ठीक पकड़े हैं, शौंचालय बनाना सस्ते का सौदा है

आप बिलकुल ठीक पकड़े हैं आप शौचालय बनाने की सोच रहे हैं या शौचालय में एसी लगाने की सोच रहे हैं जिसके चलते शौचालय महंगा बनेगा। शौचालय महंगा होता ही नहीं है। गांवों में तो शौचालय बाहर जाने की परंपरा है। गांवों में कहा जाता है -
नदी नहाए पूरा पाए , तालाब नहाए आधा।
कुआंं नहाए कुछ न पाए, घर नहाए ब्याधा।।

कहने का सीधा मतलब है कि नदी नहाने से पूरा पुण्य मिलता है जबकि तालाब नहाने से आधा और कुंआ नहाने से कुछ भी पुण्य नहीं मिलता है । वहीं घर में नहाने वाले बीमार व्यक्ति होते हैं। नहाने के पूर्व शौच जाना और फिर शुद्ध होना गांंव की परंपरा है। इस परंपरा में सुबह की सैर नदी की धारा में कटि स्नान शामिल है। यानी पूरी तरह वैज्ञानिक सम्पूर्ण स्नान। अगर ऊपर के दोहे को ध्यान से देखें तो उसके साथ गांव के शांत जीवन और पर्याप्त समय की बात भी छुपी हुई है जिसके पास जितना समय होता है उस हिसाब से वह नहाने और शौच के लिए नदी या तालाब का विकल्प चुनता है।
लेकिन अब पहले के से गांव नहीं रहे । किसानों की जोत छोटी हो गई है उन्हें अपनी जीविकोपार्जन के लिए खेती के अलावा भी अन्य काम करने पड़ते हैं इसलिए अब गांवों में भी लोगो के पास समय नहीं है उन्हें भी जल्द से जल्द तैयार होकर अपने काम से जाना पड़ता है इसके कारण उनके पास भी अब न तो नदी जाने की फुरसत है और न तालाब जाने का समय । चूंकि गृह स्वामी को जल्दी तैयार होना होता है तो उससे पहले महिलाओं को तैयार होना जरूरी है क्योंकि आखिर गृह स्वामी के भोजन व नास्ते का प्रबंध जो उन्हें करना पड़ता है, इसलिए अब गांवों के कच्चे घरों में भी शौचालय विलासिता नहीं बल्कि जरूरत बन गई है।

घबराइए नहीं शौचालय बिल्कुल भी महंगा नहीं होता है बस आपको उसकी तकनीक का थोड़ा सा ज्ञान भर होना चाहिए। हम देखते हैं कि गांवों में सस्ते शौचालय बनाने की तकनीक सुलभ इंटरनेश्नल ने विकसित की है। इसके लिए आपके पास थोड़ी ज्यादा जमीन होनी चाहिए जिसमें सोख्ता शौचालय(सोक पिट) का निर्माण किया जा सकता है इसमें अंदाज से डेढ़ मीटर व्यास तथा उतनी ही गहराई का थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दो गड्ढ़े बनाइए जाते हैं उसमें ईंटोंं से अंतर छोड़कर जोड़ाई करके पक्का निर्माण किया जाता है ताकि छोड़े गए स्थान से पानी आसानी से जमीन में चला जाए। इस गड्ढ़ा निर्माण में उसके ऊपर के स्थान पर सीमेंट से ढलाई कर ढक्कन बना दिया जाता है। इस दोनों सोक पिट को पाइप के सहारे एक छोटे से ब्लाक से जोड़ा जाता है इस ब्लाक से एक पाइप जुडा होता है जो शौचालय की सीट के सिस्टम से जुड़ा होता है जो जमीन से थोड़ी ऊंचाई पर बनाया जाता है। इस सिस्टम मेंं पहले एक गड्ढ़े में शौच चालू किया जाता है जब वह गड्ढा भर जाता है तो फिर दूसरे गड्ढ़े की तरफ की का पाइप खोल दिया जाता है और पहले वाले गड्ढे का उपयोग बंद रहता है। एक दो महीने बाद पहला गड्ढा सूख जाता है इस गड्ढ़े से बाद मेंं खोल कर सोनखाद निकाल ली जाती है जो खेतों के लिए उपयोगी है। यही क्रम बारी-बारी से चलता रहता है। इस निर्माण मेंं गड़्ढ़े में बनी गैस ईंट के किनारे के छोरोंं से अपने-आप निकलती रहती है। यह सबसे सस्ता सोकपिट शौचालय सिस्टम है।

