संतोष झांझी की कहानी : आश्रम

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‘जी कुल अडतीस लोग हैं’ , थर्टी एट औरत मर्द मिलाकर, बाकी चार पांच स्टाफ के लोग हैं खिदमतगार ...
स्कूल की घंटी की तरह थाली पर चम्मच बजने की आवाज़ आने लगी | दोपहर के अढाई बज रहे थे | खाना खाकर शायद कुछ लोग अपने अपने वार्ड में आराम कर रहे थे, बाहर दो चार लोग धुप सेंक रहे थे |
घंटी की आवाज़ से धीरे धीरे कदम रखते निर्विकार और पथराये चेहरे हाल में एकत्र होने लगे | कुछ औरतें और मर्द नीचे दरी पर बैठ गए | जो घुटनों और कमर दर्द के कारन नीचे नहीं बैठ पाए वो वहीँ रखी प्लास्टिक की कुर्सियों पर यंत्रवत बैठ गए | किसी के भी चेहरे पर कोई उत्सुकता नहीं थी | उन सब के लिए यह सब कोई नइ बात भी नहीं थी | प्रायः समाज सेवी कहलाने वाली संस्थाएं आये दिन यह सारे दिखावे के कार्यक्रम करती ही रहती थी | बुरा मत मानियेगा यह सब एक दिखावा ही तो है | कोई उनकी कहानी, उनकी आपबीती दुःख-दर्द , उनकी जरूरतें नहीं पूछता , बस कम्बल कपडे , खाने पीने का सामान देते हुए उनके साथ खड़े होकर सभी फोटो अवश्य खिंचवाते हैं ताकि पेपरों में छपवाकर वाह वाही लुट सकें |
हमारे क्लब की भी महिलाऐं दो बुलेरो गाड़ियों में भरकर वहाँ कुछ सामान देने और फोटो खिंचवाने पहुँची थी | आउट ऑफ डेट हो चुकी साडियों, ब्लाउज , शाल, स्वेटर, पेंट, शर्ट, कुर्तें पाजामें के साथ साथ पुरानी आर्टिफिशयल ज्वेलरी ..चुद्दियाँ, कंगन, अंगूठी, हार और पुरानें पर्स तक महिलाएं बाँटने के लिए अपने घर से बटोर लाइ थीं | कई मार्मिक और हास्यास्पद दृश्य भी नज़र आये | सामान देने के लिए हाँथ बड़े , सामान लेने के लिए भी हाँथ बड़े ..पर जब तक कैमरे की आँख ने वह सारा दृश्य कैमरे में कैद नहीं कर लिया ..हाँथ बड़े रहे , पर उन हांथों को सामान फोटो खिंच जानें के बाद ही प्राप्त हुआ |

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प्लास्टिक की छोटी छोटी कटोरियों में सब को खीर बांटी गई , डिस्पोज़ल प्लेटों में एक एक मठरी, दो बिस्कुट, मुरकु और केला दिया गया | दांतों से परेशान उम्रदराज़ कुछ लोग मठरी, मुरकु और चाकलेट से जूझते नज़र आये |
सामान बांटने की जद्दोजहद से दूर मैं कुछ महिलाओं से एक तरफ बैठकर धीरे धीरे बात कर रही थी | उन सब का वृधाश्रम में होना ही यह दर्शाता था की रिश्तों की गर्माहट और संवेदना किस कदर मर चुकी है | गुमसुम उदास बैठी एक महिला पर नज़र पड़ी ..वह अन्य औरतों से कम उम्र नज़र आ रही थी | मिले हुए सामान को गोद में रखे वह इन सब चीजों से उदासीन सी बैठी थी | चालीस – पैंतालीस की उम्र में वृधाश्रम आने का कारण जानना चाहा | वह चुपचाप मेरी तरफ देखती रही फिर बोली....
- क्या करती ? बेटा बहु घर से किनारा कर अलग हो गए, पर हम दोनों पति-पत्नी एक दूसरे का सहारा बने हुए थे | एक दिन वह सहारा भी छीन गया | पति दूसरी औरत लेकर चार आ गया | मैं वह भी सह गई पर उसने मुझे पकड़कर घर से बाहर कर दिया | बस....केवल पहननें के कपडे ही थे मेरे पास | रहनें का कोई ठिकाना नहीं था बाहर नोचने खसोटने के लिए लोग तैयार बैठे थे | क्या करती ? अकेली औरतजात ...अपने को बचाने के लिए यहाँ आ गई | यहाँ खाना बना देती हूँ | शायद कभी बेटे बहु को या मेरे आदमी को ही मेरा ख्याल आ जाए....
- ‘सुनिए मैडम’ ... मैं पलटी , एक करीब सत्तर साल की महिला हाँथ में साडी लिए खड़ी थी | 
- जी माफ करियेगा यह साडी...पु...पुरानी है...मैं इसे पहन नहीं पाउंगी | अगर कोई नई साडी हो तो..नहीं भी होगी तो कोई बात नहीं...अभी आठ दस साडियां हैं मेरे पास, काम चल जाएगा |
-आप कहाँ से हैं ?
-‘यहीं’ दुर्ग की हूँ | बाल-बच्चे नहीं हैं..पति गुज़रे तो यहीं एक हमारे दूर के रिश्तेदार थे जो हमें बाहर मान-सम्मान देते थे | उनके कहने पर मैं उनके परिवार के साथ रहने लगी | सोचा था उनके सहारे जीवन के शेष दिन निकल जायेंगे और अपना मकान मैं उनके नाम लिख दूंगी, पर...उन्हें तो जल्दी थी, धोखे से मेरा मकान अपने नाम लिखवा लिया और मुझे घर से बाहर निकाल दिया |
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-मेडम एक औरत उधर वार्ड नंबर दो में भी है | वो ज़रा पैरों से लाचार है यहाँ तक चलकर आ नहीं सकती | आप लोगो को ही वहाँ उनके पास जाना होगा |
माइक पर क्लब की महिलाओं ने वहाँ के सभी बुजुर्गों को सम्बोधित किया | नेताओं की तरह कुछ आश्वासन भी परोसे गए | आपमें से कोई गीत भजन गा सके तो माइक पर आ जाए |कोई नहीं आया, उन पथराये चेहरों में केवल चीखें और रुदन का समंदर ठाठें मार रहा था | वहाँ कोमल सुरों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी | मैनेजर नें आवाज़ लगाई – ‘आओ आ जाओ मालती | दो चार महिलाओं ने भी मालती को झिन्झोड़ कर माइक की ओर धकेला | 
एक रटा रटाया गीत जो शायद उसे एसे ही अवसरों पर आने वालों के सामनें गवाया जाता होगा | ‘ रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीता राम ‘ | मैं समझनें का प्रयास कर रही थी, यह गीत है या रुदन ? 
वृधाश्रम से उन्हें भोजन और छत उपलब्ध थी | भोजन का इंतज़ाम कई दानदाता हर माह राशन भेजकर कर रहे थे पर बीमार होनें पर दवा का इंतज़ाम कौन कर ? उसके लिए सरकारी अस्पताल में जाना होता था | नहाने कपडे धोने के साबुन तेल मंजन के लिए पैसे कहाँ से आये ? यह तो रोज की ज़रूरतें थी |
हम सभी वार्ड नंबर दो की तरफ बड़े | बाहर की चटख धुप से हम जब हाल में पहुंचे तो अंदर कुछ देर तक अँधेरा महसूस हुआ | हाल के कोने में लोहे के पलंग पर पाँव लटकाए चेहरे से सभ्रांत, भरे भरे गोल गोरे चेहरे वाली सुदर्शन महिला बैठी थी | मछार्दानी को आधा ऊपर लटका    दिया गया था | उसके जिस्म पर एक अच्छी नाइटी थी | चादर भी दूसरे पलंगों से अच्छी थी | तकिये भी एक की बजाये तीन थे | कम्बल भी वृधाश्रम के एक की बजाए तीन थे | कम्बल भी वृधाश्रम के कम्बलों जैसा रफ नहीं था | अच्छा कीमती फर का कम्बल था | नाक में चमकती कील, गले में पतली छोटी सी चेन, अंगुली में पुखराज की अंगूठी, हाथों में दो चूडियाँ, शायद सोने की ही होगी | आजकल असली नकली की पहचान करना कठिन हो गया है | उनके पलंग के पास वाकर पड़ी थी जिसके सहारे वे थोडा बहुत चल फिर लेती थी | पलंग के नीचे दो सूटकेस रखे थे एक वी.आई.पी. दूसरा ट्राली बैग | पास रखे टेबल पर कुछ फल, बिस्कुट के पैकेट, गिलास, प्लेट, चम्मच और एक कीमती थर्मस भी रखा था |  
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- ‘आप वहाँ हाल में नहीं आए तो हम आपसे यहीं मिलने आ गए’ | 
- ‘ वाकर के सहारे थोडा धीरे धीरे बाथरूम वगेरा जा पाती हूँ’ | ये दो तीन लेडिस इसमें मेरी हेल्प कर देती हैं | बदले में मैं भी इनकी थोड़ी मदद कर देती हूँ | आप तो जानती ही हैं आजकल गिव एंड टेक का ज़माना है |
बातों से वो पड़ी लिखी अच्छे घर की लग रही थी | सारी महिलाएं उनको देखकर इतनी प्रभावित थी की उन्होंने आपने बैग से उनके लिए रखा नाश्ता बाहर नहीं निकाला |
- ‘आप कहाँ से हैं ? वे कुछ देर चुप रही फिर लंबी सांस लेकर बोली – ‘ मैं झाँसी की हूँ | वहाँ के गवर्नमेंट हाई स्कूल में एच.ओ.डी. थी | दोनों पति-पत्नी रिटायरमेंट के बाद यहाँ आ गए | यहाँ आने के पांच साल बाद उनका देहांत हो गया | अब मैं हूँ बस....
- ‘बच्चे नहीं हैं’ ?
- ‘ हैं...बेटी आस्ट्रेलिया में है | हमदोनों को वह ले जा नहीं सकी | बेटा है...जब तक उसके पापा ज़िंदा थे हर दो महीने में मिलने आ जाता था | तेरह साल हो गए उन्हें गए तब से अब तक नहीं आया न ही कभी कुछ खबर ली | बेटी हमें आस्ट्रेलिया में रख नहीं सकती |बस मेरे बैंक खाते में पैसे डालती रहती है...बस चल रहा है जीवन....उन पैसों से और इन सब की मदद से |
गालों तक बह आये आंसुओं को मुस्कराते हुए पोंछकर बोली | ऑफिस तक जाकर अब उसका फोन नहीं उठा पाती तो बेटी ने यह मोबाईल भेजा है | हफ्ते में एक बार फोन ज़रूर करती है | उन्होंने तकिये के नीचे से टटोलकर मोबाईल उठाकर दिखाया |
मैं जब से अंदर आई थी मेरी आँखे उनके चेहरे पर गड़ी थी | जब वो आंसू पोछते हुए मुस्कराई मेरे मन में एक बिजली सी कौंधी.. यह चेहरा, यह मुस्कुराहट...मैंने कहाँ देखी है ? कब देखी है ? क्या मैंने पहले कभी इन्हें देखा है ?
- कुछ वृधाश्रम इसे भी हैं जहां आप अलग कमरे में मनचाही सुविधाएँ लेकर रेंट पर रह सकती हैं | वहाँ केंटीन की सुविधा है जहां पेमेंट कर अच्छा खाना खा सकती हैं | वह आपके लिए अधिक अच्छा रहेगा |
- पहले यहाँ ऐसे वृधाश्रम नहीं थे जहां आप पेमेंट करके रह सको | अब हैं ज़रूर पर मुझे वहाँ अपने कमरे में अकेले रहना होगा | यहाँ इस हाल में बारह पलंग हैं | रात बेरात 
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- ज़रा सी परेशानी हो, सबकी हेल्प मिल जाती है | वैसे भी अब यहाँ रहते एक युग बीत गया है पता नहीं कितनें दिन और बचे हैं | अब कहीं और जाकर क्या होगा ? मैं यहीं ठीक हूँ... 
भीगे मन और भरे गले से हम लौटे पर वो सुन्दर सुदर्शन चेहरा दिल दिमाग पर दस्तक देता रहा...कहाँ देखा है उन्हें ? कब देखा है ?
समय के साथ सब धुंधला जाता है पर कभी कभार दिल-दिमाग में कुछ बातें क्लिक करती रहती हैं | यादें धुंधली भले ही हो जाएँ पर समाप्त नहीं होती | वैसे ही कुछ मेरे साथ भी हुआ | मैं धीरे-धीरे वृधाश्रम के उस विजिट से उबर गई |
हम छुट्टियों में बच्चों को लेकर कहीं बाहर जानें का प्रोग्राम बना रहे थे | बच्चे इस बार ननिहाल और ददिहाल जाने की बजाये कहीं और जाना चाहते थे | तभी पतिदेव के एक जिगरी दोस्त का फोन भोपाल से आ गया |
- यार, श्रुति ने दिल्ली में अपने क्लासमेट लड़के को पसंद किया है | दोनों वहाँ दिल्ली में एक ही कंपनी में जाब करते हैं | मुझे दिल्ली और दिल्ली वालों की अधिक जानकारी नहीं है | तुम दिल्ली के हो तुम भाभी और बच्चों के साथ आ जाओ तो वहाँ कैसे क्या करना है, कौन सा होटल बुक करना है जहां इंगेजमेंट और पार्टी की बढिया सुविधा हो | तुम्हे तो पता है मैं इन सब कामों में हमेशा से ही अनाड़ी हूँ | 
अब हमारा प्रोग्राम थोडा बदल गया | तय हुआ दिल्ली में श्रुति की इंगेजमेंट अटेंड करने के बाद हम वहीँ से मसूरी चल देंगे और दिल्ली में हम दोनों अपने पेरेंट्स से भी मिल लेंगे | 
मिस्टर कुमार इनके क्लासमेट रहे थे | दोनों को नोकरी भले ही अलग-अलग कंपनी और अलग शहर में मिली हो, पर पहले पहल पत्रों से और अब मोबाइल से दोनों जुड़े हुए थे | इस बार करीब आठ साल बाद हम लोग मिल रहे थे | 
दिल्ली स्टेशन पर स्वागत के लिए कुमार साहब उपस्थित थे | तीन दिन के अंदर ही पूरी व्यवस्था की गई | जब की इतने कम समय में होटल बुकिंग करना आसान नहीं था | श्रुति बार बार अपने मम्मी पापा से कह रही थी...’बुआ और फूफा तो चलो एकदम से विदेश से आ नहीं सकेंगे, वो शादी में आ जायेंगे ...पर दादी...? दादी क्यों नहीं आ रही 
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? यहीं हरिद्वार में तो है दादी, स्वामी जी के आश्रम में | प्लीज़ अंकल आप या पापा उन्हें जाकर ले आइये | 
मुझे याद आया आठ वर्ष पहले भी जब हम आये थे तब भी हमें यही बताया गया था..’अम्मा तो स्वामी जी के आश्रम में गई है’...तो क्या वो तब से अब तक वहीँ हैं? या बीच बीच में आती जाती रहती हैं | मुझे एक अजीब सी बेचैनी और हैरत हो रही थी |
कुमार साहब इधर उधर फोन लगा रहे थे हो सकता है फोन लगाने का नाटक चल रहा हो | थोड़ी ही देर में श्रुति से बोले..’बेटा तुम्हारी दादी हरिद्वार वाले आश्रम में नहीं हैं वो तो स्वामी जी के डलहौजी वाले आश्रम में गई है | वहाँ कोई उत्सव चल रहा है | वहाँ से हम चाहें भी तो उन्हें इतनी जल्दी ला नहीं सकते |
इकलौती लाडली बेटी श्रुति एकदम आपे से बाहर हो गई...’पापा ऐसा भी क्या आश्रम का मोह ? की बरसों से वहीँ पड़ी हैं | संजीव के कितने रिश्तेदार हैं | सब के सब आ रहे हैं | यहाँ गिने चुने बुआ फूफा है और एक दादी, वो भी नहीं आ रहे | मुझे तो शर्म आ रही है क्या सोचेंगे संजीव | आप और मम्मी कभी किसी रिश्तेदारी में गए ही नहीं न कभी किसी को बुलाया, तो अब आपकी बेटी के फंक्शन में आएगा भी कौन ? हुंह...आप और आपका ऑफिसर्स क्लब ...आप लोगों से दूर दिल्ली में रहकर बहुत खुश हूँ मैं | कितना अपनापन है यहाँ...’
बरसों से स्वामी जी के आश्रम में पड़ी हैं | श्रुति की कही इस बात से मेरे अंदर जैसे कुछ जागने लगा | मैं कभी श्रुति का चेहरा पड़ती, कभी मिस्टर कुमार को ध्यान से देखती | मुझे वृधाश्रम में मिली उस सभ्रांत महिला का चेहरा याद आने लगा | मैंने अँधेरे में एक तीर छोड़ा....उदास मत हो श्रुति बेटा.. पुराने विचारों के कम पड़े लिखे बुज़ुर्ग इन आश्रमों और संतो के पीछे इतने डूब जाते हैं की बच्चों को तो दुखी करते ही हैं खुद भी वहाँ परेशान रहते हैं |
मैंने अपनी बात का असर जानने के लिए श्रुति की तरफ देखा | श्रुति ने अपने आंसू पोछकर कहा...’नहीं आंटी मुझे भी तो यही हैरानी है, मेरी दादी पड़ी लिखी है, गवर्नमेंट हाईस्कूल में हैड ऑफ दा डिपार्टमेंट रही हैं’ |
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मेरा शक सच निकला | अफ़सोस तो इस बात का था की मैंने उस महिला का नाम नहीं पूछा था |
- झाँसी में पढाती थी न आपकी दादी ?
- हाँ आंटी 
श्रुति के जीवन की इतनी बड़ी खुशी में मैं उसके मम्मी पापा की ओछी हरकत के बारे में अभी उसे बताकर दुखी नहीं करना चाहती थी | इसलिए उस वक्त चुप रही | वृधाश्रम में मिली उस सुदर्शन महिला से उनके बेटे मिस्टर कुमार का चेहरा और मुस्कराहट मिलती थी | इसलिए मुझे वो चेहरा इतना परिचित लग रहा था |
इंगेजमेंट में श्रुति को शगुन का जो लिफाफा हमने दिया उसमें एक छोटी सी स्लिप में वृधाश्रम का पता और उसकी दादी का मोबाइल नम्बर लिखकर हमने लिफाफा बंद कर दिया...’ श्रुति यह लिफाफा एकांत में केवल तुम खोलना ‘ |
- पर आंटी इसमें ऐसा क्या दिया है आपने ?...आंटी कुछ तो कहिये...
मैंने श्रुति की आवाज़ सुनकर भी अनसुनी कर दी | हमारा सामान तैयार था | टेक्सी बाहर खडी थी | हम अपनी मम्मी से मिलने चल दिए | हमें पता था कुमार परिवार से यह हमारी अंतिम मुलाक़ात है | मैंने उनका पर्दाफाश कर बुराई मोल ले ली थी | मैं संतुष्ट थी, श्रुति को मैंने उसकी दादी का पता देकर अपना कर्तव्य पूरा किया |
शायद श्रुति कभी अपनी दादी से मिलने या शादी में उन्हें बुलाने के लिए सोचेगी या यह भी हो सकता है.. वह भी अपने माता-पिता की तरह उनसे अनजान बनी रहेगी, यह मैं नहीं जानती |

