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संकल्पित लोगों को विकल्प आसानी से मिल जाते हैं

अगसदिया का नवीनतम अंक मेरे हाथ मे है, छत्तीसगढ़ के असल कलम के सिपाही डॉ. परदेशीराम वर्मा लेखन के मोर्चे में डटे रहने वाले ऐसे अजूबे सिपाही हैं जो निरंतर लेखन कर रहे हैं। विभिन्न विधाओं और आयामो में लिखते हुए वे, उनका संग्रह आदि के माध्‍यम से लगातार प्रकाशन भी प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमे से एक कड़ी अगसदिया भी है।
हमेशा की तरह इस अंक में चुनिंदा रचनायें शामिल हैं जो छत्‍तीसगढ़ को सहीं ढ़ग से समझने और पूर्वाग्रहों से बाहर निकले को विवश करती हैं। अन्‍य पठनीय और उल्‍लेखनीय आलेखों के साथ ही इसमें संग्रहित स्‍व. श्री हरि ठाकुर के आलेख में, ठाकुर जी ने छत्तीसगढ़ के महान सपूत डॉ. खूबचंद बघेल के द्वारा लिखे नाटक 'ऊंच नीच' का उल्लेख किया है। 1935 में लिखे गए इस नाटक की प्रस्तुति 1936 में अनंतराम बरछिहा जी के गांव चंदखुरी गाँव में होने का उल्लेख उन्होंने किया है। जिसमें वे लिखते हैं कि 'इस प्रस्तुति के साथ ही अनंतराम बरछिहा जी का पूर्व सम्मान ब्याज सहित वापस हो गया।' यह प्रतिकात्मम उल्लेख एक बड़े स्‍वागतेय सामाजिक बदलाव को दर्शाने के लिए हुआ है जिसकी 'लूकी' डॉ.बघेल जी नें लगाई थी। मेरा मानना है कि, इस नाटक के सहारे जो समाजिक बदलाव का आगाज हुआ उसका सहीं ढ़ग से लेखकीय मूल्‍यांकन नहीं हो पाया। बघेल जी के नाटकों पर साहित्यिक या लोकनाट्य आधारित चर्चा उस तरह से नही हो पाई है जैसी होनी चाहिए। वर्तमान समय मे उनके अवदानों पर पड़ताल के लिए उनके नाटकों के पुनर्पाठ की आवश्यकता है। 


इस अंक में महेश वर्मा द्वारा भूपेश बघेल का लिया गया साक्षात्कार भी उल्लेखनीय है। महेश वर्मा के प्रश्न का उत्तर देते हुए भूपेश बघेल ने बड़े सहज रुप से छत्तीसगढ़ के सत्य को और छत्तीसगढ़िया स्वभाव को अभिव्यक्त किया है। वे कहते हैं कि 'हम लोग डॉक्टर खूबचंद बघेल के सपनों को सच करने के लिए एक तरह से बतरकिरा की तरह इस आंदोलन में झपा रहे थे।' यह व्‍यावहारिक सत्‍य भी है, छत्तीसगढ़िया जब ठान लेता है तब लक्ष्य के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने को उद्धत हो जाता है।

दाऊ वासुदेव चंद्राकर की राम प्यारा पारकर द्वारा लिखी गई जीवनी इसके पहले अगसदिया के पूर्व अंक में भी प्रकाशित है। जिसे मैंने इंटरनेट में ऑनलाइन पब्लिश किया है। उस आलेख पर विदेशी अनिवासी भारतीयों के द्वारा लगातार किए जा रहे क्लिक, और पढ़ने के आंकड़ों के आधार पर मुझे लगता है कि यह आलेख बहुत लोकप्रिय है। छत्तीसगढ़ के चाणक्य माने जाने वाले दाऊ वासुदेव चंद्राकर की जीवनी पर इसमें बहुत अच्छा प्रकाश, राम प्यारा पारकर के द्वारा डाला गया है। इस आलेख को मैं कई बार पढ़ चुका हूं। इसे फिर से यहां पाकर खुशी हुई। पाठकों के लिए दाऊ जी को समझना और तत्कालीन छत्तीसगढ़ के इतिहास को समझने के लिए इस आलेख को पढ़ना, प्रत्येक छत्तीसगढ़िया के लिए आवश्यक है।

अगसदिया के इस अंक में 'पुरखों का छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी के पुरखे' में डॉ.परदेशीराम वर्मा, डॉ खूबचंद बघेल के जीवन संघर्षों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं 'जब छोटी बड़ी कैंचियां पंखों पर असर नहीं दिखा पाती तब चरित्र हनन की असरदार कैची लेकर वे दौड़ते हैं और हम अपने पंखों को खुद नोचकर जमीन पर उतर आने को मजबूर हो जाते हैं।' यह सर्वकालिक मारन मंत्र है जिसे विघ्नसंतोषी प्रयोग करते रहे हैं। पृथक छत्‍तीसगढ़ राज्‍य आन्‍दोलन से लेकर आज तक यह निरंतर है जिसके बावजूद कुछ लोग हैं जो इन सबका परवाह किए बगैर सरलग उड़ान भर रहे हैं। डॉ.परदेशीराम वर्मा जी ने विशाखापट्टनम की यात्रा नामक एक यात्रा संस्मरण भी इसमें लिखा है। इसके पहले भी मैं डॉ.वर्मा के कुछ यात्रा संस्मरण पढ़ चुका हूं। परदेशी राम जी जितने अच्छे कहानीकार हैं, उपन्यासकार है, लेखक हैं, उतने ही अच्छे यात्रा संस्मरण लेखक हैं। उनके यात्रा संस्मरण को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम स्वयं उस स्थान की यात्रा कर रहे हैं। इतिहास और वर्तमान को जोड़ते हुए वे इस तरह से शब्दों को पिरोते हैं कि स्थान जीवंत हो जाता है। विशाखापट्टनम की यात्रा पर लिखते हुए उन्होंने कम्बाल कोंडा की पहाड़ी पर स्थित बुद्ध विहार, कैलाश गिरी, कुरसुरा सबमरीन, मछली बाज़ार, आदिवासी संग्रहालय आदि का सुंदर उल्लेख किया है। इसके साथ ही वहां के शिक्षा संस्थानों पर भी प्रकाश डाला है। इस पर चर्चा करते हुए वे अपने शैक्षणिक और नौकरी पेशा जीवन का भी उल्लेख साफगोई से किया है। 

बाजारवाद के इस समय में लघु पत्रिकाओं के सामने निरंतरता का संकट है जिसके बावजूद अगासदिया निरंतर निकल रहा है, इस बात की हमें खुशी है। यह उदीम भी डॉ.वर्मा के संघर्ष का ही प्रतिफल है जो उन्‍हें 'असम राइफल्‍स' के सैनिक के रूप में मिला है। अपने यात्रा संस्‍मरण में उन्होंने इसे एक जगह इंगित भी किया है कि 'चुनौतियां व्यक्ति को नए द्वार तलाशने की प्रेरणा देती है' आगे वे लिखते हैं कि 'परिस्थितियों से लड़कर जीतने हेतु संकल्पित लोगों को विकल्प भी आसानी से मिल जाते हैं।'
-संजीव तिवारी 


बदलते हुए गॉंव की महागाथा : बिपत

वर्तमान छत्तीसगढ़ के गाँवों में कारपोरेट की धमक और तद्जन्य शोषण और संघर्ष की महागाथा है कामेश्वर का उपन्यास ‘बिपत‘। इसमें गावों में चिरकाल से व्याप्त समस्याओं, वहाँ के रहवासियों की परेशानियों एवं गाँवों से प्रतिवर्ष हो रहे पलायन की पीड़ा का जीवन्त चित्रण है। आधुनिक समय में भी जमींदारों के द्वारा गाँवों में कमजोरों पर किए जा रहे अत्याचार को भी इस उपन्यास में दर्शाया गया है। इस अत्याचार और शोषण के विरुद्ध उठ खड़े होने वाले पात्रों ने उपन्यास को गति दी है। विकास के नाम पर अंधाधुंध खनिज दोहन से बढ़ते पर्यावरणीय खतरे के प्रति आगाह करता यह उपन्यास नव छत्तीसगढ़ के उत्स का संदेश लेकर आया है। 

नये-नवेले इस प्रदेश में जिस तेजी से औद्योगीकरण हुआ है और इस रत्नगर्भा धरती के दोहन के लिए नैतिक-अनैतिक प्रयास हुए हैं वह किसी से छुपा नहीं है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव छत्तीसगढ़ के गाँवों पर पड़ा है। किसानों की भूमि जबरिया अधिग्रहण के द्वारा छीनी जा रही है। बची-खुची धरती अंधाधुंध औद्योगीकरण और खनिजों के दोहन से निकले धूल और जहरीली गाद से पट चुकी है या प्रदूषित हो रही है। पर्यावरण का भयावह खतरा चारो तरफ मंडरा रहा है, किन्तु उसकी परवाह किए बिना षड्यंत्र के तहत गाँव खाली कराए जा रहे हैं, कृषि-भूमि पर उद्योग लगाए जा रहे हैं। उपन्यासकार ने इस उपन्यास में अन्य सामयिक समस्याओं के साथ ही पर्यावरण के इसी बढ़ते खतरे की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित कराया है।

उपन्यास की भाषा में देशज शब्द और मुहावरे इस तरह घुले-मिले हैं कि भाषा के एक नए आंचलिक रूप का सौंदर्य खिल उठता है। ठेठ शब्दों के अर्थ कोष्ठक में दिए गए हैं, लेकिन उनकी जरूरत नहीं पड़ती। उनके अर्थ अपने संदर्भों के साथ सघन रूप में खुल जाते हैं। कथ्य आज के छत्तीसगढ़ के बदलते गॉंवों के यथार्थ की प्रामाणिक पड़ताल करता है। प्रतीकों और घटनाक्रमों के माध्यम से यथार्थ को विश्लेषित करने का ढंग निराला है। उपन्यासकार ने प्रतीकों, बिम्बों और भाषा के माध्यम से सिद्धहस्त चित्रकार की तरह चित्र खींचा है। कुछ उदाहरण देखिए-‘...गंगाराम की मुर्गी अपने चूजों को लेकर घर से कोरकिर-कोरकिर निकली और उन्हें गली को छुआते फिर घर में जा घुसी। उसकी आँट में बैठा शेरू केतकी लोगों को देख कर गुर्राने के लिए मुँह बनाया, लेकिन फिर यह विचार उसने त्याग दिया और अपनी हँफनी पर चेत किया। उसे भी तो गरमी से पार पाना है।‘ यह मात्र कल्पना नहीं है, अनुभव का चित्रण है। इसी प्रकार ‘...औखर आभा-बोली उसके कानों में मछेव (मधुमक्खियॉं) की तरह भिनभिनाते रहते हैं।‘ यह वही लिख सकेगा जिसने मधुमक्खियों को भिनभिनाते सुना होगा। इसी प्रकार कोसा कीड़ा और केकती के जीवन पर भी उपन्यासकार ने बहुत मार्मिक व भावनात्मक स्थिति का चित्रण किया है, आदि। 

उपन्यासकार नें उपन्यास में चुटीले व्यंग्य का भी प्रयोग किया है जो कही गुदगुदाता है तो कही अंतस तक भेदता है, मनरेगा के संदर्भ में देखें ‘...मस्टर रोल में भूत-प्रेत तक के नाम चढ़ रहे हैं। सरकार का बाप भी नहीं पुरा कर सकता।‘ और ‘...लेकिन सरकार को बाबा गुरू घासीदास के जैत-खाम को कुतुब मीनार से ऊँचा आखिर बनवाना ही तो पड़ा, भले इसमें वोट का खोट हो, लेकिन है तो सही!‘ और ‘...बचपन में उस जंगल में सुरेन कभी गुम हो गया था तब सोचा ही नहीं था कि वह कटाकट जंगल ही एक दिन गुम हो जाएगा।‘

उपन्यास में खण्ड-खण्ड कहानियॉं आगे बढ़ती हैं और संवेदना का एक सम्मिलित रूप उभर कर सामने आता है। लगभग दो दर्जन पात्रों के साथ आगे बढ़ती कहानी में उपन्यासकार ने सभी पात्रों का चरित्र-चित्रण बहुत सहज व सरल रुप से प्रस्तुत किया है। संवादों के सहारे पात्रों के व्यक्तित्व को स्पष्ट भी किया है। उपन्यास में बड़े कका, सिउ परसाद, चुनिया, होरी, लहाराम, पैसहा आदि के चरित्रों का व्यक्तित्व स्वयं बोलता है। कथा में नाटकीयता, रोचकता, पात्रों की भावनाओं की अभिव्यक्ति चुटीले व प्रभावकारी संवाद उपन्यास को रोचक बनाते हैं। 

यह एक गाँव की महागाथा है। इसमें बड़े कका के नायकत्व में विभिन्न कहानियाँ उनके इर्द-गिर्द घूमती हैं। गाँव में पैसहा ठाकुर (बिसाल), उसके बेटे राजा, घनश्याम, बल्लू और छुट्टन का अत्याचार है। इसी बीच प्राइवेट कोयला कम्पनी गॉंव की जमीन पर अपना पांॅव पसारती है। संघर्ष शुरू हो जाता है जिसमें आज के गॉंव-समाज का प्रामाणिक चेहरा और चरित्र उभर आता है। समाज-आर्थिक रूप से बदलते गॉंव का यथार्थ स्वरूप उभर आता है।

उपन्यास का आरंभ पलायन कर गए मजदूर भगेला के गाँव आने के वाकये से होता है। भगेला और गाँव के मजदूर मुरादाबाद के इंर्ट भट्ठे में कमाने खाने जाते हैं और इंर्ट-भट्ठा का मालिक व उसके गुर्गे उन्हें बंधुवा बना लेते हैं। वहॉ से भगेला भाग कर गाँव आता है, बड़े कका और सिउ परसाद भगेला की मदद करते हैं और जॉजगीर के किसोर भाई की संस्था के स्वयंसेवक होरी के प्रयास से सभी मजदूर छूट कर गाँव के लिए रेल से निकल पड़ते हैं। उनके आने की खुशी में गाँव में रामायण का कार्यक्रम रखा जाता है जिसमें गाँव के सभी लोग भेद-भाव, जात-पॉंत भूलकर एक साथ भोजन करते हैं।

इन घटनाओं के बीच पैसहा ठाकुर की  बेटी की प्रेम गाथा भी आकार लेती है। केतकी गाँव के ही गरीब मजदूर कौशल से प्यार करती है, उसके प्यार के रास्ते में उसके भाई रोडे़ अटकाते हैं और कौशल को प्रताड़ित करते हैं। पैसहा परिवार के जुल्म से कौशल को गाँव छोड़र भागना पड़ता है और वह कमाने-खाने कश्मीर चला जाता है। वहाँ उसके प्रेम के डोर को पत्रों के माध्यम से केकती की सहेली सुकवारा कायम रखती है। सुकवारा गाँव की स्वयसिद्धा महिला है, वह दुर्गा महिला मण्डल की अध्यक्षा है और गाँव के कोसा पालन केन्द्र में मण्डल की महिलाओं के साथ काम करती है। सुकवारा के पति भी कौशल के साथ कश्मीर में काम करता है। उसी के सहारे कौशल की पाती केतकी तक पहुचती है।

उपन्यास में कथा-उपकथा रोचकता को बढ़ाती है और कथानक आगे बढ़ता है। बड़े कका के घर रह रही चुनिया बड़े कका के आदिवासी सेवक लहाराम की पुत्री है। चुनिया विधवा है। लहाराम उसके दुख को देखकर उसे ससुराल से अपने घर ले आता है किन्तु लहाराम की दूसरी चुरियाही पत्नी चुनिया को दुख देती है। गाँव में फैले पैसहा के बेटों का आतंक और चुनिया के दुख को देखते हुए लहाराम बड़े कका से अनुरोध करता है और बड़ी काकी चुनिया को अपने घर ले आती है। चुनिया अपने सारे दुखों को भूलकर वृद्ध कका-काकी की सेवा करती है। बड़े कका का परिवार चुनिया को सामाजिक सुरक्षा ही नहीं, वरन उसे अपने घर की बेटी बनाकर रखते हैं। उपन्यास में बंधुवा मजदूरों का मुक्तिदूत होरी भी विधूर है, चुनिया की आँखें उससे दो-चार होती हैं और उन दोनों की स्वीकृति से कथा के बीच में ही वे वैवाहिक जीवन में बॅंध जाते  हैं।  

बड़े कका का पुत्र सुरेन, जो शहर में नौकरी करता है, अपने मित्र संदीप भट्टाचार्य के साथ गाँव आता है। महानगर में पले-बढ़े संदीप को गाँव का यह माहौल अटपटा लगता है। वे दोनों गाँव के बदलते हालातों से दो-चार होते हैं। सदियों से चली आ रही परंपरा के अनुसार गाँव में बद्रीनाथ-केदारनाथ से बड़े कका के घर पातीराम पंडा व उसका भतीजा मन्नू भी आता है। गॉंव में कुछ दिन डेरा पड़ता है। वे सुबह-शाम संध्या-भजन और दिन भर आस-पास के गावों में घुम-घुम कर दान-दक्षिणा प्राप्त करते हैं। पातीराम के साथ आए मन्नू की कुदृष्टि का चुनिया बेखौफ जवाब देती है। पर एक और परित्यक्ता लड़की केंवरा फॅंस जाती है। बात आगे बढ़ती उससे पहले ही लड़की को भूत चढ़ने का वाकया होता है और मन्नू के मन में घर कर गए भय से लड़की बच जाती है।

