रवि रतलामी को प्रतिष्ठित मंथन - दक्षिण एशिया पुरस्कार 2009

चिट्ठा चर्चा में 22 दिसम्बर की चर्चा में तरकश डाट काम को प्रतिष्ठित मंथन - दक्षिण एशिया पुरस्कार 2009 मिलने की जानकारी दी गई थी. दूसरे दिन की चर्चा में यह ज्ञात हुआ कि यह प्रतिष्ठित पुरस्कार  हम सबके प्रिय चिट्ठाकार रवि रतलामी को भी प्रदान किया गया है. इस पोस्ट पर रवि भाई नें टिप्पणी कर इसे स्पस्ट किया -




आप सभी का धन्यवाद. वैसे, पुरस्कार मुझे नहीं, मेरे एम्बीशियस, पेट प्रोजेक्ट - छत्तीसगढ़ी प्रोग्राम सूट - केडीई 4.2 को मिला है. और पुरस्कार का नाम मीडिया मंथन नहीं, बल्कि आई टी सेक्टर का मंथन पुरस्कार है. अधिक जानकारी यहाँ देखें - http://www.manthanaward.org/section_full_story.asp?id=803.

यह हमारे लिये यह बहुत ही उत्साहजनक समाचार है. 13 श्रेणियों में दिया जाने वाला प्रतिष्ठित मंथन पुरस्‍कार  जमीनी स्तर पर स्थानीय भाषा सामग्री के डिजिटल उपकरणों में प्रयोग के रूप में छत्तीसगढी आपरेटिंग सिस्टम बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानें के लिए रवि शंकर श्रीवास्तव जी को प्रदान किया गया है . रवि भाई नें अपनी निस्ठा और लगन से परिश्रमपूर्वक यह छत्तीसगढी आपरेटिंग सिस्टम बनाया है, यह उनके कल्पनाओं का सम्मान है. पिछले वर्ष सृजनगाथा में दिये एक साक्षात्कार में उन्होनें कहा था कि


मैं सदैव से छत्तीसगढ़िया रहा हूँ । यहाँ की मिट्टी की महक सदैव मुझे आकर्षित करती है. मेरा सपना है कि छत्तीसगढ़ी भाषा में ऑपरेटिंग सिस्टम (http://cg-os.blogspot.com ) हो, उसमें कार्य करने को अनुप्रयोग हों । गनोम 2.1 डेस्कटॉप युक्त छत्तीसगढ़ी लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम वर्ष भर की मेहनत से तैयार हो सकता है । हमारे पास तमाम तकनीकी कौशल इसके लिए है । हमने हिन्दी के लिए कार्य किया ही है । इस कार्य के लिए कुछ आर्थिक संबल की आवश्यकता है। देखते हैं कब यह सपना पूरा होता है।



संजीत त्रिपाठी के आवारा बंजारा में  पेपर मा रवि रतलामी हा छपे हावय के प्रकाशन के साथ ही रवि रतलामी जी के छत्तीसगढी आपरेटिंग सिस्टम के प्रति हम सबकी उत्सुकता बढ गई थी. हमारे छत्तीसगढ गौरव रवि रतलामी जी के प्रयासों से छत्तीसगढी भाषा का कम्प्यूटर आपरेटिंग सिस्टम तैयार हुआ सभी नें माना कि  क्षेत्रीय भाषा का यह पहला कंप्युटर ऑपरेटिंग सिस्टम  हैं. गांव-गांव तक अपनी उपस्थिति सिद्ध कर रहे संचार क्रांति के माध्यम कम्प्युटर में अपनी बोली - अपनी बानी में आपरेटिंग सिस्टम होने का लाभ ग्राम पंचायतों और चिप्स सेंटरों में लगने वाले कम्प्युटरों के अधिकाधिक उपयोगकर्ता ग्रामीणों को मिलेगा.

निश्चित ही रवि भईया के इस प्रयास से छत्तीसगढी भाषा का विकास संभव होगा एवं जमीनी स्तर पर अधिकाधिक लोगों को कम्प्युटर तकनीकि का ज्ञान सहज रूप से प्राप्त हो सकेगा. यह आपरेटिंग सिस्टम संचार क्रांति को आम आदमी तक पहुचाने में एक अहम साधन साबित होगा.

छत्तीसगढ के परचम को उंचा लहराने वाले हमर मयारू रवि भईया को बहुत बहुत बधाई.

संजीव तिवारी 

छत्तीसगढ़ के हिन्दी चिट्ठों का वार्षिक विश्लेषण

अंतरजाल में बडी तेजी से हिन्दी भाषा की बनती पैठ में हिन्दी ब्लागों का योगदान अहम है. अंतरजाल में अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी चिट्ठों का भविष्य क्या होगा इस पर चिंतन न करते हुए हिन्दी चिट्ठों की समृद्धि से हम आशान्वित हैं कि अभी और इसका विकास होगा. भाई रविन्द्र प्रभात जी नें अपने चिट्ठे परिकल्पना पर इन विषयों पर गहन अध्ययन करते हुए वार्षिक चिट्ठों का गंभीर विश्लेषण प्रस्तुत किया है. इनके वार्षिक परिकल्पना लेखों में समस्त हिन्दी चिट्ठों के संसार को समाहित किया गया है. हमें विश्वास है उनके ये विश्लेषणात्मक लेख हिन्दी चिट्ठाकारी को नई दिशा देनें में समर्थ होंगें. भाई रविन्द प्रभात की परिकल्पना लेखों में से देश के बडे नक्शे का आदर करते हुए हम यदि अपने प्रदेश के भौगोलिक नक्शे पर नजर डालें तो हमारे प्रदेश से शरद कोकाश, बी.एस.पाबला, गिरीश पंकज, जी.के.अवधिया, ललित शर्माराजकुमार ग्वालानी, डॉ. महेश परिमल, एवं मेरे चिट्ठों का दशावतार एवं नव-उपरत्नो  में नामोल्लेख आया है.

हम इसे पढ कर उत्साहित हैं इसके पीछे जो भावनांए रही है वह आप मेरे इस लेख से पूरी तरह से समझ सकते हैं. छत्तीसगढ में हिन्दी चिट्ठाकारी के अंकुर के फूटते ही हम चाहते रहे हैं कि इस नवोदित प्रदेश में इस सर्वसुलभ विचार अभिव्यक्ति के माध्यम (ब्लागों) की संख्या में वृद्धि की जाए. और हमने (संजीत त्रिपाठी और मैंनें) हर संभव प्रयास किये, ढेरों ब्लाग बनाए, कई पत्र-पत्रिकाओं को इंटरनेट प्लेटफार्म दिया एवं अपने अपने तरह से लगातार सहयोग किया. हमसे पूर्व हिन्दी नेट पर कालजयी पोस्ट लिखने वाले जयप्रकाश मानस जी भी इन्ही कार्यों में एवं हिन्दी विकिपीडिया को समृद्ध करने और नेट में स्तरीय सामाग्री डालने में पूर्ण एकाग्रता से लगे रहे. तदसमय के सक्रिय चिट्ठाकारों में दिल्ली (राजनांदगांव वाले) से नीरज दीवान, भोपाल (महासमुंद वाले) से डॉ. महेश परिमल रायपुर से डॉ.पंकज अवधिया, जी.के.अवधिया, चांपा से प्रो.अश्विनि केशरवानी, राजनांदगांव से चंद्रकुमार जैन, भिलाई से लोकेश,  दुबई (राजिम वाले) से दीपक शर्मा, बिलासपुर से राजेश अग्रवाल, व अंकुर गुप्ता , राजीव रंजन प्रसाद आदि भी निरंतर रहे. सबके प्रिय भाई समीर लाल जी कनाडा (चरौदा वाले) से एवं भाई रवि रतलामी जी रतलाम (राजनांदगांव वाले) से हम सभी का निरंतर उत्साहवर्धन करते रहे. इन सबके प्रयासों से ही इस प्रदेश से इस चिट्ठाकारिता की दीप अनवरत प्रज्वलित रही. उन्ही दिनों चिट्ठों के विषय-वस्तु के संबंध में शास्त्री जे.सी.फिलिप के विषय व क्षेत्र केन्द्रित अभियान के तहत् हमने अपना यह चिट्ठा सिर्फ छत्तीसगढ क्षेत्र से संबंधित विषयों पर केन्द्रित कर लिया. 

जैसे-जैसे प्रदेश में हिन्दी चिट्ठों का प्रचार प्रसार होता गया हमारे प्रदेश के चिट्ठाकार, हिन्दी चिट्ठों की दुनियां में प्रवेश करते गए एवं अपनी उपस्थिति दर्ज कराते गए. इन्ही दैदिप्यमान चिट्ठाकारों में भाई अनिल पुसदकर जी का हिन्दी चिट्ठाकारी में आना   दरअसल में छत्तीसगढियों के चिट्ठाकारिता अध्याय के नये पन्ने का आगाज था. जिन्दादिल भाई अनिल पुसदकर के ब्लाग अमीर धरती गरीब लोग नें हिन्दी नेट प्रेमियों के हृदय में स्थान पाया और प्रदेश का परचम हिन्दी चिट्ठाजगत में लहराने लगा. कलम के प्रति प्रतिबद्धता , उनके मूल पेशे की खुशबू, सामाजिक विद्रूपों पर प्रहार करते उनके शव्द, प्रेम की फुहार पर अलमस्त लहराती  कमेंटों की हरियाली और जीवन के सुख दुख के रंगबिरंगी विभिन्न विषयों में रंगे रंग-बिरंगे पोस्टो से सजी उनकी बगिया को देख -सुन -पढ कर पाठकों का, इस प्रदेश और इस प्रदेश के चिट्ठाकारों पर ध्यान आकर्षित हुआ. इसके बाद क्षेत्रीय चिट्ठाकारों में हमारी भी रूचि बढती गई.

इस वर्ष में क्षेत्रीय भूगोल से या से जुडे सक्रिय चिट्ठाकारों में जिन चिट्ठाकारों के चिट्ठे मेरी नजर से गुजरे उनमें से कुछ का उल्लेख मैं यहां करना चाहूंगा.

