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क्या पलाश के वृक्ष से एकत्रित किया गया बान्दा आपको अदृश्य कर सकता है?

18. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

- पंकज अवधिया


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क्या पलाश के वृक्ष से एकत्रित किया गया बान्दा आपको अदृश्य कर सकता है?


मुझे इस बात का अहसास है कि शीर्षक देखकर ही आप कहेंगे कि यह सब बेकार की बाते है क्योकि मि.इंडिया बनना तो सम्भव ही नही है। पर ग्रामीण अंचलो मे अभी भी इस तरह की बाते प्रचलित है। मै वर्षो से ग्रामीण हाटो मे जाता रहा हूँ। वहाँ जडी-बूटियो की दुकानो मे अक्सर जाना होता है। इन दुकानो मे बहुत बार दुर्लभ वनस्पतियाँ भी दिख जाती है। ऐसी ही दुर्लभ वनस्पतियाँ है पलाश नामक वृक्ष के ऊपर उगने वाले पौधे। इन्हे आम बोलचाल की भाषा मे बान्दा कहा जाता है पर विज्ञान की भाषा मे इन्हे आर्किड कहा जाता है।


पलाश के वृक्ष से वांडा प्रजाति के आर्किड को एकत्र कर लिया जाता है फिर इस दावे के साथ बेचा जाता है कि इसे विशेष समय मे धारण करने से अदृश्य हुआ जा सकता है। वशीकरण और शत्रुओ से निपटने के लिये भी इसके प्रयोग की सलाह दी जाती है। इस तरह के दावो मे कोई दम नही है यह हम सब जानते है पर जागरुकता नही होने के कारण ग्रामीण अंचलो मे अभी भी इसे खरीदा जाता है बडी मात्रा मे और ऊँचे दामो मे। आम लोगो के पैसे भी व्यर्थ जाते है और इस माँग के कारण देश के बहुत से जंगलो मे अब आर्किड मिल पाना मुश्किल होता जा रहा है। आर्किड प्रकृति मे विशिष्ट भूमिका निभाते है। पर्यावरण प्रदूषण के सूचक होते है। इनका रहना जंगल के स्वास्थ्य के लिये जरुरी है।


तंत्र से जुडे सस्ते और महंगे दोनो ही प्रकार के साहित्यो मे भी यह दावा मिलता है। इस तरह के गलत दावे करने वाले साहित्यो पर अंकुश लगाना जरुरी है।

क्या ड्रुपिंग अशोक का वृक्ष गृह वाटिका मे लगाने से व्यापार मे घाटा होने लगता है?

17. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

- पंकज अवधिया


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क्या ड्रुपिंग अशोक का वृक्ष गृह वाटिका मे लगाने से व्यापार मे घाटा होने लगता है?


आधुनिक वास्तु शास्त्री गृह वाटिका मे ड्रुपिंग अशोक की उपस्थिति को अशुभ बताते है। वे तर्क देते है कि इसकी पत्तियाँ नीचे की ओर झुकी हुयी होती है। इससे धन की कमी होती जाती है। निराशा पैदा हो जाती है। वे किसी भी कीमत पर इसे हटाने की सलाह देते है और इसकी जगह दूसरे पेडो को लगाने पर जोर देते है।


जैसा कि आपने पहले पढा है अशोक दो प्रकार के होते है। सीता अशोक का वर्णन भारतीय ग्रंथो मे मिलता है और इसके विभिन्न पौध भागो का प्रयोग बतौर औषधी होता है। ड्रुपिंग अशोक सजावटी पौधा है और इसी कारण इसे विदेश से भारत लाया गया है। इसका वर्णन प्राचीन ग्रंथो मे नही मिलता है। आधुनिक वास्तुविदो का दावा पहली ही नजर मे गलत लगता है। यदि वे प्राचीन वास्तुशास्त्र के आधार पर यह दावा कर रहे है तो इसके कोई मायने नही है। ड्रुपिंग अशोक जहरीला पौधा नही है। इसे बिना किसी मुश्किल के वाटिका मे लगाया जा सकता है। दुनिया भर मे इसे पसन्द किया जाता है। रही बात इससे धन मे कमी या निराशा की तो सिर्फ पत्तियो के झुके होने के कारण ऐसा दावा करना गलत है। यह तो देखने का नजरिया है। यदि आप इसके उलट नजरिये से देखेंगे तो आपको यह पेड आसमान की ओर बढते तीर की तरह दिखेगा।



आधुनिक वास्तुविदो ने प्राचीन शास्त्र का नाम लेते हुये आम जनता को खूब छला है। इस लेख के माध्यम से मै उन्हे खुली चुनौती देता हूँ कि वे इसका वैज्ञानिक आधार बताये अन्यथा इस तरह की ठगी बन्द करे।



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क्या पलाश के वृक्ष से एकत्रित किया गया बान्दा आपको अदृश्य कर सकता है?

क्या कौरव-पांडव का पौधा घर मे लगाने से परिवार जनो मे महाभारत शुरु हो जाती है?

16. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

- पंकज अवधिया


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क्या कौरव-पांडव का पौधा घर मे लगाने से परिवार जनो मे महाभारत शुरु हो जाती है?

आधुनिक वास्तुविदो को इस तरह की बाते करते आज कल सुना जाता है। वे बहुत से पेडो के विषय ने इस तरह की बाते करते है। वे कौरव-पांडव नामक बेलदार पौधे के विषय मे आम लोगो को डराते है कि इसकी बागीचे मे उपस्थिति घर मे कलह पैदा करती है अत: इसे नही लगाना चाहिये।


मै इस वनस्पति को पैशन फ्लावर या पैसीफ्लोरा इनकार्नेटा के रुप मे जानता हूँ। इसके फूल बहुत आकर्षक होते है। फूलो के आकार के कारण इसे राखी फूल भी कहा जाता है। आप यदि फूलो को ध्यान से देखेंगे विशेषकर मध्य भाग को तो ऐसा लगेगा कि पाँच हरे भाग सौ बाहरी संरचनाओ से घिरे हुये है। मध्य के पाँच भागो को पाँडव कह दिया जाता है और बाहरी संरचनाओ को कौरव और फिर इसे महाभारत से जोड दिया जाता है। महाभारत मे इस फूल का वर्णन नही मिलता है और न ही हमारे प्राचीन ग्रंथ इसके विषय मे इस तरह की बाते बताते है। यह महज कपोल-कल्पित बाते है।


इस वनस्पति को बहुत उपयोगी माना जाता है। होम्योपैथी से लेकर आधुनिक चिकित्सा प्रणालियो मे अनिद्रा और मृगी जैसे रोगो की चिकित्सा मे इस वनस्पति का प्रयोग होता है। इसकी बहुत सी प्रजातियाँ होती है। कई प्रजातियो के फल खाये भी जाते है और इनसे स्वादिष्ट पेय भी बनाये जाते है। यह वनस्पति चिडियो को आकर्षित करती है। बाहरी दीवारो को धूल से बचाने और घर की सुन्दरता बढाने के लिये इस वनस्पति को लगाया जाता है।


वनस्पतियो से जुडे आधुनिक अन्ध-विश्वासो को सामने लाकर वास्तु शास्त्र के नाम पर लूट मचा रहे तथाकथित विशेषज्ञो की नकेल कसना जरुरी है।


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क्या ड्रुपिंग अशोक का वृक्ष गृह वाटिका मे लगाने से व्यापार मे घाटा होने लगता है?

क्या घर के सामने निर्गुन्डी का पौधा लगाने से बुरी आत्मा से रक्षा होती है?

15. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

- पंकज अवधिया


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क्या घर के सामने निर्गुन्डी का पौधा लगाने से बुरी आत्मा से रक्षा होती है?


कृषि विज्ञान की शिक्षा के दौरान जब मै अम्बिकापुर मे प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा था तब मुझे स्थानीय निवासी श्री रमणीक सरकार से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होने अपने घर के सामने एक पौधा लगा रखा था। पूछने पर बताया कि यह निशिन्दी का पौधा है और ग्रामीण बंगाल मे आप इसे बहुत से घरो के सामने पायेंगे क्योकि इसकी उपस्थिति बुरी आत्मा को दूर रखती है। मुझे विश्वास नही हुआ। मैने सन्दर्भ साहित्यो को देखा तो मुझे इस पौधे का हिन्दी नाम निर्गुन्डी मिला। इसका वैज्ञानिक नाम है वाइटेक्स निगुण्डो।


देश भर मे इस पौधे को अलग-अलग नामो से जाना जाता है। यह एक उपयोगी वनस्पति है और इसके सभी भागो का प्रयोग बतौर औषधी होता है। हमारे प्राचीन ग्रंथ इसके दिव्य औषधीय गुणो के बखान से भरे पडे है। बाद मे मध्य भारत के विभिन्न भागो मे वानस्पतिक सर्वेक्षणो के माध्यम से मैने इस वनस्पति के परम्परागत उपयोगो का दस्तावेजीकरण किया


श्री सरकार ने बताया कि वे परिवार सहित इसका प्रयोग दैंनिक जीवन मे करते है। घर मे मच्छर-मक्खी होने पर वे इसके पौध भागो को जलाकर धुँए को पूरे घर मे फैला देते है। धान की फसल मे कीटो की रोकथाम के लिये भी वे इसका प्रयोग करते है। अनिद्रा की शिकायत होने पर इसकी तीन पत्तियो को सिरहाने मे रखकर सोने की सलाह दी जाती है। देश के बहुत से भागो मे अन्न रखने के लिये मिट्टी के जो पात्र बनाये जाते है उसमे इसकी पत्तियाँ मिला दी जाती है। इससे साल दर साल अन्न कीटो से बचा रहता है। वैज्ञानिक साहित्य बताते है कि इसकी घरो या आस-पास मे उपस्थिति वातावरण को कीटो और रोगाणुओ से मुक्त रखती है। पारम्परिक चिकित्सक तो इसकी लकडी से विशेष प्रकार की चप्पलो का निर्माण करते है। ये चप्पले गठिया रोग से प्रभावित रोगियो को पहनने की सलाह दी जाती है।


सालो तक शोध के बाद मुझे पता लग गया कि क्यो हर घर के सामने इसकी उपस्थिति अनिवार्य है। भले ही इसका सम्बन्ध बुरी आत्मा से बचाव से जोडा जाये पर इस विश्वास को बने रहने देने मे कोई हानि नही है। रोगाणु और कीट किसी बुरी आत्मा से कम नही है।


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क्या कौरव-पांडव का पौधा घर मे लगाने से परिवार जनो मे महाभारत शुरु हो जाती है?

