पागल हो गया है क्या ….?

ठांय ! ठांय ! ठांय !, बिचांम ! करती हुई वह बच्ची मेरे बाईक के आगे बैठी सडक से गुजरने वालों पर अपनी उंगली से गोली चलाने का खेल खेल रही थी । अपनी तोतली बोली में उन शव्दों को नाटकीय अंदाज में दुहराते जा रही थी । मैंनें उससे पूछा-
‘क्या कर रही हो ?’
‘गोली चला रही हूं !’
‘किसे ?’
‘तंकवादी को !’ उसने अपनी तोतली जुबान में कहा । मैं हंस पडा, ‘ये तंगवादी कौन हैं ?’
‘जो मेरे पापा को तंग करते हैं !’ उसने बडे भोलेपन से कहा । मैं पुन: हंस पडा । तब तक चौंक आ गया, चौंक में उसके मम्मी-पापा खडे थे । मैं उसे उनके पास उतारकर आगे बढ गया, वो दूर तक मुझे टाटा कहते हुए हाथ हिलाते रही ।

आज लगभग चार साल बाद उससे मेरी मुलाकात हई थी, वह रिजर्व पुलिस बल के मेन गेट पर सडक में टैम्पू का इंतजार करते अपनी पत्नी व चार साल की बच्ची के साथ खडा था । मैं अपनी धुन में उसी रोड से आगे बढ रहा था, दूर से ही मुझे पहचान कर वह हाथ हिलाने लगा, ‘सर ! सर !’ मैं उसे अचानक पहचान नहीं पाया । हमेशा गार्ड की वर्दी में उसे देखा था, यहां वह टी शर्ट व जींस में खडा था । मैं किसी परिचित होने के भ्रम में उसके पास ही गाडी रोक दिया । उसने मेरा पैर छूकर प्रणाम किया, साथ ही अपनी पत्नी और बच्ची को ऐसा करवाया । उसके चेहरे में जो खुशी झलक रही थी उसे देखकर मैं आश्चर्यचकित हो रहा था । वह मुझसे मिलकर इस कदर प्रसन्न था जैसे मैं उसका खोया हुआ रिश्तेशदार हूं । मैं भी प्रसन्नता के भावों को मुखमंडल में थोपते हुए उससे मिला । बातें हुई उसने बतलाया कि वह बस्तर में संतरी वाहन चालक के पद पर पदस्थ है और भिलाई में बटालियन के क्वाटर में बच्चे रहते हैं । बातों का सिलसिला जब चला तो बस्तर की वर्तमान परिस्थितियों पर चर्चा करते हुए उसने बतलाया कि ‘सर जब भी मैं छुट्टी के बाद ड्यूटी जाता हूं, इसकी आंखों के आंसू को देखकर कलेजा मुंह को आ जाता है, अपनी आंखों में नमी ना आ जाये इसके लिए हंसते हुए कहता हूं, पगली मौत आनी होगी तो अभी यहां इसी वक्त ‘अपट’ के मर जाउंगा । दुख क्यों करती है, मैं तो अभी जिंदा हूं फिर लौट के आउंगा ।‘ माहौल कुछ गमगीन हो रहा था इसलिए मैनें बात बदली और पूछा कहां जा रहे हो, उसने बतलाया आगे चौंक तक, बाजार में कुछ खरीददारी करनी है, टैम्पू का इंतजार कर रहे हैं । हमारी बातों के बीच उसकी नन्हीं गुडिया मुझसे घुल मिल गई थी, मैंने घडी देखते हुए कहा ‘चलूं खुमान मुझे आफिस के लिए देर हो रही है ।‘ तब तक उसकी बच्ची मेरे बाईक पर बैठ गई थी । मैंनें उसे बाईक से उतारने के लिए गोद में ले लिया पर वह जिद करने लगी बाईक में बैठने के लिए । मैंनें सोंचा इसे अगले चौंक तक बाईक में ही बैठाकर ले चलू क्योंकि खुमान को टैम्पू मिल गई थी और उन्हें आगे उसी तरफ जाना था जिधर मुझे । बच्ची को गाडी में बैठाकर अगले चौंक तक के लिए बढ चला, खुमान भी अपनी पत्नीं के साथ टैम्पू से बढा ।

खुमान सिंह नाम था उसका, उंचा पूरा गठीले बदन का हलबा आदिवासी था वह । यही कोई चार साल पहले वह मेरी कम्पनी में बतौर सुरक्षा गार्ड प्रशासकीय कार्यालय के मुख्य द्वार पर नियुक्त हुआ था । कुछ ही दिनों में अपनी प्रतिभा व मिलनसारिता के बल पर कार्यालय के सभी कर्मचारियों का प्रिय बन गया था । मेरा तो वह परम भक्त था । पर्सनल डिपार्टमेंट मेरे नियंत्रण में था, शायद इसलिये या फिर यह भी हो सकता है कि वह मेरे प्रदेश का था ।

उस दिन उसने मेरा बैग उपर आफिस में ले जाते हुए मुझे रोमांचित होते हुए बताया था । ‘सर मेरी शादी तय हो चुकी है, मेरा ससुर एएसएफ में है यहीं भिलाई में !’ बातें आई गई हो गई । कुछ दिन नदारद रहने के बाद एक दिन वह आया और उसने बतलाया कि उसकी भी भर्ती एएसएफ में हो गई है और वह एक दो दिन बाद वहां ज्वाईन कर लेगा अत: उसे यहां से हिसाब किताब चुकता करना है । मैंने बातों को सामान्य लेते हुए उसे रिलीव कर दिया ।

इन यादों को कई माह गुजर गए एक दिन लंच टाईम में रिशेप्शन से फोन आया ‘कोई खुमान आपसे मिलना चाहता है ।‘ मेरे स्मृति से खुमान नाम तेजी से भागती जिन्दगी और संबंधों के मकडजाल में गुम सा हो गया था । मैनें अनमने से कहा ‘भेज दो ।‘ अगले तीन मिनट में खुमान पुलिस वर्दी में मेरे सामने खडा था । ‘अरे तुम ।‘ मैनें उत्सुकता से उसका स्वामत किया वह पुन: अपने चितपरिचित अंदाज में मेरा पैर छूकर प्रणाम किया । मैनें उसे बैठने के लिए कहा और पूछा ‘क्या हाल चाल है खुमान ‘ उसने कहा ‘बढिया है सर, मजे में हूं आजकल एंटी लैण्डमाईन चलाने लगा हूं, मेरी पत्नी की चिंता अब दूर हो गई है ।‘ कहते हुए वह हंसने लगा । मैंने भी उसका साथ दिया । वह पुन: बोला ‘सर कमाल की गाडी है, अब सडकों में गाडी चलाते हुए उबड खाबड स्थान पर दिल धक से नहीं करता, फर्राटे मारती है अब मेरी गाडी ।‘ मैंनें कहा ‘भगवान का शुक्र है कि तुम्हारी पत्नी की बात उन तक पहुच गई ।‘ पर ऐसा कहकर मैं उन सभी पुलिस कर्मियों के प्रति अपनी संवेदनाओं को भूल गया जिन्हें एंटीलैण्डीमाईन व्हीकल नसीब नहीं हुआ । ‘कैसा माहौल है वहां का ‘ मैनें पूछा । ‘मत पूछो सर बहुत खतरनाक है, हम लोगों की हालत .......? कब कौन सी गोली मौत का पैगाम लेकर आयेगी कहा नहीं जा सकता । अभी पिछले दिनों ही जंगल के बीच में मेरी गाडी एक जगह फंस गई थी हम गाडी से उतरकर गाडी को धक्का दे रहे थे कि गोलीबारी चालू हो गई एक गोली तो मेरे टखने के पास पैंट को चीरती हुई निकल गई, मेरे दो साथी वहीं ढेर हो गए, हम लोग आनन फानन में गाडी व अन्य जगह से पोजीशन लिये तब तक वे भाग गए । क्या बताये, शव्दों में बयां नहीं किया जा सकता .....।‘ मैंनें ठंडी सांस भरी । बात चल ही रही थी कि मेरे बॉस का बुलावा आ गया और हम विदा लेकर अलग अलग चले गए ।