आइए अब देखें सेप्टिक टैंक की तकनीक जिसे अज्ञानता वश लोग महंगा बना देते हैं। वास्तव में सेप्टिक टैंक ऐसी साधारण टंकी है जिसमें मानव मल के प्रबंधन की युक्ति से बनाई गई होती है। हम देखें तो मल की प्रकृति कच्चे में पानी में ऊपर बलबलाने की होती है । यही मल जब सड़ जाता है तो मलबे के रूप में नीचे बैठ जाता है, इसलिए टंकी में कच्चे मल को अलग और मलबा को अलग करने के खंड बनाए जाते हैं। टंकी के ऊपरी सतह से गैस पाइप दिया जाता है ताकि गंदी बास ऊपर वायुमंडल में उड़ जाए । वहीं सेप्टिक टैंक से पानी निकालने के लिए बीच के भाग से साइफन सिस्सटम से पाइप लगाया जाता है ताकि केवल भूरा पानी ही निकले और मल न निकल पाए। इस पानी को आप सीधे नाली,खेतों में या फिर सोक पिट में डाल सकते हैं।

सेप्टिक टैंक के आकार पर उसका खर्च निर्भर करता है समझ के अभाव में लोग टैंक को बड़ा और मजबूत बनाने के लिए भारी खर्च कर देते हैं जबकि सेप्टिक टैंक का आकार उसके उपयोग करने वालों की संख्या पर निर्भर करता है साधारणतया 700 गैलन का टैंक दो बाथरूम तक के लिए पर्याप्त होता है। आपके आत्म विश्वास के लिए यहां पर विभिन्न सेप्टिक टैंक क्षमता के बनावट की तालिका दी जा रही है ताकि आप निश्चिंत हो सकें कि कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हो रही है। रही बात उसको बनाने की तो यह आप पर निर्भर करता है कि आप इसे छड़ सीमेंट से ढाल कर हल्की कांक्रीट का सिस्टम बनाते हैं या फिर एक ईंट की दीवार का बनाते हैं यह नहीं भूलना चाहिए कि आपको एक वाटर प्रूफ टंकी बनानी है जिसे जमीन में गड़े रहना है कोई बंकर या तहखाना नहीं बनाना है जिसमें न ही कोई विस्फोटक पदार्थ रखना हो। सेप्टिक टैंक मानव मल के प्रबंधन का एक साधारण संयत्र है जिसके भर जाने पर समय-समय पर साफ करवाना पड़ता है। विदेशों में तो अब प्लास्टिक के रेडीमेट सेप्टिक टैंक मिलने लगे हैं जिन्हें जमीन में गाड़ दीजिए और उपयोग करिए।

चलिए सेप्टिक टैंक से अलग बाथरूम की बात करते हैं तो बाजार में शौचालय में लगने वाली शीट की कीमत में बड़ा अंतर देखने को मिलता है। राजधानी के गुप्ता ट्रेडर्स के सौरभ गुप्ता ने चार गुणा साढ़े चार फिट के स्थान में बाथरूम की डिजाइन तैयार की है। उनके अनुसार इंडियन शीट 3 सौ रुपए से शुरु हो कर 50 हजार तक मिलती है जबकि इंग्लिश शीट 8 सौ रुपए से शुरु होकर 2 लाख रुपए तक बिकती है। अब तो बाजार में टच स्क्रीन टायलेट का विज्ञापन भी देखने को मिल रहा है। इसे ही कहते हैं जितना गुण उतना मीठा आपकी मर्जी आप कितना खर्च करना पसंद करेंगे।

आजकल टीवी में सरकार के द्वारा भी शौचालय के उपयोग की महत्ता से जुड़े विज्ञापन दिखा जा रहे हैं। लेकिन अपनी आदत को क्या कीजिएगा जहां कहीं सुनसान नदी देखता हूं शौच जाने के लिए मचल जाता हूं। आखिर बचपन के संस्कार कहीं छूटते हैं। मन और है और जरूरत और है क्या आप तथा-कथित सभ्य बनेंगे। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा।


