छत्‍तीसगढ़ी हाना – भांजरा : सूक्ष्‍म भेद

छत्तीसगढ़ी मुहावरे, कहावतें एवं लोकोक्तियों पर कुछ महत्वपूर्ण किताबें प्रकाशित हैं। इन किताबों में मुहावरे,कहावतें और लोकोक्तियां संग्रहित हैं। मुहावरे, कहावतें और लोकोक्तियां समानार्थी से प्रतीत होते हैं, बहुधा इसे एक मान लिया जाता है। विद्वान इनके बीच अंतर को स्‍वीकार करते हैं, इसमें जो महीन अंतर है, उसे इस पर चर्चा करने के पूर्व ही समझना आवश्यक है। इस उद्देश्‍य से हम यहां पूर्व प्रकाशित किताबों में इस संबंध में उल्लिखित बातों को अपनी भाषा में विश्‍लेषित करने का प्रयत्‍न करते हैं ताकि इसके बीच के साम्‍य एवं विभेद को समझा जा सके।  
छत्तीसगढ़ी मुहावरों पर अट्ठारहवीं सदी के अंतिम दशक में लिखी गई हीरालाल काव्‍योपाध्‍याय की ‘छत्‍तीसगढ़ी बोली का व्‍याकरण’ में जो लोकोक्तियां संग्रहित हैं उन्‍हें कहावतें कहा गया है। सन् 1969 में प्रकाशित डॉ.दयाशंकर शुक्‍ल शोध ग्रंथ ‘छत्‍तीसगढ़ी लोक साहित्‍य का अध्‍ययन’ में शुक्‍ल जी नें कहावतों को लोकोक्ति का एक अंग कहा है एवं लगभग 357 कहावतों का संग्रह प्रकाशित किया है। सन् 1976 में डॉ. चंद्रबली मिश्रा के द्वारा प्रस्‍तुत शोध ग्रंथ ‘छत्‍तीसगढ़ी मुहावरों और कहावतों का सांस्‍कृतिक अनुशीलन’ में कुछ शंका का धुंध छटा है। हालांकि यहां भी स्‍पष्‍ट रूप से इन्‍हें विभाजित नहीं किया गया है किन्‍तु फिर भी पूरे शोध ग्रंथ के अध्‍ययन से बात कुछ समझ में आती है। डॉ.अनसूया अग्रवाल के शोध ग्रंथ सन् 1990, ‘छत्‍तीसगढ़ी लोकोक्तियों का समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययन’ में इसके बीच के अंतर को स्‍पष्‍ट तरीके से अलग नहीं किया गया है बल्कि दोनों को लोकोक्ति के रूप में ही प्रस्‍तुत किया गया है। सन् 2008 में प्रकाशित चंद्रकुमार चंद्राकर की किताब ‘छत्‍तीसगढ़ी मुहावरा कोश’ में इन्‍हें संयुक्‍त रूप से मुहावरा ही कहा गया है।