मूल कथा क्रम में पैसहा गाँव में सदियों से निस्तार हेतु प्रयुक्त रास्ते को कॉंटे से घिरवा देता है, क्योंकि वह रास्ता राजस्व अभिलेख में उनके नाम पर होता है। यहीं से गाँव वालों का विरोध आकार लेता है। रास्ते को घिरवाना पैसहा व उसके चम्मचों की चाल होती है। पैसहा चाहता कि गाँव में डायमंड कोल वॉशरी खुले जिसके लिए गाँव वाले बावा डिपरा की जमीन कोल वॉशरी को स्वेच्छा से दे दें। पैसहा कोल वॉशरी में ठेका-दलाली कर के लाभ कमाने की सोच रहा है। उसे गाँव के किसानों या पर्यावरण से कोई लेना-देना नहीं है। वह कहता है कि गाँव वाले अपनी जमीन कोल वॉशरी को दे दें तो वह गाँव के निस्तारी रास्ते को खोल देगा। पैसहा के इस काम में सहयोग गाँव का सरपंच बजरंग, पॉंडे़ और कोल वॉशरी का मैनेजर चौहान साहब आदि करते हैं। रास्ता खोलने हेतु गाँव में पंचायत बुलाई जाती है। पैसहा अपनी शर्त रखता है, मकुंदा और गाँव के दूसरे लोग इसका विरोध करते हैं। खास कर वे जिनकी जमीन बावा डिपरा में है। पैसहा के बेटे प्रतिरोध को दबाना चाहते हैं। इसी क्रम में लालदास की पैसहा के बेटों से पंचायत के बीच में ही लड़ाई हो जाती है। राजा कट्टा निकाल लेता है और चलाने ही वाला होता है कि बरसों से दबे-कुचले दलित जाति के अपंग पंचराम के शरीर में अचानक बल का संचार होता है और वह राजा की कलाई में डंडे से भरपूर वार करता है। अनहोनी टल जाती है। पंचायत बिना फैसले के उठ जाती है।

लड़ाई की आग गाँव में धीरे-धीरे सुलगने लगती है। पैसहा की जिजीविषा और उसके बेटों के आतंक में कोई कमी नहीं आती। राजा के द्वारा गाँव की बहू-बेटियों के बलत्कार के कई किस्से हरफों में उभरते हैं और शोषितों की आवाज दमन के डंडों में दब जाती है। गाँव के बहू-बेटियों की टीस जुबान से बाहर निकलने को छटपटाती है, किन्तु लोक-लाज व दबंगई के कारण दबी रहती है।

राजा ना केवल गाँव की इज्जत से खेलता है, बल्कि अपने दुश्मनों को भी रास्ते से हटाने में गुरेज नहीं करता। पंचराम की हत्या करता है और परिस्थितिजन्य साक्ष्य के बावजूद उस पर कोई ऑंच नहीं आती। ऐसी ही घटना का शिकार पूर्व में गोरे पंडित भी हो चुका होता है। दोनों की हत्या को आत्महत्या सिद्ध कर दिया जाता है।

ऐसे ही दिनों में जब राजा के हवस का शिकार हुई बेदिन के पति को दमन की पीड़ा सहन नहीं होती तो वह हिम्मत बांॅधकर पैसहा को ललकार उठता है। बढ़ते उम्र के कारण पैसहा क्रोध में उसे मारने दौड़ता है, किन्तु पॉंव में पत्थर लगने से गिर जाता है। ललकारने वालों के सर पर बेवजह संकट आ जाती है, किन्तु किसी तरह पैसहा को उसके घर पहंॅुचाया जाता है। वहांॅ से अस्पताल। लाखों खर्च करने पर भी पैसहा ठीक नहीं होता और असक्त होकर बिस्तर पर पड़ जाता है। बेटे मनमानी करने लगते हैं और गाँव को नियंत्रित न कर पाने का दुख पैसहा को सालता है। अंतिम समय में वह प्रायश्चित करने का जुगत करता है।

पैसहा के बेटे डायमण्ड कोल वॉशरी को अपने आतंक से विस्तार देते हैं। राजा की अय्यासी बढ़ती जाती है। एक दिन तालाब में अकेले नहाती बेदिन पर फिर उसकी नीयत डोल जाती है। वह बेदिन का पीछा करते उसके घर तक आ जाता है और उसे घर में अकेली पाकर उसका बलात्कार करने पर उतारु होता है। उसी समय संदेह के कारण उसका पीछा करता बेदिन का पति खेदू उसे मार डालता है। राजा को मारने के बाद वह निर्भय होकर गाँव में इसका ऐलान करता है व जुलूस के साथ थाने जाकर सरेंडर करता है।

बड़े कका और सिउ परसाद के संयुक्त प्रयास से गाँव धीरे-धीरे जागने लगता है। कोल वॉशरी के विस्तार एवं पैसहा के बेटों के दमन का विरोध करना गाँव वाले सीखने लगते हैं। किन्तु पैसहा-पॉंड़े जैसे लोगों की स्वार्थपरक कुटनीतिक चालों के कारण पुलिस-प्रशासन और कोयला कम्पनी का दंश गाँव वालों को झेलना पड़ता है। जनसुनवाई में जनता विरोध में सर उठाती है, किन्तु प्रशासन कोल वॉशरी खुलने को विकास मानते हुए जमीनों को लीलने में कम्पनी की पूरी मदद करता है।

बड़े कका और सिउ परसाद उपन्यास में कुरीतियों को सहजता से दूर करने की शिक्षा देते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। कुष्ठ रोग, जादू-टोना, भूत-प्रेत आदि के संबंध में व्याप्त अंधविश्वास की वे वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए जनता के मन से उसका भय दूर करते हैं। अपने प्रेमी की बाट जोहती केतकी सपने में देखती है कि उसका प्रेमी कौशल अनंतनाग में राजमिस्त्री का काम करते हुए ऊपर से गिर जाता है और मर जाता है। उसका स्वप्न वास्तव में सत्य होता है। अनंतनाग में कौशल आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो जाता है। प्रेमी की मौत की खबर से केकती पागल हो जाती है। कथा के अंत में ‘कौशल ने खाया पान‘ अध्याय में महागाथा की वेदना फूटती है। केतकी पान ठेले पर अपने प्रेमी के नुस्खे वाला पान  मांॅग कर लोगों को अचरज और करुणा से भर देती है। पान खाकर वह हँसती है। उसकी उन्मुक्त हँसी गॉंव में गूँजती रहती है।

बड़े कका के घर में बच्चों व पर्यावरण रक्षा का व्रत खम्हर छठ की पूजा का आयोजन हो रहा है, कथा कही जा रही है। पर्यावरण बचाने गॉंव वाले अब उठ खड़े होंगे इसी आशा में गाथा समाप्त होती है। उपन्यास में बंधुआ मजदूरी के समय एक बच्ची के बलात्कार की कहानी और उस अबोध बच्ची के गर्भवती होने की कहानी, होरी के बॅंधुआ मजदूरी से भागने का वाकया, भोजन भट्टों की कहानी, कुष्ठ होने पर समाज को बोकरा-भात देने की परंपरा का विरोध, भूत चढ़ने-उतरने का चित्रण, सॉंप काटने पर परिवहन की समस्या के कारण लोगों की मौत का वाकया, बेटा-बहू द्वारा दूध में बबूल के बीज पीस कर मिलाने और रोकने पर अपमानित हो जाने के कारण ग्वाले का वैरागी हो जाना आदि घटनाओं का संवेदनात्मक चित्रण उपन्यासकार ने किया है।

यह उपन्यास अपनी विधागत सम्पूर्णता के साथ प्रस्तुत हुआ है। इसे पढ़ते हुए कथाओं की लयात्मकता और घटनाओं के प्रवाह से एक रागिनी-सी फूटती महसूस होती है। यही रागिनी इसे स्वयमेव महागाथा सिद्ध करती है। 

संजीव तिवारी 

सेकंड मैन : कहानी की कहानी

तापस चतुर्वेदी हिन्दी कथा की दुनिया में एक नया नाम है जिनकी छः कहानियों का एक संग्रह 'सेकेंड मेन' अभी-अभी प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में 'ज्यादा हरा मुल्क', 'नट', 'नदी के किनारे', 'दादी का घर', 'एक शरीफ विधुर के सपने' और 'सरासम' शीर्षक से कहानियाँ संग्रहित है। लेखक तापस चतुर्वेदी पेशे से पत्रकार हैं एवं स्क्रिप्ट राइटर हैं। इस संग्रह के प्रकाशक डबल लिटरेचर ने तापस के लिए लिखा है कि 'वह लेखन तकनीक में गति और ठहराव पर प्रयोग कर रहे हैं।' इस लिहाज से इस संग्रह की कहानियों में तापस के प्रयोग से रूबरू होने, हमने इन कहानियों को पढ़ा और एक पाठक के नजरिये से जो महसूस हुआ उसे आप सबसे शेयर कर रहे हैं।

लेखक ने संग्रह की कहानियों को आधुनिक कथा लेखन शैली से लिखा है, कहानी के पारंपरिक ढांचे से इतर ये कहानियां आख्यानिक ढंग से लिखी गई है। लेखक के पत्रकार होने के कारण उसकी स्वाभाविक लेखन शैली भी इसमें उभर कर सामने आई है। कहानियों में घटनाओं और काल-परिस्थितियों का चित्रण विवरणात्मक है जिसे पढ़ते हुए पात्रों और स्‍थानों में जीवंतता का अहसास होता हैं। यह कहानियां तापस की स्वप्न कथाएं सी प्रतीत होती हैं जिसे उसने शब्दों में संजोने का सुन्दर उदीम किया है। इन कहानियों की भाषा शैली प्रणव है, शब्दों-वाक्यांशों का सटीक प्रयोग यह दर्शाता है कि लेखक के पास पर्याप्त शब्द भंडार हैं और वह स्वाभाविक खिलंदड़पन के साथ कहानियों में उसे प्रस्तुत किया है।

कहानियों में संवेदना का चित्रण भी लेखक ने बड़े प्रभावी तरीके से किया हैं। इन कहानियों के पात्रों में अमानत की भूख, माधव और मुख्य-मंत्री बन गए बेटे आत्मा की मन की भावनाएं, विनोद की संवेदना, गजेंद्र जोशी की जिजीविषा, अपराधी सरासम की चतुरता और परिवार के प्रति उसका कर्तव्य बोध, सभी दिल को छू जाते हैं। लेखक इन कहानियों में जीवन मूल्यों की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध नजर आते हैं। जिसमें उसके निजी तर्क मुखरित होते हैं जो उन तर्कों के जरिए कथा के अंत में मानवीय उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। बदलते परिवेश में एक दशक में समाज, जीवन पद्धति और चिंतन की दिशा बदल जाती है। हम यदि आज प्रेमचंद की कहानियों को आधार मानकर कहानी लिखेंगे तो वह आज की कहानी नहीं कही जाएगी, उसे आज के परिवेश से जोड़ना होगा। इसीलिए कथाकार नव प्रयोग करते रहे हैं और आधुनिक कथानक पर कहानी गढ़ते है। तापस ने भी कुछ अलग हट कर इसे अपने सांचे में गढ़ा है। इन सभी कहानियों की बुनियाद में आदर्श समाज का चित्र सामने आता है, एक कहानी 'नदी किनारे' को गूंथने में लेखक कुछ बिखर गया है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है। इस कहानी को पढ़ते हुए, मेरे दिमाग के घिसे-पिटे फ्रेम में  मत्स्यकन्या और ऋषि पाराशर आते-जाते रहे। इस कारण हो सकता है कि तापस जो कहना चाहता है उसे मैं सही तरीके से पकड़ नहीं पाया।
लेखक ने कहानियों में कुछ विशिष्ठ वाक्यांशों को सामान्य से बड़े अक्षरों में लिख कर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। पारंपरिक कहानी लेखन शैली में इस तरह का प्रयोग देखने को नहीं मिलती, इस कारण यह पठनीयता को के प्रवाह को किंचित बाधित करती है। किंतु वही यह उन पाठकों को कहानी को पूरा पढ़ने के लिए विवश भी करती है जो किताबों को सरसरी तौर पर पढ़ने के आदी हैं। इसके साथ ही संग्रह के अनुक्रम पृष्ठ पर देवी आराधना के वाक्यांश का उल्लेख लेखक को आशावादी एवं धर्म के प्रति आस्थावान प्रदर्शित करता है जो प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकारों को शायद अटपटा लगे। प्रकाशक नें ऐसा क्‍यूं किया है यह एकबारगी समझ में नहीं आया।

कहानी के विकास क्रम में नई कहानी के युग से नव प्रयोग आरंभ हुए हैं और कहानी के पारंपरिक ढांचे में आए इस बदलाव ने कहानी को चिंतन से जोड़कर, खालिस मनोरंजर से इतर, पाठकों को सोचने के लिए विवश किया है। इसी के चलते वर्तमान संकट के समय में कहानी विधा ने मानवीयता को स्थापित करने का बहुविधि प्रयास किया है। कथा आलोचकों का कहना यह भी है कि कहानी, समय सापेक्ष, युग सापेक्ष और संदर्भ सापेक्ष होता है। कथाकारों ने समय-युग और सन्दर्भ के नब्जों को टटोलकर कहानी के रूप में उसे अभिव्यक्त किया है। ऐसे ही कथाकारों के पद चिन्‍हों पर चलते हुए तापस नें इन कहानियों को बुना है। तापस बधाई और ढ़ेर सारी शुभकामनायें..

- संजीव तिवारी

सेकंड मैन (कहानी संग्रह), प्रकाशक - डबल ए लिटरेचर, पृष्‍ट संख्‍या - 48, मूल्‍य - रू. 110/-, लेखक का संपर्क - 09407761007, लेखक का ब्‍लॉग - आजाद हवा.

हरिभूमि चौपाल, रंग छत्‍तीसगढ़ के और संपादकीय हिन्‍दी

कहते है कि लेखन में कोई बड़ा छोटा नहीं होता। रचनाकार की परिपक्वता को रचना से पहचान मिलती है। उसकी आयु या दर्जनों प्रकाशित पुस्तके गौड़ हो जाती है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए मैं आज का चौपाल पढ़ने लगा। शीर्षक 'अतिथि संपादक की कलम ले' के नीचे सुदर्शन व्यक्तित्व के ओजस्वी व्यक्ति का चित्र था, नाम था मोहन अग्रहरि। इनका नाम अपरिचित नहीं था, साहित्य के क्षेत्र में प्रदेश में इनका अच्छा खासा नाम है। यद्यपि मुझे इनकी रचनाओं को पढ़ने का, या कहें गंभीरता से पढ़ने का, अवसर नहीं मिला था। चौपाल जैसी पत्रिका, के संपादन का अवसर जिन्हें मिल रहा है, निश्चित तौर पर वे छत्तीसगढ़ के वरिष्ठतम साहित्यकार है और उन्‍हें छत्‍तीसगढ़ के कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति का विशेष ज्ञान है। इस लिहाज से अग्रहरि जी के संपादकीय को गंभीरता से पढ़ना जरुरी हो गया। अग्रहरी जी ने हिंदी में बढ़िया संपादकीय लिखा है। चौपाल में छत्तीसगढ़ी मे संपादकीय लिखने की परंपरा रही है। शीर्षक शब्द 'अतिथि संपादक की कलम ले' से भी भान होता है कि आगे छतीसगढ़ी में बातें कही जाएँगी। किंतु इसमें हिंदी में भी संपादकीय लिखा जाता रहा है। इस लिहाज से भी अग्रहरि जी ने हिन्दी में संपादकीय लिखा है।

अक्सर हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों नाव में पांव रखने के चक्कर में मैं ना छत्तीसगढ़ी ठीक से लिख पाता हूँ ना हिन्दी। इसे पढ़ने के बाद हिन्दी के कुछ शब्दों के प्रयोग के सम्बन्ध में मेरे मन में स्थापित धारणा बदली? अग्रहरि साहब ने संपादकीय में लिखा है 'समाज आज भी रूढ़ियों से "जुझ" रहा है।' ज में छोटी उ की मात्रा लगना चाहिए कि बड़ी? यह सिद्ध हुआ कि 'जूझ' नहीं 'जुझ' लिखा जाना चाहिए?

