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सरला शर्मा की कहानी : सफेद होता लहू

समय के साथ साथ रिश्‍तों की संवेदनशीलता बदल रही है, संबंधों के बीच नि:स्‍वार्थ प्रेम और भारतीय परिवार की परम्‍परा का मजबूत किला धीरे धीरे ढहने लगा है। देश में बुजुर्ग मॉं-बाप के प्रति बेटा-बहुओं का व्‍यवहार और बृद्धाश्रम में दिन काटते तिरस्‍कृत जीवों की कहानी आप रोज पढ़ते होंगें। अमरीका जैसे गुलाबी स्‍वप्‍नों के देश में संपूर्ण सुख का भोग कर रहे बेटा-बहुओं के द्वारा अपनी ही मॉं को किस तरह भावनात्‍मक प्रतारणा दिया जा रहा है, इसकी झलक आप इस कहानी में देख सकते हैं।
सरला शर्मा, छत्‍तीसगढ़ की प्रखर लेखिका हैं, इनके पिता स्‍व.श्री शेषनाथ शर्मा 'शील' जी छत्‍तीसगढ़ के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन्‍होंनें हिन्‍दी, बंगला एवं छत्‍तीसगढ़ी में लेखन किया है एवं उम्र के इस पड़ाव में भी निरंतर सृजनशील हैं। अंर्तजाल जगत में इनका एक ब्‍लॉग भी है एवं वे फेसबुक व ब्‍हाट्स एप के माध्‍यम से अपनी वैचारिक दखल प्रस्‍तुत कर रही हैं। सरला दीदी नें यह कहानी मुझे बहुत पहले भेजी थी, किन्‍तु समयाभाव के कारण मैं इसे डिजिटलाईज नहीं कर पाया था, अतिथि लेखक के रूप में प्रस्‍तुत हैं उनकी एक कहानी-