इस वर्ष क्षेत्र के प्रमुख शव्द शिल्पी, कवि, आलोचक और सहीं मायनों में चिट्ठाजगत के योग्य पाठक भाई शरद कोकाश के पोस्टो नें हिन्दी चिट्ठाकारों को आपस में स्नेह से ऐसा जोडा कि हिन्दी चिट्ठाजगत इनका मुरीद हो गया. भविष्‍य की परिकल्पनाओं में हमें इनसे बहुत कुछ सीखना है. भाई बी.एस.पाबला जी के संबंध में मुझे हिन्दी चिट्ठाजगत में कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है. उनका नाम ही काफी है. मुझे उनकी लेखन शैली  सहज सरल और पठनीय नजर आती है जिनमें ज्ञान व अध्ययन झलकती है. भविष्य की परिकल्पनाओं में तकनीकि ज्ञान से परिपूर्ण बी.एस.पाबला जी से हमें बहुत उम्मीदें हैं.

गुरूदेव जी.के.अवधिया जी की प्रतिभा से मैं उनके चिट्ठे धान के देश में के अवतरण के समय से ही प्रभावित हूं वे अंतरजाल जगत की नब्ज पहचानते हैं और भाषा में उनकी पकड का मैं कायल हूं.  अलग-अलग भाषाओं में पकड रखते हुए शिल्‍पकार भाई ललित शर्मा जी नें हिन्दी चिट्ठाजगत में आते ही प्रादेशिक भूगोल में  अपनी हलचल को सक्षमता से दर्ज कराया. उनके शुरूआती पोस्टो एवं उनके द्वारा अन्य चिट्ठों में  की गई टिप्पणियों नें बहुतेरे चिट्ठाकारों के हृदय में स्थान बनाया और भावनात्मक संबंध स्थापित किए. भाई रविन्द्र प्रभात नें भविष्य की परिकल्पना में महत्वपूर्ण उनके उन पोस्टो का उल्लेख भी किया. 

चिट्ठाकारिता की दुनिया में एक अलग पहचान बनाने वाले भाई गगन शर्मा जी की समसामयिक लेखनी और सार्थक विमर्श नें हमें इस वर्ष बहुत प्रभावित किया उनके पुत्र के विवाह समारोह में सम्मिलित न हो पाने के कारण हमें स्वयं में कर्तव्यहीनता का भी एहसास हुआ किन्‍तु बडे भाई दयालू हैं हम उनके प्रेम के सदैव आकांक्षी रहेंगें.

निष्चेतना विशेषज्ञ भाई डॉ.महेश सिन्हा की हिन्दी चिट्ठाजगत में सक्रियता से आप सभी परिचित हैं इनका चिट्ठा संस्‍कृति, पाठकों का मनचाहा स्थान है और ये हिन्दी चिट्ठाजगत के प्राय: अधिकांश चिट्ठों के नियमित पाठक और सार्थक टिप्पणीकार हैं हमें इनकी साफगोई तरीके से पोस्ट लिखना बेहद भाता है. पत्रकारिता पेशे से जुडे राजकुमार ग्वालानी जी भी इन दिनों अपनी धारदार लेखनी खेलगढ और राजतंत्र नाम के चिट्ठे में प्रस्तुत कर रहे हैं और चिट्ठाजगत में अपना स्थान बना चुके हैं. भाई रमेश शर्मा भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए यायावर में अपनी बेबाक लेखनी प्रस्तुत कर रहे हैं. भाई गिरीश पंकज जी के रचनाकर्म एवं साहित्तिक अवदान से संपूर्ण हिन्दी जगत परिचित है वे भी अब हिन्दी चिट्ठाजगत में अपनी कवितायें एवं व्यंग्य प्रस्तुत कर रहे हैं जिसको आशातीत सराहना प्राप्त हो रही है इनके पोस्ट भविष्य में भी सदैव पठनीय रहेंगें. दिल्ली (रायगढ़) से भाई शहरोज़ के चिट्ठे हमजबान में संकलित सामाग्री एवं उनकी लेखनी के सम्मान में मेरे पास कोई शव्द नहीं हैं वे अब पूर्ण सक्रियता से लिख रहे हैं. 

तकनीकि विषयों पर खरोरा जैसे छोट स्थान से लिख रहे भाई नवीन प्रकाश नें थोडे समय में ही अपनी तकनीकि दक्षता सिद्ध कर दी है हमें खुशी है कि वे टिप्पणियों के नहीं मिलने या कम मिलने के बावजूद निरंतर लिख रहे हैं हमारी परिकल्पना के अनुसार नवीन प्रकाश जी को टिप्पणियों व पाठकों की चिंता से परे लिखते रहना चाहिए क्योकि वे जिन विषयों पर लिख रहे हैं उसकी उपादेयता भविष्य में भी बनी रहेगी.

रंगकर्म से जुडे नाट्य निर्देशक बालकृष्ण अय्यर,  कृषि वैज्ञानिक जी.एल.शर्मा जी का चिट्ठा (हार्टिकल्‍चर हैल्प), ख्यात कवि व साहित्यकार कुवर रविन्द्र जी (चिट्ठा अमूर्त ), कवि विनोद बिस्सा जी ( सतरंग), बिलासपुर से अरविंद झा (क्रांतिदूत),  कवि राजेश जाज्वल्य, कौशल स्वर्नबेर, छत्तीसगढ समाचार पत्र के सहायक संपादक डॉ.निर्मल साहू जी का ब्लाग विविक्षा, हरिभूमि के पत्रकार भाई विनोद डोंगरे ( छत्तीसगढ पोस्ट),  ब्रजेन्द्र गुप्ता जी का सामाजिक चिट्ठा (कसौंधन दर्पण), मुद्दों पर आधारित पत्रकारिता करने वाले सरोजनी नायडू राष्‍ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त पत्रकार भाई विभाष झा  भी इन दिनों नियमित रहने के जुगत में हैं इन सबकी सक्रियता निश्चित ही हमें स्तरीय व पठनीय सामाग्री प्रदान करने में सक्षम होंगी.

क्षेत्र से सक्रिय महिला चिट्ठाकारों की कमी खलती है किन्तु अल्पना आर्ट गैलरी के नाम से चिट्ठा लिख रही अल्पना देशपाण्‍डेय जी भी नियमित रूप से अपना योगदान चिट्ठाजगत में दे रही है  इनके बनाए शुभकामना पत्रों से यह चिट्ठा गुलजार है. अनियमित रूप से मुद्दों पर पोस्ट लिखनें वाली माया ठाकुर , अर्जेंटीना (रायपुर) से संगीता टिकरिहा को नियमित रहने की आवश्यकता है.

चोरबाजार के नाम से चिट्ठा लिख रहे भाई सुधीर पाण्डेय जी की सक्रियता व हिन्दी चिट्ठाजगत के प्रति उनकी उत्सुकता व उत्साह से हम वाकिफ हैं, वे अपने मन में उमड-घुमड रहे विचारों को बडे भाई सूर्य कांत गुप्ता जैसे पोस्ट का रूप देते हैं वैसे ही लिखते रहें क्योंकि  भाई सूर्यकांत गुप्ता जी किसी भी सामान्य से विषय को भी पोस्ट का रूप बडी सहजता से दे रहे हैं, हमें विश्वास है उनका यह क्रम अनवरत रहेगा.

इन सबके अतिरिक्त हमारे जुगाडू फीड एग्रीगेटर हमर छत्तीसगढ में सम्मिलित सभी चिट्ठों का नाम हम यहां पर सम्मिलित कर रहे हैं और आशा करते हैं कि हमारे प्रदेश चेतना के सभी शव्द  शिल्पियों का चिट्ठाकारिता की दुनियां में सक्रिय योगदान बना रहेगा. हमारी शुभकामनांए.

संजीव तिवारी  

आलेख की पीडीएफ प्रति यहां  है.

नक्सलवाद की तथा कथा - कनक तिवारी की पुस्तक 'बस्तर: लाल क्रांति बनाम ग्रीन हण्‍ट’

बस्तर में नक्सलवाद को लेकर 'छत्तीसगढ़’ और 'इतवारी अखबार’ के सुपरिचित लेखक तथा प्रदेश के सीनियर एडवोकेट कनक तिवारी के अपने निजी विचार और तर्क रहे हैं। उनके कई लेख 'छत्तीसगढ़’ में प्रकाशित होकर बहुचर्चित हुए हैं। कनक तिवारी की दृष्टि बस्तर में नक्सलवाद को लेकर शासकीय नीतियों और कार्यक्रमों में आदिवासी कल्याण की अनदेखी करने के कारण सत्ता प्रतिष्ठान की समर्थक नहीं है। उहोंने संविधान के आदेशात्‍मक और वैकल्पिक प्रावधानों को अमल में नहीं लाने के कारण राज्‍यपाल पद के विवेकाधिकारों की भी समीक्षा की है।

कनक तिवारी का मानना है कि नक्सलवाद मूलत: एक हिंसात्‍मक विचारधारा है जो पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी क्षेत्र में बड़े किसानों और जमींदारों के गरीब किसानों पर किए जा रहे अत्‍याचारों के कारण पहले तो एक विद्रोह के रूप में पैदा हुई और बाद में उस पर धीरे-धीरे माओवाद का मुलम्मा चढ़ाया गया। गांधीवादी दृष्टि के कट्टर समर्थक होने के कारण कनक तिवारी माओवाद या तथाकथित नक्सकलवाद के जरिए राजनीतिक परिवर्तन लाने के किसी भी हिंसक संकल्प का पुरजोर विरोध करते हैं। उनका लेकिन साथ-साथ यह भी मानना है कि वैश्वीकरण, बाजारवाद और पूंजीवाद के भारत जैसे विकासशील देशों पर हमले के कारण जंगलों, आदिवासियों और गरीब किसानों को उनकी भूमियां छीनकर नवधनाढ्य भारतीय उद्योगपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हिन्‍दुस्तान की जनता की छाती पर लादा जा रहा है और उसे विकास की संज्ञा दी जाती है, जबकि वह विनाश ही नहीं अंतत: सर्वनाश है।

अंग्रेजी न्‍यायिक परंपरा की वंशधर भारतीय न्‍यायपालिका को लेकर भी कनक तिवारी बहुत अधिक उत्‍साहित नहीं हैं। उनका मानना है कि भारतीय संविधान में अव्वल तो क्रांतिकारी संशोधनों को लाए जाने की जरूरत है लेकिन फिर भी जो कुछ प्रावधान उपलब्‍ध हैं उनके अनुसार ही आदिवासी क्षेत्रों में राज्‍यपालों और सरकारों द्वारा जो कुछ किया जा सकता है वह भी नहीं किया गया है। इसके कारण ही नक्सीलवाद को अपने पैर पसारने का अवसर मिला है। लेखक का यह भी मानना है कि मौजूदा नक्सकलवाद किसी तरह का राजनीतिक विकल्प नहीं देता है। उसके आधार पर जनक्रातियों की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन वह एक आतंकवादी संगठन के रूप में अपनी पहचान मानता हुआ जनजीवन को परेशान जरूर करता रहेगा। उनकी राय में नक्स लवाद का उन्‍मूलन होना जरूरी तो है लेकिन उसे पुलिस या सेना की हिंसा के द्वारा खत्‍म करने की बात सोचना बेमानी होगा क्‍योंकि जब तक स्वस्थ राजनीतिक प्रक्रिया शुरू नहीं होती आदिवासियों में जनअसंतोष तो बना ही रहेगा। कनक तिवारी की पुस्तक 'बस्तर: लाल क्रांति बनाम ग्रीन हण्‍ट’ शीघ्र ही प्रकाशित होकर आ रही है। उसका एक अंश यहां 'इतवारी अखबार’ में प्रकाशित हैं।


(यह आलेख इतवारी अखबार से साभार लिया गया है)

हिन्‍दी ब्‍लाग लिखिये और पैसा कमाईये, मुफ्त में कीबोर्ड कुटाई के दिन अब लद गए.