-प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट
रायपुर
प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, वर्तमान में रायपुर के प्रतिष्ठित दैनिक अखबार 'जनता से रिश्‍ता' से जुड़े हैं।
इनसे आप फेसबुक पर यहॉं संपर्क कर सकते हैं। 

बाबा नागार्जुन याद आये कई दिनों के बाद

1952 में अकाल और उसके बाद नागार्जुन नें 'कई दिनों के बाद' लिखा। हमने भी कई कई दिनों के अंतराल में इसे पढ़ा, नाट्यशालाओं में रेंकियाते कलाकारों से बार-बार सुना। गरीबी-भुखमरी और पता नहीं क्या-क्या ..मरी से परिपूर्ण इस देश में इस सहज-सरल कविता का मर्म हम समझने का यत्न करते रहे। वातानुकूलित कमरों में बैठकर सर्वहारा की बात करने वाले इसे कालजयी कविता बताते रहे और हम इसे पढ़ते रहे। इसे पढ़ते-सुनते उपरी तौर पर हृदय में सिहरन सी दौड़ती और अभिव्यक्ति की दबंगई को वाह, वाह कहते 'पोटा, पोट-पोट' करने लगत। दरअसल, सही मायनों में हमने इसे अंदर तक महसूस किया ही नहीं था, जरूरत भी नहीं थी?

भौतिकवादी युग में 1952 की कविता की प्रासंगिगता 2015 में कुछ रह कहॉं जाती है। चूल्हे गायब हो गए, गोदी नें अमीरों की गैस सबसिडी छोड़वाकर झुग्गी-झोपड़ी में लगवा दिया। गैस नें सांझ ढले खपरैल की घरों के उपर उठते धुंए की मनोहारी छटा को लील लिया। महिलाओं की चूडि़यों की खनक के साथ हर्षित होने वाली चक्कियॉं घरों से 'नंदा' गए, उनकी उदासी देखने के लिए हमारी आंखें तरस गयी। सीजते संयुक्त परिवार की परिकल्पना 'तईहा' की बातें हुई, अचानक आने वाले मेहमानों के लिए उतावली और हमेशा 'एक ठोम्हा अकतिहा चुरने' वाली देचकी किलो के भाव बेंच दी गई और उनका स्थान सीमित मात्रा में भोजन बनाने के लिए उपलब्ध लीटर वाले कूकरों नें ले लिया। ऐसे में घर के सामने जूठन पर पलने वाली कानी कुतिया भी भाग कर अब मुनिसपल के वेस्ट मैनेजमेंट में अपना कमीशन खोजने लगी। रंगीन केमिकल्स से पुते पुताये भीत से कीट-पतंगों को विरक्ति हुई और जो आशक्त किचन के सेंधों में छिपे बैठे रहे उनके लिए हिट सहज रूप से परचून की दुकान पर उपलब्ध हो गया। इन सबको देखते हुए सुकड़दुम छिपकिलियों का गस्त, पहरेदारों की नहीं चोरों सी लगने लगी, सो छिपकिल्लियां भी गायब। विभिन्न प्रकार के उडल-नूडल खाद्धान्न से भरे घरों में कपड़े, किताबें, गत्ते और लकडि़यों को कुतरते चूहों की शिकश्ती का हालात भी अब दिखने से रहा। चाउंर वाले बाबा की किरपा से मुफ्त दानों की एक आध बोरी और चेपटी की दो चार बोतलों से घर सदा आबाद रहा मने अंदर ही रहा, तो दानों के अंदर आने की बात रही ही नहीं। रही बात काले कौये की तो उस पर ब्‍लॉ.. ब्‍लॉं.. ब्‍लॉं...

हॉं अब समय बदल गया है, शब्दों की परिभाषाओं में बदलाव आ गया है। ग्रोथ के आंकड़ो के छद्मावरण के बीच किश्तों में खरीदी खुशियों से संतुष्ट, एंड्राइड मोबाईल धारी, मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग आज भी इस कविता में अपने आप को तलासता है। उपरी कमाई व छठे वेतनमान के अंगूर को ताकते, न्यूनतम वेतनमान को तरसते, जिन्दगी के ड्यू इंस्टांलमेन्ट की रिकवरी वाले एसएमएस और फोन काल से तंग, किसी परिवार में अचानक जब मेहनत का असली फल गांधी जी के छापों वाले कागज के टुकड़ों के साथ मिलता है तब बाबा नागार्जुन याद आते हैं और घर भर की आंखें चमक उठती है, कई दिनों के बाद!

