दुकान और पकवान के बीच सामन्‍जस्‍य तो आपको ही बनाना है

ललित शर्मा जी नें अपने ब्‍लाग एक लोहार की के ताजे पोस्‍ट में टिप्‍पणियों की समस्‍या के संबंध में पूछा है कि पाठकों की माडरेट की गई टिप्‍पणियां पब्लिश करने के बाद भी उनके पोस्‍टों में प्रकाशित नहीं होती। टिप्‍पणियां कुछ इस तरह से गायब होती हैं जैसे कहीं कोई बरमूडा ट्रैंगल हो या ब्‍लैक होल हो। उनकी चिंता लाजमी है इस समस्‍या पर तकनीकि के जानकार लोगों नें अपना सुझाव दिया है जिन पर ललित जी को अमल करना चाहिए।

उनके पोस्‍ट पर पी.सी.गोदियाल जी नें टिप्‍पणी की है

एक बात और, कुछ लोगो की साईट पर हम लोग चाह कर भी टिपण्णी नहीं कर पाते जैसे उद्दहरण के लिए दर्पण साह दर्पण जी का ब्लॉग, लाख कोशिश करो लेकिन ब्लॉग ठीक से खुलता ही नहीं कारण ब्लॉग पर अत्यधिक भार जैसे विज्ञापन, फोटो इत्यादि अतः उन लोगो से भी यही अनुरोध रहेगा कि वे अपने ब्लॉग को लोगो की पहुँच के लिए सुगम बनाए !


इस पर ब्‍लागजगत में चर्चा आवश्‍यक है, उन्‍होंनें कुछ ऐसी समस्‍याओं के संबंध में लिखा है जिससे हिन्‍दी ब्‍लागों के पाठक रोज दो-चार होते हैं। इसमें से एक मैं भी हूं, मैं अपने लैपटाप में सोनी के 550 मोबाईल से एयरटेल नेट कनेक्‍ट होता हूं। मोबाईल से नेट कनेक्‍ट होने के कारण मैं ऐसे ब्‍लागों एवं वेब साईटों में ही जा पाता हूं जो कम बाईट्स वाले हों, यहां तक कि हिन्‍दी फीड एग्रीगेटरों का अवलोकन भी हम नहीं कर पाते।

ज्‍यादातर ब्‍लागर अपने ब्‍लाग के हेडर में एवं साईडबार में भारीभरकम चित्र, स्‍लाईडशो, घडी आदि लगाये रखते हैं (कमोबेश हम भी यही करते हैं)जिससे उनका ब्‍लाग स्‍लो नेट कनेक्‍शन से खुलता ही नहीं है और हमारे जैसे उपयोक्‍ताओं को ऐसे ब्‍लागों का दर्शन भी नहीं हो पाता। इसी कारण हम ब्‍लागों का पठन मेल के द्वारा या गूगल फीड रीडर के द्वारा ही करते हैं। इससे एक समस्‍या यह रहती है कि हमारी टिप्‍पणियां उस ब्‍लाग की शोभा नहीं बढा पाती और अहम यह कि ब्‍लागर यह जान नहीं पाता कि हमने उसके ब्‍लाग के धांसू पोस्‍ट को पढा है। वैसे हमारे जैसे स्‍लो नेट कनेक्‍शन वाले पाठक अब विरल हो गए हैं सभी के पास हाईस्‍पीड ब्राड बैंड कनेक्‍शन है यदि हम नहीं पढ पाये भी तो ब्‍लागर को क्‍या अंतर पडता है यदि आप समझते हैं कि हमारे जैसे स्‍लो नेट कनेक्‍शन वाले भी आपके ब्‍लाग को पढ पायें तो निरर्थक विजेटों को अपने ब्‍लाग से हटा देवें। इससे उन लोगों को भी फायदा होगा जो सीमित बाईट्स के ब्राड बैंड प्‍लान लेते हैं, आपके ब्‍लाग पर आने में उनको कम बाईट्स खर्चना पडेगा और वे आपके पोस्‍ट को पढ पायेंगें।

हमारे इस विचार से हमारे अधिकतर ब्‍लागर संगी सहमत नहीं हैं उनका कहना है कि ऐसा करने से ब्‍लागिंग का मजा जाता रहता है, ब्‍लाग बिल्‍कुल ऐसा दिखना चाहिए जैसा वेब साईट हो, सजे धजे दुकान की तरह। तो दुकान और पकवान के बीच सामन्‍जस्‍य तो आपको ही बनाना है, आप जैसा सोंचें, आखिर हम सब ब्‍लागर हैं।


