भाषा का प्रचार : प्रचार की भाषा

इसाई समुदाय सदियों से से क्षेत्रीय भाषाओं में अपने ईश्वर का संदेश प्रसारित प्रचारित करते रहा है। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है कि छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी के दस्तावेजीकरण के लिए आरंभिक रूप से जो प्रयास हुए वह मिशनरीज लोगों के द्वारा ही किए गए। चाहे वह छत्तीसगढ़ी भाषा के व्याकरण की बात हो या छत्तीसगढ़ी के शब्दकोश के प्रकाशन की बात हो या संग्रहण की बात हो। आज भी इन्होंने क्षेत्रीय भाषाओँ को अपने प्रचार का माध्यम बनाया हुआ है। नीचे दिए गए वेब साईट में कुछ वीडियो है जिसे देखें। यहाँ प्रचार उद्बोधन को इन्होंने छत्तीसगढ़ी में अनुवाद कर प्रस्तुत किया है। भाषा का प्रवाह, प्रस्तुतीकरण के साथ ही स्तरीय है जो शहरी छत्तीसगढ़ी का रूप है। निश्चित तौर पर इसका भावानुवाद किसी छत्तीसगढ़ी के जानकर ने (बिना डमडमा बजाये) किया होगा। यहाँ भाषा के प्रति इनका लगाव और मातृभाषी लोगों का अपनी भाषा के प्रति लगाव (प्रेम) में अंतर जरूर होगा। अपने ईश्वर और धर्म के प्रचार का इनका यह निजी मामला है किन्तु भाषा के प्रति इनकी रूचि स्तुत्य है। फेसबुक-व्हॉट्स एप के ज़माने में हम छत्तीसगढ़ी के प्रति अपने समर्पण और भक्ति का जम कर डमडमा बजाते है, प्रतिफल की अपेक्षा रखते हैं। वैसेइच समय में विश्व पटल पर छत्तीसगढ़ी को 'कलेचुप' झंकृत होते देख कर अच्छा लगा। © संजीव तिवारी https://tv.joycemeyer.org/chhattisgarhi/#

आधुनिकता बोध या पतनशील लोक


एक जमाना था जब मोटियारी टूरी-टूरा मिथलेश साहू और ममता चंद्राकर के गाये ' मोर चढ़ती जवानी के दिन हो चिरईया ल के गोंटी मारंव' गाते थे। गांव के समरस से जब उकता जाते थे तो संत मसीदास के लिखे और शेख हुसैन के गाये 'गजब दिन होगे राजा तोर संग म नई देखेंव खल्‍लारी मेला ओ' भी गाने लगते थे। अइसई दिनों में टूरा लोग अपनी प्रेमिका को सइकिल म चढा के मेला-ठेला ले भी जाते थे। मेला-मड़ई में अकेली मोटियारी अनुराग ठाकुर के पान ठेला वाला के घूर-घूर निहारई को गुनगुनाती भी थी। उन दिनों अक्‍सर प्रेम म पड़ी टूरी लक्ष्‍मण मस्‍तूरिया के लिखे और संगीता चौबे के गाये गीत 'काबर समाये मोर बैरी नैना मा' गाना पसंद करती थी। टूरा लोग भी जादा से जादा पंचराम मिर्झा और कुलवंतिन बाई या फिर बैतल राम साहू के कुछ कड़कते-फड़कते गीत गाकर मर्यादा की सीमा बरकरार रखने का उदीम करते रहते थे।

अब मीर अली मीर के 'नंदा जाही का रे' का जमाना है उनकी इस जायज चिंता के साथ ही लोक गायक और कवि छत्‍तीसगढ़ के आज को लिख रहे हैं। लोक गायक भी समय को गीतों में पिरो कर बाजार में परोस रहे हैं। समाज का बाजार है या बाजार का समाज कुछ समझ में नहीं आ रहा है। अभी बाजार से गुजरते हुए सरलग दो छत्‍तीसगढ़ी गीत सुनकर आगे बढ़ा हूं, झका-झक अंदाज में आधुनिकता बोध। गीत के शब्‍दों और भावों को पकड़ने का उदीम कर रहा हूं, एक गीत में टूरा कह रहा है टूरी से कि मैं तुम्‍हें फोन करूंगा एयरटेल नोकिया मोबाईल से। नोकिया को बाजार से गए जादा दिन नहीं हुए है यानी समय वर्तमान ही है। टूरा यह भी कह रहा है कि मन भर के मजा करेंगें पलंग या खटिये में, हीरो होंडा म बैठ के नंदन वन जाने को तैयार हैं फिर रात के बीत जाने तक मजा उड़ाने का वादा भी है। और भी बहुत कुछ खुल कर है उस गीत में, सबके लिए टूरी की स्‍वीकारोक्ति है वह दुहरा रही है। दूसरे गीत में फुल्‍ल आधुनिकता बोध यानी सुन्‍दरानी इफेक्‍ट है मुखड़े में ही टूरा टूरी से कह रहा है तेरी गोरी बदन को चूम-चूम के चांटूंगा। टूरी भी मस्तियाते हुए कह रही है मेरी गोरी बदन को चूम-चूम के चांट लेना रे। ये पतनशील गीत अगले पचास साल बाद सर्च और डाउनलोड किए जायेंगें नंदाये लोक गीतों की तरह। बहरहाल.. मैं आगे बढ़ गया हूं मुझे नारी अस्मिता की कुछ किताबें खरीदनी है।
- संजीव तिवारी

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