-तमंचा रायपुरी

सुनीता वर्मा के चित्रों की तिलस्मी और सम्मोहक दुनियां


-    विनोद साव
अपनी सिमटी हुई दुनियां में यह पहली बार था जब किसी चित्रकार के घर जाना हुआ था. चित्रकारों कलाकारों से दोस्ती तो रही पर घर से बाहर ही रही. कला से सम्बंधित सारी बातें या तो प्रदर्शनी में होती रहीं या फिर कला दीर्घा में, पर किसी कला के घर में नहीं. यह चित्रकार डॉ.सुनीता वर्मा का घर था. उनकी कला का घर. कभी साहित्यकार मित्रों के साथ कार्यक्रम के बाद उन्हें रात में छोडने घर आया था. पर जब उनकी कला पर चर्चा करने के लिए दिन में घर खोजा तो पा नहीं सका फिर रात में आया तो वही घर मिल गया. जिस तरह कभी दिन में गए किसी स्थान को हम रात में नहीं खोज सकते उसके विपरीत कुछ हो गया था कि रात में गए घर को दिन में नहीं तलाश पाया. शायद यह भी कला का कोई उपक्रम हो जिसमें लाईट एंड शेड का प्रभाव पड़ता हो. दरवाजे पर खड़ी सुनीता जी को मैंने कला के इस संभावित प्रभाव के बारे में बताया तब वे केवल इतना बोल पायीं कि ‘क्या बात है !’ यह कहते हुए उन्होंने कला के घर में मुझे ले लिया था जहाँ चित्रकार सुनीता रहती हैं दिन-दिन और रात रात भर. न केवल अपने जीवन में रंग भरते हुए बल्कि रंगों में जीवन भरते हुए भी.

