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भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष - 5 :

मेनस्ट्रीम सिनेमा में तेलुगु फिल्में कहॉं हैं?
विनोद साव.

भारतीय सिनेमा ने अपने गौरवशाली सौ वर्ष पूरे कर लिए हैं और इस अवसर पर फिल्मों की रचनात्मकता और समाज पर उनके सार्थक प्रभाव को लेकर बहस जारी है। इसी बहस को आगे बढ़ाते हुए हिन्दी के साहित्यकार और समीक्षक विनोद साव ’’आरंभ’’ के लिए लगातार लिख रहे हैं। यह विनोद जी ने तेलुगु फिल्मों पर बहस के लिए ये विचार हमारे सामने रखे हैं जिन्हें हम पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं इस उम्मीद के साथ कि इसे पढ़ने के बाद हमारे पाठक ज्यादा से ज्यादा इस आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर तेलुगु फिल्मों तथा सभी फिल्मों की चर्चा को आगे बढ़ाएंगे!
संपादक


भारतीय सिनेमा के सौ साल पर फिल्मों की चर्चा चल रही है। इनमें हिन्दी फिल्मों के समानांतर अहिन्दी फिल्मों की चर्चा भी हो रही है। इनमें हिन्दी मराठी, बांग्ला और दक्षिण की कई फिल्मों के निर्देशक कलाकार इन सभी भाषाओं में काम करते हैं और कहीं कहीं एक साथ काम करते हुए दिखते हैं। इन फिल्मों पर होने वाली बहस में हिन्दी सहित अनेक अहिन्दी फिल्मों और उनके कलाकार शामिल हैं पर यह दुखद और आश्‍चर्य जनक है कि इनमें तेलुगु फिल्मों और उनके कलाकारों का जिक्र नहीं हो पा रहा है, जबकि यह माना जाता है कि फिल्मों की संख्या में तेलुगु फिल्में सबसे आगे हैं।

तेलुगु फिल्में संख्या, निर्माण, गुणवत्ता व फिल्मांकन की दृष्टि से हिन्दी फिल्मों के समकक्ष उतरती हैं और पौराणिक फिल्मों के निर्माण में यह हिन्दी तथा अन्य भाषायी फिल्मों से काफी आगे हैं। ऐसा लगता है कि पौराणिक फिल्मों की जिस उत्कृष्टता से तेलुगु फिल्में महिमा मंडित होती रही हैं वही मेनस्ट्रीम सिनेमा (सिनेमा की मुख्यधारा) के मूल्यांकन के दौर में उसकी कमजोरी बन गई है। भारतीय सिनेमा के सौ साल की रचनात्मकता पर जो चर्चा जारी है उनमें उनके सामाजिक सरोकारों पर मुख्य रुप से ध्यान केन्द्रित है और तेलुगु फिल्मों पर दृष्टिपात करने से उनके इस रचनात्मक सामाजिक फिल्मों का पता नहीं लग पा रहा है और उनके अभिनेताओं अभिनेत्रिओं की भूमिका में उस रचनात्मकता को खोजे जाने की फिलहाल प्रतीक्षा ही है जिनसे किसी फिल्म का एक सुधारवादी रुप सामने आता है और उसके दर्शकों पर गहन सामाजिक प्रभाव पड़ता है। यह जरुर है कि तेलुगु फिल्मों के निर्माण को पूरे सौ साल नहीं हुए हैं। यहॉ पहली मूक फिल्म ’भीष्म प्रतिज्ञा’ 1921 में बनी और पहली बोलती फिल्म ’भक्त प्रहलाद’ 1933 में बनी थी। पर भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों को समग्र रुप में देखा जा रहा है और तेलुगु फिल्मों की उम्र केवल आठ साल ही कम है और यह अवस्था कम नहीं है।

हिन्दी तथा तमिल फिल्मों में अलग अलग काल में अलग नायक हुए और उनका अलग अलग प्रभाव पड़ता रहा है। हिन्दी फिल्मों में ऐसे नायकों (हीरो) की यह फेहरिश्‍त लम्बी है। पर तेलुगु फिल्मों में उसके लम्बे कालखण्ड में दो महानायकों एन.टी.रामाराव और नागेश्‍वर राव का कोई सानी आज तक पैदा नहीं हो सका है। ये महानायक तेलुगु फिल्मों के ऐसे वटवृक्ष रहे हैं जिनकी छाया में कोई दूसरा कलाकार पनप नहीं पाया।

एन.टी.रामाराव जिनका लोकप्रिय नाम ’एन. टी.आर.’ रहा है उन्होंने जन मानस पर इतनी पैठ जमा ली थी कि अपने बुढ़ापे काल के बावजूद भी राजनीति में उतरकर आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस जैसी विशाल पार्टी को ध्वस्त कर तेलुगु देशम नाम की एक क्षेत्रीय पार्टी बना ली और उसे सत्तानशीन कर दिया। इस अभिनेता ने पहले ऐसे नेता होने का श्रेय लिया जिन्होंने तेलुगु जनता को ’तेलुगु’ रुप में पहचान दी जबकि इससे पहले तेलुगु जनमानस को आम बोलचाल में समस्त दक्षिण भारतीयों की तरह ’मद्रासी’ कह दिया जाता था। राम, कृष्ण तथा महाभारत के अनेक पात्रों और कई कई पौराणिक गाथाओं के मिथक चरित्रों के अपने अभिनय से जीवन्त कर देने वाले एन.टी.आर. अपने जीते-जी स्वयं एक मिथक बन गए थे और वे आन्ध्र की जनता के बीच किसी भगवान की तरह पूजे जाने लगे थे, पर आज मेनस्ट्रीम सिनेमा में तेलुगु फिल्मों के इस भगवान की कोई चर्चा नहीं है।