लेखिका  
श्रीमती संतोष झांजी 
डी-7, सड़क-12, आशीष नगर (पश्चिम)
रिसाली , भिलाई (छ.ग.)
मोबाईल : 9300211143/9770336177


श्रीमती संतोष झांझी ने सबसे पहले अपनी पहचान कवि सम्मेलन के मंच से बनाई थी। पंजाबी मूल की कोलकाता में पली-बढ़ी संतोष झांझी विवाह के बाद भिलाई आईं और वह उनका घर बनना ही था। अपने शिष्ट शालीन गीतों व सुमधुर कंठ के चलते संतोष जी ने अच्छी खासी लोकप्रियता बटोरी। उन्होंने एक छत्तीसगढ़ फिल्म में अभिनय भी किया, लेकिन कालांतर में वे गद्य लेखन की ओर प्रवृत्त हुई। उन्होंने बहुत प्यारे यात्रा-वृत्तांत लिखे, जिनमें एक सैलानी की सजग दृष्टि दिखाई देती है। उन्होंने इसके पहले दो उपन्यास लिखे और चार कहानी संग्रह जो उनकी गहन अंतर्दृष्टि व सामाजिक सरोकारों का परिचय देते हैं। - ललित सुरजन 

सीजी में अमन चैन है

केंद्र सरकार ने बड़े अफसरों को संपत्ति का व्यौरा देने से छूट दे दिया। बिरोधी लोगों को छत्तीसगढ़ में भी आंच जनाने लगा, फटा-फट विज्ञप्ति जारी होने लगे।यह जानते हुए भी कि बड़े अफसर इतने चूतिया नहीं हैं। वे संपत्ति अपने नाम पर नहीं ख़रीदते, अपने दोस्त - रिश्तेदारों के नाम खरीदते हैं। नगदी बिल्डरों के यहाँ खपाते हैं, नोटबंदी के बाद बेकार हुए नोटों से आग तापते हैं और सब कुछ छुपाते हैं।
ये अलग बात है के लुकाने-छुपाने के बावजूद साहेब के घर-आफिस में कोई डायपर पहनाने वाला भी होता है जिसके सहारे पावर गेम को न्यूज मिलते रहता है और तमंचा को भी पता चल जाता है कि फलां प्राधिकरण के बड़े अफसर ने अपनी बहन के नाम से नया रायपुर के आसपास भारी मात्रा में जमीन ख़रीदा है.. या फलां जिले के सूबेदार ने मेटाडोर में पैसा भरकर दिल्ली तरफ भेजा है ब्लाँ.. ब्लाँ।
हमारे जान लेने से साहेब लोगों को कोई फरक नहीं पड़ता, हाँ जे बात तो है भैया, जब से दबंग टाइप मुखिया ने एसीबी का चार्ज सम्हाला है, सबकी फटी हुई है। सभी ने एसीबी से बचे रहने का सुप्पर एंटीवायरस एक्टिव मोड़ में ले लिया है। सिरिफ दो झने का टेंसन है, सीएस और सीएम। क्योंकि ये दोनों रूठे तो अमन (,) चैन से रहने नहीं देंगे।
बहरहाल, अफसर खुश है क्योंकि केंद्र ने उनकी काली कमाई को नजरअंदाज कर दिया है और दोनों टेंसन कैशलेश में बिपतियाये हैं। चैन ही चैन है ... - तमंचा रायपुरी

गूगल बाबा के सुन्‍दर-सुन्‍दर फोंट अब आपके ब्‍लॉग के लिए

गूगल बाबा नें इंटरनेट में हिन्‍दी के प्रचलित फोंट मंगल के अतिरिक्‍त देवनागरी के लगभग 40 सुन्‍दर-सुन्‍दर फोंट हिन्‍दी के पाठकों के लिए प्रस्‍तुत किया है जिसे आप अपनी सुविधानुसार अपने ब्‍लॉग या वेब साईटों में उपयोग कर सकते हैं। इसे आप डाउनलोड करके माईक्रोसाफ्ट वर्ड में भी उपयोग कर सकते हैं। गूगल बाबा के ये फोंट दिखने में बहुत सुन्‍दर हैं जिसे आप गूगल फोंट में यहां देख सकते हैं। इन फोंट से कविता या आलेख की सुन्‍दरता बढ़ जाती है। यदि आप ब्‍लॉग के कंटेंट के अलावा साज-सज्‍जा पर भी ध्‍सरन देते हैं तो यह आपके लिए सहयोगी होगा। मैं नें गूगल फोंट को अपने छत्‍तीसगढ़ी भाषा की वेब मैग्‍जीन गुरतुर गोठ डॉट कॉम पर एक दूसरे फोंट 'टिलाना' प्रयोग किया है। इस ब्‍लॉग के इस पोस्‍ट में मैं 'कलाम' नामक गूगल फोंट का उपयोग कर रहा हूं, यदि आपको यह फोंट स्‍टाईल पसंद है तो आईये इसे आपके ब्‍लॉग पोस्‍टों पर उपयोग करने का सरल तरीका मैं आपको बताता हूं -

गूगल फोंट के साईट पर तकनीकि सक्षम व्‍यक्तियों के लिए ब्‍लॉग या वेब-साईट के हेड खण्‍ड में एवं सीएसएस कोड जोड़ने की विधि बताई गई है जिससे आपके पूरे ब्‍लॉग का फोंट स्‍टाईल बदल सकता है। हम यहां आपको पोस्‍ट में आपके पसंदीदा गूगल फोंट को प्रभावी करने के लिए एक कोड दे रहे हैं।


आप इस कोड को कापी कर लीजिये फिर अपने ब्‍लॉग में जैसे पोस्‍ट कम्‍पोज करते हैं उसी तरह क्रियेट पोस्‍ट में जाईये। वहां कम्‍पोज के स्‍थान पर एचटीएमएल बटन को क्लिक करिये, वहां जो कोड दिया है उसके उपर कापी किए गए कोड को पेस्‍ट कर दीजिये। पेस्‍ट किए गए कोड में जहां 'आपका आलेख' लिखा है उसेे सलेक्‍ट कर अपना पोस्‍ट लिखें और पब्लिश कर देवें। आप देखेंगें कि आपका पोस्‍ट मंगल के पारंपरिक फोंट के स्‍थान पर गूगल के नये स्‍टाईल के फोंट 'कलाम' जैसा दिखने लगेगा जिसका प्रयोग मैंनें इस पोस्‍ट पर किया है। यह ध्‍यान रखें कि पोस्‍ट लिखकर पब्लिश करते तक आप कम्‍पोज टैब ना दबायें। यह जुगाड़, कम्‍पोज को क्लिक करते ही काम करना बंद कर देता है। आप भी इसे उपयोग करें और बताये क्‍या आपको यह पसंद आया।