सबसे महत्वपूर्ण शोध ग्रंथ 'छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन' सन् 1979 में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ में 940 लोकोक्तियों का संग्रह और शोध, स्मृतिशेष डॉ. मन्नूलाल यदु ने प्रस्तुत किया है। यदु जी ने लोकोक्ति को समझाते हुए लिखा है कि लोक की उक्तियां इस प्रकार होती हैं कि एक गवंई पंच,  बैरिस्टर को तर्क से हतप्रभ कर दे। वे आगे लिखते हैं कि लोकोक्तियां प्राय: संक्षिप्त, सारगर्भित और सप्रमाण होती हैं। लोकोक्ति का शब्द विच्छेद लोक की उक्ति है। इसे अर्थ की पूर्णता के लिए अतिरिक्त शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती अर्थात लोकोक्तियां स्वयं में पूर्ण होती हैं। वे इसे बेहतर तरीके से समझाते हुए एक जगह लिखते हैं कि 'लोकोक्ति का एक-एक शब्द नपा-तुला होता है। वह बहुमूल्य रत्नों द्वारा पिरोया ऐसा अद्भुत हार है जिसका एक रत्न टूटा या बदला, कि हार की चमक धूमिल पड़ी।' उन्होंने ग्रंथ के परिभाषा खंड में इस पर विस्तृत विश्लेषण करते हुए लोकोक्ति को कहावत कहा है और उसे मौखिक लोक साहित्य माना है। उन्होंने विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं के आधार पर इसके छः तत्व निरूपित किए हैं। 1. बंधा हुआ लोक प्रचलित कथन 2. अनुभव की बात संक्षेप में 3. अलंकृत भाषा 4.सूत्रात्मक शैली 5. जीवन की आलोचना 6. लोक की उक्ति।
डॉ. मन्नूलाल यदु जी नें ही अपने शोध ग्रंथ में आगे लोकोक्ति और मुहावरे के बीच अंतर को भाई-बहन का अंतर बताते हुए उदाहरण सहित स्पष्ट किया है। पाठकों को इसे समझना आवश्यक है इसलिए हम इसे संक्षिप्त रूप में समझाने का प्रयास करते हैं-
1. व्याकरण कलेवर में वाक्य गठन की दृष्टि से लोकोक्ति पूर्ण वाक्य हैं वही मुहावरे खंड वाक्य। उदाहरण देखिए लोकोक्ति देखिए 'थैली के चोट ल बनिया जाने' (धन की थैली का चोट  धनिक ही जानेगा), 'लोभी चमरा ल बाघ धरय'(चमड़े की लालच में बाघ द्वारा मारे गए ढोर का चमड़ा उतारने वाले को बाघ खाता है), 'सावन म आँखी फुटिस, हरियर के हरियर'। मुहावरा 'करलई मातब' (बड़ा दुःख) -सियान के मरे ले घर म करलई मात गए। 'छाती के पीपर' (घर का जबर शत्रु जो छाती को विदीर्ण कर दे) - का बतावव रे छाती के पीपर जाम गए।
2. अर्थ की दृष्टि से लोकोक्तियां पूर्ण हैं वही मुहावरे किसी शब्द के साथ पूर्ण होते हैं। (अर्थ की दृष्टि से लोकोक्तियां स्वालंबी होती हैं जबकि मुहावरे परमुखापेक्षी होती हैं।) उदाहरण लोकोक्ति 'हाथ के अलाली म मुंह म मेंछा जाय' (मूछ को दिशा नहीं दोगे तो बाल मुँह के अंदर जाएंगे ही,अति आलस्य), 'पांडे के पोथी-पतरा, पंड़इन के मुअखरा' (पंडिताइन का ज्ञान पंडित से ज्यादा), 'कउँवा के रटे ले ढोर नइ मरय' (लालची के रटते रहने से अपेक्षित वस्तु नहीं मिलता), 'औंघात रहिस जठना पागे' (जिन खोजा तिन पाइयां)। कहावत 'धुंगिया देखब' (मौत देखना) - रोगहा तोर धुंगिया देखे ले मोर जीव जुड़ाही।
3. शब्द संख्या की दृष्टि से लोकोक्तियां ज्यादा शब्दों की होती हैं जबकि मुहावरों में शब्द कम होते हैं।
4. शब्द परिवर्तन की दृष्टि से लोकोक्तियों में शब्द परिवर्तित नहीं होते बल्कि वह जैसा है वैसा ही प्रयोग होता है। जबकि मुहावरे अन्य शब्दों के साथ प्रयुक्त होते हैं। उदाहरण लोकोक्ति 'चलनी म गाय दुहय, करम ल दोस देवय' (भाग्यवादी लोगों के विरुद्ध), 'हपटे बन के पथरा, फोरे घर के सील', 'दुब्बर ल दु असाढ़'। 'कान काटना', 'बीड़ा उठाना', 'बाना उचाना'।
5. लोकोक्ति का प्रयोग सामान्यतया खंडन-मंडन या उपदेश के लिए होता है। जबकि मुहावरे का प्रयोग अर्थ में चमत्कार और वैशिष्ट लाने के लिए होता है। मुहावरे के प्रयोग से सामान्य कथन में प्रभाव आता है और वह सशक्त एवं प्रभावशाली हो जाता है। यथा 'तेजी से भागा',  'सिर पर पैर रख कर भागा'। उदाहरण लोकोक्ति'डोंगा के अगाड़ी अउ गाड़ी के पिछाड़ी', 'कुकूर भूँके हजार, हाथी चले बाजार', 'दूसर ल सिखोना दय, अपन बइठ रवनिया लय', 'कुकूर के पूछी जब रही त टेडगा के टेडगा', 'कन्हार जोते, कुल बिहाये'
6. लोकोक्ति एक प्रकार का अलंकार है। जबकि मुहावरा लक्षणा और व्यंजना युक्त शब्द समुच्चय है। मुहावरा सभी अलंकारों में हो सकता है।
7. लोकोक्तियाँ पद्यात्मक, लयात्मक, छंद युक्त युक्त होते हैं। जबकि मुहावरे गद्यात्मक होते हैं।