हिन्‍दी के लगातार बढते ब्‍लागों के बावजूद अभी तक यह माना जा रहा था कि हिन्‍दी ब्‍लागों से अभी आमदनी कुछ भी नहीं होने वाली है. उल्‍टा नेट के पैसे और ब्‍लाग में रमने का समय दोनों बेहिसाब खर्च हो रहे हैं. गूगल एडसेंस के हिन्‍दी ब्‍लागों से रूठ जाने के कारण प्राय: सभी हिन्‍दी ब्‍लागरों का यह मानना रहा है कि ब्‍लाग लेखन से आय हिन्‍दी के बजाए अंग्रेजी ब्‍लागों के जरिए ही संभव है.

समय समय पर इस संबंध में काफी टिप्‍पणीपाउ पोस्‍ट भी लिखे गए और आशा का डोर थामे हुए हिन्‍दी ब्‍लागर न केवल जमें रहे बल्कि दो-दो चार-चार दस-दस ब्‍लाग एक साथ लिखते रहे हैं. हम में से अधिकांश हिन्‍दी ब्‍लागर्स ब्‍लाग लेखन से पैसा कमाने के जुगत में निरंतर लगे हैं किन्‍तु प्रिट मीडिया में हमारे ब्‍लाग के कुछ पोस्‍टों के प्रकाशन से प्राप्‍त दो-चार सौ रूपयों के अतिरिक्‍त कोई बडी और नियमित आमदनी नहीं हो पाई है. हम लगातार प्रयासरत रहे कि छत्‍तीसगढ के राजनैतिक नेताओं के बैनर में नियमित ब्‍लाग लेखक के रूप में हम अपने हिन्‍दी ब्‍लाग लेखन को व्‍यावसायिक रूप दे पायें किन्‍तु यह नहीं हो पाया. वहीं एक अनाम ब्‍लागर बिना आहट प्रोफेशनल ब्‍लागर की तरह एक सरकारी संस्‍था का नियमित हिन्‍दी ब्‍लाग लिखने का काम पा गया.

रायपुर विकास प्राधिकरण का यह ब्‍लाग पूर्णत: आधिकारिक शासकीय ब्‍लाग है. हालांकि लेखक के ब्‍लागर प्रोफाईल से अभी प्रथम दृष्‍टया यह स्‍पष्‍ट नहीं हो पाया है कि इसके लेखक कौन हैं किन्‍तु लेखक नें अपने प्रोफाईल में अपने निवास स्‍थान के लिए जो शव्‍द प्रयोग किया है उस शव्‍द का प्रयोग केवल दो ब्‍लागर प्रोफाईल में हुआ है. इससे परे आप रायपुर विकास प्राधिकरण के ब्‍लाग का अवलोकन करें, यह ब्‍लाग किसी सक्षम व अनुभवी ब्‍लाग लेखक या किसी वेब निर्माण इकाई के द्वारा लिखा जा रहा है जिससे यह प्रतीत होता है कि यह व्‍यावसायिक तौर से किसी हिन्‍दी ब्‍लागर्स से लिखवाया जा रहा है, हो सकता है कि प्राधिकरण के द्वारा इसके लिए नियमित रूप से कोई राशि भी प्रदान किया जा रहा होगा.

यदि ऐसा हो रहा होगा तो यह हम सभी हिन्‍दी ब्‍लागरों के लिए अत्‍यंत शुभ समाचार है क्‍योंकि केन्‍द्र सरकार के लगभग सभी मंत्रालय अंग्रेजी में अपने ब्‍लाग लिख रहे हैं जो भविष्‍य में हिन्‍दी में भी लिखे जायेंगें और धीरे-धीरे राज्‍य सरकारें व अन्‍य उपक्रम भी हिन्‍दी में ब्‍लाग लेखन आरंभ करेंगें ही. हिन्‍दी ब्‍लागर्स के सरकारी नौकरी के पद भी विज्ञापित किए जायेंगें, ऐसे में हिन्‍दी ब्‍लागरों को कोई ना कोई नियमित ब्‍लाग लेखन का काम निश्चित ही मिल सकेगा.

मैं तो आज ही से अपना विज्ञापन चिपका रहा हूं, पहले तो चूक गया, अब और नहीं बस और नहीं .....


कबाड में छुपे सौंदर्य को रूप देती एक कला साधिका : रश्मि सुन्‍दरानी

हजारों लाखों लोगों नें चंडीगढ के राक गार्डन को देखा होगा और सबने उसे सराहा होगा किन्‍तु राक गार्डन बनाने वाले पद्मश्री सम्मान से सम्मानित नेक चंद सैणी की सृजनशील मानस जैसा चिंतन और उनके पदचिन्‍हों पर चलते हुए उसे साकार करने का प्रयास बिरले लोगों नें किया होगा। इन्‍हीं में से एक हैं नगर पालिक निगम दुर्ग के आयुक्‍त, राज्‍य प्रशासनिक अधिकारी श्री एस.के.सुन्‍दरानी की धर्मपत्‍नी श्रीमती रश्मि सुन्‍दरानी। राक गार्डन की कला नें उन्‍हें इतना प्रभावित किया कि उनकी कल्‍पनाशील मन नें न केवल राक गार्डन में लगाए गए कलाकृतियों के सौंदर्य और उनकी कलागत बारीकियों को आत्‍मसाध किया वरण उससे कुछ अलग हटकर काम करने का जजबा मन में पाला ओर एक संसार रच डाला।

कल्‍पनाओं को साकार स्‍वरूप देने का जजबा लिये पर्यावरण अभियांत्रिकी में स्‍नातकोत्‍तर श्रीमती रश्मि सुन्‍दरानी नें जब दुर्ग नगर निगम में अपने आयुक्‍त पति के साथ कदम रखा तो नगर पालिक निगम के स्‍टोर्स में पुराने रिक्‍शों, कचरा ढोने वाले हाथ ठेलों, मोटर बाईकों और गाडियों के टायरों, रिंगों का कबाड अंबार के रूप में भरा देखा। नगर पालिक निगम दुर्ग विभागीय नियमों के कारण बरसों से इन कबाडों को सहेज कर रखने और इसके लिए उपयुक्‍त स्‍थान सुलभ कराने के लिए विवश थी साथ ही इन सामानों की सुरक्षा के लिए सुरक्षा कर्मचारी की भी व्‍यवस्‍था करनी पड रही थी।

श्रीमती सुन्‍दरानी नें अपने पति को इस समस्‍या से दो चार होते देखकर राक गार्डन में देखे और उन कलाकृतियों को हृदय में समाये अपने अनुभवों को इन कबाडों से आकार देने की सोंची। उनके मन में इन कबाड से आकृतियां उभर कर सामने आने लगी किन्‍तु इसे साकार करने के लिए सबसे बडी समस्‍या थी इन सामानों को वेल्‍ड कर एक दूसरे से जोडने की। श्रीमती सुन्‍दरानी नें मन में घुमड रही आकृतियों का रफ स्‍कैच बनाया और एक वेल्‍डर की व्‍यवस्‍था कर उसे आकार दिलवाने लगी। लौह खण्‍डों/टिनों को आकार देने के लिए वेल्डिंग करते वेल्‍डर को समझाना रश्मि के लिए कठिन काम था, उनके मन में उभरे आकृतियों को आकार देने वेल्‍डर को समझाने में रश्मि को बहुत मशक्‍कत करनी पडती थी पर उन्‍होंनें हार नहीं मानी और एक दो वेल्‍डर बदलने के बाद परेशानी कुछ कम होती गई।

कुछ ही प्रयासों के बाद जो आकृतियां उभर कर आई वह क्‍लासिकल आर्ट के नमूने की भंति नायाब नजर आने लगी। लोगो की नजर में आते ही श्रीमती सुन्‍दरानी को प्रोत्‍साहन मिलने लगे और वह अपने काम में जुट गई। एक के बाद एक कला के नमूने सामने आने लगे, श्रीमती सुन्‍दरानी के मानस में गजब की इमेजिनेशन पलती है उन्‍होंनें गाडियों के बेरिंग, सायकल रिक्‍शों के छर्रा-कटोरी, दांतेदार बेरिंगों, पायडलों को जोड जोड कर एक विशालकाय डायनासोर का निर्माण किया जो दुर्ग के गौरव पथ में कला और कला की अनुभूति के गौरव की कहानी स्‍वयं कहता है। इसके साथ ही गौरव पथ के दोनों तरफ रश्मि जी की बनाई गई कलाकृतियां साकार होकर नृत्‍य करती प्रतीत होने लगी। छत्‍तीसगढ की संस्‍कृति व लोककला को प्रदर्शित करती इन कलाकृतियों में बीनवादक, मृदंगवादक, मोर, कछुआ, मकडी आदि की अद्भुत कृतियां मुस्‍कुराने लगी। जिसे देखकर दर्शक सहसा ठहर सा जाता है और पूरे शिद्दत के साथ कबाड से बने इन कृतियों को निहारता है।