संतोष झांझी की कहानी : अमानत

मोहनलाल चाय पीते हुए चुपचाप शरद की ओर देख रहे थे, जो पेपर पढऩे में मगन था। डाइनिंग टेबल के पास खड़ी नीलू ऋचा के स्कूल का टिफिन पैक करते हुए देख रही थी कि पापा शरद से कुछ बात करना चाहते हैं। नीलू वहीं से बोली।
-‘कोई बात करनी है पापा, तो कर लीजिये न इतना सोच क्यों रहे हैं?’
मोहनलाल ने खाली कप सामने टेबल पर रख दिया। शरद ने पेपर चेहरे के सामने से हटाकर पापा की ओर देखा- ‘सुबह-सुबह गुरुदयाल सिंह चाचाजी आए थे। कोई खास बात थी?’
-‘हां... वह लाहौर नणकाणा साहब जा रहा है... वही... वही बताने आया था। सिक्खों का पूरा जत्था जा रहा है।’ मोहनलाल कुछ सोचते हुए बोले।
-‘आप भी जाना चाहते हैं? पर आपकी तबीयत तो ठीक नहीं रहती पापा।’
-‘नहीं नहीं.... मैं चाहता था, एक आखिरी कोशिश करके देख लूं। चालीस साल हो गए, अभी तक मैं नाकामयाब रहा।’ तुम्हें भी परेशान कर रखा है मैंने। हमेशा इतने खर्च का बोझ तुम पर डाल देता हूं।
-‘आप ऐसी बातें क्यों करते हैं। मैं भी वही चाहता हूं जा आप चाहते हैं।’
-‘मेरे दिमाग में एक नई योजना आई है।’
-‘बताइये क्या करना है।’
-‘गुरुदयाल लाहौर जा रहा है। मैं चाहता हूं हम कुछ पर्चे छपवाकर उसे दे दें। कुछ तो वह वहां पर बांट देगा और कुछ वहां दीवारों पर लगवा देगा। पता नहीं, मेरा यार साबिर अब तक जिन्दा भी है या नहीं।
-‘पापा, उनका एक बेटा भी था न जाकिर? मेरा उम्र...’
-‘अच्छी याद दिलाई। इश्तहार में उसका नाम भी अवश्य लिखना।’
-‘क्या लिखना है बताइए...’ शरद ने पूछा।
-‘शाम को आफिस से लौटकर लिख लेना। अभी तुम्हें देर हो जाएगी।’
-‘परसों ही जा रहे हैं न चाचाजी?’
-‘हां परसों सुबह-सुबह...’
-‘मैं आज छुट्टी कर लेता हूं। वर्ना इतनी जल्दी इश्तहार छप नहीं पाएगा।’ शरद पैड-और पेन लेकर आ गया-‘हां बताइए पापा क्या लिखना है?’
मोहनलाल लिखवाने लगे-‘साबिर मोहम्मद काजी, जाकिर मोहम्मद काजी, पुरानी गली, अनारकली बाग, लाहौर निवासी अब जहां कहीं भी रहते हों अपने पुराने हिन्दुस्तानी दोस्त मोहनलाल बख्शी से जो लाहौर में उनके पड़ोसी थे। उनसे नीचे लिखे पते पर मिलें या पत्र लिखें और मोहनलाल को उन्होंने जो अपनी अमानत सौंपी थी उसके बारे में जानकारी लेवें।’
-‘नीचे अपना पता लिख देना। गुरुदयाल अभी आएगा लो आ गया गुरुदयाल भी।’
-‘नमस्ते चाचाजी। मैं आज ही यह इश्तहार छपवा कर ले आता हूं। अपकी बहुत मेहरबानी होगी चाचा जी... इन इश्तहारों को वहां की दीवारों पर लगवा देना और बाकी वहां बंटवा देना। पांच हजार छपवा देता हूं।’
गुरुदयाल सिंह ने बैठते हुए कहा -‘ओ तू चिन्ता न कर पुत्तर। मैं एक बार खुद इस पते पर जाकर खोजबीन करके आऊंगा। शायद वहां कोई चालीस साल पुराना बन्दा मिल जावे।’
मोहनलाल ने गदगद होकर कहा-‘सच गुरुदयाल तेरा यह एहसान...’ बीच में ही गुरुदयाल ने टोक दिया-‘एहसान कहकर, शर्मिन्दा न कर यार। तेरे जैसे ईमानदार आदमी के लिए मेरी जान हाजिर है। मैं देख रहा हूं पिछले चालीस सालों से किसी की अमानत की हिफाजत आप जी जान से कर रहे हो। क्या मैं तुम्हारी इतनी छोटी सी मदद नहीं कर सकता?’
गुरुदयाल ने मोहनलाल की पीठ पर हाथ रख दिया। मोहनलाल की आंखें भर आईं-‘गुरुदयाल शायद तुम्हारी दिल से की गई मदद से मेरा दोस्त मुझे मिल ही जाए।’
-‘पता नहीं बख्शीजी वो अमानत इतनी कीमती है भी या नहीं, जिसके लिए तुम अब तक लाखों रुपए तो इश्तहार दे-देकर खर्च कर चुके हो।’
-‘अमानत तो अमानत ही होती है गुरुदयाल। उसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती।’
-‘हां यार बात तो सही है तुम्हारी। किसी भी चीज की कीमत हर पारखी अपने-अपने ढंग से लगाता है। बेटा शरद आज आफिस नहीं गए?’ शरद ने हाथों में पकड़ा कागज दिखाकर कहा-‘पहले यह इश्तहार छपने के लिए दे देता हूं।’
-‘यह मुझे दो मेरे दोस्त की प्रेस में मैं जल्दी छपवा दूंगा। तुम आफिस जाओ।’
शरद ने कागज गुरुदयाल को थमा दिया और खुद आफिस के लिए तैयार होने चला गया। जाते-जाते रास्ते में गुरुदयाल सोच रहा था। एक यह बख्शी है जो पिछले चालीस सालों से अपने मुसलमान दोस्त की अमानत संभाले बैठा है और उसे तलाश रहा है और एक हम लोग हैं जो अपने ही हिन्दू भाईयों की गर्दन काट रहे हैं। यह क्या हो रहा अपने देश में? जिन्होंने गुरुवाणी को नहीं समझा, वहीं चन्द नशाखोर, दौलत के भूखे लोग दिलों में जहर भर रहे हैं। कमान तो विदेशों में बैठे चन्द लोगों ने संभाल रखी है। देश और कौम से इतना प्यार था तो विदेशी जूठन खाने क्यों चले गए? उनका भी हाईकमान है, उनका आका अमेरिका। गुरुदयाल आजकल गुरुद्वारे इसीलिए नहीं जाते। घर में ही गुरुद्वारा बना लिया है। वहीं गुरुग्रंथ साहब का सुखमनी का पाठ करते हैं। मन ही मन उन्होंने कसम खा रखी है कि जब तक हिन्दू सिख फिर से एक नहीं हो जाते वो गुरुद्वारे नहीं जाएंगे। सरदारनी की जिद और रोना-धोना देखकर ही वो नणकाणा साहिब जाने को तैयार हुए हैं। अब उन्हें लग रहा है उन्होंने जाने का फैसला करके अच्छा ही किया। सरदारनी भी खुश, दर्शन लाभ भी होगा और अगर बख्शी के दोस्त की तलाश कर पाया तो यह बहुत बड़े सबब का काम होगा।
रात दूध का गिलास थामे नीलू कमरे में आई तो शरद आफिस की फाइलें लेकर एक तरफ रख दी-‘ अब बस दूध पी लो।’ फिर कुछ सोचते हुए बोली-‘आजकल पापा बहुत उदास रहते हैं न? भगवान करें उनका वो दोस्त उन्हें जल्दी मिल जाए।’
-‘कुछ निराश से हो गए हैं। चालीस साल से कोशिश करते-करते अब तक कोई नतीजा नहीं निकला।’
-‘पता नहीं पापा वो अमानत कहां संभालकर रखते होंगे? क्या तुमने भी कभी नहीं देखा?’
-‘क्या?’ शरद ने गिलास थमाते हुए कहा।
-‘उस अमानत को।’ नीलू ने शरद के चेहरे पर नजरें टिका दी।
-‘मैंने? हां-हां, नहीं-नहीं देखा।’ शरद लडख़ड़ाया।
-‘मम्मी’ को भी मरते दम तक उस अमानत के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। उन्होंने कभी पापा से जिद नहीं की होगी। नहीं तो उन्हें बताना ही पड़ता। औरत की जिद के आगे किसी की नहीं चलती। नीलू ऐंठ से बोली। शरद हंस दिया। लेटते हुए बोला- ‘तो अब तुम पता कर लो।’
-‘पापा से कैसे जिद करूं? हां, अगर तुम्हें पता होता तो जरूर उगलवा लेती।’ शरद हंसता रहा।
-‘हंस क्या रहे हो? सच कह रही हूं।’
-‘हां-हां आप सच ही कह रही हंै।’ शरद बोला।
सुबह-सुबह भोला टेलिग्राम थामे आया।
-‘बाबूजी, जरा पढि़ए तो हमारे नाम से ये तार आया है।’ मोहनलाल ने तत्परता से भोला से टेलिग्राम ले लिया। चश्मा ठीक करते वे जरा घबराए हुए थे। पढक़र हंसते हुए बोले-‘भोला घबरा मत, खुशखबरी है। तेरी बेटी का गौना है। गांव बुलाया है।’ नीलू ने सुना तो चिन्ता से बोली-
-‘दोनों बच्चों के एग्जाम हैं। कैसे चलेगा।’ शायद बोला
-‘बच्चों के एग्जॉम हैं तो क्या भोला को बेटी को गौना रोक देना चाहिए? क्या बात करती हो नीलू तुम भी।’
-‘ठीक है भोला तुम उतने दिन के लिए कोई आदमी तलाश कर दो। यहां तो तुम्हारे गांव के बहुत लोग काम करते हैं। जात वात देख लेना। ऊंची जात का आदमी रखवाना।’ नीलू बोली।
-‘वो तो हम जानते हैं। पहले जात पूछ लूंगा। बाद में काम की बात होगी।’
शरद तीखी नजरों से नीलू को घूरता रहा।
-‘यह इस जमाने में कैसी बात करती हो तुम? तुम्हें कुछ विचित्र नहीं लगता?’ नीलू ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। ऋचा को डांटने लगी।
-‘दोस्ती अलग बात है। जिस दिन मुझे पता चला तुमने नसरीन के साथ लंच लिया है। उस दिन तुम्हारी खैर नहीं, समझी।’ नीलू अंदर चली गई। ऋचा ने शरद की तरफ देखा-‘देखा पापा, कैसी बातें करती हैं मम्मी? कितनी प्यारी है नसरीन, कितनी हैल्पिंग। कैसे छोड़ दूं मैं उसे?’
शरद ने ऋचा को प्यार से थपथपाया-‘मैं समझाऊंगा। तुम स्कूल जाओ।’
-‘कुछ नहीं हो सकता उनका... कोई फायदा नहीं पापा।’ ऋचा बड़बड़ाती स्कूल चली गई।
शरद कमरे में पहुंचा तो नीलू कमरा ठीक कर रही थी-‘यह सुबह-सुबह ऋचा का मूड क्यों खराब कर दिया? मैं तो यह सब सह लेता हूं पर बच्चे... उन्हें भी समझना चाहिए। धीरे-धीरे समझ जाएंगे।’
-‘यह क्या बेवकूफी भरी बातें हैं। आफिस से आता हू तो गंगाजल छिडक़ने लगती हो मेरे ऊपर। बच्चे बाहर से खेलकर आएं या स्कूल से फिर वही गंगाजल। आखिर प्राब्लम क्या है तुम्हारी?’
-‘देखिए आफिस में आप जात-कुजात के लोगों के बीच रहते हैं। वैसे ही बच्चे भी पता नहीं किस-किस से टकराते हैं दिन भर। क्या गलत करती हूं गंगाजल छिडक़कर।’
शरद ने हाथ जोड़े-‘बस-बस प्रवचन बंद, आफिस भी जाना है मुझे।’ सर झटककर नीलू जाने लगी तो शरद ने बांह पकड़ ली-‘नीलू कभी तुम्हें मेरी जाति पर तो शंका नहीं होती?’
-‘आपकी जाति पर कैसी शंका? मुझे पता है आप मेरे पापा के स्वर्गीय दोस्त के बेटे हैं जो उच्च कुल के ब्राह्मण थे। जब पाकिस्तान बना उनके सारे परिवार का कत्ल हो गया। तब पापा आपको अपने साथ हिन्दुस्तान ले आये। पढ़ाया-लिखाया और आपको अपना दामाद बना लिया। और क्या कहना है? नीलू ने रूठे अंदाज में पूछा।’
-‘वो मैं कह रहा था अभी तो मैं आफिस नहीं गया। जाने वाला हंू।’
-‘तो?’ नीलू ने हैरानी से शरद को देखा।
-‘अभी मैं बिल्कुल शुद्ध... हूं न? मौका भी है। शरद नीलू की ओर बढ़ा।’
-‘अच्छा तो ये बात है, पर माहौल बिल्कुल नहीं है जनाब।’ हंसते हुए हाथ छुड़ाकर नीलू चली गई। शरद बड़बड़ाया।
-‘कभी माहौल नहीं, कभी मौका नहीं और कभी हम शुद्ध नहीं। हम तो इसी में बर्बाद हैं।’
पाकिस्तान से साबिर मियां का खत आया तो मोहनलाल के पांव खुशी से जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। बार-बार आंखें डबडबा रही थीं। घर में खुशी का माहौल था।
-‘पापा अमानत के नाम पर कोई धोखा तो नहीं होगा?’ नीलू की शंका भी सही थी।
-‘बेटा इश्तहार में हमने अमानत कैसी है क्या है यह तो कहीं लिखा नहीं था। जो आएगा पहले अमानत का नाम बताएगा। तब हम उसे गले लगायेंगे। वैसे भी मैं अपने यार के दस्तखत पहचानता हूं। जब वो आएगा उसे भी पहचान लूंगा।’
-‘अभी कागजी कार्रवाई पूरी होते-होते एक महीना लग जाएगा।’ शरद बोला।
-‘साथ में उनका बेटा जाकिर या पोता रशीद आएगा।’ -‘पापा पर हम उन्हें ठहरायेंगे कहां? घर तो हमारा छोटा है।’ शरद समझ रहा था उसकी जाति पांति की बीमारी।
-‘अरे अपना यार, यहीं ठहरेगा हमारे साथ। इस ड्राइंग रूप में हम चारों सो जाया करेंगे।’ साबिर को तुम्हारी मां के हाथ के आलू के परांठे बहुत पसंद थे। तुम उन्हें वैसे ही परांठे बनाकर खिलाना।’
- ‘जरूर पापा, पर इतनी कम जगह में इतने लोग... उनकी सेवा में कोई कमी न रह जाए।’ कहकर नीलू शरद की ओर देखने लगी।
-‘बड़ा खुशदिल है अपना यार। अब उनके वो पहले जैसे दिन नहीं रहे। बंटवारे के दंगों में उनका सब कुछ लूट गया। इसी गम ने बेचारे को बीमार कर दिया है। छोटे से गांव में रहते हैं आजकल। वह तो अच्छा हुआ जाकिर बेटा शहर पढऩे गया था उसे वह इश्तहार मिल गया। यही दस-पांच दिन रहकर नई-पुरानी यादें ताजा करेंगे बस।’
एकांत मिलते ही शरद ने नीलू को समझाने की कोशिश की-‘देखो, नीलू पापा को यह खुशी बड़े इंतजार के बाद मिली है तुम जरा...’
नीलू ने झट बात काट दी- ‘जनाब, यह मत भूलिए कि वह मेरे पापा हैं। मुझे उनका तुमसे अधिक ख्याल है पर तुम उन लोगों के साथ बैठकर खाना मत खाना।’
-‘तुम्हारी यह बात मैं नहीं मान सकता। बच्चों को भी मना मत करना।’ नीलू के माथे पर चिन्ता से बल पड़ गए।
आखिर वह खुशी का दिन आ ही गया। दोनों दोस्त गले लगकर बड़ी देर तक आंसू बहाते रहे।
- ‘अल्ला मेहरबान था जो तुम सबसे मुलाकात हो गई। वरना उम्र और यह रोगी शरीर अधिक दिन चलने वाला नहीं। मेहरू आखिरी वक्त तक अपनी बच्ची को ही याद करती रही।’ मोहनलाल ने साबिर मियां को तसल्ली देते हुए कहा-‘तुम्हारी भाभी भी आज होतीं तो बहुत खुश होतीं।’
-‘जाकिर की एक बेटी तो एकदम हमारी निलोफर की जैसी है। उसकी पैदाइश के बखत बहू का वही हाल हो गया जो शरद की पैदाइश के बखत भाभीजान का हुआ था। एकदम मरते-मरते बचीं थीं।’
नीलू चाय लेकर आई तो उसने साबिर मियां की बात सुन ली-‘चचाजान लगता है आप कुछ भूल रहे हैं। शरद की पैदाइश के बखत नहीं, मेरी पैदाइश के समय मम्मी मरते-मरते बची होंगी।’
शरद और मोहनलाल ने एक-दूसरे की तरफ देखा पर दोनों चुप रहे। साबिर मियां ही बोले-‘नहीं बेटा, शरद के बखत भाभी की हालत इतनी खराब हो गई थी कि बेटा होने की खुशी भी मोहनलाल छ: महीने के बाद ही मना सका था।’
बात और आगे बढ़ती उसके पहले ही मोहनलाल साबिर मियां को लेकर टहलने निकल गए। उनके जाते ही नीलू ने भोला के साथ मिलकर पूरे घर में गंगाजल का छिडक़ाव करना शुरु कर दिया।
-‘भोला, जरा सावधानी से इन बर्तनों को अलग ही रखना।’
-‘बर्तन अलग रखे से का होगा? बड़ा और छोटा बाबू तो उनका साथ ही भोजन कर रहे हैं न?’
-‘मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता क्या करूं? मेरे गले से तो खाना नहीं उतर रहा।’
-‘मालकिन ऊ साबिर मियां बतात रहे, अपने छोटा बाबू को जाकिर के अम्मी बहुत दिन तक अपना दूध पिलाय रहे। बड़ी इनके जनम के बखत बहुत ही बीमार रहीं।’
नीलू ने जो आधी बात सुनी थी उससे वह परेशान थी। वह दिन भर गुमसुम सी रही। रात को जब शरद बेडरूम में पहुंचे उससे पहले ही वह सोने का बहाना बनाकर पड़ी रही।
सुबह-सुबह साबिर मियां बोले- ‘यार मोहनलाल, हमारे सब्र का का अब और इम्तहान मत लो। हम कल से बेचैन हैं। अब हमारी अमानत से हमें मिला दो।’ अमानत की बात से नीलू के कान खड़े हो गए। वह भी उत्सुक थी कि आखिर वह अमानत है क्या?
-‘तुम अभी तक अपनी अमानत को देख नहीं पाए साबिर?’
-‘नहीं भई, अब दिखा भी दो...।’
तभी नीलू तूफान के तरह अंदर आ गई।
- ‘पापा अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। मुझे क्यों ऐसा लग रहा है जैसे मुझसे कुछ छुपा रहे हैं आप लोग। चचाजान का कहना है शरद आपका बेटा है पर मैं तो बचपन से यही सुन रही हूं कि वह आपके किसी स्वर्गीय दोस्त का बेटा है।
’ साबिर हंसे- ‘दोस्त का बेटा? अरे नहीं बहू, शरद मोहनलाल का ही बेटा है। मैंने झूठ नहीं कहा।’
-‘ठीक है, तो पापा अगर शरद आपके बेटे हैं तो मैं आपकी बेटी कैसे हो सकती हूं।’
शरद बोला -‘मैं बताता हूं।’ मोहनलाल ने हाथ उठाकर शरद को रोक दिया।
-‘ठहरो बेटा, जल्दीबाजी ठीक नहीं। साबिर मियां मैं तो केवल इसलिए जिंदा हूं कि एक बार तुमसे पूछ सकूं कि कहीं मैंने अमानत में खयानत तो नहीं कर दी। नीलू बेटा, तुम सच बात जानकर खुद को अकेली और पराई न समझो, इसीलिए हम हमेशा तुम्हें अपनी बेटी बताते रहे और अपने ही बेटे को दोस्त का बेटा? साबिर, यह नीलू ही तुम्हारी बेटी निलोफर है। तुम्हारी अमानत, मैंने उसे शरद के बराबर ही तालीम दिलवाई है।’ साबिर और जाकिर खुशी से उछल पड़े।
-‘साबिर जब निलोफर जवान हुई और मैं तुम्हें तलाश नहीं पाया तो उसे सुखी और सुरक्षित रखने के लिए मैंने उसे अपनी बहू बना लिया। कहीं मैंने कुछ गलत तो नहीं किया साबिर...’
साबिर की आंखें खुशी से छलक रही थीं। नीलू का चेहरा सफेद पड़ गया। साबिर और जाकिर नीलू के पास आ गए-‘मेरी बच्ची, निलोफर...।’
-‘नहीं... मैं आपकी बेटी नहीं... किस अधिकार से? मुझे दूसरों को सौंप दिया। क्यों? अब देखिए मेरी हालत... मेरे पति हिन्दू और मैं? संस्कार मेरे हिन्दू और मेरा शरीर, खून...मुस्लिम? क्यों किया आप लोगों ने मेरे साथ ऐसा?’
- ‘पहले हमारी पूरी बात सुन लो तब नाराज होना।’ नीलू रोती रही...‘क्या सुनूं? अब सुनने को बचा ही क्या है?’
साबिर मियां ने नीलू के सर पर हाथ फेरा।
-‘बेटी हमने तुम्हें जानबूझ कर मोहनलाल को नहीं सौंपा। हम गुजरावाला में पड़ोसी थे। दोनों घरों में बेटी की कमी थी। जब तू पैदा हुई तो दोनों घरों में खुशियां छा गईं। जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे शुरु हुए, उस समय तू छ: महीने की थी। एक दिन तू मोहनलाल के घर खेल रही थी। तेरी किलकारियां हमें अपने घर तक सुनाई दे रही थीं। तभी अल्ला हो अकबर और हर-हर महादेव के नारे गूंजने लगे। खून-खराबा, चीख-पुकार के बीच मिलिट्री की गाडिय़ों का शोर। हिन्दुओं को वहां से निकालकर हिन्दुस्तान पहुंचाया जा रहा था।’ साबिर की सिसकियां बंध गईं। मोहनलाल ने उन्हें थाम रखा था। जब साबिर का गला रुंध गया, तब मोहनलाल ने बात का छोर पकड़ लिया-‘मैंने झरोखे से आवाज लगाई साबिर निलोफर को संभालो हम जा रहे हैं। तुम्हें साबिर के घर तक पहुंचाना खतरे से खाली नहीं था।’ आखिर साबिर की तड़पती आवाज आई-‘इसे अपने साथ ले जाओ मोहनलाल... मेरी अमानत समझ कर ले जाओ। सभी की जिंदगी खतरे में थी। नहीं तो कोई अपने जिगर के टुकड़े को इस तरह अपने से अलग नहीं करता।’ 
नीलू रोते-रोते साबिर और जाकिर के गले लग गई-‘एक ही जन्म में दो माता-पिता का प्यार भी किस्मत वालों को मिलता है पापा।’ शरद ने उसे संभालने के लिए हाथ बढ़ाया तो नीलू ने झटक दिया।
-‘हटो झूठे कहीं के... तुम्हें सब पता था, पर मुझसे ही छुपाते रहे।’ शरद ने उसे चिढ़ाया- ‘औरत की जिद के आगे किसी की नहीं चलती। यही कहा था न तुमने?’
स्कूल से आकर रजत और ऋचा सब देख-सुन कर दरवाजे में ही अटक गए थे। उन्होंने खुशी में ताली बजाई-‘आज तो मम्मी हार गईं।’ दोनों दौडक़र अपने मामा और नाना से लिपट गए।
(कहानी संग्रह आई लव यू दादी से)
संतोष झांझी