अब हमारे विमर्श का विषय 'हाना' किसे कहते हैं, यह प्रश्न सामने आता है। इसके लिए हम एक दूसरे महत्वपूर्ण ग्रंथ 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण' पर अपना ध्यान केंद्रित करते है, जिसे मंगत रविंद्र जी ने लिखा है। इसमें 482कहावतों का संकलन है। मंगत रविंद्र जी ने हाना और भांजरा दोनों के बीच अंतर को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उन्होंने मुहावरे के लिए 'हाना' शब्द का इस्तेमाल किया है। जबकि कहावतों के लिए 'भांजरा'और 'जोगवा' शब्द का इस्तेमाल किया है। उन्होंने'भांजरा' को बांटना और 'जोगवा' को योग करना या मिलाना बताया है। यानी जो छत्तीसगढ़ की कहावतें हैं वे'भांजरा'  और 'जोगवा' हैं। आगे वे 'हाना' और 'भांजरा'दोनों को लोकोक्ति कहते हैं क्योंकि दोनों लोक की उक्ति है। उन्होंने अपने अनुसार छत्तीसगढ़ी में इसे विश्लेषित करते हुए लिखा हैं कि, हाना-भांजरा अर्थात लोकोक्ति,लोकवाणी से लोक जीवन में रचा बसा है। लोक और लोकोक्तियां संपृत हैं। इन्होंने भांजरा यानी कहावतों को गीता जैसा और हाना यानी मुहावरों को अंधेरी रात में पूर्णिमा का चांद निरूपित करते हुए लिखा है कि, 'भांजरा' में छंद की झलक भी होती है,  'हाना' में भविष्य के लिए आगाह की झलक।
हमारा यह विमर्श 'हाना' यानी मुहावरे पर केंद्रित है। ऐसे लोक प्रचलित शब्द युग्म पर जो अपने अंदर विलक्षण अर्थ छुपाए हो, जो लक्षणा और व्यंजना शक्ति से सुनने वाले पर प्रभाव जमाये। उपर दिए गए अंतर के अनुसार ‘भांजरा’ यानी कहावतों पर चर्चा कर ली जाए तो इन दोनों के बीच के अंतर को भली भांति समझा जा सकेगा। डॉ. चंद्रबली मिश्रा नें अपने शोध ग्रंथ में कुछ छत्‍तीसगढ़ी मुहावरों और कहावतों का उल्‍लेख किया है जो समानार्थी हैं। वे इस प्रकार हैं –
छत्‍तीसगढ़ी में एक मुहावरा है ‘मन मसकई’ अर्थात मन ही मन अकारण क्रोध करना। इससे मिलता जुलता एक कहावत है ‘हपटे बन के पथरा, फोरे घर के सील’ अर्थात अन्‍य कारण से अन्‍य पर क्रोध उतारना। ज्‍यादा बोलने या अपना ही झाड़ते रहने पर छत्‍तीसगढ़ी मुहावरा है ‘पवारा ढि़लई’, इसी पर विस्‍तारवादी कहावत है ‘बईठन दे त पीसन दे’ जो हिन्‍दी के अंगुली पकड़ कर गर्दन पकड़ना का समानार्थी है। लालच को प्रदर्शित करने के लिए मुहावरा है ‘लार टपकई’ और ‘जीभ लपलपई’, इसी से मिलता जुलता एक कहावत है ‘बांध लीस झोरी, त का बाम्‍हन का कोरी’ हालांकि यह यात्रा में बाहर निकलने पर भोजन करने के संबंध में है किन्‍तु यह लालच के लिए भी प्रयुक्‍त होता है। निर्लज्‍जता को प्रदर्शित करने के लिए मुहावरा है ‘मुड़ उघरई’, इससे संबंधित कहावत है ‘रंडी के कुला म रूख जागे, कहै भला छंइहा होही’ वेश्‍या कब किसका भला करती है, किसे छांव देती है। आदत से संबंधित मुहावरा है ‘आदत ले लाचार होवई’, इसी से संबंधित कहावत है ‘जात सुभाव छूटे नहीं, टांग उठा के मूते’ और ‘रानी के बानी अउ चेरिया के सुभाव नई छूटे’एवं ‘बेंदरा जब गिरही डारा चघ के’।
अव्‍यक्‍त मजबूरी के लिए मुहावरा है ‘मन के बात मने म रहई’, इसी से संबंधित कहावत है ‘चोर के डउकी रो न सकय’। बेइमानी पर मुहावरा है ‘नमक हरामी करई’ और‘दोगलई करई’, इस पर कहावत है ‘जेन पतरी म खाए उही म छेदा करय’। संदिग्‍ध आचरण से संबंधित मुहावरा है ‘पेट म दांत होवई’, इससे संबंधित कहावत है ‘उप्‍पर म राम राम भितरी म कसई’। यह मुह में राम बगल में छूरी का समानार्थी है। जो मिल ना पाये उसकी आलोचना करने संबंधी हिन्‍दी के समान ही छत्‍तीसगढ़ी में भी मुहावरा है ‘अंगूर खट्टा होवई’, इससे संबंधित कहावत है‘जरय वो सोन जेमा कान टूटय’ अर्थात मुझे वह सोन की बाली नहीं चाहिए उससे कान टूठ जाता है।
अत्‍याचार करने के संबंध में मुहावरा है ‘आगी मुतई’,इससे संबंधित कहावतों में ‘डहर म हागे अउ आंखी गुरेड़े’, ‘आगी खाही ते अंगहरा हागही’, ‘पानी म हगही त ऊलबे करही’। अनुवांशिकता से संबंधित मुहावरा है ‘बांस के जरी, बांसेच होही’ और ‘तिली ले तेल निकलई’, इससे संबंधित कहावतें हैं ‘गाय गुन बछरू, पिता गुन घोड़ा,बहुत नहीं तो थोड़ा थोड़ा’, ‘जेन बांस के बांस बंसुरी उही बांस के चरिहा टुकनी’, ‘जइसे दाई वइसे चिरा, जइसे ककरी वइसे खीरा’।
आशा है उपरोक्‍त विवेचन से हाना एवं भांजरा के बीच का भेद स्‍पष्‍ट हुआ होगा।
संजीव तिवारी

