यह लोककथा छत्तीसगढ़ में कही जाती है।
एक राजा था। (लोक में बड़ा जमीदार भी राजा ही होता है।) नौकरों या सेवकों की नियुक्ति वह अपने शर्तों पर करता था। उसी राज्य में दो भाई रहते थे। वे बहुत गरीब थे। बड़ा भाई बहुत भोला और सीधा-सादा था। लोग उसे सिधवा कहते थे। छोटा भाई बुद्धिमान और चतुर था। वह खड़बाज के नाम से प्रसिद्ध था। बड़ा भाई सिधवा राजा के यहाँ नौकर हो गया। नियुक्ति के समय राजा की शर्तों में ये शर्तें भी थी -
’सुबह-शाम केवल एक-एक पत्तल में, जो पाँच पत्तों का बना होगा, भोजन दिया जायगा। भोजन की मात्रा उतनी ही होगी जितना पत्तल में आ सके। शर्तों का उल्लंघन करने पर या नियत अवधि से पूर्व नौकरी छोड़ने पर चेथी का मांस देना होगा।’
लोक कथाकार कहते हैं - सिधवा को भोजन परोसने के लिए राजा बबूल की पत्तियों से पत्तल बनवाता था। काम बेहिसाब लिया जाता था। जल्द ही बड़ा भाई सिधवा निर्बल और बीमार हो गया। जान है तो जहान है; उसने चेथी का मांस देकर अपनी जान बचाई।
सिधवा किसी तरह घर लौटा। खड़बाज ने बड़े भाई की दुर्गति देखी। राजा के इस अन्याय, छल और धूर्ततापूर्ण व्यवहार के कारण उसका खून खौलने लगा। उसके दिल में प्रतिशोध की आग दहकने लगी। उसे जल्द ही मौका भी मिल गया, जब राजा ने मुनादी कराई कि महल के लिए एक नौकर की सख्त जरूरत है।
राजा ने फिर वही शर्तें रखी जो सिधवा के समय रखी गई थी। खड़बाज ने कहा - महाराज! मेरी भी शर्त है। पत्तल मैं अपनी इच्छानुसार बनाऊँगा और भोजन मेरी रूचि का होना चाहिए। राजा को नौकर की सख्त जरूरत थी। उसने शर्तें मान ली।
भोजन के लिए खड़बाज ने पुराइन के पाँच पत्तों को जोड़कर एक पत्तल बनाया। पुराइन का पत्ता अपने आप में ही एक पत्तल के आकार का होता है। पाँच पत्तों को जोड़कर बनाये गए उस पत्तल का आकार बहुत बड़ा था। उसने पत्तल भरकर भोजन लिया। जितना खा सकता था खाया, बाकी को जनवरों के आगे डाल दिया। इससे किसी शर्त का उल्लंघन नहीं होता था, अतः राजा इसका विरोध नहीं कर सका। शर्त में काम के बारे में भी कुछ नहीं कहा गया था; अतः खड़बाज हर काम अपनी मर्जी से करता था। भरपेट खाता और चैन की नींद सोता था। खड़बाज की हरकतों से राजा को कई तरह से नुकसान होने लगी। राजा अब और अधिक नुकसान सहने की स्थिति में नहीं था लेकिन वह कर भी क्या सकता था? खड़बाज को नौकरी से हटाने का मतलब अपने चेथी का मांस देना था।
खड़बाज की हरकतों से राजा को अपार जन-धन की हानि होती है। उसकी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान धूमिल होता है। पर खड़बाज को नौकरी से हटाने का मतलब था अपने चेथी का मांस देना। राजा के लिए ऐसा करना संभव न था।
राजा अब खड़बाज के नाम से थर्राने लगा था। अंततः वह रानी सहित गुप्त रूप से अपनी बेटी के घर पलायन करने की योजना बनाता है। खड़बाज को राजा की योजना का पता चल जाता है और वह उस झांपी के अंदर छिपकर बैठ जाता है जिसे रानी ने यात्रा के लिए जरूरी सामानों के साथ तैयार किया था।