यदि मैना बिल्कुल सामने दिखे तो क्या चोर-डाकुओ से धन की हानि होती है?

14. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?


- पंकज अवधिया

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यदि मैना बिल्कुल सामने दिखे तो क्या चोर-डाकुओ से धन की हानि होती है?


पक्षियो और जानवरो से सम्बन्धित ऐसी कई तरह की बाते प्राचीन ग्रंथो मे मिलती है। जैसे दशहरे के दिन नीलकंठ को देखना शुभ माना जाता है। देश के मध्य भाग मे मैना को देखने पर तरह-तरह की बाते की जाती है। उनमे से एक है मैना के दिखने पर चोर-डाकुओ से धन हानि की बात। इन बातो का कोई वैज्ञानिक आधार नजर नही आता है। आजकल जो तंत्र-मंत्र की नयी पुस्तके आ रही है उसमे इस तरह की बातो को प्रकाशित किया जा रहा है।


जब मैने प्राचीन ग्रंथो को खंगाला तो मुझे मैना और अन्य पक्षियो से जुडी ऐसी सैकडो बाते पता चली। इन्हे पढकर यह बात भी मन मे आती है कि कही इसके गहरे मायने तो नही है। हो सकता है हमारे बुजुर्गो के पास इसके कारण रहे हो और पीढी दर पीढी बाते तो आती रही पर राज नही आ पाये। मै यह बात इसीलिये भी कह पा रहा हूँ क्योकि बिल्ली के रास्ता काटने पर उस ओर न जाने की व्याख्या मैने हाल ही मे सुनी है। जब भी अन्ध-विश्वास पर व्याख्यान होते है तो बिल्ली के रास्ता काटने वाला उदाहरण बडे जोर-शोर से दिया जाता है।


जंगलो मे रहने वाले लोग बताते है कि कोई भी हिंसक जानवर यदि हडबडी मे सामने से गुजरता है तो लोग थोडे समय तक रुक जाते है। क्योकि हडबडी का मतलब है कि या तो हिसक जानवर किसी जानवर का पीछा कर रहा है या कोई जानवर उसके पीछे है। दोनो ही परिस्थितियो मे खलल उस रास्ते पर जाने के लिये जानलेवा हो सकता है। यही बात बिल्ली के साथ भी पहले होती रही होगी। आपने देखा ही होगा कि बिल्ली आपका प्यारा पक्षी दबोचने के बाद खूँखार हो जाती है और आप कितना भी जोर लगाये वो गुर्रा कर नाराजगी जताती है।


अब आज हम कांक्रीट के जंगलो मे रहते है। बिल्ली कई बार हमारे सामने से गुजरती है। जरुरी नही है कि वह हडबडी मे हो। यही कारण है कि आज के जमाने मे यह बात उतनी महत्वपूर्ण नही लगती है। पर फिर भी आवारा कुत्तो या बिल्लियो के झगडे मे दूर रहना आज भी समझदारी भरा कदम है।


आज मै मैना के सम्बन्ध मे लिखी गयी बातो की व्याख्या करने मे सक्षम नही हूँ। इस तरह की बातो से किसी को नुकसान नही हो रहा है इसलिये मै इनके प्रकाशन पर आपत्ति नही करुंगा। हाँ, आप सभी से यह अनुरोध जरुर करुंगा कि यदि आप के पास व्याख्या हो तो प्रस्तुत करे ताकि हमारी यह पीढी बुजुर्गो की कही बातो को वैज्ञानिक आधार प्रदान कर सके।


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क्या घर के सामने निर्गुण्डी का पौधा लगाने से बुरी आत्मा से रक्षा होती है?

क्या उल्लू का कपाल आपके दुश्मन का सर्वनाश कर सकता है?

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- पंकज अवधिया


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क्या उल्लू का कपाल आपके दुश्मन का सर्वनाश कर सकता है?


तंत्र से सम्बन्धित ज्यादातर साहित्यो मे यह दावा किया जाता है कि विधि-विधान से उल्लू के कपाल के प्रयोग से दुश्मन का सर्वनाश किया जा सकता है। इस दावे के समर्थन मे देश भर मे लेख छपते रहते है। इस दावे की सत्यता जानने के लिये मै सैकडो तांत्रिको से मिला और उनसे इस दावे को प्रमाण सहित सिद्ध करने का अनुरोध किया पर जवाब मे मुझे बडी-बडी बाते ही सुनने को मिली। ज्यादातर तांत्रिक उल्लू के कपाल को बेचने की फिराक मे नजर आये।


समय-समय पर अपने हिन्दी लेखो के माध्यम से मै खुले रुप से इन्हे चुनौती देता रहा पर आज तक नतीजा सिफर ही रहा। अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति, रायपुर के संस्थापको मे से एक माननीय चन्द्रशेखर व्यास सदा ही से अपने व्याख्यानो मे इस दावे को चुनौती देते रहे है। वे कहते है कि यदि उल्लू के कपाल मे इतनी ही शक्ति है तो तांत्रिक देश सेवा के लिये आगे आये। सरकार उनकी एक बटालियन बना दे और सीमा पर भेज दे ताकि बिना खर्च के दुश्मन को धूल चटाई जा सके। पर हम जानते है कि इस दावे मे कोई दम नही है।


यह कडवा सच है कि प्रतिवर्ष ऐसे आधारविहीन दावो के नाम पर असंख्य उल्लूओ को मारा जाता है। उल्लू से जुडे अन्ध-विश्वास पर आधारित ममता जी की पोस्ट पर सागर नाहर जी ने खुलासा किया कि दीपावली के आस-पास उल्लू की बलि चढाई जाती है और रंग और प्रजाति के हिसाब से डेढ लाख मे एक उल्लू बेचा जाता है। यह सब उस देश मे हो रहा है जहाँ उल्लू के शिकार पर प्रतिबन्ध है और कडे कानून है।


वर्तमान पीढी के बहुत कम लोग यह जानते है कि उल्लू की हमारे पर्यावरण मे अहम भूमिका है। ये किसानो के मित्र है। ये कीट-पतंगो के साथ चूहो को खा जाते है। इस तरह प्रतिवर्ष करोडो का खाद्यान्न चूहो से बच जाता है। आज कीटनाशको के बढते उपयोग से इनकी आबादी कम होने लगी है। बढते ट्रेफिक के कारण भी ये गाडियो से टकराकर मरते जा रहे है। इन सबसे अधिक खतरा इन्हे उन मनुष्यो से है जो तंत्र के नाम पर इन्हे पकडकर मार देते है। उल्लू हमारे आस-पास से बहुत तेजी से घटे है। हाल ही मे खेतो मे आमतौर पर पाये जाने वाले बार्न आउल को जाँजगीर क्षेत्र के गाँवो मे गरुड समझकर पूजा जाने लगा। दैनिक छत्तीसग़ढ ने यह खबर प्रमुखता से प्रकाशित की। किसानो के मित्र कहे जाने वाले बार्न आउल को सम्भवत: इस पीढी के लोगो ने नही देखा था इसलिये वे इसे गरुड मान बैठे। यह छोटी सी घटना दर्शाती है कि कैसे तेजी से जीव हमारे आस-पास से गायब हो रहे है और हम इन्हे भूलते जा रहे है।


अपने स्तर पर कुछ जानकार लोग जागरुकता अभियान चला रहे है पर जिस तेजी से उल्लू विलुप्त हो रहे है उसे देखते हुये व्यापक स्तर पर अभियान चलाने की जरुरत है। हम सब को जागना होगा और दूसरो को भी जगाना होगा। सरकार पर दबाव बनाना होगा ताकि गलत दावे करने वालो के हौसले पस्त किये जा सके और उल्लू को मारने वालो को सलाखो के पीछे भेजा जा सके।


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यदि मैना बिल्कुल सामने दिखे तो क्या चोर-डाकुओ से धन की हानि होती है?

अशोक वृक्ष का पत्ता सिर पर धारण करने से क्या हर कार्य मे सफलता ही मिलती है?

12. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?


- पंकज अवधिया


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अशोक वृक्ष का पत्ता सिर पर धारण करने से क्या हर कार्य मे सफलता ही मिलती है?