सुबह - सुबह फोन की घण्टी फूटी आंख नहीं सुहाती। अरे नहीं, फूटे कान नहीं सुहाती.. पर क्या करू? जानती हॅू कि स्थानीय फोन कॉल हैं.. चलों जिसे जरूरी काम होगा, वह फिर कॉल करेगा ही.. ओह! तीसरी बार फाने ने चीखना शुरू किया, तो बेमन से थोड़ी झुंझुलाकर ही ’हलो’ बोली। अरे बाप रे ..... कान के परदे फट गये ’हलो सरला! फोन क्यो नहीं उठाती।’ आवाज पहचान गई अपूर्वा जैन मेडम थीं आश्चर्य हुआ वो तो अगले महीने आने वाली थी।...
’’हलों जैन मेडम! आप कहां से बोल रही हैं, आप तो यू.एस. गई थी बेटे के पास ...। मेरा कथन समाप्त होने के पहले ही असहिष्णु झुंझलाई हुई आवाज आई ’’हॉ जी अटलाण्टा गई थी, जार्जिया राज्य की राजधानी, व्यापार और पाश्चात्य संस्कृति का केन्द्र, खुबसूरत किन्तु व्यस्त, त्रस्त एक ऐसा शहर जहॉं आदमी को खुद के लिये भी समय निकाल पाना कठिन है... और कुछ..?
मुझे समझ में नहीं आ रहा था, क्या कहॅू सो पूछ लिया ’’अभी कहां से बोल रहीं हैं..?
तीखी आवाज में उत्तर आया ’हार्टस फील्ड जेक्सन अटलाण्टा इन्टरनेशनल एयरपोर्ट दुबई... वहॉ से दिल्ली एयरपोर्ट। अभी रायपुर एयरपोर्ट से बोल रही हॅूं... सीधे तुम्हारे पास आ रहीं हॅू... आज छुट्टी ले लो... बहुत कुछ कहना है तुमसे ... हो सकता है बाद में इतना सब साफ साफ न बता पाऊॅ...।
यह क्या बात हुई? अरे भाई! बेटे के पास से आ रही है... वो तो ठीक है... धनी देश के धनी-मानी नागरिक बन गये बेटे बहू ने सुख सुविधा का इंतजाम जुटाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखा होगा... अपना सुखद अनुभव, वह भी विदेश यात्रा का वर्णन सुनाये बिना रहा नही जा रहा है... वहॉ तक तो ठीक है, पर इस तरह... आनन फानन... विवरण देने की क्या जरूरत है? अब अपना काम धाम छोड़कर जैन मेडम की अगवानी में लगूं... बड़ी... असमंजस मे पड़ गई। किन्तु, कौतूहल, मित्रता, स्त्रियोचित ईर्ष्या सबने मिलकर प्रिंसिपल से छुट्टी तो दिलवा दी...।
करीब दो घण्टे बाद जो महिला खड़ी थी, उसे जैन मेडम कहने में डर लगा। निस्तेज ऑखे, मुरझाया चेहरा, शिथिल पड़ गई मांस पेशियॉ... पीली पड़ गई थीं वो। इन दो महिनों में ही उनकी उम्र दस साल बढ़ गई क्या? सोचनें लगी पुत्रगर्व से गर्विता माता की यह कैसी दशा है? शिष्टाचार वश कुछ बोली नहीं... भीतर आते ही वे सोफे पर धंस गई... पानी का गिलास एक ही सांस में खाली हो गया... सहसा मेरा हाथ पकड़कर रोने लगी... मेरा हाथ उनकी पीठ पर पहुंचा ही था कि भरे गले से बोली... ’सरला! अपने घर में थोड़ी सी जगह दोगी? मरते तक मेरी देखभाल कर सकोगी?’
यह कैसा प्रश्न है? जिसने जाति-धर्म, भाषा बोली, सगे-संबंधी की सीमा पार करके मनुष्यता को जगा दिया? जैन मेडम मुझसे दस - बारह साल बड़ी होंगी, दुनिया देखी, मजबूत इरादों वाली महिला है फिर इतनी अधीरता, इतनी दीनता क्यों? उन्हे शांत करने को बोली, ’’ हॉ...हॉ... मेडम आपका ही घर है, चलिये थक गई होंगी, आखीर बीस, इक्कीस घण्टे की हवाई यात्रा कम तो नहीं होती...चलिये... नहा धोकर, कुछ खा पी लीजिये, फिर आराम से बैठकर बातें करेंगे... आज की छुट्टी ले ली हूॅ...।’
यथासमय बातें शुरू हुई। इस बार मेरी उत्सुकता बढ़ चली थी तो बोली... ’हॉ मेडम। आप दीवान पर लेटे हुये ही अपनी सुनाइये मैं भी सोफे पर आराम से बैठ जाती हॅू। थोड़ी देर मुझे एकटक निहारने के बाद बोली ’कब से कैसे शुरू करू सरला... पिछले दिनों की मानसिक यंत्रणा, ऊहापोह और अनिश्चित भविष्य की आशंका... किस किस का जिक्र करूॅ...? तुम तो जानती हो कि अनुज मेरा बेटा अटलाण्टा की साफ्टवेयर कम्पनी में इंजीनियर है, दो बेटे है उसके...। बच्चों के स्कूल चले जाने पर बहू अकेली पड़ी रहती थी, तो उसने भी किसी गारमेन्ट कम्पनी में सुपर वाइजर की नौकरी कर ली... पैसों की कमीं नहीं रहीं... तो काफी बड़ा घर खरीद लिया...। पर वहॉ नौकर - चाकर तो मिलते नहीं... घर का रख - रखाव, खाना बनाना, घरेलू काम, बच्चों को पढ़ाना फिर नौकरी... आसान तो होता नहीं... बहू चिड़चिड़ाने लगी... थक जाती थी... ऐसे में मेरी याद आई... अकेली पड़ी रहती हॅू तो अब उनके साथ रहूॅ... यहॉ तक तो ठीक था... मैं अनुज को ना नहीं कह सकी आखिर अपनों का साथ इस उम्र में प्रलोभन देता ही है... चली गई...’।
मैंने पूछा ’अकेली कैसे चली गई... इतनी दूर...।’ उन्होने कहा इसके पहले भी जा चुकी थी, तब मि. जैन साथ थे। तब हम दोनों तीन महीने वहॉ रूके थे, तो इस बार अकेली चली गई। वह तो बाद में समझ आया कि यह जाना कुछ और था... बहू ने धीरे से घर का सारा काम समझा दिया... मैं भी व्यस्त हो गई... हॉ बच्चों से बातचीत में भाषा आड़े आती थी...। बेटा भारतीय खाने की फरमाइश करता... मैं खुशी-खुशी बनाती खिलाती...।’
’आप थक नहीं जाती थी, फिर वहॉ के बदलते मौसम में आपकी तबीयत...।’ वाक्य पूरा नहीं कर पाई वे बोल उठी...। ’हॉ ... यही से तो मुश्किल की शुरूआत हुई। आये दिन होने वाली बारिश, बादलों से ढका आसमान, सारे दिन की मेहनत... मेरी तबियत खराब होने लगी... कभी सिर चकराने लगता, तो हाथ पैर का दर्द अलग से... कभी कभी सांस फूलने लगती...।’ जैन मेडम ने बताया।
मैं सोचने लगी उम्र के इस पड़ाव पर शरीर आराम चाहता है बोली ’जैन मेडम ! आपने बेटे बहू से कहॉ क्यो नहीं... वहॉ तो अच्छे डाक्टर अच्छी दवाए मिल जाती है।’
धीमे से मुस्कुरा कर जैन मेडम ने कहॉ ’मॉ हूॅ ना... बेटे बहू की व्यस्तता, दिन भर थके हारे, घर लौटे बच्चों से अपना दुखड़ा रोकर उन्हे तकलीफ क्यां दूॅ यही सोचती थी...।
इसी बीच एक दिन बहू को एक नया विचार आया बोली ’मम्मी! आप तो बोर होती होंगी, ऐसा कीजिये कि कम्प्यूटर पर स्काइप पर जाकर हिन्दी पढ़ाने का काम शुरू कर दीजिये। एक घण्टे के लेक्चर का 300 डालर मिलेगा... काम भी होगा कुछ आमदनी भी हो जायेगी...।’