सुबह चाय की चुस्कियां लेते हुए समाचार पत्र को अपने सामने फैलाया, हेडलाईन को देखकर चश्में को ठीक करते हुए समाचार को आंखें गडा कर पढने लगा ।हेडिंग था ‘विष्फोट से एंटीलैण्ड माईन व्हीकल चालीस फीट उछला, 12 जवान मारे गए’ तुरत खुमान का मुस्कुवराता चेहरा ध्यान में आ गया । दिल धक धक करने लगा, पूरा समाचार पढा । मारे गए जवानों में खुमान का भी नाम था । बहुत देर तक टकटकी लगाए पेपर के मुख्य, पृष्ट पर ही ठहरे रहने को देखकर पत्नी बोली ‘अजी चाय तो ठंडी हो रही है ।‘ मैंनें अनमने से ‘हां’ कहा, चाय पी नहीं सका, नास्ता भी करते नहीं बना, आंखों में खुमान बार बार आ जा रहा था जैसे मेरा कोई नजदीकी रिश्तेदार हो । पुलिस, सरकार और पत्रकार के लिए और कुछ हद तक रोज रोज ऐसे शीर्षों को पढकर संवेदनहीन हो गई जनता के लिए भी यह सिर्फ समाचार था ।

आफिस से छुट्टी लेकर तीन बजे दोपहर तक मैं उसके गांव पहुच गया, सरकारी गाडियों का हुजूम गांव में मौजूद था । मुझे उसका घर पूछना नहीं पडा, कच्ची झोपडी के इर्द-गिर्द भीड उमड पडी थी । उसके बूढे मा बाप बिलख रहे थे, उसकी पत्नी का बुरा हाल था, वह रूक रूक कर जब आर्तनाद करती तो भीड का कलेजा फटकर आंखों में पानी के रूप में उभर उभर आता था । मैं भीड का हिस्सा बना खडा रहा । मेरी आंखें उसकी बच्ची को ढूंढती रही, अब तो वह बडी हो गई होगी ........, मुझे वह नहीं दिखी । राजकीय सम्मान के साथ अंतिम यात्रा आरंभ हुई और उसके गांव के बडे मैदान में जाकर समाप्त हो गई । लाश चिता में लिटा दिया गया, अग्नि प्रज्वलित कर दी गई, लपटों से झांकता खुमान मुझे पल पल मुस्कुराता दीख पडता । सम्मान में गारद आसमान की ओर बंदूक की नली कर गोलियां चलाने लगे । गोलियों की आवाज के सिवा वातावरण निस्तब्ध था । जैसे सागर में मिलने के लिए विशालकाय नदी मंथिर गति से आगे बढ रही हो । अचानक भीड में दबा सिकुडा मैं जोरों से पागलों की भांति चिल्लाने लगा, ठांय ! ठांय ! ठांय !, बिचांम ! पूरी भीड मुझे भौंचक देखने लगी और मैं चारो ओर हाथ की अंगुलियों से गोलियां चलाते हुए चीखता रहा ठांय ! ठांय ! ठांय !, बिचांम ! एक पुलिस वाले नें मुझे झकझोरते हुए मेरे पीठ पर धौल जमाई ‘पागल हो गया है क्या ?‘

संजीव तिवारी

सलवा जूडूम पार्टी : चुनाव हेतु तैयार

राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा पिछले दिनों सर्वोच्‍च न्‍यायालय में प्रस्‍तुत जांच रिपोर्ट के अनुसार न्‍यायालयीन सत्‍य के रूप में प्रस्‍तुत नौ अध्‍यायों की कथा व्‍यथा के अनुसार छत्‍तीसगढ में ‘स्‍वस्‍फूर्त’ जागृत जन आंदोलन ‘सलवा जूडूम’ का बीज तब अंकुरित हुआ जब बीजापुर के भैरमगढ विकासखण्‍ड के गांम कुटरू के आदिवासियों नें नक्‍सली जुल्‍म व तानाशाही से मुक्ति पाने हेतु गांव में बैठक कर अपने आप को संगठित किया एवं नक्‍सलियों का प्रतिकार करने का निश्‍चय किया । इस जन आन्‍दोलन को पूर्व में भी सहयोग कर चुके नेता प्रतिपक्ष महेन्‍द्र कर्मा नें इसे नेतृत्‍व प्रदान किया । धीरे धीरे यह आंन्‍दोलन गांव गांव में बढता गया जो लगभग 644 गांवों तक बढता चला गया ।

वर्तमान में इस आंन्‍दोलन का स्‍वरूप शरणार्थी शिविर के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं रह गया है किन्‍तु जब सन् 2005 में महेन्‍द्र कर्मा नें इसे जन आन्‍दोलन का स्‍वरूप दिया एवं आदिवासियों के भाषा के अनुरूप ‘सलवा जुडूम’ का नाम दिया। तब आदिवासियों में जागरूकता फैलाने का कार्य वहां के कुछ व्‍यक्तियों नें आगे बढकर मृत्‍यु फरमान का परवाह किये बिना लम्‍बी भागदौड व जन संपर्क करते हुए किया । इनमें से एक स्‍थानीय सहायक शिक्षक सोयम मुक्‍का भी था जिसके संबंध में कहा जाता है कि वह सलवा जुडूम के परचम को फहराने में आरंभ से अहम भूमिका निभाते रहा । आदिवासी होने एवं गजब की नेतृत्‍व क्षमता के कारण आदिवासी उसकी बातों को मानते रहे हैं एवं उसका अनुयायी बनने सलवा जुडूम का साथ देते रहे हैं । नेता प्रतिपक्ष महेन्‍द्र कर्मा के अतिरिक्‍त किसी और कद्दावर जुडूम नेतृत्‍व की बातें जब होती है तब सोयम का नाम उभर कर सामने आता रहा है ।