तंत्र से सम्बन्धित साहित्यो मे यह दावा किया जाता है। सिर्फ एक पंक्ति के इस दावे का कोई वैज्ञानिक आधार है या नही यह जानने का प्रयास मै लम्बे समय से कर रहा हूँ। विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते जैसा मुझे पढाया गया है, मै इस बात को सुनते ही कह सकता हूँ कि यह निरापद अन्ध-विश्वास है पर जैसा कि मै हमेशा लिखता और कहता रहता हूँ कि प्रत्येक पीढी का यह दायित्व है कि वह अपनी आस्थाओ, परम्पराओ और मान्यताओ का वैज्ञानिक विश्लेषण करे और फिर तर्को के आधार पर अपनी राय व्यक्त करे। बिना किसी विश्लेषण से किसी भी बात को सही या गलत ठहरा देना, विज्ञान के दृष्टिकोण से सही नही जान पडता है।


आप विषय एक बार फिर से पढे। यदि आपके मन मे उस अशोक वृक्ष की याद आ रही है जिसे आम तौर पर घरो मे लगाया जाता है तो आप गलत है। घरो मे सजावट के लिये जिस अशोक को लगाया जाता है उसका वैज्ञानिक नाम पालीएल्थिया लाँगीफोलिया है। यहाँ साराका इंडिका या सीता अशोक की बात कही जा रही है। वही सीता अशोक जिसका न केवल धार्मिक बल्कि औषधीय महत्व भी है। स्त्री रोगो की चिकित्सा मे इसके विभिन्न पौध भागो का प्रयोग होता है। आपने अशोकारिष्ट और हेमपुष्पा का नाम तो सुना होगा। हेमपुष्पा इसका संस्कृत नाम है। अब बात करे इसकी पत्ती के विषय मे।


प्राचीन भारतीय ग्रंथ इसकी पत्तियो के बाहरी और आँतरिक औषधीय उपयोगो का वर्णन करते है। तंत्र साहित्यो मे पत्ती को धारण करने की बात कही जाती है पर इसे धारण करने की विधि नही बतायी जाती है। यही कारण है कि यह समझ लिया जाता है, कि सिर पर इसे बाँधना की धारण करना है। मै पिछले दस से अधिक वर्षो से तांत्रिको से मिलकर इस धारण विधि के विषय मे पूछ रहा हूँ पर सही विधि अभी तक नही जान पाया हूँ।


देश मे पारम्परिक चिकित्सक अशोक की पत्तियो को अन्य प्रकार की पत्तियो के साथ मिलाकर सिरदर्द विशेषकर माइग्रेन की चिकित्सा मे लेप के रुप मे प्रयोग करते है। यह लेप सामान्य स्वास्थ्य के लिये भी अच्छा माना जाता है। तो क्या तंत्र सम्बन्धी साहित्य इसी लेप की बात करते है? या उनकी विधि कोई और है?


यह तो रोग के इलाज की बात हुयी। पर इस दावे के क्या मायने कि इसे धारण करने से सभी प्रकार की सफलता मिलती है? इसकी सही व्याख्या करने की जरुरत है और मूल बातो को सामने लाकर ही इस दावे को परखा जा सकता है। मुझे लगता है कि पूरी व्याख्या किये बगैर आधी अधूरी जानकारियो का प्रकाशन भ्रम पैदा करता है। अत: प्रकाशको को इस ओर ध्यान देना चाहिये।


यदि आप इस विषय मे जानकारी रखते है और इसकी व्याख्या कर सकने मे सक्षम है तो आपका स्वागत है।


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क्या उल्लू का कपाल आपके दुश्मन का सर्वनाश कर सकता है?

क्या बारहसिंघे के सींगो से बना ताबीज पहनने से साँप नही काटता?

11. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

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क्या बारहसिंघे के सींगो से बना ताबीज पहनने से साँप नही काटता?

देहाती मेलो मे कई तरह के ताबीज बिकते दिख जाते है। कुछ वर्षो से जिस विशेष ताबीज ने मेरा ध्यान खीचा है वह है बारहसिंघे के सींगो से युक्त ताबीज जिसके विषय मे यह दावा किया जाता है कि इसे पहनने मात्र ही से साँप दूर रहते है और उनके काटने का भय नही रहता। बारहसिंघे या स्वाम्प डियर जाने-पहचाने वन्यजीव है। जैसे-जैसे मानव आबादी बढती जा रही है वैसे-वैसे जंगल कम होते जा रहे है। इसका सीधा असर बारहसिंघे जैसे वन्य जीवो पर भी पड रहा है। मैने तंत्र विद्या से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इस ताबीज का वर्णन पढा है। इन साहित्यो मे भी ऐसे ही दावे किये गये है। हाल ही मे एक मेले मे ताबीज बेचने वाले से मैने यह प्रश्न किया कि कहाँ से सींग मिलते है? तो वह प्रश्न को टाल गया। क्या अपने आप झडने वाले सींग का उपयोग किया जाता है? उसने कहा कि अपने आप झडे सींग मे शक्ति नही होती है। इसका मतलब सींगो के लिये इनका शिकार किया जाता है। छत्तीसगढ मे ताबीज और दवाओ के लिये वन्य प्राणियो के शिकार की बात हम अखबारो के माध्यम से पढते रहते है। हाल ही मे खबर छपी थी कि वन विभाग ने ऐसे लोगो को पकडा है जो कि तेन्दुए के शिकार के बाद ताबीज और दवाओ के लिये उसके अंगो को एकत्र कर रहे थे।


बारहसिंघे के सींगो से बने ताबीज क्या सचमुच प्रभावी है-यह जानने के लिये मैने छोटा सा प्रयोग किया। देहाती मेले से अलग-अलग कीमत के दस ताबीज खरीदे फिर साँप के स्थानीय विशेषज्ञ की मदद से बारह किस्म के साँप के पास इसे रखा। साँपो पर कुछ असर नही दिखा। तेज जहर वाले नाग के पास जब ताबीज पहनकर एक व्यक्ति को खडा किया गया तो साँप की आक्रमकता पर कोई असर नही दिखा। तो क्या फिर लोगो के डर का लाभ उठाकर ताबीज बेचा जा रहा है? यदि ऐसा है तो तुरंत इसे रोकने कार्यवाही होनी चाहिये। पहले ऐसी बातो को नजर अन्दाज किया जा सकता था पर अब इस तरह के गलत दावो से वन्य पशुओ पर संक़ट आने लगा है। इस विषय मे व्यापक जागरुकता अभियान चलाने की जरुरत है।


मै इस लेख के माध्यम से तंत्र विज्ञान से जुडे लोगो से यह अनुरोध करना चाहूंगा कि वे सामने आये और इस तरह के भ्रम फैलाने वालो के हौसले पस्त करे। यदि आप इस बात को सत्य मानते है कि इसकी प्रमाणिकता सिद्ध करे। हमारे देश मे कई तरह की वनस्पतियो से युक्त मालाए और ताबीज प्रचलन मे है। इनमे से बहुत से प्रयोगो के वैज्ञानिक आधार भी है। यह पाया गया है कि इनका शरीर से लगातार सम्पर्क शरीर को रोग विशेष मे मदद करता है। यह हो सकता है कि बारहसिंघे के ताबीज की अधूरी जानकारी साहित्यो मे हो। इसलिये सच को सामने लाने की जरुरत है।


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अशोक वृक्ष का पत्ता सिर पर धारण करने से क्या हर कार्य मे सफलता ही मिलती है?

क्यो कहा जाता है कि जहरीले साँप को देखते ही रुमाल सहित सभी कपडे उस पर डाल देना चाहिये?

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क्यो कहा जाता है कि जहरीले साँप को देखते ही रुमाल सहित सभी कपडे उस पर डाल देना चाहिये?

यह बात न केवल छत्तीसगढ बल्कि देश के दूसरे हिस्सो मे भी कही जाती है। मै लम्बे समय से यह जानने उत्सुक रहा कि ऐसा क्यो कहा जाता है? क्या यह अन्ध-विश्वास है या इसके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण है? मै आधुनिक और पारम्परिक दोनो ही प्रकार के सर्प विशेषज्ञो से मिला। दोनो ही ने इस बात की पुष्टि की और वैज्ञानिक कारण बताया। उनका कहना है कि सर्प का पहला दंश विष से भरा होता है और यह कुछ ही पलो मे जान ले सकता है। दूसरे, तीसरे और इस तरह बाद के दंश कम जहर युक्त होते है। सर्प विशेषज्ञ कहते है कि पाँचवे दंश से मनुष्य पर बुरा प्रभाव नही पडता है। रुमाल आदि कपडे को जहरीले साँप के ऊपर डालने का यह उद्देश्य होता है कि वह लगातार इसे डस कर अपना जहर खो दे ताकि उससे आसानी से निपटा जा सके। देश के पारम्परिक विशेषज्ञ अलग तर्क देते है। उनका कहना है कि कपडे डालने से साँप शांत हो जाता है और आप मुसीबत से बच जाते है। पर ऐसा कब करना चाहिये? जब आमने-सामने की ऐसी स्थिति हो कि मुठभेड के अलावा कोई चारा न हो तब कपडे वाला उपाय अपनाया जा सकता है।


कुछ वर्ष पहले एक बारात मे नागपुर जाना हुआ। सुबह सब जागे तो पता चला कि बिस्तर मे साँप है। तुरंत एक वयोवृद्ध सज्जन ने उस पर कपडा डालकर उसे शांत किया फिर सबने मिलकर कपडे सहित उसे बाहर कर दिया। एक बार घर पर भी साँप निकला और किचन के सिंक पर कुँडली मारकर बैठ गया। अब उसे निकाले तो निकाले कैसे। तब हमने भी कपडे वाला उपाय अपनाया तो वह शांत हो गया। बाद मे बाहर से लोगो को बुलाकर उसे बाहर किया।


आजकल हम साँपो के क्षेत्र मे अतिक्रमण कर रहे है और यही कारण है कि हमारी उनसे अक्सर मुलाकात हो जाती है। ज्यादातर लोग न चाहते हुये भी उन्हे मार देते है। मुझे लगता है कि उन आसान तरीको के प्रचार-प्रसार की जरुरत है जिनकी सहायता से हम इन्हे सुरक्षित ढंग़ से बाहर कर सकते है। मनुष्यो और साँपो दोनो ही का बचा रहना जरुरी है उस धरती पर।


अगले सप्ताह का विषय़


क्या बारहसिंघे के सींगो से बना ताबीज पहनने से साँप नही काटता?