श्रीमती सुन्‍दरानी का निवास ऐसी कलाकृतियों का खजाना है वहां दिन भर एक से एक कृतियां आकार ले रही हैं एक वेल्‍डर एक हैल्‍पर के साथ रश्मि जी के निर्देशन में उनकी अनुभूतियों को आकार देने कबाड और अनुपयोगी निर्जीव लौह खण्‍डों में भी भाव-भंगिमाओं से उनमें जान डालने हेतु प्रयासरत है। उनका कला के पगति समर्णण, निष्‍ठा एवं श्रम एक मिशाल है, उनका गार्डन मोर, बतख, मकडी, विभिन्‍न प्रकार के पारंपरिक वस्‍त्रों से सजे बादक के साथ ही टेबल, बंदवार, द्वार सबकुछ अनुपयोगी वस्‍तुओं से निर्मित है जिनकी सुन्‍दरता देखते बनती है।

अपने इन प्रयासों के संबंध में रश्मि सुन्‍दरानी कहती है कि जब श्री सुन्‍दरानी रायगढ नगर पालिक निगम में आयुक्‍त थे तब उन्‍होंनें इस पर प्रयास किया था और एक दो कलाकृतियों का निर्माण किया था जिसे लोगों नें सराहा और रायगढ के कुछ चौराहों पर सौंदर्यीकरण की दृष्टि से उन्‍हें लगाया गया उसके बाद उन्‍हें लगने लगा कि इस पर और प्रयास करना चाहिए। इसके बाद श्री सुन्‍दरानी का स्‍थानांतरण दुर्ग नगर पालिक निगम में बतौर आयुक्‍त हो गया जहां श्रीमती सुन्‍दरानी के कल्‍पनाओं नें एक नई उडान भरी। और इनके कला के योगदान की महक फूलों के सुगंध की तरह चहुओर फैलने लगी।

हर व्‍यक्ति के हृदय में एक कलाकार बसता है, एक सर्जक बसता है, मन में आकार लेती अपनी कल्‍पनाओं को अभिव्‍यक्त करने की अपन-अपनी शैली भी होती है। धीरे-धीरे वेल्‍ड होते लोहे के तुकडे जब श्रीमति सुन्‍दरानी के निर्देशन से उनके मानस पटल से उभर कर भौतिक स्‍वरूप धरते हैं तब इन निर्जीव कृतियों में जान आ जाती है। रश्मि की कलाकृतियां उनकी कलात्‍मक सौंदर्य व परिकल्‍पना की अधुनातन जुगलबंदी है। हर तरफ से मिल रहे प्रशंसा एवं नगर निगम के सर्वोच्‍च प्रशासनिक अधिकारी की धर्मपत्‍नी होने के बावजूद रश्मि में सादगी और सहजता की अद्भुत पूंजी है जो उनके भीतर छुपे कलाकार को और दमक व आभा प्रदान करता है.







चित्र तो बहुत हैं कभी दुर्ग आयें तो स्‍वयं इस अनोखे कलासौंदर्य का प्रत्‍यक्ष अवलोकन करें.

संजीव तिवारी

भरी जवानी में ब्‍लागिया वानप्रस्‍थ से धबराया ब्‍लागर

मेरे द्वारा पिछले कुछ महीनों से ब्‍लाग नहीं लिख पाने एवं कई महीनों से ब्‍लागों में टिप्‍पणी नहीं कर पाने की स्थिति पर ललित शर्मा जी नें मजाकिया लहजे में उमडत घुमडत विचार ब्‍लाग पर टिप्‍पणी की थी कि मैंनें वानप्रस्‍थ ले लिया है। (हालांकि उन्‍होंनें यह टिप्‍पणी मेरे व्‍यावसायिक कार्यगत समस्‍याओं के चिंता स्‍वरूप स्‍नेहवश लिखा था) मैंनें भी इसे मजाकिया रूप से स्‍वीकार कर तो लिया किन्‍तु गहरे में इस पर पडताल भी करने लगा कि ब्‍लागों पर टिप्‍पणी नहीं कर पाना नई परिभाषा के अनुसार एक तरह से ब्‍लाग जगत से वानप्रस्‍थ लेना है, और बतौर हिन्‍दी ब्‍लागर वानप्रस्‍थ लेने की बात पर चिंता होने लगी क्‍योंकि यही एक ऐसा जरिया है जिसके सहारे हम अपनी बात अपने बहुतेरे मित्रों तक सामूहिक रूप से साझा कर पाते हैं भले ही हमारी बातें, हमारे विषय की उपादेयता बहुसंख्‍यक हिन्‍दी जगत के लिए हो या न हो.

सो हम ब्‍लागजगत में सक्रिय रहने के पुन: जुगत लगाने लगे हैं, किन्‍तु परेशानी बरकरार है. ब्‍लाग पोस्‍टों को पढने के बाद साथी चाहते हैं कि कि कम से कम उनके ब्‍लाग पर 'उपस्थित श्रीमान' की टिप्‍पणी लगा कर वापस जाओ नहीं तो वे समझेंगें कि आपने हमारा ब्‍लाग पढा नहीं, और आपने हमारा ब्‍लाग पढा नहीं तो वे क्‍यूं आपका ब्‍लाग पढें.  इस समस्‍या का समाधान कभी भविष्‍य में मिल सके तब तक के लिए वानप्रस्‍थ ही हमें सुहा रहा है.

बहरहाल, वर्ष 2007 से हिन्‍दी ब्‍लागजगत में बतौर पाठक और सकुचाते हुए कहूं तो ब्‍लागर के रूप में उपस्थित हूं और इन तीन सालों में लगातार वर्ष के अंत में रविन्‍द्र प्रभात जी के वार्षिक चिट्ठा समीक्षा को पढ रहा हूं. (फीडएग्रीगेटरों के आकडे बतलाते हैं कि आप लोग भी इन समीक्षा पोस्‍टों को ज्‍यादा से ज्‍याद क्लिक कर रहे हैं.) इस बीच समय-समय पर ब्‍लाग और ब्‍लागर्स को प्रोत्‍साहन के लिए आयोजित प्रतियोगिताओं/पुरस्‍कारों के परिणामों का भी निरंतर अवलोकन कर रहा हूं। इसके साथ ही मेरे हमर छत्‍तीसगढ ब्‍लाग में सम्मिलित प्रत्‍येक छत्‍तीसगढिये ब्‍लागरों के ब्‍लाग पोस्‍टों को ताराचंद साहू के स्‍वाभिमान और राज ठाकरे के मराठी मानुस के क्षुद्र भावना से परे लगभग नियमित पढता हूं. नेट में निरंतर बढते हिन्‍दी के ग्राफ और उसी अनुपात में हिन्‍दी ब्‍लागों की बढोतरी एवं पाठकों की पसंद पर भी हमारी नजर रहती है। यह सब इसलिए कि मैं निरंतर अपने ब्‍लागिया औचित्‍य पर स्‍वयं प्रश्‍न उठा सकूं. और अग्रजों के ब्‍लागों को पढनें, उनसे कुछ सीखने का निरंतर अवसर प्राप्‍त कर सकूं.

ऐसी स्थिति में वानप्रस्‍थ आश्रम में जाने की बात को सोंच कर डर लगता है इसीलिये जब भी कोई ब्‍लागर्स मीट की जानकारी होती है झटपट अपनी सीट जमाकर फोटू-सोटू सेशन में मुस्‍कुराते हुए फोटो खिंचाने का प्रयास करता हूं ताकि लिंकों के ही सहारे ब्‍लागर बना रहूं. और महीनें में एक पोस्‍ट भी यदि लिखूं तो उसकी उपादेयता पर चिंतन करके ही लिखूं. क्‍योंकि महीने में एक पोस्‍ट लिखा तो भी ब्‍लागर और दिन में  चार-चार पोस्‍ट लिखा तो भी ब्‍लागर.

श्री शैलम पर

संजीव तिवारी

दुर्ग में ब्लागरों की चिंतन बैठक में हावर्ट् फ़्रास्ट के ‘आदि विद्रोही’ भी

दुर्ग में ब्लागरों की मैथरान बैठक के बीच शरद कोकाश जी से हावर्ट् फ़्रास्ट के ‘आदि विद्रोही’ पर भी चर्चा हुई, हमने बतलाया कि यह किताब हमारे ब्लागर साथी फुरसतिया अनूप शुक्ल जी को बहुत पसंद है तो शरद जी नें बतलाया कि यह किताब भोपाल के अजित वडनेरकर जी को भी बहुत पसंद है और स्वयं उन्हें शरद जी को भी पसंद है. हमने मायूसी जाहिर की कि हम अपनी उत्सुसकता के बावजूद इसे पढ नहीं पाये हैं तो शरद जी नें अपने विशाल लाईब्रेरी में से ‘आदि विद्रोही’ निकाल कर दिखाया और हमने अपना कैमरा चमकाया.




मैथरान बैठक की रपट शीध्र ही आपको मिलने वाली है अभी चित्रों का मजा लीजिये





मालवीय नगर चौक पर अनिल पुसदकर जी से गुफ्तगू


ब्‍लागों को कम्‍प्‍यूटर में निहारते हुए गहन चर्चा में मशगूल ब्‍लागर






महू फोटू इंचा लेतेव भईया,
किताब मन के संग फोटू
बने पढईया-लिखईया दिखहूं,
कोन जनी
इही ला देख के
टिप्‍पणी के
बढोतरी हो जाए.


