विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
घनश्याम सिंह गुप्त के अवदानों का अध्ययन करते हुए हम तत्कालीन परिस्थितियों में वर्चस्ववादी राजनेताओं की राजनैतिक चालों से भी परिचित होते रहे। जिसमें पंडित रविशंकर शुक्ल और पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र जैसे सिद्धस्त राजनीतिज्ञों के बीच सामंजस्य बिठाते हुए वे अपनी विद्वता व प्रतिभा के बल पर दायित्वों का निर्वहन कैसे करते रहे होंगे? घनश्याम सिंह गुप्त के लिए तदकालीन परिस्थितियां कितनी कठिन रही होगी ? यह हम उस समय के खाँटी राजनीतिज्ञों के द्वारा लोगों को हाशिये में ले जाने के जुबत के उदाहरणों से समझ सकते हैं। इसी तुष्टीकरण के चलते घनश्याम सिंह गुप्ता और ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर के नाम का प्रस्ताव मुख्यमंत्री के लिए बार-बार प्रस्तावित हुआ किंतु उन्हें हमेशा द्वितीयक पद प्रदान किया गया। उस समय के बड़े नेताओं में पं. रविशंकर शुक्ल की राजनैतिक कुशलता के बहुत से सुनी-सुनाई किस्से हैं। तथाकथित रूप से वे या उनके सिपहसालार रायपुर में अपने सामने परवाज भरने वालों का पर कतरने का यथासंभव प्रयत्न करते रहते थे। यह राजनीति का तकाजा था या सिद्धांत, यह हमें नहीं पता किंतु, ठाकुर प्यारेलाल सिंह सहित कांग