इसी तरह 'हमारे साथ-साथ छत्तीसगढ़ के प्रत्येक नागरिक को इस पर गर्व है, यह कहते हुए अनुभव करता है कि-' लिखते हुए उन्होंने 'अनुभव करते हुए गर्व करना' और 'गर्व का अनुभव करना' जैसे शब्दों के प्रयोग का नया रुप प्रस्तुत किया है। काव्य में जिस तरह से बिम्बो का प्रयोग होता है उसी तरह इन्होनें 'छत्तीसगढ़ अपने इतिहास की संस्कृति बनाए हुए है।' में 'संस्कृति के (का) इतिहास' के उलट अच्छा प्रयोग किया है? आगे '...अपनी बातों "को" आदान प्रदान करते हैं।' लिखते हुए मेरे मगज में स्थापित '...अपनी बातों "का" आदान प्रदान करते हैं।' वाक्यांश को भी गलत ठहरा दिया? धन्यवाद चौपाल।
-तमंचा रायपुरी

छत्‍तीसगढ़ी की अभिव्यक्ति क्षमता : सोनाखान के आगी

छत्‍तीसगढ़ी के जनप्रिय कवि लक्ष्मण मस्तुरिया की कालजयी कृति 'सोनाखान के आगी' के संबंध में आप सब नें सुना होगा। इस खण्‍ड काव्‍य की पंक्तियों को आपने जब जब याद किया है आपमें अद्भुत जोश और उत्‍साह का संचार अवश्‍य हुआ होगा। पाठकों की सहोलियत एवं छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य के दस्‍तावेजीकरण के उद्देश्‍य से हम इस खण्‍ड काव्‍य को गुरतुर गोठ में यहॉं संग्रहित कर रहे हैं, जहां से आप संपूर्ण खण्‍ड काव्‍य पढ़ सकते हैं। यहॉं हम 'सोनाखान के आगी' पर छत्‍तीसगढ़ के दो महान साहित्‍यकारों का विचार प्रस्‍तुत कर रहे हैं  -

छत्‍तीसगढ़ी की अभिव्यक्ति क्षमता : सोनाखान के आगी

श्री लक्ष्मण मस्तुरिया प्रबल हस्ताक्षर के रूप में छत्‍तीसगढ़ी के आकाश में रेखांकित हैं। इनकी वाणी में इनकी रचनाओं को सुन पाना एक अनूठा आनंद का अनुभव करना है। प्रथम बार उनके खण्ड काव्य 'सोनाखान के आगी' को आज सुनने का अवसर मिला। छत्‍तीसगढ़ी की कोमलकान्त पदावली में वीररस के परिपूर्ण कथा काव्य को प्रस्तुत करते समय श्री मस्तुरिया स्वयं भाव-विभोर तो होते ही हैं, अपने श्रोता समाज को भी उस ओजस्वनी धारा में बहा ले जाने की क्षमता रखते हैं।

शहीद वीर नारायण सिह की वीरगाथा छत्‍तीसगढ़ी का आल्हाखण्ड है। उसे उसी छन्द में प्रस्तुत कर कवि ने छत्‍तीसगढ़ी की अभिव्यक्ति क्षमता को उजागर किया है। प्रवहूमान शैली सामान्य बोलचाल की भाषा और अति उन्नत भाव इस त्रिवेणी में अवगाहन का सुख वर्णनातित है। वीर नारायण सिंह के बलिदान की कहानी हमारे सन् सन्‍तावन के प्रथम स्वातंत्र युद्ध की कहानी है। छत्‍तीसगढी का यह भू-भाग उस महायज्ञ में आहुति देने से वंचित नहीं था, इसका परिचय इस खण्ड काव्य से भली- भांति हो जाता है। कुछ-कुछ पंक्तियों ने तो मुझे बांध ही लिया- 'अन्यायी कट कचरा होथे, न्यायी खपके सोन समान।'

वीरगति पाने वाले सपूत की सच्ची श्रद्धांजलि है-

'खटिया धरके कायर मरथे
रन चढ़ मरथे बागी पूत'

प्रत्येक युवक के लिए उसी प्रकार से जागृति का गीत है, जैसे-

'जब जब जुलमी मूड़ उठाथे
तब तब बारुद फुटे हे' वाली पंक्ति।

अन्त में कवि ने सभी के लिये सन्देश दिया है कि अन्याय को सिर झुकाकर स्वीकार न करो, यदि मरने और मारने की सामर्थ्‍य न हो तो फुफकारने और गरजने से तो वंचित ना रहो-

'अरे नाग, तैं काट नहीं त जी भर के फुफकार तो रे।
अरे बाघ, हैं मार नहीं त गरज गरज के धुतकार तो रे।

श्री लक्ष्मण मस्‍तुरिया की यह ध्वनि बहुत दिनों तक कानों में बजती रहेगी।

सरयूकान्त झा
प्राचार्य
छत्‍तीसगढ़ स्नातकोत्तर महाविद्यालय
रायपुर

गौरव की रक्षा ममत्व का अधिकार

रविशंकर विश्वविद्यालय छत्‍तीसगढ़ी कवियों को पाठ्य ग्रंथ के रूप में संकलन क्रमांक 17 और 18 में संकलित कराया था जिसका संपादन क्रमश : हुकुमचंद गौरहा एवं पालेश्वर शर्मा ने किया था। जिस कवि की चर्चा करने मैं जा रहा हूं वे संग्रह क्रमांक 18 में संग्रहित किये गये हैं। प्रो. सरयूकान्त झा के अनुसार- 'लक्ष्मण मस्तुरिया प्रबल हस्‍ताक्षर के रूप में छत्‍तीसगढ़ी के आकाश में रेखांकित है।' मैं 'सोनाखान के आगी' तक अपने को सीमित सखूंगा।

एक बार प्रात: स्मरणीय स्व. लोचन प्रसाद पांडेय ने मुझे कहा था कि छत्‍तीसगढ़ के ऐतिहासिक कथाओं को कल्पना एवं लोककथाओं का पुट देते हुए रोचक काव्य की रचना करो जैसा कन्हैयालाल मुन्सी करते हैं अपने उपन्यासों में। पांडेय जी की मंशा का किसी सीमा तक निर्वाह मैं इस पुस्तक में पाता हूँ । यह ऐतिहासिक तथ्‍य है-

अठरा सौ सत्तावन म, तारीख उन्तीस फागुन मास
बन्दी बना बीर नारायेन के, अंगरेज बइरी ले लिन प्रान।

किंवदन्ती या कल्पना का सम्मिश्रण देखिए-

डेरा डारिन नारायेन सिंग, साजा कउहा के बंजर म
तथा देवरी के जमींदार दोगला, बहनोई बीर नरायेन के
दगा दिहिस बाढ़े विपत म, काम करिस कुकटायन के

इस पुस्तक में दूसरी विशेषता मुझे जो नजर आई. यह इस प्रकार है- कभी स्व. पदुमलाल पुन्नालाल बख्‍शी ने लिखा था- "स्नेह की सेवा, स्वामीभक्ति की दृढ़ता, निवास की सरलता, वचन की गौरव-रक्षा और ममत्व का अधिकार, इसी में तो छत्‍तीसगढ़ की आत्मा है। तभी तो दरिद्रता के अभिशाप के साथ-साथ अज्ञान से ग्रस्त होने पर भी छत्‍तीसगढ़ के जनजीवन में चरित्र की ऐसी उज्‍वलता, को शब्‍दबद्ध करना है तो छत्‍तीसगढ़ी लोकभाषा का आँचल पकड़ना होगा।"

जाहिर है इस कवि ने लोकभाषा के आंचल को न केवल पकडा है, बल्कि काफी दूर तक उसमें घुलने मिलने की कोशिश में प्रयत्नशील दृष्टिगत होता है, जिसे एक शुभ लक्षण ही माना जावेगा। स्रन् 1973 में मैंने 'स्वातंत्र्योत्तर छत्‍तीसगढ़ी साहित्य : एक सीमांकन' शीर्षक लेख में इस कवि की चर्चा करते हुए लिखा था, ' . . . और लक्ष्मण मस्तुरिया छत्‍तीसगढी के कवियों के बीच उम्र में सबसे छोटे और नये माने जायेंगें, परन्तु उनकी कविता की लोकप्रियता देखकर एकदम भौचक हो जाना पड़ता है।' और एक दशक के बाद जब मैं इस कवि को पढ़ता हूं तो इसके काव्यगत विकास को देखकर अपने को सन्तुष्ट पाता हूं, पर अभी यह कवि निर्माण के पथ पर है, अस्तु उस पर अभी अघिक चर्चा करना उचित नहीं। हमें उसके आगामी पडाव की प्रतीक्षा है तथा उसके उत्तरोत्तर विकास का विश्वास. .. बस ।

देवी प्रसाद वर्मा
बच्‍चू-जंजगीरी

द्रोपदी जेसवानी की ‘अंतःप्रेरणा’

अभी हाल ही में द्रोपदी जेसवानी की एक कविता संग्रह ‘अंत: प्रेरणा’ आई है। संग्रह की भूमिका डॉ. बलराम नें लिखी है, जिसमें द्रोपदी जेसवानी की संवेदशील प्रवृत्ति के संबंध में बताते हुए वे लिखते हैं कि उनकी रचनाओं में वेदना और संवेदना के छायावादी चित्र झलकते हैं। डॉ. बलराम लिखते हैं कि रचनाओं में सत्य की झलक है और कुछ में चुनौतियाँ भी हैं। भूमिका में डॉ. बलराम नें चंद शब्दों में ही पूर्ण दक्षता के साथ कवियित्री की संवेदना एवं उनकी कविताओं से हमारा परिचय करा दिया है।

कवियित्री नें इस संग्रह को अपने आराध्य भगवान शिव को अर्पित किया है। साथ ही अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बड़े पिताजी व पारिवारिक सदस्यों को और शुभचिंतकों को समर्पित किया है। ऐसे समय में जब परिवार नाम की ईकाई के अस्तित्व पर संकट हैं, प्रेम का छद्मावरण लड़कियों के मुह में स्कार्फ की भांति सड़कों में आम है। किसी रचना संग्रह को अपने परिवार जनों को समर्पित करना एक रचनाकार के संवेदनशीलता को प्रदर्शित करता है।

'फिर भी कुछ रह गया' में इस संग्रह के प्रति दो शब्द लिखते हुए कवियित्री अपने अंतरतम अनुभूति का उल्लेख करते हुए लिखती हैं कि, शब्दों का समुचित आवरण ओढ़कर मेरी भावनाएँ इस संग्रह में प्रदर्शित हुई है। उनका मानना है कि कविता, सत्य को जीने और व्यक्त करने का एक सहज माध्यम है। कविताओं के माध्यम से से खुद को पहचानने और जानने का रास्ता बताती कवियित्री कहती है कि कविता, खुद को जानने का रास्ता है। इसीलिए तो उनकी कविता कहती है कि, जो चल सकते हो मेरे साथ तो चलो।

इस संग्रह की कविताओं में संवेदना का बेहतर प्रवाह है। सहज शब्दों में पिरोते हुए प्रतीकों का सटीक और सुन्दर प्रयोग किया गया है। इस संग्रह में भारतीय आध्यात्म दर्शन को कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत करने में द्रोपदी जेसवानी सफल रही है। इस संग्रह की कवितायें हमें बार बार चिंतन की उस स्थिति पर ले जाती है जहाँ भारतीय आध्यात्म और दर्शन की गहरी जड़ें हैं।

उनकी कविताओं के साथ आगे चलते-चलने पर कवियित्री बालसुलभ सहजता से गंभीर बात कहती है कि, ऐसा कोई शब्द नहीं है जो मुझे व्यक्त कर सके। शब्‍दों में उनकी यही सहजता गंभीर बातों को भी सरल बनाती हैं और उनकी भावनाओं को अभिव्यक्त भी करती है। बार-बार आकुल मन की पुकार उनके शब्दों में मुखर होती है, उनका नि:शब्द निवेदन कि मुझे सुनो, मेरी बात सुनों। कवियित्री चाहती है कि समाज में खोए हुए मानवीय मूल्य स्थापित हो, समाज में आपसी संवाद हो सके। किन्तु संवाद एकतरफा है, कोलाहल है संभवत: इसीलिए कवियित्री स्वयं अपने आप से संवाद करती है, अपने अंतर्मन से संवाद करती है, जो इस संग्रह के रूप से आप सबके सामने है।

-संजीव तिवारी

सामयिक प्रश्‍न: कोजन का होही

धर्मेंद्र निर्मल छत्तीसगढ़ी भाषा के साहित्य मे एक जाना पहचाना युवा नाम है। धर्मेंद्र निर्मल आजकल व्यंग, कहानी, कविता और छत्तीसगढ़ी के अन्यान्य विधाओं पर लगातार लेखन कार्य कर रहे है। उन्होंनें लेखनी की शुरुआत छत्तीसगढ़ी सीडी एल्बमों मे गाना लेखन के साथ आरंभ किया था। बाद में उन्‍होंनें नुक्कड़ नाटक एवं टेली फिल्मों में मे भी कार्य किया और स्क्रिप्ट रायटिंग में भी हाथ आजमाया। संभवत: रचनात्मकता के इन राहों नें उन्हें साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र का सहज ज्ञान उपलब्ध कराया। छत्तीसगढ़ी साहित्य में कुछ गिने चुने युवा सार्थक व गंभीर लेखन कर रहे हैं उसमें से धर्मेंद्र निर्मल अहम हैं। धर्मेंद्र निर्मल सिर्फ छत्तीसगढ़ी में ही नहीं, हिन्दी के सभी विधाओं में निरंतर लेखन कर रहे हैं। उनकी लेखनी में हिन्दी साहित्य संस्कार का दर्शन होता है। जिससे यह प्रतीत होता है कि वे स्वयं बेहतर पाठक है और हिन्दी के साहित्य का लगातार अध्ययन करते रहते हैं। उन्हें साहित्य की नई विधाओं, आलोचना के बिन्दु और नवाचार का ज्ञान है। वे हिन्दी के नवाचारों का प्रयोग छत्तीसगढ़ी लेखन में करते नजर आते हैं। मैं उनकी व्यंग लेखनी का कायल रहा हूँ और मेरी अभी अभी प्रकाशित छत्तीसगढ़ी व्यंग के सिद्धांत और आलोचना से संबंधित किताब में मैंनें उस पर काफी कुछ लिखा भी है।

अभी हाल ही में उनकी एक छत्तीसगढ़ी गजल संग्रह ‘कोजन का होही’ प्रकाशित हुई है। इस किताब की भूमिका लिखते हुए गजल कार डॉ. संजय दानी नें लिखा है कि ‘... उनकी सारी कविताओं के चेहरे गजल का मुखौटा लगाए हुए हैं, वैसे तो काफियों और रदीफों की उन्हें अच्छी समझ है फिर भी रचनाएँ पूर्णरुपेण गजलों का भेष धारण नहीं कर पाये हैं।‘ डॉ.संजय दानी नें इस संग्रह में संग्रहित रचनाओं की प्रशंसा करते हुए इसे काव्‍य संग्रह स्‍वीकार किया है। इस लिहाज से इस काव्य संग्रह के संबंध में मैं कुछ बातेँ करना चाहूंगा।

आजकल लोक भाषा छत्तीसगढ़ी में दना-दन गजल सग्रह छप रहे हैं और उस्ताद इन संग्रहों को गजल की कसौटी से परे बता रहे हैं। अब पाठकों के लिए उहापोह की स्थिति है कि इन संग्रहों को गजल मानें या ना माने। धर्मेंन्द्र के इस संग्रह को भी गजल मानें कि ना मानें यह एक अलग मुद्दा है किन्तु इस संग्रह में संग्रहित काव्य की पूर्णता को आप नकार नहीं सकते। कवि हम सब के बीच उपस्थित इसी प्रकार के सार्वभौम दुविधा की स्थिति को पकड़ रहा है। सही मायनों में यही अभिव्यक्ति की चिंता है, यह समय और समाज की भी चिंता है। वर्तमान मे जो वि‍कृत समाज है वह विद्रूपों से भरा हुआ है। लगातार बद से बदतर होती परिस्थितियों में हर कोई कह उठेगा कि, ‘..पता नही क्या होने वाला है।‘ (‘..कोजन का होही..’) अभिव्यक्ति कैसे होने वाली है, समाज किस दिशा मे जाने वाला है, या यह जो स्थिति है वह और कितना विभत्स , दुखमय और असह होने वाला है। यह चिंता और प्रश्न ही इस किताब का मूल है।

इस संग्रह की रचनाओं में धर्मेंद्र निर्मल गवई मिट्टी के फलेवर और संस्कृति से ओत प्रोत नजर आते हैं। जिसमें जन सामान्य को समाज में बेहतर स्थान दिलाने की जिजीविषा कूट कूट कर भर हुई है। धर्मेंद्र निर्मल की इस कविता संग्रह में 67 रचनाएँ समाहित है। इन रचनाओं में धर्मेंद्र लगातार एक आम आदमी की बातोँ को रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते नजर आते हैं उनकी अनेक रचनाओं में प्यार, श्रृंगार, दुख-दर्द और लोक आकांक्षाओं का विश्लेषण है। प्रत्येक रचनाकार संवेदनशील होता है। वह समाज के बीच ही आगे बढ़ता है और अपने आस-पास को ही रचता है परंतु अपनी विशिष्ठ संवेदना के कारण ही वह दूसरे रचनाकारोँ से अलग प्रतिष्ठित होता है। धर्मेन्द्र की यह संवेदना उसकी रचनाओं में नजर आती है। संग्रह को आप शीघ्र ही गुरतुर गोठ में पढ़ पायेंगें। धर्मेन्द्र निर्मल की कुछ हिन्दी कविताओं और कुछ छत्तीसगढ़ी गजलों को यहॉं प्रस्तु़त कर रहे हैं।

