आरंभ Aarambha सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

जनवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

छत्‍तीसगढ़ी हाना – भांजरा : सूक्ष्‍म भेद

छत्तीसगढ़ी मुहावरे, कहावतें एवं लोकोक्तियों पर कुछ महत्वपूर्ण किताबें प्रकाशित हैं। इन किताबों में मुहावरे,कहावतें और लोकोक्तियां संग्रहित हैं। मुहावरे, कहावतें और लोकोक्तियां समानार्थी से प्रतीत होते हैं, बहुधा इसे एक मान लिया जाता है। विद्वान इनके बीच अंतर को स्‍वीकार करते हैं, इसमें जो महीन अंतर है, उसे इस पर चर्चा करने के पूर्व ही समझना आवश्यक है। इस उद्देश्‍य से हम यहां पूर्व प्रकाशित किताबों में इस संबंध में उल्लिखित बातों को अपनी भाषा में विश्‍लेषित करने का प्रयत्‍न करते हैं ताकि इसके बीच के साम्‍य एवं विभेद को समझा जा सके।   छत्तीसगढ़ी मुहावरों पर अट्ठारहवीं सदी के अंतिम दशक में लिखी गई हीरालाल काव्‍योपाध्‍याय की ‘छत्‍तीसगढ़ी बोली का व्‍याकरण’ में जो लोकोक्तियां संग्रहित हैं उन्‍हें कहावतें कहा गया है। सन् 1969 में प्रकाशित डॉ.दयाशंकर शुक्‍ल शोध ग्रंथ ‘छत्‍तीसगढ़ी लोक साहित्‍य का अध्‍ययन’ में शुक्‍ल जी नें कहावतों को लोकोक्ति का एक अंग कहा है एवं लगभग 357 कहावतों का संग्रह प्रकाशित किया है। सन् 1976 में डॉ. चंद्रबली मिश्रा के द्वारा प्रस्‍तुत शोध ग्रंथ ‘ छत्‍तीसगढ़ी मु

क्या देखते हो..?

छत्तीसगढ़ की नग्नता शुरू से प्रदर्शन की वस्तु रही है। बस्तर में बस्तर बालाओं की नग्नता देखने के लिए अंग्रेज पुरुष उतावले होते थे वही अंग्रेज महिलाएं छत्तीसगढ़ के पुरुष की नग्नता देखने के लिए भी उतावली रही है। स्वतंत्रता के पूर्व रायपुर जेल में ऐसा वाकया घटित हुआ है।  दुर्ग के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी उस समय स्वतंत्रता आंदोलन के चलते रायपुर जेल में निरुद्ध थे। कैदियों को अंग्रेजो के द्वारा सुविधा नहीं दिया जाता था, 1 किलो दाल में 25-30 किलो पानी मिलाकर परोसा जाता था, शिकायत सुनी नहीं जाती थी। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी ने भी शिकायत किया किंतु जेल प्रबंधन ने नहीं माना। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी ने विरोध का एक नया तरीका अपनाया, उन्होंने जेल में अपना समस्त वस्त्र उतार दिया और दिगंबर हो गए। उन्होंने कहा कि जब तक यह व्यवस्था नहीं सुधर जाती, मैं कपड़ा नहीं पहनूंगा। नागपुर में पदस्थ पुलिस महानिरीक्षक मिस्टर मरु को जब इसकी जानकारी मिली तब उस अंग्रेज अफसर की पत्नी ने इस विचित्र हिंदुस्तानी को देखने की इच्छा प्रकट की।  पति ने टाला तो पत्नी जिद करने लगी, अंग्रेज प

