क्‍या नशेबो फराज थे तनवीर, जिन्‍दगी आपने गुजार ही दी : हबीब तनवीर (Habib Tanveer)


1 सितम्‍बर 1923 को बैजनाथपारा, रायपुर, छत्‍तीसगढ में जन्‍में हबीब अहमद खान के पिता हाफिज मुहम्‍मद हयात खान माता नजीरून्निशा बेगम थीं । रायपुर से चलते हुए इस पथिक नें पूरी दुनियॉं नापी, दुनियां के लगभग सत्रह देशों में अपनी नाट्य प्रस्‍तुतियां दी और ढेरों सम्‍मान एवं पुरस्‍कार अर्जित किये। नाट्य के लिये संगीत नाटक अकादमी का पुरस्‍कार 1969, शिखर सम्‍मान 1975, मनोनीत राज्‍य सभा सदस्‍य, जवाहर लाल नेहरू फेलोशिप, पं. सुन्‍दर लाल शर्मा पीठ रविशंकर विवि में विजिटिंग प्रोफेसर, अंतर्राष्‍ट्रीय नाट्य महोत्‍सव में फ्रिंज फस्‍ट एवार्ड एडिनबरा 1982, भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से विभूषित 1982, इंदिरा कला संगीत विवि से डी.लिट की मानद उपाधि 1983, दिल्‍ली साहित्‍य कला परिषद का पुरस्‍कार 1983, नांदीकार पुरस्‍कार कलकत्‍ता, महाराष्‍ट्र राज्‍य उर्दू अकादमी पुरस्‍कार, आदित्‍य बिडला पुरस्‍कार, मध्‍य प्रदेश हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन का भवभूति अलेकरण 1990, कालिदास सम्‍मान 1990, रविन्‍द्र भारती विवि कलकत्‍ता द्वारा मानद डी.लिट की उपाधि 1993, छत्‍तीसगढ शासन का दाउ मंदराजी सम्‍मान 2002, राष्‍ट्रीय अलंकरण पद्मभूषण 2002. इन्‍हें राज्‍य सभा में नामजद सदस्‍य के रूप में भी शामिल किया गया।
सात साल की उम्र में ‘मोहब्‍बत के फूल’ नाटक को देखकर एक बालक के मन में अभिनय की ललक जो जागृत हुई वह निरंतर रही, बालक नाचते गाते अपनी तोतली जुबान में नाटकों के डायलागों को हकलाते दुहराते बढते रहा। उसके बाल मन में पुष्पित अभिनय का स्‍वप्‍न शेक्‍शपीयर की नाटक ‘किंगजान’ में प्रिंस का आंशिक अभिनय से साकार हुआ। असल मायनें में उसी दिन महान नाट्य शिल्‍पी हबीब तनवीर का नाटकों की दुनिया में आगाज हो गया। पढाई लिखाई भी साथ साथ चलती रही पर नाटकों के प्रति उनका लगाव बढता ही गया। नागपुर विश्‍वविद्यालय से स्‍नातकोत्‍तर की पढाई पूरी करने के बाद हबीब नें माया नगरी मुम्‍बई की ओर कूच किया, मुम्‍बई में कुछ फिल्‍में भी की पर नाटकों के प्रति लगाव के कारण ये इप्‍टा से जुड गये। मुम्‍बई इप्‍टा से जुडे बलराज साहनी, शंभु मित्र, दीना पाठक के साथ इन्‍होंनें कई लोकप्रिय नाटकों में कार्य किया। फिल्‍म पत्रकारिता एवं कला समीक्षा में अपने आप को मांजते हुए फिल्‍म इंडिया के सहायक संपादक के रूप में भी कार्य किया। नाटकों के प्रति समर्पण और कुछ कर दिखाने के जजबे के चलते हबीब दिल्‍ली कूच कर गये, जहां से उनकी अभूतपूर्व नाट्य निदेर्शन क्षमता की शुरूआत हुई। दिल्‍ली आकर उन्‍होंनें सर्वप्रथम जामिया मिलिया में अपनी शानदार प्रस्‍तुति ‘आगरा बाजार’ का प्रदर्शन किया। फिर नया थियेटर के नाम से एक ग्रुप खडा किया और अपना जीवन नाटकों के लिये समर्पित कर दिया। दिल्‍ली में रहते हुए वे दूरदर्शन केन्‍द्र व आकाशवाणी दिल्‍ली के प्रोड्यूसर भी रहे और देश के नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में पत्रकारिता और समीक्षा कार्य किया।