-संजीव तिवारी


धर्मेन्‍द्र निर्मल की हिन्‍दी कवितायें-

साहसी

तुम साहसी हो साहेब
लड़ते नहीं थकते
सोते - जागते
उठते - बैठते
खड़े हो - होकर
बैठने के लिए
समाज से, देश से , जिंदगी से
जिंदगी भर।

जिंदगी से जिंदगी भर
हम लड़ते हैं
बालिश्‍त पेट के लिए
सो जाते हैं
जब थकते हैं।

भीड़

ये भीड़ है बाबू, नासमझ भीड़
भीड़ जानती हैं
सिर्फ पत्थर को पूजना
पत्थर से मारना
पत्थर हो जाना
और, पत्थर पर नाम खुदवाना

चीखोगे, चिल्लाओगे नही सुनने वाले
समझाना चाहोगे नहीं बूझने वाले
चुपचाप चलोगे नहीं गुनने वाले
हाँ, पागल कहकर पत्थर जरूर मारेंगे

तुम चाहते हो
आदमी, आदमी बना रहे
मेरी मानो ! बैठ जाओ कहीं भी
पत्थर होकर।

माँ का जीवन

माँ का जीवन
रात सारी माँ की
आँखों में कटती है
जाने कब कंस
काली कोठरी मे आ धमके।

सुबह बच्चे को स्कूल भेजते वक्त
मुँह पे आ जाता है कलेजा
देखकर भयानक कलजुगी वाचाल चेहरा
गूंगे अखबारों का।

मन को मथते
माथे को कुरेदते
घुमड़ती रहती है पूरे दिन
चिंताओं की भीड़
कि मेरा नयनाभिराम
किसी से लड़ तो नहीं
रहा होगा ?
और मेरी कोमलांगी सीता ?
हाय राम !
पता नहीं कब कहाँ
क्या घट जाए
बढ़ रहे हैं दिन - ब - दिन
रक्तबीज से यहां
दशानन - दुशासन।
जैसे - तैसे आती है
ढलान पर शाम
सुनकर घण्टी की आवाज
जब दरवाजा खोलती है माँ
देखते ही
अपनी ऑखों के तारे को
सीने से लगा
पा लेती है गोद में
भरपूर सतयुग।

न जाने दिन भर में
इस तरह
कितने जुग जी लेती है माँ।

जंगल

बचपन में
जंगल का नाम सुनकर
कांपता था मैं।

किताबों में पढ़ी थी मैने
सुना भी था
जंगल में शेर, चीते, भालू रहते हैं
जो बड़े क्रूर और हिंसक होते है।

अब सिर्फ मैं ही नहीं
दुनिया कांपती है जंगल के नाम से
सुना है
शेर, चीते, भालू नहीं रहे अब
वहां इंसानों का डेरा है।

कहानी

एक राजा
एक रानी

एक का भाई मंत्री
एक का कोतवाल
खजाने का पूरा माल
काले से काला
लहू से लाल
जिनके रक्षक
यक्ष सवाल

बच्चे!
बढ़कर एक एक से
बड़े कमाल के
कोई हमाल से
कोई दलाल से
नमक हलाल से

सबके सब
झखमार
बटमार
लठमार।।


धर्मेन्‍द्र निर्मल की छत्‍तीसगढ़ी गज़लें

कौड़ी घलो जादा हे मोल बोल हाँस के

कौड़ी घलो जादा हे मोल बोल हाँस के।
एकलउता चारा हे मनखे के फाँस के।।

टोर देथे सीत घलो पथरा के गरब ला।
बइठ के बिहिनिया ले फूल उपर हाँस के।।

सबे जगा काम नइ आय, सस्तर अउ सास्तर।
बिगर हाँक फूँक बड़े काम होथे हाँस के।।

हाँसी बिन जिनगी के, सान नहीं मान नहीं।
पेड़ जइसे बिरथा न फूलय फरय बाँस के।।

दुनिया म एकेच ठन चिन्हा बेवहार हँ।
घुनहा धन तन अउ भरोसा नइहे साँस के।।

कोन ल कहन अपन संगी

दुवारी के नाम पलेट कस, हाल हवय परमारथ के।
कोन ल कहि अपन संगी, संग हावय इहाँ सुवारथ के।।

छोटे बड़े दूनो ल चाही, अपन अपन बढ़वार ठसन।
अपने अपन बीच घलो, जंग हावय इहाँ सुवारथ के।।

भूखे पेट कमावत हे अउ पेट भरे मेछरावथे।।
एक पेट एक भूख कई, रंग हावय इहाँ सुवारथ के।।

सभयता संसकीरति के हम, गुनगान आगर करथन।
घिरलउ ओन्हा म घलो तन, नंग हवय इहाँ सुवारथ के।।

उप्पर जान हरू फूलपान, खाल्हे जान मान भारी।
उप्पर वाले घलो देख, दंग हवय इहाँ सुवारथ के।।

अब तो जग के करता धरता, बन बइठे हे रूपइया।
दया मया इमान धरम, चंग हावय इहाँ सुवारथ के।।

कहाँ गरीबन के पाँव उसल जाही

कहाँ गरीबन के पाँव उसल जाही।
पाँवे संग सरी छाँव उसल जाही।।

कोन हवय जीव ले जाँगर कमइया।
अमीर मन के तो नाँव उसल जाही।।

गाहीच कइसे कुहु कोइली सुछंद ।
जब कऊँवेच के काँव उसल जाही।।

कइसे के काला उछरही भुईंए हँ ।
जब कमइयेच के ठाँव उसल जाही।।

कते साहर कोन गाँव नइ बसे हे।
साहरे कहाँ जब गाँव उसल जाही।।

दुनिया म जम्मो पूरा ककरो

अपन रद्दा खुदे बनाथे खोजे मिलय नहीं किताब।
मया पीरा म हीरा पीरा के होवय नहीं हिसाब।।

नानुक जिनगी ल झगरा करके झन कर खुवार अइसे।
मया करे बर कभू समे दुबारा मिलय नही जनाब।।

लहुट नइ सकबे आके सुरता दूर गजब ले जाथे।
काकर संग गोठियाबे अकेल्ला मिलय नही जवाब।।

मया सींचे म मया पनपथे काम दगा हँ नइ आवय।
काँटा हे तभो बंबरी म कभू फूलय नही गुलाब।।

जतका हे ततके के खुसी म मजा हे जिनगानी के ।
जग म जम्मो कभू पूरा ककरो होवय नही खुवाब।।

कमाल होगे राजा

परजा के नारी ल छूवत मत्था ल ताड़ गे।
कमाल होगे राजा तोर हत्था हँ माड़ गे।।

पाँच साल के बिसरे आज घरोघर घुसरथस।
कमाल होगे राजा तोर नत्ता हँ बाड़ गे।।

अकाल म कोठी खुले बाढ़ म धोए बंगला।
कमाल होगे राजा तोर छत्ता हँ बाड़ गे।।

परजा के पिरा गे मुँहू फारे मँहगई ले।
कमाल होगे राजा तोर भत्ता हँ बाड़ गे।।

कुकुर खाय बिदेसी चारा परजा बर पैरा।
कमाल होगे राजा तोर सत्ता हँ बाड़ गे।।

तथाकथित सुभद्रा कुमारी चौहानों और महादेवियों के बीच मीना जांगड़े

छत्तीसगढ़ की एक 10वीँ पढी अनुसूचित जाति की ग्रामीण लड़की की कविताओं के दो कविता संग्रह, पिछले दिनों पद्मश्री डॉ सुरेन्द्र दुबे जी से प्राप्त हुआ। संग्रह के चिकने आवरणों को हाथों में महसूस करते हुए मुझे सुखद एहसास हुआ। ऐसे समय मेँ जब कविता अपनी नित नई ऊंचाइयोँ को छू रही है, संचार क्रांति के विभिन्न सोतों से अभिव्यक्ति चारोँ ओर से रिस—रिस कर मुखर हो रही है। उस समय में छत्तीसगढ़ के गैर साहित्यिक माहौल मेँ पली बढ़ी, एक छोटे से सुविधाविहीन ग्राम की लड़की मीना जांगड़े कविता भी लिख रही हैँ। .. और प्रदेश के मुख्यमंत्री इसे राजाश्रय देते हुए सरकारी खर्च में छपवा कर वितरित भी करवा रहे हैं।

ग्लोबल ग्राम से अनजान इस लड़की नें कविता के रूप में जो कुछ भी लिखा है वह प्रदेश की आगे बढ़ती नारियों की आवाज है। मीना की कविताओं के अनगढ़ शब्दोँ मेँ अपूर्व आदिम संगीत का प्रवाह है। किंतु कविता की कसौटी मेँ उसकी कविताएँ कहीँ भी नहीँ ठहर पाती। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह बहुत कुछ लिखना चाहती है। उसके मस्तिस्क मेँ विचारोँ का अथाह सागर तरंगे ले रहा है पर वह उसे उसके उसी सौंदर्य के साथ प्रस्तुत नहीँ कर पा रही है। शायद उसके पास पारंपरिक कविताओं के खांचे में फिट होने वाले रेडीमेड शब्द नहीँ हैँ। इन दोनों किताबों के शब्द मीना के स्वयं के हैं, उधारी के बिल्कुल भी नहीं, किसी शब्दकोश से रटे रटाये नहीँ हैँ। उसकी कविताओं मेँ भारी भरकम प्रभावी शब्दोँ का अजीर्ण नहीँ है। ना उसे सहज और सरल शब्दों के कायम चूर्ण का नाम ही मालूम है। उसे कविता की कसौटी और कविता का शास्त्र भी नहीं मालूम। आश्चर्य है यह लडकी इस सबकी परवाह किए बिना दो दो संग्रह लिखने की जहमत रखती है।

अभिव्यक्त होने के लिए छटपटाती मीना की बेपरवाही और गजब का आत्मविश्वास देखिए कि वह एक स्थानीय समाचार पत्र के छत्तीसगढ़ी परिशिष्ठ के संपादक से अपनी कविताओं को सुधरवाती है। बकौल मीना, उसको अपने सृजन का गुरू भी बनाती है। वही संपादक उसकी कविताओं को तराशता (?) है और इस कदर मीडिया इम्पैक्ट तैयार करता है कि, प्रदेश के मुख्यमंत्री को सरकारी खर्चे में उसे छपवाना पडता है। शायद अब लडकी संतुष्ट है, उसकी अभिव्यक्ति फैल रही है। अच्छा है, गणित को बार बार समझने के बावजूद दसवीं में दो बार फेल हो जाने वाली गांव की लडकी के पास आत्मविश्वास जिन्दा है। गांवों में लड़की के विश्वास को कायम रखने वाले और उन्हें प्रोत्साहित करने वाले प्राचार्य भी भूमिका, रंगभूमि के ब्रोशर में बिना नाम के भी मौजूद है।

साहित्यिक एलीट के चश्में के साथ जब आप मीना जांगड़े की कविताओं को पढते हैं तो संभव है आप एक नजर मेँ इसे खारिज कर देंगे। व्याकरण की ढेरोँ अशुद्धियाँ, अधकचरा—पंचमिंझरा, शब्द—युति, भाव सामंजस्य की कमी, खडभुसरा— बेढंगें उपमेय—उपमान—बिंम्ब, अपूर्णता सहित लय प्रवाह भंगता जैसी ब्लॉं..ब्लॉं..ब्लॉं गंभीर कमियाँ इन कविताओं में हैँ। ऐसी कविताओं से भरी एक नहीँ बल्कि दो दो कविता संग्रहों को पढ़ना, पढ़ना नहीँ झेलना, आसान काम नहीँ है। किंतु यदि आप इन कविताओं को नहीँ पड़ते हैँ तो मेरा दावा है आप हिंदी कविता की अप्रतिम अनावृत सौंदर्य दर्शन से चूक जाएंगे। बिना मुक्तिबोध, पास, धूमिल आदि को पढ़े। राजधानी के मखमली कुर्सियों वाले गोष्ठियों से अनभिज्ञ लगातार कविताएँ लिख रही मीना हिंदी पट्टी के यशश्वी कवि—कवियों के चिंतन के बिंदुओं को मीना जांगड़े झकझोरते नजर आती है। खासकर ऐसे फेसबुकीय पाठक, जो तथाकथित सुभद्रा कुमारी चौहानों और महादेवियों के वाल मेँ लिखी कविता पर पलक पावड़े बिछाते खुद भी बिछ बिछ जाते नजर आते हैं। उन्हें मीना जांगड़े की कविताओं को जरूर पढ़ना चाहिए। ताकि वे कविता के मर्म से वाकिफ हो सकें।

मीना के पास एक आम लड़की के सपने है, जो उसके लिए खास है। उसके सपने अलभ्य भी नहीँ है, ना ही असंभव, किंतु गांव मेँ यही छोटे छोटे सपने कितने दुर्लभ हो जाते हैं यह बात मीना की कविताओं से प्रतिध्वनित होती है। उसकी अभिव्यक्ति छत्तीसगढ़ की अभिव्यक्ति है, हम मीना और उसकी कविताओं का स्वागत करते हैँ। मीना खूब पढ़े, आगे बढ़े, उसके सपने सच हो। प्रदेश में आगे बढ़ने को कृत्संकल्पित सभी बेटियों को दीनदयाल और पद्म श्री सुरेंद्र दुबे जी की आवश्यकता हैँ। उन सभी के सपनों को सच करना है, तभी मीना जागड़े की कवितायें सार्थक हो पाएगी।
संजीव तिवारी

पुरूरवा का पूर्वानुमान एवं सीता जी की आखिरी रात

पारम्‍परिक साहित्‍य में प्रेम एवं विरह, गद्य एवं पद्य की मूल विषय वस्‍तु रही है. विभिन्‍न महान कवि एवं लेखकों नें इसे केन्‍द्र में रखकर साहित्‍य की रचना की है. रचनाकारों के इसी सृजन से भारतीय साहित्‍य में भी विभिन्‍न नायक-नायिकाओं की कहानियॉं उपलब्‍ध है. इसी क्रम में उर्वशी एवं पुरूरवा की प्रेम कथायें भारतीय संस्‍कृत साहित्‍य एवं तदनन्‍तर हिन्‍दी साहित्‍य में भी मिलती हैं. पाठकों की रूचि के कारण रचनाकार इन प्रेम कहानियों को बार-बार नित-नव अर्थान्‍वयन करता हुआ नये रूप में प्रस्‍तुत करता है. ऐसा ही स्‍वागतेय प्रयास उडिया एवं अंग्रेजी के प्रसिद्ध साहित्‍यकार डॉ.पंचानन मिश्र नें ‘पुरूरवा का पूर्वानुमान’ के रूप में किया है. उडिया में लिखी गई इस कविता का हिन्‍दी अनुवाद यशस्‍वी अनुवादक कृष्‍ण कुमार ‘अजनबी’ नें किया है.

उडिया में लिखी गई इस लम्‍बी कविता में कवि नें प्रेम एवं विरह के भावों का अद्भुत चित्रण है. इस मिथक कथा से परिचित सुधीजन जानते हैं कि पुरूरवा को मिलन से कहीं अधिक विरह को झेलना पड़ा है. कवि नें काव्‍य नायक असफल प्रेमी पुरूरवा का मार्मिक अंत:स्‍वर को इसमें शब्‍द दिया है. एक ऐसे अपूर्व सौंदर्यशाली, बलशाली पुरूष पुरूरवा जिससे उर्वशी जैसी अप्‍सरा मोहित हो जाती है उसके विरह की स्थिति का जीवंत चित्रण करता हुआ कवि लिखता है ‘हे ब्रम्‍हाण्‍ड सुन्‍दरी/उतर आओ धरती पर फिर से एक बार/ जीर्ण-शीर्ण अस्थि पंजर वाले../ इस शरीर में फूंक दो जीवनांश का मंत्र/ देकर एक ऐसा चुम्‍बन.’ ऐसा आर्तनाद करते पुरूरवा की नायिका ब्रम्‍हाण्‍ड सुन्‍दरी उर्वशी का परिचय कवि कुछ इस तरह से कराते हैं ‘.. और विस्‍तृत नितम्‍बों के घूर्णन पर/ गतिशील होते हैं पृथ्‍वी के/ उत्‍तर व दक्षिण गोलार्ध दोनों. कम्पित वक्षोजों के उत्‍थान एवं पतन पर/ लिपिबद्ध हो जाता/ मानवीय संस्‍कृति का लम्‍बा इतिहास/ हिरणी से नैनों वाली की/ तिरछी नजरों से/ मोहासक्‍त है स्‍वर्ग, मर्त्‍य व पाताल.’

कवि इस लम्‍बी कविता में इसी तरह से अपनी अभिव्‍यक्ति को बहुत सुन्‍दर ढंग से मुखरित किया है. मिलन की आस में सूखते पुरूरवा स्‍वयं कविता के रूप में अपनी कहानी कहता है जिसे कवि आगे बढ़ाता है. कविता में कवि की दार्शनिकता घटनाओं का प्रतीकात्‍मक विश्‍लेषण करते हुए बार बार सोचने के लिए विवश करती है. देवराज इन्‍द्र, लुब्‍धक दैत्‍य, चित्ररेखा व अन्‍य अप्‍सराओं के साथ उमड़ते घुमड़ते यादों के बवंडर कविता को रोचक बनाते हैं.