मेरे ना नुकुर करने पर बेटे ने सुझाव दिया - डरिये मत, गूगल में जाकर सर्च करेंगी तो भूले भटके प्रसंग याद आ जायेंगे, कोई कठिन नहीं है...।
’’जैन मेडम आपने बेटे से पूछा नहीं कि घर बैठे... बिना विद्यार्थियों के पढ़ाने का काम कैसे होगा।’’ मैने कहा तो - उन्होने बताया कि वहॉ पर इसे लांग डिस्टेन्स लेक्चर कहते है...।
आखिर... जैन मेडम ने वहॉ - बेटे बहू की खुशी के लिये यह भी शुरू कर दिया... कुछ ही दिनों में उन्हें लेक्चर देना अच्छा लगने लगा पर कम्प्यूटर पर लगे रहने से घर का काम करने को समय नहीं बचता था और वह थक भी जाती थी। बहू का मुॅह फूलने लगा। सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि वहॉ जैन मेडम का मेडिकल इंश्योरेंस तो था नहीं, वहॉ तो डॉक्टरों की फीस बहुत ज्यादा है फिर महंगी दवाइयों का खर्च अलग से... दुनियादार बहू को यह खर्च गवारा नहीं था। देर रात गये... पानी पीने उठी जैन मेडम ने सुना बहू कह रही थाी। ’डायमण्ड मंगलसूत्र तो वह लाई नहीं, जो कपड़े लाई हैं वह भी ढंग के नहीं हैै, वहॉ अकेली रहती है, कोई खर्च तो है नहीं, पैंसों का करती क्या है, सोची थी यहीं रख लेगे, थोडी मदद हमारी भी हो जायेगी वह भी नहीं हो पा रहा है। इनकी दवाओं का खर्च अलग से... न हो इन्हे वहीं भेज दो...।’
बहू के विचारों ने जैन मेडम के कानों मे ताले लगा दिये। बेटे ने क्या कहा - सुन लेती तो... रही सही कसर पूरी हो जाती। पर मेरा सोचना सही नहीं था... चार दिनों बाद बेटे का तीखा स्वर सुनाई दे ही गया ’रूचि! भूलो मत की मैं मम्मी का इकलौता बेटा हूॅ मुझे ही उन्हे देखना है फिर अभी तो उन्ही के कमाये डालर हमारे एकाउंट में जमा है, भूलो मत की मम्मी ही तुमको पसंद करके लाई थी, वह भी बिना दान दहेज के...।’
अनुज आगे कुछ और कहता कि झमक कर रूचि ने कहा ’’कौन सा उपकार किया था, वे अच्छी तरह जानती थी कि पढ़ी लिखी हॅू विदेश में भी चार पैसा कमा सकूंगी और उनके बेटे का घर भी संभाल सकूंगी...।’’ ठीक है निभाइये अपनी जिम्मेदारी... वहॉ भी तो वृद्वाश्रम खुल गये है... वहीं रखिये... पैसे आप दीजिये... मैं मना नहीं करती... कम से कम हम तो यहॉ चैन से रह सकेंगें।’’
अवाक रह गई मै... तभी जैन मेडम की सिसकियां कान में पड़ी। मेरे पास तो सांत्वना के शब्द भी नहीं थे... क्या कहती? चुपचाप उनके हाथ को थपकती रही... कभी कभी स्पर्श भी भाषा बन जाती है... मौन मुखर हो जाता है...। धीरे धीरे मेडम शांत होने लगी...।
आखें पोंछकर बोली... ’’सरला! अकेली विधवा मॉ इस उम्र में घर में गर्ल्स हॉस्टल चला कर कैसे जीवन काट रही है, इसकी चिन्ता नहीं है, बेटे बहू हो तकलीफ ना हो इसलिये कभी उनसे कुछ मांगा नहीं... लहू का रंग सफेद कैसे हो गया... कब हो गया?’’ सात समुंदर पार की दूरी मॉ बेटे के बीच की दूरी कब बन गई? संबंधों की उष्मा ठण्डे प्रदेश में पहुंच कर ठण्डी हो जाती है क्या? जन्मभूमि से दूरी जननी जनक से भी दूरी पैदा कर देती है, यह तो नहीं सुना था। मैं सोचने लगी जैन मेडम के हृदय में जमी, दुख की शिला बोलने पर ही पिघलेगी... तो सुनती रही...।
वे फिर बोलने लगीं ’इस तरह तो वे हजारों बूढे़ मां बाप जो अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिये उन्हे विदेश भेजकर खुश हाते है, गर्व से सिर ऊॅचा कर चलते है, अपने बुढ़ापे के प्रति निश्चिंत होते है, उन सबका गर्व, आशा, भरोसा सब बिखर जायेगा। आसन्न मृत्यु की पदचाप सुनते ये वृ़द्ध दम्पति अपने ही बच्चों की अर्थ लोलुपता की हुंकार सुनते, मृत्यु की कामना करते शेष जीवन बितायेंगे। चिन्ता इस बात की भी रहेगी कि जो पहले जायेगा वह चिता में जलने से पहले चिता में जलेगा कि जो पीछे छूट रहा है, वह किसके सहारे जियेगा? पीछे छूटने वाला साथी आगामी अकेलेपन से डरा सहमा, बिछुड़े साथी का शोक भी ठीक से मना नहीं पायेगा, आंसू बहे इसके पहले ही भविष्य की चिन्ता ऑखों को मरूस्थल बना देगी। रिश्तों की भावनाओं की, पारिवारिक जिम्मेदारियों की कैसी भयावह सच्चाई सामने आ रही है?
मैं सोचने लगी इस स्थिति में वृद्धाश्रमों की स्थापना कितना जरूरी हो गया है? समाज सेवी संस्थायें, हमारा प्रशासन इस समस्या को कब, कैसे सुलझायेगी। लंबी सांस खींचकर जैन मेडम ने कहा, ’’सरला! आज प्रतिभावान युवा वर्ग का पलायन तो हो रहा है, आस-पड़ोस, दूर ही दराज के क्षेत्रों में भी युवा वर्ग बेरोजगारी की मार से बचने विदेशों की ओर पलायन कर रहा है। इसके लिये किसे दोष दें... आर्थिक उदारीकरण, बाजारवाद, उपभोक्तावादी संस्कृति, कौन जिम्मेदार है...?
मैने कहा ’नहीं, जैन मेडम! सिर्फ भारतीय परिवार नहीं सारा संसार इस दर्द से अछूता नहीं बचेगा, संवेदनाहीन समाज में भावनाहीन किन्तु, हाड़ मांस के चलते फिरते रोबोट ही रह जायेंगे..। मानवीय मूल्यों का विनाश समस्त मानवजाति को अंधेरों की ओर खींच जे जायेगा... दुख इस बात का है।’
जैन मेडम ने कहा ’तुम ठीक कहती हो दर्द का यह सैलाब नाते रिश्ते परिवार सबको बहा ले जायेगा... तब क्या होगा?’
जैन मेडम को आराम करने को कहा, उनकी ऑखे मुंदने लगी... पर मेरी ऑखे खुली थी, सोचने लगी... नहीं... मेरे मन में असंख्य प्रश्न नागफनी की तरह उग आये थे, जिनकी चुभन मेरी चेतना को लहूलुहान कर रही थी। युवा वर्ग का इस तरह परदेशी होना... परिवार, समाज और देश के लिये कितना भयावह है, असंख्य असहाय जर्जर वृद्ध स्त्री पुरूषों वाला भारत तब किस दिशा में कैसे और कितनी प्रगति कर सकेगा...? मानती हॅू, लहू का रंग सफेद होने लगा है।
-सरला शर्मा, दुर्ग