इस बीच उन्‍होंनें देश विदेश का भ्रमण कर नाट्य विधा का गहन अध्‍ययन किया एवं इस पर इनका शोध और प्रयोग चलता रहा। इन्‍होंनें थियेटर ट्रेनिंग विश्‍वप्रसिद्ध रायल अकादमी आफ ड्रेमेटिक आर्टस लंदन से लिया, ब्रिस्‍ट ओल्‍ड विक थियेटर स्‍कूल ब्रिस्‍टल और ब्रिटिश ड्रामा लीग लंदन से थियेटर कला में पारंगत हुए। 1985 में ‘हिन्‍दूस्‍तानी थियेटर’ से अलग होने के बाद वे रायपुर आये जहां वे अपने घर के पास ‘नाचा’ देखा तो रात भर देखते ही रहे। छत्‍तीसगढी नाचा के नौं कलाकरों के साथ इन्‍होंनें नया थियेटर की स्‍थापना की जिनमें मदन निषाद, भुलवाराम, बाबू दास, ठाकुर राम, जगमोहन, लालुराम व मोनिका मिश्र थे। नया थियेटर की पहली प्रस्‍तुति हबीब द्वारा लिखित एकांकी ‘सात पैसे’ था। प्रगतिशील और प्रयोगधर्मी हबीब नें छत्‍तीसगढ अंचल की सांस्‍कृतिक पृष्‍टभूमि का बेहतर तालमेल करते हुए नया थियेटर में एक से एक नाटक पेश किए। इनके प्रयास से ही लोक नाट्य शैली को समकालीन संदर्भों से जोडकर आधुनिक रंगमंच के रूप में प्रस्‍तुत किया गया। जिसमें कालिदास के संस्‍कृत नाटक व शेक्‍शपीयर व ब्रेख्‍त के अंग्रेजी नाटकों का भी हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढी अनुवाद के साथ मोहक नाट्य प्रस्‍तुतियां दी।
भारतीय रंगमंच को समृद्धि के शिखर पर पहुंचाने वाले हबीब नें आधुनिकता में लोकतत्‍वों का समावेश किया और अपनी रचनात्‍मक सोंच के चलते कालजयी प्रस्‍तुतियॉं दी। सांस्‍कृतिक धरोहरों का परिमार्जन करते हुए हबीब के नेतृत्‍व में नया थियेटर नें जो प्रस्‍तुतियॉं दी वे इस प्रकार हैं –

शतरंज के मोहरे, शांतिदूत कामगार, जालीदार पर्दे, आगरा बाजार, बुर्जूआ जेन्‍टलमैन मौलियर का एडाप्‍शन मिर्जा शोहरत बेग, शूद्रक का संस्‍कृत नाटक मच्‍छ कट्टिकम का छत्‍तीसगढी रूपांतर मिट्टी की गाडी, सात पैसे, फांसी, दोस्‍तावस्‍की की कहानी किसका खून, सूत्रधार, आगा हज कश्‍मीरी रूस्‍तम सोहराब, शेक्‍सपियर का अंग्रेजी नाटक टेमिंग आफ द थ्रू, राजा चंबा और चार भाई, आस्‍कर वाईल्‍ड आनेस्‍ट का द इम्‍पारटेंस आफ बिग, लोर्का वाईफ अंग्रेजी द शू मेकर्स प्राडिजियस, विशाखादत्‍त के संस्‍कृत नाटक की अंग्रेजी प्रस्‍तुति पुन: हिन्‍दी प्रस्‍तुति मुद्राराक्षस, मेरे बाद, छत्‍तीसगढी इंदर लोकसभा, बंगला देश की लडाई पर कुत्सिया का चपरासी, छत्‍तीसगढी गांव के नाव ससुराल मोर नांव दमांद, विजयकांत देथा की कृति छत्‍तीसगढी प्रस्‍तुति चरणदास चोर, हरियाणवी नाटक लखमीचंद का अनुवाद शाही लकडहारा, हरियाणवी नाटक जानी चोर, उडीसा का लोकनाट्य प्रहलाद नाटक, ब्रेख्‍त के नाटक गुड विमेन का छत्‍तीसगढी अनुवाद शाजापुर की शांति बाई, छत्‍तीसगढी बहादुर कलारिन, भवभूति के संस्‍कृत नाटक का अनुवाद उत्‍तर रामचरित, छत्‍तीसगढी सोन सागर, बंगला नाटक राजदर्शन का छत्‍तीसगढी अनुवाद नंदराजा मस्‍त है, हिरमा की अमर कहानी, छत्‍तीसगढी कहानी मंगलू दीदी, शंकर शेष का नाटक एक और द्रोणाचार्य, प्रेमचंद की कहानी पर आधारित मोटेराम का सत्‍याग्रह, गोर्की के इनेमीस्‍त का सफदर हासमी के अनुवाद दुश्‍मन, असगर वजाहत का नाटक जिन लाहौर देख्‍या वो जन्‍मई ही नई, गालिब पर आधारित देख रहे हैं नैन, विजयदान देथा की कहानी का छत्‍तीसगढी अनुवाद देवी का वरदान, शेक्‍सपियर के मिड समर नाईट ड्रीम का अनुवाद कामदेव का अपना वसंत ऋतु, एकांकी सडक, एक औरत हिपेशिया भी थी, वेणी संहार, राहुल वर्मा के अंग्रेजी नाटक भोपाल का अनुवाद जहरीली हवा, रविन्‍द्र नाथ टैगोर के बंगला नाटक का अनुवाद विसर्जन इनके अलावा बाल नाटक – हिन्‍दी, परम्‍परा, चॉंदी का चम्‍मच, हर मौसम का खेल, आग की गेंद, दूध का गिलास।