एनटीआर की तुलना में उनके समकालीन दूसरे महानायक नागेश्‍वर राव ने सामाजिक फिल्मों में अधिक हिस्सेदारी की थी। उन्हें दादा साहब फाल्के का सर्वोच्च सम्मान भी प्राप्त हुआ था। यह सम्मान निर्देशक बी.नागिरेड्डी को भी प्राप्त हुआ था। एनटीआर भी यह सम्मान प्राप्त कर सकते थे। जल्दी दिवंगत हो जाने और संभवतः घोर राजनीति में सक्रिय हो जाने के कारण वे इस सम्मान को नहीं पा सके थे।

यहॉ पर मुद्दा यह है कि फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कई किस्म के गिनीज रिकार्ड बना लेने वाली ’टॉलीवुड’ की तेलुगु फिल्मों ने अपने गौरवशाली इतिहास में मात्र दो नायकों को ही पहचान दी। बाद की आधुनिक फिल्मों में चिरंजीव और नागार्जुन जैसे कुछ नायक कामयाब रहे पर वे भी कला और सार्थक फिल्मों के अभिनेता नहीं माने गए। दक्षिण की दूसरी भाषाओं की फिल्मों में आज भी शिवाजी गणेशन को तमिल फिल्मों के महान अभिनेता के रुप में उनके योगदान को सिनेमा की मुख्यधारा में शामिल किया जाता है। बाद में रजनीकांत और कमलहासन हुए जिन्होंने फिल्मों और उसकी तकनीकों में कई अनूठे प्रयोग किए। रजनीकांत ने ’रोबोट’ बनाकर फिल्मों की धारा को एक नयी दिशा दे दी। कमलहासन ने तो कई कलात्मक सार्थक फिल्मों का निर्माण किया और सिनेमा की मुख्य धारा को हमेशा प्रभावित किया है। कन्नड़ भाषा बोलने वालों में नाटकों की ओर अधिक और फिल्मों की ओर कम रुझान रहा, इसलिए वहॉ व्यावसायिक फिल्मों के एक अभिनेता राजकुमार की ही हैसियत बन पाई लेकिन कन्नड़ और हिन्दी की कला फिल्मों को गिरीश कर्नाड ने खूब उंचाई दी है।
बांग्ला भाषा के कलाकार व्यावसायिक फिल्मों में दखल नहीं दे सके, अपनी व्यावसायिक भूख को मिटाने के लिए उन्होंने हिन्दी फिल्मों को अपनाया और सफलता प्राप्त की। फिर भी बांग्ला की व्यावसायिक फिल्म में उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की लोकप्रियता का बुखार बंगाली दर्शकों को चढ़ा था। सामाजिक सरोकारों वाली उनकी समानांतर व कला फिल्मों ने अंतर्राष्ट्रीय उंचाई प्राप्त की और सत्यजीत राय व मृणाल सेन जैसे निर्देशकों ने बड़ी प्रतिष्ठा अर्जित की। मराठी भाषा क्षेत्र ने फिल्म निर्माण का न केवल इतिहास रचा बल्कि इस इतिहास का आरंभ किया जहॉ दादा साहब फाल्के और व्ही.शांताराम जैसे ऐतिहासिक फिल्म निर्माता हुए। इन सबकी चर्चा आज भारतीय सिनेमा के सौ साल के अवसर पर हो रही है। पर यह विडंबना है कि दुनिया का सबसे बड़ा स्टुडियो हैदराबाद में रखने, फिल्मों का सबसे बड़ा परदा टॉगने, सबसे ज्यादा सिनेमा हॉल और दर्शक होने के बावजूद भी तेलुगु फिल्मों के किसी भी निर्माता निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री की चर्चा सिनेमा की मुख्यधारा में नहीं हो पा रही है, जबकि तेलुगु फिल्मों की कितनी ही नायिकाओं ने व्यावसायिक हिन्दी फिल्मों को उंचाइयॉ दीं। आखिर इन सबों का कारण क्या है? इस पर तेलुगु फिल्मों के विशेषज्ञ समीक्षक क्या कहते हैं? टॉलीवुड इन सबके लिए कितना जिम्मेदार है? आन्ध्र प्रदेश की मीडिया की क्या भूमिका रही है? क्या तेलुगु फिल्मों की सारी रचनात्मक विषेषताऍं पौराणिकता के प्रति घोर श्रद्धा के गाल में समा गईं! नायक-नायिका की उन्नत अदाओं में सराबोर हो गईं! किसी महाशक्ति के चमत्कार, मारधाड़ या स्टंट की चकाचौंध में डूब गईं। क्या तकनीक दिखाने के चक्कर में हम कथानक के प्रभाव को भूल गए। इन सबों पर आज चर्चा की जरुरत है, तेलुगु कला विशेषज्ञों को गंभीर होकर सोचने की जरुरत है। फिल्म निर्माण की सारी क्षमताओं और तकनीकी उत्कृष्ठता के प्रदर्शन के बावजूद आज मेनस्ट्रीम सिनेमा में तेलुगु फिल्में कहॉ खड़ी हैं? भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष की चर्चा से तेलुगु फिल्में क्यों नदारद हैं? आखिर क्यों?

विनोद साव.