क्या वट की जड और विदारीकन्द का तिलक किसी को वशीभूत कर सकता है?

9. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

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क्या वट की जड और विदारीकन्द का तिलक किसी को वशीभूत कर सकता है?


'वशीकरण' शब्द सदा ही से मुझे आकर्षित करता रहा है। कौन नही चाहेगा कि कुछ उपाय अपनाकर मनचाहे व्यक्ति को वश मे कर ले। तंत्र से सम्बन्धित बहुत सी पुस्तको मे मैने यह लिखा पाया कि वट की जड और विदारीकन्द को बराबर मात्रा के पीसकर तिलक के रूप मे इसे माथे पर लगाकर बाहर निकले तो जो देखेगा वही वशीभूत हो जायेगा। कौतूहलवश मैने इसे आजमाया। वट की जड तो आसानी से मिल गयी पर विदारीकन्द के लिये काफी मशक्कत करनी पडी। तिलक का कोई असर नही दिखा। मैने जब ख्यातिलब्ध तांत्रिको से यह चर्चा की तो उन्होने बताया कि सस्ते साहित्य मे आधी-अधूरी जानकारी होती है यदि आपको इन वनस्पतियो का महत्व जानना है तो आप महंगे साहित्य पढे। मैने हजारो रुपये खर्च कर मूल ग्रंथ खरीदे पर फिर भी पूरी जानकारी नही मिली। इन ग्रंथो मे भी बडे-बडे दावे थे पर इनका कोई वैज्ञानिक आधार नही था। तांत्रिक अपनी बात पर अडे रहे पर न तो उन्होने इसे करके दिखाया और न ही असफलता के कारण गिनाये।


बाद मे जब मैने पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण आरम्भ किया तो पारम्परिक चिकित्सको से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। मैने उनके सामने यह बात रखी तो उन्होने ऐसे पारम्परिक नुस्खो के विषय मे बताया जिनमे वट की जड और विदारीकन्द को मुख्य घटक के रूप मे मिलाया जाता है। इन दोनो वनस्पतियो को मिलाकर भी वे शक्तिवर्धक दवा बनाते है। छत्तीसगढ मे विदारीकन्द को पातालकुम्हडा कहा जाता है। ताकत की दवा के रूप मे यह वनवासियो के बीच लोकप्रिय है। पर इन दोनो का तिलक के रूप मे उपयोग नही होता है और वो भी वशीकरण के लिये। हाँ राज्य के पारम्परिक चिकित्सक अवश्य कहते है कि इन दोनो के आंतरिक प्रयोग से शरीर इतना आकर्षक हो जाता है कि कोई भी आकर्षित हो जाये।


पिछले दस से अधिक वर्षो मे मैने 55 से अधिक पुस्तको मे इस तिलक का वर्णन देखा है। मुझे लगता है कि यदि जमीनी स्तर पर यह सम्भव नही है तो इस तरह के दावे करके अंतोगत्वा तंत्र विज्ञान को ही क्षति पहुँचायी जा रही है। इसी तरह के दावो जैसे एक खुराक से कैसर जड से खत्म, से आयुर्वेद को भी नुकसान पहुँच रहा है। इस लेख के माध्यम से तंत्र विज्ञान के जानकारो से मै अनुरोध करना चाहूंगा कि वे आगे आकर इस तरह के दावो की सत्यता नयी पीढी को बताये। इस पर व्यापक चर्चा हो और झूठे दावो करने वालो को हतोत्साहित किया जा सके।


अगले सप्ताह का विषय़


क्यो कहा जाता है कि जहरीले साँप को देखते ही रुमाल सहित सभी कपडे उस पर डाल देना चाहिये?

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?
- पंकज अवधिया

इस सप्ताह का विषय
क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?
बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है।

आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञान भी इन उपयोगो को मान्यता देता है। यही कारण है कि न केवल भारत बल्कि दुनिया भर के पुस्तकालयो मे ढेरो शोध-पत्र इस वनस्पति पर उपलब्ध है। देश के दूरस्थ अंचलो मे यह वनस्पति आज भी लाखो रोगियो को आराम पहुँचा रही है।
न केवल छत्तीसगढ बल्कि देश के अन्य राज्यो मे भ्रमण के दौरान मुझे कई बार सफेद फूलो वाले दुर्लभ कहे जाने वाले भटकटैया को देखने का अवसर मिला। कौतूहलवश मैने खुदाई भी करवायी पर नतीजा सिफर ही रहा। बाद मे मैने जब इसका उपयोग करने वाले पारम्परिक चिकित्सको को इस खुदाई और नाकामी के बारे मे बताया तो उन्होने स्पष्ट किया कि इस वनस्पति को पा लेना ही खजाने को पाने जैसा है। इसे सामान्य भटकटैया की तुलना मे औषधीय गुणो मे अधिक समृद्ध माना जाता है। कैंसर जैसे जटिल रोगो की चिकित्सा मे इसे मुख्य घटक के रूप मे दवा मे मिलाया जाता है। छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सक तो सिकल सेल एनीमिया की चिकित्सा मे इस दुर्लभ वनस्पति का प्रयोग करते है। पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि खजाने वाली बात के कारण अब यह बडी मुश्किल से मिलती है। वे मुझसे इंन स्थानो के विषय मे न लिखने का अनुरोध करते रहे। मैने इसकी तस्वीरे ली और थोडा लिखा अपने शोध आलेखो के माध्यम से ताकि आधुनिक विज्ञान भी इस पर प्रयोग कर सके।

आम तौर बहुत सी दुर्लभ वनस्पतियो से ऐसी बाते जुडी हुयी होती है। अक्सर इन बातो के कारण वनस्पति के अस्तित्व के लिये खतरा पैदा हो जाता है। मै अभी तक के अनुभवो के आधार पर यह कह सकता हूँ कि गडे खजाने वाली बात सही नही लगती है पर विज्ञान का छात्र होने के नाते इन बातो की असलियत जानने के लिये सफेद भटकटैया की खोज और खुदाई मै जारी रखना चाहूंगा। यदि इसके नीचे आपको कभी खजाना मिला हो तो बताये?
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क्या बट की जड और विदारीकन्द का तिलक किसी को वशीभूत कर सकता है?





क्या पीले पुष्प वाले पलाश से सोना बनाया जा सकता है?

7. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

- पंकज अवधिया

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इस सप्ताह का विषय

क्या पीले पुष्प वाले पलाश से सोना बनाया जा सकता है?

पलाश (परसा, ढाक, टेसू या किंशुक) को हम सभी जानते है। इसके आकर्षक फूलो के कारण इसे जंगल की आग भी कहा जाता है। प्राचीन काल ही से होली के रंग इसके फूलो से तैयार किये जाते रहे है। अब पलाश के वृक्षो मे पुष्पन आरम्भ हो रहा है। देश भर मे इसे जाना जाता है। लाल फूलो वाले पलाश का वैज्ञानिक नाम ब्यूटिया मोनोस्पर्मा है। पहले मै एक ही प्रकार के पलाश से परिचित था। बाद मे वानस्पतिक सर्वेक्षण के दौरान मुझे लता पलाश देखने और उसके गुणो को जानने का अवसर मिला। लता पलाश भी दो प्रकार का होता है। एक तो लाल पुष्पो वाला और दूसरा सफेद पुष्पो वाला। सफेद पुष्पो वाले लता पलाश को औषधीय दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी माना जाता है। वैज्ञानिक दस्तावेजो मे दोनो ही प्रकार के लता पलाश का वर्णन मिलता है। सफेद फूलो वाले लता पलाश का वैज्ञानिक नाम ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा है जबकि लाल फूलो वाले को ब्यूटिया सुपरबा कहा जाता है।

मुझे सबसे पहले पीले पलाश के विषय मे छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सको से पता चला। ज्यादातर पारम्परिक चिकित्सको ने अपने पूरे जीवन मे कुछ ही पेड देखे थे। मुझे नागपुर यात्रा के दौरान वर्धा सडक मार्ग पर इसे देखने का सौभाग्य मिला। वहाँ लोगो ने बताया कि हाल ही मे किसी तांत्रिक ने पूरे पेड की कीमत लाखो मे लगायी और जड सहित इसे उखाडा गया। तब मुझे इसके तंत्र सम्बन्धी महत्व के बारे मे पता चला। मैने वैज्ञानिक दस्तावेजो को खंगाला पर कुछ खास नही मिला। मैने अपने अनुभवो को शोध आलेखो के रुप मे प्रकाशित किया।

इन शोध आलेखो का जब मैने हिन्दी मे अनुवाद कर कृषि पत्र-पत्रिकाओ मे प्रकाशित करना आरम्भ किया तो देश भर से पत्र आने लगे। पंजाब से आये एक विस्तृत पत्र मे दावा किया गया था कि पीले पलाश से सोना बनाया जा सकता है। बाद मे मुझे फोन पर बताया गया कि यह जानकारी प्राचीन भारतीय साहित्यो मे लिखी है। उन्होने इसकी फोटोकापी भी भेजी। इसे पढकर लगा कि यह जानकारी आधी-अधूरी है। बाद मे जब मैने पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की तो उन्होने बताया कि इससे सोना बनने की बात ने ही इस दुर्लभ वृक्ष के लिये खतरा पैदा कर दिया है। लोग वनो मे इसे खोजने जी-जान लगा दे रहे है। चूँकि पुष्पन के समय ही इसकी पहचान होती है इसलिये इस समय बडी मारामारी होती है।