रामहृदय तिवारी रंगकर्म और भाषा के आगे-पीछे का संघर्ष डॉ. परदेशीराम वर्मा


पिछले छ: माह से छत्‍तीसगढ के ख्‍यात निर्देशक, रंगकर्मी व शव्‍द शिल्‍पी श्री रामहृदय तिवारी से मिलने और कुछ पल उनके सानिध्‍य का लाभ लेने का प्रयास कर रहा था किन्‍तु कुछ मेरी व्‍यस्‍तता एवं उनकी अतिव्‍यस्‍तता के कारण पिछले शनीवार को उनसे मुलाकात हो पाई. सामान्‍यतया मैं उनके फोन करने और उनके द्वारा मुझे बुलाने पर नियत समय पर पहुंच ही जाता हूं किन्‍तु इन छ: माह में मुझे कई बार उनसे क्षमा मांगना पडा था. पिछले दिनों हमारी मुलाकात छत्‍तीसगढ के विभिन्‍न पहलुओं पर निरंतर कलम चला रहे प्रो. अश्विनि केशरवानी जी के दुर्ग आगमन पर हुई थी तब श्री रामहृदय तिवारी जी द्वारा हमें दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित किया गया था और उन्‍होंनें अपनी व्‍यस्‍तताओं के बीच हमें लगभग पूरा दिन दिया था तब सापेक्ष के संपादक डॉ. महावीर अग्रवाल जी भी हमारे साथ थे. कल के मुलाकात में हिन्‍दी की प्राध्‍यापिका डॉ. श्रद्धा चंद्राकर द्वारा सर्जित किए जा रहे लघुशोध ग्रंथ- 'छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य को समृद्ध करने में निर्देशक रामहृदय तिवारी का अवदान’ पर भी चर्चा हुई जिसके संबंध में डॉ. श्रद्धा का कहना है कि यह लघु शोघ प्रबंध संपूर्ण वृहद शोध ग्रंथ के रूप में बन पडा है. इस शोध प्रबंध के लिए डॉ. श्रद्धा नें कुछ क्षेत्रीय मूर्धन्‍य साहित्‍यकारों से साक्षातकार लिए गए हैं जिनमें से डॉ. परदेशीराम जी वर्मा से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर हम यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं :


00 रामहृदय तिवारी जी के व्यक्तित्‍व से आप किस तरह परिचित है? पारिवारिक मित्र के रूप में, विचारक के रूप में, कलाकार के रूप में अथवा एक निर्देशक के रूप में? उनका कौन सा पक्ष आपको सर्वाधिक प्रभावशाली लगता है? और क्यों ?

0 मैं श्री रामहृदय तिवारी के मंचीय कौशल से प्रभावित होकर उनसे जुड़ा। उन्‍हें मैंने पहली बार दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के बाड़ा में देखा। तब पदुमलाल पुन्नालाल जी बख्शी की लिखित रचना पर मंचीय इतिहास की अलभ्य कृति 'कारी’ को जमीनी आधार देने के लिए दाऊ जी वितान तान रहे थे। वहीं मेरा परिचय रामहृदय तिवारी से हुआ। चुकचुकी दाढ़ी वाले, अंतर्मुखी, छुन्ने से दिखने वाले रामदृदय तिवारी से मैं र्पूणतया अपरिचित था। मैं मिनटों में घुल मिल जाने वाला बहिर्मुखी व्यक्ति हूं। तिवारी जी दूसरे सिरे पर खड़े रहस्यमय व्यक्ति लगे। मुझे ऐसे लोग सहसा नहीं सुहाते। मगर तिवारी जी की एक विशेषता ऐसी थी, जिससे मैं बांध लिया गया। वे अतिशय विनम्र और अल्पभाषी है। अनावश्यक वार्तालाप से बचते हैं मगर जरुरी वालों को कहे बगैर चुप नहीं रहते। ऐसे लोग विवाद में पड़े बगैर सदैव मैदान मार लेते हैं। यही पक्ष मुझे सर्वाधिक प्रभावित कर गया। आज भी चुप रहकर मंच के माध्‍यम से ऐलान-ए-जंग करने का उनका अंदाज मुझे सुहाता है।

00 'क्षितिज रंग शिविर’ की स्थापना से लेकर 2009 तक पिछले चार दशकों में हिन्‍दी रंगमंच के क्षेत्र में उनके योगदान को आप किस रूप में देखते हैं?

0 तुलसीदास जी की विनय पत्रिका को विद्वान, मानस से भी बड़ी रचना कहते हैं। मगर जनमन रमता है मानस पर। उसी तरह रामहृदय तिवारी की हर नाट्य-कृति महत्‍वर्पूण है। मगर उन्‍हें लोक में स्थापित किया 'कारी’ ने। यह छत्तीसगढ़ी लोकमंच की कृति है। हिन्‍दी नाटकों का लंबा सिलसिला है जिसमें अंधेरे के उस पार, भूख के सौदागर, भविष्य, अश्वस्‍थामा, राजा जिंदा है, मुर्गीवाला, झड़ी राम सर्वहारा, पेंशन, विरोध, घर कहां है, हम क्यों नहीं गाते, अरण्‍यगाथा, स्वराज, मैं छत्तीसगढ़ महतारी हूं इत्‍यादि है। मुझे 'अरण्‍य गाथा' पसंद है। 'घर कहां है' और 'मुर्गीवाला' अन्‍य कारणें से। उनकी मारक शक्ति और जनहित की पक्षधरता के कारका ये नाटक मकबूल हुए। रामहृदय तिवारी ने छत्तीसगढ़ में हिन्‍दी मंच को चमत्‍कारिक स्पर्श दिया। वे भाषा के जानकार और शास्‍त्रीयता के पक्षधर है। इसलिए उनका काम सर चढक़र बोलता है। निश्चित रूप से रामहृदय तिवारी छत्तीसगढ़ में रंगमंच के ऐसे पुरोधा हैं, जिन्‍हें अभी पूरी तरह जानना बाकी है। वे अगर व्यवसायिकता के दबाब और छिटपुट कामों की मसलूफियत को छोड़ सकें तो छत्तीसगढ़ में निर्देशन की अविस्मरणीय और सहज परंपरा की पुख्ता नींव रख देंगे। हम प्रतीक्षा कर रहे हैं।

00 रामहृदय तिवारी निर्देशित कौन- कौन से नाटक आपने देखे हैं? प्रभावोत्‍पादकता की दृष्टि से इन नाटकों को आप किस कोटि में रखते हैं? सामाजिक समस्याओं के निदान में उनके नाटक किस हद तक सफल कहे जा सकते हैं?

0 इस प्रश्न के उत्‍तर ऊपर के प्रश्नों के जवाब में मैं दे चुका हूं। आम जन की उपेक्षार्पूण जिंदगी पर मेरी कई कहानियां है। मुझे आश्चर्य हुआ सुखद संयोग पर कि जिस दंश के एक मंचीय परिवार के सदस्य होने के नाते मैं झेलता रहा, उसे श्री तिवारी ने किस तरह पूरे प्रभाव और मंचीय कौशल के साथ अपनी कई प्रस्तुतियों में रख दिया।

00 छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, लोक नाट्य और छत्तीसगढ़ी नाटक के क्षेत्र में रामहृदय तिवारी का क्‍या विशिष्ट योगदान है? आप अपनी राय दीजिए।

0 छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, लोकनाट्य और छत्तीसगढ़ी नाटक के संदर्भ में किसी व्यक्ति के योगदान को कुछेक पंक्तियों में रेखांकित करना उचित नहीं होगा। छत्तीसगढ़ी नाटकों में श्री रामहृदय तिवारी द्वारा निर्देशित नाटक हैं- 'लोरिक चंदा', 'कारी', 'कार कहां हे', 'मैं छत्तीसगढ महतारी हूं', 'धन धन के मोर किसान' 'नवा बिहिनिया', 'आजादी के गाथा' 'बसंत बहार' आदि। ये सभी प्रस्तुतियां महत्‍वर्पूण है। हर नाटक की अपनी विशिष्टता, प्रभाव और गमक है।


00 'मैं छत्तीसगढ़ महतारी हूं' नाटक के लेखक और निर्देशक रामहृदय तिवारी आम छत्तीसगढ़ी आदमी के जीवन के यथार्थ, उसकी पीड़ाओं और उसकी अदम्य जिजीविषा को किस तरह अभिव्यक्ति देते हैं?

0 'मैं छत्तीतसगढ़ महतारी हूं' नाटक में शीर्षक से ही सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। हर व्यक्ति का अपना नजरिया होता है कृतियों को परखने का। नाटक में छत्तीसगढ़ के भावाकुल सपूतों के महिमा मंडल का प्रयास प्रभावित करता है, मगर उनकी कमजोरियों पर ऊंगली रखने की अपेक्षित और पर्याप्त कोशिश नहीं की गई। सोमनाथ का मंदिर ध्‍वस्त हुआ तब मंदिर के पुजारियों की संख्या लुटेरों से कई गुनी अधिक थी, मगर संघर्षहीन सुविधा भोगी लोगों की भीड़ काट दी गई। छत्तीसगढ़ भी आज सोमनाथ बना हुआ है। अंधेरा गहरा है, रात काली है, चारों ओर बदहवासी है, लोग गफलत में है। जागरण का संदेश देने के निमित्‍त ही यह कृति तैयार हुई है। जागरण का संदेश देना हमारा पहला दायित्‍व है। हमारा गौरवशाली अतीत और भयावह भविष्य दोनों मंच पर लिखे। हांफता हुआ वर्तमान भी मंच पर नजर आये। इस दृष्टि से 'मैं छत्तीसगढ़ महतारी हूं' नाटक देखता हूं तो मुझे लगता है कि लडऩे का जज्‍बा पैदा करने की दृष्टि से नाटक को और कई दिशाएं तय करना है। फिर भी यह एक यादगार कृति है।

00 रामहृदय तिवारी ने दूरदर्शन के लिए, सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के लिए कई छोटी बड़ी फिल्मों का निर्देशन किया है। इनमें से कौन-कौन सी फिल्में आपने देखी है? ये फिल्में दर्शकों को किस सीमा तक प्रभावित करती है? साथ ही यह भी बताइए कि ये फिल्में दर्शकों के समक्ष किस तरह की चुनौतियां प्रस्तुत करती है?

0 रामहृदय तिवारी निर्देशित लगभग सभी फिल्में मैंने देखी है। तिवारी जी में कला- साना और समर्पण के गुण इतने अधिक हावी हो जाते हैं कि उनसे बाजार छूट जाता है। मैं कामना करता हूं कि वे बाजार की विशेषता को समझकर मैदान मारने के लिए कमर कस सकें। कलात्‍मक गुकावत्‍ता की दृष्टि से उनकी सभी फिल्में ऐसी हैं, जिन पर गुणियों की नजर पड़े तो वे पुरस्कृत हो जाएं।

00 रामहृदय तिवारी समय- समय पर समसामयिक विषयों को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे हैं? एक लेखक के रूप में उनका मूल्यांकन आप किस तरह करेंगे?