20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

अच्छाई और बुराई के बीच ’प्राण’ एक शख्सियत

भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष
विनोद साव

भारतीय सिनेमा के सौ सालों में सिनेमा का सिनेरियो प्राण की चर्चा के बगैर कुछ अधूरा सा लगेगा। पिछले दिनों उन्हें श्रेष्ठतम अभिनय के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार के सर्वोच्च पुरस्कार से नवाजा गया। प्राण साहब को यह सम्मान बहुत पहले ही मिल जाना था। अगर वे 93 वर्ष की आयु का लम्बा जीवन नहीं जीये होते तो यह पुरस्कार भी उन्हें नहीं मिल पाता। पुरस्कारों के साथ यह भी एक घालमेल है।

प्राण दिखने में बेहद हसीन इन्सान रहे हैं। अपनी नोकदार नाक व ठुड्डी, रसीली ऑखों और सिर के घुमावदार बालों से कई किस्म की भंगिमाएं वे दे लेते थे। उनके पास अभिनय और संवाद अदायगी की अकूत क्षमता थी। जिन चरित्रों में वे खड़े होते थे उनमें प्राण इस कदर प्राण डाल देते थे कि दर्शक उन्हें बडे विस्मय और भय से देखते हुए रोमांचित हो उठते थे। उनके जानदार अभिनय को देखकर दर्शक वैसे ही तालियॉ पीटकर वाह वाह कर उठते थे जैसे वे किसी भारतीय रुपहले परदे के बहुचर्चित ’खलनायक’ को नहीं बल्कि किसी रुमानी ’नायक’ को देख रहे हों। ’विलेन’ की अदाकारी में कई बार वे सिनेमा के असली हीरो से बाजी मार ले जाते थे और खुद हीरो बन जाते थे। प्राण कहते भी हैं कि ’आजकल के विलेन लाउड हो जाते हैं। दरअसल विलेन को भी अपनी फिल्म का हीरो हो जाना चाहिए।’ जबकि नायकत्व से भरे अपने व्यक्तित्व के बाद भी प्राण ने कभी भी फिल्मों में नायक बनना पसंद नहीं किया ज्यादातर खलनायक ही बने रहे, लेकिन अपनी भिन्न क्षमताओं के कारण उन्होंने अपने अभिनय की दूसरी पारी में कई चरित्र अभिनेताओं के किरदार को भी बखूबी निभाया और जीवंत किया। 



लाहौर की उसी पट्टी से प्राण भी आए थे जिस पट्टी ने फिल्म जगत को तमाम बड़े अदाकार और कलाकार दिए। फिल्मों में आने से पहले वे शिमला में रहे जहॉ कम उम्र में ही सिगरेट पीने की लत उन्हें लग चुकी थी। बाद में फिल्मों में उनके सिगरेट पीने, धुऑ छोड़ने और छल्ला निकालने के कई लटके झटकों को कैमरामैनों ने बखूबी फिल्माया और देखने वालों ने खूब मजा लिया। कभी कभी सुनहरे बालों वाले प्राण को, ऑखों पर सुनहरी लेंस धारण किए, सुनहरा सूट पहने हुए सुनहरे डिब्बे में स्प्रिट पीते हुए भी दिखलाया जाता था। यह सुनहरा दृश्‍य दर्शकों की ऑखों में बस जाता था और प्राण लोगों के दिलों में और भी बस जाते थे। खलनायक होते हुए भी प्राण नायकों की तरह स्टायलिश हुआ करते थे। बाद के प्राण खलनायक की भूमिकाओं से हटकर परोपकारी और मजाकिया इन्सान के रुप में आने लगे थे और यहॉ भी उन्होंने अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी थी। अपने वास्तविक जीवन में वे कभी भी खल पात्र नहीं बल्कि एक नेक दिल इन्सान रहे हैं।

अभिनय के हिसाब से देखें तो प्राण में वैसी ही अभिनय क्षमता भरी थी जैसी दिलीपकुमार और अमिताभ बच्चन में रही। उनकी फिल्मों की संख्या भी बड़े स्टारों की तरह बहुत ज्यादा रही। दिलीपकुमार की तरह वे भी पचास बरसों से अधिक समय तक अभिनय में सक्रिय रहे। उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में भी दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन के साथ की। कला समीक्षक ये मानते हैं कि फिल्मों के दृश्‍यों के दौरान दिलीप कुमार के व्यक्तित्व और अभिनय को जो अतिरिक्त गरिमा मिलती थी वह उनकी प्राण से टकराहट के कारण मिलती थी। यही प्रभाव अमिताभ के साथ भी देखा जा सकता है विशेषकर ’जंजीर’ के शेरखान के साथ। इस फिल्म के निर्देशक प्रकाश मेहरा को प्राण ने कह भी दिया था कि अमिताभ के रुप में हमारी फिल्मी दुनियॉ को एक बड़ा स्टार मिल गया है। दिलीप और अमिताभ की तरह प्राण भी सबसे ज्यादा अपनी संवाद अदायगी के लिए जाने जाते थे। उनके डायलाग बड़े दिलकश होते थे। संवादों को बोलते समय उनकी गड़गड़ाती हुई टीस भरी आवाज ऐसी बुलन्द होती थी कि मामूली सा संवाद भी धॉसू डायलाग साबित हो जाता था। फिल्म ’मजबूर’ में जब इंसपेक्टर अमिताभ उनसे पूछते हैं कि ’सुना है कि चोरों के भी उसूल होते हैं!’ तब प्राण अपने अन्दाज में कह उठते हैं कि ’चोरों के ही तो उसूल होते हैं राजा।’ उनकी संवाद अदायगी का प्रभाव उनके समकालीन खलनायकों जीवन और अजीत में भी देखा जा सकता है।

अभिनय की उंचाई और दिलकश आवाज के जरिये प्राण में भी दिलीप और अमिताभ की ही तरह फिल्मों के बेबुनियाद दृश्‍यों और चरित्रों को उंचा उठा देने की ताकत थी। भारतीय सिनेमा की छवि ज्यादातर व्यावसायिक सिनेमा की ही बन पाई और इनके बाजार को बढ़ाने के लिए जो स्टार और स्टारडम चाहिए वह प्राण जैसी शख्सियतों के पास भरपूर रही है। खलनायकों और चरित्र अभिनेताओं में शायद ही किसी ने इतनी लम्बी पारी खेली हो।