पारम्परिक चिकित्सा मे पीले पलाश का प्रयोग बहुत सी जटिल बीमारियो के उपचार मे होता है। पारम्परिक चिकित्सक आम पलाश के औषधीय गुणो को बढाने के लिये इसका प्रयोग करते है। वे सोने से अधिक अपने रोगियो की जान की परवाह करते है। यही कारण है कि पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही वे इन्हे दिखाते है। अधिक्तर वृक्ष घने जंगलो मे है। मुझे लगता है कि इनकी चिंता जायज है। पीले पलाश से सोना बनता है या नही इसके लिये प्राचीन साहित्यो मे वर्णित जानकारियो के आधार पर आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोग कर सकते है। पहले तो यह जरुरी है कि जो लिखा गया है उसका सही अर्थ समझा जाय। हो सकता है कि किसी दूसरे सन्दर्भ मे सोने की बात कही गयी हो। पहले भी कई प्रकार की वनस्पतियो पर ऐसी ही गलत जानकारियो के कारण संकट आते रहे है। पीले पलाश की वैज्ञानिक पहचान स्थापित की जाये। और यदि पारम्परिक चिकित्सक चाहे तो इनकी रक्षा मे उनकी मदद की जाये। तंत्र से जुडे लोगो के लिये टिशू कल्चर तकनीक की सहायता से पुराने वृक्षो से नये असंख्य पौधे तैयार करने शोध हो ताकि इन्हे बचाते हुये माँग की पूर्ती की जा सके। पीढीयो से पीले पलाश के विषय मे चर्चा है। इसका सत्य जानने के लिये अब और देर करने की जरुरत नही है।

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क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

नीम के पुराने वृक्ष से रिसने वाला रस एक चमत्कारिक घटना है या नही?

6. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

-पंकज अवधिया

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इस सप्ताह का विषय

नीम के पुराने वृक्ष से रिसने वाला रस एक चमत्कारिक घटना है या नही?

कुछ वर्षो पहले मुझे इटारसी की एक सामाजिक कार्यकर्ता ने फोन किया कि पास के एक गाँव मे नीम के पुराने वृक्ष से पानी जैसा रस टपक़ रहा है और दूर-दूर से लोग एकत्र हो रहे है। मेला जैसा लगा है। पूजा शुरु हो गयी है। कुछ लोग बर्तनो मे इस पानी को भर कर ले जा रहे है। आप वनस्पति विशेषज्ञ है इस लिये इस पर कुछ टिप्पणी कीजिये। मैने अपने वैज्ञानिक मित्रो और दूसरे विशेषज्ञो से सलाह ली तो अपने-अपने विषय के आधार पर सबने अपने-अपने ढंग़ से इसकी व्याख्या की। पर सभी ने अपने जीवन मे यह घटना देखी थी। मैने अपने डेटाबेस का अध्ययन किया तो उससे भी रोचक जानकारी मिली। प्राचीन चिकित्सा प्रणालियो मे इसका वर्णन मिला।

प्राचीन सन्दर्भ साहित्यो के अनुसार इसे नीम का मद कहते है। यह लिखा गया है कि जिस तरह मदमस्त हाथी के मस्तक से मद निकलता है उसी तरह नीम से भी मद निकलता है पर यह कभी-कभी ही होता है। इस रस को त्वचा रोगो के लिये उपयोगी बताया गया है। बहुत से आयुर्वेदिक नुस्खो मे इस मद का उल्लेख मिलता है। देश के पारम्परिक चिकित्सक इस मद का आँतरिक प्रयोग भी करते है। मैने अपने वानस्पतिक सर्वेक्षण के आधार पर इस बात का दस्तावेजीकरण किया है कि कैंसर की चिकित्सा मे अन्य औषधीयो के साथ नीम के मद का बाहरी और आँतरिक प्रयोग होता है। घावो को धोने के लिये यह उपयोगी है।

आम लोगो विशेषकर अधिक उम्र वाले लोगो के पास इस विषय मे बहुत जानकारी है। चूँकि ऐसा कम ही होता है इसलिये नीम से पानी टपकने की बात सुनकर लोग उस ओर दौड पडते है। नीम वैसे ही हमारे जीवन से परिवार के सदस्य जैसे जुडा हुआ है। इटारसी के फोन के जवाब मे मैने यह जानकारी भेजी और कहा कि यदि इस घटना का लाभ उठाकर यदि कोई आम लोगो को लूट रहा है तो उसे हतोत्साहित करे। यदि आम लोग इसे ले जा रहे है और नीम की पूजा कर रहे है तो यह निज आस्था है उसे जारी रहने दे। यह भी कहा कि शहर के वैज्ञानिको को वहाँ ले जाये और विस्तार से अनुसन्धान करने का यह अवसर न छोडे। यदि सम्भव हो तो आधुनिक विज्ञान की कसौटी मे भी इस पारम्परिक ज्ञान को परखने प्रयोग कर ले। जिससे देश भर मे इस घटना की व्याख्या की जा सके। बाद मे उन्होने काफी जानकारी भेजी।

यही जानकारी छत्तीसगढ के बिलासपुर शहर मे जब वैसी ही घटना हुयी तो काम आयी। मैने हिन्दी और अंग्रेजी मे दसो लेख लिखे और देश भर मे प्रकाशित किये ताकि नयी पीढी इसकी व्याख्या कर सके। अब देश भर से पत्र आते है जिससे पता चलता है कि पूरे देश मे यह होता ही रहता है। तो क्या यह चमत्कार है? जब तक चमत्कार की व्याख्या न हो तब तक ऐसी घटनाओ को चमत्कार ही माना जाता है। यद्यपि हम नीम के मद के विषय मे बहुत कुछ जानते है फिर भी उन कारणो की पहचान जरुरी है जो इस प्रक्रिया के लिये उत्तरदायी है। अभी विशेषज्ञो का कार्य समाप्त नही हुआ।

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क्या पीले पुष्प वाले पलाश से सोना बनाया जा सकता है?

क्या गरूड वनस्पति या इसकी फली घर मे रखने से साँप नही आता?

5. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?
- पंकज अवधिया
इस सप्ताह का विषय
क्या गरूड वनस्पति या इसकी फली घर मे रखने से साँप नही आता?
छत्तीसगढ और आस-पास के राज्यो मे यह माना जाता है कि गरुड नामक वनस्पति या इसके पौध भागो को घर मे रखने से साँप नही आते है। इस बार इसी विषय पर चर्चा की जाये।
प्राचीन और आधुनिक वैज्ञानिक साहित्यो मे दुनिया भर मे बहुत सी ऐसी वनस्पतियो का वर्णन मिलता है जिनमे साँपो को दूर रखने की क्षमता है। बहुत सी ऐसी भी वनस्पतियाँ है जो साँपो को आकर्षित करती है। छत्तीसगढ मे भ्रमरमार नामक दुर्लभ वनस्पति साँपो को आकर्षित करने के गुणो के कारण जानी जाती है। राज्य के जाने-माने वनौषधि विशेषज्ञ माननीय भारत जी जो अब हमारे बीच नही है, इस वनस्पति से कैसर जैसे असाध्य समझे जाने वाले रोगो की चिकित्सा करते थे। साँपो से अपनी आजीविका चलाने वाले सपेरे बहुत सी ऐसी वनस्पतियो के विषय मे जानते है जो साँपो को दूर रखती है। मैने अपने वानस्पतिक सर्वेक्षणो के माध्यम से हजारो शोध आलेख लिखे है इस विषय पर अभी भी ज्यादातर ज्ञान अलिखित रूप मे है। सर्प-विष की चिकित्सा करने वाले पारम्परिक चिकित्सक भी ऐसी वनस्पतियो के विषय मे जानते है। अभी तक देश भर मे 600 से अधिक प्रकार की ऐसी वनस्पतियो के विषय मे जानकारी उपलब्ध है। पर सभी वनस्पतियाँ सभी तरह के साँपो को रोक पाने मे सक्षम नही है। इसका गूढ ज्ञान बहुत कम लोगो के पास है।