डॉ.पंचानन मिश्र जी की कृति ‘सीता जी की आखिरी रात’ रामचरित के सीता वनवास की कथा है. यह लम्‍बी कविता पूरी तरह से दर्शन पर आधारित कविता है. कवि इसे काव्‍य रूप में रचने के पहले अपनी मनोदशा एवं चिंतन को पाठकों के सामने रखने के लिए नौ पृष्‍टों में भूमिका लिखा है. बार बार अग्निपरीक्षा देती नारी के मनोभावों का मार्मिक चित्रण इस कविता में नजर आती है. राज्‍याभिषेक के उपरांत सीता पर लांछन लगने के कारण राम द्वारा उसे त्‍याग दिया जाता है. गर्भवती असहाय नारी को जंगल में इस तरह छोड़ जाने से थोथे राम राज्‍य की परिकल्‍पना पर भी जगह-जगह इसमें तीक्ष्‍ण व्‍यंग्‍य उपस्थित हैं. शब्‍दों का संयोजन एवं भाव प्रवाह अद्भुत है, कविता को पढ़ते हुए सीता के प्रति करूणा के साथ ही मानवीय सम्राट के निर्णय पर बार बार खीझ उभर आता है. कविता प्रत्‍येक पूर्णविरामों के साथ गंभीरता से सोंचने को मजबूर करती है. ‘सीता जी की आखिरी रात’ के कई हिस्‍से अत्‍यंत प्रभावशाली एवं उल्‍लेखनीय है जिन्‍हें मैं यहां लिखना चाहूं तो पूरे किताब की नकल यहां उतारना पड़ेगा. यह लम्‍बी कविता काव्‍य के सभी तत्‍वों से परिपूर्ण है, प्रादेशिक भाषा उडिया में लिखे इस उत्‍कृष्‍ट साहित्‍य को तो राष्‍ट्रीय स्‍तर पर पुरस्‍कार मिलना चाहिए.

प्रतीकों एवं शब्‍द संयोजन में कवि की सिद्धस्‍तता दोनों पुस्‍तकों में स्‍पष्‍ट झलक रही है. अनुवादक के हिन्‍दी शब्‍द सामर्थ्‍य से यह रचना हिन्‍दी पाठकों के लिए भी सुगम व बोधगम्‍य हो गई है. इन्‍ही गुणों के कारण दोनों पुस्‍तकों को पढ़ते हुए, आरंभ से अंत तक, घटनाओं का प्रवाह अविरल रूप से मानस में समाता चला जाता है. छंदमुक्‍त नई कविता के स्‍वरूप में लिखी गई इन दोनों लम्‍बी कविताओं के रचनाकार डॉ.पंचानन मिश्र एवं अनुवादक कृष्‍ण कुमार ‘अजनबी’ को मेरी शुभकामनायें.
संजीव तिवारी


पुरूरवा का पूर्वानुमान
रचनाकार : डॉ.पंचानन मिश्र
भाषान्‍तर : कृष्‍ण कुमार ‘अजनबी’
प्रकाशक : पहले पहल प्रकाशन, भोपाल
प्रथम संस्‍करण 2015
पृष्‍ट संख्‍या : 112
मूल्‍य : 150/- हार्ड बाउन्‍ड


 सीता जी की आखिरी रात
रचनाकार : डॉ.पंचानन मिश्र
भाषान्‍तर : कृष्‍ण कुमार ‘अजनबी’
प्रकाशक : अयन प्रकाशन, नई दिल्‍ली
प्रथम संस्‍करण 2015
पृष्‍ट संख्‍या : 136
मूल्‍य : 260/- हार्ड बाउन्‍ड

पुस्तक समीक्षा : समय की नब्ज टटोलतीं लघुकथाएं

कथा साहित्य में लघुकथा के एक नई विधा के रूप में स्थापित हुए बहुत समय नहीं हुआ है। लगभग आठवें दशक से यह अधिक चर्चा में आई है। यूं पंचतंत्र की कहानियों को भी लघुकथा माना जा सकता है, किंतु वे उपदेशपरक, नीतिपरक और नैतिक मूल्यों पर जोर देने वाली कहानियां हैं। इसलिए सामाजिक सरोकार होते हुए भी समकालीन सामाजिक यथार्थ एवं समकालीन जीवनमूल्यों से उनका सीधा सरोकार नहीं बन पाया। प्रेमचंद के युग से कथा-साहित्य में उद्‌देश्य-परकता को साहित्य-मूल्य के रूप में स्वीकार किया जाने लगा था। प्रेमचंद ने सोद्देश्य लेखन का नारा देकर साहित्य को समाज से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया। तब से अब तक साहित्य की हर विधा में सामाजिक यथार्थ का कड़वा, मीठा सच दिखाई दे रहा है।
लघुकथा की रचना उन्हीं आंदोलनों के बीच प्रारंभ हुई। लघुकथा में सामाजिक विसंगति, समाज के अंतर्विरोध, समाज के मानव-मूल्य, समाज का वर्ग चरित्र, मानवीय रिश्तों एवं संबंधों में विकास एवं क्षरण, मनुष्य की राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक चेतना के छोटे-छोटे अक्स दिखाई देने लगे थे। अपने छोटे कलेवर में बड़े सामाजिक प्रश्नों से जूझने का अद‌र भुत प्रयास लघुकथाओं में दिखाई देता है। किंतु लघुकथा लेखन में एक निरंतर खतरा बना रहता है, और वह है कि लघुकथा कहीं चुटकुले में रूपांतरित तो नहीं हुई है या उसकी शैली कहीं निबंधों की उदाहरण मूलक शैली तो नहीं बन रही है? लघुकथा को वस्तु और रूप, दोनों दृष्टि से एक कथा होना चाहिए। और उसे बहुत छोटे रूप में भी कथा साहित्य की विशेषताओं से अलग नहीं होना चाहिए। वस्तु तो लघुकथा का प्राणतत्व है और शैली परिधान। किंतु वस्तु को, प्राण को, जितनी अच्छी शैली के परिधान में सजाकर प्रस्तुत करेंगे, उतना ही अधिक उसका प्राणतत्व प्राणवान और प्रभावशाली बनेगा। बहुत-से लघुकथाकारों ने लिखते समय इस बात का ध्यान रखा है। मैं लघुकथा का अच्छा पाठक नहीं बन पाया, पर मैंने जो पढ़ा ह, उसमें विष्णु प्रभाकर, रमेश बतरा, सुकेश साहनी, सुभाष नीरव, बलराम, विक्रम सोनी, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु आदि की लघुकथाएं इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। इसमें बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु' का नाम भी लिया जा सकता है।
साहित्य कर्म समाज की विकट कंटीली झाड़ियों को काटकर रास्ता बनाने का कर्म है। कंटीली झाड़ियों से भी परिचित कराना, उन्हें काटने का हथियार देना और निरापद रास्ता बनाने की समझ और चेतना देने का काम रचनाकार का काम होता है। बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु' अपनी पुस्तक- 'गुरु ज्ञान : आईना दिखातीं लघुकथाएं' में कंटीली झाड़ियों को बखूबी पहचानते हुए दिखाई देते हैं। कांटों की चुभन को खुद महसूस भी करते हैं और पाठक को भी महसूस कराते हैं। पर रास्ता बनाते वक्त वे उपदेशक की मुद्रा अख्तियार करते हैं। बेहतर होता, रास्ते के लिए मजबूत जमीन तैयार करने की चेतना जगाने में लघुकथा की महत्वपूर्ण भूमिका बन पाती। मुझे लगता है कि उनकी शिक्षकीय चेतना उन्हें शिक्षक की तरह रास्ता दिखाने के लिए प्रेरित करती है। बावजूद इसके समय की नब्ज पर उनकी गहरी पकड़ दिखाई देती है।
वर्तमान पूंजीवादी उत्तर आधुनिकता ने सबसे अधिक सामाजिक और मानवीय रिश्तों को प्रभावित किया है। रिश्तों और संबंधों की समूहवादी चेतना व्यक्तिवादी चेतना में बदलती जा रही है। मनुष्य आत्मकेंद्रित होता जा रहा है। रिश्तों की मजबूत डोर फुसफुसाती जा रही है और तेजी से कमजोर होकर टूटती जा रही है। गुरु की ‘झुका कंधा’ जैसी लघुकथा सोचने पर विवश करती है कि सूट की आधुनिकता हमें कहां ले जा रही है। ‘दर्द’ में मानवीय रिश्ता तार-तार होता दिखता है। ‘सही-जवाब’ में पति-पत्नी के रिश्ते का राजनीतिकरण खुलकर सामने आता है। ‘फर्क’ में सामाजिक संबंधों के वर्गीय ताने-बाने के बीच मेहनतकश रिक्शावाले की पीड़ा बोलती हुई दिखाई देती है। ‘शुक्र है’ लघुकथा में हमारी संवेदना लहूलुहान हो रही हाती है। यह आज का सच है कि ‘शुक्र है, फोन से ही काम चल गया।’ कहां मर गई हमारी संवेदना? ‘सीख’ में श्रम की सामाजिक भूमिका खिसक रही है और नकली पुण्य-लाभ के नीचे श्रम दब-सा गया है। ‘वादा’ कथा मां-बेटे के रिश्ते के बीच अर्थतंत्र को लाकर खड़ा कर देती है। ‘पापा को मालूम होना चाहिए’ तकनीकी विकास के बीच रिश्तों की टूटन को रेखांकित करती है। लघुकथाकार ‘गुरु’ ने उस बहू का सच देख लिया है कि ‘सासू मां को अपने पास बुला लेते हैं’ की मानवीय दृष्टि के पीछे कौन-सी मानवीय चेतना का कर रही है। ‘बेकार’ लघुकथा के इस कथन- ‘पापा, मम्मी कह रही थीं कि दादा जी को रिटायर हुए काफ़ी दिन हो गए हैं। रिटायरमेंट के बाद मिले पैसे भी ख़त्म हो चुके हैं। अब तो दादा जी दिनभर बेकार पड़े रहते हैं। पापा, दादा जी को नष्ट तो नहीं कर सकते, फिर उन्हें बाहर कब फेंकेंगे?’ में लगा हुआ प्रश्न चिह्‌न कई सवालों को जन्म देता है और पाठक को झकझोर देता है। रचना जब पाठक को तिलमिलाने और छटपटाने पर मजबूर करती है, तभी रचना की सार्थकता उद्‌घाटित होती है। ‘व्यावहारिकता’ में मनुष्य भी उपभोक्ता वस्तु में कैसे तब्दील होता है, और स्वार्थ पूर्ति के अनुसार उसके साथ व्यवहार, उपभोक्ता संस्कृति की ओर इशारा करता है। ‘सुर्खियां’ पत्रकारिता की दृष्टि को नापती है। ‘संतुलन’ लघुकथा में रिटायर पति के साथ पत्नी के रिश्ते में बदलाव व्यक्तिगत आर्थिक स्वार्थ को ही केंद्र में रखता हुआ नजर आता है। ‘हकीकत’ में उज्ज्वला और जगत के आत्मीय रिश्तों के बीच अर्थ की मजबूत दीवार खड़ी है। इसी तरह ‘पुरखों का घर’, ‘तुलना’, ‘बदलती भूमिकाएं’, ‘चिरस्थायी’, ‘समझदार’, ‘सेवा’, ‘मददगार’, ‘मतलब’ आदि लघुकथाओं में हमारे इक्कीसवीं सदी के समाज का असली चेहरा कथाकार से छुप नहीं पाता। उस चेहरे की एक-एक रेखा को न केवल कथाकार पढ़ते हुए दिखाई देते हैं, वरन शब्दों की व्यंजना से उसकी परतों को उधेड़कर भीतर का सच भी देखने का प्रयास करते हैं।
साहित्यकार कभी भी निराशावादी नहीं होता। विकट समस्याओं से जूझ रहे समाज के भीतर वह आशा की किरणों की तलाश कर लेता है। रचनाकार का यही आशावाद समाज की ऊर्जा और ताकत बढ़ाता है। बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु' को भी उत्तर आधुनिक समाज में मानवीय मूल्यों की तलाश में सफलता मिलती दिखाई देती है। अपने घर कचरा फेंकने वाले पड़ोसी को उस कचरे से बनी खाद से लहलहाए पौधे का गुलाब भेंट करना गांधीवादी मूल्यों की याद दिलाता है (गुलाब)। ‘सार्थकता’ बहुत ही सार्थक लघुकथा है। चट्‌टान की टूटन के माध्यम से ‘गुरु’ ने जो सड़क बनाई है, वह इस सदी की सबसे मजबूत सड़क की नींव रखती हुई दिखाई देती है। ‘रोटी तो हमारे लिए काजू की कतली बन सकती है, काजू की कतली रोटी नहीं’ (काजू की कतली) यही सोच समाज की ताकत बनकर समाज को आगे ले जाती है। ‘गुरु’ की लघुकथा वैश्विक गांव के भीतर पनप रही मानव विरोधी और समाज विरोधी चेतना के विरुद्ध मुकम्मल और मानवतावादी समाज की तलाश करती है। वे ‘ठोकर’ जैसी लघुकथा में कुछ शब्दों में ही मनुष्य के भीतर की जीवित मनुष्यता को तलाश कर लेते हैं। दो कुत्तों की लघुकथा के माध्यम से सामाजिक वर्ग संरचना को तार-तार करने में सफल होते हैं (खुलापन)। मालकिन और कामवाली बाई के बच्चे की भूख को कथाकार बखूबी पहचानने लगते हैं (परेशानी अपनी-अपनी)। मनुष्य को कुत्ता बताने वाली संस्कृति कारक संबंधों को खंगालने में रचनाकार की ईमानदार सोच और दृष्टि दोनों दिखाई देती है (दोनों कुत्ते हैं)। ‘क्यों मारें’ जैसी लघुकथाएं भी देते हैं ‘गुरु’, जहां जातिवाद और संप्रदायवाद पर सामाजिक संबंध बहुत भारी पड़ता है। ‘रोटी सबकुछ थी’, ‘कर्तव्य’, ‘प्रतिदान’ जैसी लघुकथाओं में हमारा सामाजिक मूल्य शान पर चढ़कर अधिक धारदार और चमकदार बनता हुआ दिखाई देता है। ‘परिवार’ जैसी लघुकथा आज के बिखरते परिवार के बीच मजबूत सेतु दिखाती है। ‘मुस्कराते हुए एक-दूसरे को देखा और खुली हवा में सांस लेने के लिए छत पर आ गए।’ ‘खुली हवा’ और ‘छत’ की व्यंजना किसी से छुपी नहीं है। ‘पुरखों का घर’ माटी से जुड़ने की चेतना को उद‌टीघाटित करती है। ‘सेवा’ में समाज का सहयोगवादी चेहरा खुलकर सामने आता है। ‘घर’ लघुकथा मानवीय संवेदना की धारदार कहानी है। ‘निर्मल’, ‘उपयोगिता’, ‘चिरस्थायी’, ‘अमृत से पहले’, ‘तुम खाओ’ आदि कथाओं में समाज के उन रूपों का दर्शन होता है, जिसकी मजबूत नींव पर समाज का महल खड़ा हुआ है। जिसे इक्कीसवीं सदी का नकारात्मक व्यक्ति भी हिला सकने में न केवल असमर्थ है, वरन बौना भी नजर आ रहा है।
भूमंडलीयकरण का सर्वाधिक प्रभावशाली रूप बाजारवाद है। पूरी दुनिया को एक बाजार में बदलने की एक पुरजोर कोशिश वैश्विक अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न अंग बन चुकी है। बाजार का चरित्र मुनाफा कमाना होता है। ‘गुरु-ज्ञान’ की लघुकथाओं में बाजार की बारीक परतों को हटाकर तो नहीं देखा गया है, किंतु बाजार के चरित्र को स्पर्श कर इसके खतरों की ओर इशारा अवश्य किया गया है। ‘पत्नी का रंग’ लघुकथा में पति की पंसद और दुकानदार की व्यावसायिक बुद्धि के बीच द्वंद्व में ‘शिल्पा शेट्‌टी स्टाइल’ की साड़ी बाजी मार जाती है। ‘समय-चक्र’ लघुकथा में समय का पहिया मनुष्य को भावनाहीन बनाने की दिशा में तेजी से घूम रहा है। मां को अपने बच्चे को दूध पिलाने से फिगर खराब होने का डर है और बेटे की, मां को अपना खून देने के बजाय बाजार से खरीदने की सोच बाजार के रंग में पूरी तरह रंग जाने की सोच ही कही जा सकती है। ‘भरी मांग’ लघुकथा हमारी सांस्कृतिक परम्परा के आडम्बर पर प्रहार करती दिखाई देती है। ‘पुण्य-लाभ’ में पुण्य कमाने की भावना कम, भिखारी से बीस रुपए के चिल्लर लेकर एक रुपए का लाभ कमाने का बाजारू चिंतन ही उभरकर सामने आता है। ‘सबका फायदा’ में दुकानदार सैंपल की दवाई बेचकर सबके फायदे का तर्क देता है। इसके अतिरिक्त, ‘हकीकत’, ‘गलत कौन’, ‘आटे की दुल्हन’, ‘अतिरिक्त वजन’, ‘सवाल’, ‘मिट्‌टी का पेड़’ आदि कथाओं में बाजार के विभिन्न रूपों को देखा जा सकता है।
‘गुरु-ज्ञान : आईना दिखातीं लघुकथाएं’ की कुछ कथाओं में समकालीन राजनीति के चरित्र को पकड़ने का प्रयास किया गया है। समकालीन राजनीति कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से काफी दूर जा चुकी है। इसे ‘प्रैक्टिकल’, ‘जनता’, ‘इल्जाम’, ‘सबूत’, ‘ताबीज’, ‘टोपी महिमा’, ‘उल्टा-पुल्टा’, ‘महत्वपूर्ण मंथन’ आदि लघुकथाओं में देखा जा सकता है। राजनीति के विरोधी चरित्र को गौरवान्वित करने की परंपरा आज़ादी के बाद से ही शुरू हो चुकी थी, जिसे आज विकास के ऊंचे पायदान पर देखा जा सकता है। ये कथाएं राजनीति के समकालीन रूप पर सोचने के लिए विवश करती हैं।
बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’ भारतीय शिक्षा व्यवस्था से गहराई से जुड़े रहे हैं। इसके लंबे अनुभव का खजाना उनके पास है। वे शिक्षा तंत्र के अंदरूनी और बाहरी, दोनों हिस्सों पर बखूबी नजर भी रखते हैं, और राजनीति की अनावश्यक छेड़छाड़ के दर्शक भी हैं और शायद भुक्तभोगी भी। इसलिए इस पर बेबाक कलम चलाने का साहस भी करते हैं। ‘प्रैक्टिकल’ में विधायक-पुत्र को अधिक नम्बर देने के तर्क में शिक्षकीय चालाकी दिखाने के प्रयास में हास्य और व्यंग्य दोनों नजर आता है। ‘इल्जाम’ जैसी लघुकथा में नेता जी शिक्षक को एक नया गणित पढ़ाने के लिए बाध्य करते हैं, जिसमें अंकों के जोड़ और गुणा के अलावा कुछ नहीं होता। नेता को यह कथा हास्यास्पद बना देती है। ‘मास्टर : तीन प्रश्न’, ‘अरेंजमेंट’ शिक्षा व्यवस्था की विकृति और इसके कारणों पर सवाल खड़ा करती है। कुल मिलाकर हमारी शिक्षा को ‘गुरु’ ने सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है, जो आज की शिक्षा व्यवस्था का कटु सत्य है।
‘गुरु-ज्ञान’ शीर्षक इस लघुकथा संग्रह के लिए काफी उचित और सटीक लगता है। इस संग्रह की लघुकथाएं ज्ञान देने का काम बहुत अच्छी तरह से करती हैं। इस मोह में कुछ कथाएं वहां से तैरती हुईं निष्पक्ष भाव से ज्ञान बांटती हुई दिखाई देती हैं। कुछ में हास्य और व्यंग्य तिलमिलाने वाला है, तो कुछ में केवल मुस्कराकर आगे बढ़ जाने की विशेषता दिखाई देती है। यह कुल मिलाकर समय की नब्ज को टटोलने वाला संग्रह है। नब्ज टटोलते समय कथाकार का ईमानदार प्रयास दिखाई देता है कि अपने समय का वास्तविक शब्दचित्र पाठक के सामने रखे और उसे सोचने पर विवश करे। लघुकथा की सीमा के भीतर अपने समय को उसकी पूर्णता में देखने का प्रयास एक सार्थक प्रयास ही कहा जा सकता है।