कमरा उतना ही बिखरा हुआ है जितने की कला को दरकार होती है. जीवन का बिखराव, असंतुलन और अस्थिरता इन्सान में प्रतिभा का भी स्फुटन करती हैं. जीवन स्थिर हो गया तो समझो कला और विचार भी जड़ हो गए.
कमरे में दीवाल से टिकी पेंटिंग्स के बीच दो नन्हे बच्चे बैठे हुए हैं अपने अपने रंगों की रेखाओं को खींचते हुए. वे चित्रकला सीखने आते हैं. एक कोने में ट्रांसिस्टर बज रहा है जिसमें मधुर गीत बज रहे हैं. मैं कहता हूँ कि ‘ये रेडियो है या टेपरिकार्डर ! इसमें गाने बड़े चुने हुए आ रहे हैं!’ सुनीता कहती हैं कि ‘जब मैं सुनती हूँ तब रेडियो भी गीत चुने हुए ही बजाता है.’
उस छोटे से कमरे में मैं एक स्टूल पर बैठ जाता हूँ. वे बातें करती हैं और बीच बीच में बच्चे अपने बनते हुए चित्र उन्हें दिखाते हैं. वे उन्हें निर्देशित करती हैं. रेडियो पर गीत मद्धिम सुरों में बज रहे हैं. मैं शुरुआत करता हूँ कि ‘आपकी चित्रकला में रंग संयोजन इतना अद्भुत हैं कि आपके अमूर्त चित्र भी एक मूर्त रूप तलाश लेते हैं. चित्रों और रंगों की आपकी स्वप्निल दुनियां यथार्थ का एक अलग ताना बाना बुन लेती हैं.’ अपनी इतनी ही टिप्पणी को कुछ दिनों पहले मैं उनकी एक पेंटिंग को फेसबुक पर ‘शेयर’ करते हुए लिखा था जिसे देश भर से चित्रकला के कितने ही कदरदानों ने ‘लाइक’ किया था. तब सुनीता ने भी अभिभूत होकर फोन किया था. इससे ज्यादा मैं नहीं बोलता हूँ क्योंकि चित्र कलाओं का मैं केवल दर्शक हूँ खुद चित्रकार नहीं. वे भी अचंभित हैं कोई साहित्यकार उनकी कला पर बातें करने कैसे आ गया है? थोड़ी देर खामोश रहती हैं फिर बोलती हैं कि ‘मुझे पहले क्रोध बहुत आता था संभवतः उसे दबाने के लिए मैंने यह उपक्रम किया हो. भीतर का उद्रेक बाहर आकर मन को शांत तो कर देता है.’
‘क्या क्रोध की स्थितियों में कला मुखर हो पाती है? पूछने पर कहती हैं ‘मेरे साथ तो ऐसा नहीं है ..उसके लिए एक अच्छे ‘मूड’ का होना ज़रूरी है. भीतर अगर व्यवस्थित है तब फिर दिन क्या और रात क्या. केनवास पर रंगों की छटा छा जाने के बाद ही मन संतृप्त होता है तब फिर समय का भान होता है.’
मेरे सामने ज्यादातर पेंटिंग्स ढंके हुए रखे हैं या फिर दीवालों की ओर अपना मुंह छिपाए हुए हैं. चित्रकार भी संभवतः आत्म-प्रचार से दूर है इसलिए उन्हें भी अपने चित्रों को दिखलाने की कोई तीव्र इच्छा नहीं है. बल्कि कला-विमर्श में वे अधिक रस ले रही हैं. इस बीच उनकी सहेली सुलेखा चंद्राकर आ जाती हैं अपने उन बच्चों को लेने के लिए जो यहाँ पेंटिंग्स सीख रहे हैं. उनकी परिचित सहेली मुझसे पूछ बैठती हैं कि ‘आपको चित्रकला में इतनी दिलचस्पी कब से हो गयी ?.’  मैंने कहा ‘बस तब से जब से सुनीताजी की पेंटिंग्स देखी है.’ सुनीता की पेंटिंग्स के चित्र मैंने सबसे पहले डॉ.रत्ना वर्मा द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘उदंती’ में देखे थे. सुनीता कहती हैं कि ‘पेंटिंग्स को लेकर रत्ना-दी और मेरी पसंद खूब मिलती हैं.’ मैंने कहा ‘आप दोनों में यह साम्य है कि दोनों ही बड़े प्रकृति प्रेमी हैं. रत्ना शब्दों से प्रकृति को उकेरती हैं और सुनीता रंगों से.’ वे कहती हैं ‘हाँ..मेरे चित्रों में प्रकृति का तादात्मीकरण खूब है और प्रकृति के चित्रण के लिए वाटर कलर मुझे सबसे अनुकूल लगता है. इसके अतिरिक्त मेरी ज्यादातर एक्रेलिक पेंटिंग्स है.’ उनके चित्रों में मैं सामने रखी पेंटिंग में तीन बहनों को देखता हूँ जो छत्तीसगढ़ के आभूषणों से लदी फदी हैं. मैं पूछता हूँ ये लोग कौन हैं? वे सकुचाते हुए बोल पड़ती हैं ‘बस हमीं लोग हैं.’ वे बोलचाल में भी हिंदी बोलते समय छत्तीसगढ़ी के शब्द धडल्ले से बोलती हैं.
कहने पर वे दीवालों में अपना मुंह छिपा रही कुछ पेंटिंग्स को मेरी ओर घुमाती हैं उनमें उनकी तूलिकाओं से बने चित्रों और रंगों की वही तिलस्मी और सम्मोहक दुनियां है जो उन्हें चित्रकला की दुनिया में एक अलहदा चित्रकार बनाती हैं. इंदिरा संगीत एवं कला विश्व-विद्यालय से पेंटिंग्स में मास्टर ऑफ फाइन आर्ट्स की डॉ.सुनीता वर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ के प्रचलित माटी शिल्प पर’ अपना पी.एच.डी. किया है. वे देश भर में अनेकों स्थानों में अपनी कला के प्रदर्शन के लिए ख्याति पाई हैं और पुरस्कारों से अलंकृत हुई हैं. सम्प्रति डी.पी.एस.भिलाई में कला प्रभारी हैं.
अब वे कला के इस घर से निकालकर मुझे अपने गृहस्थ-घर में ले चलती हैं जहां हम चाय पीते हैं और सोनपापड़ी खाते हैं. मेरे सामने वाले कक्ष में उनका बेटा बैठा है कंप्यूटर पर अपने काम में मशगूल जैसे किसी ख्यातनाम चित्रकार का साधक बेटा हो. निकलते समय वे कहती हैं कि ‘साहित्यकार लोग बडबोले होते हैं पर मैंने पहली बार किसी को इतना शान्तचित्त पाया.’
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विनोद साव - लेखक संपर्क : 9009884014