विनोद साव

संपर्कः मो. 9407984014


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
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भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष: संवेदनाओं से भरे कलाकार थे कामरेड ए.के.हंगल

                   विनोद साव

हिदी फिल्मों के चरित्र अभिनेता ए.के.हंगल नहीं रहे। एक ऐसे दिन में उनका अवसान हुआ जब चंद्रमा पर सबसे पहले जाने वाले अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग भी यह दुनियॉं छोड़ गए। ए.के.हंगल ऐसे समय में कूच कर गए हैं जब हम भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष मना रहे हैं। सुपरस्टार राजेश खन्ना के साथ सबसे ज्यादा सोलह फिल्मों में अभिनय करने वाले जीवंत अभिनेता अवतार वीनित किशन हंगल राजेश खन्ना के तुरंत बाद ही हमसे बिदा हो गए, ‘शोले’ में कहे गए अपने संवाद की तरह ‘इतना सन्नाटा क्यों है भई।’ ...और अपने पीछे वे सन्नाटा छोड़ गए। साथ ही उस सन्नाटे को बढ़ा गए जो देव आनंद और राजेश खन्ना के गुजर जाने के बाद पसरा पड़ा सन्नाटा है। मेगा हिट ‘शोले’ में ए.के.हंगल की भूमिका सबसे छोटी थी, कुछ मिनटों की लेकिन सबसे यादगार असर उन्हीं के अभिनय ने छोड़ा था, अपनी खास संवाद अदायगी और भाव प्रवण चेहरे से। इस फिल्म में उन्होंने बमुश्किल तीन चार संवाद बोले थे लेकिन उनके बोले गए हर संवाद दर्शकों के दिलों को छू गए थे। कुछ तो दर्शकों को रुला भी गए हैं। जब नमाज के लिए जाते हुए उन्हें यह खबर मिलती है कि उनका नवजवान बेटा डाकुओं के हाथों मारा गया है तब वे कहते हैं कि ‘जाता हूं ... आज अल्ला से पूछूंगा कि इस गॉंव में शहीद होने के लिए मुझे दो चार औलादें और क्यों नहीं दीं!’


फिल्मों में ए.के.हंगल की उपस्थिति एक बेहद संवेदनशील उपस्थिति होती थी। एक ऐसी उपस्थिति जिसमें एक जिम्मेदार किरदार खड़े होता था। एक ऐसा चरित्र जो महज एक पारिवारिक व्यक्ति नहीं है बल्कि गहन और व्यापक सरोकारों से जुड़ा हुआ जिम्मेदार इंसान है। चाहे वह शोले का मौलवी हो, नमकहराम का यूनियन लीडर हो, बावर्ची का पारिवारिक व्यक्ति हो या फिर ‘शौकीन’ का अपनी उम्र को दरकिनार कर रहा शौकीन मिजाज इंसान हो - हर कहीं उनकी उपस्थिति दर्शकों को छू लेती थी। ऐसा लगता था कि वे अभिनय कर नहीं रहे हों केवल कैमरे के सामने अपने को प्रस्तुत कर रहे हों। इस मामले में रंगीन फिल्मों के दौर के दो अभिनेता ओम पुरी और ए.के.हंगल एक समान प्रभाव छोड़ते हैं। एक सामान्य और संजीदा आदमी की तरह अभिव्यक्ति देते हुए अपने चरित्रों को जी लेने की काबिलियत इनमें रही है।

इसका एक बड़ा कारण यह है कि हंगल थियेटर की दुनियॉं से आए थे। इसलिए उनके अभिनय में एक किसम की सहृदयता दिखा करती थी। वे अपनी भूमिकाओं को हृदय से जीते थे और इसलिए एकदम स्वाभाविक अभिनय करते थे। वे पेशावर के उसी हिस्से से आए थे जिसने बम्बई फिल्म उद्योग को महान हस्तियॉं दी थीं। हंगलजी को भी वर्ष 2006 में fहंदी फिल्मों में उनके योगदान के लिए पद्मभूषण से नवाजा गया था।


ए.के.हंगल स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, यूनियन लीडर थे, इप्टा के आजीवन सदस्य एवं अंतिम समय तक राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। वे जब पेशावर से इक्कीस बरस की उम्र में मुबई पहुॅचे तब उनकी जेब में भी उतने ही रुपये थे जितनी कि उनकी उम्र थी। वे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य रहे और अपनी आजीविका चलाने के लिए उनके लिए दर्जी का काम किया। जिस तरह का अभाव और संघर्षमय जीवन जीया वैसा ही अभिनय किया। उनकी पृष्ठभूमि और उनके व्यक्तित्व और अभिनय क्षमता को देखते हुए उनका सबसे सही उपयोग ऋषिकेश मुखर्जी ने अपनी फिल्म ‘नमक हराम’ में किया था। इसमें वे एक ईमानदार यूनियन लीडर की भूमिका में थे जिनके साथ राजेश खन्ना की टकराहट होती है और यूनियन के चुनाव में हंगल की हार होती है। इस फिल्म में हंगल के घर में महान श्रमिक नेताओं और विचारकों के चित्र लगे थे जिनमें माक्स, लेनिन के साथ व्ही.व्ही.गिरी के चित्र भी दीवालों पर टॅगे दिखलाए गए हैं। गिरी देश के पहले राष्ट्रपति थे जो कभी मजदूर नेता थे। ऋषिकेश मुखर्जी जैसे विचारवान और कल्पनाशील निर्देशक ही इस तरह का फिल्मांकन कर पाते हैं। इस फिल्म की कहानी तब के यूनियन नेताओं और उद्योगपतियों के बीच टकराहट से उपजी मशीनबंदी पर आधारित थी। तब बंबई के कपड़ा मिलों में दत्ता सावंत के दौर में उपजे यूनियन आंदोलनों में कैसा बहकाव आया था और किन स्थितियों में कपड़े मिल बंद हो गए थे और लाखों मजदूरों के सामने पेट भरने की कैसी विकराल समस्या आ गई थी इन सबको आधार बनाकर रची गई कहानी का बड़ा प्रभावशाली फिल्मांकन हुआ है।