0 रामहृदय तिवारी शब्‍द शिल्पी है। अच्‍छे चिंतक है। उनका व्यक्तित्‍व बेहद भाव प्रणव है। यथार्थ से टकराने वाली भाषा त्रयाशं से टकराने वाले स्वभाव से जन्‍म लेती है। तिवारी जी आध्‍यात्‍म, कला, साहित्‍य के तिराहे पर खड़े न होते तो उनकी सिद्धि और प्रसिद्ध किसी एक क्षेत्र में कुछ और रूप ग्रहण कर चुकी होती। लेकिन तमाम क्षेत्रों की मसरूफियत के बावजूद वे भाषा को साधने के लिए खूब यत्‍न करते रहे, इसलिए लेखन में भी उनकी गति बनी रही। भाव जगत में जब वे विचरण करते हैं- तब भाषा उनके पीछे भागती है। जब वे यथार्थ से टकराने का प्रयास करते हैं तब भाषा के पीछे वे भागते हैं। मुझे उनके इस द्वन्‍द और दुख को देखकर सदैव आनंद आया।
00 त्रैमासिक पत्रिका 'सर्जना' के अभी तक आठ अंक प्रकाशित हो चुके हैं। सर्जना के संपादक के रूप में रामहृदय तिवारी निरंतर प्रयोगशाला नजर आते हैं। 'सर्जना' की उपादेयता और प्रयोगशीलता पर अपने विचार बताइए।
0 श्री रामहृदय तिवारी के संपादन में पिछले दो वर्षों से प्रकाशित होने वाली 'सर्जना' एक विशिष्ट त्रैमासिक पत्रिका है, भीड़ में अलग पहचानी जा सकने वाली, स्तरीय और मूल्यवान। मैं इसका नियमित पाठक हूं। शोधार्थियों के लिए भी यह पत्रिका उपयोगी है, ऐसा मैं मानता हूं।

महाभारत से गहरा नाता रहा है छत्तीसगढ का - वीरेन्द्र कुमार सोनी

अपनी मातृभूमि के इतिहास को समझने की दृष्टि का विकास और अपनी भूमि के प्रति आसक्ति के आधार पर इस आलेख में छत्‍तीसगढ़ के प्राचीन काल से संबंधित इतिहास के बनते प्रसंगों का सृजनात्‍मक संदर्भो में रूपायन का प्रयास किया है। जिसमें महाभारत कालीन घटनाओं का सिलसिलेवार उल्लेख है। लेखक का मानना है कि इन घटनाओं के आधार पर दक्षिण कोशल यानि हमारे छत्‍तीसगढ़ का महाभारतकाल से गहरा नाता रहा है। छत्‍तीसगढ़ के अनेक नगरों एवं स्थानों का नाम जो आज भी प्रचलित है उनमें इस बात की पुष्टि भी होती है मसलन, गंडई पंडरिया (गाण्‍डीव पाण्‍डवरिया), भीम खोह (भीम खोज), अरजुन्‍दा, गाण्‍डीव देह (गुण्‍डरदेही), सहदेव पुर, भीम कन्‍हार, देवपाण्‍डप, पंच भैय्या, यादवों का गॉंव नंदगांव (राजनांदगांव), भील-आई (भिलाई) प्रमुख है। लेखक ने छत्‍तीसगढ़ अंचल के विभिन्‍न स्थानों के नाम के आधार पर उनका महाभारतकालीन साम्य ढूढऩे की कोशिश की है। यह सर्वविदित तथ्‍य है और पुराणें में इसका उल्लेख है कि त्रेतायुग में घटित भगवान श्री राम एवं रावण के मध्‍य युद्ध के पश्चात वानरों एवं भालुओं ने अपनी राजधानी किष्किंधा पर्वत के पम्पापुर नामक स्थान पर बनाई थी। उसके पश्चात हजारों वर्ष के बाद भालुओं ने अपनी राजधानी के लिए मध्‍य प्रांत में पिम्पलापुर नामक स्थान को चुना। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान में यह पिंपलापुर से अपभ्रंश में आते-आते पिपरिया हो गया है। यहां पर वह गुफाएं भी स्थित है जिसे हम पांडव गुफा के नाम से जानते हैं।

गुरू द्रोणचार्य द्वारा एकलव्य का तिरस्कार करने पर खिन्‍न होकर युवावस्था में एकलव्य ने इसी दक्षिण कोशल की भूमि को अपनी कर्मभूमि बनायी तथा इस क्षेत्र के वनान्‍चल प्रमुख भील राजा चिल्फराज की कन्‍या सुपायली से विवाह किया तथा इसके बाद उसने मध्‍य कोसल में अपनी राजधानी बनायी। उस समय यह सम्‍पूर्ण क्षेत्र रान्‍यपुरम के नाम से जाना जाता था। कालान्‍तर में आगे चलकर युग परिवर्तन के पश्चात यह क्षेत्र कलचुरी राजवंशों के अधिपत्‍य में आया तथा यहॉं के शासन राय ब्रम्हदेव राय के नाम से यह भाग आज रायपुर कहलाता है। महाबली भीम के बारे में यह कहा जाता है कि वह पर्वतों को मात्र एक डांग में पार करते थे। छत्‍तीसगढ़ में दो पैरों के मध्‍य को डांग कहा जाता है। सो हो सकता है कि डांग शब्‍द से ही आज के डोंगरगढ़ का साम्य हो। उस युग में माता जी का नाम कात्‍यायनी देवी था तत्‍पश्चात युग परिवर्तन होने के साथ- साथ क्रमश: माता जी का नाम कमायनी देवी, काम्यादेवी, कामादेवी, विमला विम्लेश्वरी, बगुलामुखी, वर्तमान में माता जी को बम्लेश्वरी देवी के नाम से जानते है। भगवान श्री कृष्‍ण की बातों को सुनकर भीमसेन ने जिस स्थान पर माता का आह्रवान किया उस स्थान को आज डोंगरगढ़ में भीमपांव के नाम से जाना जाता हैं तथा यादव ने इस स्थान पर पूर्व दिशा की ओर लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर समस्त गायों को विचरण हेतु जिस स्थान पर रखा था इस स्थान को पांडवों ने नन्‍दगांव की उपमा दी तथा यह स्थान आज राजनांदगांव कहलाता है । इसी से लगा हुआ यहां पर पाण्‍डादाह नामक स्थान है जो संभवत: पांडवों द्वारा स्थानीय निवासियों को गऊदान करने के कारण ही पांडादान कहलाता है। दाऊ शब्‍द का प्रचलन भी महाभारतकालनी गौपालकों की परंपरा का हिस्सा है।

इमली के बीज को छत्‍तीसगढ़ भाषा में चिचोल बीजा कहा जाता है। क्‍योंकि इमली के बीच में कैल्शियम, विटामिन सी तथा आयरन नामक तत्‍व होता है, जिसके खाने से गायों की मात्र उदरपूर्ति ही नहीं होती वरन उनका स्वास्थय भी उत्‍तम रहता है सो नंदगांव यानि राजनांदगांव के पास एक गांव चिचोला नाम से है। नन्‍दगांव के स्थापना के समय भगवान श्री कृष्ण ने इसी दिशा में यहां की भूमि को प्रणम किया तथा यहां की मिट्टी को अपने पीली कछौटी में लेकर यहां की धरती को स्पर्श किया फिर क्‍या था यहां की समस्त भू - भाग पीली मिट्टी में परिवर्तित हो गया तथा हाथों से छूने के कारण ही इस मिट्टी को छुई नाम किया गया। इस कारण यह स्थान आज छुई खदान कहलाता है। महाभारत काल में जंगलों में जटासुर नामक एक राक्षस का र्वणन मिलता है । वह मनुष्यों को मारकर उनके रक्‍त से जंगलों को सींचता था। इसी कारण यहां की वनस्पति लाल हुई और इस वनस्पति को खैरा कहा गया । खैर अर्थात् कत्‍था, कालांतर में आगे चलकर यह स्थान अपनी विशेषता के कारण खरपुर कहलाया बाद में कलियुग में इसे आज हम खैरागढ़ के नाम से जानते है। खैरागढ़ से आगे ही नगपुरा है, जहां का नाग से साम्य संभव है। यहीं पर एक स्थान है जिसे कोपेडीह कहा जाता है। कोप अर्थात् क्रोध और डीह अर्थात गृह। नाग की मणियो के चमकने से जिस स्थान को सोनमणि कहा गया होगा वह आगे चलकर अपभ्रंश रूप में आज सोमनी हो गया है। मणि के प्रकाश से जो स्थान प्रकाशमय होता है वह स्थान अंजोरा कहलाता है। नागों के ढेढे, मेढ़ चालों से ही ढेढे सर्प, मेढेसरा नाम स्थान का नाम आता है । जो आज मेढ़ेसरा के नाम से जाता है। मणि की रशिमयां फैलने की वजह से ही रिसामा गांव का नाम पड़ा होगा। नाग के फन में भगवान श्री कृष्‍ण के पद के निशान को छत्‍तीसगढ़ी भाषा में चन्‍द्रखुर कहा जाता है सो इस आधार पर चन्‍द्रखुरी गांव का नाम पड़ा होगा।

कृष्ण चन्‍दू अर्जुन के नाम से अनायास कचांदुर नाम याद आता है तथा मोहन चन्‍द्र अर्जुन के नाम से अनायास ही मचांदूर का नाम आता है। इनके पास ही अंडा गांव है, जिनका साम्य सांपो के अंडे देने से मिलता है। आज का आधुनिक भिलाई कहीं ना कहीं भीलों से संबंध रखता है। तभी भील आई ही अपभ्रंशित होकर भिलाई हो गया है। इससे लगे शहर दुर्ग ने दुर्गम वनांचल के कारण यह नाम पाया होगा। ऐसा माना जाता है कि भीम ने दक्षिण दिशा के प्रवेश द्वार में शिलाओं परकोटों का निर्माण किया था। चूंकि इनका निर्माण प्रस्तर खण्‍डों से हुआ था, इसलिये इस स्थान को प्रस्तर खण्‍ड बाद में बस्तर नाम दिया गया। आज दक्षिण क्षेत्र में स्थित इस जिले का नाम बस्तर नाम दिया गया । आज बस्तर क्षेत्र में महाबली भीमसेन द्वारा निर्मित विशाल परकोटों के कारण ही वह स्थान बस्तर कहलाया। यहां की दंतेश्वरी माता दरअसल दक्षिण से आई माता दन्‍तम्मा है। गोंड़ राजाओं ने इन्‍हें दंतेश्वरी नाम देकर कुलदेवी माना। चूंकि दन्‍तेश्वरी माता मां जगदम्बा का ही अवतार थी। आगे चल कर यह स्थान जगदम्बा के नाम पर जगदपुर कहलाने लगा।