सांस्‍कृतिक धरोहरों का परिमार्जन करते हुए प्रगतिशील और प्रयोगधर्मी हबीब नें 1973 में रायपुर में नाचा पर वर्कशाप किया और इसके बाद से नाचा और नाटक के बीच सेतु स्‍थापित करते हुए इन्‍होंनें गांव के नाम ससुराल मोर नांव दमांद को प्रस्‍तुत किया इससे इनकी सफलता को नई दिशा मिली। भारतीय नाट्य परंपराओं के आदि पुरूष भरत मुनि से लेकर ख्‍यात नाटककार ब्रेख्‍त के कला की बारीकियों को आत्‍मसाध करते हुए हबीब नें लोक शैली के आधुनिक नाटक पेश किए जिसमें परम्‍परा एवं आधुनिकता का अद्भुत समन्‍वय मंच पर समा बांध देता था और दर्शक अभिभूत होकर नाटकों में डूब जाते थे। छत्‍तीसगढ अंचल की सांस्‍कृतिक पृष्‍टभूमि का समावेश करते हुए हबीब नें जो प्रस्‍तुतियां दी उसके कारण छत्‍तीसगढ की परम्‍परा और संस्‍कृति का विश्‍वव्‍यापी फैलाव हुआ इससे छत्‍तीसगढ की सांस्‍कृतिक चेतना का सम्‍मान अत्‍यधिक बढा।

विगत दिनों बारहवें मुक्तिबोध राष्‍ट्रीय नाट्य समारोह में विसर्जन की प्रस्‍तुति के दिन तेजोमय इस दिव्‍य पुरूष की उपस्थिति से समूचा छत्‍तीसगढ आह्लादित था। नया थियेटर में काम कर चुके सभी पूर्व कलाकारों के साथ ही वर्तमान कलाकार एवं संस्‍कृतिधर्मी उस प्रस्‍तुति में उपस्थित थे। काल ए कर्टन की परंपरा के समय जब उनके प्रसंशकों के भीड के साथ उनका सामीप्‍य पाने के लिए मैं एवं मेरे इप्‍टा के पूर्व सदस्‍य एवं वर्तमान में शीलांग में हिन्‍दी शिक्षक मित्र अजय साहू बेताब हो रहे थे तब मेरी आंखों में उनके धीर गंभीर मुखमंडल में उम्र की थकान स्‍पष्‍ट नजर आ रही थी और उनकी लिखी नज्‍म मेरे स्‍मृतियों में गुजायमान हो रही थी -

कर चुका हूँ पार ये दरिया न जाने कितनी बार
पार ये दरिया करूंगा और कितनी बार अभी
काविशे पैहम अभी ये सिलसिला रूकने न पाये
जान अभी आंखों में है और पांव में रफ्तार अभी

वैदिक काल में हजारों बरसों तक जीवित रहने और शिक्षा व संस्‍कार देने वाले ऋषियों के इस देश में पिच्‍यासी – छियासी के उम्र में हबीब के इस शेर पर मुझे विश्‍वास था, उनके निधन के समाचार पर सहसा विश्‍वास ही नहीं हो रहा है। मन आज इस रंग ऋषि के, एन 202-203 अंसल अपार्टमेंट, लेक व्‍यू इन्‍क्‍लेव, श्‍यामला हिल्‍स, भोपाल के दरवाजे पर पुकार रहा है ....
‘बाबा ! उठ ना ग ! देख न मोला ! मोला चिन्‍हत हस, मैं छत्‍तीसगढ अंव, माखुर कस तोर बिदेसी पाईप अउ अंतस म भराए हंव !’ ..... और उनका जवाब नि:शव्‍द है।