दर्शकों की संवेदना को झकझोर देने वाली अपनी भूमिकाओं के बाद भी ए.के.हंगल फिल्मों को ‘शो-बिजनेस’ का एक बड़ा क्षेत्र माना करते थे। अपनी आत्मकथा ‘ए.के.हंगल का जीवन और समय’ में उन्होंने कहा है कि ‘फिल्मों को लेकर मेरी कोई बहुत महत्वाकांक्षा कभी नहीं रही किन्हीं परिस्थितियों में मैं यहॉं आ गया और एक लम्बा समय यहॉं गुजारने के बाद भी मैं यहॉं किसी आउटसाइडर की तरह ही रहा।’ यह वही संकट है जो थियेटर की दुनियॉं से आए बेहद परिपक्व कलाकारों के सामने होती है। कुछ इसी तरह का संकट कलकत्ता से आए उत्पलदत्त के सामने भी था और वे अपनी जरुरतें पूरी करने के बाद बंबई फिल्मोद्योग को छोड़ फिर कलकत्ता बस गए थे और सामान्य जीवन जीने लग गए थे।


ए.के.हंगल इप्टा से जुड़े होने के कारण निरंतर सक्रिय रहे। वे प्रलेस तथा इप्टा के आयोजनों में आते जाते थे। कभी बिलासपुर आए तो कभी रायपुर पहुंचे। भिलाई इप्टा के कलाकार बताते हैं कि पिछले साल इप्टा के राष्ट्रीय अधिवेशन को मुंबई के बदले में भिलाई करवाने की पहल हंगल ने खुद की थी ‘यह कहते हुए कि मुंबई महानगरी है यहॉं सम्मेलन अधिवेशन होते रहते हैं इस बार अधिवेशन भिलाई में होना चाहिए।’ 98 वर्षीय हंगल अस्वस्थ थे भिलाई के अधिवेशन में वे नहीं आ सके तो उनका सचित्र संदेश आया जिसमें बोलते हुए उन्हें एल.सी.डी.पर दिखाया गया। अशक्त होने के बाद भी अपने कामरेडी जोश में वे बोल रहे थे कि ‘मुझसे पहले भी यह दुनियॉं थीं, और मेरे बाद भी यह दुनियॉं रहेगी और एक बेहतर दुनियॉं के लिए हमारे लिए लड़ाई जारी रहेगी।’




20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
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संदर्भ: भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष : 2

बच्चों के प्रिय हीरो थे दारासिंह

- विनोद साव
 
भारतीय सिनेमा में दारासिंह का भी एक जमाना रहा जब वर्ष 1960 से 1970 के बीच फिल्मों में उनकी मांग खूब थी। वे अखाड़े से आए हुए पहलवान थे। उन्होंने फ्री-स्टाइल कुश्ती की अपनी स्वतंत्र शैली बना ली थी जिसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिल गई थी और वे इस कुश्ती के एक अपराजेय नायक थे। उन्हें ता-उम्र कोई पराजित नहीं कर सका। यह कभी नहीं सुना गया कि दारासिंह किसी दंगल में हार गए हों। वे कुश्ती की हर प्रतियोगिता में हमेशा विजय प्राप्त करते थे। तब अपने आप को बलवान समझने वाले आदमी के लिए यह मुहावरा भी चल पड़ा था कि ‘अपने आप को बड़ा दारासिंह समझता है।’ दारासिंह कुश्ती के दूसरे पहलवानों से भिन्न थे उनका कद साढ़े छह फुट का था। उनका रंग एकदम गोरा था। बाल घुंघराले थे और नाक-नक्श एकदम तराशे हुए से। उनके रोम रोम से उनकी चुस्ती फुर्ती एकदम साफ झलका करती थी। कुश्ती के रींग में वे किसी चीते की तरह उछल कर अपने प्रतियोगी पर वार किया करते थे। तब हम लोग प्रायमरी मिडिल स्कूल के छात्र थे और वे कई बार दुर्ग भिलाई में कुश्ती की प्रतियोगिता में भाग लेने आया करते थे। अपने सुंदर व्यक्तित्व के कारण वे फिल्मों के सफल नायक भी हो गए थे।

बहुत पहले एक बार दुर्ग में शहीद भगत fसंह उच्चतर माध्यामिक शाला की स्थापना के लिए दारासिंह राशि जुटाने आए थे कुछ पहलवानों को लेकर तब टिकट पर एक कुश्ती प्रतियोगिता रखी गई थी। उस दिन मैं दुर्ग रेलवे स्टेशन में अपने किसी रिश्तेदार को छोड़ने गया था। प्लेटफार्म पर संतराबाड़ी, दुर्ग के सरदार भाइयों का बड़ा समूह वहॉं बाजे गाजे के साथ उपस्थित। बम्बई-हावड़ा एक्सप्रेस का आगमन हुआ और प्लेटफार्म पर सरदारों ने भांगड़ा नाचना शुरु कर दिया था। दारासिंह जिन्दाबाद की गूंज होने लगी थी। लोगों ने देखा कि फस्ट क्लास कम्पार्टमेंट से दारासिंह निकले। उनका विराट व्यक्तित्व बाहर आया, वे उंचे पूरे गोरे बदन पर लाल रंग का चुस्त टी-शर्ट