हमारी अर्थ व्यवस्था में चीनी घुसपैठ

आज हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 278.6 अरब डालर है, जो छह से सात माह के आयात के लिये पर्याप्त है। जबकि 1991 में यह 60 करोड डालर तक गिर गया था, ठीक है किन्तु कुछ नकरात्मक सोचों पर भी एक नजर डालनी होगी। पहला मुद्रा के मोर्चे पर तूफान आने के संकेत, दूसरा सिकुड़ता औद्योगिक उत्पादन, कम होता निवेश, तीसरा मुद्रा स्फीति की लगातार ऊंचीं दर। इन सबका असर मध्यम वर्ग पर विशेष रूप से पड़ रहा है।

इस विषम परिस्थिति में सिकुड़ते औद्योगिक उत्पादन का एक प्रमुख कारण भारतीय बाजार में चीनी वस्तुओं की बहुतायात भी है, वह माल जो सस्ते में मिलता है, यही है हमारे बाजारों के द्वारा हमारी अर्थव्यवस्था पर चीनी घुसपैठ। मुझे एक पंक्ति याद आ रही है - ’’ बात निकली है तो दूर तलक जायेगी ....................’’ जी हॉं कुछ पुरानी बातें याद आयेंगी कुछ नये संदर्भो में...।

साफ्टवेयर, हार्डवेयर और इलेक्ट्रानिक्स के क्षेत्र में चीन शुरूआती दौरे से ही भारत का प्रतिस्पर्धी रहा है। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा प्रगति के लिये आवश्यक भी है किन्तु चिन्ता तब शुरू हुई जब चीन ने हमारे बाजारों में अपने उत्पाद खपाना शुरू किया। आपकों याद दिला दूं आजकल त्यौंहारों का समय है, बाजार जाइये वहॉ आपको राखी, गणेश, लक्ष्मी की मूर्ति, बल्बों की झालर भी चीन की मिल जायेगी, वह भी किफायती दरों पर।

मोबाईल, पेन, कैंची, खिलौने, जूते, कपड़े आदि से लेकर मिल्क प्रोडक्ट यानि दूध पावडर, चाकलेट आदि भी आसानी से मिलेगा। वह भी सिर्फ शहरी बाजारों में ही नहीं सूदूर गांवों के साप्ताहिक बाजारों में भी। रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाली चीजें बहुतायात से मिल जाती है। जाहिर सी बात है कि अन्य उत्पादों की तुलना में ये काफी सस्ती होती है तो आम जनता इन्हे खरीदती है, वो बात दूसरी है कि चीनी उत्पाद एक बार खराब हुए तो उसे सुधारने की कोई गुंजाईश नहीं रहती, क्योंकि आवश्यक कलपुर्जे हमारे यहॉ उपलब्ध नहीं होते, परिणाम यह कि हम उसे फेंकने पर विवश हो जाते है पर सस्ते का आकर्षण फिर हमें वहीं खींच ले जाता है। यही है चीन की दूर दृष्टि Use and throw  ताकि उपभोक्ता उनकी चीजें बार बार खरीदे। मुद्रा लाभ तो चीन को ही होगा।

आज स्थिति यहॉ तक पहुंच गई है कि बाजार में 30 % से 40 % वस्तुए चीन की पाई जाती है और हमारे देश से पूंजी का पलायन बदस्तूर जारी है तो दूसरी क्षति यह है कि भारत में राजस्व की भारी कमी देखी जा रही है। भारतीय घरेलू उत्पादों, लघु उद्योग धंधों पर इसका असर दिखाई पड़ने लगा है। भिवंडी और थाणे के आसपास 60% उद्योग बंद हो चुके है। वे चीनी वस्तुये आयात करने में लग पड़े है। स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाये इसके पहले कोई ठोस कदम उठाना जरूरी हो गया है।

इतिहास साक्षी है अंग्रेज व्यापारी बनकर ही भारत आये थे। पहले उन्होने हमारे बाजार पर कब्जा किया। अपने उत्पादों की खपत के लिये हमारे बाजारों का उपयोग किया फिर ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई, दुष्परिणाम आप सब भूले नहीं है, कोई भी देश किसी दूसरे देश पर आधिपत्य जमानें के पहले उसके बाजार पर कब्जा करता है, उसकी अर्थ व्यवस्था पर कुठाराघात करता है। हम पहले भी ठगे जा चुके है, अतीत की परछाई हम वर्तमान पर पड़ने नहीं देंगे, जगमगाते भविष्य को धूमिल नहीं होने देंगे।

चीन की बाजारवादी नीति आज की उपभोक्ता संस्कृति की सहायक है। इसका असर हमारी अर्थ व्यवस्था पर ही नहीं जन स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगा है। चीन से आयातित खिलौनों एवं अन्य उपकरणों में रंग रोगन के लिये सीसे का प्रयोग घातक स्तर की सीमा पार कर गया है। खाद्य वस्तुओं में ’मेलामाइन’ नामक रसायन पाया गया है, जो कोयले में रासायनिक रूप में मौजूद होता है। प्रोटिन की मात्रा बढ़ाने के नाम पर इसका उपयोग किया जा रहा है, इसका असर उपभोक्ता के पाचन तंत्र पर और श्वसन क्रिया पर पड़ता है। सिंगापुर में स्थानीय परीक्षण करने के बाद चीन से आयातित मिल्क प्रोडक्शन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, विश्व के कई अन्य देशों ने भी यही रास्ता अपनाया है।