गरुड नामक वनस्पति को साँपो से सुरक्षा के लिये उपयोगी माना जाता है पर यह मुश्किल है कि अकेले छत्तीसगढ मे 15 से अधिक प्रकार की वनस्पतियो को इस नाम से पुकारा जाता है। आप तो जानते ही है कि स्थानीय नाम हर कोस मे बदलते है। आमतौर पर गरुड के नाम पर एक लम्बी सी फली मिल जाती है जिसमे साँप के शरीर जैसे निशान बने होते है। हाल ही के दिनो मे गरुड वनस्पति से बनायी गयी लकडी की सर्पनुमा आकृति भी बाजार मे मिलने लगी है। इसे भी उपयोगी बताया जाता है। पर दोनो ही प्रकार की वनस्पतियो के साथ मेरे अनुभव अच्छे नही है।
एक बार जब घर मे नाग निकला तो मैने इनका प्रयोग किया पर वह तो बेधडक उसके ऊपर से निकल गया। पहली बात तो उसे इनके होते घर मे ही नही आना चाहिये था। बाद मे कई साँप पर आजमाया पर निराशा ही हाथ लगी। मैने इन्हे मेलो से खरीदा था। जब इसे लेकर मै विशेषज्ञो के पास गया तो पहले तो वे खूब हँसे फिर मजाक मे बोले कि साँपो को शायद यह नही पता होगा कि इससे साँप भागते है। उन्होने समझाया कि असली गरुड यह नही है। दरअसल इस मान्यता का व्यव्सायीकरण हो गया है और इसी का लाभ उठाकर शहरी इलाको मे इन्हे ऊँची कीमत पर बेचा जा रहा है। शहरो मे लोग सर्प से बहुत घबराते है अत: भयादोहन से इनकी खूब बिक्री होती है। पारम्परिक विशेषज्ञो ने बताया कि सभी साँप जहरीले नही होते। यही बात आधुनिक विशेषज्ञ भी कहते है। यदि मै साँप के प्रकार बताऊँ तो ही वे वनस्पति सुझा सकते है। पर शहरो मे तो नाना प्रकार के साँप निकल आते है ऐसे मे हर बार अलग-अलग वनस्पति का प्रयोग सम्भव नही जान पडता।
मैने अपने घर को साँपो से दूर रखने के लिये सरल उपाय अपनाया है। बरसात मे सभी प्रवेश द्वारो पर फिनायल से भीगा गीला कपडा रख देते है या लक्षमण रेखा खीच देते है। इससे साँप गन्ध के कारण नही आते है।
हाल ही के वर्षो मे गरुड के नाम पर कई वनस्पतियो के नाम सामने आने के कारण जंगलो से इसका एकत्रण बढा है। इससे अनावश्यक ही उनकी प्राकृतिक आबादी पर खतरा बढ रहा है। किसी का इस पर ध्यान नही है और ऐसा ही चलता रहा तो हम बहुत सी वनस्पतियो को खो बैठेंगे।




मुझे लगता है कि साँपो के प्रति आम लोगो मे भय कम करने के लिये सर्प विशेषज्ञो और पारम्परिक ज्ञान के महारथियो का एक दल बनाकर देश भर मे जन-जागरण अभियान चलाना चाहिये। हर साल बडी मात्रा मे साँप बेवजह मारे जाते है। मनुष्य उनके इलाको मे नयी कालोनियाँ बना रहा है और साँपो को खतरा बता रहा है। जन-जागरण के अलावा इस दल को साँप से सम्बन्धित वनस्पतियो का भी वैज्ञानिक अध्ययन करना चाहिये और उन वनस्पतियो के प्रयोग पर अंकुश लगाना चाहिये जो प्रभावी नही है। साँप, वनस्पतियाँ, पारम्परिक और आधुनिक विशेषज्ञ सभी अपने है तो फिर इस शुभ कार्य मे देर कैसी?
अगले सप्ताह का विषय
नीम के पुराने वृक्ष से रिसने वाला रस एक चमत्कारिक घटना है या नही?



हरेली (हरियाली अमावस्या) मे नीम की डाल घरो मे लगाना अन्ध-विश्वास है या नही?

4. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?

-पंकज अवधिया

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इस सप्ताह का विषय

हरेली (हरियाली अमावस्या) मे नीम की डाल घरो मे लगाना अन्ध-विश्वास है या नही?

हरेली (हरियाली अमावस्या) का पर्व वैसे तो पूरे देश मे मनाया जाता है पर छत्तीसगढ मे इसे विशेष रूप से मनाया जाता है। इस दिन लोग अपने घरो के सामने नीम की शाखाए लगा देते है। यह मान्य्ता है कि नीम बुरी आत्माओ से रक्षा करता है। यह पीढीयो पुरानी परम्परा है पर पिछले कुछ सालो से इसे अन्ध-विश्वास बताने की मुहिम छेड दी गयी है। इसीलिये मैने इस विषय को विश्लेषण के लिये चुना है।

नीम का नाम लेते ही हमारे मन मे आदर का भाव आ जाता है क्योकि इसने पीढीयो से मानव जाति की सेवा की है और आगे भी करता रहेगा। आज नीम को पूरी दुनिया मे सम्मान से देखा जाता है। इसके रोगनाशक गुणो से हम सब परिचित है। यह उन चुने हुये वृक्षो मे से एक है जिनपर सभी चिकित्सा प्रणालियाँ विश्वास करती है। पहली नजर मे ही यह अजीब लगता है कि नीम को घर के सामने लगाना भला कैसे अन्ध-विश्वास हो गया?

बरसात का मौसम यानि बीमारियो का मौसम। आज भी ग्रामीण इलाको मे लोग बीमारी से बचने के लिये नीम की पत्तियाँ खाते है और इसे जलाकर वातावरण को विषमुक्त करते है। नीम की शाखा को घर के सामने लगाना निश्चित ही आने वाली हवा को रोगमुक्त करता है पर मैने जो हरेली मे नीम के इस अनूठे प्रयोग से सीखा है वह आपको बताना चाहूंगा।

इस परम्परा ने वनस्पति वैज्ञानिक बनने से बहुत पहले ही नीम के प्रति मेरे मन मे सम्मान भर दिया था। ऐसा हर वर्ष उन असंख्य बच्चो के साथ होता है जो बडो के साये मे इस पर्व को मनाते है। पर्यावरण चेतना का जो पाठ घर और समाज से मिलता है वह स्कूलो की किताबो से नही मिलता। हमारे समाज से बहुत से वृक्ष जुडे हुये है और यही कारण है कि वे अब भी बचे हुये है।

नीम के बहुत से वृक्ष है हमारे आस-पास है पर हम उनकी देखभाल नही करते। हरेली मे जब हम उनकी शाखाए एकत्र करते है तो उनकी कटाई-छटाई (प्रुनिग) हो जाती है और इस तरह साल-दर-साल वे बढकर हमे निरोग रख पाते है। यदि आप इस परम्परा को अन्ध-विश्वास बताकर बन्द करवा देंगे तो अन्य हानियो के अलावा नीम के वृक्षो की देखभाल भी बन्द हो जायेगी।

पिछले वर्ष मै उडीसा की यात्रा कर रहा था। मेरे सामने की सीट पर जाने-माने पुरातत्व विशेषज्ञ डाँ.सी.एस.गुप्ता बैठे थे। उन्होने बताया कि खुदाई मे ऐसी विचित्र मूर्ति मिली है जिसमे आँखो के स्थान पर मछलियाँ बनी है। उनका अनुमान था कि ये मूर्ति उस काल मे हुयी किसी महामारी की प्रतीक है। मैने उन्हे बताया कि प्राचीन भारतीय ग्रंथो मे हर बीमारी को राक्षस रूपी चित्र के रूप मे दिखलाया गया है। वे प्रसन्न हुये और मुझसे उन ग्रंथो की जानकारी ली। पहले जब विज्ञान ने तरक्की नही की थी और हम बैक्टीरिया जैसे शब्द नही जानते थे तब इन्ही चित्रो के माध्यम से बीमारियो का वर्णन होता रहा होगा। इन बीमारियो को बुरी आत्मा के रूप मे भी बताया जाता था और सही मायने मे ये बीमारियाँ किसी बुरी आत्मा से कम नही जान पडती है। यदि आज हम बुरी आत्मा और बीमारी को एक जैसा माने और कहे कि नीम बीमारियो से रक्षा करता है तो यह परम्परा अचानक ही हमे सही लगने लगेगी। मुझे लगता है कि नीम के इस प्रयोग को अन्ध-विश्वास कहना सही नही है।

चलते-चलते

हर वर्ष हरेली के दिन कई संस्थाओ के सदस्य गाँव-गाँव घूमते है और आम लोगो की मान्यताओ व विश्वास को अन्ध-विश्वास बताते जाते है। एक बार एक अभियान के दौरान एक बुजुर्ग मुझे कोने मे लेकर गये और कहा कि छत्तीसगढ की मान्यताओ और विश्वासो को समझने के लिये एक पूरा जीवन गाँव मे बिताना जरूरी है। मुझे उनकी बात जँची और इसने मुझे आत्मावलोकन के लिये प्रेरित किया।

अगले सप्ताह का विषय

क्या गरूड वनस्पति या इसकी फली घर मे रखने से साँप नही आता?

क्यो कहा जाता है कि अमली (इमली) के वृक्ष मे भूत रहते है?

3. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए : कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास?

- पंकज अवधिया

इस सप्ताह का विषय

क्यो कहा जाता है कि अमली (इमली) के वृक्ष मे भूत रहते है?

आम तौर पर यह माना जाता है कि इमली के पेड मे भूत होते है और विशेषकर रात के समय इसके पास नही जाना चाहिये। इस मान्यता को अन्ध-विश्वास माना जाता है और आम लोगो से इस पर विश्वास न करने की बात कही जाती है। चलिये आज इसका ही विश्लेषण करने का प्रयास करे।

प्राचीन ग्रंथो मे एक रोचक कथा मिलती है। दक्षिण के एक वैद्य अपने शिष्य को बनारस भेजते है। वे बनारस के वैद्य की परीक्षा लेना चाहते है। अब पहले तो पैदल यात्रा होती थी और महिनो लम्बी यात्रा होती थी। दक्षिण के वैद्य ने शिष्य से कहा कि दिन मे जो खाना या करना है, करना पर रात को इमली के पेड के नीचे सोते हुये जाना। हर रात इमली के नीचे सोना- वह तैयार हो गया। कई महिनो बाद जब वह बनारस पहुँचा तो उसके सारे शरीर मे नाना प्रकार के रोग हो गये। चेहरे की काँति चली गयी और वह बीमार हो गया। बनारस के वैद्य समझ गये कि उनकी परीक्षा ली जा रही है। उन्होने उसे जब वापस दक्षिण भेजा तो कहा कि दिन मे जो खाना या करना है, करना पर हर रात नीम के पेड के नीचे सोना। और जैसा आप सोच रहे है वैसा ही हुआ। दक्षिण पहुँचते तक शिष्य फिर से ठीक हो गया।