श्रीमती संतोष झांझी ने सबसे पहले अपनी पहचान कवि सम्मेलन के मंच से बनाई थी। पंजाबी मूल की कोलकाता में पली-बढ़ी संतोष झांझी विवाह के बाद भिलाई आईं और वह उनका घर बनना ही था। अपने शिष्ट शालीन गीतों व सुमधुर कंठ के चलते संतोष जी ने अच्छी खासी लोकप्रियता बटोरी। उन्होंने एक छत्तीसगढ़ फिल्म में अभिनय भी किया, लेकिन कालांतर में वे गद्य लेखन की ओर प्रवृत्त हुई। उन्होंने बहुत प्यारे यात्रा-वृत्तांत लिखे, जिनमें एक सैलानी की सजग दृष्टि दिखाई देती है। उन्होंने इसके पहले दो उपन्यास लिखे और चार कहानी संग्रह जो उनकी गहन अंतर्दृष्टि व सामाजिक सरोकारों का परिचय देते हैं। - ललित सुरजन 

 संतोष झांझी की चर्चित कहानी : पराए घर का दरवाजा यहॉं संग्रहित है।

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रवि श्रीवास्तव के व्यंग्य

डोम, तूफान और सरकार

अभी तक बहस चल रही है। डोम कैसे गिरा? उसके पीछे षडय़ंत्र की बू तक लोगों ने सूंघ लिया। जबकि ऐसा कुछ नहीं है। हमें सही दिशा में सोचने की आदत नहीं है। डोम एक बार नहीं, दो बार भरभरा कर गिरा। चारों खाने चित हुआ। दबे हुए लोगों की कराह भी सुनी गई। हमें अपनी सोच को सही दिशा में केन्द्रित करना चाहिए। मुश्किल तो यही है कि सही दिशा नहीं मिल पाती। तेज तूफान आया बड़ा डोम था। दिल्ली वाला। मजदूरों के तो बाप-दादाओं ने इतना बड़ा डोम पहले कभी नहीं देखा था। याने अजूबा था। जल्दबाजी की तैयारी थी। कीलें, जमीन के भीतर ज्यादा गहराई तक नहीं गड़ी थीं। भारी-भरकम स्ट्रक्चर था, गिर गया। अचानक आए तूफान को झेल नहीं पाया। ठेकेदार भी कितनी मजबूती देता। हिस्से-बांटे के आधार पर काम तय होता है। इसमें उसका क्या दोष? वह बचने की पूरी कोशिश करेगा। कोशिश पूरी ईमानदारी से होगी तो यह तय है कि वह बच जाएगा। बचने की नई-नई टैक्निक सामने आ चुकी है।
इसकी भी खूब चर्चा चली कि ठेकेदार दिल्ली का था। पार्टी के नेता का करीबी था। ये सब तो होते रहता है। ठेका करीबियों को ही मिलता है। रहा सवाल दिल्ली का? यह तो बेतुका तर्क है। अरे भाई दिल्ली के बजाय मुंबई या नागपुर का ठेकेदार होता, तो क्या डोम नहीं गिरता? ऐसे तूफान में डोम को गिरना ही था। वह जरूर गिरता। रायपुर का ही ठेकेदार होता तो, कौन सा तीर मार लेता। क्या तूफान रोक देता? तीर चलाकर उसकी दिशा मोड़ देता? याने कि पौराणिक युग में पहुंच जाता। ये सब फिजूल प्रश्न है। मुद्दे से भटकाने वाले। हमें तूफान का शुक्रगुजार होना चाहिए। सही समय पर सही दिशा से आया। अपनी पूरी ताकत से। कमजोर डोम और व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी। भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी हैं। उसे तूफान ही हिला सकता है। रामलीला मैदान की ऐतिहासिक रैलियां हों या जंतर-मंतर का धरना। भ्रष्टाचार के आगे बौने साबित हुए। इन महारैलियों और अनशन से ऐसा लगा था कि पूरे देश से भ्रष्टाचार का खात्मा होकर रहेगा? लेकिन हुआ नहीं, सपना सच नहीं हो सका। हो जाता तो, कितना अच्छा होता। डोम गिरने की नौबत नहीं आती।
हम प्रकृति और पर्यावरण के दुश्मन बने हुए हैं। जानी दुश्मन लेकिन प्रकृति ने हमारा कितना साथ दिया। सोचा अगर तूफान दो दिन बाद आता तो? ऐन वक्त पर सभा रद्द करनी पड़ती। कितनी भाग-दौड़ होती। अफरा-तफरी मचती। बदनामी पहले से ज्यादा। तूफान तो तूफान होता। लेकिन सरकार बुरी तरह हिल जाती। विपक्ष और भी हिलता। हिली तो अभी भी है, लेकिन हिलकर रह गई। आगे और सोचो? सोचने में क्या जाता है। मान लो सरकार आ जाती। पी.एम. का भाषण होते रहता। खचाखच भीड़ के बीच। इसी समय तूफान आ जाता तो, सोचने से ही रोंगटे खड़े होने लगते हैं। पन्द्रह करोड़ का पूरा डोम धराशायी हो जाता। घायलों से पूरा सभास्थल भरा रहता। मरने वालों के आंकड़े रहरस्यमय बने रहते। हमारा नया शहर बसने के पहले ही बर्बाद हो जाता। हम मुंह दिखाने लायक नहीं रहते। मंत्री दबकर प्राण गंवाते। साथ में संत्री भी जाते। आईएएस, आईपीएस, आईएफएस न जाने कितनों की शामत आती। यह शुरुवाती सदी का एक बड़ा हादसा होता। हम तो इसे कुदरत का करिश्मा ही कहेंगे। मिटते-मिटते रह गए। पूरी सरकार बैठ जाती।
एक सरकार का बैठना, एक युग का बैठना होता है। सारे करिश्माई व्यक्तित्व धरे के धरे रह जाते। भला हो तूफान का। समय पर आकर गुजर गया। अपनी अमिट छाप-छोड़ गया। वरना वर्तमान भाप बनकर उड़ जाता। भविष्य गहरी खाई में समा जाता। खुरदरी हकीकत सामने आती। जनता बेवजह की उलझन में उलझी रहती है। तूफान आराम से गुजर गया। यही कोई दस-पन्द्रह सेकण्ड में। लेकिन उफान अभी बाकी है। कोई एफआईआर के पीछे पड़ा है। एक बड़ा वर्ग ठेकेदार के संबंधों की पड़ताल में निकल पड़ा है। डोम के मलवे के नीचे दबे लोगों की चीख-पुकार कुछ सुनी गई। कुछ अनसुनी रह गई। हमेशा की तरह। दुनिया छोडक़र जाने वालों का मुंह मुआवजे की रकम से बंद है। विपक्ष के हमले तेज हैं। सत्तापक्ष सफाई की चादर बिछाकर बैठा है। चादर सफेद है। दाग का नामोनिशान नहीं। सरकार कहती है, यह प्राकृतिक प्रकोप है। जिसके आगे सभी बेबस हैं। वैसे तो सच को मान लेने से झूठ का मुंह काला हो जाता है। लेकिन सच किधर है? और झूठ किधर है? जनता असमंजस में है। आखिर जनता का संबंध असमंजस से कब तक बना रहेगा? खोजबीन जरूरी है। जनता जनार्दन को अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है।
साल भर पहले भी एक तूफान आया था। उसकी याददाश्त में होगा। वह लोकतंत्र का तूफान था। हर पांच साल बाद आता है। उसने दिल्ली के एक बड़े डोम को ऐसा तहस-नहस किया कि उसका अता-पता अभी तक नहीं चला। एक सौ तीस साल पुराना ऐतिहासिक डोम था। जिसकी जड़ें पूरे देश में फैली हुई थी। पूरी मजबूती के साथ ऐसा उड़ा कि बस उड़ा। बड़े-बड़े दिग्गज देखते रह गए। जैसे खुले मैदान में खड़ा बच्चा, आसमान में उड़ते एरोप्लेन को देखते रह जाता है। मतदाताओं का तूफान किसी भयावह सुनामी से कम नहीं होता। प्राकृतिक तूफान आने की कोई सूचना नहीं मिलती। अचानक आ धमकता है। मतदाताओं का तूफान आने से पहले बार-बार दस्तक देकर अपने आने की पुख्ता सूचना देता है। लेकिन सरकार उसे अनसुना कर देती है। सुनकर भी नहीं सुनती उसकी चेतवनी का कोई असर नहीं होता। नतीजा आप देख ही रहे हैं न? विपक्षी दल का दर्जा भी नहीं मिल पाया। इसे कहते हैं मतदाताओं का तूफान। जिसने समझा वह सिकन्दर। आगे तुक मिलाते हुए कह सकते हैं जो समझ न पाया वह चुकन्दर।