कहते हैं सोयम मुक्‍का अपने शिक्षकीय कर्तव्‍य के निर्वहन में तदसमय असमर्थ रहा क्‍योंकि नक्‍सली स्‍कूलों में बच्‍चों को पढने से मना करते थे और स्‍कूल जला देते थे, किन्‍तु इसने अपने मानवीय कर्तव्‍यों का बेहतर निर्वहन करते हुए नक्‍सलियों के जुल्‍म के प्रतिकार के लिए आदिवासियों के दिलों में साहस का जो भाव एवं ओज पैदा किया वह अतुलनीय रहा ।

पिछले दिनों समाचार पत्रों से जानकारी मिली कि सोयम मुक्‍का के विरूद्ध विभागीय जांच कराए जाने का आदेश सरकार के द्वारा हुआ है जिसमें उस पर अपनी ड्यूटी से लम्‍बे समय से अनुपस्थित रहने व दायित्‍वों के पालन में कोताही बरतने का आरोप लगाया गया था । यह आदेश मानवाधिकार आयोग के सलवा जुडूम पर सरकार को तथाकथित ‘क्‍लीन चिट’ के तुरंत बाद जारी हुआ था । इस समाचार के पीछे की राजनीति स्‍पष्‍ट हो चुकी थी क्‍योंकि सलवा जुडूम शिविरों में सोयम की लोकप्रियता राजनैतिक चश्‍में से देखी जाने लगी थी । लगभग 60000 की संख्‍या वाले जुडूम अनुयायियों को बतौर मतदाता तौला जाने लगा था । सुगबुगाहट एवं खुशफहमी में सोयम के पर भी फडफडाने लगे थे जिसका वह अधिकारी भी था किन्‍तु उसका पर कुतरने के लिए जांच की तलवार उस पर लटका दी गई थी ।

कल समाचार आया कि सोयम मुक्‍का कोटा (अजजा) विधान सभा सीट से निर्दलीय प्रत्‍यासी के रूप में नामांकन दाखिल करने वाले हैं एवं उसने सहायक शिक्षक के पद से स्‍तीफा दे दिया है । समाचार दिलचस्‍प है एवं कोंटा से भाजपा के घोषित उम्‍मीदवार पदाम नंदा एवं कांग्रेस व कम्‍यूनिस्‍ट के उम्‍मीदवारों को चक्‍कर में डालने वाला है , क्‍योंकि सोयम को पडने वाले वोट यदि अन्‍यथा प्रभावित हुए बिना पडते हैं तो वह जुडूम के अनुयाइयों के वोट होंगें क्‍योंकि वह उनका हमसफर रहा है । इसके साथ ही वोटों की संख्‍या यह भी बतलायेगी कि सलवा जुडूम सचमुच आदिवासियों के हित के लिए समर्थित था या राजनैतिक स्‍वार्थवश ।


(मुझे चुनाव समाचार विश्‍लेषणों की समझ नहीं है किन्‍तु विमर्श के लायक समाचार पर चर्चा करने का प्रयास किया है शायद आप इससे सहमत हों ................  )


संजीव तिवारी

रावण का आकर्षण

9 अक्टूबर की संध्या दुर्ग के स्टेडियम से रावण दहन के बाद बाहर निकला । मुख्य दरवाजे के पास ही पीछे आ रहे परिवार के कुछ और सदस्यों का इंतजार करने लगा । भीड में से दस पंद्रह पुलिस वाले अचानक प्रकट हुए और सीटी बजाते हुए भीड में जगह बनाने लगे । सायरन की आवाज गूंजने लगी, मैंनें सोंचा कार्यक्रम में आये मंत्री हेमचंद यादव जी या मोतीलाल वोरा जी निकल रहे होंगें । सो अनमने से सायरन की आवाज की दिशा की ओर देखने लगा । नेताओं के लिये बनाई गई खुली जीप में रावण का श्रृंगार किये एक विशालकाय व भव्य शरीर का पुरूष हाथों में तलवार लहराते खडा था । जीप में राक्षसों का मुखौटा पहने व राजसी वस्त्र पहनें लगभग दस युवा भी थे जो लंकापति रावण की जय ! और जय लंकेश ! का जयघोष कर रहे थे । हूजूम का संपूर्ण ध्यान उस पर ही केन्द्रित हो गया । पलभर के लिए शरीर उस कृत्तिम आकर्षण व भव्यता  को देखकर रोंमांचित हो गया । गोदी में उठाए अपने भतीजे को उंगली के इशारे से रावण को दिखाया । मेरा पुत्र भी उस दृश्य व परिस्थितियों को देखकर रोमांचित हो रहा था । समूची भीड जो रास्ते के आजू बाजू खडी थी समवेत स्वर में जय लंकेश ! का घोष कर रही थी और जीप में सवार रावण अपना तलवार हलरा - लहरा कर उनका उत्साह बढा रहा था ।

लगभग दो तीन मिनट तक यह दृश्य आंखों के सामने रहा फिर जीप भीड को चीरती हुई निकल गई । मेरे परिवार के सभी सदस्य तब तक वहां आ गये । भीड कुछ कम होने पर मैंनें अपने 12 वर्षीय पुत्र से पूछा कि तुमने भी जय लंकेश ! का नारा लगाया क्या उसने कहा नहीं किन्तु मन हो रहा था, होठ बुदबुदा रहे थे ।

रावण की जीप के बाद नेताओं एवं शहर के गणमान्य व्यक्तियों की गाडियां सायरन बजाती निकली फिर सौम्य सौंदर्य के प्रतिमूर्ति दो किशोर राम व लक्षण के वेश में राज सिंहासन में एक खुले ट्रक में आसीन गुजरने लगे । माहौल राम मय हो गया, जय श्री राम के नारे गूंजने लगे । हम सब के मुह से ये शव्दे यंत्रवत निकलने लगे । स्टेयडियम से रेस्तोरॉं में खाना खाने के बाद घर आने  तक मेरे मन में रावण का वह रूप और तदसमय की परिस्थितियां उमड घुमड रही थी । लोगों का उत्साह बार बार आंखों के सामने आ जा रहे थे ।


दोपहर में ही मेरे गृह नगर में भीड द्वारा बारह बस जला दिये जाने का समाचार मिल गया था सो सुबह का प्लान वहां जाने का बनाकर मैं सोने लगा । दृश्य गांव का पुन: याद आने लगा, वहां किशोर वय में हम रामलीला में विभिन्न पात्रों को अभिनीत करते थे तब रामयाण सीरियल का प्रसारण दूरदर्शन से नहीं हुआ था । ज्यादातर पात्र मेरे भाई भतीजे या रिश्तेदार ही अभिनीत करते थे । मेरा एक चचेरा भाई अपने वृहद व्यक्तित्व के कारण सदैव रावण बनता था और दूसरा किसी वर्ष राम तो किसी वर्ष लक्ष्मण । हम पूरे दस दिन हिल मिल कर अपनी प्रस्तुति गांव के बीच बने 'गुडी' में टैम्‍परेरी स्‍टेज बनाकर देते थे किन्तु दशहरे के दिन की प्रस्तुति हमें गांव के नदी किनारे के बडे खुले मैदान 'रावण भांठा' में देनी होती थी और वहां गांव के ही पटेल के घर से पूरा श्रृंगार कर जाना होता था । वहां तक पहुचने के लिए राम लक्ष्मण व रावण को तीन सायकल की व्यटवस्था स्वयं करनी पडती थी । गांव में सबको आकर्षित करते हुए जय श्री राम ! व जय लंकेश ! के नारों के साथ मैदान तक जाने में बहुत रोमांच व आनंद आता था । परिपाटी के अनुसार राम लखन सायकल में बैठते तो थे किन्तु उनकी सायकल पैदल हाथ में लेकर कोई चलता था । रावण दस सिर का मुकुट पहने कंधे में धनुष लटकाए एक हाथ में तलवार लेकर अपनी राक्षसी दल के साथ स्वयं सायकल चलाते हुए जाता था ।