आप सभी को देवउठनी एकादशी, तुलसी विवाह (छत्‍तीसगढ में जेठउनी) त्‍यौहार की हार्दिक शुभकामनांए।

संजीव तिवारी

ब्‍लाग ब्‍लागिंग और पोस्‍ट खिचडी

पिछले कुछ दिनों से हिन्‍दी ब्‍लाग में सक्रिय नहीं रह पाने का मलाल अन्‍य सुधी ब्‍लागरों की तरह मुझे भी है। पिछले कुछ दिनों की असक्रियता के समय में ना जाने कितना पानी गंगा में और शिवनाथ में बह गया, ब्‍लागवाणी विवाद से लेकर इलाहाबाद चिट्ठाकार सम्‍मेलन तक ना जाने कितने पोस्‍ट ब्‍लागवाणी और चिट्ठाजगत से होकर गुजर गए और हम बिना नहाए बिना पढे रह गए। इस बीच गूगल रीडर से पढे गए इलाहाबाद ब्‍लागर्स सम्‍मेलन के भारी टिप्‍पणीपाउ पोस्‍टों को देखकर ब्‍लागर मन पुन: मचलने लगा कि हमें भी पोस्‍ट परोसना चाहिए। छत्‍तीसगढ में ठंडी की हल्‍की पुरवाई चलने लगी है और सुबह और शाम का माहौल खुशनुमा हो चला है, ब्‍लागजगत की खिचडी भी इसी समय उबलती है और ब्‍लाग हांडियों में अलग अलग स्‍वाद के पोस्‍ट नजर आते हैं। ठंड की सुबह में हम अपने घर के खाली पडे एक हिस्‍से में ईटों से चूल्‍हा बना कर नहाने के लिए पानी गरम करते हैं अब आग की तपिश का आनंद भी लेना है और ब्‍लाग उर्जा को आत्‍मसाध करना है तो ऐसे दृश्‍य तो निर्मित होंगे ही -




बहरहाल इलाहाबाद सम्‍मेलन में हमें भी नहीं बुलाया गया था सो सभी पोस्‍टों को पढकर और फोटूओं को निहार-निहार कर खुश हो रहे हैं। इस सम्‍मेलन में हमें बुलावा नहीं मिलना हमारे लिए चिंता का विषय तो नहीं है किन्‍तु चिंतन का विषय अवश्‍य है। हम अपने कार्य की वजह से प्राय: कहीं बाहर नहीं निकल पाते सो ऐसे निमंत्रण पातियों के आने नहीं आने का कोई औचित्‍य ही नहीं रह पाता किन्‍तु यदि हमें बुलावा नहीं आया है तो इसका सीधा मतलब है कि हमें ऐसे सम्‍मेलनों और कार्यक्रमों में बुलाया जाए इसके लिये अपने स्‍वयं की समीक्षा कर ली जाए। किन्‍तु इसके लिए पोस्‍ट लिखने की आवश्‍यकता नहीं है पर यह एक बहाना है मित्रों से पोस्‍ट के माध्‍यम से दुवा-सलाम करने का।

हैप्‍पी ब्‍लागिंग मित्रों ...........

संजीव  तिवारी

नाचा : विश्व-धरोहर की डगर पर !

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद राज्य निर्माण के लिए चले मैदानी संघर्ष का वास्तविक इतिहास नहीं लिखा गया। भाषा, संस्कृति, लोकमंच, राजनीति और साहित्य से जुड़े छत्तीसगढ़ के सपूतों ने भिन्न-भिन्न कालखंडों में राज्य निर्माण के लिए चले अभियानों में अपना योगदान दिया है। अस्मिता और अंचल की पीड़ा पर प्रभावी रचनाओं ने भी पृथक राज्य के स्वप्न को जमीनी आधार देने की दिशा में ठोस कार्य किया।