आज जब भारत परमाणु परडुब्बी बनाने में विश्व के छठवें स्थान पर है। 142 लाख किलोमीटर का रोड नेटवर्क भारत में है, जो विश्व का दूसरा बडा रोड नेटवर्क है तो स्पष्ट है कि हमारे देश में ना तो तकनीकी तरक्की कम हुई है ना ही कारखानों की कमीं है। प्रतिवर्ष लाखों विद्यार्थी तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर रोजी रोगजार में लग रहे है। उद्योग धंधों की भी कमी नहीं है, उत्पादन भी यथेष्ठ हो रहा है, यातायात की असुविधा सड़कों के जाल से दूर कर दी है फिर क्यों चीनी वस्तुओं से बाजार भर गया है? क्या करे?

सर्वप्रथम तो सरकार को कड़ा रूख अपनाना होगा कि चीनी वस्तुओं का भारत में प्रवेश बंद हो सके। दूसरे जो वस्तुयें आती है उन पर इतना राजस्व लगाया जाय कि हमारे देश के उत्पाद से उनकी कीमत कम ना हो।
चीनी वस्तुओं के बहिष्कार के लिये हमें अतीत के पन्ने पलटनें होगे, याद करना होगा जब विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिये राजनेताओं के आह्वान पर आम जनता ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। वही जनचेतना जागृत करना है, समस्या हमारी है, तो समाधान भी हमें ही खोजना पड़ेगा।

जन सामान्य के मन से चीनी वस्तुओं के प्रति मोहभंग जरूरी है। इसके लिये स्वदेशी प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना को बल देना होगा। बहिष्कार के लिये संसद तक जाने अथवा सड़कों पर प्रदर्शन करने के पहले हम खुद से शुरूआत करें, निर्णय ले कि हम चीनी वस्तु ना खरीदेंगे, ना उपयोग करेंगे, ना ही किसी को उपहार में देंगे, ना ही किसी से चीनी वस्तुओं का उपहार लेंगे। महत्त् उद्वेश्य के लिये स्व नियंत्रण आवश्यक है।

प्रायः युवा वर्ग सस्ते मोबाईल, फैशनेबल जूते, कपड़े आदि के प्रति ज्यादा आकर्षित होता है इसलिये स्कूलों, कालेजों में चीनी वस्तुओं के बहिष्कार सबंधी व्याख्यान आयोजित किये जावें। बाजारों, चौराहों में भी लोगों को जुटाकर समझाइश दी जावे।

बैनर, पोस्टर लगाये जावें। समाज सेवी संस्थायें आगे आये ताकि जन आन्दोलन किया जा सके। समय की धारा को बदलने का काम जन आन्दोलन से ही संभव होता आया है। जनगण की उर्जा समन्वित होगी तभी आसन्न संकट को टाला जा सकेगा।

कलाकारों, रंगकर्मियों, साहित्यकारों से अनुरोध है वे इस मुहिम में एकजुट हों। समाज को दिशानिर्देश देने की प्रकृति प्रदत्त क्षमता का प्रयोग करें।

जरा सोंचें - चीनी उत्पाद भारतीय बाजार में इसी तरह अपना आधिपत्य बढ़ाते गये तो हमारे घरेलू उत्पादों की खपत कहॉ और कैसे होगी? उद्योग धंधे बंद होने लगें तो लाखों लोग बेरोजगार हो जायेंगे। अर्थव्यवस्था चरमरा जायेगी विचारणीय यह भी है कि हमारी ही पूंजी अपने देश ले जाकर, वे हथियार बनाते है और हमारे ही सीमाप्रान्तों पर आक्रमण कर उन्हीं हथियारों से हमारे देशभक्त, जांबांज सैनिकों पर आक्रमण करते है। हमारी पूंजी का निवेश हमारे देश की विकास योजनाओं में हो, हमारे विरूद्व हथियार बनाने में नहीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ऐसे संदर्भो के लिये ही लिखा है -

’’ का बरसा जब कृषि सुखाने
समय बीति पुनि का पछताने ’’

लेखिका
सरला शर्मा
पद्मनाभपुर, दुर्ग (छ.ग.)

मुकुन्द कौशल के छत्तीसगढ़ी उपन्यास 'केरवस' के विमोचन अवसर पर सरला शर्मा का आधार पाठ

उपन्यास कहानी का वृहत रूप है और जीवन की गाथा है. समाज, साहित्य, संस्कृति और समय ये चार आधार स्तंभ होते हैं उपन्यास के. छत्तीसगढ़ी उपन्यास भी इससे अछूता या अलग नहीं है. अब तक लगभग 28 उपन्यासों का प्रकाशन हो चुका है, निश्चित ही उनमें से कुछ उपन्यास छोटे, मंझोले, आकार में छोटे हैं वो बाद की बात है. अभी हम शुरू करते हैं अपनी बात हीरू की कहिनी से, हीरू की कहिनी के बाद एक लम्बा अंतराल रहा और तब 1969 में दियना के अंजोर श्री शिवशंकर शुक्ल जी का उपन्यास आया और उसके बाद एक और उपन्यास आया चंदा अमरित बरसाईस जिसके लेखक हैं, लखन लाल गुप्त. इस बीच और भी उपन्यास आते रहे परन्तु इन दोनों उपन्यासों नें छत्तीसगढ़ी उपन्यासों में मार्गदर्शन का कार्य किया और फिर उपन्यास की यात्रा चलती रही. हम देखते हैं कि इस यात्रा में से घर के लाज से लेकर समय के बलिहारी तक चार उपन्यास प्रकाशित होकर आए है, क्योंकि ये चारों उपन्यास एक स्वप्नदृष्टा देशप्रेमी समाज सुधारक केयूर भूषण के स्वप्न भंग के दस्तावेज हैं. इसके बाद उपन्यास की दुनिया में डॉ.परदेशीराम वर्मा का उपन्यास आवा आया. आवा में गुरू घासीदास और महात्मा गांधी के दर्शन के समुचित सटीक विश्लेषण के साथ ही साथ बदलते हुए घटनाओं का देश परिवेश का सफलतापूर्वक चित्रण इस उपन्यास में किया गया है. आवा 2003 में रविशंकर विश्वविद्यालय के एम ए हिन्दी पूर्व के पाठ्यक्रम में रखा गया.