क्या देखते हो..?

छत्तीसगढ़ की नग्नता शुरू से प्रदर्शन की वस्तु रही है। बस्तर में बस्तर बालाओं की नग्नता देखने के लिए अंग्रेज पुरुष उतावले होते थे वही अंग्रेज महिलाएं छत्तीसगढ़ के पुरुष की नग्नता देखने के लिए भी उतावली रही है। स्वतंत्रता के पूर्व रायपुर जेल में ऐसा वाकया घटित हुआ है। 
दुर्ग के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी उस समय स्वतंत्रता आंदोलन के चलते रायपुर जेल में निरुद्ध थे। कैदियों को अंग्रेजो के द्वारा सुविधा नहीं दिया जाता था, 1 किलो दाल में 25-30 किलो पानी मिलाकर परोसा जाता था, शिकायत सुनी नहीं जाती थी। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी ने भी शिकायत किया किंतु जेल प्रबंधन ने नहीं माना। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी ने विरोध का एक नया तरीका अपनाया, उन्होंने जेल में अपना समस्त वस्त्र उतार दिया और दिगंबर हो गए। उन्होंने कहा कि जब तक यह व्यवस्था नहीं सुधर जाती, मैं कपड़ा नहीं पहनूंगा। नागपुर में पदस्थ पुलिस महानिरीक्षक मिस्टर मरु को जब इसकी जानकारी मिली तब उस अंग्रेज अफसर की पत्नी ने इस विचित्र हिंदुस्तानी को देखने की इच्छा प्रकट की। 
पति ने टाला तो पत्नी जिद करने लगी, अंग्रेज पति अपनी पत्नी को लेकर नागपुर से रायपुर पहुंचे। कैदी को उनके सामने पेश किया गया। मुझे लगता है कि उनके सामने भौतिक रूप से छत्तीसगढ़ भले नंगा खड़ा था किन्तु अंग्रेजों ने स्वयं अपनी नग्नता का दर्शन किया होगा। मरु दम्पत्ति के आदेश से मामला सुलझा और नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी को खादी के कपड़े दिए गए। 
-संजीव तिवारी

सोलह स्‍टेप में 'बघवा' का आनलाईन आर्डर

भाई केवल कृष्‍ण के लोकप्रिय उपन्‍यास 'बघवा' के विमोचन के दिन से ही पाठकों को उसकी प्रतीक्षा थी। जिनकी पहुंच दिल्‍ली तक थी वे, दिल्‍ली पुस्‍तक मेला जाकर 'बघवा' ले आए और दूसरे पाठकों को चिढ़ाते हुए फेसबुक में फोटू भी चेप दिया। लोगों की उत्‍सुकता 'बघवा' के आनलाईन बिक्री के समाचार से कुछ कम हुई। यश पब्लिकेशन में 'बघवा' के खरीददारी वाले लिंक पर लोगों नें इतना चटका लगाया कि यश की वेबसाईट क्रैश हो गई। इस जद्दोजहद में कुछ लोगों नें 'बघवा' का आनलाईन आर्डर किया किन्‍तु अधिकतम लोगों को इसकी प्रक्रिया मालूम नहीं होने से उनका आर्डर कम्‍प्‍लीट नहीं हो पाया। छोटे दाउ के फटफटी जइसे फर्राटा भागत फटफटी लेटा में रबक गया।
लोक नाट्य राजा फोकलवा के मुख्‍य पात्र और फेसबुक में अद्भुत पोस्‍ट रचईया भाई हेमंत वैष्‍णव का फोन आया, भईया कुछु मदद करतेव। मैंनें कहा कि संझा एक अद्धी एटीएम कारड सुवाईप करके बिसाउंगा फेर कारड में पईसा बांचा होगा तो 'बघवा' मंगाउंगा। पईसा बांच गया तो आर्डर करने बैठा। मोबाईल में मुझे भी कुछ परेशानी हुई पर आर्डर करके ही दम लिया। आईये आप लोगों को बताता हूं कि मैंनें मोबाईल के प्रयोग से कैसे मंगाया 'बघवा'-
1. इस लिंक को क्लिक करके 'बघवा' तक पहुंचा। नीचे स्‍क्रोल किया।

2. यहां नीले बटन के बीच में 'एड टू कार्ट' लिखा था उसे क्लिक किया।

3. फिर उपर स्‍क्रोल किया, पर्स में 1 लिखा दिखा, उसे क्लिक किया।

4. पर्स को क्लिक करने से एक पापप खुला, वहां 'चेकआउट' बटन को क्लिक किया।

5. अब जो पेज ओपन हुआ उसमें दो विकल्‍प थे, एक 'चेक आउट एज गेस्‍ट' और दूसरा 'रजिस्‍टर'। मुझे जल्‍दी थी मैनें रजिस्‍टर करने की लम्‍बी प्रक्रिया के बजाए पहला विकल्‍प 'चेक आउट एज गेस्‍ट' चुना, यानी उसके सामने वाले बिन्‍दु को क्लिक किया फिर 'कन्‍टीन्‍यू' बटन को दबाया।