संजीव तिवारी
ए 40, खण्‍डेलवाल कालोनी,
दुर्ग 491001, छत्‍तीसगढ

रावघाट प्रोजेक्ट को मिली मंजूरी : योद्धा का साकार हुआ स्‍वप्‍न


दिसम्‍बर 2007 में मैंनें एक पोस्‍ट पब्लिश की थी 'रावघाट के योद्धा : अधिवक्‍ता विनोद चावडा' । विनोद चावडा जी की लडाई रंग लाई है और भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने बीएसपी को रावघाट में आयरन ओर (लौह अयस्क) के उत्खनन के लिए 2028.979 हेक्टेयर की पर्यावरण स्वीकृति दे दी है। सुप्रीम कोर्ट की सेंट्रल इंपावर कमेटी की अनुशंसा पर वानिकी स्वीकृति पहले ही मिल गई थी। भारत सरकार ने नवंबर 2008 में ही 883.22 हेक्टेयर वन भूमि को डायवर्सन करने के लिए स्टेज-वन का फारेस्ट्री क्लीयरेंस दे दिया था। उसके बाद से अंतिम पर्यावरण स्वीकृति के लिए फाइल वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में लंबित थी। भरोसेमंद सूत्रों के अनुसार अब रावघाट परियोजना में कोई रोड़ा नहीं है। बीएसपी जब चाहे अपने माइनिंग प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर सकता है।
भिलाई स्‍टील प्‍लांट फारेस्ट्री क्लीयरेंस वाले एरिया में माइनिंग कर सकेगा, जिसमें लगभग 511 मिलियन टन लौह अयस्क है। यह 35-40 साल तक के लिए पर्याप्त है। यहां के अयस्क में आयरन की मात्रा लगभग 63 प्रतिशत है, जो लगभग राजहरा के बराबर ही है। रावघाट के लिए लालायित बीएसपी प्रबंधन जैसे-जैसे विभिन्न क्लियरेंस मिलते गए, निर्धारित शुल्क या क्षतिपूर्ति राशि भी सरकारी कोष में जमा करता गया है। सरकार के केंपा फंड में अभी तक बीएसपी प्रबंधन 417 करोड़ रुपए जमा कर चुका है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार बीएसपी को हरेक क्षतिपूर्ति पांच गुनी (प्रति हेक्टेयर) ज्यादा देनी पड़ी है।
रावघाट परियोजना 25 साल से लंबित थी। भविष्य में बीएसपी की उत्पादन क्षमता बढ़ाने विस्तार परियोजनाओं को देखते हुए आयरन ओर की जरूरत को ध्यान में रखकर संयंत्र प्रबंधन ने 1983 में पहली बार भारत सरकार के पास अर्जी लगाई थी। तब से यह योजना अटकी हुई थी। पहली बार प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी । तब बीएसपी ने 1990 में अपने प्रपोजल में संशोधन कर दुबारा फिर आवेदन दिया। 1998 में सरकार ने आवेदन को खारिज कर दिया।
उसके बाद 2006 में फिर से आवेदन दिया। तब से प्रबंधन लगातार प्रयासरत रहा। रावघाट की मंजूरी में देरी और दल्लीराजहरा में घटते अयस्क से न केवल संयंत्र प्रबंधन, बल्कि पूरी भिलाई बिरादरी की सांस अटकी हुई थी। बीसपी के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा था। वर्तमान में संयंत्र की उत्पादन क्षमता 4.2 मिलियन टन है, जिसके लिए सालाना लगभग 9 मिलियन टन अयस्क की जरूरत होती है। विस्तार परियोजनाओं के पूरा हो जाने के बाद 2012 तक संयंत्र की स्टील मेकिंग क्षमता बढ़कर 7.5 मिलियन टन हो जाएगी, तब लगभग 14 मिलियन टन अयस्क की आवश्यकता पड़ेगी।
फिलहाल दल्लीराजहरा में लगभग 80 मिलियन टन आयरन ओर शेष है, जो करीब साढ़े चार साल तक ही संयंत्र को जीवन दे सकता है। हालांकि एनएमडीसी खदानें नजदीक में हैं परंतु वह अपना अधिकांश ओर दूसरे देश को निर्यात कर देता है या फिर दूसरे संयंत्रों के लिए आरक्षित है। सेल के अन्य खदानों से यहां अयस्क मंगाना लगभग छह गुना महंगा पड़ेगा। ऐसे में रावघाट ही बीएसपी के पास एकमात्र विकल्प है।
अब रावघाट में माइनिंग के लिए बीएसपी को कोई बाधा नहीं है। केवल रेलवे लाइन बिछने का इंतजार है। इसके लिए दल्लीराजहरा- रावघाट-जगदलपुर रेल लिंक प्रोजेक्ट पर भारतीय रेलवे, छत्तीसगढ़ शासन और सेल (बीएसपी) के बीच पहले ही एमओयू हो गया है। 11 दिसंबर 2007 को हुए इस एग्रीमेंट के अनुसार भिलाई से रावघाट तक की कुल दूरी लगभग 180 किलोमीटर है। इसमें राजहरा से रावघाट तक की रेलवे लाइन बिछाने का पूरा खर्च सेल वहन करेगा। इसके लिए सेल ने रेलवे को 53 करोड़ रुपए दे भी दिए हैं। बाकी रावघाट से जगदलपुर तक की रेलपांत का खर्च एनएमडीसी और रेलवे 25-25 फीसदी और बाकी आधा खर्च राज्य शासन उठाएगा। भारतीय रेलवे की निर्माण एजेंसी रेल विकास निगम लिमिटेड ने इसके लिए टेंडर भी जारी कर दिया है। सितंबर तक टेंडर प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद निर्माण कार्य शुरू हो जाने की भी उम्मीद जताई जा रही है।
(समाचार दैनिक भास्‍कर से साभार)