स्वतंत्र भारत के साथ साथ उसके विकास योजनाओं के और बदलते राजनैतिक परिवेश, सर्वशिक्षा अभियान उन्नत कृषि योजनायें, आदि के साथ साथ प्राचीन मूल्यों परम्पराओं संयुक्त परिवार स्नेह सौहाद्र को लेकर जो उपन्यास आपके हाथो में है उस उपन्यास का नाम है माटी के मितान, सही अर्थों में यह माटी का मितान है. इसमें पाचीन सांस्कृतिक केन्द्र रतनपुर, मल्हार की गाथा है तो इतर प्रांतों से आए हुए देवार, डंगचघहा, सबरिया आदि जातियों का आगमन उनका निवास उनका सामान्जस्य छत्तीसगढ़िया संस्कृति में आपको इस उपन्यास में मिलेगा मल्हार, रतनपुर की पुरातात्विक, सांस्कृतिक विशेषता भी वर्णिंत है. यह उपन्यास के चारों आधार स्तंभों में सुदृढता पूर्वक टिका हुआ है, इस उपन्यास की लेखिका हैं सरला शर्मा.

उपन्यास की यात्रा चलती रही और अभी कामेश्वर पाण्डेय का उपन्यास तुहर जाए ले गियां पाठको तक पहुचा, इस उपन्यास की भाषा को गुरतुर बोली भाखा कहने को विवश होना पड़ता है. और इस उपन्यास में खनिज संपदा का नैतिक अनैतिक दोहन, भूमि अधिग्रहण, कृषि योग्य भूमियों का कारखानों में समाते जाना और औद्यौगीकरण की विभीषिका झेलता हुआ किसान, तेजी से बदलते सामाजिक मानदंडों के साथ साथ भूमि अधिग्रहण के मुआवजे की रकम पाने के लिए दर दर भटकता किसान अथवा भूमि अधिग्रहण के बदले नौकरी की आस में निर्धारित आयु सीमा को पार करता हुआ युवक, निराशा के अंधेरे में खोने लगा है. धान के कटोरे छत्तीसगढ़ के पर्यावरण पर भी कामेश्वर पाण्डेय जी नें अपनी लेखनी चलाइ है और यह उपन्यास तुंहर जाए ले गिंया छत्तीसगढ़ी उपन्यासों में अपना एक स्थान निश्चत रूप से रखता है.

विद्वतजन आज जिस उपन्यास का विमोचन हुआ है उसके लेखक हैं लब्ध प्रतिष्ठि साहित्यकार श्री मुकुन्द कौशल. वे परिचय के मोहताज नहीं हैं क्यों, क्योंकि उनकी सारस्वत साधना विगत पचास वर्षों से जारी है. बहुत पहले एक लालटेन जली थी जो अब तक जल रही है आैर जलती रहेगी. छत्तीसगढ़ी काव्य में उन्होंनें गज़ल को एक नया मुकाम दिया है.

इस बार वे साहित्यानुरागियों के समक्ष केरवस उपन्यास लेकर उपस्थित हैं, आशा है आप सब उनकी पूर्व कृतियों की तरह ही इस उपन्यास का स्वागत करेंगें. कोस कोस पर बदले पानी और चार कोस पर बानी, इस बात का आशय आप सब लोग जानते ही हैं. और सब मानते भी हैं. इसी परिपेछ्य में मैं विनम्रतापूर्वक आप लोगों से कहना चाहूंगी कि छत्तीसगढ़ में कालिख अथवा धुये की कालिमा को कहीं केरवछ कहते हैं और कहीं कहीं केरवंस कहा जाता है. अभी तक छत्तीसगढ़ी में प्रकाशित उपन्यासों को ध्यान से पढ़ने पर यह बात स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि हिन्दी गद्य के विधाओं को छत्तीसगढ़ी में भी ज्यों का त्यों अपनाया गया है. मेरा इशारा है कि उपन्यास के तत्व हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान है, इस दृष्टि से केरवस को देखते हैं, सबसे पहले हमारा ध्यान आकर्षित होता है संकलन त्रय की ओर,  गांव के ग्रामीण संस्कृति पर विकास धारा का प्रभाव, वर्णित घटनायें काल्पनिक नहीं लगती. जब इस उपन्यास को पढेंगें तो पायेंगें कि इसका 80 प्रतिशत घटनायें सत्य हैं, मात्र 20 प्रतिशत कल्पना है, यह इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत है. इसके मध्य है नवनिर्माण की समग्र प्रक्रिया जिसका संदेश अनुगूंजित होता है व्यक्ति की इच्छाशक्ति अर्थात वयक्तिक इच्छाशक्ति अगर सामूहिक इच्छाशक्ति में दब्दील हो जावे परिवर्तित हो जावे तो वो जो उद्देश्य है वह महत्वपूर्ण हो जाता है और तब असंभव शब्द बौना लगने लगता है. ये मध्य है केरवस का.