समीक्षक
डॉ. गोरेलाल चंदेल,
दाऊचौरा, खैरागढ़- 491881 (छत्तीसगढ़)
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पुस्तक : 'गुरु-ज्ञान : आईना दिखातीं लघुकथाएं'
लेखक : बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु'
कीमत : 250 रुपए (सजिल्द)
प्रकाशक : अयन प्रकाशन, नई दिल्ली
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लेखक सम्पर्क
बालकृष्ण गुप्ता गुरु
(सेवानिवृत्त प्राचार्य)
डॉ. बख्शी मार्ग, खैरागढ़- 491881
जिला- राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
फोन- 09424111454
ईमेल- ggbalkrishna@gmail.com

सिरपुर के संबंध में एक महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेज



छत्‍तीसगढ़ में स्थित सिरपुर का महत्‍व अब सर्वविदित है। सोमवंशी शासकों के काल में जब यह क्षेत्र दक्षिण कौसल के नाम से जाना जाता था तब इसकी राजधानी सिरपुर ही थी जिसे श्रीपुर कहा जाता था। विद्धानों नें कहा है कि कला के शाश्वत नैतिक मूल्यों एवं मौलिक स्थापत्य शैली के साथ-साथ धार्मिक सौहार्द्र तथा आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश से आलोकित सिरपुर भारतीय कला के इतिहास में विशिष्ट कला तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। इस नगरी का अब अस्तित्‍व ही शेष है, वर्तमान समय में इसके वैभव की परिकल्‍पना को साकार करने के लिए यहॉं यत्र तत्र पुरातात्विक अवशेष आज भी शेष हैं।

इन पुरातात्विक अवशेषों का विश्‍लेषण करते हुए सिरपुर पर शोध तो कितनों ही हुए हैं किन्‍तु पुस्‍तकाकार रूप में इस नगरी के वैभव को उकेरता हुआ कोई एकाग्र ग्रंथ अभी तक नहीं आ पाया था। ललित शर्मा की किताब ‘सिरपुर : एक सैलानी की नजर में’ जब हमारी नजर पड़ी तो प्रसन्‍नता हुई। यायावर ब्‍लॉगर ललित शर्मा देश के विभिन्‍न पुरातात्विक स्‍थलों के संबंध में कलम चलाते रहे हैं एवं उन्‍होंनें कई पुरातात्विक रहस्‍य उद्घाटित भी किया है। इस कारण उनकी इस किताब पर हमारी स्‍वाभाविक रूप से विश्‍वसनीयता बढ़ी है।

किताब सहज व सरल भाषा में तथ्‍यात्‍मक रूप से लिखी गई है। विवरणों के साथ ही रंगीन चित्रों नें किताब के महत्‍व को और बढ़ाया है एवं सिरपुर को सजीव कर दिया है। किताब का आवरण बहुत आकर्षक है। सुप्रसिद्ध हिन्‍दी ब्‍लॉगर ललित शर्मा नें इस पुस्‍तक में सिरपुर का संपूर्ण पुरा ऐतिहासिक विवरण दिया है। इसके अलावा लेखक द्वारा वैभवशाली श्रीपुर को वहॉं उपलब्‍ध पुरातत्विक अवशेषों में खोजना और उन्‍हीं कालखण्‍डों में जाकर उस भव्‍य नगर का चित्र खींचना एक अद्भुत अनुभूति पैदा करता है।

पुरातात्विक शोध ग्रंथों की उबाउ पठनीयता के मुकाबिले किताब ‘सिरपुर : एक सैलानी की नजर में’ ना केवल पठनीय है बल्कि संग्रहणीय है। सिरपुर पर उनके इस किताब के मुख्‍य स्‍त्रोत प्रसिद्ध पुरातत्‍ववेत्‍ता अरूण कुमार शर्मा हैं इस कारण यह किताब सिरपुर के संबंध में एक महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेज भी है। हमें विश्‍वास है इस सैलानी की नजर से अब सिरपुर को देखना और भी आसान हो जायेगा।

पुस्तक – सिरपुर; सैलानी की नज़र से
लेखक – ललित शर्मा
प्रकाशक – ईस्टर्न विन्ड, नागपुर
मूल्य – रुपये 375/- (सजिल्द)
कुल पृष्ठ – 99
रंगीन 10 पृष्ठ अतिरिक्त

संजीव तिवारी

धूप की नदी: कील कॉंटे और कमन्द

वरिष्ठ साहित्यकार, कथाकार, कवि, पत्रकार सतीश जायसवाल जी का हालिया प्रकाशित यात्रा संस्मरण ‘कील कॉंटे कमन्द’ की चर्चा चारो ओर बिखरी हुई है। मैं बहुत दिनों से इस जुगत में था कि अगली बिलासपुर यात्रा में श्री पुस्तक माल से इसकी एक प्रति खरीदूं किन्तु उच्च न्यायालय के शहर से पहले स्थापित हो जाने के कारण, प्रत्येक दौरे में शहर जाना हो ही नहीं पा रहा था और किताब पढ़ने की छटपटाहट बढ़ते जा रही थी। इसी बीच कथा के लिए दिए जाने वाले प्रसिद्ध वनवाली कथा सम्मान से भी सतीश जायसवाल जी नवाजे गए। दो-दो बधाईयॉं ड्यू थी, और हम सोंच रहे थे कि अबकी बार बधाई वर्चुवल नहीं देंगें, उन्हें भिलाई बुलाते हैं और भिलाई साहित्य बिरादरी के साथ उन्हें बधाई देते हैं। जब वे बख्शी सृजन पीठ के अध्यक्ष थे तो भिलाई उनका निवास था इस कारण उनका लगाव भिलाई से आज तक बना हुआ है। शायद इसी जुड़ाव के कारण उन्होंनें हमारा अनुरोध स्वीकार किया। वो आए और भिलाई साहित्य बिरादरी के साथ एक सुन्दर आत्मीय मिलन का कार्यक्रम हुआ। इस कार्यक्रम की चर्चा फिर कभी, इस कार्यक्रम से ‘कील कॉंटे कमन्द’ में आवरण चित्रांकन करने वाली डॉ.सुनीता वर्मा जल्दी चली गयीं। प्रकाशक नें उनके लिए ‘कील कॉंटे कमन्द’ की एक प्रति सतीश जायसवाल जी के माध्यम से भेजा था, वह प्रति तब बतौर हरकारा मेरे माध्यम से भेजा जाना तय हुआ। किताब उन तक पहुचाने में विलंब हो रहा था और पन्ने फड़फड़ाते हुए आमंत्रित कर रहे थे कि पढ़ो मुझे।


स्कूल के दिनों में स्कूल खुलने के तत्काल बाद और नई पुस्तक खरीद कर जिल्द लगाने के पहले, नई किताबों से उठते महक को महसूस करते, हिन्दी विशिष्ठ में लम्बे और अटपटे से लगते नाम के लेखक की रचना ‘नीलम का सागर पन्ने का द्वीप’ को हमने तीस साल पहले पढ़ा था। बाद में हिन्दी के अध्यापक नें बताया था कि यह यात्रा संस्मरण है। जीवंत यात्रा संस्मरणों से यही हमारी पहली मुलाकात थी, बाद के बरसों में वाणिज्य लेकर पढ़ाई करने के बावजूद मैं हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन ‘अज्ञेय’ को बूझने का प्रयास उनकी कृतियों में करते रहा। पत्र-पत्रिकाओं में अन्यान्य विधाओं के साथ कुछेक यात्रा संस्मरण भी पढ़े, किन्तु अज्ञेय का वह जीवंत संस्मरण आज तक याद रहा। और यह कहा जा सकता है कि यात्रा संस्मरणों के प्रति मेरी दिलचस्पी बढ़ाने में वह एक कारक रहा। 

आदिवासी अंचल का यात्रा संस्मरण हाथ में था और जब हमने उसे खोला तो हमारी आंखें इस लाईन पर जम गई ‘... आखिरकार, यह एक रचनाकार का संस्मरण है। इसमें रचनाकार की अपनी दृष्टि और उसकी आदतें भी शामिल है।’ लगा किताब मुझे, अपने विशाल विस्तार में गोते लगाने के लिए बुला रही है। गोया, लेखक नें भी इस विस्तार को कई बार धूप की नदी के रूप में अभिव्यक्त किया है। आदिवासी अंचल की जानकारी, यात्रा विवरण, रचनाकार की दृष्टि एवं रचनाकार की आदतें सब एक साथ अपने सुगढ़ सांचे में फिट शब्दों के रूप में आंखों से दिल में उतर रहे थे। दिल में इसलिए कि रचनाकार नें किताब को अपने मित्र को समर्पित करते हुए लिखा ‘अपनी उस बेव़कूफ सी दोस्त के लिए जिसकी दोस्ती मैं सम्हाल नहीं पाया और अब उसका पता भी मेरे पास नहीं ...।’ इसे पढ़नें के बाद इतना तो तय हो जाता है कि आगे किताब के पन्नों पर दिल धड़केगा, रूमानियत और इंशानी इश्क की पोटली से उठती खुश्बू अलिराजपुर के मेले से होते हुए भोपाल तक महकेगी। 

लेखक किताब की भूमिका में बताते हैं कि मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा प्रदेश के 16 वरिष्ठ साहित्यकारों को आदिवासी क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजा गया था। लेखक नें अपनी स्वेच्छा से आदिवासी क्षेत्र झाबुआ अंचल को अध्ययन के लिए चुना और यह संस्मरण उसी अध्ययन का प्रतिफल है। लेखक अपनी भूमिका में ही नायिका हीरली और नायक खुमfसंग का हल्का सा चित्र खींचते हैं। आदिवासी झाबुआ के भगोरिया मेले में आदिवासी बालायें प्रेमियों के साथ भागकर व्याह रचाती हैं। हीरली भी इसी मेले में अपने पहले पति को छोड़कर खुमfसंग के साथ भागी थी। आगे बढ़ते हुए लेखक स्पष्ट करते हैं कि यह किताब नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन के लिए नही है। 

अपनी बातें शुरू करने के पहले वे एक कविता भी प्रस्तुत करते हैं जिसमें fसंदबाद, मार्कोपोलो, ह्वेनसांग, फाह्यान व राहुल सांकृत्यायन के बाद की कड़ी में अपने आप को रखते, यायावरों की सांस्कृतिक परम्पराओं का निर्वाह करते हुए, अपरिचित ठिकानों से हमें परिचित भी कराते चलते हैं। लेखक यात्रा का पता ठिकाना बताते हुए अपने शब्दों के साथ ही पढ़नें वाले को भी झाबुआ के दिलीप fसंह द्वारा से आदिवासी भीलों की आदिम सत्ता में प्रवेश कराते हैं जहां आदिवासी भीलों की अपनी आचार संहिता है। साथ है आनंदी लाल पारीख , जो प्रसिद्ध छायाकार है और गुजरात, राजस्थान की सीमा से लगे मध्य प्रदेश के इस आदिवासी भूगोल के चप्पे चप्पे के जानकार हैं। अरावली पर्वत से गलबईहां डाले अनास और पद्मावती नदी के कछारों व पहाड़ों में समय के मंद आंच में निरंतर fसंकती भीलनियों के साथ ‘डूंगर खॉंकरी’ व ‘ग्वाल टोल’ खेलते हुए। कपास धुनकिए के आवाज में धुन मिलाते हुए भटकते हुए। 

किताब के शीर्षक कील कॉंटे कमन्द के साथ लेखक उस लापता मित्र वीणा परिहार से भी मिलवाते हैं जो असामान्य कद की लम्बी महिला हैं और कटे बालों के साथ झाबुआ के महाविद्यालय में प्राध्यपक हैं। लेखक नें यद्यपि उनका कद किसी फीते में नापा नहीं है किन्तु साथ चलते हुए परछाइयों में उसका यह कद दर्ज हुआ है। वह अंग्रेजी साहित्य में चर्चित शब्द ‘हस्की वॉइस्ड’ सी लगती है किन्तु लेखक उसकी प्रशंसा करते सकुचाते हुए से कहते हैं ‘... हमारे सामाजिक शिष्टाचार की संहिता में ‘सेक्सी ब्यूटी’ को ‘काम्पलीमेंट’ (प्रशंसा) अथवा ‘एप्रीशिएट’ (सराहना) करना तक जोखिम से भरा हो सकता है।’ लेखक के इस वाक्यांश से वीणा परिहार को समझ पाना आसान हो उठता है। सुकून मिलता है जब पता चलता है कि सुदूर कानपुर उत्तर प्रदेश से मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल में अकेली रहती उस अकेली लड़की के अकेलेपन में उसका ईश्वर भी हैं।

सफर के पहले पड़ाव के रूप में गझिन अमराई, पद्मावती नदी, काकनवानी, चाक्लिया गॉंव, चोखवाड़ा गढ़ी के आसपास के आदिवासी fस्त्रयों के स्तन-सूर्य का आख्यान, उनकी संस्कृति, सौंदर्यानुभूति को छूते हुए, मालवा के पारंपरिक दाल बाफले और चूरमे के सौंधी महक और भूख के साथ दिया बाती के समय में, जरायम पेशा भीलों की बस्ती बालवासा गॉंव मे, जब लेखक पहुचता है, तो ढ़िबरियों की रौशनी में गॉंव का सरपंच और लेखक का मेजबान रामसिंग कहीं खो जाता है। रामसिंग राजस्थान के किसी गॉंव में हालिया डाका डालकर यहॉं छुपा बैठा है और पुलिस उसे तलाश रही है। लेखक अपने यात्रा के सामान के साथ गॉंव में भोजन के लिए जलते लकड़ी के चूल्हे के बहाने परिवार की एकजुटता और परिभाषा की कल्पना करता है।