यह क्रम दो तीन साल चला फिर घर में मोटर सायकल आ गया और हममे से ज्यायदातर भाई मोटर सायकल चलाना सीख गए । इस बार के दशहरे में एक मोटर सायकल और दावेदार दो, राम और रावण । उस वर्ष राम बनने की बारी मेरे दूसरे भाई की थी, रावण के लिए परमांनेंट मेरा चचेरा भाई । उन दोनों के मन में था कि पटेल के घर से श्रृंगार करके मोटर सायकल चलाते हुए मैदान तक जांए । किन्तु, श्रृंगार कर काफी तू तू मैं मैं के बाद फैसला मेरे बाबूजी के हाथ में गया और उन्होंनें रावण को ही इसके लिये चुना । हम मुकुट पहने मुरदारशंख, काजल व रोली, अभ्रक से अटे मुख में दोनों को लडते देख देख कर हंसते रहे । रावण बना मेरा भाई राजदूत को किक मारकर स्टार्ट किया और अपने चितपरिचित अंदाज में आंखें तरेरता हुआ अपनी राक्षसी सेना के साथ बढ चला । जय लेकेश ! के नारे के साथ गांव की अधिकांश भीड रावण व राजदूत के आकर्षण में उसके पीछे पीछे दौंड पडी । राम बने दूसरे भाई को क्रोध तो काफी आया पर अगले साल देखेंगें, सोंचकर राम लक्ष्मण की टोली सायकल ठेलते पेलते रावण भाठा की ओर बढ चली ।

कुछ सालों तक यह क्रम चलता रहा फिर घर में गाडियों की संख्यां में वृद्वि के साथ ही दूसरे भाई की इच्छा की भी पूर्ति हो गई किन्तु भीड का आकर्षण रावण बना वह भाई ही रहा । रावण दहन के बाद जो स्नेह-प्रेम व श्रद्धा गांव वालों से राम लक्ष्मण बने भाईयों को मिलती थी उसके सामने सभी सम्मान व आर्कषण थोथे पडते थे । किन्तु , किशोर मन उस समय उसका अर्थ नहीं समझता था । आज जब इन दोनों घटनाओं को जोडता हूं तो भी रावण का पक्ष ही हावी नजर आता है । राम का आदर्श पारंपरिक रूप में अटक चुके रिकार्ड तवे की भांति जय जय ! के घोष में सिमट जाता है और जय लंकेश ! पूरी मुखरता के साथ होटो में बुदबुदाता है ।

संजीव तिवारी

कविता : छ.ग.के पुलिस प्रमुख के नाम एक खत

विश्‍वरंजन !
नहीं जानना चाहते हम
कि तुम कवि हो,
नहीं आत्‍मसाध होते
भारी भरकम संवेदनाओं के गीत
साहित्‍य में आपकी उंचाई कितनी है
यह भी हम नहीं जानना चाहते
जानना चाहते हैं तो बस
एक सिपाही के रूप में आपकी उंचाई कितनी है


नहीं जानना चाहते हम
कि तुमने कितनी संवेदना बटोरी है
हमारे लिए, अपनी कविताओं में
हम जानना चाहते हैं कि तुमने
कितनी संवेदना बिखेरी है बस्‍तर में


नहीं जानना चाहते हम कि तुम्‍हारी
दर्जनों किताबें छप चुकी हैं, कविताओं की
हम जानना चाहते हैं कि तुमने कितने
सिपाहियों के दिलों पर
परित्राणाय साधुनाम् का ध्‍येय वाक्‍य
अंकित कराया है


हम नहीं जानना चाहते कि तुम
किस कुल या वंशज से हो
हम जानना चाहते हैं कि तुम
मानवता के परिवार में संविधान के सच्‍चे पालक हो


हम नहीं जानना चाहते कि तुम्‍हारे
गीत कितनों नें गाया है
हम नहीं जानना चाहते कि आप समकालीन
या पूर्वकालीन कविता के बडे हस्‍ताक्षर हो
हम जानना चाहते हैं कि तुमने
ऐसी कोई कविता लिखी है जिसे बस्‍तर के जनमन नें गाया है


हम यह भी नहीं जानना चाहते
कि तुम्‍हारा बोरिया बिस्‍तर पल भर में
यहां से जाने के लिए बंध जायेगा
हम जानना चाहते हैं कि यदि ऐसा हुआ भी
तो क्‍या तुम तब भी वैसा ही हमारे लिए सोंचोगे
जो बरसों पहले बस्‍तर में एसपी होते हुए सोंचा था


मेरे मित्र, मेरे हितैषी
हम सदैव तुम्‍हारे छत्र में पनाह चाहेंगें
और तुम्‍हें संविधान के सच्‍चे रक्षक
गांधी के पक्‍के अनुयायी
आदिवासियों की रक्षा में आक्रामक
अविचल सिपाही के रूप में
तने खडे, देखना चाहेंगें
विश्‍वरंजन !
हम तुम्‍हें एक कवि के रूप में नहीं
एक सिपाही के रूप में ही अपनाना चाहेंगें


(आदरणीय श्री विश्‍वरंजन जी, शव्‍दों में संबोधन की गरिमा में हुई भावनागत त्रुटी पर क्षमा करेंगें, यह नितांत रूप से मेरे दिल की बात है हो सकता है लोग इससे सहमत न हों)


संजीव तिवारी

एक सेमीनार की ऐसी बर्बादी देखने का मेरा यह अनोखा मौका था

. . . . . इस नौजवान नें हिंसक अंदाज में मुझसे कहा – ‘तुम्ही एक युद्ध अपराधी को कई-कई किश्तों में छापते हो ।‘ 
एक पल को उस भरे हुए हॉल के एक सिरे पर खडे हुए भी मुझे लगा कि यह नौजवान हमला कर सकता है, लेकिन फिर डर को खारिज करते हुए मैंनें पूछा – ‘कौन युद्ध अपराधी ?‘ 
‘विश्वरंजन !’ 
‘मैं नहीं जानता कि वे युद्धअपराधी हैं !’ 
‘इसने सैकडों हत्यायें की है !’ 
‘मेरी जानकारी में तो एक भी हत्या नहीं की है !’ 
‘इसकी पुलिस नें सैकडों हत्यायें की है !’ 
‘मुझे ऐसी हत्याओं की जानकारी नहीं है !’