यह छत्तीसगढ़ के लिए गर्व योग्य उपलब्धि है कि "नाचा" को मंचीय विश्व-धरोहर के रूप में रेखांकित किया जा रहा है। मानव संग्रहालय, भोपाल ने यह प्रशंसनीय पहल की है। पिछले साल पद्मश्री सम्मान नाचा के प्रसिद्ध कलाकार गोविंदराम निर्मलकर को मिला। उनका नाम भी छत्तीसगढ़ से नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश से गया था। नाचा छत्तीसगढ़ की मंचीय विधा है। विश्व-धरोहर सूची में कुछ वर्षों से यूनेस्को द्वारा मंचीय विधाओं को स्थान दिया जाता है। यह सम्मान अब तक भारत की तीन मंचीय विधाओं को प्राप्त हो चुका है। जिनमें रामलीला, वैदिक गायन एवं कुड़ियट्टम हैं। इस वर्ष देश भर के मंचीय विधा विशेषज्ञों एवं चिंतकों की सम्मति के आधार पर ५० विधाओं में से २० विधाओं को सूचीबद्ध कर अनुशंसा हेतु भेजा गया है। "नाचा" उसमें से एक है। अगर नाचा विधा को मंचीय विश्व-धरोहर के रूप में स्थान मिल गया तो यह छत्तीसगढ़ के लिए और ग्राम्य जीवन से जुड़े इस बेहद प्रभावी विधा के लिए गर्व की बात होगी। नाचा को गाँवों के कलाकारों ने जीवित रखा। एक महत्वपूर्ण योगदान भिलाई इस्पात संयंत्र के लोक-कला महोत्सव का भी है।

यह दुखद संयोग है कि नाचा के सर्वाधिक चर्चित कलाकार नायिकदास मानिकपुरी अभी हाल ही में ९० वर्ष की उम्र में परलोकगामी हुए। उनके जोड़ीदार झुमुकदास दो वर्ष पूर्व विदा हो गए थे। नाचा के नामचीन कलाकार भुलवाराम, ठाकुरराम, गोविंदराम, दुलारसिंह साव मदराजी के साथ ही बेमेतरा के पास पिंडकर गाँव की महरिन बाई का नाम उल्लेखनीय है। महरिन बाई अकेली ऐसी संयोजिका थी जिनके नाम से नाचा दल चला। नाचा के तमाम नामी-गिरामी कलाकार अब नहीं रहे। नई पीढ़ी इस विधा से जुड़कर यशस्वी परंपरा को आगे ले जा रही है। गीत, संगीत, अभिनय, नृत्य, गायन सब कुछ एक ही विधा में अगर देखना हो तो वह विधा नाचा ही हो सकती है।

इसी बीच छत्तीसगढ़ लोक-कला महोत्सव के पूर्व संयोजक, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.विमल पाठक की निराशा और खिन्नता का समाचार भी आया। ७२ वर्षीय डॉ. पाठक पाँव की हड्डी के इलाज के सिलसिले में अस्पताल में भर्ती थे। उपेक्षा, दुख एवं अकेलेपन के कारण उन्होंने अपने लिए दया-मृत्यु की घोषणा कर दी। लेकिन, छत्तीसगढ़ शासन के मंत्री श्री ननकीराम कंवर और संस्कृति मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल ने उनकी व्यथा को तुरंत कम किया। श्री ननकीराम कंवर ने २५ हजार रुपए देने का निर्देश दुर्ग के कलेक्टर को दिया। श्री बृजमोहन अग्रवाल ने संस्कृति विभाग के आयुक्त श्री राजीव चंद्र श्रीवास्तव को डॉ. पाठक से मिलने भेजा। डॉ. पाठक ने बताया कि अब तक उन्हें श्री अजीत जोगी ने एक लाख तथा डॉ. रमन सिंह ने ढाई लाख रुपया दिया है। इस तरह शासन से इलाज के लिए वे साढ़े तीन लाख रुपए पा चुके हैं।

प्रायः वैचारिक असहमति के आधार पर सहयोग में कटौती की परंपरा रही है, लेकिन डॉ. रमन सिंह ने अपने से असहमत जनों का मान भी भरपूर बढ़ाया है। पिछले दिनों वामपंथी विचारधारा से जुड़े प्रमोद वर्मा की स्मृति में आयोजित समारोह में वे लेखकों के स्वागत के लिए भी गए। जबकि, उनकी सरकार की विचारधारा में और वामपंथी विचारधारा दोनों उत्तर-दक्षिण है। लेकिन, यही सहिष्णुता छत्तीसगढ़ की विशेषता है। आशा है, छत्तीसगढ़ी मंचीय विधाओं का राजा नाचा दमकते हुए नई आभा के साथ विश्व मंच पर प्रकाशनमान होगा।