6. अब जो पेज खुला उसमें नाम, पता आदि का विकल्‍प भरता गया। 

7. आगे राज्‍य के 'एरो की' विकल्‍प पर मैं भटक गया, यहां इंडिया का विकल्‍प ही नहीं मिला। राज्‍य के विकल्‍प को छोड़कर नीचे 'कंट्री' विकल्‍प के 'एरो की' को क्लिक किया तब यह पापप खुला जिसमें 'इंडिया' का विकल्‍प मिला। फिर वापस जाकर, छत्‍तीसगढ़ और पिनकोड भरा।

8. आगे 'कन्‍टीन्‍यू' बटन को क्लिक किया।

9. शिपिंग एड्रेस चेक किया, उपर स्‍क्रोल किया।

10. उपर 'कन्‍टीन्‍यू' बटन को क्लिक किया।

11. अगले पेज में 'प्‍लेस आर्डर' को क्लिक किया। अगले पेज में 'पेयू' विकल्‍प के आगे के बिन्‍दू को क्लिक किया क्‍योंकि मुझे एटीएम कार्ड के द्वारा भुगतान करना था।

12. मेरा एटीएम कार्ड यूपीआई लिंक्‍ड है इसलिए कार्ड का नम्‍बर नहीं भरना पड़ा, सिर्फ एटीएम का 'सीवीवी' भरकर 'पे नाव' को क्लिक किया। यदि आपका कार्ड यूपीआई लिंक्‍ड नहीं है तो आपको कार्ड संबंधी सभी जानकारी भरने के बाद 'पे नाव' का विकल्‍प आयेगा।

13. एक नया पेज खुला और मोबाईल में मैसेज आया। 'ओटीपी' कापी करके 'इंटरव्यू ओटीपी' वाले बाक्‍स में 'ओटीपी' पेस्‍ट किया। 

14. भुगतान की प्रक्रिया शुरू हो गई।

15. उपर बैंक से पैसा कटने का मैसेज आ गया और मैनें 'कंटीन्‍यू शापिंग' बटन को क्लिक किया और बेकस्‍पेस से ब्राउजर से बाहर आ गया

16. मैसेज बाक्‍स में दो संदेश आ चुके थे एक बैंक का पैसा कटने वाला, दूसरा यश से आर्डर कर्न्‍फमेशन का।