माता कामधेनु की पुत्रियॉं नंदिनी एवं कपिला के नाम से एक क्षेत्र नंदनी नगर कहलाता है। नागों के बारे में माना जाता है कि यह सांप गायों के पैरो से लिपट कर उनका दूध पी लेते हैं लेते थे इन्‍हें अहि कहा जाता है और दूध के व्यवसाय से जुड़े समुदाय को अहीर बुलाया जाता है। संभव है अहिर शब्‍द से बने नागों के इस स्थान को अहिवारा नाम दिया गया। नाग को गाय का श्राप है कि वे भूमि के ऊपर स्वयं का निवास स्थान नही बना पायेंगे इसलिय नागों के निवास स्थान को भिम्भौरा कहा गया। अहिवारा के पास भिम्भौरी नाम स्थान है। इसी क्षेत्र में चूने की खदान होना भी यहां के धार्मिक व पौराणिक महत्‍व को दर्शाता है। दूध व चूना पानी के रंग में अद्भुत समानता होती है और दोनों में कैल्शियम की मात्रा होती है कैल्शियम अर्थात चूना, इसलिये यहीं कही पर चूने की खदान होना चाहिये वर्तमान में भिलाई इस्पात संयंत्र इसी स्थान से चूना पत्‍थर का खनन करता है। जिसे नंदिनी माइंस के नाम से जाना जाता है। प्राचीन सूर्यकुण्‍ड नामक सरोवर सूख गया आज वह स्थान सुरडुंग कहलाता है। आतंक फैलाने वाले हर युग में होते हैं। छत्‍तीसगढ़ी भाषा में इन्‍हें उतलेघा कहा जाता है। इसलिये इस शब्‍द से संबंधित उतई नामक स्थान का नाम पड़ा। पाटन नगरी का नाम पटनम शब्‍द से बना यही कारण है कि आज भी पाटन के पास बंदरगाह के निशानी देखी जा सकती है। वह स्थान है सोनपुर बंदरगाह से संबंधित गांव का नाम वर्तमान में पंदर कहलाता है। माना जाता है कि शिलापुरम (सिरपुर) नामक राज्‍य के संस्थापक राजा मोरध्‍वज की परीक्षा लेने श्री कृष्ण एक भिक्षुक व अर्जुन को भूखा सिंह (शेर) बना कर लाए थे। भिक्षुक ने राजा से कहा कि उसका भूखा सिंह केवल मानव मांस ही खाता है। यदि राजा और रानी अपने हाथों से काटकर मनुष्य मांस खिलाएंगे तो यह भोजन ग्रहण करेगा। तब राजा ने फैसला किया और अपने पुत्र ताम्रध्‍वज (जिसकी आयु मात्र 8 वर्ष की थी) को आरी से काट कर उसे शेर को परोस दिया। उसकी दानशीलता देख भगवान खुश हुए और अपनी माया को समाप्त करते हुये उसके पुत्र को फिर से जीवित कर दिया था। तब से यह स्थान आरंग कहलाया। कालान्‍तर से लेकर आज तक उस स्थान को आरंग कहते है। उस समय न तो वहा पर महानदी थी न ही शिवनाथ और न ही कोई अन्‍य नदी थी, उस क्षेत्र में कुलेश्वर मंदिर मात्र था, चारों ओर केवल जंगल ही जगल था।

राजा मोरध्‍वज ने भीम एवं अन्‍य शूरवीरों को अत्‍यन्‍त ही प्रसन्‍नतापूर्वक स्वागत किया तथा भगवान श्री कृष्ण ने उन्‍हें विशेष रूप से आशीवाद दिया तथा राजा मोरध्‍वज से वर मांगने को कहा तब राजा ने उत्‍तर दिया हे माधव इस क्षेत्र में एक भी नदी नहीं है। पर्वत राज सिहावा पर भीम सेन ने अपने विशाल पद प्रहार से जो जल धारा का निर्माण किया वह एक नदी के रूप में बदल गई । पद प्रहार पर्वत की तली पर किया गया था जिससे धम्म की प्रतिध्‍वनि उत्‍पनन हुई थी, सो इसी क्षेत्र का नाम धम्मतली पड़ा जो कालान्‍तर में बिगड़ते - बिगड़ते धमतरी कहलाई। पैरों के प्रहार से जहां जल धारा निकली, उसे पैरी नदी कहा गया जिसकी धारा उत्‍पन्न ही मोटी धारा के साथ जो नदी निकली वही महानदी है। महर्षि .ाृंग लोमस ऋषि उनके शिष्य का नाम था महानंद इन्‍ही के नाम से ही इस नदी को महानदी कहा जाता है। छत्‍तीसगढ़ में अनेकों नदियां है किन्‍तु महानदी का पाट सबसे काफी चौड़ा है, इस नदी के प्रवाह से उस क्षेत्र में जो जलराशि जमा हुई वह महासमुद्र का रूप लिए हुए थी। कई वर्षो तक यह क्षेत्र पानी में डूबा रहा। इस नदी के किनारे स्थित इस नगर को महासमुन्‍द्र (अब महासमुंद) नाम दिया गया। पहिले दक्षिण कोसल की राजधानी रत्‍नपुर थी (जो वर्तमान में रतनपुर के नाम से जानी जाती है) यहां के राजा मोरध्‍वज ने आगे चलकर शिला-पुरम को अपनी राजधानी बनाई। कालांतर में यह स्थान श्रीपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसे हम वर्तमान में सिरपुर के नाम से जानते है।

भौगोलिक रूप से दक्षिण दिशा में कोशल राज्‍य से पाण्‍डव सर्वथा अपरिचित होने के कारण से उन्‍हें इस क्षेत्र में अनेकों विध्‍न, बाधाओं का सामना करना पड़ा। महासमुंद के पास भीमखोज नामक एक स्थान है जो इस तथ्‍य की प्रमाणिकता को सिद्ध करते है कि भीम ने इस स्थान को काफी कठिनाई से खोजा। महार्षि वेद व्यास लिखित महाभारत महाकाव्य में पाण्‍डवों द्वारा दक्षिण कौशल स्थित गंद्यमादन पर्वत यात्रा का र्वणन है इसी पर्वत पर महाबली भीम द्वारा कुबेर के साथ युद्ध का र्वणन आता है। युद्ध के पश्चात पाण्‍डवों को विपुल धनराशि की प्राप्ति हुई थी जैसे स्‍वर्ण, बहुमूल्य धातुएं, हीरे एवं अन्‍य बहुमूल्य पत्‍थर इत्‍यादि थे। जिसे महाबली भीम सेन के द्वारा स्थानीय निवासियों को भेंट स्वरूप प्रदान किया गया। इस पर भगवान श्री कृष्ण ने भीम सेन को कहा था कि यदि निर्धन व्यक्ति को अनायास ही बिना परिश्रम के धन मिल जाता है तो उसकी मति के भ्रष्ट होने में अधिक समय नही लगता। इसलिए इन हीरे एवं जवाहरातो को आने वाले युग युगांतर के लिये भूमि पर पाट दो इस कार्य के लिये स्थानीय कुंभकारों को नियुक्‍त किया गया। जिसके लिये विशाल गरिया का निर्माण किया गया। जिस स्थान पर गरिया को बंद किया गया। वर्तमान में यह स्थान गरियाबंद कहलाता है। देवभोग इलाके में हीरे की खदान की बातें अब की ही जा रही है। छत्‍तीसगढ़ी में भूमि खनन कार्य को कोडऩा कहा जाता है। वह स्थान कोडिय़ा कहलाता है तथा इसी भाषा में मानव नाम को मनखे भी कहा जाता है सो यही कही पर मैनपुर नामक स्थान होना चाहिये, प्राप्त स्‍वर्ण भंडारों को जिस स्थान पर पाटा गया वह स्थान स्‍वर्ण पाण्‍डव कहलाया वर्तमान में इसे सोनपाण्‍डर कहा जाता है जो कि विकास खण्‍ड तिरियाभाट, साजा विधान सभा क्षेत्र में है।

महाभारतकालीन एक अन्‍य प्रसंग में कृष्ण भीम से कहते हैं कि गांडीव धनुष लेकर अर्जुन के पृथ्‍वी पर सकुशल अवतरण के लिये हमें एक विराट अनुष्ठान करना होगा। इन्‍द्र ने यह र्निणय लिया कि गाण्‍डीव प्रत्‍यर्पण पृथ्‍वी एवं स्वर्ग के मध्‍य आकाश मार्ग पर ही किया जायेगा। तब वह क्षेत्र गाण्‍डीवदेही के नाम से प्रसिद्ध होगा। आखिर वह समय आता है जिसकी प्रतीक्षा पाण्‍डव एवं श्रीकृष्ण कर रहे थे। आकाश मार्ग पर भीषण ज्‍वालाओं के साथ अत्‍यंत ही तीव्र ध्‍वनि के साथ गर्जन करता हुआ प्रकाश वर्ष की गति से अर्जुन का यान भीम को आता दिखाई देता है। तब महाबली भीम अपने दोनों बाहुओं से उस यान को धारण करते है तथा उसमें व्याप्त अग्‍िन ज्‍लावाओं को आत्‍मसाल करते हुए धरा पर सकुशल उतारते है इस समय भीमसेन का संर्पूण शरीर जो लौह भीम का रूप था वह अत्‍यंत ही गर्म होकर लाल हो उठता है परंतु भीमसेन इसकी परवाह न करते हुए अर्जुन को भूमि पर कुशलता पूर्वक रखते है जिस स्थान पर अर्जुन का दाहिना पैर पहले पड़ता है उस स्थान को हम आज अर्जुन्‍दा के नाम से जानते है, इसी तरह गांडीवदेही का अपभ्रंश गुंडरदेही है। ग्राम अर्जुन्‍दा, गुण्‍डरदेही से कुछ की दूरी पर स्थित है। अर्जुन के दस नाम है। उनमें से एक फालगुन नाम भी है सो यही पास में ही फागुनदाह गांव है। जिस स्थान पर माता पार्वती एवं गंगा ने विलाप किया था वह स्थान अम्बागढ़ कहलाया तथा दोनों देवियों के आंसुओं से यहां पर एक नदी बन गयी थी जो शोक स्वरूप है। यहां पर गंगा ने शिव को नाथ कहा था, नाथ का मतलब नाथने वाला याने नियंत्रक, माता गंगा शिव के नियंत्रण में रहा करती थी। जहां माता गंगा के नेत्र शोक से झिलमिलाये। वह स्थान आज गंगा मैया झलमला कहलाता है तथा मां पार्वती के रुदन स्थान को अम्बागढ़ कहा गया। दोनों देवियों के आंसुओं से यह नदी बनी जो शिवनाथ नदी कहलाती है। सो यहीं पर भगवान शंकर को पुत्र हत्‍या कलंक लगता है। सो यहीं पर कलंकपुर नामक स्थान है। शोक एवं आंसुओं के कारण इस नदी के किनारे कोई आनंद उत्‍सव नहीं मनाया जाता था, सो इस स्थान को निकुंभ (निकुम) कहा गया। हमारे प्राचीन युग के अनेकों महाऋषियों ने वेदों व पुराणें जैसे धर्मग्रंथ में गुरूर ब्रम्हा, गुरुर विष्णु, गुरूर देवो महेश्वराय कहा गया है। इस सूक्ति को सार्थक करते हुए बालोद के पास गुरूर स्थित है।