डॉ.परदेशी राम वर्मा


उपर बायां चित्र - श्रृंगाररत स्‍त्री (परी) रूप धरते कोदूराम एवं अन्‍य पुरूष कलाकार.
नीचे दाहिना चित्र - मटेवा नाच पार्टी के कलाकार झुमुकदास, गम्‍मतिहा के मदन निशाद, गोकुल एवं चतरू राम 
चित्र साभार - डॉ.शैलजा चंद्राकर 

छत्‍तीसगढ की दीपावली मडई, गोवर्धन पूजा और रावत नाच

छत्‍तीसगढ के ग्रामीण मजदूर कमाने खाने लद्दाख के बरफबारी से बंद हुए सडकों को साफ करने से लेकर आसाम के चाय बागानों तक एवं दिल्‍ली के कालोनी निर्माण से लेकर मुम्‍बई के माल निर्माण तक संपूर्ण देश में कार्य करने जाते हैं, किन्‍तु दीपावली में वे अपने-अपने गांव लौट आते हैं। वहां की हिन्‍दी एवं सस्‍ती आधुनिक संचार यंत्रों के साथ छत्‍तीसगढी मिश्रित बटलर हिन्‍दी बोलते इन लोगों को इसी दिन का इंतजार रहता हैं। उत्‍सवधर्मी इन भोले भाले लोगों के साथ दीपावली मनाने हम भी हर साल गांव चले आते हैं। वहां गांव की सांस्‍कृतिक परंपराओं का आनंद लेते हैं।


कई गांवों में रावत नाच के साथ 'मडई' भी चलता है। मडई लम्‍बे खडे बांस में साडी-धोती और बंदनवार को बांधकर बनाया जाता है। इस मडई को गांव के मडईहा परिवार के लोग मन्‍नत मांगने के लिए बनाते हैं एवं गांव में दीपावली से लेकर 'मडई' मनाए जाने तक बनाए रखते हैं। जब भी रावत नाच पार्टी के साथ इन मडईहा परिवार को रावत नाच उत्‍सव या मातर आदि का निमत्रण दिया जाता है ये मडई रावत नाच के पीछे पीछे अपनी लम्‍बी पताका लिए मौजूद रहता है।
छत्‍तीसगढ में दीपावली की रात गउरा उत्‍सव के रूप में मनाया जाता है, यहां गांवों में दीपावली का असली मजा दीपावली के दूसरे दिन ही आता है, गावों में इस दिन को गोवर्धन पूजा के रूप में मनाया जाता है। कृषि प्रधान इस प्रदेश में पशुधन के महत्‍व को रेखांकित करने वाला यह त्‍यौहार गायों के श्रृंगार और पूजन का त्‍यौहार है। इस त्‍यौहार का संपूर्ण प्रतिनिधित्‍व यादव - ग्‍वालों (रावत) के समुदाय के हाथों रहता है, गांव में 'बाजा लगाने' (रावत नाच के साथ वाद्य यंत्र बजाने के लिए वाद्यकों के समूह एवं नृत्‍य करने के लिए स्‍त्री के रूपधारी पुरूषों को निश्चित पारिश्रमिक पर तय करना। इस पारिश्रमिक की व्‍यवस्‍था सामूहिक सहयोग से की जाती है) से लेकर मातर मनाने तक चलने वाला यह लगभग पंद्रह दिनो का उत्‍सव होता है। बाजे के साथ श्रृंगार किये हुए ग्‍वालों का समूह घर घर जाकर नृत्‍य करता है जिसे 'जोहारना' कहा जाता है 'ठाकुर जोहारे आयेन .... जैसे दोहों के साथ, रावत नाच प्रस्‍तुत किया जाता है।

भगवान कृष्‍ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाकर बृजवासियों और गोधन की रक्षा करने की स्‍मृति को जीवंत बनाने के लिए गोवर्धन पूजा किया जाता है। ग्‍वालों का विश्‍वास है कि वे यदुवंशी कृष्‍ण के वंशज है इसलिए वे परंपरागत रूप से इस त्‍यौहार को मनाते आ रहे हैं जो संपूर्ण छत्‍तीसगढ में मनाया जाता है। इस दिन सुबह गायों की पूजा की जाती है और उन्‍हें 'खिचडी' खिलाई जाती है। संध्‍या गांव के सहडा देव (जो सांढ देवता के रूप में पूज्‍य होता है)के पास गोवर्धन पर्वत के प्रतीक के रूप में गाय के गोबर से गोवर्धन भगवान की प्रतिकृति बनाई जाती है, एवं ग्‍वालों की पत्नियां उसकी पूजा करती हैं।