साहित्य का चोंगा और साहित्य शिरोमणि

पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कालजयी कहानी ‘उसने कहा था’ यह शताब्दी वर्ष है। युद्ध की पृष्ठभूमि वाली कहानियों पर मैंने अपने मित्र का एक अच्छा आलेख पढ़ा। कुछ देर के लिए कहानियों की दुनिया में खोया रहा। दूसरे पृष्ठ का समाचार पढक़र मेरा माथा ठनका। माथा ठीक ठाक है। उसे ठनकना ही था। समाचार ही कुछ ऐसा था। अवधबिहारी की हीरक जयंती का! साथ में नागरिक अभिनन्दन। जयन्तियों के साथ अभिनन्दन का पुछल्ला बराबर लगा रहता है। ये एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं। हीरक जयंती का समाचार चांैकाने वाला नहीं है। जयंती मनाना सबका अधिकार है। संविधान इस मामले में कोई भेदभाव नहीं करता। जल्दी है तो, स्वर्ण जयंती मना ले। षष्ठिपूर्ति एक आदर्श स्थिति है। सरकारी कर्मचारी तो सेवानिवृत्ति में ही निपट जाता है। जिन्दा रह गए तो शताब्दी समारोह भी धूमधाम से मनाया जा सकता है। लेकिन शरीर इसकी इजाजत नहीं देता। जीते जी शताब्दी समारोह भाग्यशाली ही मना पाते हैं।
अवधबिहारी का मामला कुछ और है। साहित्य की कोई गुमनाम सी संस्था, उसे साहित्य शिरोमणि की उपाधि देने जा रही है। एक खूबसूरत निमंत्रण पत्र आया है। आर्ट पेपर पर शानदार बहुरंगी छपाई। आकर्षक और कलात्मक दोनों कोई एक बार देखे तो, दुबारा भी पलटकर देखना चाहे। सम्हालकर रख भी ले। एक भव्य समारोह की तारीख निश्चित है। कार्यक्रम एक महंगे होटल में है। अनेक स्वनाम धन्य महारथियों के नाम निमंत्रण पत्र में है। सबके सब कालातीत। एक्सपायरी डेट की दवाईयों की तरह जिसका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं रहा। उन्हें साहित्य शिरोमणि की उपाधि दी जा रही है। माथा इसीलिए ठनका था। साहित्य की उपाधियों के इतने बुरे दिन आ गए।
अवधबिहारी बाईस साल की उम्र में सरकारी नौकरी में आया। फारेस्ट डिपार्टमेंट की नौकरी। कई ऐसे कर्मचारी हैं, जो जंगल विभाग की नौकरी पाकर जंगल के होकर रह गए। उनका संबंध और सम्पर्क मानवजाति से कम जानवरों से ज्यादा हो जाता है। अवधबिहारी कुछ इसी किस्म के प्राणी निकले। तीस साल तक हरियाली के दुश्मन बने रहे। जितना बन सका हरियाली चरते रहे। पर्यावरण संतुलन में अपना योगदान देने से नहीं चूके। आदिवासियों का प्यार दुलार पाकर उन्हें लूटते रहे। इस बीच देश दुनिया में क्या घटता रहा नहीं जान पाए। सारा परिवार शहर में रहकर सुख के सागर में गोते लगाता रहा। अवधबिहारी जंगल में रमे रहे। तीस साल की नौकरी के बाद सस्पेंसन की गाज गिरी। उससे उबरने का मौका नहीं मिला। ले-देकर बहाल हुए। इस शर्त पर कि बहाली के बाद अपना इस्तीफा सौंप देंगे।
जैसा कि अक्सर होता आया है, सेवानिवृत्ति के बाद अवधबिहारी समाजसेवी बने। कहना चाहिए समाज के होकर रह गए। हराम की कमाई का एक बड़ा हिस्सा समाज सेवा के काम आया। बेईमानी के घर में समाज सेवा का पौधा अच्छा फूलता-फलता है। बिना खाद लहलहाता है। मसलन कई प्याऊ बने। मंदिर का अहाता बना। बच्चों के लिए झूलाघर। युवाओं के लिए मुहल्ले में लायबे्ररी। खेलकूद के लिए टूर्नामेंट। मां के नाम पर हर वर्ष मंदिर में भंडारा। पिता की स्मृति में वृद्धाश्रम जाकर फल वितरण उर्सपाक के सालाना जलसे में सहायता। यतीमखाना की मदद। सारे लोक लुभावन काम होते रहे। प्रसिद्धि मिली, मान-सम्मान बढ़ा, पुराने पाप धुल गए। जंगल की अवैध कमाई से समाजसेवा का नया फार्मूला सामने आया।
अपनी दूसरी पारी खेलते हुए अवधबिहारी करवट बदलकर साहित्य सेवा के क्षेत्र में आ गए। जैसे हरे-भरे खेतों को देखकर छुट्टा सांड़ चरने लगता है। तुक्कड़, नुक्कड़, फूहड़ हास्य और बाजारू लतीफेबाज कवियों के संयोजक बनकर खूब वाहवाही बटोरी। अपने दमखम पर बड़े-बड़े कवि सम्मेलन कराते रहे। अवधबिहारी कवियों से ज्यादा लोकप्रिय हो गए। साहित्य की एक विधा गौमाता है। वह है कविकर्म। गरीब की भौजाई। आपसे कुछ भी लिखा-पढ़ा नहीं जाता, निराश न हो आपके लिए कुछ है। बहुत कुछ है। आप कविता लिखिए। छोटे-छोटे बेतरतीब वाक्यों से जो भी लिखा समझ लो कविता है। कविता के मामले में हमारे एक कवि मित्र का दावा गौरतलब है। वे एक रात में चालीस-पचास कविताएं लिखकर रिकार्ड बना सकते हैं। अगर कोई चैलेंज करने वाला मिल जाए तो वे इससे आगे भी जा सकते हैं। जो कुछ भी गुनगुनाते हुए गेय लिख दिया वह गीत है। गीतों को जी भरकर तोड़ा मरोड़ा तो वह नवगीत की शक्ल में आ जाता है। इस पेटर्न को आजमाते अवधबिहारी कवि बन गए। पक्के कवि। गोष्ठियों में न केवल जाने लगे, बल्कि अध्यक्षता भी करने लगे।
दो काव्य संग्रह भी आ गए, देखने लायक। लोकगीतों व लोककथाओं को संग्रहीत कर दो किताबें अपने नाम और कर लीं। सम्पादक और संग्रहक भी बन बैठे। सक्रियता इतनी बढ़ी कि लोकगीत, लोकसंगीत, लोक मुहावरे, लोक संस्कृति, लोक त्यौहार, लोक संस्कार याने जो भी लोत मौजूद है, वह सब अवधबिहारियों के कब्जे में है। साहित्यिक सफलता प्राप्त करने में पूरी उम्र झोंक देना पड़ता है। कई बार तो मृत्यु के बाद भी उचित सम्मान नहीं मिल पाता। अवधबिहारी अपवाद हैं। साहित्य का चोंगा पहनकर साहित्यकर बन गए। सब कुछ रहस्यवादी कविता की तरह रहस्यमय है। साहित्य शिरोमणि जैसा सम्मानित शब्द, उनके लिजलिजे माथे पर तिलक बनकर लगने जा रहा है। इस उपाधि से उन्हें कौन रोक सकता है। साहित्य साधक, साहित्य श्री, साहित्य रत्न, साहित्य भूषण किस्म की उपाधियों की बाढ़ आई हुई है। अनेक स्वनाम धन्य साहित्यकार इन उपाधियों के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। जितने लेने वाले, उतने देने वाले। आंकड़ा बराबरी का है। निमंत्रण पत्र पढक़र मेरा माथा अब भी ठनक रहा है। मैंने उपेक्षित भाव से उसे टेबल के एक कोने में रख दिया। मेरी उपेक्षा के बावजूद निमंत्रण पत्र मुस्कुरा रहा है।

मुखौटे के भीतर और कितने मुखौटे

सन् 2014 झाड़ूओं के लिए याद किया जाएगा। पहली झाड़ू क्रांति, दिल्ली चुनाव में हो गई। सत्तर सीट की विधानसभा में सड़सठ सीट की जीत का कोई जवाब नहीं। अर्वे-सर्वे एक्जिट पोल आदि का दिवाला पिट गया। अनेक महारथी चारों खाने चित। दिशा निर्देशक दिशा भूल गए। महारैलियां फीकी पड़ गईं। कसमे-वादे का जनाजा निकल गया। जनता-जनार्दन की ताकत ने दिल्ली में एक अलग दुनिया आबाद कर दी। भारत में महाभारत का दृश्य, वैसे तो भारतीय जनता अपनी ताकत कई बार बता चुकी है। इतिहास की धारा बदली है। झाड़ू छाप ने उथल-पुथल मचाकर राष्ट्रवाद को करारा झटका दिया। इसके दूरगामी परिणामों का सर्वे राजनीति के पंडित अभी तक करते न•ार आ रहे हैं। समीकरणों के बंद द्वार खुल गए। एक-दूसरे के करीब आते-आते गले लग गए। अस्तित्व संकट से गुजर रही पार्टियों में नए जोश का संचार दिखलाई देने लगा। जोश को भी होश आया।
दूसरी झाड़ू भारत स्वच्छता अभियान की है। इस झाड़ू ने जो कीर्तिमान स्थापित किए, उसका टूटना फिलहाल असंभव दिखलाई देता है। प्राइम मिनिस्टर के हाथ में झाड़ू आई। ये पहले पीएम है। आ•ाादी के पूरे अड़सठ बरस बाद, जिनके हाथ में झाड़ू दिखी। फिर पूरे केबिनेट के हाथ में झाड़ू। क्लिक करते फोटोग्राफर परेशान। छापते-छापते अखबार हैरान। लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल...। पूरे देश की चर्चा के केन्द्र में झाड़ू। मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के हाथ में झाड़ू। किस्म-किस्म के झाड़ू। जैसा प्रदेश, वैसा भेष। अनेकता में एकता का दर्शन चरितार्थ होते दिखा। विभिन्न भारतीय भाषाओं के अखबारों में झाड़ू छाया रहा। इस अभियान से भाषायी एकता को भी बल मिला। अरबपतियों के हाथ में झाड़ू देखकर तो तबीयत बाग-बाग होते रही। ऐसे दिन तो कभी आए ही नहीं थे। इससे अच्छे दिन और क्या आएंगे। सारे अरबपति सड़कों पर झाडू करते दिखें। सड़क, झाड़ू और कचरा तीनों धन्य हुए। बड़ी फिल्मी हस्तियों के हाथ में झाड़ू। बादशाह के हाथ में। शहंशाह के हाथ में। सदी के महानायक के हाथ में झाड़ू। प्रोड्यूसर के हाथ में झाड़ू आई। डायरेक्टर के हाथ से होते हुए निकल गई। ये दिलचस्प दौर रहा। ऐसी रोशनी आसमान में बार-बार दिखने वाली नहीं। ऐसी भी खबर है कि कुछ लेखकों के हाथ में झाड़ू आई। वे एक-दूसरे के साहित्य कर्म पर झाड़ू मारते दिखे।
रंगीन पत्र-पत्रिकाओं व अखबारों में प्रकाशित सचित्र समाचारों को मैंने अलबम में सहेज कर रखा है। मैं इसे राष्ट्रीय धरोहर का दर्जा देता हूं। बड़ी-बड़ी हस्तियां झाड़ू के साथ। कोई सड़क की सफाई करते दिखता है। कोई आफिस की सफाई में मगन। कोई संसद के गलियारे में। कोई ताजमहल के आंगन में। समय बीतते देर नहीं लगती। कुछ वर्षों के बाद यही चित्र ऐतिहासिक जो जायेंगे। गुगल, इंटरनेट और फेसबुक के जमाने में कुछ सहेजकर रखने की जरूरत नहीं है। फिर भी अलबम की हकीकत अपनी जगह पर कायम है। जब कभी शहर में कचरों का ढेर बढ़ जाता है, मैं इस अलबम को निकालकर पलट लेता हूं। इससे दो हाथ लम्बा सुकून मिलता है।
समय ने बहुत जल्दी पलटी मारी, अब दोनों किस्म की झाड़ू अपने भविष्य को लेकर चिन्तित और निराश है। एकमुश्त सड़सठ सीट जीतने वाली झाड़ू ने तो सोचा भी नहीं था कि इतनी जल्दी उसे दुर्दिन घेर लेंगे। बेवजह नोक-झोंक, उठापटक और कीचड़ उछाल का दृश्य देखकर झाड़ू पसीना-पसीना है। मुहर लगाने वाले मतदाताओं के मुंह से आवाज नहीं निकलती। उपलब्धियां उल्लुओं की आंखों से झांक रही है। स्वच्छ भारत अभियान की झाड़ू का और बुरा हाल है। एक भव्य इमारत की दीवार से टिककर कोने में सिसकती पड़ी है। क्रियाशील नेतृत्व गुमसुम और खामोश। उसने तो सोचा भी नहीं था, अच्छे दिन आते-आते इतनी जल्दी हथेलियों से फिसल जाएंगे। बहुत बड़े बदलाव की उम्मीद डरावने स्वप्न में बदल गई। साफ-सफाई के लिए झाड़ू ने हमेशा अपना तन-मन न्योछावर किया। काम हो जाने के बाद स्वार्थी समाज से उसे हमेशा लताड़ और फटकार मिली। लोकप्रियता के आसमान को छूते-छूते अचानक जमीन का स्पर्श। कहना न होगा कि स्वच्छता अभियान के इस कारपोरेटी नाटक को विशाल रंगमंच मिला। मंजे हुए कलाकार। सधी हुई भाषा में मोहक संवाद। साथ में महा मीडिया का सहयोग वैश्विक स्तर पर शायद ही कहीं देखने मिले।
स्वच्छ भारत अभियान में सबसे ज्यादा फायदेमंद रहे अहमद अली और नरोत्तमदास। इन दोनों की एक दूकान है। झाड़ू की चालीस साल पुरानी। एक साथ पढ़े। खेले-कूदे-और आगे बढ़े। ज्यादा आगे नहीं, झाड़ू दूकान तक आए। धंधा विरासत में मिला। दोनों के पिता सुदूर आदिवासी अंचल से झाड़ू लाकर बेचते रहे फेरी लगाकर। इन दोनों ने मिलकर दूकान आगे बढ़ा दी। पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। स्वच्छ भारत अभियान में तो इनकी लॉटरी ही लग गई। इतने आर्डर मिले कि सप्लाई करना मुश्किल हो गया। लाखों की कमाई। दूकान की साख बढ़ी बढ़ते चली गई। 'एच.एम.ब्रान्ड' फेमस हो गया। 'एच. एम.' याने 'हिन्दू-मुस्लिम ब्रान्ड' स्वच्छता अभियान के गुब्बारे की हवा जरूर निकल गई, लेकिन झाड़ू की बिक्री आज भी रिकार्ड तोड़ती नजर आती है। इन दोनों की साख समाज में मुंशी प्रेमचन्द्र की कहानी 'पंच परमेश्वर' जैसी बनी हुई है। इस कहानी को सौ साल पूरे होने को आए।
विज्ञान के विकास की दस्तक मंडल ग्रह में सुनी जा रही है। इधर हम धर्मान्तरण के मुद्दे पर उलझे हुए है। एक ओर देश छोडऩे की बात होती है। दूसरी ओर, मताधिकार से वंचित कर देने की आवाज सुनाई देती है। तीसरी तरफ अलगाववादी झंडा फहराकर पिट्ठू होने का एहसास कराते हैं। कौन सी कौम कितने बच्चे पैदा करें? इस पर रोचक बहस जारी है। तमाम ज्वलंत मुद्दों के बीच 'एच.एम. ब्रान्ड' पर कोई असर नहीं पड़ा है। यह भी एक मिसाल है। अहमद अली और नरोत्तम दास की। सेतुबंध में सहयोग प्रदान करती नन्ही गिलहरी की तरह।