राष्ट्रीय जनजातीय नाट्य अभिव्यक्ति उत्सव : आदि परब – 2

छत्तीसगढ़, आदि कलाओं से संपन्न राज्य है, यहां सदियों से जनजातीय समुदाय के लोग निवास करते आ रहे हैं। बस्तर, सरगुजा एवं कवर्धा क्षेत्र सहित यहॉं की संपूर्ण मिट्टी में आदिम संस्कृति एवं कलाओं के पुष्प सर्वत्र बिखरे हुए हैं। जनजातीय अध्येताओं का मानना है कि दक्षिण भारत के जनजातीय समूहों से सांस्कृतिक आदान प्रदान के फलस्वरूप एवं कला एवं परम्पराओं में विविधता के बावजूद, छत्तीसगढ़ की जनजातियों की अपनी एक अलग पहचान कालांतर से विद्यमान है। भौगोलिक रूप से देश के हृदय स्थल में स्थित होने के कारण यहॉं के इन्हीं जनजातियों के जनजातीय कला एवं संस्कृति का एक अलग महत्व है। इसीलिए जनजातीय आदि कलाओं के अध्ययन के उद्देश्यो से, देश के नक्शे में छत्तीसगढ़ को प्रमुखता दी जाती है। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के द्वारा पारंपरिक नाट्य विधा के शिक्षण-प्रशिक्षण के साथ ही विगत वर्षों से इन जनजातीय आदि कलाओं और नृत्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आदि कलाओं से संपन्न छत्तीसगढ़ में संस्कृति विभाग छत्तीसगढ़ के सहयोग से ‘आदि परब’ का आयोजन पिछले वर्ष से आरंभ किया गया है। इस वर्ष यह आयोजन 27 से 29 नवम्‍बर को रायपुर के मुक्ताकाशी मंच में आयोजित हुआ था।

तीन दिन तक चले इस कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ सहित तेलंगाना, झारखण्ड, ओड़ीशा, महाराष्‍ट्र व मध्य प्रदेश के जनजातीय प्रदर्शनकारी कलाओं का प्रदर्शन किया गया। जिसमें छत्तीसगढ़ के जनजातीय प्रदर्शनकारी कला भतरा नाट, धुरवा डंडार नाट, माओपाटा, ककसाड़, कमार नृत्य, बैगानी करमा, सैला, रास करमा, सरहुल आदि की प्रस्तुति आयोजित थी। जनजातीय प्रदर्शनकारी कला के अतिथि प्रस्तुतियों में तेलंगाना के कोया, झारखण्ड के छाउ एवं मुंडारी, उड़ीसा के ढाप, परजा, महाराष्ट्र के ढोल, बोहाड़ा एवं तड़पा, मध्य प्रदेश के भगोरिया एवं भड़म की पारम्परिक जनजातीय नृत्य प्रस्तुति दी गई।

‘आदि परब -2’ के शुभारम्भ पर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक प्रो. वामन केंद्रे ने कहा कि हम आज ग्लोबलाईजेशन के दौर में हैं और विश्व के पैमाने पर हमारी संस्कृति और परम्परायें एक जैसी होती जा रही है, ऐसे में हमारे सामने अपने मूल रूप को धरोहर के रूप में बचाये रखने का दायित्व है। वनों से बेदखल होते आदिवासी और जमीनों से जुदा होते गाँव-वासी अपनी जीवन शैली खोते जा रहे हैं, हम उन्हें और उनकी जीवन शैली को धरोहर के रूप में बचाने जुटे हैं। यह बात हम सभी जान रहे हैं कि, देश के अन्य सभी लोगों के साथ साथ जनजाति के लोगों को भी बहुत सी सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का सामना करना पड़ता है, उसके बाद भी जनजाति समुदाय अपनी कलाओं और संस्कृति को जीवित रखे है, ये उनके लिए गौरव और सम्मान की बात है। किसी देश की असली धरोहर वही समुदाय होता है जो देश की कलाओं और मूल संस्कृति को जीवित रखे और जनजाति के लोग इस मायने में देश के धरोहर हैं।