इधर ग्‍वाले बाजे गाजे के साथ अपने पारंपरिक रावत नाच नाचते हुए गांव के प्रत्‍येक घर जा-जा कर घरवालों को 'गोवर्धन पूजा' हेतू बुलाते हैं। जब गोधुली बेला में सारा गांव सहडा देव के पास इकत्रित हो जाता है ग्‍वाले गोवर्धन देव में नारियल अर्पित कर पूजा करते हैं और छोटे बछडे के पावों से उस गोवर्धन की प्रतिकृति को रौंदवाते हैं। इसके बाद गांव के सभी गायों को उस गोवर्धन की प्रतिकृति से गुजारा जाता है। गोवर्धन की प्रतिकृति को इस तरह से गायों के खुरों से रौंदवाने को देखकर हर बार मेरे मन में बचपन में सुने किस्‍से के अनुसार इंद्र का वह कोप जीवंत हो उठता है जब बृजवासियों एवं गायों पर भीषण वर्षा करके इंद्र नें अपना तूफानी कहर बरपाया था और नंदकिशोर नें कंदुक सम विशाल गोवर्धन पर्वत को तर्जनी उंगली में उठाकर इनकी रक्षा की थी। जहां तक मुझे लगता है कि इन ग्‍वालों के द्वारा 'गोवर्धन खुदवाना' इंद्र का मान मर्दन करना ही है, कभी इन पहलुओं पर विस्‍तृत लिखूंगा।


गोवर्धन खुंदवाने के बाद गोवर्धन की प्रतिकृति के बिखरे गोबर को बडे बुर्जुगों के माथे पर लगा कर आर्शिवाद ली जाती है। अजब प्रेम है यहां का, बेमोल गोबर को माथे में लगाकर सम्‍मान करने की इस परंपरा का सम्‍मान इस प्रदेश के सभी रहवासियों को करना ही चाहिए।



हे ग्राम्‍य देवी, हमारे स्‍नेह की बाट जोहते इन ग्रामीण बच्‍चों की चेहरों में मुस्‍कान और इनकी आंखों में दीपों की आभा देखने हम हर दीपावली आते ही रहेंगें।

संजीव तिवारी

'प्रथम व्यक्ति' गंभीर कथानक का कसावट भरा मंचन

गिरते नैतिक मूल्यों की गंभीरता से पड़ताल करने वाला नाट्य
अरूण काठोटे

रायपुर। संस्कृति विभाग की पाक्षिक पहल सफर मुक्ताकाश के 12वें पड़ाव पर दर्शकों के सम्मुख बेहद गंभीर कथानक पर केंद्रीत नाटक प्रथम व्यक्ति खेला गया। 'प्रथम व्‍यक्ति' समाज में गिरते नैतिक मूल्यों और मानव मन के भीतर छुपी भावनाओं की गंभीरता से पड़ताल करता है। नाटक कुल चार पात्रों के बीच एक परिवार के चरित्रों के अंतर्द्वंद्व को प्रगट करता है। समाज की संवेदनहीनता पर कटाक्ष करते हुए यह समयानुरूप बदलते फैसलों पर भी सवाल खड़े करता है। प्रासंगिक घटनाओं के संदर्भ में मानवतावादी फैसलों का पक्षधर है प्रथम व्यक्ति। मूलत: बांग्लादेश के लेखक शहजाद फिरदौस के बांग्ला भाषा में लिखे कथानक को बालकृष्ण अय्यर व श्यामल मुखर्जी ने हिंदी में अनुदित किया है।