अब उपन्यास का उद्देश्य देखिए किसी भी गांव के विकास के लिए जागरूकता जरूरी है और वह भी किसान युवा और महिला. तीनों वर्गो में अगर जागरूकता समान रूप से आयेगी एक साथ आयेगी बर्शते प्रशासन का सहयोग मिलेगा, बेल छांनी में तभी चढ़ेगी. आधुनिक क्रातिकारी विचारों के साथ अपनी सांस्कृतिक परम्परा और रीति रिवाजों की रक्षा करते हुए जो विकास किया जाता है सच कहें तो संपूर्ण विकास उसी को कहते हैं. मानवीय मूल्यों की अवहेलना करके न समाज, न व्यक्ति और ना ही स्थान किसी भी प्रकार की उन्नति कर सकता है ना कर पायेगा. सत्ताधारी वर्ग का सहयोग और आर्थिक अवलंबन यदि मिल जाए तो छत्तीसगढ़ के गांव समूचे देश के लिए प्रगतिशील गांवों के मिसाल बन जायेंगें. यह कहते हैं मुकुन्द कौशल अपने उपन्यास केरवस के माध्यम से.

अगला तत्व है कथोपकथन, संक्षिप्त, सारयुक्त, सहज भाषा में कथोपकथन किसी भी कथानक को आगे बढ़ाने में विशेष भूमिका निभाते हैं तो दूसरी विशेषता केरवस उपन्यास के श्रृंगार युक्त कथोपकथन भी गरिमामय है. अंतरंग कथोपकथनों में भी कहीं किसी भी जगह मर्यादा का उलंघन नहीं मिलता. यह किसी उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता होती है. कि वह मर्यादा में रह कर श्रृंगार को सिर्फ इशारे से कह दे. छत्तीसगढ़ी भाषा के शब्दों को प्रोत्साहन देने वाले कथोपकथन लेखक के भाषा प्रेम की दुंदुभी बजाते दिखाई देते हैं. किसी भी कृति का कथोपकथन पात्रों के द्वारा हम तक पहुंचता है तो वह अविश्मरणीय हो जाता है. उसमें यह मैदानी इलाके की भाषा है, या उपर राज की भाषा है या खाल्हे राज की भाषा है या उपर नीचे खाल्हे का भेद मिट जाता है. और तब हम कहते हैं कि वो भाषा संवेदनाओं का अनुभूतियों का सिर्फ माध्यम नहीं है. और यह विशेषता हमको कौशल जी की भाषा में मिलती है.

मित्रों किसी भी कृति का मेरूदण्ड होती है उसकी भाषा, यहां भी व्यतिक्रम नहीं हुआ है, लेखक मुकुन्द कौशल उपन्यास की भाषा के प्रति सजग हैं. तो पात्रानुसार भाषा का प्रयोग उनकी निजी विशेषता है. लेकिन प्रयुक्त भाषा रायपुर दुर्ग राजनांदगांव में व्यवहरित छत्तीसगढ़ी है, लेखक नें माना है कि भाषा छत्तीसगढ़िया प्रवृत्ति और प्रकृति का प्रतिनिधित्व करती है. इसीलिए कौशल जी नें गांव के साधारण किसान, सुखीराम भजनहा. सामान्य से किसान के द्वारा छत्तीसगढ़ी की प्रसिद्ध गीत की पंक्तियां गवाइ है, वो पंक्तियां जो आपको सत्तर के दसक में लेजायेंगी. 'मोर भाखा संग दया मया के सुघ्घर हवय मिलाप रे अइसन छत्तीसगढ़िया भाखा कउनो संग झन नाप रे'. यह स्मरणीय है. एक बात और है कि यही वह गीत है जो युवक विशाल का हृदय परिवर्तन करता है और वो प्रतिज्ञा करता है कि वह चिट्ठी भी लिखेगा तो छत्तीसगढ़ी में लिखेगा. अन्यान्य गीतों का उद्धरण दिया गया है और तब ऐसा लगता है कि इन गीतों नें उपन्यास को नगीनों से जड़ दिया है. याद आता है, आप लोगों को भी याद आता होगा खासकर यह अगस्त का महीना है कि बंकिम चंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास आनंद मठ में एक गीत गाया गया था वंदेमातरम. वो वंदेमातरम जो नाभी से ब्रम्हताल की यात्रा कर नाद ब्रम्ह का स्वरूप ग्रहणकर ता है और आज हमारा वो राष्ट्र गीत है. किसी उपन्यास में किसी विशेष गीत को जागरण गीत के द्वारा जागरण गीत बना देना है.

अभी एक नये दिशा की ओर आपको लिए चलते हैं उपन्यास के पात्र एवं उनका चरित्र चित्रण, तो पात्रों के चरित्र चित्रण में हम यह पाते हैं कि उनके पास समस्यायें हैं, पर उनके पास समाधान भी हैं इसीलिये तो एक अंधियारपुर नाम का गांव आज उजियारपुर के नाम से जाना जाता है. यही तो कौशल जी के पात्रों की विशेषता है. उनका प्रमुख पात्र है किसान. बहुत सारे करीब करीब दो दर्जन के आसपास पात्र हैं इसमें परन्तु समस्याओं का समाधान इतने ही से तो नहीं हो गया. कभी अकाल पनिहा तो कभी सूखा, क्या करें किसान तब समाधान खोजा गया क्या, अतिरिक्त आमदनी के लिए सब्जी भाजी की खेती की जाए, फूलों की खेती की जाए अतिरिक्त आमदनी होगी घर खुशहाल होगा. जैसे ही यह बात ध्यान में आई तो एक किसान जोर से गा उठा 'धर ले रे कुदारी गा किसान आज डिपरा ला खन के डबरा पाट देबो रे'. और जब डिपरा को खन के डबरा पाट दिये तो उस डबरा में फूलों की महक आपको मिलने लगी . ध्यान दीजिये आजकल दुर्ग जिले के इधर उधर आसपास फूलों की कितनी खेती हो रही है, सब्जियॉं उग रही हैं.