बेटी के घर पहुँचकर भी खड़बाज की हरकते जारी रहती हैं। अंत में बेटी की समझाइश पर राजा अपने चेथी का मांस देकर खड़बाज से छुटकारा पाता है।
0
इस लोककथा में राजा को सताने और उसका नुकसान करने के लिए खड़बाज कई तरह के मनोरंजक और हास्यास्पद काम करता है। बहुत सी हरकतें जुगुप्सा पैदा करने वाली भी होती है। उनकी हरकतों से खूब हास्य पैदा होता है। राजा की बेबसता और उनका मानमर्दन होने से श्रोताओं की आत्मतुष्टि होती है। उनका खूब मनोरंजन होता है। खड़बाज श्रोताओं की कल्पना का नायक बन जाता है। लोक कथाकार अपनी कल्पना से इन हरकतों का सृजन करता है। इस समय खड़बाज स्वयं लोक कथाकार के अंदर साकार हो उठता है और दोनों में तादात्म्य स्थापित हो जाता है।
निहित लोक प्रतिकार और लोकप्रतिरोध के स्वर को स्वयं शोषक भी नहीं समझ पाता है। यही यह लोककथा केवल हास्य और मनोरंजन के लिए ही नहीं रची गई होगी। इसकी रचना शोषण और अपमान से ग्रस्त किसी खड़बाज ने ही शोषकों के विरूद्ध अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए किया होगा। समाज के ऐसे सारे खड़बाज अपनी परिथितिजन्य असहायता और मजबूरी की वजह से शोषकों के विरूद्ध प्रत्यक्ष लड़ाई लड़ने की स्थिति में नहीं होते हैं। विकल्पहीन खड़बाजों के लिए अपने मन की पीड़ा, प्रतिरोध और प्रतिशोध को व्यक्त करने के लिए लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं के अलावा और क्या बचता है? वे इसी का आश्रय लेते है। यही लोक का प्रतिरोध है, लोक प्रतिरोध के स्वर हैं। लोक प्रतिरोध के लिए लोकसाहित्य में रची गई घटनाएँ और बिंब इतने प्रतीकात्मक और इतने कलात्मक होते हैं कि ये लोककथाएँ (लोकसाहित्य) शोषकों के बीच भी उतने ही लोकप्रिय होते हैं। इन लोककथाओं का श्रवण अथवा कथन करते समय स्वयं शोषक वर्ग भी हास्य और मनोरंजन से सराबोर हो जाता है। ऐसे लोकसाहित्य का रसास्वादन करते हुए इसलोक के प्रतिरोध और प्रतिकार की सफलता है। ऊपरी तौर पर ऐसे लोक साहित्यों का प्रमुख लक्ष्य केवल मनोरंजन ही प्रतीत होता है। ऐसा प्रतीत होना लोकसाहित्य, असकी भाषा और उसकी शैली का चमत्कार नहीं तो और कया है? जरूर इसे लोक का निष्क्रिय प्रतिरोध ही माना जायेगा, पर लोक के इस प्रतिरोध को खारिज कर पाना संभव नहीं है।
आदरणीय विज्ञजन! इसी तरह का कोई और लोक साहित्य आपके पास, आपके आस-पास भी उपलब्ध हागा। साकेत साहित्य परिषद सुरगी आपसे विनम्र अनुरोध करता है कि इसका संकलन कर आप हमें निम्न पते पर प्रेषित करें। ’साकेत स्मारिका 2015’ का प्रकाशन (संभवतः फरवरी-मार्च 2015) में किया जायेगा।
रचना इस पते पर भेजें - kubersinghsahu@gmail.com
’साकेत स्मारिका’ पूर्णतः अव्यवसायिक पत्रिका है अतः इसकी प्रकाशित प्रति के अलावा अन्य पारिश्रमिक देना संभव नहीं होगा।
निवेदक
कुबेर
संरक्षक,साकेत साहित्य परिषद सुरगी, जिला राजनांदगाँव.