मेजबान रामसिंग के व्यक्तित्व की बानगी करते हुए लेखक उस अंचल के भीलों के जीवन में झांकते हैं। घटनाओं को जीवन और कल्पनाओं से जोड़ते हैं। यादों में झाबुआ के इस बीहड़ गॉंव में यात्रा प्रारंभ करने के पूर्व झाबुआ कलेक्टर के नाम जारी म.प्र.साहित्य परिषद एवं अदिवासी कल्याण विभाग से जारी अध्ययन यात्रा में सहयोग करने की अनुशंसा पत्र की अहमियत पर सवाल उठाते हैं। उस पत्र की फटी पुर्जी के पृष्ट भाग पर अपना नाम लिखकर कलेक्टर से मिलने के लिए भिजवाते हुए इस व्यवस्था को सिर झुकाकर स्वीकार भी करते हैं। 

किताब की नायिका हीरली के गॉंव गुर्जर संस्कृति से ओतप्रोत, अलिराजपुर में भीलों के धातक घेरे का विश्लेषण करते हुए बताते हैं कि कैसे भीलनी हीरली नें अपने पहले पति को छोड़कर अपने प्रेमी के साथ भागी थी और उसके भाई नें जब उसके प्रेमी को मारने के लिए तीर छोड़ा था तो वह सामने आ गई थी, उसके शरीर को बेधते हुए पांच तीर लगे थे और वह आश्चर्यजन रूप से बच गई थी। ताड़ी के मदमस्त नशे में होते अपराध, नशे के कारण होते अपनों के बीच की मार काट, सजा आदि की पड़ताल किताब में होती है। fहंसा के विरूद्ध प्रेम की सुगंध दृश्य अदृश्य रूप से महकता है।

लंका जैसे भौगोलिक आकृति के गॉंव साजनपुर में ताहेर बोहरा की कहानियॉं यत्र तत्र बिखरी हैं, खतरे वाले 16 किलोमीटर के घेरे में बिखरे इन कहानियों को लेखक बटोरता है और सीताफल की दो टोकरियॉं साथ लेकर लौटता है। लेखक चांदपुर, छोटा उदयपुर, छकतला गॉंव व नर्मदा बचाओ आन्दोलन के नवागाम बांध को समेटते हुए कर्मचारियों के स्थानांतरण के हेतु से सिद्ध कालापानी क्षेत्र के गांव मथवाड़ जहॉं भिलाला आदिवासियों की आबादी है, से साक्षात्कार कराता है। झाबुआ के लघुगिरिग्राम माने हिल रिसोर्ट आमखुट की यात्रा रोचक है। लेखक का 100 वर्ष पुराने चर्च की मिस ए.हिसलॉप यानी मिस साहेब से विक्टोरियन शैली की मकान मे मुलाकात, आदिवासी अंचलों में हो रहे धर्मांतरण के नये अर्थ गढ़ते हैं। केरल से आकर पुरसोत्तमन का वहॉं आदिवासियों के बीच काम करना, कुलबुलाते प्रश्न की तरह उठता है जिसका जवाब वे स्वयं देते हैं ‘... आदिवासी असंतोष और पृथकतावादी आन्दोलनों के आपसी रिश्ते मुझे एक त्रिकोण में मिलते हुए दिख रहे थे।’ आमखुट में विचरते हुए चंद्रशेखर आजाद भी सोरियाये जाते हैं, यहॉं अलिराजपुर और जोबट के बीच छोटी सी बस्ती भाबरा है जहॉं चंद्रशेखर आजाद का जन्म हुआ था। ऐसी कई नई जानकारियॉं हौले से बताते हुए वे इस तरह शब्दों के माध्यम से यात्रा में साथ ले चलते हैं कि समूचा परिदृश्य जीवंत हो उठता है।

मानव स्वभाव है कि वह अनचीन्हें को अपने आस पास के प्रतीकों से जोड़ता है, शायद इसीलिए वे पूरी यात्रा में वहॉं के स्थानों, व्यक्तियों से छत्तीसगढ़ की तुलना करना नहीं भूलते जिसके कारण अनचीन्हें परिदृश्य बतौर छत्तीसगढ़िया मेरे लिए सुगम व बोधगम्य हो उठते हैं। किताब पढ़ते हुए लगता है कि लिखते हुए अंग्रेजी साहित्य उनके जेहन में छाए रहता है वे कई जगह अंग्रजी साहित्य के चर्चित पात्रों व घटनाओं को यात्रा के दौरान के पात्रों और घटनाओं से जोड़ते हैं। शिविर समेटते हुए उनके लेखन में झाबुआ कलेक्टर के साहित्य के प्रति घोर अरूचि और आई.ए.एस. प्रशिक्षार्थी विमल जुल्का का साहित्य प्रेम भी प्रगट होता है जो नौकरशाहों की संवेदनशीलता का स्पष्ट चित्र खींचता है। यात्रा में कई सरकारी व असरकारी सहयोगियों का उल्लेख आता है जिनमें से लेखक आदिवासी लोक के चितेरे झाबुआ क्षेत्रीय ग्रामीण बैक के अध्यक्ष सुरेश मेहता का उल्लेख करते हैं जो संभवतः वही हैं जिनके साथ लेखक नें बस्तर के घोटुलों की यात्रा की थी। लोक कलाओं, परंपराओं और संस्कृतियों पर चर्चा करते हुए वे झाबुआ के कपड़े और तिनके से कलात्मक गुड़िया के निर्माण को कोट करते हैं जो झाबुआ के लोक कला को अंतर्राष्‍ट्रीय पहचान देनें में सक्षम है। इस पर जमीन से जुड़ाव के मुद्दे पर कहते हैं कि ‘.. लोक कलाओं को उसके नैसर्गिक परिवेश से अलग करके उनकी सहज स्वाभाविकता में ग्रहण नहीं किया जा सकता।’ 

यात्रा के दौरान बिम्बों, प्रतीकों, परम्पराओं के माध्यम से वे आदिवासी अंचल का विश्लेषण करते हैं। छोटी सी छोटी और नजरअंदाज कर देने वाली बातों, घटनाओं से भी वे चीजें बाहर निकालते हैं। वे नदी पार करते हुए नदी में पानी भरने आई भीलनियों के पात्रों से भी भीलों की सामाजिक आर्थिक संरचना का अंदाजा लगाते हैं। कल कल करती नदी को धूप की नदी कहते हैं, यह उनकी अपनी दृष्टि है एवं कल्पना है जिसके विस्तार का नाम है कील काटे कमन्द।

संजीव तिवारी
14.04.2014

कील कॉंटे कमन्द
सतीश जायसवाल
प्रकाशक मेधा बुक्स, एक्स 2, 
नवीन शाहदरा, दिल्ली 110 032, 
फोन 22 32 36 72
प्रथम संस्करण, पृष्ट 140, 
हार्ड बाउंड, मूल्य 200/- 
आवरण चित्र डा.सुनीता वर्मा

सतीश जायसवाल
कृतियॉं - 
कहानी संग्रह - जाने किस बंदरगाह पर, धूप ताप, 
कहॉं से कहॉं, नदी नहा रही थी
बाल साहित्य - भले घर का लड़का, हाथियों का सुग्गा
मोनोग्राफ - मायाराम सुरजन की पत्रकारिता पर केfन्र्गत
संपादन - छत्तीसगढ़ के शताधिक कवियों की कविताओं का संग्रह कविता छत्तीसगढ़ 

पुस्तक-समीक्षा: संघर्षाग्नि का ताप केरवस

छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य में उपन्‍यास लेखन की परम्‍परा नयी है, उंगलियों में गिने जा सकने वाले छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यासों की संख्‍या में अब धीरे धीरे वृद्धि हो रही है। पिछले दो तीन वर्षों में कुछ अच्‍छे पठनीय उपन्‍यास आये हैँ । इसी क्रम में अभी हाल ही में प्रकाशित छत्‍तीसगढ़ी, हिन्‍दी, उर्दू और गुजराती के स्‍थापित साहित्‍यकार मुकुन्‍द कौशल द्वारा लिखित छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास ‘केरवस’ भी प्रकाशित हुआ है। ‘केरवस’ सत्‍तर के दशक के छत्‍तीसगढ़ का चित्र प्रस्‍तुत करता है। ‘केरवस’ की कथा और काल उन परिस्थितियॉं को स्‍पष्‍ट करता है जिनके सहारे वर्तमान विकसित छत्‍तीसगढ़ का स्‍वरूप सामने आता है। विकासशील समय की अदृश्‍य छटपटाहट उपन्‍यास के पात्रों के चिंतन में जीवंत होती है। उपन्‍यास को पढ़ते हुए यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि यह उपन्‍यास लेखक का भोगा हुआ यथार्थ है। नवजागरण के उत्‍स का दस्‍तावेजीकरण करता यह उपन्‍यास सत्‍तर के दसक में उन्‍नति की ओर अग्रसर गॉंव की प्रसव पीड़ा की कहानी कहता है। अँधियारपुर से अँजोरपुर तक की यात्रा असल में सिर्फ छत्‍तीसगढ़ की ही नहीं अपितु गॉंवों के देश भारत की विकास यात्रा है। यह उभरते राज्‍य छत्‍तीसगढ़ के गॉंवों में आ रही वैचारिक क्रांति की कहानी है।

उपन्‍यास में शांत दिखते गॉंव अँधियारपुर में शोषण व अत्‍याचार से पीड़ितों की चीत्‍कारें दबी हुई हैँ , विरोध के स्‍वरों पर राख पड़ी हुई हैँ । सेवानिवृत चंदेल गुरूजी इसे वैचारिक हवा देते हैँ और नवजागरण का स्‍वप्‍न युवा पूरा करते हैँ । अलग अलग छोटी छोटी कहानियां की नदियॉं एक बड़ी नदी से मिलने के लिए साथ साथ चलती है और समग्र रूप से साथ मिलकर उपन्‍यास का रूप धरती है।

उपन्‍यास का कथानक अँजोरपुर के बड़े जलसे से आरंभ होता है जहॉं डीएसपी बिसाल साहू व उसकी पत्‍नी निर्मला गॉंव की ओर जीप से जा रहे हैँ । बिसाल साहू की यादों में उपन्‍यास आकार लेने लगता है। गॉंव के आयोजन में शामिल होने के लिए अन्‍य अधिकारियों के साथ ही अँधियारपुर निवासी स्‍टेनों फूलसिंह भी जा रहा है। वही जीप में बैठे अधिकारियों को अँधियारपुर से अँजोरपुर बनने का किस्‍सा बताता है। उपन्‍यास का कथानक वर्तमान और भूत के प्‍लेटफार्म को फलैशबैक रूप में प्रस्‍तुत करते हुए आगे बढ़ता है। अँधियारपुर के मालगुजार सोमसिंह, लालच में थुलथुल शरीर वाली कन्‍या केंवरा से अपने पुत्र मालिकराम का विवाह करवा देता है। मालिकराम रायपुर में वकालत की पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर गॉंव आकर रहने लगता है। गॉंव के गरीब किसानों को कर्ज देकर उनके जमीनों को अपने नाम कराने और शोषण व अत्‍याचार करने का उसका पारंपरिक कार्य आरंभ हो जाता है। मालिकराम सहकारी समितियों से कृषि कार्य के लिए खुद अपने नाम से एवं अपने कर्मचारियों के नाम से कर्ज लेता है पर उसे चुकाता नहीं। उसके दबदबे के कारण उससे कोई वसूली करने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाता। परेशान गॉंव में एसे ही किसी दिन एक समिति सेवक मोहन सोनी पहुँचता है और हिम्‍मत करके मालिकराम को समिति का मॉंग पत्र पकड़ा देता है। गॉंव में अदृश्‍य क्रांति का बिगुल उसी पल से फूँक दिया जाता है। समिति प्रबंधक के प्रयास से मालगुजार मालिकराम बैंक का कर्ज चुका देता है। सोनी बाबू समिति के लिए मेहनत करता है और कृषि विकास समिति को नया जीवन देता है। समिति सेवक जिसे गॉंव वाले बैंक बाबू या सोनी बाबू कहते हैँ वह परभू मंडल के घर में रहने लगता है। घर में केजई और उसकी बेटी मोंगरा भी रहते हैँ ।

गॉंव में अनेक कहानियॉं संग चलती हैं उनमें से कालीचरण की कहानी आकार लेती है। पत्‍नी की असमय मौत से विधुर हो गए कालीचरण नाई के छोटे बच्‍चे राधे को पालने का भार कालीचरण पर रहता है। कालीचरण मालिकराम जमीदार के घर में काम करता है इस कारण वह बच्‍चे की देखभाल नहीं कर पाता। एक दिन गॉंव के सब लोग उसके घर के सामने इकट्ठे हो जाते हें क्‍योंकि गॉंव वालों को खबर लगती है कि कालीचरण एक औरत को घर लेकर आया है। गॉंव वालों को कालीचरण बताता है कि वह दरभट्ठा के बस स्‍टैंड में होटल चलाने वाली चमेली यादव की बेटी है, चमेली को वह बस स्‍टैंड में ही मिली थी जब उस बच्‍ची को कोई वहॉं छोड़ दिया था। रूपवती बिलसिया अपने प्रेम व्‍यवहार से काली ठाकुर और उसके बच्‍चे का दिल जीत लेती है। गॉंव में उसके रूप यौवन की चर्चा रहती है वैसे ही उसके व्‍यवहार की भी चर्चा रहती है। कालीचरण के साथ ही बिलसिया भी मालिकराम के यहॉं काम करने जाने लगती है।

लेखक नें बिलसिया को मालगुजार मालिकराम के प्रति स्‍वयं ही आकर्षित होते हुए दिखाया है। यह बिलसिया जैसी रूपवती चिर नौयवना के हृदय में भविष्‍य के प्रति सुरक्षा के भाव को दर्शाता है। बिलसिया का अपने पति व मालिकराम के अतिरिक्‍त किसी अन्‍य के साथ दैहिक संबंधों का कोई उल्‍लेख उपन्‍यास में नहीं आता। मालिकराम और बिलसिया दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित रहते हैँ । मालगुजार को बिना दबाव के सहज ही बिलसिया की देह मिल जाता है। मालिकराम एक बिलसिया से ही संतुष्‍ट नहीं होता वह नित नये शिकार खोजता है इसी क्रम में वह बाड़े में काम करने वाले कासी की नवयौवना बेटी गोंदा का शिकार करता है। मालिकराम के कुत्सित प्रयासों से गोंदा को गर्भ ठहर जाता है। लेखक नें इस घटना को मालिकराम के चरित्र को प्रस्‍तुत करने के लिए बड़े रोचक ढ़ग से लिया है हालांकि गोंदा के गर्भ ठहरने पर मालिकराम की पत्‍नी का नारीगत विरोध के अतिरिक्‍त उपन्‍यास में आगे कोई प्रतिक्रया नहीं है। मालिकराम के द्वारा गॉंव की औरतों के शारिरिक शोषण के चित्र को स्‍पष्‍ट करने के लिए लेखक नें ‘खास खोली’ का चित्र उकेरा है जो मालिकराम के एशगाह को नित नये शोषण का साक्षी बनाती है। कथा के अंतिम पड़ाव पर इसी कुरिया में बिलसिया मालगुजार को अपनी देह सौंप कर अपने परिवार के प्रति निश्चिंत हो जाती है।

गॉंव में शहर से आई रमशीला देशमुख उर्फ रमा, स्‍कूल में शिक्षिका है वह स्‍वाभिमानी है व अपने कर्तव्‍यों के प्रति सजग है। मालिक राम चाहता है कि वह उसके द्वार पर हाजिरी लगाने आए किन्‍तु वह नहीं जाती। सुखीराम एक मेहनतकश किसान है जो अपनी पत्‍नी अमरबती और बेटी दुरपती के साथ गॉंव में रहता है। दुरपति गॉंव में ही पढ़ती है और शाम को सोनी बाबू के पास पढ़ने आती है। सुखीराम का एक बेटा है जो शहर में रह कर पढ़ाई कर रहा है, सुखीराम नें अपने बेटे कन्‍हैंया की पढ़ाई के लिए मालिकराम से कर्ज लिया है उसके लिए मालिकराम उसे बार बार तंग करता है। सुखीराम हाड़तोड़ मेहनत कर कुछ पैसे इकट्ठे करता है , उसके पास दुविधा है कि वह पैसों से बेटी के हाथ पीले करे या जमीदार का कर्ज लौटाये?

