बधाई.

0000

महराज पाय लागी!
लिखे हौ होही मेल से मिलाप
लेकिन रहिथो कहाँ आप
कब होही दर्शन आपके
कहिके करत रथों जाप
गोठियाओ फ़ोन या मोबाइल में घलो नहीं
मैं हा का कर डरे हौं पाप.
एखर जवाब ला जरूर देहो आप.

संजीव तिवारी

नये वर्ष का धूम धडाका और फोन की घंटी

अंग्रेजी नये वर्ष के उत्‍साह और उमंग में संपूर्ण विश्‍व के साथ साथ भारत भी मुम्‍बई धमाकों के टीस को दिल में बसाये 31 दिसम्‍बर की रात को झूमता गाता रहा । हमारी परम्‍परा एवं परिपाटी चैत्र प्रतिपदा से नये वर्ष की रही है किन्‍तु "चलन" नें इसे बिसरा दिया है । दुनियॉं के साथ कदम पे कदम मिलाते हुए आगे बढने के लिए एवं कुछ व्‍यवसायगत आवश्‍यकताओं के कारण बडे व प्रतिष्ठित होटलों  को भी 'नये वर्ष' के आगमन में ऐसे ही आयोजनों का प्रबंध करना पडता है और मन रहे न रहे प्रतिस्‍पर्धा में ताल ठोंकना पडता है ।

15 दिसम्‍बर से समाचार पत्रों के विज्ञापन प्रतिनिधियों के फोन एवं उनके मिलने आने का सिलसिला बढ जाता है, आजकल समाचार पत्रों में भी व्‍यावसायिकता इस कदर हावी है कि विज्ञापन विभाग के कर्मचारी बाकायदा पीछे लग जाते हैं बीमा कंपनी या नेटवर्क मार्केटिंग कम्‍पनी के एजेंटों की तरह । चलन एवं इनको उपकृत करने (यह भी एक प्रकार की व्‍यावसायिक आवश्‍यकता है)  के कारण इनकी इच्‍छाओं के चलते विज्ञापन भी छापे जाते हैं ।

जैसे तैसे पेलते ढकेलते सजावट, डीजे, आर्केस्‍ट्रा, इनामों व कूपनों के इंतजाम के साथ 31 दिसम्‍बर भी आ जाता है और सुबह के समाचार पत्रों में विज्ञापनों व समाचारों को पढते ही, मालिकों व प्रबंधन देख रहे बंदों की मोबाईल की घंटिंयॉं घनघनाने लगती है । एक बानगी देखिये -

- लाखन सिंह, सीएसपी चौपट नगर बोल रहा हूं
- जी, सर, नमस्‍कार, कैसे हैं
- बस ठीक हैं जी, क्‍या इंतजाम है तुम्‍हारे यहां आज
- बस सर, झूमरी तलैया का डीजे है, दरभंगा का आर्केस्‍ट्रा साथ में डिनर, हमारे यहां तो आपको मालूम ही है, वेज है, दारू सारू तो चलता नहीं है
- अरे वही तो, यही चीज तो आपके होटल को औरों से अलग करती है बॉस, फेमलियर तो तुम्‍हारे यहां ही आना चाहते हैं, जहां दारू सारू है वहां हुल्‍लड के सिवा कुछ नहीं होता
- हा हा हा, बस सर सब आपलोगों का आर्शिवाद है ...........
- हा हा हा, अरे आर्शिवाद तो उपर वाले का है पगले, हॉं यार दस कूपन भिजवा देना मेरे आफिस, आई जी साहब की फेमिली आना चाहती है
- ओके सर, बिल्‍कुल भिजवाता हूं .........
- ओके, बाय
- बाय

सुबह की चाय से चालू इस तरह के कई  फोन आते हैं पोस्‍ट भर बदल जाते हैं, शाम को जब एंट्री कूपन का हिसाब मिलातें हैं तो पता चलता है सत्‍तर प्रतिशत कूपन तो ऐसे ही फोन के चलते निकल गये है । अब निकालो विज्ञापन , सजावट, डीजे, आर्केस्‍ट्रा, इनामों व कूपनों का खर्च और मना लो नया साल नाचते गाते हुए ।