अब इंतजार कर रहा हूं, 'बघवा' कब आयेगा मेरे द्वारे।

रंगरथी : विनायक अग्रवाल

जय, बमलेश्‍वरी मैया, नैना, प्रेम सुमन, राजा छत्‍तीसगढि़या, दबंग दरोगा, बंधना प्रीत के, माटी के दिया, भाई-बहिनी एक अटूट बंधन, भक्‍त मां करमा सहित अनेकों छत्‍तीसगढ़ी, भोजपुरी एवं हिन्‍दी फिल्‍मों में अभिनय करने वाले विनायक अग्रवाल को कौन नहीं जानता। इन्‍होंनें नाट्य, टी.वी.सीरियल, डाकुमेंट्री, फीचर फिल्‍म सहित प्रदर्शनकारी कलाओं के क्षेत्र में अद्भुत एवं विशद कार्य किया। दूरदर्शन रायपुर में इन्‍होंनें पद्मश्री सुरेन्‍द्र दुबे लिखित 'बिहान', डॉ.परदेशीराम वर्मा लिखित 'भूमि पुत्र' एवं 'नाचा एक विकास यात्रा' टीवी धारावाहिक के डायरेक्‍टर एवं प्रोड्यूसर रहे। 
विनायक जी जब कॉलेज में बी.कॉम फाइनल सत्र 1974-1975 के विद्यार्थी थे। उसी समय कालेज के स्नेह सम्मेलन मे पहली बार उन्‍होंनें नाटक में अभिनय किया। इसके संबंध में बताते हुए वे कहते हैं कि 'मुझे स्टेज फियर था।' इसके बावजूद उन्‍होंनें उस नाटक में अभिनय किया। उस नाटक का नाम था 'खून कितना सुर्ख है', यह बंगला देश की आज़ादी पर आधारित था। इसके डाइरेक्टर रामकृष्ण चौबे थे। विनायक जी नें चौबे जी को नाटक में छोटा रोल के देनें के लिए कहा, उन्होने महत्‍वपूर्ण रोल दिया। इस नाटक को एवं विनायक जी के अभिनय को प्रसंशा तो खूब मिली किन्‍तु किसी कारणवश उस नाटक को आउट ऑफ कॉंपिटेशन कर दिया गया। इस अनुभव को याद करते हुए विनायक अग्रवाल जी कहते हैं कि 'उस पहले प्रदर्शन के समय की तालियो की गड़गड़ाहट कानों मे आज भी गूँजती है। नाट्य के क्षेत्र में मुझे लाने वाले रामकृष्‍ण चौबे मेंरे प्रथम नाट्य गुरू हुए। और उसी दिन से मैं अपना जीवन नाटक के लिए समर्पित कर दिया, मेरी रंगमंच की यात्रा शुरू हो गयी। उन्‍हीं दिनो सन् 1976 मे श्री राम हृदय तिवारी जी ने क्षितिज रंग शिविर दुर्ग की स्थापना की थी।' 
क्षितिज रंग शिविर की यात्रा के संबंध में वे बताते हैं कि, 'राम हृदय तिवारी जी इस बैनर से पहला नाटक 'अंधेरे के उस पार' का रिहर्सल उस समय के भिलाई दुर्ग के कलाकारो को लेकर तिलक प्राइमरी स्कूल, दुर्ग मे कर रहे थे। मैं अपने नाट्य गुरु चौबे जी के साथ रिहर्सल देखने जाया करता था और कलाकार की अनुपस्थिति में उस रोल की नकल किया करता था। ऐसा महीनो चला और अंततः जब कलाकार नहीं आए तब उस ड्रामा का मैं प्रॉंप्टर से हीरो हो गया। उसमें हीरोईन छत्‍तीसगढ़ की मशहूर लोक गायिका ममता चंद्राकार हुई। इस नाटक का शो बीएसपी ड्रामा कॉंपिटेशन मे सन् 1977 को हुआ। इस तरह मैं क्षितिज़ रंग शिविर दुर्ग के साथ जुड़ कर शुरू मे तिवारी जी के साथ फिर संतोष जैन के साथ और फिर मैं खुद अपने डाइरेक्‍शन मे मंचीय और नुक्कड़ नाटकों की यात्रा लगभग 40 वर्षो तक जारी रखा।' 
क्षितिज के बैनर से पहला मंचीय नाटक "अंधेरे के उस पार" से पूर्व हमने कॉलेज मे खेले गये नाटक "खून कितना सुर्ख है" का मंचन अर्जुंदा गांव मे किया और बीएसपी ड्रामा कॉंपिटीशन मे किया। इसके बाद 45 मिनिट का मोनोप्‍ले लेखक अरुण यादव का 'अश्वस्‍थामा'  का मंचन नेहरू हाउस ऑफ कल्चर भिलाई और रविशंकर सदन कम्यूनिटी हॉल दुर्ग मे किया। यह मोनोप्‍ले कठिन भी था और अभिनय करने मे घुटने और कुहनी छिलल जाते थे। इस प्रकार से लगभग सन् 1976 से क्षितिज रंग शिविर दुर्ग के नाट्य यात्रा शुरू हुआ। क्षितिज का पहला नाटक तमाम विसंगतियो के साथ लगभग 7-8 महीने के रहर्सल के बाद दाउ महासिंग के सहयोग से बीएसपी फुल लेंग्थ ड्रामा कॉंपिटेशन मे सन् 1977 को नेहरू हाउस ऑफ कल्चर भिलाई मे मंचन हो पाया। इसके बाद क्षितिज का पहला नुक्कड़ नाटक "भूख के सौदागर" की प्रस्तुति गोपाल स्वीट्स, इंदिरा मार्केट दुर्ग मे किया गया। इसके लेखक प्रेम सायमन थे। 
