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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

चांपा-जांजगीर साहित्य महोत्सव

          विनोद साव राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, दिल्ली के संपादक ललित लालित्य ने कुछ महीनों पहले मुझसे छत्तीसगढ़ के कुछ साहित्यकारों के नाम पते पूछे थे. मैंने हर विधा के कुछ कुछ लेखक कवियों के नाम व संपर्क नंबर उन्हें दे दिए थे. इसका नतीजा दिखा चांपा-जांजगीर साहित्य महोत्सव में जिसका आयोजन वहां २३-२४  फ़रवरी को रखा गया था. दुर्ग से मैं और भिलाई से लोकबाबू दोनों ही कार्यक्रम में शामिल होने साथ ही निकल पड़े थे. रवि श्रीवास्तव और विद्या गुप्ता दूसरे दिन पहुंचे. शब्द के साथ इंटरनेट की चुनौतियों पर बोलने के लिए संजीव तिवारी पहले दिन के सत्र में शामिल हुए थे.  कथाकार लोकबाबू के साथ यह पहली यात्रा थी. सीधे सपाट रास्ते पर वे टेढ़ी-मेढ़ी बातों से चुटकियाँ लेते रहे. हम आजाद हिन्द एक्सप्रेस में थे जो जांजगीर आने पर नहीं रूकती और दस कि.मी.बाद चांपा-जक्शन पर जाकर रूकी. हम ऑटो करके फिर पीछे की ओर जांजगीर आए. जांजगीर के स्टेशन का नाम नैला-जांजगीर है. चांपा-नैला-जांजगीर ये तीनों कस्बे मिलकर सड़क के किनारे किनारे एक लंबे फैले पसरे शहर में तब्दील हो गए हैं जिसका जिला मुख्यालय जांजगीर है. अपने पुरातात्विक

जो जमीन सरकारी है वह जमीन हमारी है

छत्तीसगढ़ के किसी भी गांव में चले जाईये वहां आपको सरकारी जमीन में "अवैध कब्‍जा" नजर आयेगा। गांव की सरकारी जमीन जिसे आम बोलचाल की भाषा में 'घास जमीन' कहा जाता है उसके अधिकांश हिस्‍से को गांव के लोगों ने कब्जा किया है। वे उस पर "मालिकाना हक" की तरह कृषि कार्य कर रहे हैं, गांव में "निस्‍तार भूमि" की कमी हो गई है इससे उन्‍हें कोई मतलब नहीं है। गांव की सहज संरचना और पर्यावरणीय संतुलन इन सार्वजनिक/सरकारी भूमियों पर टिकी हुई थी जो अब समाप्‍त हो रही है।   छत्तीसगढ़ भू राजस्व संहिता में गांवों के समुचित निस्तार के लिए "दखल रहित भूमि" को, "निस्तार पत्रक" में अभिलिखित किए जाने का उल्लेख है। गांव में मनुष्य की निस्तारी के लिए भूमि की प्रतिशतता भी निश्चित की गई है कि कितने जमीन पर चारागाह होगा, कितने जमीन पर गौठान, कितने में मरघट आदि सार्वजनिक उपयोग के लिए खाली स्थान होगा। यह भी प्रावधान है कि जब गांव में इस निस्तारी की भूमि अधिक हो और गांव के भूमिहीन कृषकों को इसकी आवश्यकता हो, तो राजस्व अधिनियम के तहत विकास खंड अधिकारी के द्वारा उन न