वृक्षो के विषय मे गूढ ज्ञान को जहाँ अपने देश मे पीढीयो से जाना जाता है वही पश्चिम अब इसे जान और मान पा रहा है और लाभकारी गुणो व छाँव वाले वृक्षो पर आधारित ट्री शेड थेरेपी के प्रचार-प्रसार मे लगा है।

आप प्राचीन और आधुनिक चिकित्सा साहित्य पढेंगे तो आपको इमली की छाँव के दोषो के बारे मे जानकारी मिलेगी। आयुर्वेद मे तो यह कहा गया है कि इसकी छाँव शरीर मे जकडन पैदा करती है और उसे सुस्त कर देती है। प्रसूता को तो इससे दूर ही रहना चाहिये। यह भी लिखा है कि उष्णकाल मे इसके हानिकारक प्रभाव कुछ कम हो जाते है। आम लोग यदि इसी बात को कहे तो उन्हे शायद घुडक दिया जाये पर जब आयुर्वेद मे यह लिखा है तो इसकी सत्यता पर प्रश्न नही किये जा सकते। आयुर्वेद की तूती पूरी दुनिया मे बोलती है।

इमली ही नही बल्कि बहुत से वृक्षो की छाँव को हानिकारक माना जाता है। छत्तीसगढ की ही बात करे। यहाँ पडरी नामक वृक्ष मिलता है जिसकी छाँव के विषय मे कहा जाता है कि यह जोडो मे दर्द पैदा कर देता है। राजनाँदगाँव क्षेत्र के किसान बताते है कि खेतो की मेड पर वे इसे नही उगने देते है।

भूत का अस्तित्व है या नही इस पर उस विषय के विशेषज्ञ विचार करेंगे पर यह कडवा सच है कि भूत शब्द सुनते ही हम डर जाते है और उन स्थानो से परहेज करते है जहाँ इनकी उपस्थिति बतायी जाती है। यदि इमली मे भूत के विश्वास को यदि इस दृष्टिकोण से देखे कि हमारे जानकार पूर्वजो ने इमली के दोषो की बात को जानते हुये उससे भूत को जोड दिया हो ताकि आम जन उससे दूर रहे तो ऐसे विश्वास से भला समाज को क्या नुकसान?

शहरो मे मेरी इस व्याख्या पर कई बार लोग कहते है कि चलो हम बहुत देर तक इमली के नीचे बैठ जाते है। देखना हमे कुछ नही होगा। ऐसे प्रश्न तो आपको आधुनिक विज्ञान सम्मेलनो मे भी मिलेंगे जहाँ कैसर विशेषज्ञ के व्याख्यान के बाद लोग पूछ बैठते है कि मै तो सिगरेट पीता हूँ। मुझे कैसर क्यो नही हो रहा? आधुनिक हो या पारम्परिक दोनो ही विज्ञान अपने लम्बे शोध निष्कर्षो के आधार पर अपनी बात कहते है। जरूरी नही है कि सभी व्यक्तियो पर यह एक समान ढंग से लागू हो।

यदि आपकी कुछ और व्याख्या हो तो बताये ताकि आम लोगो के इस विश्वास की अच्छे ढंग से व्याख्या की जा सके।

अगले सप्ताह का विषय

हरेली (हरियाली अमावस्या) मे नीम की डाल घरो मे लगाना अन्ध-विश्वास है या नही?

पीलिया झाडना या उतारना : कितना सही कितना गलत?

2. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?
-पंकज अवधिया
इस सप्ताह का विषय
पीलिया झाडना या उतारना : कितना सही कितना गलत?

यूँ तो देश के विभिन्न हिस्सो मे अलग-अलग प्रकार की विधियो का प्रयोग किया जाता है पर आम तौर पर जब कोई रोगी आता है तो उसे दूधिया पानी से भरे पात्र मे खडे होने के लिये कहा जाता है। उसके बाद उपचार करने वाला कुछ मंत्र पढकर रोगी के शरीर पर हाथ फेरता है। उसके बाद जब उसके सिर से पानी उडेला जाता है तो वह नीचे पात्र के दूधिया पानी से मिलकर गहरा पीला रंग पैदा करता है। रोगी को कहा जाता है कि अब उसका पीलिया (जाँडिस) ठीक हो गया है। रोगी जब पीले रंग को देखता है तो समझता है कि सचमुच मंत्र शक्ति या जडी-बूटी के उपचार से उसका पीलिया ठीक हो गया। यह प्रयोग बडा सरल है।
दूधिया पानी दरअसल चूने का पानी होता है। उपचार करने वाले हाथो मे आम की अंतर छाल का चूर्ण लगाये होते है। इसी चूर्ण को मंत्रोपचार के दौरान रोगी के शरीर पर फेरा जाता है। फिर जब पानी डाला जाता है तो यह चूर्ण पानी के साथ दूधिया पानी तक पहुँचता है और वह पीला हो जाता है। अमीर से लेकर गरीब और सभी तरह के लोगो मे आप इस उपचार के प्रति आस्था देख सकते है। आमतौर पर इसके लिये फीस नही ली जाती और रोगी को कहा जाता है कि स्वेच्छा से जितना देना चाहे दे दे। रोगी या आम जनो को यह राज पता नही होता। आइये अब इस उपचार पर चर्चा करे। इस उपचार का राज जानने वाले इसे अन्ध-विश्वास मानते है और इसे अपनाने वाले को ठग कहते है।
मुझे स्कूल के दिनो की एक घटना याद आ रही है। हमारा एक मित्र हर बार फेल हो जाया करता था। थकहार के उसके पिता उसे रायपुर इंजीनियरिंग काँलेज के एक प्राध्यापक के पास ले गये। उन्होने एक पत्थर दिया और कहा कि इसे रात मे पानी मे डुबो देना और सुबह पानी पी लेना। देखना तुम्हारी मेहनत रंग लायेगी। सचमुच वह पास हो गया। हम लोग भी पत्थर की आस मे उनके पास पहुँचे तो उन्होने राज खोला कि यह तो पीछे मैदान से लाया गया साधारण पत्थर है। इसने तो केवल विश्वास जगाया। पास तो वह अपनी मेहनत से हुआ।

आप अंतरजाल की इस कडी पर जाये तो आपको ऐसे शोध परिणामो की जानकारी मिलेगी जिसमे बिना दवा के लोग ठीक हो गये। उन्हे सादी गोलियाँ दवा वाली गोलियाँ बता कर दी गयी। एक शोध परिणाम बताता है कि इससे सिर दर्द ठीक हो गया। होम्योपैथी मे भी दवा रहित गोलियो के प्रयोग को बहुत महत्व दिया गया है।

आधुनिक चिकित्सा ग्रंथो मे इसे फेथ हीलिंग अर्थात विश्वास आधारित उपचार का एक अंग माना गया है। मानसिक रोगो के उपचार मे इसका काफी उपयोग होता है। इस प्लेसिबो ट्रीटमेंट (यानि दवा रहित गोलियो या इसी तरह का उपचार) का प्रयोग आधुनिक शोधो मे भी होता है। आधुनिक चिकित्सा पद्ध्तियो मे ऐसी गोलियाँ सफलतापूर्वक उपयोग की जाती है। यह बडे ही आश्चर्य की बात है कि कैसे बिना दवा के रोगी ठीक हो जाता है या उसे लाभ पहुँचता है। इसका मतलब यह हुआ कि उसका अपना विश्वास बहुत बडा काम करता है। आपने इसी विश्वास के असर की झलक मुन्ना भाई एमबीबीएस मे भी देखी होगी। कहा भी गया है कि विश्वासम फलदायकम।
तो फिर अब जरा पीलिया झाडने वाले की विधि पर ध्यान करे। अपने को रोगी मान रहा व्यक्ति इस सहज प्रक्रिया से स्वयम को रोगमुक्त समझने लगता है। यह विश्वास निश्चित ही उसकी हालत को ठीक करता होगा जैसे कि प्लेसिबो ट्रीटमेंट के इस लिंक मे बताया गया है। फिर आधुनिक विज्ञान सही और पारम्परिक विज्ञान अन्ध-विश्वास कैसे हुआ? पारम्परिक विज्ञान को तो ज्यादा महत्व मिलना चाहिये क्योकि इसने इस उपचार की महत्ता पीढियो पहले ही जान ली थी। हाँ उस समय विकिपीडीया नही था इस ज्ञान के प्रमाणिक दस्तावेजो को इतनी सरलता से प्रस्तुत करने के लिये।