इसकी भी प्रस्तुति के पूर्व की कहानी भी बड़ी रोचक और संघर्ष पूर्ण थी। इस नाटक के लिए कोई हॉल नहीं मिलने की वजह से राजेद्र पार्क दुर्ग मे, खुले आकाश के नीचे रिहर्शल करते थे। कुछ दिन हिन्दी भवन के सामने खुली जगह मे रिहर्शल करना पड़ा फिर कुछ वर्षो तक महावीर जैन स्कूल मे शुरू मे प्रति दिन 10/- के दर से रिहर्शल की अनुमति मिली। बाद मे मदन जैन जी ने काफ़ी वर्षो तक नि:शुल्क रिहर्शल की सुविधा दी। उनके बाद दूसरे लोगो ने रिहर्शल की अनुमति ही नही दी। अंततः हमे स्थाई रूप से कौशल यादव, यूनियन लीडर के सहयोग से कस्तूरबा बाल मंदिर दुर्ग मे निशुल्क रिहर्शल की सुविधा मिली। इस प्रकार से आर्थिक, मानसिक एवं शारीरिक रूप से लहू लुहान होते हुए हमनें अपनी रंग यात्रा जारी रखी। इसके बदले में लोगो का बहुत प्यार मिला सम्मानित भी हुए और दुर्ग नगर वासियों को 26 जनवरी, 15 अगस्‍त का इंतजार होने लगा क्योकि लगभग 25 वर्षों तक हम इन तिथियो पे नुक्कड़ नाटक खेलते रहे।' 
'श्री राम हृदय तिवारी जी के क्षितिज रंग शिविर दुर्ग की स्थापना काल से ही मैं उनके साथ रहा। तिवारी जी के निर्देशन मे क्षितिज के बैंनर से लगभग 6-7 वर्षों तक नुक्कड़ एवं मंचीय नाटकों का सिलसिला जारी रहा। उनके निर्देशन मे पेंसन, भविष्‍य, मुर्गीवाला, झड़ीराम सर्वहारा, विरोध, घर कहां है, हम क्यों नहीं गाते, अरण्‍य गाथा, राजा जिंदा है, सभी नाटको के राइटर प्रेम सायमन थे। इन नाटकों का मंचीय एवं नुक्कड़ प्रस्तुतिया दुर्ग, भिलाई, राजनांदगांव, रायपुर मे इन 6-7 वर्षों मे किया गया। इन प्रस्तुतियों में प्रोडक्‍शन से लेकर प्रस्तुति तक मेरा लीड रोल रहा।' 
ठेठ छत्‍तीसगढ़ी परिवेश में पले-बढ़े विनायक अग्रवाल नें छत्‍तीसगढ़ी लोक नाट्य में भी अपनी भूमिका निभाई। क्षितिज रंग शिविर की शानदार लोकप्रिय प्रस्‍तुतियों के बाद तिवारी जी दाउ रामचंद्र देशमुख के साथ लोक नाट्य कारी के मंचन मे जुट गये। इसमें भी विनायक अग्रवाल जी नें गुरुजी की अहम भूमिका निभाई। छत्‍तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलो से लेकर शहरो तक 'कारी' का भव्‍य मंचन हुआ और खूब चर्चा हुई। इसमें विनायक जी के अभिनय को भी खूब सराहा गया। इसके संबंध में उनके अनुभव की बात पूछने पर वे बताते हैं कि 'कारी नाटक का रात-रात भर रिहर्शल होता था। उसमें मेरा रिहर्शल नही होता था, तिवारी जी बोलते थे तुमको रिहर्शल की ज़रूरत नही है। आना ज़रूरी है, इस चक्कर मे मैं दाउ जी के कोठार मे जहां नौकर लोग ट्रैक्टर से धान की मिजाई करते थे, उनके पास चला जाता था। मैं उन 15 दिनों में मिजाई करने लगा और ट्रैक्टर चलना भी सीख गया।'
'कारी नाटक से जुड़ी एक घटना का विशेष रूप से जिक्र करना चाहूँगा। कारी का शो होना बंद हो चुका था। उसके 6-7 साल बाद मैं और डॉ. परदेशी राम वेर्मा जी दोनों रायपुर से लौट रहे थे। वर्मा जी पुराने बस स्टॅंड मे किताब लेने रुके और मैं उनका इंतजार करता स्कूटर लेकर खड़ा था। उसी समय मैनें देखा कि एक युवक मुझे लगातार घूर रहा था। मैं ध्यान हटाने के लिए उस युवक से पूछा कि क्या बात है। वो बोला मैं आपको कहीं देखा हूं, मैने कहा मैं बैंक एंप्लायी हूं। वो बोला अरे, फिर मैने कहा कलाकार हूं और प्रदर्शन के लिए फिल्म भी बनाता हूं। तब उसने कहा हां वही तो मैं सोच रहा था, आप तो कलाकार हैं। मैने आपको और आपके अभिनय को गुरुजी की भूमिका मे देखा है, क्या अभिनय था जबरदस्त। मैने कहा कारी का मंचन तो 6-7 साल से नही हो रहा है और उसमे तो लगभग 15 हज़ार से भी ज़्यादा लोगों की भीड़ रहती थी। मेरे रोल की एंट्री पूरे ड्रामा मे 20-25 मिनिट के इंटर्वल मे 4-5 बार ही थी फिर आप इतने वर्षों बाद मुझे पहचान कैसे गये। उन्होने कहा की मैं कारी नाटक को 5-6 बार देखा हूं और आपके उस नाटक मे महत्वपूर्ण रोल से मैं बहुत प्रभावित हुआ था, आपकी आवाज़ से अभिनय से। मैं चकित रह गया कि इतने वर्षों बाद भी नाटक और कलाकर का प्रभाव बना रह सकता है। यही कलाकारों को उर्जा प्रदान करती है और पूरे समर्पण से अपनी नई प्रस्तुति को कलाकार बेहतर बनाने की कोशिश करता है।'
30 वर्षें से अनवरत नाट्य के क्षेत्र में कार्य रहे विनायक अग्रवाल में गजब की उर्जा आज भी विद्यमान है। आप एम.कॉम, एलएल.बी. तक शिक्षा प्राप्‍त किया हैं। आप स्‍टैट बैंक में नौकरी करते थे एवं वर्तमान में दुर्ग जिला न्‍यायालय में अधिवक्‍ता हैं।

