विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
(शेख हुसैन के गाए गीतों के विशेष संदर्भ में) श्रम परिहार, आनंद उत्सवों और संस्कार के अवसर में लोक की अभिव्यक्ति गीतों के माध्यम से प्रस्तुत होती है। लोक में गीतों की परम्परा आदिम युग से विद्यमान है और इसकी यही पारंपरिकता इसे लोकगीत के रूप में स्थापित करती है। लोकगीतों का संवहन वाचिक रूप से भाषायी भौगोलिक क्षेत्र में पीढ़ी दर पीढ़ी होती है। इस प्रक्रिया में सामाजिक परिवेश और युगीन संदर्भ इसमें जुड़ते जाते हैं। लोक सहज रूप से इसके माध्यम से एक आदर्श समाज और संवेदनशील मानवीय मूल्यों के प्रति व्यक्ति की प्रतिबद्धता को स्थापित करता है। समयानुसार मानवीय अनुभूतियों का कलात्मक प्रकटीकरण इसमें और निखार लाता है। वाचिक प्रवाह इन सभी सामाजिक सरोकारों का लोकगीतों के रूप में दस्तावेजीकरण करते चलता है जिसमें सामाजिक संदर्भ समाए रहते हैं। यह विभिन्न भाषाई-क्षेत्रीय लोकगीतों के बीच अपने विशिष्ठ पहचान को स्वमेव प्रदर्शित कर देता है। छत्तीसगढ़ के लोकगीतों में भी सामाजिक संदर्भ गुंफित हैं, जो तत्कालीन समाज को प्रतिबिंबित करता है। हम इस आलेख में छत्तीसगढ़ी के लोक गायक शेख हुसैन के गाए सात लोकप्रिय लोकगीत