बतौर सदस्य अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति, रायपुर मुझे कुछ वर्षो पहले छत्तीसगढ मे सरायपाली के भूथिया गाँव जाने का अवसर मिला। वहाँ ऐसे ही पीलिया झाडने वाले के पास बडी संख्या मे लोग जमा थे। हमेशा की तरह समिति ने इसे अन्ध-विश्वास ठहराया। बाद मे अखबारो मे इस दौरे की खबर सुर्खियो मे छपी और हमने खूब वाह-वाही लूटी। पर आज भी यह उपचार उसी रूप मे भूथिया मे जारी है। लौटते वक्त समिति के संस्थापक सदस्य माननीय चन्द्रशेखर व्यास जी से मैने चर्चा की और इसके विज्ञान को जानने की कोशिश की। मै यह जानने व्यग्र था कि यदि यह ठगी है तो सब कुछ जानकर भी सभी तरह के लोग क्यो इतनी बडी संख्या मे आ रहे थे और लाभांवित होने की बात कह रहे थे।
भूथिया के लोगो ने एक राज की बात बतायी कि कुछ समय पहले ब्रिटेन से डाक्टरो का एक दल आया और उसने पूरी प्रक्रिया का फिल्माँकन किया। इसपर ढाई घंटे की फिल्म बनी। दो वर्ष पहले जब मै कोलकाता मे एक अंतरराष्ट्रीय विज्ञान सम्मेलन मे शोध पत्र पढने गया तो विदेशी विशेषज्ञो ने इस उपचार मे गहरी रूचि दिखायी। वे हमारे लोगो की तरह हँसे नही और न ही इसे अन्ध-विश्वास का दर्जा दिया बल्कि भारतीयो के इस उपचार करने के ढंग की प्रशंसा की। ब्रिटेन के एक वैज्ञानिक से मुझे उस फिल्म के बारे मे जानकारी मिली और भूथिया से मिली जानकारी की पुष्टि हुयी। हमे आश्चर्य नही होना चाहिये कि जिस पारम्परिक उपचार को हम अन्ध-विश्वास कहकर उसका मजाक उडाते रहे और अपनी पीठ थपथपाते रहे, कल उसी उपचार को पश्चिम अपनाकर लाभ लेने लगे और हमे इस ज्ञान के पैसे देने पडे। अपने ही देश मे ठुकराये गये भारतीय योग के पेटेण्ट की खबरे तो अब आने ही लगी है।

मैने इस दृष्टिकोण से इस उपचार का विश्लेषण किया है। हो सकता है कि आने वाले समय मे इसकी अलग ढंग से वैज्ञानिक व्याख्या हो। उपचार के दौरान मंत्र पढे जाते है। मंत्रो की महत्ता तो पूरी दुनिया अब जान गयी है। पर चूँकि यह मेरा विषय नही है अत: इस पर मै टिप्पणी नही करना चाहूंगा। आज का विज्ञान चूने के पानी मे खडे होने और पीलिया मे सम्बन्ध को नही जोड पाया है। विज्ञान मे तो नित नयी प्रगति होती है। हो सकता है भविष्य मे इसकी भी व्याख्या हो। विज्ञान खुले दिमाग से काम करता है। पर जिस तरह धर्म के ठेकेदार आम आदमियो से धर्म को अलग कर देते है उसी तरह विज्ञान के भी ठेकेदार होते है जो विज्ञान को अपनी बपौती समझते है। यही दृष्टिकोण हमे आगे बढने और खुलकर सोचने से रोकता है। आप ही बताइये कि आज यदि आम लोगो के विश्वास को बिना वैज्ञानिक व्याख्या किये अन्ध-विश्वास घोषित कर दे और बाद मे आधुनिक शोध इसके महत्व को सिद्ध कर दे तो क्या विज्ञान के ठेकेदार इस अपराध को अपने सिर पर लेने तैयार होंगे?
आप भी अपने विचार बताये ताकि इस पर खुलकर चर्चा हो। मुझे लगता है कि ऐसे अनूठे उपचारो को समझने और बचाने की जरूरत है पर हाँ यदि कोई ठगी करे और बहुत पैसे वसूले तो उस पर कार्यवाही होनी चाहिये। पर यह नियम तो सभी पर लागू है।
चलते-चलते

हमारे देश मे पीलिया का इस तरह से उपचार करने वालो को रोकने के लिये एक कानून है जिसका हवाला देकर हम अपने अभियानो मे गाँव वालो को डराया करते थे। एक बार बेमेतरा मे जब मै अभियान के दौरान आम लोगो से बात कर रहा था तो एक वयोवृद्ध सज्जन ने कहा कि यह देश हमारा है और हमारे लिये ही कानून बना है। यदि देश के बहुसंख्यक इसमे सुधार करना चाहते है तो यह भी सम्भव है। संजीव जी इस पर कुछ प्रकाश डाल सकते है।
जब मैने इस लेख को अपने मित्र को पढाया और उनके विचार माँगे तो उन्होने कहा कि वे भी कई बार दवा रहित इंजैक्शन का प्रयोग करते है और पूरी फीस भी लेते है पर यह ठगी नही बल्कि चिकित्सा की एक कला है। इससे रोगी का भला होता है तो इसमे बुराई क्या है?
पंकज अवधिया
अगले सप्ताह का विषय
क्यो कहा जाता है कि अमली (इमली) के वृक्ष मे भूत रहते है?

नागा गोंड जो जादू से शेर बन जाता था

श्री के. सी. दुबे के पुस्तक में उपरोक्त संदभो पर बिन्द्रानवागढ़ के गांव देबनाई का नागा गोंड का उदाहरण दिया है जो कि शेर के रूप में आकर 08 लोगो को नुकसान पंहुचा चुुका है। और जिसे वर्ष 38 या 39 में ब्रिटिश शासन ने गिरफ्तार किया था। जादू टोना का गहन जानकार और वेश बदलने में माहिर था । और इस बात की प्रमाण तत्कालीन ब्रिटिश शासन के रिकॉर्ड में दर्ज़ भी है। तत्कालीन जॉइंट सेक्रेटरी गृह मंत्रालय भारत शासन श्री जी. जगत्पति ने भी 27/7/1966 को इस पुस्तक मे लिखा था की भिलाई स्टील प्लांट जैसे आधुनिक तीर्थ से 15 मील के भीतर के गावो तक में लोग बुरी आत्माओ की उपस्थिति को आज भी मानते है। जानकारी यहॉं पढ़ें

हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए : कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास ?

देश के अन्य राज्यो की तरह छत्तीसगढ मे भी नाना प्रकार के विश्वास, आस्थाए और परम्पराए अस्तित्व मे है। राज्य मे सोलह हजार से अधिक गाँव है। पीढीयो से समाज इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ को मानता आ रहा है। पर शहरो मे बैठे हमारे जैसे लोग बिना किसी देर इन्हे अन्ध-विश्वास घोषित करने मे नही चूकते है। हम यह भी चाहते है कि इस पर अंकुश लगे। पर क्या यह सही है? इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ का विकास एक दिन मे तो हुआ नही है। ये पीढीयो से चले आ रहे है और इसमे लोगो का गूढ अनुभव शामिल है।
क्या हमारे पूर्वज निरे गँवार थे और क्या हम सब कुछ जान चुके है? जरा सोचिये यदि यही सोच हमने आगामी पीढी को दी तो वे हमे भी ऐसा ही मानेंगे। मुझे लगता है कि इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ के विज्ञान को समझने और समझाने की जरूरत है।
क्या हमारे पूर्वज निरे गँवार थे और क्या हम सब कुछ जान चुके है? जरा सोचिये यदि यही सोच हमने आगामी पीढी को दी तो वे हमे भी ऐसा ही मानेंगे। मुझे लगता है कि इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ के विज्ञान को समझने और समझाने की जरूरत है। हो सकता है कि समय के साथ ये अपना मूल रूप खो बैठे हो और इनका विज्ञान हम तक न पहुँचा हो। संजीव तिवारी जी के लोकप्रिय ब्लाग आरम्भ मे हर सप्ताह इसी पर चर्चा करने का प्रयास मै करूंगा। मै भी आप ही की तरह सीखने की प्रक्रिया मे हूँ। आपके विचार मुझे प्रेरणा देंगे। हर बार एक विषय पर चर्चा कर उसका वैज्ञानिक पहलू सामने रखा जायेगा। मै संजीव जी का आभारी हूँ कि उन्होने मुझे इसकी इजाजत दी है।


इस सप्ताह का विषय

छत्तीसगढ मे ‘झगडहीन’ नामक वनस्पति पायी जाती है। इसके बारे मे कहा जाता है कि इसे घर मे लगाने से झगडा हो जाता है। यह विश्वास है या अन्ध-विश्वास?

मेरे विचार: झगडहीन नामक पौधा वैज्ञानिक जगत मे ग्लोरिओसा सुपरबा के नाम से जाना जाता है। इसका हिन्दी नाम कलिहारी है। यह अत्यंत विषैला पौधा है। इसके कन्दो का छोटा सा टुकडा भी मनुष्य की जान ले सकता है। आपने लिट्टे का नाम तो सुना ही होगा। बीबीसी मे बहुत पहले प्रकाशित रपट के अनुसार उनके लडाके गले मे आत्महत्या के लिये जो केप्सूल बाँधते है उसमे इसी कन्द का उपयोग होता है।
बीबीसी मे बहुत पहले प्रकाशित रपट के अनुसार उनके लडाके गले मे आत्महत्या के लिये जो केप्सूल बाँधते है उसमे इसी कन्द का उपयोग होता है।
आप इसकी विषाक्त्ता का अन्दाज सहज ही लगा सकते है। पर इसके फूल बडे ही आकर्षक होते है। इसके जहर से अंजान लोग फूलो के कारण इसे अपने बागीचो मे लगा देते है। यह पौधा बच्चो और पालतू पशुओ के लिये जानलेवा साबित हो सकता है। मुझे लगता है कि हमारे पूर्वज इसके इस गुण को जानते होंगे। अब ऐसे तो लोग मानने से रहे। इसीलिये शायद झगडे वाली बात जोडी गयी हो। इस बात का इतना असर है कि लोग पीढियो से इसके बारे मे जानते है पर घर मे नही लगाते है। पढे-लिखे लोग इसे अन्ध-विश्वास बता सकते है। पर यदि यह विश्वास आम लोगो की रक्षा कर रहा है तो इसे इसी रूप मे जारी रहने देने मे कोई बुराई भी तो नही है।

झगडहीन के चित्र की कडी
http://ecoport.org/ep?SearchType=pdb&PdbID=6653


पंकज अवधिया

अगले सप्ताह का विषय है पीलीया झाडना: कितना सही कितना गलत ?

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

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