आरंभ Aarambha सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

मार्च, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

घनश्याम सिंह गुप्त के बहाने

घनश्याम सिंह गुप्त के अवदानों का अध्ययन करते हुए हम तत्कालीन परिस्थितियों में वर्चस्ववादी राजनेताओं की राजनैतिक चालों से भी परिचित होते रहे। जिसमें पंडित रविशंकर शुक्ल और पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र जैसे सिद्धस्त राजनीतिज्ञों के बीच सामंजस्य बिठाते हुए वे अपनी विद्वता व प्रतिभा के बल पर दायित्वों का निर्वहन कैसे करते रहे होंगे? घनश्याम सिंह गुप्त के लिए तदकालीन परिस्थितियां कितनी कठिन रही होगी ? यह हम उस समय के खाँटी राजनीतिज्ञों के द्वारा लोगों को हाशिये में ले जाने के जुबत के उदाहरणों से समझ सकते हैं। इसी तुष्‍टीकरण के चलते घनश्याम सिंह गुप्ता और ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर के नाम का प्रस्ताव मुख्यमंत्री के लिए बार-बार प्रस्तावित हुआ किंतु उन्हें हमेशा द्वितीयक पद प्रदान किया गया। उस समय के बड़े नेताओं में पं. रविशंकर शुक्ल की राजनैतिक कुशलता के बहुत से सुनी-सुनाई किस्से हैं। तथाकथित रूप से वे या उनके सिपहसालार रायपुर में अपने सामने परवाज भरने वालों का पर कतरने का यथासंभव प्रयत्न करते रहते थे। यह राजनीति का तकाजा था या सिद्धांत, यह हमें नहीं पता किंतु, ठाकुर प्यारेलाल सिंह सहित कांग

छत्तीसगढ़ के नवान्वेषित कतिपय विलक्षण मूर्ति-शिल्प

ज्ञान-प्रवाह, वाराणसी के तत्त्वावधान में मैं डा० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी (पूर्व निदेशक मथुरा तथा लखनऊ संग्रहालय) के साथ मिलकर एक शोध परियोजना ''शिल्प-सहस्रदल : डायरेक्टरी आफ यूनीक, रेयर ऐण्ड अनकामन ब्रह्मैनिकल स्कल्पचर्स'' पर विगत 2004-2005 से कार्य कर रहा हूं । त्रिखण्डी इस योजना के दो खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं और तृतीय खण्ड पर कार्य चल रहा है। प्रथम खण्ड में गणेश, स्कन्द और शिव तथा द्वितीय खण्ड में विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य, दिक्पाल, उपदेवता एवं देवपट्ट सम्बन्धी मूर्तियों का सचित्र संकलन है।  देवी-सम्बन्धी तृतीय खण्ड में मातृकाएँ, पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती तथा अन्य देवियों की असामान्य मूर्तियों का सचित्र संकलन रहेगा। उपर्युक्त शोध-परियोजना में हमने छत्तीसगढ़ के भी नवान्वेषित कतिपय विलक्षण मूर्ति-शिल्प सम्मिलित किये हैं। इस लघु आलेख में  उन्हीं मूर्तियों की विशेषताओं पर प्रकाश डालने का प्रयास है। मयूरारूढ़ स्कन्द - डीपाडीड डीपाडीह (सरगुजा) से प्राप्त और 7वीं - 8वीं शती ई. में निर्मित एक लम्बे फलक में अपने वाहन मयूर की पीठ पर स्कन्द को आँका गया है। मयूर की पीठ पर