भीषण प्रदूषण और बट सावित्री

 तपते सूरज के बावजूद उस दिन घर का वातावरण कूल-कूल था, ना ही मेरा बालक धमाचौकडी कर रहा था ना ही श्रीमतिजी उसे शांत रहने को फटकार लगा रही थी। मैंनें घर के सभी कमरों को बडी बारीकी से झांका-ताका, कुछ सूंघने का भी प्रयास किया, कूलर के खस को भी निहारा पर कुछ समझ में नहीं आया। मुझे लगा आज वातावरण में ही तपिश कुछ कम होगी,  पर बरांडे में रंगोली और आटे से ताजा बने शुभ चिन्‍ह और वहां गमले में लगे बरगद के छोटे पेंड को विराजमान हुए देखकर माजरा समझ आ गया।  यह कूल माहौल वट सावित्री व्रत (जिसे छत्‍तीसगढ में 'बरसइत' कहा जाता है ) का था। 

हमें याद है गांवों में बरसइत के दिन बडे बरगद के पेड पर सुबह से ही महिलाओं की भीड जमती थी और चढावे में चढाये गये प्रसादों को पाने के लिये बच्‍चों की भीड भी बरगद के आस-पास मंडराती थी। गर्मियों की छुट्टियों में हमें इस त्‍यौहार का बेसब्री से इंतजार रहता था क्‍योंकि गर्मियों में हमारे गांव में हमारे बहुतेरे रिश्‍तेदार आये रहते थे, जिनमें से महिलायें उस दिन सामूहिक रूप से बट वृक्ष को पानी देकर उसकी पूजा अर्चना करतीं थीं और यमराज से भी अपने पति को छीन लाने वाली सावित्री के कथा का पाठ किया जाता था। हम सब बडे धैर्य से बरगद में 108 चक्‍कर रस्‍सी लपेटते हुए देखते थे और उस कथा का अर्थ समझने का प्रयास करते थे।
शहरों में प्रकृति से नजदीकियों का एहसास कराते इन भारतीय व्रत-त्‍यौहारों का अर्थ अब खोने लगा है। परम्‍पराओं को जीवित रखने के लिये  गर्मियों में सैकडों पालतू जानवरों और राहगीरों को ठंडी छांव देनें वाले भारी भरकम बरगद के पेंड को बोनसाई बनाकर गमले में समेट कर परिपाटी का निर्वहन किया जा रहा है।  हम अब जान गये हैं कि पति की लम्‍बी उमर के लिये किये जाने वाले इस व्रत में पर्यावरण की सुरक्षा भी अंतरनिहित है, क्‍योंकि प्रकृति से ही मानव मात्र का जीवन है।  किन्‍तु भीषण प्रदूषण से निबटते हुए आगामी पीढी के अनबूझ प्रश्‍नों का उत्‍तर देनें एवं इस व्रत की  उपादेयता से परिचित कराने का यह भी एक तरीका ही है।  

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...