मनबोधी साहू किसान है और गॉंव में किराना एवं कपड़ा दुकान भी चलाता है, उसका बेटा बिसाल शहर से पढ़ कर गॉंव आता है। बिसाल और कन्‍हैया दोनों बचपन के दोस्‍त हैँ । बिसाल पढ़ाई के साथ ही संगीत में भी प्रवीण है, उसका गला अच्‍छा है। पड़ोस के गॉंव में एक बार रामायण गायन प्रतियोगिता आयोजित होती है जिसमें गॉंव वालों के साथ बिसाल भी भाग लेने जाता है। वहॉं उद् घोषिका निर्मला, उसे भा जाती है, दोनों परिवार की रजामंदी से उनका विवाह हो जाता है। सत्‍तर के दसक में छोटे से गॉंव में अपनी संस्‍कृति के प्रति प्रेम के बरक्‍स बच्‍चों को डॉक्‍टर इंजीनियर बनाने की होड़ को पीछे छोड़ती निर्मला नें संगीत में स्‍नातक किया है।

इधर नौकरी नहीं मिलने से कन्‍हैया गॉंव वापस आ जाता है। स्‍कूल शिक्षिका रमा से उसकी अंतरंगता बढ़ने लगती है। इस प्रेम के अंकुरण के साथ ही दमित शोषित समाज को मुख्‍यधारा में लाने का प्रयास दोनों के संयुक्‍त नेतृत्‍व से आरंभ हो जाता है। बिसाल एवं अन्‍य युवा इसमें सक्रिय योगदान करने जुट जाते हैँ ।

गॉंव में एक सेवानिवृत शिक्षक चंदेल भी रहते हैँ जो गॉंव में नवजागरण के स्‍वप्‍न सँजोए गॉंव वालों को जगाने के लिए निरंतर प्रयास करते रहते हैँ। वे समय समय पर गॉंव की उन्‍नति, मालगुजार के शोषण व अत्‍याचार से मुक्ति एवं पृथक छत्‍तीसगढ़ राज्‍य के लिए क्रांति करने को प्रेरित करते रहते हैँ । गॉंव में कन्‍हैया, बिसाल और रमा के आने से युवा लोगों का उत्‍साह बढ़ता है और वे चंदेल गुरूजी की बातों से प्रभावित होने लगते हैँ । युवाओं में विद्रोह की भावना प्रबल होने लगती है और मालगुजार इस विद्रोह को दबाने के लिए पुलिस से मदद पाने की जुगत भिड़ाता है, और एक नामी लठैत को घर में बुलवाता है।

गॉंव में दहशत फैलाने के उद्देश्‍य से मालिकराम लठैत के साथ घूमता है व अपने कर्ज में दिए गए पैसे की वसूली मार पीट कर करता है ऐसे ही दबावपूर्ण परिस्थितियों में एकदिन मालिकराम और गुंडों के द्वारा मारपीट करने से सुखीराम की मौत हो जाती है। कन्‍हैया के पिता की मौत से विद्रोह का शंखनाद हो जाता है। लेखक नें विद्रोह और उसके बाद की क्रमबद्धता को बहुत जल्‍द ही समेट दिया है कुछ ही पैराग्राफों के बाद जमीदार के घर में घुस आए युवक खाता बही और जबरदस्‍ती अंगूठा लगा लिए गए स्‍टैम्‍प पेपरों की होली जला देते हैँ और चुटकियों में रावण का अंत हो जाता है जैसे दशहरे में कृत्तिम रावण पल भर में जल जाता है।

ग्राम सेवक सोनी गॉंव में सांस्‍कृतिक चेतना जगाता है और अपने कर्तव्‍यों के उचित निर्वहन के साथ ही कृषि सहकारिता के विकास में अपना सक्रिय योगदान देता है। शहर से पढ़कर गॉंव आने वाला कन्‍हैया रमा से विवाह करके, गॉंव में ही बस जाता है और अपने गॉंव का सर्वांगीण विकास का सपना साकार करते हुए सरपंच चुना जाता है। गॉंव का अंधकार मिट जाता है और गॉंव में चारो ओर विकास, सुख व संतुष्टि का उजाला फैल जाता है। लेखक का प्रतिनायक उपन्‍यास के अंत में कहीं गायब हो जाता है, मरता नहीं। जैसे लेखक कहना चाह रहा हो कि शोषण और अत्‍याचार का अभी अंत नहीं हुआ है, उसे हमने अपने संयुक्‍त प्रयासों से दूर भले भगा दिया है वो फिर आयेगा रूप बदल कर, हमें सावधान रहना है।

मुकुन्‍द कौशल जी की विशेषता रही है कि, वे अपनी कविताओं में बहुत सहज और सरल रूप से पाठकों को तत्‍कालीन समाज की जटिलता से वाकिफ कराते है। इस उपन्‍यास में भी उनकी यह विशेषता कायम है, पात्रों का चयन, कथोपकथन, पात्रों के कार्य व्‍यवहार, घटनाक्रम का विवरण एवम् परिस्थितियों का चित्रण वे इस प्रकार करते हैँ कि उपन्‍यास के मूल संदेश के साथ छत्‍तीसगढ़ के ग्रामीण समाज को समझा जा सके। लेखक नें काली नाई की पत्‍नी बिलसिया के चरित्र के चित्रण में इसी प्रकार की विसंगतियों का चित्रण किया है, उपन्‍यास में उसे बिना मा बाप की अवैध संतान बताया है जिसे बस स्‍टैंड के होटल वाले पालते हैँ , लेखक नें उसकी खूबसूरती का भी बहुत सजीव चित्रण किया है, उसमें प्रेम दया के भाव कूटकूट कर भरे हैँ । कथा में वह अपने पति की पहली पत्‍नी के बेटे को उसी प्रकार स्‍नेह देती है जैसे वह उसका खुद का बेटा हो। वह अपने पति का ख्‍याल रखते हुए भी जमीदार को जीतने का ख्‍वाब रखती है और अपने रूप बल से उसे जीतती भी है। कथाक्रम में स्‍वयं की पत्‍नी और काली को, जमीदार मरवा देता है जिसे दुर्घटना का रूप दे दिया जाता है। बिलसिया अपने पति की मृत्‍यु के बावजूद जमीदार की सेज पर जाती है। लेखक नें उपन्‍यास में लिखा है - ‘बिलसिया ह आज अड़बड़ खुस हे, अउ काबर खुस नइ होही आज त ओकर मनौती अउ परन पूरा होवइया हे। अपन नवा रेसमइहा लुगरा ला बने डेरी खंधेला पहिर के चेहरा म चुपरिस पावडर, होठ म लगाइस लाली अउ गोड म रचाइस माहुर। अँगरी मन म नखपालिस रचा के पहिरिस तीनलड़िया हार। कान म झुमका अउ अँगरी म अरोइस मुँदरी। कपार म टिकली चटका के, सिंघोलिया ले चुटकी भर सेंदुर निकाल के भरिस अपन मॉंग, ते सुरता आगे राधे के ददा के।‘ यह दर्शाता है कि बिलसिया को अपने राधे की चिंता है, उपन्‍यास के अंत में लेखक नें राधे को सायकल में स्‍कूल जाते हुए दर्शाया है और बिलसिया को जमीदार के बाड़े में रहते हुए चित्रित किया है। सपाट अर्थों में इस वाकये को स्‍त्री स्‍वच्‍छंदता भले मान लिया जाए किन्‍तु उसके पीछे का गूढ़ार्थ नारी अस्मिता को भलीभांति स्‍थापित करता है। बिलसिया का द्वंद यह है कि मालिकराम उसके देह को छोड़ेगा नहीं और बिलसिया अपने पति और बच्‍चे को छोड़ेगी नहीं। इसका आसान सा हल मालिकराम के सम्‍मुख समर्पण के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं है।

लगभग तीन दर्जन पात्रों के साथ गुथे इस उपन्यास के अन्य पात्रों में बेरोजगारी का दंश झेलते कन्हैया, गॉंव में शिक्षा का लौ जलाती रमा, क्रांति का मशाल थामे शहर से पढ़कर गॉंव आने वाला बिसाल, सेवानिवृत प्रधानाध्यापक बदरी सिंह चंदेल, स्वामी भक्त और किंकर्तव्‍यविमूढ़ कालीचरण नाई, गॉंव में सहकारिता और विकास के ध्वज वाहक सोनी बाबू जैसे प्रमुख पात्रों नें उपन्यास में छत्तीसगढ़ की ग्रामीण जनता के असल चरित्र को व्यक्त किया है.

लेखक चंदैनी गोंदा, सोनहा बिहान एवं नवा बिहान जैसे छत्‍तीसगढ़ के भव्‍य व लोकप्रिय लोकनाट्य प्रस्‍तुतियों के गीतकार रहे हैँ । इन प्रस्‍तुतियों में वे पल पल साथ रहे हैँ इस कारण उन्‍हें पटकथा के गूढ़ तत्‍वों का ज्ञान है जिसको उन्‍होंनें उपन्‍यास में उतारा है। पढ़ते हुए ऐसे लगता है जैसे घटनायें ऑंखों के सामने घटित हो रही है, उपन्‍यास का कथोपकथन कानों में जीवंतता का एहसास कराता है। उपन्यासकार नें कथोपकथन के सहारे कथा को विस्तारित करते हुए सहज प्रचलित शब्दों का प्रयोग कर संवाद को प्रभावपूर्ण बनाया हैँ . एक संवाद में चंदेल गुरूजी गॉंव वालों के मन में ओज भरते हुए छत्तीसगढ़ की गौरव गाथा बहुत सहज ढ़ंग से कहते हैँ , जो पाठक के मन में भी माटी प्रेम का जज़बा भर देता है— ‘ये माटी अइसन’वइसन माटी नोहै रे बाबू हो, ये माटी बीर नरायन सिंह के, पं. सुन्‍दरलाल के, डाकुर प्यारेलाल सिंह अउ डॉ.खूबचंद बघेल के जनम देवईया महतारी ए। महानदी, अरपा, पैरी, खारून, इन्द्रावती अउ सिउनाथ असन छलछलावत नंदिया के कछार अउ फागुन, देवारी, हरेली, तीजा’पोरा असन हमर तिहार।‘ उपन्यास के नामकरण को स्पष्ट करता हुआ एक कथोपकथन उपन्यास में आता है जिसमें दुरपति और सहोद्रा बड़े दिनों के बाद मिलकर बातें कर रहे हैँ उनके बीच जो बातें हो रही है उसमें गूढ़ शब्दों का प्रयोग हो रहा है. शहर में व्याही सहोद्रा जब गॉंव में रहने वाली महिलाओं के जन जागरण में शामिल होने पर सवाल उठाती है तब दुरपति कहती है '... बटलोही के केरवस त धोवा जाथे बहिनी, फेर उही केंरवस कहूँ मन म जामे रहिगे तब कइसे करबे? लगही त लग जाए, फेर केंरवस ये बात के परमान रिही के इहॉं कभू आगी बरे रिहिस ...’ उपन्यासकार कितनी सहजता से अपने पात्र के मुख से दर्शन की बात कहलवाते हैँ . शोषण, अन्याय, अत्याचार की आग के विरूद्ध यदि संघर्ष करना है तो उसका रास्ता भी आग से ही होकर जाता है. संघर्ष करने वालों को इस आग से जलना भी है और जलन की निशानी को बरकरार भी रखना है क्योंकि यह निसानी इस बात को प्रमाणित करती है कि हमने अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष किया था. यह संदेश है उन सभी दमित और शोषित जन के लिए कि हमारे मन में लगा केरवस प्रमाण है, हमारे संघर्षशील प्रकृति का, चेतावनी है कि हमें कमजोर समझने की भूल मत करना.

लेखक की मूल विधा काव्‍य है, वे छत्‍तीसगढ़ के स्‍थापित जनकवि हैँ । गद्य की कसौटी को वे भली भंति समझते हैँ इसी कारण उन्‍होंनें इस उपन्‍यास में शब्‍दों का चयन और प्रयोग इस तरह से किया है कि संपूर्ण उपन्‍यास में काव्‍यात्‍मकता विद्यमान है। कथानक के घटनाक्रमों और बिम्‍बों का चित्रण लेखक इस प्रकार करते हैँ कि संपूर्ण उपन्‍यास एक लम्‍बी लोकगाथा सी लगती है जो काव्‍य तत्‍वों से भरपूर नजर आती है। छत्‍तीसगढ़ी के मैदानी स्‍वरूप में लिखी गई इस उपन्‍यास की भाषा बोधगम्‍य है। सहज रूप से गॉंवों में बोली जाने वाली भाषा का प्रयोग इस उपन्‍यास में हुआ है।

उपन्‍यास में प्रयुक्‍त कुछ शब्‍दों में ऐसे शब्‍द जिन्‍हें हम बोलचाल में अलग अलग करके प्रयोग करते हैँ उसे लेखक नें कई जगह युग्‍म रूप में प्रस्‍तुत किया है जो पठन प्रवाह को बाधित करता है। हो सकता है कि प्रदेश के ज्‍यादातर हिस्‍से में इस तरह के शब्‍द प्रयोग में आते हों। कुछ शब्‍दों का उदाहरण प्रस्‍तुत कर रहा हूं – बड़ेक्‍जन, सबोजिन, बिजरादीस, सिपचाके, लहुटगे, टूरामन, जवनहामन, गुथागै, लहुटके आदि। व्‍यवहार में हम अंतिम शब्‍द पर ज्‍यादा जोर डालते हैँ इस कारण अंतिम शब्‍दों को अलग कर देने से अंतिम शब्‍द पर जोर ज्‍यादा पड़ता है। लेखक ने उपन्‍यास में फड़तूसाई, बंहगरी जैसे कुछ नये शब्‍द भी गढ़े हैँ और व्‍यवहार में विलुप्‍त हो रहे शब्‍दों को संजोकर उन्‍हें प्रचलन में लाया है जैसे पंगपंगावत, पछौत, साहीं, कॉंता, मेढ़ा, बँधिया सिल्‍ली, कड़क’बुजुर, मेरखू आदि। उपन्‍यास में आए उल्‍लेखनीय वाक्‍यांशों की बानगी देखिए – उत्‍साह में कूदकर आकास छूने की बात को कहते हैँ ‘उदक के अगास अमर डारिस’। प्रकृति चित्रण में वे शब्‍द बिम्‍बों का सटीक संयोजन करते हैँ ‘मंझन के चघत घाम मेछराए लगिस’, ‘फागुन अवइया हे घाम ह मडि़या-मडि़या के रेंगत हे’, ‘सुरूज ह बुड़ती डहार अपन गोड़ लमा डारे रहै, सांझ ह घलो अपन लुगरा चारोकती फरिया दे रहिस ...’ आदि। बढ़ती उम्र में गरीब किशोरी के शारीरिक बदलाव को बड़ी चतुराई से शालीन शब्‍दों में कहते हैँ ‘बाढ़त टूरी के देंह बिजरादीस’ इसी तरह मालिकराम के दैहिक शोषण से गभर्वती हो गई किशोरी के गर्भ को प्रकट करने के लिए लेखक लिखते हैँ ‘तरी डाहर फूले पेट ह लगा दीस लिगरी’। इसी तरह मजाकिया लहजे में प्रतिनायक के चरित्र को स्‍पष्‍ट करते हुए लेखक लिखते हैँ ‘जब चालीस कुकुर मरथे त एक सूरा जनम धरथे अउ चालीस सूरा मरथे तब एक मालिकराम।‘ इसी तरह से संपूर्ण उपन्‍यास में हास परिहास, दुख सुख और घटनाक्रमों को लेखक नें बहुत सुन्‍दर ढ़ग से प्रस्‍तुत किया है।

इन संपूर्ण विशेषताओं के बावजूद उपन्‍यास में कुछ छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों का प्रयोग व्‍यवहारगत कारणों से खटकता है किन्‍तु अभी छत्‍तीसगढ़ी भाषा का मानकीकृत रूप सामने नहीं आया है इसलिए मानकीकृत रूप में इसे स्‍वीकरना आवश्‍यक प्रतीत होता है। इसी तरह उपन्‍यास के शीर्षक के संबंध में मेरी धारणा या स्‍वीकृति ‘केंरवछ’ रही है जबकि उपन्‍यासकार नें इसे ‘केरवस’ कहा है। उपन्‍यास में दो तीन स्‍थान पर इस शब्‍द का प्रयोग हुआ है, उसमें संभवत: दो बार ‘केंरवस’ लिखा है। लेखक छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों के प्रति सजग हैँ इस कारण किंचित असहमति के बावजूद हम इसे स्‍वीकार करते हैँ और ‘केरवस’ को मानकीकृत रूप में स्‍वीकारते हैँ ।

छत्तीसगढ़ी की औपन्यासिक दुनिया बहुत छोटी है किन्तु इसमें मुकुन्द कौशल का 'केरवस' एक सार्थक हस्तक्षेप है. यह निर्विवाद सत्य है कि प्रबुद्ध पाठकों के अनुशीलन एवं कमियों के प्रति ध्यानाकर्षण से ही किसी साहित्य का समग्र अवलोकन हो पाता है. लेखक नें जिस उद्देश्य और संदेश के लिए यह उपन्यास लिखा है उसका विश्लेषण आगे आने वाले दिनों में पाठक और आलोचक अपने अपने अनुसार से करेंगें। किन्तु इसमें भी कोई संदेह नहीं कि आगे यह उपन्यास छत्तीसगढ़ी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान प्रस्तुत करेगा. छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी से प्रेम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह उपन्यास अनिवार्यता की सीमा तक आवश्‍यक प्रतीत होता है।

शताक्षी प्रकाशन, रायपुर से प्रकाशित इस उपन्यास का कलेवर आकर्षक है. 112 पष्टों के इस हार्डबाउंड उपन्यास की कीमत 250 रूपया है.

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

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