वार्ता के यह अंश हैं बर्कले विश्वविद्यालय में आयोजित उस सेमीनार में उपस्थित एक प्रदर्शनकारी छात्र एवं दैनिक छत्तीसगढ के संपादक श्री सुनील कुमार जी के । विगत दिनों भारतीय लोकतंत्र पर केन्द्रित दो दिन के सेमीनार जिसमें एक सत्र बस्तर का भी था, में वक्ता के रूप में छत्तीसगढ से पुलिस महानिदेशक श्री विश्वरंजन जी व सुनील कुमार जी गए थे । इस विश्वविद्यालय की गरिमा इस बात से आंकी जा सकती है कि एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में अभी इसे विश्व का महानतम विश्‍वविद्यालय पाया गया है । यहां 19 नोबेल व तीन पुलित्जर पुरस्कार विजेता रहे हैं । यह 1868 से संचालित है एवं इस विश्‍वविद्यालय में 1906 से संस्कृत भी पढाई जा रही है । दुनियां के नीति निर्धारण में और बौद्धिक बहसों में यहां से निकले विद्धानों का भारी दखल रहती है । इस कारण हर कोई छत्तीसगढ सत्र का इंतजार कर रहा था । अमेरिका में कैलीफोर्निया और कैलीफोर्निया में बर्कले लोकतंत्र पर सेमीनार के लिए एक सही जगह भी थी ।
. . . इस प्रदर्शन के पहले और बाद में लोग विश्वरंजन से भी पूछते रहे और मुझसे भी उनके बारे में पूछते रहे कि वे ऐसे बागी माहौल में हमलों का सामना करने को आए ही क्यों । मैनें अपना अंदाज बताया कि शायद इसलिए कि वे बातचीत में यकीन रखते हैं । और इसी एक बात का मुझे सबसे अधिक मलाल रहा कि सेमीनार के आयोजको नें भारत के इस ज्वलंत मुद्दे पर बातचीत और बहस की मजबूत संभावना को खत्म करते हुए इसे प्रदर्शन का नुक्कड बना दिया । यह प्रदर्शन तो पूरी बातों के हो जाने के बाद भी हो सकता था । मुझे यह अफसोस इसलिए नहीं है कि मेरे उठाए गए मुद्दों पर कोई बात नहीं हुई, अफसोस यह है कि भारतीय लोकतंत्र में दिलचस्पी रखने वाले दर्जनों विद्धानों की मौजूदगी में बस्तर पर कोई सार्थक बातचीत नहीं हो पाई । विश्वरंजन को गाली गलौच की जुबान में लोगों के, पता नहीं कितने झूठे, आरोप सहने पडे ।

छत्तीसगढ सत्र पर छाए बिनायक सेन के मुद्दे नें कोई सार्थक बहस नहीं होने दी और इस कार्यक्रम की आयोजक भारतीय मूल की प्राध्यापिका राका रे थी, जिन्होंनें इस सत्र की अध्यक्षता भी की । बहस की संभावनाओं को उन्होंनें किसलिए और क्यों प्रदर्शकारियों को सौंप दिया इसे न मैं समझ पाया न कैलीफोर्निया के बहुत से और विद्धान । एक सेमीनार की ऐसी बर्बादी देखने का मेरा यह अनोखा मौका था । और छत्तीसगढ को लेकर बाहर की दुनिया में किस तरह के विरोध प्रदर्शन आयोजित किए जा रहे हैं यह भी यहां के लोगों को पता लगना चाहिए ।




'Apparently, the chief police official of Chhattisgarh is so unused
to questioning that he became flustered and signed a post-card to
the Prime Minister asking for Dr Sen's release! The card he signed
reads 'The imprisonment of this brave and good man is outrageous.
I demand his immediate unconditional release.'

यह अंश  छत्तीसगढके संपादक श्री सुनील कुमार जी के "अमरीका का सफरनामा - 3" से लिए गए हैं ।

गणतंत्र और कानून साथ में टैंडर

गणतंत्र और कानून पर कल रवीवार को रायपुर के प्रेस क्‍लब में छत्‍तीसगढ के पुलिस प्रमुख श्री विश्‍वरंजन जी नें अपना प्रभावी वक्‍तव्‍य दिया जिसे हम आज विभिन्‍न समाचार पत्रों के माध्‍यम से एवं आवारा बंजारा जी के पोस्‍ट से पढ पाये । भविष्‍य में हम आशा करते हैं कि उक्‍त कार्यक्रम में उपस्थित ब्‍लागर्स भाईयों के प्रयास से संपूर्ण वक्‍तव्‍य  पढने को मिल पायेगा । 

आज के समाचार पत्रों में इस खबर के साथ ही पुलिस विभाग का यह टैंडर भी प्रकाशित हुआ है जिसे पढने के बाद हमें लगा कि कम से कम इसे तो हमारे ब्‍लागर्स भाईयों के बीच पहुचाया जाए । तो भाईयों मत चूको चौहान .........

आर्य अनार्यों का सेतु : रावण

परम प्रतापी एवं शास्‍त्रों के ज्ञाता ब्राह्मण कुमार रावण का स्‍मरण आज समीचीन है क्‍योंकि आज के दिन का वैदिक महत्‍व उसके अस्तित्‍व के कारण ही है । हमारे पौराणिक ग्रंथों में रावण को यद्धपि विद्वान, नीतिनिपुण, बलशाली माना गया है किन्‍तु सभी नें उसे एक खलनायक की भांति प्रस्‍तुत किया है । एक कृति की प्रकृति एवं उसके आवश्‍यक तत्‍वों की विवेचना का सार यह कहता है कि, कृति में नायक के साथ ही खलनायकों या प्रतिनायकों का भी चित्रण या समावेश किया जाए । हम हमारे पौराणिक ग्रंथों को सामान्‍य कृति मानकर यदि पढते हैं तो पाते हैं कि रावण के संबंध में विवेचना एवं उसके पराक्रम व विद्वता का उल्‍लेख ही राम को एक पात्र के रूप में विशेष उभार कर प्रस्‍तुत करता है । चिंतक दीपक भारतीय जी अपनी एक कविता में कहते हैं -

रावण तुम कभी मर नहीं सकते 
क्योंकि तुम्हारे बिना राम को लोग
कभी समझ नहीं सकते. . .