सोलह स्‍टेप में 'बघवा' का आनलाईन आर्डर

भाई केवल कृष्‍ण के लोकप्रिय उपन्‍यास 'बघवा' के विमोचन के दिन से ही पाठकों को उसकी प्रतीक्षा थी। जिनकी पहुंच दिल्‍ली तक थी वे, दिल्‍ली पुस्‍तक मेला जाकर 'बघवा' ले आए और दूसरे पाठकों को चिढ़ाते हुए फेसबुक में फोटू भी चेप दिया। लोगों की उत्‍सुकता 'बघवा' के आनलाईन बिक्री के समाचार से कुछ कम हुई। यश पब्लिकेशन में 'बघवा' के खरीददारी वाले लिंक पर लोगों नें इतना चटका लगाया कि यश की वेबसाईट क्रैश हो गई। इस जद्दोजहद में कुछ लोगों नें 'बघवा' का आनलाईन आर्डर किया किन्‍तु अधिकतम लोगों को इसकी प्रक्रिया मालूम नहीं होने से उनका आर्डर कम्‍प्‍लीट नहीं हो पाया। छोटे दाउ के फटफटी जइसे फर्राटा भागत फटफटी लेटा में रबक गया। लोक नाट्य राजा फोकलवा के मुख्‍य पात्र और फेसबुक में अद्भुत पोस्‍ट रचईया भाई हेमंत वैष्‍णव का फोन आया, भईया कुछु मदद करतेव। मैंनें कहा कि संझा एक अद्धी एटीएम कारड सुवाईप करके बिसाउंगा फेर कारड में पईसा बांचा होगा तो 'बघवा' मंगाउंगा। पईसा बांच गया तो आर्डर करने बैठा। मोबाईल में मुझे भी कुछ परेशानी हुई पर आर्डर करके ही दम लिया। आईये आप ल

रंगरथी : विनायक अग्रवाल

जय, बमलेश्‍वरी मैया, नैना, प्रेम सुमन, राजा छत्‍तीसगढि़या, दबंग दरोगा, बंधना प्रीत के, माटी के दिया, भाई-बहिनी एक अटूट बंधन, भक्‍त मां करमा सहित अनेकों छत्‍तीसगढ़ी, भोजपुरी एवं हिन्‍दी फिल्‍मों में अभिनय करने वाले विनायक अग्रवाल को कौन नहीं जानता। इन्‍होंनें नाट्य, टी.वी.सीरियल, डाकुमेंट्री, फीचर फिल्‍म सहित प्रदर्शनकारी कलाओं के क्षेत्र में अद्भुत एवं विशद कार्य किया। दूरदर्शन रायपुर में इन्‍होंनें पद्मश्री सुरेन्‍द्र दुबे लिखित 'बिहान', डॉ.परदेशीराम वर्मा लिखित 'भूमि पुत्र' एवं 'नाचा एक विकास यात्रा' टीवी धारावाहिक के डायरेक्‍टर एवं प्रोड्यूसर रहे।  विनायक जी जब कॉलेज में बी.कॉम फाइनल सत्र 1974-1975 के विद्यार्थी थे। उसी समय कालेज के स्नेह सम्मेलन मे पहली बार उन्‍होंनें नाटक में अभिनय किया। इसके संबंध में बताते हुए वे कहते हैं कि 'मुझे स्टेज फियर था।' इसके बावजूद उन्‍होंनें उस नाटक में अभिनय किया। उस नाटक का नाम था 'खून कितना सुर्ख है', यह बंगला देश की आज़ादी पर आधारित था। इसके डाइरेक्टर रामकृष्ण चौबे थे। विनायक जी नें चौबे जी को नाटक मे

मां के प्रति दबी काम वासना : हबीब तनवीर की प्रस्‍तुति 'बहादुर कलारिन'

एक औरत और एक मां या यो कहे कि एक मां को केवल एक औरत बना लेने की बेटे की इच्छा कैसे मां को तोड़ देती है, अपने जीवन से एकदम विमुख कर देती है इसका अत्यत प्रभावपूर्ण चित्रण बहादुर कलारिन मे फिदाबाई ने किया। "चरनदास चोर' के बाद हबीब तनवीर ने फिर एक लोककथा उठाई 'बहादुर कलारिन' (1978)। यह कथा छत्तीसगढ़ के एक अचंल सोरर मे प्रचलित थी जिसमे बहादुर नाम की कलारिन (शराब बेचनेवाली) राजा के प्रेम में पड़ती है लेकिन राजा उसके प्रेम का प्रतिदान नहीं देता। उसका बेटा छछन इडिपस कामप्लेक्स के साथ बडा़ होता है। वह एक के बाद एक एक सौ छब्बीस औरतों से विवाह करता है मगर उन्हे छोड़ता चलता है। किसी भी औरत से न पटने का कारण छछन के मन मे अपनी मां के प्रति दबी काम वासना थी। जब वह बहादुर से अपनी इच्छा व्यक्त करता है तो वह सकते मे आ जाती है, बहुत क्षुब्ध होती है। पहले तो वह सारे गाँव से कहती है कि कोई छछन को पीने को एक घूट पानी भी न दे। फिर स्वय उसे कुए मे ढकेल देती है और खुद भी उसमे कूदकर आत्महत्या कर लेती है। आधुनिक युग मे व्याख्‍यायित इडिपस कामप्लेक्स का इस लोककथा मे समन्वय देखकर आश्चर्य होत