पहने हुए थे और अपने सिर के घुंघराले बालों के साथ वे बेहद खूबसूरत दिख रहे थे। उन्हें देखते ही प्लेटफार्म में भगदड़ गच गई और इस भगदड़ में सिक्ख भाइयों का भांगड़ा शुरु हो गया था और देखते ही देखते वहॉं रंग आ गया था।

दारासिंह अकेले पहलवान हैं जो फिल्मों में हीरो का रोल पा गए थे। रुप रंग में सुंदर होने का उन्हें यह लाभ मिला कि वे लगभग दस बरस तक स्टंट फिल्मों के सफल नायक रहे। उस समय की युवा अभिनेत्रियां निशि, सोनिया साहनी और मुमताज उनकी नायिका बनीं। मुमताज जैसी खूबसूरत और भाव प्रवण अभिनेत्री जिनकी सुपर स्टार राजेश खन्ना के साथ जोड़ी बाद में लोकप्रिय हुई थी उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत दारासिंह की नायिका बनकर की थी। दारासिंह की फिल्मों में केवल मारधाड़ नहीं होते थे बल्कि नायिकाओं के साथ उनके प्रेम दृश्य भी होते थे। उनके गीतों को ज्यादातर महेन्द्र कपूर गाते थे। मुकेश और मोहम्मद रफी की आवाज भी उनके लिए ली गई थी। दारासिंह की एक फिल्म ‘हम सब उस्ताद है’ में उनके साथ शेख मुख्तार और किशोर कुमार ने काम किया था। इस फिल्म में पूरे समय दारासिंह और शेख मुख्तार के बीच लड़ाई चला करती थी और इन दृश्यों के बीच में किशोर कुमार गाने गाया करते थे। प्यार बाॅटते चलो और अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो - जैसे पांच कर्णप्रिय गीत इस फिल्म में किशोर कुमार ने गाये थे और फिल्म हिट हो गई थी। ‘सिकन्दरे आजम’ में उन्होंने सिकंदर बने पृथ्वीराज के साथ पोरस की चुनौतीपूर्ण भूमिका की थी।

बच्चों और किशोरों में दारासिंह ज्यादा लोकप्रिय हुए थे। उनकी फिल्में जब हाउसफूल चला करती थीं तब उनमें प्रायमरी मिडिल स्कूल पढ़ने वाले छात्रों की भीड़ अधिक हुआ करती थी। फिल्मों में उनकी बहादुरी के दृश्य देख देखकर बच्चे खूब ताली बजा कर मजा लिया करते थे। वे अक्सर किसी शैतान की गुफाओं में घुस जाते थे और उसका अंत कर लोगों को उसके दमन और अत्याचार से बचाने वाले महानायक बन जाते थे। बच्चों के बीच दारासिंह की वैसी ही इमेज बन गई थी जो कॉमिक्स की दुनियॉं में महा-मृत्युंजय या फैंटम की थी, टीवी धारावाहिकों में शक्तिमान या स्पाइडर मेन की थी। धार्मिक फिल्मों में हनुमान और भीम की थी। वे सामाजिक फिल्मों से भी ज्यादा अपनी धार्मिक फिल्मों में छाप छोड़ते थे। हनुमान और भीमसेन के रुप में वे ज्यादा लोकप्रिय हुए थे। शंकर की भूमिका भी उन्होंने की थी।

दारासिंह में अपने पंजाब के प्रति बड़ा प्रेम था। उनकी संवाद अदायगी में पंजाबी भाषा का प्रभाव था। टीवी पर उनके साक्षात्कार पंजाबी में होते थे। अपने फिल्मों में जीये चरित्र की तरह उनमें देशभक्ति की भावना कूट कूट कर भरी थी। वे अपने वास्तविक जीवन में भी एक सहृदयी इंसान और सच्चे देशभक्त लगा करते थे। वे राज्य सभा के सदस्य हो गए थे। देवानंद, शम्मीकपूर जैसे अनेक जनप्रिय-नायकों की तरह दारासिंह ने भी अपनी अंतिम साॅस एक ऐसे समय में ली है जब हम भारतीय फिल्मों के सौ वर्ष मना रहे हैं।
विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग, छत्तीसगढ
मो. 9407984014


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
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संदर्भ: भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष

लोकप्रियता की अजब पहेली राजेश खन्ना
कुछ अनछुए आत्मीय प्रसंग
विनोद साव

साल 1969 से 1974 तकरीबन पॉंच सालों का यह एक ऐसा दौर था जिसमें हमारे हिस्से में राजेश खन्ना आए। हम हाई स्कूल के छात्र फिल्मी दर्शक के रुप में राजेश खन्ना बैच के छात्र थे, जबकि वे हम स्कूल के लड़कों से दस-बारह साल बड़े रहे होंगे लेकिन हमारे वे एक ऐसे प्रिय पात्र हो गए थे कि वे हम सबको अपने साथ पढ़ने वाले किसी मित्र की तरह लगा करते थे। हम पर राजेश खन्ना का प्रभाव कितना गहरा था इसका एहसास तब हुआ जब हमें स्कूल की लड़कियॉं शर्मिला टैगोर और मुमताज की तरह दिखने लगी थीं। हमें ऐसा लगता कि हमारी सूरत किसी ऐसे हीरो से मिल रही है जिसे हमने ‘आराधना या ‘कटी पतंग’ में देखा हो। हमारे सिर के बालों के बीच थोड़ी बाॅयीं ओर मांग अपने आप निकलने लग गई थी। अपनी मुचमुची मुस्कान के साथ हम आॅखें झपका कर बातें करने में मशगूल हो जाते थे। हमने डबल सिलाई वाले शर्ट पहने। धोती और पाजामा के साथ नहीं बल्कि पेंट के उपर कुरता पहनने का नया शौक चर्राने लगा था, जिसे गुरु शर्ट कहा जाता था। उनके पहने कोट में पहली बार फ़र वाले कॉलर दीखने लगे थे। जिस लड़के के चेहरे पर खुरदुरी बरहट होती वह तो और भी राजेश खन्ना की तरह रुमानी लगा करता। हमारी आवाज में वही आत्मीयता और अपनापन आने लगा था जो उन दिनों सिनेमाहालों में गूंजा करती थी। यात्रा के समय हम ट्रेन में खिड़की के पास बैठते तब हमारे भीतर ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू’ के बोल गूंजने लगते। तब राजेश नाम जो कि कचरे के अम्बार की तरह फैला हुआ नाम था अकस्मात ही चमकदार हो उठा और हर राजेश नामधारी इन्सान को हम राजेश खन्ना समझकर देखा करते थे। देश के हर लड़के के उपर राजेश खन्ना का भूत सवार था और हर लड़की के सपने में राजेश खन्ना।

‘अमरप्रेम’ का वह दृश्य याद आ रहा है जिसमें शर्मिला टैगोर से मिलने के लिए राजेश खन्ना पत्तल में समोसे और चटनी लेकर आया करते थे। वह बारह बजे का मैटिनी-शो था। इंटरवल करीब डेढ़ बजे के आसपास होना था। हम काॅलेज के मित्र फिल्म देख रहे थे। इस दृश्य का ऐसा असर पड़ा कि इंटरवल में हम तीन मित्र मिलकर दर्जन भर समोसे खा गए। हमने समोसे खाना भी राजेश खन्ना से सीखा।

राजेश खन्ना एक बार हमारे शहर दुर्ग आ गए थे कांग्रेस का चुनाव प्रचार करने। उनकी चुनावी आम सभा हमारे घर के पास पद्मनाभपुर स्थित मैदान में थी। शहर में यह पता चला कि वे लड़कियाॅ जो सोलह बरस की उमर में अपने जिस लवर बॉय राजेश खन्ना की दीवानी थीं, वे सभी उनके आगमन के समय चालीस-ब्यालीस बरस की हो गई थीं, लेकिन अपने प्रिय नायक के अपने शहर में आने की खबर ने उनमें झुरझुरी पैदा कर दी। उन्हें सहसा विश्वास नहीं हो पाया कि उनके दौर के रुपहले परदे का एक महानायक उनके शहर के किसी मैदान में अपनी आशिक अदाओं में बोलेगा। वे उस कालखंड में विचरण करते हुए कब उस चुनावी आम सभा के सामने आकर खड़ी हो गईं उन्हें खुद ही होश नहीं रहा था। ऐसी भारी भीड़ उन प्रौढ़ महिलाओं की दिखी थी जो अपनी किशोरावस्था में इस सम्मोहक नायक के लिए सिनेमाहालों की ओर भागा करती थीं। आज भागकर वे इस मैदान में पहुंच गई थीं। सुपर स्टार उस दिन सफेद कुरते और पाजामे में थे। अभिनेता के नहीं एक नेता के लिबास में। उन्होंने अपना भाषण देने के बाद जोर से आवाज लगाई ‘भाइयो...आप लोग अपना बहुमूल्य वोट साहू साहब को दें।’

‘कौन सा साहू... यहॉं तो सभी साहू हैं।’ उस समय दुर्ग लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस, भाजपा और बसपा तीनों प्रमुख दलों के उम्मीदवार साहू थे। तब उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी जागेश्वर साहू का हाथ उठाकर कहा ‘इन्हें अपना वोट दें ...यही है असली साहू...।’

मैं शाम को अपने कार्यालय से घर आया। तब मेरे छोटे बेटे अमिय ने पुलकते हुए बताया था कि ‘पापा हम तो आज राजेश खन्ना से मिले हैं। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा।’ उसने सारा वृतांत कह सुनाया। वह चुनावी आमसभा के पास वाले स्कूल में छठवीं कक्षा का विद्यार्थी था। स्कूल से छुट्टी होने के बाद वह चुनावी मंच की ओर दौड़ गया था और मंच के सामने जाकर खड़ा हो गया। अपना भाषण देने के बाद राजेश खन्ना जब मंच की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे तब पास खड़े एक मिडिल स्कूल के बच्चे को स्कूल यूनिफार्म में देखकर वे प्रफुल्लित हो गए और स्नेह से अपना हाथ उसके सिर पर रखते हुए आगे बढ़ गए थे।


कभी प्रतिष्ठित पत्रिका ‘धर्मयुग’ के बाल-जगत स्तंभ में बच्चों के लिए साक्षात्कार देते हुए उन्होंने बताया था कि ‘एक बार एक नाटक में उन्हें दरबान की भूमिका दी गई थी जिसमें एक छोटा सा डॉयलाग बोलने में उन्हें पसीना छूट गया था।’ आगे चलकर यही वो कलाकार है जिसकी प्यार से लबरेज आवाज को सुनने के लिए दर्शक हमेशा तरसते थे। तब उनकी फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’ ने बच्चों का मन मोह लिया था। उनकी ज्यादातर फिल्में पारिवारिक और भावना प्रधान होती थीं। किसी भी किरदार में वे अपने दोस्ताना अंदाज में छा जाते थे। वे आज के नायकों की तरह अंडरवर्ड में स्टेनगन लेकर दौड़ने वाले हीरो नहीं थे। अपने समय के उम्दा निर्देंशकों ऋषिकेश मुखर्जी, वासु भट्टाचार्य, असित सेन, शक्ति सामन्त, दुलाल गुहा और यश चोपड़ा के वे चहेते नायक थे। वे सदाबहार देव आनंद की शैली के कलाकार थे। चाल-ढाल, पहनाव-ओढ़ाव, रुप सौन्दर्य और अन्दाज में रुमानी पन, संवाद अदायगी का अपना अलग ढंग - ये कुछ ऐसी समानताएँ थीं जो इन दोनों में एक जैसी थीं। दोनों की लबों पर किशोर कुमार की आवाज खूब फबती थी। देव साहब ने संगीतकार एस.डी.बर्मन को स्थापित किया तो राजेश खन्ना ने आर.डी.बर्मन को।