- रवि श्रीवास्तव
सेक्टर-10, भिलाईनगर
आप इनसे फेसबुक में यहॉं संपर्क कर सकते हैं।

छत्तीसगढ़ी नाचा के अनूठे साधक कलाकार मंदराजी




1958 की गर्मियों में हबीब तनवीर अपने परिजनों से मिलने रायपुर आए। अंजुम कात्याल के साथ एक भेंटवार्त्ता के दौरान इसे याद करते हुए हबीब तनवीर ने बताया-- “ मुझे पता चला कि जिस स्कूल में मेरी पढ़ाई हुई थी, उसके मैदान में रात 9:00 बजे नाचा होने वाला है। मैंने रात भर नाचा देखा। उन्होंने तीन या चार प्रहसन पेश किए। कलाकारों में एक मदनलाल थे, बेहतरीन एक्टर। दूसरे ठाकुर राम थे। वे भी गजब के कलाकार थे। बाबूदास भी आला दर्जे के एक्टर थे। भुलवाराम उत्कृष्ट गायक-अभिनेता थे। ये सभी कलाकार अच्छे गायक होने के साथ बहुत अच्छे कॉमेडियन भी थे। उन्होंने चपरासी नकल और साधु नकल पेश किया। मैं तो मंत्रमुग्ध था। कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद मैं उनके पास गया और कहा ‘मेरे साथ दिल्ली चलोगे नाटक में काम करने के लिए?’ वे तैयार हो गए। मैंने भुलवाराम, बाबू दास, ठाकुर राम, मदनलाल और जगमोहन को शामिल कर लिया। जगमोहन मोहरी बजाते थे।” आगे हबीब तनवीर बताते हैं कि बाद में वे राजनांदगाँव गए, जहाँ उनकी मुलाक़ात लालूराम से हुई। उनके घर में रात-भर उनके गाने सुनते रहे और अपनी मंडली में लालूराम को भी शामिल कर लिया। इस तरह छह कलाकार हबीब तनवीर के साथ दिल्ली गए और बेगम ज़ैदी के हिंदुस्तानी थिएटर, जिसके डायरेक्टर ख़ुद हबीब तनवीर थे, की प्रस्तुति में सम्मिलित हुए।

भारतीय रंगमंच के इतिहास की यह एक अभूतपूर्व घटना थी। यह पहला मौक़ा था जब अपढ़- गँवई कलाकार शहरी रंगमंच पर अपनी समूची ग्रामीणता के साथ अवतरित हो रहे थे ; वह भी एक क्लासिकल संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम’ के हिंदी रूपांतर ‘मिटटी की गाड़ी’ में। शास्त्रीयता और आधुनिकता के द्वैध में घिरे नागर रंगमंच के लिए ‘मृच्छकटिकम’ यूँ भी एक चुनौती था। ऊपर से लोक-कलाकारों का अनगढ़पन और उनके अभिनय की निचाट लोक-शैली, जो उच्चभ्रू शहरी दर्शकों को स्वभावतः सहज स्वीकार्य नहीं थी। संस्कृत-विद्वानों ने इसकी आलोचना की, कि एक ‘नाट्यधर्मी’ कृति को ‘लोकधर्मी’ पद्धति से खेला गया, जबकि इसे शास्त्रीय शैली में मंचित किया जाना चाहिए था। कुछ आलोचकों ने इसमें समरसता के अभाव या रसों के असंतुलन की शिकायत की।

मगर यूरोप से लौटने के बाद अपनी शैलीगत पहचान की तलाश में जद्दोजेहद करते हबीब तनवीर को यहीं से रंगकर्म का अपना निजी मुहावरा मिला। लोक-शैली को आलंकारिक युक्ति के तौर पर नहीं, बल्कि रंगमंच की बुनियादी ज़रूरत के रूप में विकसित करने वाले इस रंग-निर्देशक को बाद में अपनी लोकबद्ध आधुनिक रंगदृष्टि के लिए ही देश-विदेश में जाना गया। उनके नाट्यकर्म को अंततः भारतीय रंगमंच की विशिष्ट उपलब्धि के रूप में मान्यता प्राप्त हुई।

अगर सोचें तो रायपुर के लॉरी स्कूल (अब माधवराव सप्रे स्कूल) में उस रात हबीब तनवीर नाचा देखने न जाते, तब भी क्या उनका थिएटर वही होता, जिसके आधार पर आगे चलकर उनकी विशिष्ट पहचान बनी, या जिसके नाम से वे जाने जाते हैं ? क्या यह सच नहीं कि हबीब तनवीर की रंग-शैली के निर्माण में दरअसल छत्तीसगढ़ के लोक-कलाकारों के स्वतःस्फूर्त नैसर्गिक अभिनय की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है ? लालूराम, मदन निषाद, भुलवाराम, ठाकुर राम, गोविंदराम निर्मलकर या फिदाबाई के बिना क्या हबीब तनवीर के थियेटर की कल्पना की जा सकती है ? ये सभी छत्तीसगढ़ी ‘नाचा’ के कलाकार थे। उस रात हबीब तनवीर ने जिस नाचा-दल का प्रदर्शन देखा था, उसके प्रबंधक और संगठक दाऊ रामचंद्र देशमुख थे, जिन्होंने ‘छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल’ का गठन कर नाचा-कलाकारों को संरक्षण दिया था। कहा जाता है कि हबीब तनवीर ‘छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल’ के कलाकारों को तोड़ कर अपने साथ दिल्ली ले गए।

इन कलाकारों के दिल्ली जाने के बाद ‘छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल’ की रीढ़ ही टूट गयी और उसका समापन हो गया। छत्तीसगढ़ के प्रख्यात लोक-संगीतकार खुमानलाल साव बताते हैं कि इस संस्था की बमुश्किल दस प्रस्तुतियाँ हो पाई होंगी। दाऊ रामचंद्र देशमुख मृत्यु-पर्यन्त शिकायत करते रहे कि हबीब तनवीर उनके कलाकारों को बहका कर दिल्ली ले गए। (इस बात का इतना अधिक प्रचार हुआ कि छत्तीसगढ़ के लोक-कलाकारों के बीच हबीब तनवीर को देश-विदेश में छत्तीसगढ़ी कला-संस्कृति का परचम लहराने वाले एक नायक के रूप में तो याद किया जाता है, लेकिन इससे अधिक उनकी छवि भोले-भाले कलाकारों का शोषण करने वाले चतुर रंग-निर्देशक की है।)

मगर खुमान लाल साव एक दूसरी कहानी कहते हैं। वे बताते हैं कि स्वयं दाऊ रामचंद्र देशमुख ने मंदराजी दाऊ और लालूराम की अगुआई वाले रिंगनी-रवेली नाचा-पार्टी के कलाकारों को तोड़ कर ‘छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल’ का गठन कर लिया । जो आरोप दाऊजी हबीब तनवीर पर लगा रहे थे, वह स्वयं उन पर भी लागू होता है। हबीब तनवीर के साथ दिल्ली गए कलाकार पहले रिंगनी-रवेली नाचा-पार्टी से जुड़े थे। रिंगनी-रवेली नाचा-पार्टी दरअसल दो अलग-अलग नाचा-पार्टियों के परस्पर विलय से मिलकर बनी थी -- रवेली पार्टी और रिंगनी पार्टी।

रवेली नाचा-पार्टी के मैनेजर दाऊ दुलार सिंह साव थे जो ‘मंदराजी’ के नाम से लोक-प्रसिद्ध थे। वे राजनांदगाँव के पास रवेली गांव के रहने वाले थे। रिंगनी-पार्टी के सर्वेसर्वा पंचराम देवदास थे। लालूराम, मदन निषाद और जगमोहन रवेली पार्टी के कलाकार थे। भुलवाराम, ठाकुर राम, बाबूदास रिंगनी-पार्टी के सदस्य थे। (बाद में हबीब तनवीर के साथ रवेली-पार्टी के गोविंदराम निर्मलकर, फिदाबाई, मालाबाई -जैसे कुशल कलाकार भी जुड़ गए।) खुमानलाल साव कहते हैं कि दाऊ रामचंद्र देशमुख ने रिंगनी-रवेली नाचा पार्टी के कलाकारों को तोड़ कर ‘छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल’ बनाया था। हबीब तनवीर ने उनके कलाकारों को दिल्ली ले जाकर और ‘नया थियेटर’ में उन्हें शामिल कर उनके साथ ठीक वही सलूक किया, जो दाऊ जी ने रिंगनी-रवेली नाचा-पार्टी और उसके संचालक मंदराजी दाऊ के साथ किया था।

इसमें संदेह नहीं कि दाऊ रामचंद्र देशमुख ने ‘छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल’ के ज़रिये प्रतिभा-सम्पन्न लोक-कलाकारों को एकत्र कर उनकी कला के परिमार्जन और शिष्ट रंगमंच के समकक्ष नाचा को स्थापित करने का प्रयत्न पूरी सदाशयता और निष्ठां से किया। अपनी संस्था का गठन भी उन्होंने इसी उद्देश्य से किया था। वे स्वयं कलाकार नहीं थे, मगर कला के प्रति उनमें असीम अनुराग था। सच कहा जाए तो वे विलक्षण प्रतिष्ठापक व्यक्तित्त्व थे। नाचा को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने मालगुजारी की प्रतिष्ठा और धन का भी उपयोग किया। सत्तर के दशक की शुरुआत में उन्होंने ‘चंदैनी गोंदा’ नामक लोक-सांस्कृतिक मंच की स्थापना कर नाचा के परिमार्जन का अपना मिशन दुबारा शुरू किया। वस्तुतः ‘चंदैनी गोंदा’ लोकनाट्य नाचा के ठेठ गँवई प्रभावों को तराश कर समकालीन रंग-शैली में उसके रूपांतरण का प्रयत्न था। छत्तीसगढ़ के अलग-अलग इलाक़ों से आए बहुत-से कलाकार इससे जुड़े। आधुनिक रंग-प्रविधि के यत्किंचित प्रयोग और प्रस्तुति की भव्यता के कारण ‘चंदैनी गोंदा’ को खूब लोकप्रियता मिली। लेकिन ‘चंदैनी गोंदा’ की वजह से कोई नाचा-पार्टी लड़खड़ाई नहीं, जबकि ‘छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल’ का गठन जब उन्होंने किया था, तब उसमें कलाकारों के शामिल होने से सिर्फ़ रिंगनी-रवेली नाचा-पार्टी ही नहीं, और भी कई नाचा-पार्टियाँ बिखर गईं। खुमानलाल साव इसके लिए दाऊ रामचंद्र देशमुख को दोष देते हैं। बाद में बतौर संगीत-निर्देशक वे स्वयं ‘चंदैनी गोंदा’ से या दाऊ रामचंद्र देशमुख से अभिन्न रूप से जुड़ गए । लेकिन कलाकारों को बहका कर दिल्ली ले जाने का आरोप लगाते हुए हबीब तनवीर को वे आज भी माफ़ नहीं कर पाते।

खुमानलाल साव लोक-कलाकारों को भी बराबर का दोषी ठहराते हैं। वे कहते हैं ‘कलाकारों ने लालचवश, पैसा कमाने और दिल्ली जाने के मोह में इतनी मज़बूत पार्टियों को क्यों तोड़ डाला, समझ में नहीं आता।’ वर्षों बाद 1999 में इस बात को मदन निषाद ने भी स्वीकार किया। खुमानलाल साव के साथ एक बातचीत के दौरान यह पूछे जाने पर कि मंदराजी दाऊ को क्यों छोड़ा, उन्होंने कहा था-- ‘ मरते समय झूठ नहीं बोलूँगा गुरुजी। उस समय हम लोग लालच में आ गए थे। ‘ कहा जा सकता है कि पहले ‘रिंगनी-रवेली नाचा-पार्टी’ और बाद में ‘छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल’ को छोड़ने के पीछे किसी हद तक कलाकारों का लोभ भी एक कारण था। लेकिन यह लोभ उन कलाकारों की आजीविका और नाम कमाने की कामना का स्वाभाविक प्रतिफल था। छत्तीसगढ़ी नाचा-कलाकार बेहद ग़रीबी और तंगहाली का जीवन जीते हुए अत्यंत कठिन परिस्थितियों में भी कला-साधना के अभ्यस्त थे। हबीब तनवीर के प्रस्ताव से उनके सामने एक नया आकाश खुल रहा था। उसमें पंख खोल कर उड़ान भरने से भला वे कैसे इनकार कर सकते थे?