नये साल की सुबह सब खुमारी में देर तक सोते हैं पर फोन रिसीव करने वाले को तो अपना दिमाग व फोन चालू ही रखना है, फोन रिसीव करने वाले को एक और फोन आता है उसकी भी बानगी देखें -

- कैसे रहा
- गुड मार्निंग सर, हैप्‍पी न्‍यू ईयर सर, ठीक रहा सर
- हूँ ........., क्‍या रहा हिसाब
- सर इस साल फलाने ढेकाने व सेकाने साहब नें मुफ्त कूपन मंगा लिया था, और होटल भी तो ढेरों नये खुल गये हैं ना सो ग्रा‍हक भी नहीं आये, बीस हजार का घाटा रहा सर, पर सर हमारा विज्ञापन तो हुआ ही है, इसे विज्ञापन खर्च मान लें, हा हा हा
- क्‍या खाक मान ले, हद हो गई, सफेद हाथी पाल लिया हूं मैं, हर साल तुम लोगों से यही सुनता हूं, क्‍या कोई अवैध काम करते हो तुम लोग होटल में, जो इन लोगों पर फोकटिया लुटाते हो ।
उधर से फोन काट दिया जाता है, फोन सुनने वाला घिघियाते रहता है ।

पिछले चार पांच सालों के इस कडुए अनुभव नें फोन रिसीव करने वाले को सिखा दिया है कि 31 दिसम्‍बर को फोन बंद रखा जाए । इस साल फोन रिसीव करने वाले नें अपना फोन बंद रखा, विज्ञापन भी पूरी तरह से अपनी प्रबंधन कुशलता को बापरते हुए हिसाब से दिया, मुफ्तिया कूपन भी बीस परसेंट ही बांटे पर मंदी और दारू की 'चलन' के चलते इस साल भी उसे नये वर्ष की सुबह वही फोन आया और देर तक घिघियाना पडा । 

समाचार पत्र वाले भविष्‍य के विज्ञापनों की चापलूसी में 15 दिसम्‍बर से लगातार 2 जनवरी  तक  शहीदों के नामों का उल्‍लेख कर रहे हैं पर मुस्किल यह है कि इस पब्लिसिटी से मुफ्तिया फोन किसे किया जाय यह पता चल रहा है । फोन रिसीव करने वाले की स्थिति भय गति सांप छुछंदर केरी की तरह उगलत बनत न खात घनेरी  की होती है जो पूरे साल बनी ही रहती है । और तब 'गधा जब धांस से दोस्‍ती कर लेगा तो खायेगा क्‍या' मुहावरे का अर्थ भी समझ में आ जाता है । सुनने में आया है कि फोन रिसीव करने वाला अब नये साल के आयोजनों का घोर विरोधी हो गया है ।

बहरहाल, बाकी सब ठीक है, 

आप सभी को अंग्रेजी नये वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं सहित .....

संजीव तिवारी

नहीं बिखरा, अधिक निखरा, बस सघन हूं मैं .....

शब्‍द तो सभी बोलते हैं
छापते हैं
मूल्‍यवान होते हैं
शब्‍दकोश में तो
शब्‍दों की सर्वाधिक
भीड ही होती है
लेकिन कवि के द्वारा
प्रयुक्‍त कविता के शब्‍द
कुछ भिन्‍न ही हुआ करते हैं
क्‍योंकि समय आने पर
कवि तो मर जाता है
परन्‍तु कविता के शब्‍द
अनन्‍त काल तक
मुखर बने रहते हैं ।
नारायण लाल परमार
01.01.1927 - 27.04.2003
कोई अफसोस नहीं बीत गई रात का 
मुझको विश्‍वास बहुत इस नये प्रभात का 
गत पांच दशकों में हिन्‍दी गीत की परम्‍पराओं के साथ समकालीन भावबोध का कुशल संयोजन करके अपार सफलता एवं प्रतिष्‍ठा अर्जित करने वाले प्रदेश के वरिष्‍ठ गीतकार आदरणीय स्‍व.नारायण लाल परमार जी को नमन, वंदन ... श्रद्धासुमन  ..
संजीव तिवारी

लेबल

संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...