मां के प्रति दबी काम वासना : हबीब तनवीर की प्रस्‍तुति 'बहादुर कलारिन'

एक औरत और एक मां या यो कहे कि एक मां को केवल एक औरत बना लेने की बेटे की इच्छा कैसे मां को तोड़ देती है, अपने जीवन से एकदम विमुख कर देती है इसका अत्यत प्रभावपूर्ण चित्रण बहादुर कलारिन मे फिदाबाई ने किया।

"चरनदास चोर' के बाद हबीब तनवीर ने फिर एक लोककथा उठाई 'बहादुर कलारिन' (1978)। यह कथा छत्तीसगढ़ के एक अचंल सोरर मे प्रचलित थी जिसमे बहादुर नाम की कलारिन (शराब बेचनेवाली) राजा के प्रेम में पड़ती है लेकिन राजा उसके प्रेम का प्रतिदान नहीं देता। उसका बेटा छछन इडिपस कामप्लेक्स के साथ बडा़ होता है। वह एक के बाद एक एक सौ छब्बीस औरतों से विवाह करता है मगर उन्हे छोड़ता चलता है। किसी भी औरत से न पटने का कारण छछन के मन मे अपनी मां के प्रति दबी काम वासना थी। जब वह बहादुर से अपनी इच्छा व्यक्त करता है तो वह सकते मे आ जाती है, बहुत क्षुब्ध होती है। पहले तो वह सारे गाँव से कहती है कि कोई छछन को पीने को एक घूट पानी भी न दे। फिर स्वय उसे कुए मे ढकेल देती है और खुद भी उसमे कूदकर आत्महत्या कर लेती है। आधुनिक युग मे व्याख्‍यायित इडिपस कामप्लेक्स का इस लोककथा मे समन्वय देखकर आश्चर्य होता है। इस प्रस्तुति में हबीब ने पंथी लोक कलाकारों के साथ जनजातियों के नर्तकों को सम्मिलित करने का प्रयोग भी किया। मंडला गाँव के ये गोंड नतर्क पंथी कलाकारों जैसे प्रभावपूर्ण नही रहे तथापि उन्होने बहादुर कलारिन को प्राणवान बनाया, अधिक कलरफुल बनाया। 

गीत : 'अईसन सुन्दर नारी के ई बात, कलारिन ओकर जात...', 'चोला माटी का हे राम एकर का भरोसा...',  'होगे जग अंधियार, राजा बेटा तोला...'

बहादुर कलारिन को सफलता का बडा़ श्रेय नाम भूमिका मे अभिनय करने वाली कलाकार फिदाबाई को है। उनका दंबग कंठस्वर, पूरी आवाज मे गला खोलकर गायन, खडे़ होने की भंगिमा, फुर्ती और चुस्ती सब मुग्ध करने वाले थे। मौजमस्ती और भोगविलास को लेकर चलने वाली कहानी अंत मे आकर दुखांत बन जाती है- दुखात भी ऐसी कि सबके मन को छलनी कर दे। फिदाबाई ने बडी़ कुशलतापूवक इस अंश को रूपायित किया- एक औरत और एक मां या यो कहे कि एक मां को केवल एक औरत बना लेने की बेटे की इच्छा कैसे मां को तोड़ देती है, अपने जीवन से एकदम विमुख कर देती है इसका अत्यत प्रभावपूर्ण चित्रण बहादुर कलारिन मे फिदाबाई ने किया। यद्यपि वर्षों तक वे नया थियेटर के साथ रही और उन्होने अनेंक नाटको मे मुख्य भुमिका मे अभिनय किया तथापि मेरी दृष्टि मे बहादुर कलारित की भूमिका मे उन्होनें दर्शकों को जो दिया, अनुभूति की गहरायी का जो साक्षात्कार उन्होने दर्शको को कराया वहु अद्भुत था, अपूर्व था, उस अभिनय के लिए वे सदा स्मरण की जायेगी। फिदाबाई के अतिरिक्त उदयराम (राजा), बाबूदास (बहादुर का चाचा) आदि ने भी प्रभावपूर्ण अभिनय किया।

प्रस्तुति की दृष्टि से बहादुर कलारिन "चरनदास चोर' से भिन्न थी। इसमे हबीब ने नाच का अधिक उपयोग किया, नाच के माध्यम से कहानी को आगे बढाया। जैसा कि कहा जा चुका है, इस प्रस्तुति मे ट्राइबल कलाकारों को भी लिया गया पर वे उतने सफल नही रहे तथापि प्रयोग की दृष्टि से यह एक नयी दिशा थी और उस दृष्टि से सफल थी। संगीत गंगाराम सिखेत का था जिसे कोरस ने खूबसूरती से प्रस्तुत किया। नाटक मे कुछ समकालीन संकेत भी थे यथा बच्चों का अतिरिक्त लाड़-दुलार और उसका समाज पर पड़नेवाला कुप्रभाव लेकिन वे संकेत तक ही रह गये विशेष प्रभावपूर्ण नही बन पाये।
साभार : हबीब तनवीर एक रंग व्‍यक्तित्‍व संपादन - प्रतिभा अग्रवाल
वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह नाटक गूगल बुक में यहॉं संग्रहित है। 

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