महाभारत महाकाव्य में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि जब- जब भीमसेन किसी संकट में पडते थे तो सदैव माधव श्री कृष्ण ने सांकेतिक रूप से पाडवों की सहायता करते थे। तब भगवान श्री कृष्ण भीमसेन को एक विशेष दांडी प्रदान करते है। यह वही दांडी थी जो श्री कृष्ण ने यादव वंश की स्थापना के समय यहॉं के निवासियों को प्रदान की थी। यह दांडी को यदु वंशी लोग आज भी अत्‍यंत पवित्र मानते है। तब महाबली भीमसेन ने उसी दांडी से इस क्षेत्र से लौहहरण प्रारंभ किया तथा उन विशाल लौह पिंडो को कंदुक क्रीड़ा करते हुए सुदूर दक्षिणी क्षेत्र में फेंकना प्रारंभ किया। यह स्थान आज भीमकन्‍हार के नाम से जाना जाता है। कंदुक क्रीडा वाला स्थान कांदुल कहलाता है। लौह पिंड जहॉं गिरे वे बैलों के आकृति के थे सो यह क्षेत्र बैलाडीला कहलाया, और वह स्थान किरन्‍दुल के नाम से जाना जाता है। स्थानीय जिन राजाओं ने पाण्‍डवों को अपना समर्थन दिया उनके राज्‍य का हरण भीम ने किया, इसलिये इस स्थान को राजहरा के नाम से जाना जाता हैं। जिस क्षेत्र में दांडी से लौह हरण किया गया वह स्थान डौन्‍डी लोहारा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह कार्य स्थानीय निवासियों सहस्त्रों के संख्या में महाबली भीम सेन को सहयोग किया यह स्थान वर्तमान में सहसपुर कहलाता है वृषभों सहयोग वाला स्थान खुरसुल कहलाता है। इसी बीच भीम अपने शरीर में व्याप्त भीषण ज्‍वालाओं को माता महामाया द्वारा दिए गए खप्‍पर में लेकर माता के आदेश अनुसार पूवोंतर दिशा की ओर करके भूगर्भ में डाल देते थे, यह स्थान खपपरवारा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पृथ्‍वी के आंतरिक भू गर्भ मार्ग से होता हुआ यह भीषण अग्‍िन कोसल राज्‍य के सीमा पर एक भयंकर ध्‍वनि के साथ विस्फोट होता है। तब यहां की देवी माता अम्बिका को यह भयंकर स्वर गूंजने की प्रतिध्‍वनी सुनाई पड़ती है। कालानतर में यह स्थान सुरगुंजा कहलाया जिसे हम वर्तमान में सरगुजा के नाम से जानते है। यह क्षेत्र माता अम्बिका का है। सो आगे चलकर यह क्षेत्र अम्बिकापुर कहलाता है। भूगर्भ में व्याप्त भीषण ज्‍वालाओं से यहां की धरती आन्‍तरिक रुप से काली पड़ गयी थी। यही कारण है कि यह क्षेत्र कोयला से परिर्पूर्ण है तथा सीतावर्ती पड़ोसी राज्‍य बिहार के झरिया तब का इसका प्रभाव देखने में आता है। भाट निर्माण में भगवान श्री कृष्ण के वृषभ सेना ने विशेष सहयोग किया था तथा अपने विशाल खुरों से खूंदकर इस क्षेत्र को कृषि योग्‍य बनाया था। यही कारण है कि बालोद से लेकर रायगढ़ तक कोई पर्वत यहां पर नहीं है समस्त भाग मैदानी हैं इस क्षेत्र में आज भी बैलों द्वारा खूंदे जाने वाले भूमि को अत्‍यंत ही पवित्र माना जाता है जो शायद संभव हो कि कृषि कार्य में वृषभ का सहयोग लेने की प्रथा का चलन उसी युग से प्रारंभ हुआ हो।

यह बाते भले ही कपोल कल्पित लगती है, परंतु आज हम इस तथ्‍य से इंकार नही कर सकते कि हमारा देश जो एक कृषि प्रधान देश कहलाता है। इसी तरह अर्जुन द्वारा कमारों के नाम से जिस नगर का निर्माण किया गया वह कमार धाम, कुंवरधाम, फिर कालान्‍तर में कवर्धा कहलाता तथा पाण्‍डवों के साथ जो क्षत्रिय ब्रम्ह समाज के लोग थे, उनके प्रभाव से यहां पर्वतों के तराई वाले क्षेत्र को ब्रम्हतरा कहा गया उस युग में ब्राम्हण भी क्षत्रिायों के भांति युद्ध कौशल में पारंगत थे, शास्त्रों में भगवान परशुराम, गुरू, द्रोणाचार्य, अश्वस्‍थामा, कृपाचार्य जैसे अनेकों ब्रह्मवीरों का उदाहरण मिलता है अत: ब्रम्हतराई वाला क्षेत्र युग परिवर्तन होने के पश्चात वर्तमान में आज बेमेतरा कहलाता है। इस तरह छत्‍तीसगढ़ की वसुंधरा के विभिन्‍न स्थानों के नाम महाभारतकालीन घटनाओं के आधार पर होने के साम्य हमें मिलते हैं।

वीरेन्‍द्र कुमार सोनी
2 बी, स्ट्रीट 39, सेक्‍टर-8 भिलाई नगर-जिला दुर्ग (छ.ग.)

इस आलेख से हम अक्षरश: सहमत हैं या नही इस बात से परे हम इसके दस्‍तावेजीकरण के लिए इसे यहां प्रकाशित कर रहे हैं. यह आलेख इतवारी अखबार से साभार लिया गया है.

जय लट्ठेश्‍वरनाथ की प्रतिक्रिया में .....सन्दर्भ : हरिभूमि 16 व 20.11. 2009

पिछले दिनों प्रलेस की एक गोष्‍ठी एवं बिलासपुर के प्रख्‍यात रावत नाच महोत्‍सव में सम्मिलित होने गए दुर्ग-भिलाई के साहित्‍यकारों के रेल से वापसी के समय आरक्षित बोगी में बैठ जाने एवं एक लाठी को लट्ठेश्‍वरनाथ बनाकर बोगी में निर्विघ्‍न सीट कब्‍जा करने का किस्‍सा साहित्‍यजगत में छाए रहा वहीं हरिभूमि रायपुर के पत्रकार श्री राजकुमार सोनी नें इस वाकये पर हरिभूमि के विशेष कालम में दिनांक 16 व 20 नवम्‍बर को लम्‍बा - लम्‍बा लेख लिख कर इसे संपूर्ण प्रदेश में विमर्श हेतु प्रस्‍तुत कर दिया.  हम आगे प्रयास करेंगें, इस लेख और इस पर लोगों की प्रतिक्रियाओं को क्रमश: प्रकाशित करें. इसी कडी में हमें मेल से भिलाई के साहित्‍यकार एवं मुक्‍तकंठ के संपादक सतीश कुमार चौहान नें अपनी प्रतिक्रिया प्रेषित की है, पाठकों के लिए यह प्रस्‍तुत है. -

जय लट्ठेश्‍वरनाथ के माध्यम से लेखक राज कुमार सोनी ने प्रदेश के तमाम उन साहित्यिक मठाधीशों पर अपनी भडास निकाली वह गैरवाजिब नही हैं, दरअसल लेखक जो लिख रहा हैं वह उसके लम्बें अनुभव का परिणाम हैं, जिस पर अलग से बहस की जा सकती हैं .......................को ही इसकी पहल करनी चाहिये,और इन परिस्थितियो में इससे बेहतर कुछ हो नही सकता, खैर वस्तुस्थिति तो फोटो उपलब्ध कराने वाला ही बता पायेगा संभवत: वह भी बाबा टोली का सदस्य होने के साथ साथ मीडियापरस्त भी हो,पर पासा ही उल्टा पड गया हो, यह महज एक इत्तफाक ही है कि ये साहित्यकार आरक्षित कूपे में आवश्‍यक टिकट के बिना बैठ गऐ । ऐसा नही हैं की इन्होने टिकट मांगे जाने पर दिखाया नही या फिर फाइन पटाने की से कतरा रहे थे, क्योकि व्यक्तिगत तौर पर मैं इनकी नैतिक और आर्थिक समृद्धि पर गौरव महसूस करता हुं, अगर सकारात्मक सोच के साथ घटनाक्रम को जोड कर देखा जाऐ तो यह एक कलाकार की परिस्थितिजन्य सोच का साकार नमूना हैं जिससे हमारी उस समृद्ध धार्मिक आस्था को बल मिलता हैं जिसमें भगवान कही भी किसी भी रुप में मिल जाते हैं, और इन्सान भी इतना समाजिक, राजनैतिक, व्यवस्था और मंहगाई से इतना त्रस्त हैं कि हर ओर भगवान ही नजर आता हैं और यही भगवान राहत भी पहुचाता हैं जैसा कि आपके लेख दर्शाता हैं ।

सोनी जी, जो लिख रहे हैं वह साहित्यजगत में व्‍याप्त गिरोहबंदी और अवसरवादिता पर तो कटाक्ष करती ही हैं साथ ही प्रदेश में चल रहे सरकारी विज्ञप्तिबाज तथाकथित अवसरवादी साहित्यकारो की ओर भी ईशारा हैं खैर इसमें भी साहित्यकार आत्ममुग्ध हैं ...........

सतीश कुमार चौहान
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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

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