खलनायक प्रतिनायक एवं सर्वथा सामान्‍य पात्रों को भी अब महत्‍व दिया जा रहा है उनके कार्यों का विश्‍लेषण कर उनके उज्‍जव पन्‍नों पर रौशनी डाली जा रही है । वर्तमान काल नें रावण के इस चरित्र का गूढ अध्‍ययन किया है, पौराणिक ग्रंथों से उदाहरणों को समेट कर कई ग्रंथ लिखे जा रहे हैं जिसमें रावण के उज्‍जव चारित्रिक पहलुओं को समाज के सामने उकेरा जा रहा है ।

रावण के चरित्र को वर्तमान समाज में अपने राक्षसी पौराणिक रूप में स्‍थापित करने का मुख्‍य श्रेय तुलसीदास जी कृत रामचरित मानस को जाता है । जैसा कि इस महाकाव्‍य के शीर्षक से ही ज्ञात हो जाता है कि इसमें राम के चरित्र का चित्रण है अत: इसमें सारी भूमिकांए राम के इर्द गिर्द ही घूमती है एवं समाज को धर्म के लिये प्रेरित करती है । रामचरित मानस की जनप्रिय भाषा एवं रागात्‍मकता, राम-रावण के इस युद्व कथा को सर्वत्र स्‍थापित करने में महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा करता है । इसके बाद जन समझ के अनुसार बाल्‍मीकि कृत संस्‍कृत रामायण इस चरित्र को समाज के सामने प्रस्‍तुत करता है । महर्षि बाल्‍मीकि राम के संपूर्ण चरित्र के साक्षात दृष्‍टा रहे हैं, वे रावण के चरित्र को कुछ विशिष्‍ठ रूप से उभारने में सफल हुए हैं । वाल्मीकि रावण के अधर्मी होने को उसका मुख्य अवगुण मानते हैं। वहीं तुलसीदास जी केवल उसके अहंकार को ही उसका मुख्य अवगुण बताते हैं। उन्होंने रावण को बाहरी तौर से राम से शत्रु भाव रखते हुये हृदय से उनका भक्त बताया है। तुलसीदास के अनुसार रावण सोचता है कि यदि स्वयं भगवान ने अवतार लिया है तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भव-बन्धन से मुक्त हो जाऊंगा। वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस दोनों ही ग्रंथों में रावण को बहुत महत्त्व दिया गया है। राक्षसी माता और ऋषि पिता की सन्तान होने के कारण सदैव दो परस्पर विरोधी तत्त्व रावण के अन्तःकरण को मथते रहे हैं।

आर्य एवं राक्षस संस्‍कृति के ‘धर्म’ और ‘अधर्म’ के युद्ध में धर्म की अपनी अपनी परिभाषा व मान्‍यता को महर्षि बाल्‍मीकि कई स्‍थानों पर बेहतर ढंग से चित्रित करते हैं । युद्ध भूमि पर राम खडे हैं, रावण अपने पूर्ण सुसज्जित युद्ध रथ में आरूढ युद्ध भूमि पर आते हैं, राम को पैदल देखकर उन्‍हें अपना रथ देने की पेशकश करते हैं । राम के इन्‍कार करने पर रावण अपने सारथी से कहता हैं ‘सारथी रथ रोको ! मुझे भी भूमि में उतरना है, आज तक मैनें जो चाहा वही किया किन्‍तु अब तो धर्म युद्ध लडना है ।‘ एक तरफ रावण को अधर्मी स्‍थापित किया गया वहीं रावण युद्ध जैसे क्षत्रियोचित कर्म में रत होते हुए भी ऐसा धार्मिक नीतिवचन कहते हैं ।

राम-रावण युद्ध के पीछे जो यथार्थ छुपा हुआ है उसे उजागर करना कवि का मूल उद्देश्‍य रहा है, दोनों नें अपने अपने कर्तव्‍यों में आबद्ध एक रंगमंच के पात्र के अनुसार कर्म किया है । चूंकि भगवान विष्‍णु नें भी नौ माह मानवी माता के गर्भ में बिताये हैं इस कारण उनमें मानवोचित भूलों का समावेश आवश्‍यक था । इस युद्ध कथा के दौरान हमारे मन में कई प्रश्‍न उमडते हैं, जिसे राम के पक्ष से धर्म कहा गया, क्‍या धर्म है या यह शव्‍द जाल है बिल्‍कुल उसी तरह जिस तरह कानून के किताबों में किसी धारा का अपने स्‍वार्थ के अनुरूप अर्थान्‍वयन किया जाना । जब राम छुपकर बाली का वध करता है तब यह ‘धर्म’ होता है, विभीषण शरणागत होता है तब भी यह ‘धर्म’ होता है क्‍योंकि इन दोनों कार्यों के पीछे राम का स्‍वार्थ छिपा है । यह स्‍वार्थ सामाजिक मान्‍यताओं के अनुसार उद्देश्‍य है, एक साधन है, राक्षसों से पृथ्‍वी को मुक्‍त कराने के लिए । भाई-भाई में फूट डालकर राज करने की नीति भी ‘धर्म’ है । विभीषण का विलग होने का दुख , लक्ष्‍मण के शक्ति बाण लगने से मिलाकर देखें । सूर्पणखा प्रसंग, जिसके बाद से रावण के हृदय में उठी ज्‍वाला उसे यहां तक ले आई थी उसमें भी इस धर्म को अहम कहा गया, जिस धर्म की दुहाई आर्य देते हैं उसी धर्म के अनुसार स्त्रियों पर शस्‍त्रों से प्रहार न करना आर्य संस्‍कृति मानी जाती रही है किन्‍तु आर्य संस्‍कृति के ध्‍वजवाहक राम के सम्‍मुख लक्ष्‍मण नें सूर्पनखा को नासिका विहीन किया । बहुत प्रसंग हैं इस तथाकथित धर्म के एवं इसका सुविधानुसार अपने अनुरूप अर्थान्‍वयन के । इन सभी तथ्‍यों को यदि ध्‍यान पूर्वक देखा जाये, तो रावण तार्किक जरूर रहा है, लेकिन उसे धर्म विरोधी या अनैतिक नहीं कहा जा सकता ।

पौराणिक आख्‍यानों के अनुसार भगवान विष्‍णु के द्वारपालों जय विजय को शापवश मधु-कैटभ, हिरणाक्ष्‍य, हिरण्‍यकश्‍यप व रावण-कुंभकरण का पात्र अभीनित करना पडा था किन्‍तु मूलत: वे थे तो भगवान विष्‍णु के आभामंडल में दीप्‍त प्राण । इन पात्रों को निभाते हुए जय विजय नें रावण के चरित्र का गजब का अभिनय किया । अपने अन्‍य चरित्रों में उसका स्‍वरूप इतना दैदीप्‍यमान नहीं नजर आता जितना रावण के चरित्र में ।
सालों से हम रावण के जन्‍म की धिसीपिटी कहानी सुनते और टीवी में देखते आ रहे हैं । इस पर आध्‍यात्मिक व दार्शनिक दलीलें भी सुनते आ रहे हैं, यूं कहें कि हमारे कान पक गये हैं इन सपाट कहानियों से । वही उत्‍तम कुल पुलस्‍त के ‘नाती’ इस ‘नाती’ शव्‍द, पर यहां उपलब्‍ध धर्मग्रंथों के अनुसार दादा का कद बडा नहीं है, यहां रावण अपने संपूर्ण चरित्र में पुलस्‍त से भारी पडता है । अपने सभी पूर्वजनों से अलग स्‍वरूप का स्‍वामी रावण, आर्य और अनार्यों के बीच का एक महत्‍वपूर्ण सेतु था ।