ये मंदराजी दाऊ की नाचा-पार्टी के ही कलाकार थे, जो ‘नया थियेटर’ में शामिल हुए और जिन्होंने भारतीय रंगमंच में लोक-शैली के सर्जनात्मक विनियोग का बिल्कुल अनूठा अध्याय खोला। इन कलाकारों ने लोक और नागर के द्वैत को किसी हद तक मिटा दिया। एडिनबर्ग ड्रामा फेस्टिवल (1982) में ‘चरणदास चोर’ के लिए जो एडिनबर्ग फ्रिंज अवार्ड हबीब तनवीर को प्राप्त हुआ, उसका श्रेय उनके निर्देशकीय कौशल के साथ उस रंग-भाषा को भी जाता है, जिसे रचने में छत्तीसगढ़ी लोक-नाट्य ‘नाचा’ और उसके कलाकारों का बड़ा योगदान है। ‘नाचा’ की लोक-अभिव्यक्ति इस नई रंग-भाषा में किसी हद तक आधुनिक मुहावरे में ढल कर आती है और एक अनूठा प्रभाव पैदा करती है।

पिछली सदी के साठ के दशक में हबीब तनवीर जब नाचा-कलाकारों की सहायता से इसे विकसित करने का प्रयास कर रहे थे, तब संगठित नाचा-पार्टियों द्वारा नाचा-प्रदर्शन की परिपाटी शुरू हुए अधिक समय नहीं हुआ था। जिन मंदराजी दाऊ के कलाकारों को हबीब तनवीर अपने साथ ले गए थे, वे ही छत्तीसगढ़ में संगठित नाचा-पार्टियों के जनक थे। इस अंचल में पहली बार एक नाचा-पार्टी का गठन 1928 में मंदराजी दाऊ ने किया। उनके गांव रवेली के नाम से यह पार्टी ‘रवेली नाचा-पार्टी’ कहलाई । 1928 के पूर्व छत्तीसगढ़ में कहीं भी संगठित नाचा-पार्टी नहीं थी। कलाकार यथावसर, कई बार अचानक संयोगवश, कहीं भी इकट्ठा होते और प्रदर्शन के बाद बिखर जाते।

उन्नीसवीं सदी में नाचा की ‘खड़े-साज’ की पद्धति प्रचलित थी,जिसमें कलाकार खड़े होकर नाचते-गाते थे। वादक कलाकार भी खड़े होकर ही चिकारा या मोहरी आदि लोक-वाद्य बजाया करते थे। तबलची भी कमर में तबला बांध कर खड़े-खड़े बजाते थे। खुले रंगमंच पर मशाल की रोशनी में खड़े-साज़ की नाचा-प्रस्तुतियाँ हुआ करती थीं। बाद में बैठक-साज का प्रचलन हुआ, जिसमें वादक कलाकार बैठकर बजाने लगे। नाचा का यह रूप आगे चलकर अत्यंत लोकप्रिय हुआ। खड़े-साज में केवल नाचना और गाना हुआ करता था। नजरिया और परी नृत्य करती थी और जोक्कड़ परिहास करते थे। कलाकार ब्रह्मानंद या गुरु घासीदास के भजन गाते थे और नाचते थे। उस ज़माने में यही मनोरंजन का साधन था। खड़े-साज में नाट्य और अभिनय भी था, लेकिन अभी वह प्रायः अविकसित था और उसकी संभावनाओं का पूरी तरह से दोहन नहीं हुआ था। बैठक-साज के नाचा में इन तत्त्वों का समुचित विकास हुआ। जीवन के विविध प्रसंगों को नाट्यवस्तु में ढाल कर ‘गम्मत’ का समावेश किया गया। नाचा में रात-भर में तीन या चार गम्मत प्रस्तुत किए जाने लगे। गम्मत वस्तुतः प्रहसनमूलक नाट्य-प्रसंग (स्किट) हैं। इन्हें ‘नकल’ भी कहा जाता है।

मंदराजी ने जब नाचा-दल का गठन किया, तब बैठक-साज में मशाल के प्रकाश में नाचा हुआ करता था। वाद्य-यंत्र के रूप में मुख्यतः चिकारा बजाया जाता था। मंदराजी ने मशाल की जगह पेट्रोमेक्स और चिकारा की जगह आधुनिक वाद्ययंत्र हारमोनियम का पहली बार प्रयोग किया। रवेली नाचा-पार्टी के प्रदर्शनों में हारमोनियम और पेट्रोमेक्स विशेष आकर्षण की वस्तु हुआ करते थे। इस प्रयोग से रवेली नाचा पार्टी को अपार शोहरत प्राप्त हुई। नाचा के इतिहास में यह एक अभूतपूर्व घटना थी। पेट्रोमेक्स की उजली रोशनी में और हारमोनियम-जैसे अनोखे वाद्य की अत्यंत सुमधुर स्वर-लहरियों के बीच अभिनेताओं को नाचते-गाते देखना-सुनना दर्शकों के लिए विलक्षण अनुभव था। नाचा का एक नया रूप निखर कर आ रहा था। उसका फॉर्म बदलने लगा था। उसकी प्रस्तुतियों का परिवेश भी बदल रहा था। नाचा अब खुली समतल ज़मीन पर चारों तरफ से घेरे दर्शकों के बीच नहीं, बल्कि बाजवट से बनाए गए मंचों में प्रस्तुत होने लगा। मंदराजी ने नाचा में क्रांतिकारी परिवर्त्तन ला दिया।

लेकिन यह परिवर्त्तन सिर्फ नाचा के फॉर्म या प्रस्तुति के परिवेश में दिखाई देने वाले बदलाव तक सीमित नहीं था। नाचा के विकास में मंदराजी का इससे अधिक महत्त्वपूर्ण योगदान यह है कि उन्होंने इस विधा को गहरी सामाजिक अर्थवत्ता और प्रासंगिकता दी। उसके नितांत धार्मिक और भक्तिपरक स्वरूप का परिमार्जन कर उसे ठोस लौकिक (सेक्युलर) और सामाजिक विषयों की और उन्मुख किया। रवेली नाचा-पार्टी ने समाज की समस्याओं और सामुदायिक जीवन की गहरी समझ के साथ चुने गए कथानकों पर गम्मत खेले।

खड़े-साज वाले नाचा के दौर में नाट्य-प्रस्तुति का स्वरूप प्रायः धार्मिक और आध्यात्मिक था। फिर धीरे-धीरे उसने सेक्युलर स्वरूप अख्तियार करना शुरू किया। अब गम्मत लोक-जीवन के परिहासपूर्ण प्रसंगों पर केंद्रित होने लगे। इस दौर में नाचा के कलाकार, जो आमतौर पर मेहनतकश मज़दूर थे, अभिनय करते हुए अपने मालिकों (गौंटिया) पर व्यंग्य भी किया करते थे। दिलचस्प यह है कि मालिक भी इसे अकुण्ठ भाव से स्वीकार करते थे। रात-भर मसखरी करते हुए गौंटिया की हँसी उड़ाने के बाद मज़दूर कलाकार अगले दिन सुबह उसके खेत पर जब मजूरी कमाने के लिए हाज़िर होता था, मालिक सहज भाव से मुस्कुराते हुए पूछ लिया करते-- ‘कइसे रे, का गम्मत करेव बे?’ (क्यों रे, कैसा गम्मत कर रहे थे?) जवाब में सकुचाते हुए नौकर कह देता-- ‘ ठट्टा ताय दाऊ। हँसुवाय बार ताय।’ (मजाक था दाऊ, हँसाने के लिए।) नौकर-मालिक का सहज सम्बन्ध फिर से क़ायम हो जाता। मगर कलाकार ग़रीब जनता के दिल की बात और उसके भीतर के दर्द को नाचा में खुल कर व्यक्त कर देता था। एक तरफ़ नाचा ग्रामीण समाज में सामुदायिकता और सौहार्द्र की अभिव्यक्ति के मंच के रूप में विकसित हुआ। दूसरी तरफ़ वह शोषण के खिलाफ प्रतिरोध का माध्यम भी बन गया। कलाकार सामंतों के प्रति अपना आक्रोश नाचा के माध्यम से प्रकट करते थे और सामंत उसे मज़ाक समझकर सहज भाव से स्वीकार कर लेते थे। दरअसल नाचा के भीतर प्रतिवादी स्वर अत्यंत मुखर था। उसकी कलात्मकता वस्तुतः उसकी प्रतिरोध-वृत्ति में निहित थी।

रवेली-पार्टी की प्रस्तुतियों में नाचा एक सेकुलर विधा के रूप में अधिक परिपक्व और कलात्मकता की दृष्टि से अधिक पुष्ट हुआ। इसमें मंदराजी दाऊ के आत्म-त्याग, समर्पण, सामजिक सजगता और कला के प्रति अनन्य निष्ठा का बड़ा योगदान है। रवेली नाचा-पार्टी के गठन का दूरगामी असर हुआ। उसके बाद छत्तीसगढ़ के अलग-अलग इलाक़ों में एक-एक कर नाचा-दलों का गठन होने लगा। पूरे छत्तीसगढ़ अंचल में नाचा-प्रदर्शनों का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। ग्रामीण मडई-मेलों में नाचा का प्रदर्शन अनिवार्य हो उठा। बड़ी संख्या में कलाकार आगे आए और नाचा ने एक सांस्कृतिक आंदोलन का रूप ले लिया। इस कला को अद्भुत लोकप्रियता प्राप्त हुई। वह रात्रिकालीन मनोरंजन का एक मात्र माध्यम बन गया । दर्शक रात-भर नाचा देखते और आनंदित होते। यह मनोरंजन की नई अवधारणा थी। इसके पहले कमोबेश आधी रात तक गाने- बजाने की परिपाटी के रूप में रात्रिकालीन मनोरंजन प्रचलन में था। मगर रवेली-पार्टी के प्रदर्शनों में नाचा पूरी रात का मनोरंजन था। रात दस बजे कार्यक्रम शुरू होता और सुबह छह बजे तक जारी रहता। हालाँकि मंदराजी के नाचा में केवल मनोरंजन नहीं होता था। उसमें जागरूकता और समाज-शिक्षा पर भी ज़ोर था। दरअसल भारतीय लोकजागरण का एजेंडा -- समाज-सुधार और राष्ट्रीय-भावना -- नाचा के माध्यम से छत्तीसगढ़ में जन-जन तक प्रसारित हो रहा था।

मंदराजी के गम्मतों के कथानक अछूतोद्धार, अस्पृश्यता निवारण, जाति और वर्ण पर आक्षेप, उच्च वर्ग के पाखंड का दृढ़तापूर्वक विरोध, श्रमिक वर्ग की आशा-आकांक्षा, सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन-जैसे विषयों पर एकाग्र थे। उन्होंने जो विषय चुने, वे राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक सुधार से संबंधित हुआ करते थे। अंचल में प्रचलित बाल-विवाह और अनमेल विवाह के विरुद्ध उन्होंने ‘बुढ़वा बिहाव’ गम्मत में मुखर आवाज़ उठाई। समाज-सुधारक पंडित सुंदरलाल शर्मा द्वारा गाँधी जी के समर्थन से चलाए जा रहे अछूतोद्धार कार्यक्रम से उत्पन्न चेतना का प्रभाव मंदराजी के ‘मेहतरिन’ या ‘पोंगवा पंडित’ गम्मत में दिखाई दे रहा था। ‘पोंगवा पंडित’ को 1990 के दशक में जब हबीब तनवीर ने ‘पोंगा पंडित’ के रूप में खेला तो प्रतिक्रियावादी ताक़तों ने उसका जमकर विरोध किया और उनके मंचों पर तोड़फोड़ की । ‘ईरानी’ नक़ल में हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश था। ‘बुढ़वा बिहाव’ गम्मत को हबीब तनवीर ने ‘मोर नाँव दमांद, गांव के नाँव ससुरार’ नाटक के रूप में खेला जो देश-विदेश में अत्यंत लोकप्रिय हुआ। ‘मरारिन’ नकल में प्रेम और आत्मीयता का संदेश था।

लोक-मर्मज्ञ कवि जीवन यदु मंदराजी दाऊ के योगदान और नाचा के इतिहास को आज़ादी की लड़ाई के इतिहास से जोड़ कर देखने का आग्रह करते हैं। वे बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की सामाजिक परिस्थितियों, राजनीतिक घटनाक्रम और स्थानीय परिवेश में घटित उथल-पुथल के संदर्भ में मंदराजी दाऊ के रचनात्मक मानस के गठन पर प्रकाश डालते हुए गांधी जी के छत्तीसगढ़-प्रवास और जनमानस पर उनके प्रभाव, पं. सुंदरलाल शर्मा के अछूतोद्धार कार्यक्रम, राजनांदगाँव के बंगाल नागपुर कॉटन मिल में 1919 में हुए 35 दिनों के मज़दूर आंदोलन, 1920 के कंडेल नहर सत्याग्रह के रूप में किसान आंदोलन आदि का उल्लेख करते हैं, और बताते हैं कि इन सबका उस दौर के युवा-मानस पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे कहते हैं कि इन परिस्थितियों में संगठित नाचा-दल का गठन किया जाना बहुत स्वाभाविक मालूम पड़ता है। मंदराजी के नाचा-प्रदर्शनों में राष्ट्र और समाज की मुक्ति का स्वप्न, देश भक्ति और समाज-सुधार की चेतना, इन्हीं कारणों से प्रकट हो रही थी। मंदराजी अपने गम्मत में आज़ादी का संदेश दिया करते थे। यह अनायास नहीं है कि रवेली नाचा-पार्टी पर अंग्रेज़ी शासन की कुदृष्टि पड़ी और उसके कार्यक्रम को दुर्ग के समीप आमदी गांव में पुलिस ने प्रतिबंधित कर दिया। अन्य स्थानों पर हुई नाचा-प्रस्तुतियों पर भी पुलिस की निगरानी रहती थी।

उन दिनों को याद करते हुए खुमान लाल साव ने लिखा है-- ‘ सन 1942 में स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला भड़क उठी थी। दाऊजी अपने कार्यक्रम में कुछ राष्ट्रीय गीतों को शामिल कर उनका गायन प्रस्तुत किया करते थे। कुछ कार्यक्रमों को अंग्रेज़ी हुकूमत ने प्रतिबंधित भी कर दिया। उन्हें गाली-गलौज और प्रताड़ना का सामना भी करना पड़ा था। इनकी नाचा पार्टी पर अंग्रेजी शासन के खिलाफ तत्कालीन स्वतंत्रता- सेनानियों के आंदोलन का प्रभाव था। इसलिए कई स्थानों पर इनके नशा के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अपना नाचा-प्रदर्शन के समय कलाकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अंग्रेजी शासन के विरुद्ध कुछ उत्तेजक संवाद बोल दिया करते थे। उस समय गांव में पत्र-पत्रिकाएं, रेडियो आदि प्रचार-प्रसार के साधन नहीं होने के कारण रवेली नाचा-पार्टी को ही तत्कालीन राष्ट्रीय नेता जनसमूह एकत्र करने का अपना माध्यम मानते थे और दाऊजी भी इस प्रकार के कार्यों में रुचि रखते थे।’

कहने की आवश्यकता नहीं कि नाचा के इतिहास में मंदराजी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। सच कहें तो मंदराजी छत्तीसगढ़ी नाचा के पर्याय हैं। .स्वतंत्र भारत के छत्तीसगढ़ी युवा-वर्ग में रवेली नाचा- पार्टी और मंदराजी के प्रति अद्भुत दीवानगी थी। भोजपुरी अंचल में बिदेसिया के पुरस्कर्त्ता भिखारी ठाकुर की तरह वे छत्तीसगढ़ी नाचा के उन्नायक शिखर व्यक्तित्व हैं। नाचा को मंदराजी ने न सिर्फ संस्कारित किया बल्कि एक अनुशासित विधा के रूप में उसकी पहचान निर्मित करने और व्यवस्थित लोकनाट्य के रूप में उसे व्यक्तित्व प्रदान करने में भी उनका बड़ा योगदान है।