कुछ दिनों पहले भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष पर शाहरुख खान ने एक सम्मान समारोह का आयोजन करवाया था और उसमें राजेश खन्ना के साथ दिलीपकुमार और कई मशहूर कलाकारों को बुलाया गया था। बूढ़े हो चुके, मंच पर शांतचित्त बैठे राजेश खन्ना को जब बोलने के लिए आमंत्रित किया गया तब वहॉं उनके खड़े होते ही हर्ष और उल्लास की एक लहर दौड़ गई। उन्होंने अपनी फिल्म ‘दाग’ की वह भावपूर्ण कविता सुनायी ‘आज मैं हूँ जहॉं कल कोई और था, यह भी इक दौर है और वह भी इक दौर था... मेरे दोस्त मैं तो कुछ भी नहीं।’ यह यश चोपड़ा निर्देशित ‘दाग’ के एक दृश्य की लम्बी कविता का अंश है जिसमें नगर निगम में मेयर के चुनाव जीतने के बाद जब उनके सम्मान में कार्यक्रम रखा जाता है वहॉं यह कविता नायक द्वारा सुनाई जाती है। उसी कविता को जब आज वे अपने सम्मान में सुना रहे थे तब समारोह स्थल तालियों और सीटियों से गूँज उठा था। यह दिखा कि आज भी उनके चाहने वालों में एक अतृप्ति और छटपटाहट बाकी है, वह प्यास बाकी है जो उनके समय में थी। आज भी चैनलों में और आर्केस्ट्रा पार्टियों में सबसे ज्यादा उनके सिने गीतों को देखे सुने जाने की उद्दाम लालसा भरी है। दिल अभी पूरी तरह भरा नहीं है।

आज उनके प्रशंसक भी साठ बरस के आसपास हैं और राजेश खन्ना सत्तर के करीब। पिछले बरस मुम्बई गया था। जब टूरिस्ट बस में घूम रहे थे तब बस अचानक राजेश खन्ना के मकान के सामने रुक गई थी। गाइड ने बताया कि ‘काका कभी कभी काला चश्मा पहने यहॉं अपनी छत पर बैठकर अखबार पढ़ते रहते हैं।’ उनके मकान का नाम ‘आशीर्वाद’ है। इस मकान को उन्होंने राजेन्द्र कुमार से खरीदा था तब इस मकान का नाम ‘डिम्पल’ था। सिनेमा की नायिका डिम्पल नहीं राजेन्द्र कुमार की बेटी का नाम भी डिम्पल था। कुँआरे राजेश खन्ना ने जब इस मकान को खरीदा तब मकान का नाम बदलकर ‘डिम्पल’ से ‘आशीर्वाद’ कर दिया। तब उन्हें मालूम नहीं था कि उनके जीवन में कोई डिम्पल नाम की नायिका आवेगी और उनके साथ ब्याही जावेगी।


हमारी टूरिस्ट बस उस मकान ‘आशीर्वाद’ के सामने खड़ी थी। हम बस की खिड़कियों से झांककर देख रहे थे। सामने अरब सागर में अठखेलियॉं करती उसकी लहरें और समुद्र के सामने एक उजड़ा हुआ-सा मकान। फिल्म ‘दाग’ में गाई गई उनकी कविता की तरह। शिखर पर पहुंचना आसान होता है पर वहॉं टिके रहना कितना कठिन। राजेश खन्ना ने अपने एक छोटे संस्मरण में यह लिखा था कि ‘मुझे यह भय सताने लगा था कि आज जिस शिखर पर मैं हूँ और कल कहीं उस शिखर से उतार दिया जाउँ तब मेरे लिए जीना कितना भयावह होगा। इस भय से मैं अँधेरी रात में अपने घर के सामने समुद्र में घुस गया था, उसमें डूब जाना चाहता था। पर मरना भी मेरे हाथों में नहीं था।’

उनके मकान के सामने एक छोटी लॉन है। मकान का मुख्य प्रवेश द्वार खुला हुआ था और भीतर सुपर-स्टार की एक बड़ी पोट्रेट लगी हुई थी जो बाहर से भी साफ दिखलाई दे रही थी। पोट्रेट में वे अपनी उसी मुस्कान पर थे जिस पर उनके लाखों चाहने वाले फिदा थे। इस चित्र में वे अपना गुरु कुरता पहने हुए हैं। पेंट के उपर इस कुरते को पहनने का चलन उन्हीं से हुआ था। यह चित्र उनकी सबसे सार्थक फिल्म ‘आनंद’ से लिया गया है ‘जिंदगी कैसी है पहेली’ वाला गीत गाते हुए दृश्य। हिन्‍दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार, हर दिल अजीज अभिनेता जिसने लोकप्रियता की एक इतिहास बदल देने वाली उंचाई को प्राप्त किया था, उस राजेश खन्ना की दगी में आज ये कैसी पहेली छाई हुई है इसे कोई नहीं बूझ पा रहा है।


विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग, छत्तीसगढ
मो. 9407984014


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
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