वृहस्‍पति के पुत्र महर्षि कुशध्‍वज की पुत्री सौंदर्यवती पर रावण का मोहित होना व उसका कौमार्यभंग करने को उद्धत होना, नलकुबेर की प्रेयसी अप्‍सरा रंभा के साथ दुराचार करना यही दो कार्य रावण को खलनायक सिद्ध करने के लिए पौराणिक आख्‍यान बने बाद में रंभा का सीता के रूप में अवतरण व सीता का, (सूर्पनखा के नाक कान कटने की प्रतिशोधी ज्‍वाला के कारण) हरण नें रावण को महापातकी सिद्ध कर दिया । इन तीन धटनाओं के अतिरिक्‍त लाक्षणिक रूप से साक्षसी संस्‍कृति वश अत्‍याचार भले हुए हों किन्‍तु स्‍पष्‍टत: रावण नें ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे कि उसकी सामाजिक निंदा की जाए ।

ज्ञानी रावण के अस्तित्‍व का प्रमाण है कि हमारे पौराणिक ग्रंथों में कृष्‍ण यजुर्वेद में संग्रहित रावण की अधिकाधिक वेदोक्तियां आज तक वैदिक आर्यों को मान्‍य है, रावण ज्‍योतिष ग्रंथों एवं तात्रिक ग्रंथों के भी रचइता हैं, रावण कृत शिव ताण्‍डव स्‍तोत्र का सस्‍वर गायन पुरातन से आज तक लगातार हो रहा है । रावण मे कितना ही राक्षसत्व क्यों न हो, उसके गुणों को विस्मृत नहीं किया जा सकता। रावण एक अति बुद्धिमान ब्राह्मण तथा शंकर भगवान का बहुत बड़ा भक्त था। वह महा तेजस्वी, प्रतापी, पराक्रमी, रूपवान तथा विद्वान था। रावण के क्रूर और अनैतिक चारित्रिक उदाहरणों के अतिरिक्‍त उसके उजले पक्षों को भी यदि हम आज के दिन याद कर लेवें तो वर्तमान परिस्थितियों के लिए उचित होगा ।

सुशीला सेजवाला के शव्‍दों में -

रावण हूं मैं, कांपते थे तीनों लोक जिससे
पर आज का मानव निकला, 
चार हाथ आगे मुझसे ...  .
संजीव तिवारी


चित्र - thatshindi   एवं भास्‍कर से साभार 

इटैलिक व नीले रंग में लिखे गए वाक्‍यांश हिन्‍दी विकीपीडिया के हैं इस कारण हमने उनका लिंक हबना दिया है
(यह आलेख दैनिक छत्‍तीसगढ के 8 अक्‍टूबर'2008 के संपादकीय पेज क्र. 6 पर प्रकाशित हुआ है )

डॉ.रत्‍ना वर्मा की पत्रिका उदंती .com अंक 2, सितम्‍बर 2008 नेट में उपलब्‍ध

अंक 2, सितम्‍बर 2008

इस अंक में -

अनकही : ...पीने को एक बूंद भी नहीं


संस्मरण / उफनती कोसी को देख याद आई शिवनाथ नदी की वह बाढ़ - संजीव तिवारी

पर्यावरण/ सिक्के का दूसरा पहलू प्लास्टिक का कोई विकल्प है? - नीरज नैयर


बदलाव / स्वास्थ्य छत्तीसगढ़ के अनूठे कल्याणी क्लब - स्वप्ना मजूमदार

कला / अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समाज का हिस्सा है कलाकृति - संदीप राशिनकर

समाज / मैती आंदोलन जहां प्रेम का पेड़ लगाते हैं दूल्हा दुल्हन -प्रसून लतांत

रिश्ते / जैसे को तैसा वसीयत में ठेंगा - डॉ. रत्ना वर्मा

सपने में / बस्तर का सच यह केवल स्वप्न नहीं था - राजीव रंजन प्रसाद

आपके पत्र / इन बाक्स

उदंती.com का विमोचन

उत्पादन / फलों का सरताज हिमाचल का काला सोना - अशोक सरीन

कविता : जीवन का मतलब - बालकवि बैरागी

रंग बिरंगी दुनिया


रमन सरकार की कामयाबी पर विशेष पृष्ठ

दुर्ग में दुर्गोत्सव की धूम और उसकी जातीय चेतना

विनोद सा
रायपुर
और राजनांदगांव गणेशोत्सव मनाने के लिए प्रसिद्ध हैं तो दुर्ग में हर साल दुर्गोत्सव की धूम होती है। कहा नहीं जा सकता कि दुर्ग में दुर्गोत्सव को इतनी धूमधाम से मनाने की ललक कहां से पैदा हुई। आरंभ में यहां गुजरातियों द्वारा दुर्गा पूजा मनायी जाती थी। हिन्दी भवन में भी दुर्गा प्रतिमा रखी जाती थी। दुर्गा का पेंडाल रेलवे स्टेशन में दिखा करता था रेलवे के कुछ बंगाली बाबुओं के सौजन्य से। पर बाद में यह दुर्गा पूजा दुर्ग में बहुत तेजी से चलन में आया। और यह दुर्गा पूजा गुजराती या बंगला प्रभाव से भिन्न भी रहा। चाहे दुर्गा निर्माण की मूर्तिकला हो या पूजा स्थल इसके पेंडाल की सजावट हो या इसकी पूजा पद्धति हो यह पूरी तरह से अपनी मौलिकता और स्थानीयता बनाए हुए है। ऐसे लगता है कि दुर्ग में दुर्गा पूजा का जो चलन बढ़ा वह इस शहर से देवी के नाम का साम्य रहा। दुर्ग और दुर्गा नाम की समानता। यद्यपि एक वस्तु वाचक नाम है और दूसरा व्यक्ति वाचक। फिर दोनों के अर्थों में पर्याप्त भिन्नता है। फिर भी इस शब्दनाम का ध्वनिसाम्य कहीं दुर्ग वासियों के मनोविज्ञान को छूता रहा है और इसलिए दुर्गापूजा को यहां की जनता ने हाथोंहाथ ले लिया हो। आज भिलाई जैसे उत्सवधर्मी शहर के लोगों में भी दुर्ग के दुर्गा को देख लेने की ललक बरकरार रहती है।