हबीब तनवीर ने अगर नाचा को छत्तीसगढ़ के गांव-कूचे से निकालकर विश्व-रंगमंच पर-- निस्संदेह नागर रंगमंच के अनुरूप उसे समकालीन मुहावरे में ढाल कर-- प्रतिष्ठित किया, तो उनसे पहले मंदराजी ने उसे विलक्षण ढंग से आधुनिक तेवर दिया और उसके भीतर अपने समय से टकराने का नया अंदाज़ पैदा किया। एक पारंपरिक कला को उन्होंने सुसंगठित और नए ज़माने के मुताबिक़ नया रूप दिया।

लेकिन इसके लिए मंदराजी को निजी तौर पर बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी। यहां तक कि वे कुछ ही दशकों में अपनी समूची पुश्तैनी संपत्ति गँवा बैठे। लेकिन कला के प्रति उनके गहरे लगाव और प्रतिबद्धता में लेश-मात्र भी कमी नहीं आई।

उनका जन्म राजनांदगाँव से 7 किलोमीटर दूर रवेली गाँव के मालगुजार परिवार में 1 अप्रैल 1911 को हुआ था। 1922 में उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी की, लेकिन आगे की शिक्षा पर विराम लग गया। अब उनके लिए घर में कोई काम नहीं था,जिसमें उसका मन लग सके। गाँव में गाने-बजाने की कला में निपुण कुछ लोग थे। उनके सानिध्य में रहकर मंदराजी ने चिकारा और तबला बजाना सीख लिया। इस काम में उनका मन खूब लगा। उन्होंने गायन का भी अभ्यास किया। गाँव में होने वाले धार्मिक- सांस्कृतिक आयोजनों में भी बराबर रुचि लेते। फिर धीरे-धीरे आस-पास के गाँवों में होनेवाले नाचा-गम्मत में अपने पिता के विरोध के बावजूद शामिल होने लगे। एक समय ऐसा आया जब उनकी रुचि और लगन ने लगभग एक जुनून का रूप ले लिया। फिर तो लोक-रंगकर्म को ही उन्होंने अपना जीवन-कर्म चुन लिया और अपने आपको नाचा की कला के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया।

नाचा-कला को तो जैसे इस समर्पित साधक की प्रतीक्षा थी। उन्होंने अपने गाँव के ही कुछ कलाकारों को इकट्ठा कर रवेली नाचा-पार्टी की स्थापना कर दी। मंदराजी स्वयं चिकारा बजाते और गाना गाते। परी नर्तक के रूप में दुकालू यादव और रामरतन साहू और कभी-कभी सगनू यादव काम करते। प्रहसन में जोकड़ ( विदूषक ) का कार्य रामरतन गोंड और सहनी ठाकुर करते थे। नजरिया नर्तक की भूमिका सुकलू यादव या सगनू यादव किया करते। रवेली में तबला बजाने वाला कोई नहीं था। तो पास के गांव कन्हारपुरी से अगरमन देवदास को बुला लिया गया। इस तरह छत्तीसगढ़ की पहली नाचा-पार्टी का गठन हुआ।

खुमानलाल साव जो मंदराजी दाऊ के मौसेरे भाई हैं, यह सारा वृत्तांत बताते हुए कहते हैं कि उनके मालगुजार पिता को यह सब बिल्कुल पसंद नहीं आया। वे बहुत नाराज़ हुए। नाराज़गी में अपने पुत्र को आगे के दिनों में वह लगातार प्रताड़ित करते रहे। आख़िर में सुधरने की आशा जब समाप्त हो गई तब थक-हार कर उनका विवाह दुर्ग ज़िले के भोथली गांव के एक संपन्न परिवार की कन्या राम्हिनबाई, जो अपने माता-पिता की एकमात्र संतान थी, के साथ कर दिया। लेकिन इससे मंदराजी की रुचि और जुनून में कोई बदलाव नहीं आया। वे पूरी तरह नाचा के प्रेम में डूबे रहे। राम्हिनबाई को भी पति का नाचा-गम्मत करना नहीं सुहाया। शुरू में उन्होंने भी विरोध किया, लेकिन फिर अपने पति के कार्यों में टोकना बंद कर दिया।

उन्हीं दिनों पड़ोसी गांव कन्हारपुरी के मुसलमान मालगुजार के घर गणेशोत्सव में कार्यक्रम की तलाश में दो नाचा-कलाकार सुकलू और नोहरदास मानिकपुरी आकर ठहरे हुए थे। मुसलमान मालगुजार उदार हृदय के थे। वे गणेशोत्सव में हिंदू भाइयों के सहयोगी हुआ करते थे। अपने गांव में उन्होंने नोहरदास का नाचा-कार्यक्रम आयोजित किया। इस कार्यक्रम में मंदराजी दाऊ ने चिकारा तथा अगरमन देवदास और रामगुलाल निर्मलकर ने तबला बजाया और रामरतन साहू ने परी का काम किया। इस कार्यक्रम की दर्शकों ने खूब सराहना की। कार्यक्रम के बाद दोनों कलाकारों, नोहरदास और सुकलू को मंदराजी ने रवेली नाचा-पार्टी में शामिल कर लिया। फिर तो एक-एक करके आस-पास के कुछ और कलाकार पंचराम देवदास, नारदराम निर्मलकर आदि भी रवेली नाचा-पार्टी से जुड़े। एक-से-बढ़कर एक प्रतिभाशाली कलाकारों के जुटने से इस तरह एक मजबूत नाचा-पार्टी उठकर खड़ी हुई। फिर देखते-ही-देखते उसने अपार लोकप्रियता और प्रसिद्धि हासिल की। (कालांतर में मंदराजी के साथ मदन निषाद, लालूराम, जगन्नाथ निर्मलकर, गोविंद राम निर्मलकर, देवीलाल नाग, फिदा बाई, माला बाई जैसे निष्णात कलाकार जुड़े। इन सभी कलाकारों ने बाद में नया थियेटर में भी काम किया और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की।)

1933 के जाड़े के दिनों में पूस-पूर्णिमा के दिन दाऊजी अपने मौसा टीकमनाथ साव और मामा नीलकंठ साहू को साथ लेकर हारमोनियम ख़रीदने कलकत्ता चले गए। वहां तीनों ने एक-एक हारमोनियम ख़रीदा। ये ऐतिहासिक हारमोनियम थे, जिनका प्रयोग नाचा के इतिहास में पहले-पहल हुआ। इनमें से एक स्वर्गीय नीलकंठ साव के परिजनों के पास आज भी सुरक्षित है। कोलकाता से हारमोनियम खरीद कर जब तीनों लौट रहे थे, टाटानगर स्टेशन पर डिब्बे में ही वे चरस खरीदने के जुर्म में पकड़ लिए गए। वहाँ एक रिश्तेदार ने उन्हें ज़मानत देकर छुड़वाया। लेकिन उन्हें आठ दिन टाटानगर में ही रहना पड़ा। गिरफ्तारी मंदराजी दाऊ के लिए वरदान सिद्ध हुई। इन आठ दिनों में उन्होंने एक स्थानीय हारमोनियम वादक कलाकार से हारमोनियम बजाना सीख लिया। आपने नाचा-प्रदर्शनों में वे चिकारा के अलावा अब हारमोनियम भी बजाने लगे।

1940 तक नाचा-गम्मत के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्त्तन हो चुका था। मंदराजी के नाचा को समूचे छत्तीसगढ़ में अपूर्व लोकप्रियता प्राप्त हो रही थी। आकाशवाणी रायपुर के छत्तीसगढ़ी आंचलिक कार्यक्रम ‘चौपाल’ के उदघोषक स्वर्गीय बरसाती भइया बताते थे कि रायपुर के सदर बाज़ार में मंदराजी का नाचा होने पर बाबूलाल टॉकीज़ के प्रबंधक दर्शकों के अभाव में रात का शो बंद कर देते थे। लोगों में नाचा देखने का ऐसा जुनून था कि जिस गांव में रवेली वाला नाचा होता, आसपास के लोग उसे देखने के लिए टूट पड़ते।

इस लोकप्रियता के पीछे मंदराजी की अनन्य कला-निष्ठा और एकाग्र साधना थी। नाचा के प्रति उनमें ऐसा समर्पण था कि अपने घर के आर्थिक संसाधनों का उपयोग कर वह अपनी पार्टी चलाते रहें। वह संपन्न मालगुजार परिवार के थे। इसलिए शुरुआत में उनकी इस दीवानगी का असर दिखाई नहीं दिया। लेकिन फिर उनके परिजनों को यह महसूस होने लगा कि वह परिवार की संपत्ति बर्बाद कर रहे हैं। तब उनका हिस्सा देकर उन्हें अलग कर दिया गया । अब वह पूरी तरह स्वतंत्र थे। अपनी पार्टी को ऊँचाइयों की ओर ले जाने की धुन उनके भीतर थी। लेकिन कलाकारों और उनसे जुड़े लोगों ने धीरे-धीरे उन्हें निचोड़ लिया। नाचा की खातिर उन्होंने अपनी सारी संपत्ति स्वाहा कर दी। 1950 तक आते-आते दाऊजी अपनी संपन्नता गँवा चुके थे। आर्थिक रूप से कमज़ोर होने पर कलाकारों के बीच उनकी हैसियत भी कमतर पड़ गई थी। कुछ कलाकार अलग होकर दाऊ रामचंद्र देशमुख के साथ जुड़ गए। लेकिन मंदराजी की कला-निष्ठा अब भी अक्षुण्ण थी। वे हारमोनियम वादक के रूप में दीगर नाचा-मंडलियों के साथ कार्यक्रम देने जाने लगे। उन्हें क़तई हीनता-बोध न हुआ।

नाचा के प्रति उनकी एकाग्र निष्ठा का प्रमाण एक ह्रदय- विदारक घटना है, जिसका ज़िक्र खुमानलाल साव ने किया है। बताते हैं कि दाऊजी पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम में लाखों कठिनाइयों के बावजूद अवश्य जाते थे। उनके गांव से बीस किलोमीटर दूर भाठागांव में उनकी पार्टी के नाचा का आयोजन था। नियतिवश उसी दिन उनके दस वर्षीय पुत्र का असामयिक निधन हो गया। अपार दुख की इस घड़ी में उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया। बैलगाड़ी में अपने साथियों को उन्होंने भाठागांव के लिए रवाना कर दिया। फिर पुत्र की अंत्येष्टि करने के बाद अपनी पत्नी और परिवार के लोगों को समझा-बुझा कर आखिर में वे स्वयं शाम को भाठागांव पहुँचे। । रात-भर दर्शकों का मनोरंजन करते रहे, मानो कुछ हुआ ही न हो। भीतर घुमड़ते दर्द की उन्होंने भनक तक नहीं लगने दी। आखिर में सुबह कार्यक्रम समाप्त होने के बाद वे पुत्र के शोक में फूट-फूट कर रोए।

वह कला के उच्च नैतिक मानदंडों को आचरण में चरितार्थ कर उन्हें जीने वाले साधक कलाकार थे। उन्होंने समझौता कभी नहीं किया। अपने प्रदर्शनों में भी उन्होंने बम्बइया फिल्मों के फ़ूहड़ प्रभाव को नहीं आने दिया। वे ब्रहमानंद के भजन और भक्त कवियों तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई की रचनाओं के अलावा अपने समकालीन उत्कृष्ट शायरों-गीतकारों के गीतों का उपयोग करते थे। नाचा उनके लिए भीड़ जुटाने और लोकप्रियता प्राप्त करने का ज़रिया नहीं था। वह कला का पवित्र साधन था। लोक-जागरण और लोक-शिक्षा का माध्यम था।

नाचा की कला के प्रति उनका अकुण्ठ समर्पण बेजोड़ था। आज यह विश्वास करना कठिन है कि कोई ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जो कला के लिए न सिर्फ़ अपनी संपत्ति को, बल्कि अपने जीवन को भी निःशेष कर दे। वह विलक्षण कलाकार थे। कला को उन्होंने जुनून की तरह अपनाया था। नाचा के लिए वे जिए और नाचा के लिए ही खप गए। .

जीवन के अंतिम दिनों में मुफ़लिसी की ज़िन्दगी जीते हुए नाचा के इस पुरोधा कलाकार ने कला के लिए सब कुछ गँवा दिया। बरबस ही वे हमें भारतेंदु हरिश्चंद्र की याद दिलाते हैं, जिनका संकल्प था कि ‘मेरे पुरखों को धन ने खाया है अब मैं इस धन को खाऊंगा’ । संयोगवश छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य नाचा की परंपरा को आधुनिक चेतना के स्पर्श से सुगठित रूप देने में मंदराजी का योगदान लगभग वैसा ही है, जैसा हिंदी की आधुनिक साहित्य-धारा के प्रवर्त्तन में भारतेंदु का था। मंदराजी दरअसल कला की कपट-रहित दुनिया के स्वच्छंद नागरिक थे। सौंदर्य और आनंद के अद्वितीय क्षणों के लिए सब-कुछ लुटा देने को तैयार वे अनूठे कलाजीवी थे।

मई 1984 की एक शाम भिलाई इस्पात संयंत्र के सामुदायिक विकास विभाग द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया। जीवन में पहली बार वह औपचारिक रूप से किसी संस्था द्वारा सम्मानित किए जा रहे थे। समारोह समाप्त होने के बाद अभिभूत होकर अपने प्रियजनों के समक्ष फूट-फूट कर रो पड़े। कुछ महीने बाद 24 सितंबर 1984 को उनका निधन हो गया।

मंदराजी नाचा में एक गीत गाया करते थे -- ‘दौलत तो कमाती है दुनिया, नाम कमाना मुश्किल है।’ मंदराजी ने दौलत गँवा कर नाम कमाया। रवेली गांव के लोग उनकी याद में हर साल 1 अप्रैल को उनके जन्मदिन पर ‘मंदराजी महोत्सव’ आयोजित करते हैं। इस आयोजन में सम्मिलित होकर छत्तीसगढ़ के लोक-कलाकार उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

मंदराजी का वास्तविक नाम दाऊ दुलारसिंह साव था। कहते हैं, बचपन में बड़े पेट वाला स्वस्थ बालक दुलार सिंह ननिहाल के आंगन में खेल रहा था। पास ही तुलसी-चौरा में बड़े पेट वाले एक मद्रासी की प्रतिमा थी। उसे देख कर नाना जी ने मज़ाक में बालक दुलारसिंह को मद्रासी कह दिया। यही नाम आकर बिगड़ते-बिगड़ते मद्रासी से मंदराजी हो गया। मंदराजी का नाम तो बिगड़ा, मगर उनके यश का बिगाड़ भला कौन कर सकता था। वे नाचा के इतिहास में अमर कीर्ति प्राप्त कर चुके हैं।

- जय प्रकाश
कर्मचारी नगर सोसाइटी के पास,
ए / 63 के पीछे, सिकोला भाठा, दुर्ग (छत्तीसगढ़) 491001

लोकमत समाचार दीपावली विशेषांक 2016 में प्रकाशित इस आलेख की पीडीएफ प्रति आप यहॉं से डाउनलोड कर सकते हैं।

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...