जनजातीय चित्रकला कार्यशाला : आदि सर्जना

देश के कई राज्यों में जनजातीय समाजों के पारंपरिक चित्रकला का एक सुदीर्घ इतिहास है, जिसके अंतर्गत उस जनजाति के लोग वानस्पतिक, जैविक, मानवकृति एवं ज्यामितीय आकृतियों का उपयोग कर चित्रांकन करते हैं। इन जनजातियों में मध्यप्रदेश के भील और गोंड, छत्तीसगढ़ के मुरिया और उरांव, उड़ीसा की सावरा, महाराष्ट्र की वारली, गुजरात की राठवा तथा मणिपुर की कबुई जनजातियां विशेष उल्लेखनीय है। इन्ही जनजातीय चित्रकारों में से भील, गोंड, मुरिया, उरांव, वारली तथा सांवरा चित्रकारों की प्रतिभागिता के साथ इस कार्यक्रम में एक चित्रकला शिविर भी आयोजित की गई, जिसमें इन कलाकारों द्वारा सृजित कलाकृतियों को इस प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया। आदि सर्जना में प्रस्तुपत कलाकृतियां जनजातीय मिथक कथाओं, गृह सज्जा, अनुष्ठानों तथा कल्पना की उड़ानों के चित्रित प्रतिमा थी, जो हमें जनजातीय कलाकारों की कलात्मक अभिव्यक्ति के स्वर्णिम संसार से परिचित कराते हैं।

इस कार्यशाला में देश के प्रसिद्ध जनजातीय चित्रकला के सिद्धस्थ् कलाकार जिसमें पाटनगढ़ मध्यप्रदेश से दिलीप श्याम, रामसिंग उर्वेती, गरीबा सिंग टेकाम, निक्की सिंह उर्वेती नें गोण्ड चित्रकारी प्रस्तुत की। महाराष्ट्र के धुन्दलवाड़ी के अशोक रामजी वरण, डाहनू के राजेंद्र वायडा, निलेश रामजी राजड और बायेडा के मीनाक्षी वासूदेव नें वारली चित्रकारी प्रस्तुवत की। झाबुआ मध्यप्रदेश के जाम्बू सिंगाड एवं सूरज बारिया नें भील चित्रकारी प्रस्तुत की। उड़ीसा के लिबेस्टन गांमागो, रविन्द्रकनाथ साबर व जुनेश गोमांगो नें सौरा चित्रकारी प्रस्तुीत की। गढ़बेंगाल बस्तर से बलदेव मंडावी, शंकर मंडावी, जयराम मंडावी, बेलगूर मंडावी व पिसाडू सलाम नें मुरिया चित्रकारी प्रस्तुत की। जशपुर छत्तीसगढ़ के सुमन्ती देवी भगत एवं अनामिका भगत नें उरांव (बन्ना) चित्रकारी प्रस्तुत की। इन जनजातीय चित्रकारों के द्वारा बनाये गए चित्रों की यहॉं प्रदर्शनी भी लगाई गई। यह जनजातीय चित्रकला की कार्यशाला महंत घासीदास संग्रहालय परिसर के आर्ट गैलरी में 20 से 29 नवम्बर तक आयोजित थी। मीडिया एवं जनता के बीच इस कार्यकाशाला की बेहद प्रशंसा हुई।

आदि सर्जना एवं राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा प्रयोजित ‘आदि परब -2’ के इस संपूर्ण कार्यक्रम की रूपरेखा एवं कार्यक्रम संयोजन की जिम्मेदारी संस्कृति संचालनालय द्वारा प्रसिद्ध मानवविज्ञानी, संस्कृतिकर्मी एवं भारत सरकार के मानव संग्रालयों के आधार निर्माता अशोक तिवारी जी को प्रदान की गई थी। उन्होंनें इस कार्यक्रम को बेहतर तालमेल एवं उत्कृष्‍ट प्रबंधन से सफलतापूर्णक आयोजित किया। आदिपरब-2की यादें स्मृति में, प्रकृति से साक्षात्कार के पलों के एहसास की तरह दिनों तक महकती रहेंगी।
-संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...