मालगुजार इस उपन्यास का एक प्रमुख पात्र है, जो शोषक वर्ग का प्रतिनिधि है, सत्ता का हस्तांतरण वह नहीं चाहता. विकास की धारा से जुड़ने में उसकी हेठी होती है, मालगुजारी का दंभ और आतंक बरकरार रखने के लिए वह नैतिक और अनैतिक का भेद भूल जाता है. उपन्यास के अंत में यह दर्शाया गया है कि मालगुजार मरा नहीं है, आम उपन्यासों में आप यह पाते हैं कि जो विलन होता है वो मर जाता है, जेल चला जाता है आदि. कौशल जी कहते हैं, यही कौशल जी की कुशलता है कि उन्होंनें उस पात्र को मरने नहीं दिया. वो पात्र कहीं चला गया है, क्यूं. भावी पीढ़ी सर्तक रहो ये शोषक वर्ग का प्रतिनिधि ये सामंती प्रवृत्ति फिर वापस आ सकती है कभी भी किसी क्षण. और आपको उसका सामना करना पड़ेगा. क्यों क्योंकि भस्मासुर हो या रक्तबीज हर युग में रूप बदलकर आते रहे हैं आते रहेंगें.

चंदेल गुरूजी जैसे स्वप्नदृष्टा आज भी हैं जो समाज के लिए जीते हैं. उनकी शुभाकांक्षी दृष्टि अपने पराये से परे है ऐसे परिपक्व मानसिकता वाले पात्रों की आवश्यकता हमारे समाज को, हमारे छत्तीसगढ़ को आज भी है जो छत्तीसगढ़ की विकास की धारा को आगे बढाये. यहां का युवा वर्ग प्रगति करेगा आगे बढ़ेगा.

बिलसिया वो महिला पात्र है जिसके जन्म का इतिहास उसके धाय मां को भी नहीं मालूम परन्तु अपनी ममता बिखेरती वो पालनहारिणी धाय मां कब माता का रूप ग्रहण कर लेती है उसे खुद नहीं मालूम. बिलसिया के संवेदनाओं के चित्रण में लेखक को बड़ी सफलता मिली है. बड़ी अच्छी बात उन्होंने लिखी है कि आर्कषण प्रकृति प्रदत्त गुण है जिससे स्त्री और पुरूष समान रूप से प्रभावित होते हैं यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. किन्तु हाँ हम मर्यादा का उलंघन चाहे जिस पक्ष से हो वह कदाचार की संज्ञा से ही अभिहित होगा. केजइ दूसरी महिला पात्र है जिसे दैहिक भौतिक एश्वर्य की कोई लालसा नहीं है. वो परिस्थिति से समझौता करके जीना जानती है. चाहे वह मालगुजार का घर हो या सामान्य किसान का. इस पात्र के मनोविश्लेषण में लेखक को समुचित विस्तार देना था. क्योंकि इस पात्र के मनोविश्लेषण के विस्तार के साथ ही एक स्वस्थ सहज नैसर्गिक जीजिविषा को भाषा मिल जाती. थोड़ी सी ये कमी हमें अखरती है. उतश्रृंखलता को प्रश्रय ना तो केजई ने दिया है और ना ही सर ने, ना ही मोंगरा ने. संबंधों की पारदर्शिता का निर्वाह जिस पारदर्शिता के साथ यहां किया गया है वो आगे आने वाले उपन्यासकारों के लिए एक मिसाल कायम करेगा. ऐसा मुझे विश्वास है.

उपन्यास का उपसंहार बहुत आकर्षक है जो किसी भी रचना को पूर्णता के साथ साथ भव्यता भी प्रदान करता है. मुख्य केन्द्र तो चार ही हैं वंचित, वंचक, शोषित, शोषक, प्रकृति, पुरूष, संपन्न व विपन्न. वस्तुत: मानव समाज के विभाजन का मूल आधार भी यही है परन्तु कर्मप्रधान विश्व करि राखा. आज के सामाजिक आर्थिक उत्थान का मूलमंत्र हे, पुश्तैनी धंधो के दिन लद गए. आज कोई भी व्यक्ति अपनी रूचि और परिस्थिति के अनुसार आजीविका का संसाधन जुटाने लगा है. और यह परिवर्तन स्वागतेय है. विकास की गाथा तब तक अधूरी है जब तक आम आदमी की रोजी रोटी का बंदोबस्त ना हो जाए. और आम आदमी तथा श्रमिक वर्ग नें शिक्षा के महत्व को समझा है. और ना सिर्फ समझा है बल्कि शिक्षा को अपने रोजी रोटी जुटाने के साधन के रूप में अंगीकार कर लिया है. केरवस उपन्यास गावों को देश की विकास की मुख्य धारा से जोड़नें का एक नजरिया, एक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है. क्यों गांव ही क्यों, क्योंकि जब भी यह प्रश्न उठता है, इसका उत्तर मिलता है, 'अपना हिन्दुस्तान कहाँ, वो बसा हमारे गांवों में.' तो गांवो को ही विकास की धारा से जोड़ना आवश्यक है.

उपन्यास लेखक के रूप में मुकुन्द कौशल जी का अभिनंदन है, स्वागत है, आशा है साहित्य जगत में 'केरवस' को प्रतिष्ठापूर्ण स्थान मिलेगा. साहित्यकार की सारस्वत साधना अनवरत चलती रहे यह शुभकामना व्यक्त करती हूं.
धन्यवाद
सरला शर्मा

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