छत्तीसगढ़ आट्र्स एंड थिएट्रिकल सोसायटी, दुर्ग की इस प्रस्तुति को बालकृष्ण अय्यर ने निर्देशित किया है। नाटक में प्रथम व्यक्ति (पिता) का किरदार शकील खान ने निभाया है। परिवार के अन्य सदस्यों में राजश्री देवघरे (मां), प्रकाश ताम्रकार (बेटा), दीपिका नंदी (बेटी) तथा योगेश पांडेय (इंस्पेक्टर) ने भूमिका की है। अपने समूचे कथानक में नाटक दर्शकों को बांधने में सफल रहा। पल-पल घटते, बदलते हालातों की मिमांसा, चरित्रों के आपसी व्यवहार तथा व्यक्ति के सामाजिक दायित्वों जैसे मुद्दों पर यह गंभीर कटाक्ष करता है। प्रथम व्यक्ति की केंद्रीय भूमिका में शकील खान ने प्रारंभ से अंत तक प्रभाव डाला। वैसे समूचा नाटक एक्टर बेस्ड होने के कारण भी अन्य कलाकारों ने पूरी शिद्दत के साथ अपनी भूमिकाएं कीं। गंभीर कथानक को मुक्ताकाशी मंच पर सफलता से खेलकर बालकृष्ण अय्यर ने अपनी निर्देशकीय पकड़ साबित की। टीम वर्क, कंपोजिशन, नेपथ्य में लगा शहरी इमारतों का कट-आउट आदि उनकी परिपक्व समझ को प्रदर्शित करते हैं। नाटक देखकर निकलते वक्त लोगों में विचार पैदा करता है, जो इसकी कामयाबी का सबसे बड़ा सबूत है। नेपथ्य में संगीत पक्ष सुधीर रवानी ने तथा मंच परिकल्पना का जिम्मा तुषार वाघेला ने संभाला था। व्यवस्थापन पंकज सतपथी का था।







( साभार: दैनिक आज की जनधारा, रायपुर. फोटो साभार : बालकृष्ण अय्यर)

बासी खाने वालों की सहृदयता : माटीपुत्र


परदेशीराम वर्मा जी की कहानियों में माटी की गंध सर्वत्र व्‍याप्‍त रहती है, इसी माटी की खुशबू से सराबोर कहानी संग्रह ‘माटी पुत्र’ में 19 कहानियां संग्रहित है,  इन कहानियों के शव्‍द-शव्‍द में गांव जीवंत  है। कथा संग्रह ‘माटी पुत्र’ के बरछाबारी से भिनसार तक की सभी कहानिंयां औद्यौगीकरण के साथ गांवों में आए बदलाव का चित्र खींचती हैं। जिनमें एक नये ग्रामीण परिवेश का परिचय सामने आता है। इन कहानियों में समाज का खोखलापन उजागर होता है। छत्‍तीसगढ में व्‍याप्‍त दाउ, मालगुजार, गौंटिया के द्वारा किए गए सामंती अत्‍याचार, शोषण व भेदभाव सहित सभी सामाजिक विद्रूपों के विरूद्ध बहुसंख्‍यक शोषित वर्ग के आवाज को संग्रहित कहानियों में बुलंद किया गया है। वर्मा जी अपने इन्‍हीं चितपरिचित शैली में कथा रचते हैं और मोह लेते हैं। वे हमारे बीच के कथा पात्रों और परिवेश को एकाकार कर संदेश देते हैं, उनके संदेश हृदय में गहरे से अंकित होते चले जाते हैं। बासी खाने वालों की सहृदयता के साथ ही इनकी पीतल बंधी लाठियों के शौर्य को रेखांकित करती इन कहानियों में अनुभूति की प्रामाणिकता और अभिव्‍यक्ति की सहजता मुखरित होती है। सभी वादों-विचारधाराओं को नंगा कर दलित, शोषित व पीडित वर्ग के मर्म का साक्षातकार कराती संग्रहित कहानियां बेबाकी से संपूर्ण व्‍यवस्‍था की पोल खोलती है और समय के विद्रूप से टकराने का माद्दा रखती है।

   

कहानी संग्रह - माटी पुत्र
लेखक - डॉ. परदेशीराम वर्मा
प्रकाशक - भारतीय साहित्‍य प्रकाशन, मेरठ
मूल्‍य - 200 रूपये
 
फणीश्‍वरनाथ ‘रेणु’ नें कहा था कि ‘हर व्‍यक्ति में एक चिंगारी छिपी होती है जिसे महसूस करने की जरूरत है।‘ वर्मा जी नें छत्‍तीसगढ के परिवेश में यत्र-तत्र छुपे चिंगारियों को महसूस किया और इस कथा संग्रह में बखूबी उकेरा है। विकास के अंधे दौड में शामिल होने के लिए छटपटाते छत्‍तीसगढ के वर्तमान को तौलते हुए कथाकार नें भविष्‍य को भी साधा है, कहानी भिनसार में कथाकार स्‍वयं लिखता है ‘भूत को याद कर वर्तमान को संभालना और दूसरों की चिंता करते हुए भविष्‍य को गढना बहुत बडे लोगों से ही सधता है।‘ हमें विश्‍वास है कि ‘माटी पुत्र’ इन्‍हीं अर्थों में भविष्‍य में भी लम्‍बे समय तक अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने में समर्थ होगा।

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...