दुर्ग आरंभ से ही एक जागृत शहर रहा है। शिक्षा, लोकसंस्कृति और राजनीति ये तीन ऐसे क्षेत्र हैं इस शहर के जिसमें यह न केवल छत्तीसगढ़ अंचल में बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी पहचान दर्ज कराता आया है। देश के समस्त हिन्दी भाषी राज्यों में दुर्ग पहला जिला था जिसे सम्पूर्ण साक्षरता अभियान के लिए चुना गया और जैसे भी हो इसे सम्पूर्ण साक्षर घोषित कर दिया गया। आपातकाल में इसने नसबन्दी करवाने में भी देश में अव्वल होने का कीर्तिमान बनाया था। लोकसंस्कृति में इस जिले का एक छत्र राज्य रहा है। तीजनबाई और देवदास इसके अंतर्राष्ट्रीय लोकनर्तक रहे हैं। `दाउ रामचंद देशमुख` के चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति ने छत्तीसगढ़ की लोककला के लिए लाइटहाउस का काम किया और उसके बाद तो जैसे लोकमंचों की बाढ़ आ गई। राजनीतिक चेतना में दुर्ग शहर हमेशा से पूरे अंचल के लिए पथ प्रदर्शक बना रहा। रायपुर के बाद एक यही शहर है जिसने देश को नामी मुख्यमंत्री, राज्यपाल, केन्द्रीय मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष दिए। सीपी एंड बरार राज्य के प्रथम विधानसभा अध्यक्ष दुर्ग के दाउ घनश्याम सिंह गुप्त रहे। अपनी राजनीतिक चेतना के बाद भी इसे इस नये राज्य का कोइ्रर् विशेष लाभ नहीं मिल पाया है। प्रशासन या उद्योग का कोई मुख्यालय यहां नहीं खोला गया है। इस मामले में यह रायपुर, बिलासपुर और जगदलपुर शहर से बहुत पीछे है।


दरअसल संस्कृति या राजनीति चाहे कुछ भी हो दुर्ग की अपनी जातीय चेतना काम करती है। यद्यपि इस शहर ने कोई आई ए एस अधिकारी पैदा नहीं किया (सिवा अशोक वाजपेयी के जिन्होंने दुर्ग में केवल जन्म लिया पर इस शहर से कोई ताल्लुक नहीं रखा) न ही यह शहर कोई्र वैज्ञानिक या बड़ा साहित्य मनीषी तैयार कर सका है। पर यहां नागरिक चेतना की मिसाल हरदम देखी जा सकती है। यह अपने अधिकारों के प्रति हमेशा सतर्क और जागृत रहने वाला शहर रहा है। इस शहर के आसपास भी चाहे जिस समुदाय के श्रमजीवी लोग रहे हैं उनके भीतर उनकी जातीय और सामाजिक चेतना काम करती है। इसलिए इस शहर की प्रस्तुतियां अपना अलग छाप छोड़ती हैं और समूचे छत्तीसगढ़ राज्य को अपनी ओर देखने के लिए बाध्य करती हैं। सिविलाइजेशन में यह शहर अग्रणी रहा है। इसलिए भी छत्तीसगढ़ अंचल में स्थायी रुप से बसने के लिए अनेक अधिकारियों और उद्योगपतियों का यह पसंदीदा शहर बन गया है। क्षेत्रफल और आबादी में औसत दर्जे का शहर होते हुए भी यह प्रशासन, चिकित्सा, शिक्षा, रेलवे, बस यातायात और परिवहन व्यवस्था की दृष्टि से महानगरों जैसा प्रभाव छोड़ता है। जबकि महानगरों जैसा आतंक और प्रदूषण यहां नहीं है।


दुर्ग ज्यादा आन्दोलनकारी शहर नहीं रहा है। यद्यपि स्वतंत्रता सेनानियों की एक बड़ी संख्या यहां रही है बाद में कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भी हुए हैं पर उनकी तासीर आक्रामक नहीं रही है। यह शहर हमेशा अपनी मांगों को अपने विवेकपूर्ण मतदान से चुने गए नेताओं के जरिए करवा लेता है। अपनी नागरिक संचेतना से स्थानीय प्रशासन पर दबाव बनाए रखने में कामयाब हो जाता है। इसे एक मायने में एक भाग्यशाली शहर भी माना जाता है जो बिना ज्यादा उठा पटक किए अपने लाभ और उपलब्धियों को प्राप्त कर लेता है।


दुर्ग की इस सामुदायिक चेतना को उसके संस्कृति कर्म में भी देखा जा सकता है और इसमें दुर्गा पूजा भी शामिल है। यहां गंजपारा और पद्मनाभपुर जैसे पूंजीपति इलाके हों या ढीमर पारा, बैगापारा, शिवपारा और मठपारा जैसे मजदूरों और श्रमजीवियों का इलाका हो। इन दो विपरीत धु्रवांत वाले क्षेत्रों में दुर्गापूजा की होड़ एक समान दिखलाई देती है। उनकी भव्यता में कहीं कोई कसर नहीं। जैसे पूंजीपतियों से होड़ लेने की ठान ली हो सर्वहारा वर्ग ने। विद्युत झालरों का बेहिसाब प्रदर्शन अगर पूंजीपति इलाके में है तो पेंडालों और मूर्तियों की कलात्मक प्रस्तुति सर्वहारा क्षेत्रों में है। यह विस्मित कर देने वाला है कि शहर में दुर्गा की श्रेष्ठ कलात्मक मूर्तियां ढीमर पारा और बैगापारा जैसे मोहल्लों में स्थापित हैं। जिसे दर्शक इस अचम्भे के साथ देखता रह जाता है कि इन पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों में कला की यह सुघड़ चेतना आयी कहॉ से? जबकि कला समीक्षकों ने बहुत पहले ही यह स्थापित कर दिया है कि कला का प्रस्फुटन तो श्रम सीकर वाले हाथों से होता आया है। अगर इन मूर्तियों को इस समुदाय के लोगों ने अपने हाथों से नहीं भी बनाया है तो भी मूर्ति को देखने परखने का वह सौन्दर्यबोध तो है जो पूंजीपतियों और उंची जातियों की तुलना में कहीं अधिक है। जहां आस्था का सवाल है वहां दुर्गापूजा पर्व में उनकी गहरी आस्था चमक दमक वाले श्रृंगारों से ओतप्रोत मूर्ति की तुलना में चंडी और शीतला माता जैसी आदिम संस्कारों से युक्त मूर्ति और मंदिरों के प्रति है। जहां जसगीत का अनवरत गायन जोरों पर है। यहां दुर्गा, दशहरा और उर्स पाक मनाने का जुनून इस कदर सवार है कि शहर के सभी स्टेडियमों में दशहरा मनाया जाता है। यह हास्यास्पद भी हो जाता है कि इन क्रीडांगनों में शहरवासियों का सबसे प्रिय खेल राम-रावण युद़्ध है।


रोजगार के अवसर यहां कम होने, रोजगार के नाम पर केवल भिलाई पर निर्भर रहने और छत्तीसगढ़ का अपना अलग राज्य बन जाने के बाद भी कोई विशेष तवज्जो न पाने वाला दुर्ग अपने पुराने दमखम पर अब भी सम्मोहन बनाए हुए है और यह आज भी अपनी आधुनिक सुख सुविधाओं के महल के भीतर अपने लोकजीवन का दुर्ग भी खड़े रखता है।


(इसके पूर्व भी मेरे आलेख इस ब्‍लाग पर प्रकाशित हुए हैं अब मैं इस आलेख को बतौर 'आरंभ' के सहयोगी ब्‍लाग लेखक के रूप में यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं , भविष्‍य में इस मायावी दुनियां में नियमित रहने का प्रयास करूंगा)

विनोद साव

मुक्तनगर, दुर्ग ४९१००१
मो. ९९०७१९६६२६

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

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